क्यूँ होता है ऐसा?
क्यूँ होता है ऐसा कि पराये अपने हो जाते हैं और अपने पराये
कि चुक जाती है प्रीति अनायास ही किसी मीत की और
अलगाते हैं रिश्ते अकारण ही बिना बात के
कि चुक जाती है प्रीति अनायास ही किसी मीत की और
अलगाते हैं रिश्ते अकारण ही बिना बात के
विस्मृत हो जाते हैं वे सभी वादे
किये गए थे जो कभी भावों के आगोश में
किये गए थे जो कभी भावों के आगोश में
क्यूँ होता है
ऐसा कि अनायास ही कोई मिलता है और लगता है
जैसे हो उससे जन्म जन्मान्तर का कोई रिश्ता
मगर वह भी बिखर जाता है बिना परवान चढ़े
यह अल्पकालिक जीवन भी कैसे कैसे श्वेत श्याम
और इंद्रधनुषी सपने दिखाता है
एक दिन सहसा ये सारे सपने बेआवाज टूटते हैं -
सहसा आ धमकता है आख़िरी दिन का फरमान
ऐसा क्यूँ होता है?
जैसे हो उससे जन्म जन्मान्तर का कोई रिश्ता
मगर वह भी बिखर जाता है बिना परवान चढ़े
यह अल्पकालिक जीवन भी कैसे कैसे श्वेत श्याम
और इंद्रधनुषी सपने दिखाता है
एक दिन सहसा ये सारे सपने बेआवाज टूटते हैं -
सहसा आ धमकता है आख़िरी दिन का फरमान
ऐसा क्यूँ होता है?
संभवतः जीवन को गतिशील रखने के लिए .... :) पर होता यही है अक्सर
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन नाख़ून और रिश्ते - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंजो दिखता है जरुरी नहीं कि वही होता भी है ये अलग बात है कि अपनी नजर ही बेबफाई पर उतर आती है..
जवाब देंहटाएंशाश्वत तो केवल प्रभु हैं, बाकी सब नाशवंत। सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआप तो भिज्ञ होंगे ही इस बात से कि लोग शोधरत हैं टीलोमर की सतत अक्षुण्णता के लिए. अमरता न मिले लेकिन कम से उम्र दुगुनी हो जाए तो जीवन में आनंद के पल भी दुगुने होंगे ( या उसकी संभावना बढ़ेगी) :) कम से कम मैं तो इस आशा की रखता हूँ कि जल्दी की यह संभव होगा.
जवाब देंहटाएंहोता तो है..पर उत्तरदायी भी कहीं ना कहीं हम ही होते हैं...
जवाब देंहटाएंपरिवर्त्तन प्रकृति की प्रकृति है और प्रगति का परिचायक भी । वह सर्वदा नित - नूतन है और वही हमारा आदर्श है । अरविन्द जी ! आप विचार कीजिए - आप मॉ को बहुत प्यार करते हैं न ? पर सोचिए कि यदि वही मॉ 110 बरस की आयु में बिस्तर पर पडी है , दर्द से कराह रही है , तो आपको कैसा लगेगा ? क्या आप यह नहीं चाहेंगे कि उनको मुक्ति मिले ? आखिर हम भी तो भगवान से प्रार्थना करते हैं न ! कि हे ईश्वर जब तक हाथ - पैर चल रहे हैं तभी तक जीवित रखना , हम कभी किसी पर बोझ न बनें । अनेक लोग मशीन के भरोसे , बरसों अपने स्वजनों को रख लेते हैं , यह बहुत ही दारुण स्थिति है , यह उचित नहीं है , ऐसा करना उन्हें , एक सुखद अवसर से वञ्चित करना मात्र है । आप पण्डित हैं, आप तो जानते हैं कि - " अहं ब्रह्मास्मि ।"
जवाब देंहटाएंजीवन में नित - नवीनता बनी रहे , इसके लिए तपस्या करनी पडती है । यदि आप खाने के शौक़ीन हैं तो दो - चार दिन मात्र फल खा- कर रहें , फिर भोजन करें , देखिए कितना स्वादिष्ट लगता है । बस आप यह समझिए कि आप अपनी समस्याओं से बहुत बडे हैं । मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है । वस्तुतः हम ही कई बार , अपनी इच्छा - आकांक्षा को बीच में इसलिए छोड कर आ जाते हैं कि हम उसे उस कीमत पर नहीं चाहते , जैसे कोई फल बेचने वाला , एक केले को 50 रुपये में दे रहा हो तो हम सोचते हैं कि हटाओ केला खाना इतना ज़रूरी नही है और इस क़ीमत पर तो कतई नहीं । हर मनुष्य को अपना जीवन अपने ढँग से जीने की स्वतंत्रता है । हम बहुत समर्थ हैं पर हम अपनी समर्थता से अनभिज्ञ हैं , जैसे हम अपनी ऑख से सब कुछ देखते हैं पर अपनी ऑख को नहीं देख पाते , इसके लिए हमें दर्पण की ज़रूरत होती है । शास्त्र और सत्संगति ही दर्पण है । इसे मेरा स्वगत- कथन समझें , मैं किसी को भी सिखाने लायक नहीं हूँ ।
जवाब देंहटाएंबदलाव आवश्यक भी तो है …….
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं !
:)
जवाब देंहटाएंजब इतना बड़का संसार
तत्वों के कॉम्बिनेशन से
एक्सिदेंटली बन सकता है,
जीवन संवर बिगड़ सकता है,
पीढियाँ बीत सकती हैं,
नदियाँ रीत सकती हैं,
आकाशगंगाएं उभर सकती हैं
धरतियां सँवर सकती हैं
बारिशों की छुवन से
बहारों के आगमन से
फूलों की कम्पन से
सूरज की तपन से
भीगती धरा की सतहों पर
अन्न उग जाता मिटटी के कण से
तब क्यों नहीं यह हो
जो आपकी कविता कह रही
संभावनाओं से सृजा संसार
संभावनाओं से मिले साथी
संभावनाओं की गलियों में
क्यों न खो सकते कहीं ?
:)
प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
हटाएंइतना कुछ होता रहा प्राकृतिक रूप में तो भावनाओं के ज्वार भाटे भी तो !
हटाएंअच्छी लगी कविता की कविता भी !
:)
हटाएंइसके उत्तर की तलाश सभी को है..और जीवन बीता जा रहा है !
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