शुक्रवार, 30 मार्च 2012

चिर यौवन और अमरता की हमारी ललक(पुराण कथाओं में झलकता है भविष्य-2)


धरती के जन्मे को एक न एक दिन मृत्यु का वरण करना ही है-इसलिए ही पृथ्वी को मृत्युलोक कहा गया है .मगर मृत्यु चाहता कौन है? कहते हैं जनमत मरत दुसह दुःख होई ...और यह भी कि मनुष्य की लोकेष्णायें ,चाहनायें उसे जीते रहने को प्रेरित करती रहती हैं . ग़ालिब साहब  देखिये क्या कह गए हैं -.गो हाथ को जुम्बिश नहींआँखों में तो दम हैरहने दो अभी सागरों-मीना मेरे आगे ...गरज यह कि यह जीने की तमन्ना आदमी को ठीक से मरने भी नहीं देती ...वह अमरता का सपना देखता रहता है - वह चिर यौवन का आनंद उठाना चाहता है .यह आज की नहीं हमारी आदिम सोच है . चिर यौवन और अमरता की हमारी ललक कई पुराण कहानियों में दिखाई देती है। अब समुद्र मंथन को ही लें- यहां से भी चौदह रत्नों में से एक अमृत कलश था जिसे देवताओं ने पिया और वे अजर-अमर हो गये। च्यवन ऋषि ने ऐसा माजूम बनाया और खाया कि वे फिर से युवा बन गये। संजीवनी बूटी की कथा भी अमरता से जुड़ी है। कहते हैं कि संजीवनी विद्या असुरों के गुरु शुक्राचार्य के पास थी... देवताओं ने एक कुचाल रच कर अपने गुरु बृहस्पति के पुत्र कच को यह विद्या सीखने शुक्राचार्य के पास भेजा।

अब कच असुरों के गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रहकर संजीवनी विद्या सीखने लगा। मगर जल्दी ही असुर आश्रमवासियों को यह जानकारी प्राप्त हो गई और वह सब मिलकर कच का वध करके उसके शरीर के टुकड़े वन में ही विचरते एक भेड़िए को खिला दिए। शुक्राचार्य की बेटी देवयानी कच का बहुत ध्यान रखती थी। घर से गौए चराने के लिए कच के शाम बीत जाने के बाद भी न लौटने पर देवयानी को चिंता हुई। उसने पिता से अपनी चिंता व्यक्त की। शुक्राचार्य ने ध्यानस्थ होकर यह जान लिया गया कि राक्षसों ने कच को मारकर उसके अंगों को भेड़ियों को खिला दिया है। शुक्राचार्य ने उसी संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और कच जीवित हो उठा। मगर कुछ ही दिन में फिर असुरों ने मिलकर कच को मार डाला। यही नहीं मारने के बाद कच को जलाया गया और उसकी राख असुर गुरु शुक्राचार्य की मदिरा में ही मिला दी गई। अब बड़ी मुश्किल! कच का पुनर्जीवित होना अब दुष्कर कार्य था। देवयानी ने कहा कि वह बिना कच के जी नहीं सकती। शुक्राचार्य ने कच को पुकारा। भयभीत कच ने उनके पेट से ही अपनी दशा बताई। तब जाकर शुक्राचार्य ने कच को पूरी संजीवनी विद्या बताई जिसे पेट में ही सीखकर कच बाहर आ गया और फिर उसने उसी विद्या से शुक्राचार्य को जिला दिया।

अमरता की यह चाह आज भी मनुष्य को वैसे ही सालती रहती है। वैज्ञानिक आज भी प्रयोगशालाओं में ऐसे अनेक प्रयोगों में जुटे हैं जिनमें या तो मनुष्य की उम्र घटा देने की युक्ति है या फिर उसे अमरता के पास तक पहुंचा देने की ज़िद है। असाध्य रोगों से जूझ रहे मरीजों को क्रायोनिक कैप्सूलों में क़ैद कर लंबे समय तक उन्हें सस्पेंडेड एनिमेशन में रखने की जुगत तो जैसे बस कुछ वर्षों में ही सुलभ हो जाएगी। जब असाध्य रोगों का इलाज ढूंढ लिया जाएगा तब इन जिंदा लाशों को कैप्सूलों से आज़ाद कर उन्हें नया जीवन अदा कर दिया जाएगा। एक समुद्री जीव जेलीफिश की कोशिका का अध्ययन जारी है जो अमरता का वरदान पाए हुए है। जिस दिन उसकी कार्य पद्धति को वैज्ञानिक समझ जाएगें अमरता की कुंजी हमारे हाथ होगी। कुछ शोधार्थी गुणसूत्रों पर काम कर रहे हैं जिसमें एक हिस्सा टीलोमीयर उम्र बढ़ने के साथ ही घिसता जाता है। प्रयास यह है कि इस हिस्से को घिसने न दिया जाए और मनुष्य को चिर युवा बने रहने दिया जाए।

पुराणों की हमारी सोच आज विज्ञान की नई खोजों को दिशा दे रही है।

पुनश्च: मित्रों अब क्वचिदन्यतोपि की व्याप्ति नवभारत टाइम्स आनलाईन पर भी है!   

मंगलवार, 27 मार्च 2012

पुराण कथाओं में झलकता है भविष्य(1)-मन से चालित विमान सौभ!

आज से यह नई श्रृंखला. बीच बीच में दुनियावी  बातें और लीला भी चलती रहेगी . अक्सर हम लोगों को कहते सुनते हैं कि यह नई खोज यह नई जुगत तो हमारे यहाँ वेदकाल से ही रही है .लोग विमानों पर घूमते घामते थे ,लड़ाईयों में स्वचालित आयुधों का इस्तेमाल करते थे ,पल भर में एक जगहं से दूसरी जगहं की यात्राएं कर लेते थे ....ये पश्चिम वाले जो आज खोज रहे हैं वह तो हमारे यहाँ हजारो साल पहले से ही था ...मेरा भी यही मानना है मगर सोच का अंतर बस यही है कि ये चीजें बस लोगों की कल्पनाओं में ही विद्यमान थीं ...इनका कोई भौतिक वजूद नहीं था ..क्योकि उन दिनों आज जैसी प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी ....अब पत्थर युग में प्रौद्योगिकी के नाम  पर बस विविध उपयोगों हेतु तराशे पत्थर ही तो थे ....तब नैनो टेक्नोलोजी थोड़े ही थी ...मगर हाँ ,सोच के मामले में भारतीयों की कोई सानी नहीं थी ..भले ही वह एक अरण्य सभ्यता थी मगर हमारे पुरखे ,ऋषि गण अपनी सोच और कल्पनाओं के मामले में बहुत आगे थे ..वे बीन  बीन कर दूर की कौडियाँ लाकर सहेज रहे थे  ताकि भविष्य के उनके वंशधर उन कल्पनाओं का सहारा ले कोई चमत्कार कर सकें ...और आज सचमुच हमारे पास वह उपयुक्त प्रौद्योगिकी है जो अगर पुरखों की कल्पनाओं से संयुक्त हो जाय तो हमारे सामने एक सर्वथा अनोखी दुनियाँ,एक आश्चर्यलोक उपस्थित हो जाए -वैसा ही जैसा की विज्ञान कथाओं में वर्णित है ...इसलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारी पुराकथाओं और आज की विज्ञान कथाओं में कई साम्य हैं ...यह एक लंबा और विषद विमर्श है आईये तब तक आपको हम एक कथा सुनाएँ ...
सौभ!एक परिकल्पना!
शिशुपाल की याद तो आपको होगी ही ...अरे वही वाचाल शिशुपाल जिसका वध कृष्ण ने किया था ...उसी शिशुपाल का एक मित्र था शाल्व ...उसने एक बार प्रतिज्ञा की थी कि वह धरती से यदुवंशियों का नाश कर देगा ..अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने के लिहाज से उसने भगवान् शंकर को प्रसन्न  करने के लिए घोर तप किया.. भोले भंडारी प्रसन्न हो गए ..वर मांगने को कहा ..शाल्व ने  शंकर से एक ऐसे विमान की मांग की जो अजेय हो और जो मन द्वारा नियंत्रित होता हो यानी मन से संचालित होता हो ...एवमस्तु! शंकर ने कहा और सौभ नामक विमान उसके हवाले कर दिया ..जिसे कुशल शिल्पी मय नामक दानव ने तैयार किया था ..यह एक मायावी विमान था ...जो अदृश्य भी हो सकता था और अँधेरे में केवल शाल्व को दिखता था इसी विमान में बैठ कर उसने यदुवंशियों से भयंकर युद्ध छेड़ दिया ....द्वारिकावासी घबरा उठे ...श्रीकृष्ण थे नहीं, वे युधिष्ठिर के साथ राजसूय यज्ञ में शामिल होने के लिए इन्द्रप्रस्थ आये हुए थे ...अब शाल्व से भिड़ने की जिम्मेदारी प्रद्युम्न पर थी ...भयानक युद्ध हुआ जो २७ दिनों तक चलता रहा ...सौभ जैसे मन चालित विमान के चलते शाल्व को हराना मुश्किल था ...आखिर कृष्ण के लौटने पर सौभ विमान उनके युद्ध कौशल के आगे विनष्ट हो गया और शाल्व मारा गया ....

अब देखिये आज मन के सहारे मशीनों का संचालन संभव  होता दिखायी दे रहा है ...आप विश्वविख्यात टाईम पत्रिका की यह रिपोर्ट पढ़िए ..जिसमें मन की बीटा तरंगों के संकेन्द्रण और एक जुगत 'द बाडी वेव' के सहारे कम्प्यूटर पर कमांड देना संभव  हो गया है ....ओंटारियो(अमेरिका ) की  पावर जेनेरेशन न्यूक्लियर प्लांट के कई वाल्वों को मात्र मन की बीटा किरणों के सहारे खोलने की करामात वहां के एक प्रबन्धक ने कर दिखायी ....इन बीटा तरंगों को कम्यूटर तक ट्रांसमिट करने का काम आई पाड सरीखी एक जुगत करती है जिसे कलाई में बान्ध दिया जाता है ...इस प्रविधि के और विकसित होने पर घर बैठे मन के कमान्ड से ही  कई कामों को अंजाम दिया जा सकेगा ..चाहे वह आफिस से घर के काम काज हों ..या युद्ध के मैदान में बमों का प्रहार -बस सोच भर लीजिये काम पूरा ...

अब कोई यह कहे कि अरे यह जुगत तो हमारे यहाँ पहले से ही थी ...सौभ विमान नहीं था? आपकी क्या प्रतिक्रया  होगी तब ? 

शनिवार, 24 मार्च 2012

चिट्ठाकार चर्चा की नीरवता को तोड़तीं अमृता तन्मय!

बहुत दिन बीते चिट्ठाकार चर्चा में  किसी सुधी  चिट्ठाकार की चर्चा नहीं हो पाई ..एक नीरवता सी छाई रही है यहाँ...यह नीरवता अकारण  नहीं है ...एक तो शायद वह शुरुआती उमंग रोमांच नहीं रहा ब्लागिंग का -अर्थशास्त्र के ला आफ डिमनिशिंग रिटर्न की भांति इस विधा की अब वह शुरुआती चाहना नहीं रही और कुछ इस  टैब्बू से मैं आशंकित रहा जिसमें एक मोहतरमा लागर  ने सरे आम मुझे यह कह डाला  था कि मैं जिसे भी चिट्ठाकार चर्चा में शामिल करता हूँ उससे मेरे सम्बन्ध ख़राब हो जाते हैं -मुझे भी हैरत हुयी जब मैंने सिंहावलोकन में आंशिक रूप से इस बात को सच पाया . मैं इतना ही कहूँगा कि मानव जीवन ,भावनाएं और व्यवहार बहुआयामी और बहुत जटिल हैं ...अब किसी की प्रोफाईल को सम्मिलित करने का मतलब यह भी नहीं कि उसके साथ मेरा कोई सप्तपदी का अनुबंध हो गया और मैं आजीवन उससे बड़ा ही उदारतापूर्ण, सहिष्णु सम्बन्ध बनाए ही रखूँ ...और सारी बात का ठीकरा मेरे ही सर पर फोड़ दिया जाय यह भी कहाँ का न्याय है ....दूजे यह बात भी है कि कुछ ऐसे भी मित्रगण रहे हैं जिनसे मेरे टाप के और गहन सम्बन्ध रहे मगर उन्हें मैं अन्यान्य कारणों से अपने इस प्रिय स्तम्भ में नहीं ले पाया हूँ -कुछ तो ब्लागजगत को भी छोड़ चुके हैं और इस धरा पर कहाँ हैं अब यह भी नहीं मालूम -गुमनामी की अंधियारे में खो गए ..और मुझे बच्चन जी की यह सीख याद कराते रहते हैं,जो बीत गयी से बात गयी ...और नीड़ का  निर्माण फिर फिर .....ओह प्रस्तावना इत्ती लम्बी क्यों हो रही है ..लाजिमी है इतना दिन का अंतराल रहा है जो ...मगर आज उस अंतराल की पूरी भरपाई करने ब्लागजगत की एक खालिस कवयित्री आयी हैं ....अमृता तन्मय....

मगर किंचित संकोच भी है कि चिट्ठाचर्चा में इस चिट्ठा -कवयित्री को शामिल करने की सहमति/अनुमति उनसे नहीं ले पाया ....क्योकि उनसे संपर्क का कोई सूत्र नहीं मिला ..उनका ब्लॉगर  परिचय पृष्ठ केवल उनका नाम बताता है और वह भी शायद उनका काव्य नाम है ,वास्तविक नहीं ..फिर उनका जेंडर फीमेल बताता  है और लोकेशन पटना, इण्डिया बताता है ...आशा है ये विवरण सही हैं ...उन्हें चिट्ठाकार चर्चा  में लेने का एक  गूढार्थ भी है -अब चूंकि उनसे कोई खतो किताबत,चर्चा परिचर्चा नहीं है इसलिए सम्बन्ध खराब होने की संभावना भी नहीं है ...और यह भी कि इस तरह मेरे इस स्तम्भ से जुडा टैब्बू ख़त्म हो जाय सो इस कवयित्री का यहाँ शामिल होना  एक शुभकारी टोटका -अनुष्ठान भी है ....

मेरी हे कवयित्री कविता आपने पढी होगी ..उससे दीगर अगर कुछ कवयित्रियाँ यहाँ है तो उनमें एक अमृता तन्मय भी है ...इनकी कविताओं में मैंने श्रृंगार  वियोग से अलग का फ्लेवर पाया है और वह इनके काव्यकर्म को एक पृथक पहचान देता है -आध्यात्मिक भाव का संस्पर्श  ...और प्रकृति के कई बिम्बों को लेकर भावाभिव्यक्ति! उनकी यह ताजी कविता, बस  कोई   पढ़ते ही मन में सहसा ही कौंधा कि क्यों न मैं इस काव्य कर्म प्रवीण कवयित्री का सादर आह्वान यहाँ अपने इस लम्बे समय से नीरवता ओढ़े स्तम्भ में करूं.. आलोच्य कविता में एक बहुव्यापी रिक्तता की ओर कविमन संकेत करता है -मतलब कहीं न कहीं कोई, कुछ सूक्ष्म सी  अपूर्णता है जो सम्पूर्णता के, समुच्चय के सुख की चरमता को हठात रोके हुए हैं  ..अगर वह सूक्ष्म अपूर्णता पूरी हो जाय तो बस बात ही बन जाय ..यह एक अकेली कविता ही कवयित्री के काव्य कर्म को  एक समादृत स्थान दिलाने में समर्थ है -इसमें भाव प्रवणता तो है ही मगर शिल्प और साहत्यिक बोध के आधार पर भी यह एक अद्भुत और लम्बे समय तक याद रखी जाने वाली कविता है .....

मेरे पूर्व के चिट्ठाकार चर्चा में व्यक्तित्व निरूपण को एक अनिवार्य घटक के रूप में लिया जाता रहा है ..मैंने स्वीकार किया है कि चिट्ठाकार चर्चा की अभ्यर्थता में मात्र कृतित्व ही नहीं व्यक्तित्व का  समावेश मेरे लिए अपरिहार्य रहा है ...मगर आज की चिट्ठाकार चर्चा इस अर्थ में भी अपवाद है ..मुझे कवयित्री के व्यक्तित्व का कुछ अता पता नहीं ...मात्र किसी के रचना कर्म से उसके व्यक्तित्व का निरूपण एक जोखिम भरा  काम है और ऐसा कोई जोखिम उठाने का कोई मतलब भी नहीं ...एक आशंका  भी रहती है कि महान कवि कवयित्रियों में कृतित्व और व्यक्तित्व का साम्य प्रायः  नहीं पाया गया है ....और ऐसी कोई प्रत्याशा भी शायद अनौचित्यपूर्ण है ....वो देशी कहावत है न -आम खाने से मतलब होना चाहिए आम के  पेड़ से नहीं!

अमृता तन्मय को मैंने चिट्ठा कवि लिखा है -मतलब वे ब्लागजगत में और शायद  अन्यत्र भी किसी अन्य विधा में योगदान नहीं कर रहीं ,यहाँ  तक कि अपने काव्य चिट्ठे पर आयी टिप्पणियों का जवाब भी  नहीं देती..महज कवितायें ही लिखती हैं.. यही उनका मुख्य व्यसन /टशन है . और हाँ वे क्वचिदन्यतोपि की नियमित पाठिका हैं ..और इसलिए भी मेरी कृतज्ञता आखिर उनके प्रति क्यों न हो ....

अन्य ब्लागों पर भी अमृता की  सार्थक अभिव्यक्तिपूर्ण टिप्पणियाँ देखने को मिलती रहती हैं ...वे एक सजग पाठिका भी हैं ..केवल आत्मकेंद्रित, आत्म मुग्धा ब्लॉगर ही नहीं ....मैं उन्हें उदीयमान कवयित्री कहने से हिचक रहा हूँ क्योकि मेरी दृष्टि में वे काव्य कर्म के उस  मुकाम पर पहुँच गयी हैं जहां किसी को महज उदीयमान कहना उचित नहीं .....वे लम्बे समय से ब्लागजगत में अविकल साहित्य सेवा कर रही हैं और आपमें से अधिकाँश उनके  काव्य लालित्य से परिचित भी होंगे ....मैं अमृता की कई कवितायें आपको  पढाना चाहता हूँ मगर उन्होंने अपने ब्लॉग पर ताला जड़ रखा है -मैं कापी पेस्ट नहीं कर  पा रहा हूँ ...मगर सर्दियों में उनकी लिखी  एक और कविता  पढने की जोरदार सिफारिश करते हुए इस संभावनाशील कवयित्री के काव्य कर्म के आस्वादन  का आह्वान करता हूँ ....
शुभकामनाएं अमृता!  



गुरुवार, 22 मार्च 2012

एक फेसबुकिया परिचर्चा

इन दिनों एक दुर्लभ किस्म की आजादी का लाभ उठा रहा हूँ....जो शादीशुदा लोगों के लिए वरदान है मगर प्रत्यक्ष नहीं छुपा हुआ वरदान ...पत्नी मायके गयी हुयी हैं ....पिछली पोस्ट पर इस आजादी की  उद्घोषणा कर चुका हूँ ...तब से बनारसी गंगा का  लाखो टन पानी राजघाट से आगे निकल गया है ...और अब आजादी का समापन भी नज़दीक आन पहुंचा है ....आम दुनियावी शिष्टाचार में गृहिणी के घर से लम्बे समय तक बाहर रहने पर लोग बाग़ सबसे पहले यही पूछ लेते हैं कि भई खाना  पानी कैसे हो रहा है ..जैसे हम कोई ढोर गंवार हैं जिसे सानी पानी चोकर भूसा कोई और देगा तभी जिन्दा रहेंगे  -हम खूंटे में बंधे कोई जनावर तो हैं नहीं .....यह बात भी आपत्तिजनक है कि लोग अर्धांगिनी को केवल खाना बनाने की अपरिहार्यता के रूप में देखते हैं -बस जैसे पत्नी का केवल  यही एक काम  हो ..भारतीय सोच समाज बदलने से रहा ....

मुझे पता है कि कुछ मित्र मन में सोच रहे होंगे कि मैं फिर वही पकाऊ विषय लेकर बैठ गया ...भैया अगर भोगा हुआ यथार्थ ही असली साहित्य का स्रोत  है तो मुझे साहित्यिक सेवा से काहें रोक रहे हैं ..? इन दिनों अपने खालिस अनुभवों को आपसे साझा कर मुझे कुछ तो साहित्यिक अवदान का पुण्य लेने दें :) अब बात लम्बी न खींच कर इसी विषय पर  फेसबुक परिचर्चा का उल्लेख कर दूं जिसे मैंने मित्रों के बीच आयोजित किया था और ढेरो छुट्टा विचार प्राप्त हुए थे....विषय था - "पत्नी का मायके में रहना पति के लिए छुपा हुआ वरदान है"... गिरिजेश भोजपुरिया  ने विषय देखते ही एक लिंक पकड़ा दिया और परिचर्चा से फारिग हो लिए ....ढेर सारे मित्रों ने बड़े उर्वर विचार रखे ....मजे की बात यह कि जिन्होंने सबसे गूढ़ और विस्तृत विचार रखे वे खुद शादी शुदा नहीं हैं -मैंने पूछा प्रभु बिना सेब का स्वाद चखे इतना विषद और सुदीर्घ अनुभव आपको कैसे हुआ तो उन्होंने बड़े फिलासिफियाना अंदाज में जवाबा दिया कि अंतर्बोध और अंतर्ज्ञान भी कुछ चीज होती है ...मुझे अंतर्बोध पर व्याख्यान नहीं सुनना था इसलिए उनके द्वारा उछाले गए इस विषय को हठात परे धकेलते हुए मूल परिचर्चा के विषय पर ही लोगों को फोकस करने की गुजारिश की ....आप भी कुछ अनमोल विचार ग्रहण करें ...सबसे पहले तो उन्ही मित्र महानुभाव के विचार जो अभी तक कुंवारे हैं -गदह पचीसी के आस पास हैं ..आप इनके विचार पढ़कर  भारत की युवा शक्ति  से वाकिफ हो सकते हैं. नाम है ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ..कृतित्व की बानगी यहाँ मिल ही जायेगी व्यक्तित्व से उनके फेसबुक प्रोफाईल पर जाकर परिचय प्राप्त कर सकते हैं -
"वैसे ये बात कभी पति पत्नी के सामने स्वीकार नहीं कर सकता की पत्नी का घर जाना वरदान है अतः इसे छुपा हुआ कहना ही सही होगा ........ अब ये वरदान है, इस की पुष्टि के लिए पति को मिलने वाली निम्नलिखित स्वतंत्रता उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत है...........
१. पत्नी घर पर हो तो पड़ोस की भाभी जी से हंस कर बात करना, दफ़ा ३०७ के तहत आता है........ न हो तो अच्छा है.
२. घर पर रोजाना उपयोग के समान ढूढ़ने नहीं पड़ते या इसके लिए पत्नी को चिल्ला कर आवाज़ नही लगानी पड़ती, ये सारे समान (कंघा, बनियान, तौलिया आदि) बिस्तर पर उपलब्ध होते है....... या सामने मेज या कुर्सी पर उपलब्ध होते है.
३. किसी भी मित्र (म./पु.)को घर पर बुलाने की स्वतंत्रता....... अगर सुरा की इच्छा हो तो घर पर ही माहौल बन सकता है.
४.खाना बनाने मे थोड़ी दिक्कत होती है, पर इसी बहाने सही पड़ोस वाली भाभी जी हाल चाल ज़रूर पूंछ लेती है. और उनसे जान पहचान बढ़ाने का मौका मिल जाता है. और उनकी सहानभूति भी मिलती है. अब बात होगी तो आगे भी बढ़ेगी.
५. वैसे कुछ दिनों बाद पत्नी की याद भी आती है, खास करके जब कपड़ों का हुजूम इकठ्ठा हो जाता है........ पर लगता है की कुछ और दिन मज़े ले लिए जाए पता नही ये दिन कब आए, .......... और ये तो सोने पर सुहागा हो जाए अगर वो देर से आए......... एक तो एंज़ोय करने कुछ और दिन.. उसपर उसको घुड़की पिलाने का मौका मिल जाए." 


किस नतीजे पर पहुंचे आप? मतलब ज्ञानेंद्र जी के अंतर्बोध के मामले में? ...अपने पुराने संगी राज भाटिया जी भी विषयाकर्षण से बंच नहीं पाए ,देखिये कैसे दुखती रंग पर उंगली धरते भये ....
" पत्नी मायके गई हे तभी वरदान है  जब घर के काम काज के लिये अपनी छोटी बहिन को छोड गई हों ....:) वर्ना तो आफ़त है ... और  मेरे जैसे के लिये तो बिना पत्नी के रहना नामुमकिन है ... क्योकि मुझे अपने किसी भी समान का कुछ पता नही.... " ...
मित्र अजय त्यागी ने तो एक कविता ही ठोक दी ....
पत्नी गयीं मायके 
ओये मौजा ही मौजा 
भाई मौजा ही मौजा 
ऍमये ओम्मे करिए 
भाई मौजा ही मौजा 
पड़ोसन आये रोटी लाये 
संग बैठकर वो बतलाये 
भाई मौजा ही मौजा 
दिन बीता और रात हो आये 
घुटना मोड़ पेट में सोये ...
बीवी जब वापस आये 
सास की भेजी मिठायी लाये 
भाई मौजा ही मौजा 

आप भी इस परिचर्चा में भाग लेना चाहेंगे? :)  

सोमवार, 19 मार्च 2012

ये कैसी 'कहानी' है?

बिद्दा ( विद्या बालन)  की यह नयी मूवी मैंने कुछ दिनों पहले ही देख ली थी मगर इस पर कुछ लिखने का मन नहीं हुआ ..एक साधारण सी फिल्म लगी थी मुझे. मगर ब्लागजगत और फेसबुक के ज्यादातर मित्रों ने इसे एक अच्छी फिल्म माना है और उनकी यह दावेदारी ईमानदारी से की गयी लगती है... मगर फिर भी बहुत सोचने विचारने के बाद भी मैं इसे एक साधारण फिल्म से ऊपर नहीं पाता....यही कोई दो ढायी  स्टार लायक... विद्या बालन को लेकर कई प्रचार प्रमोशन कंपेन के जरिये दरअसल लोगों को 'कंडीशन' किया जा रहा है ...और जब हम 'कहानी' को देखते होते हैं तो हमारा अवचेतन कंडीशन हुआ मन विद्या बालन की  फिल्म के बारे मे कुछ भी निषेधात्मक स्वीकार नहीं करने देता ... यह वही कंडिशनिंग ही है कि एक अन्यथा झेलाऊ फिल्म का बेड़ा बिद्दा(फिल्म में विद्या को लोग बाग़ बिद्दा  ही कहते हैं )  पार लगा गयी हैं....

फिल्म की कहानी/पटकथा  पश्चिमी सस्पेंस कथाओं से बेहद प्रभावित है ...मगर अपने देश में ,यहाँ के परिवेश और लोकेशन में ये कथायें सहज नहीं लगतीं .... अब कलकत्ता की पुलिस  कितनी उदार है ,कितनी भद्र है ..कलकत्ता ही क्यों पूरे भारत की ही, यह हम जानते हैं ..भारतीय पुलिस और सदाशयता? शिष्टाचार? यह स्काटलैंड नहीं है. मगर फिल्म की कलकतिया  पुलिस  आश्चर्यजनक तौर से बड़ी   भद्र और शिष्ट दर्शित की गयी है! उलटे केन्द्रीय आई बी का मुलाजिम बेहद अशिष्ट दर्शित हुआ है जबकि हकीकत ठीक उलट है  ..कहना यह है कि फिल्म में कम से कम यहाँ तो यथार्थ का चित्रण नहीं हो पाया ..

इधर फिल्मों में  एक चलन फिल्म की लोकेशन /पृष्ठभूमि को भी एक पात्र के रूप में प्रस्तुत करने की है -पिछले सालों की कई फिल्मों जैसे धोबीघाट इत्यादि में मुंबई को इस तरह चित्रांकित किया गया है जैसे वह शहर भी एक पात्र सरीखा हो ...यह बात यहाँ कोलकता के बारे में दुहराई गयी  है ....यानी यहाँ भी कोई नवीनता नहीं है ....कोलक़ता के बारे में जो कुछ हम जानते हैं -दुर्गापूजा की धूम आदि वही यहाँ भी है ...सब दुहराव केवल दुहराव ....बल्कि कोलकता के भद्र बंगाली मोशाय नहीं दीखते ....बस यहाँ पुलिस ही भद्र है ....कहानी का यह डायलाग हकीकत की चुगली करता लगता है कि " कोलकाता से भाग जाओ यह बड़ा डैन्जेरस शहर है " भले ही कहानी की जबरन मांग हो, ऐसे अनावश्यक डायलाग अनपेक्षित हैं ...क्योकि यह बात तो फिर किसी भी शहर के साथ की जा सकती है ...

हाँ कोलकाता के दृश्यांकन के दौरान कैमरा अँधेरे कोनो को ही फोकस करता रहा -घोर अमानवीय स्थति ,गरीबी, गन्दगी ..यह एक कुटिल रणनीति है फिल्म को विदेशी व्यूअर्स पुरस्कारों के लिए क्वालीफाई कराना ...अब कहानी का क्या?  सस्पेंस कथाएं और भी लिखी फिल्मांकित की गयी हैं ....यह उनके  सामने भी नहीं ठहरती ... सस्पेंस क्रियेट करने के लिए अनावश्यक असम्बद्ध दृश्य भी कैमरे के एंगिल में है और दर्शक को भ्रमित करते हैं  ..कहानी के  कई छोटे सिरे ऐसे बिखरे हैं कि दर्शक उन्हें जोड़ता ही रह जाता है ..आरम्भिक दृश्य में ट्रेन के भीतर एक बच्चा अपने बस्ते को भींचे बैठा है ..उसके दोस्त उससे बस्ता खींचते हैं ...बगल की एक महिला का भी बस्ता (झोला ) उसके जाते ही लावारिस हो जाता है और एक दूध की बाटल उसमें से गिरती है और जहरीली गैस फ़ैल जाती है ....इस दृश्य को पता नहीं क्यों इतना जटिल बना दिया गया है . क्या केवल इसलिए कि दर्शकों को एक सस्पेंस फिल्म देखने को तैयार किया जा सके?

हाँ बिद्दा ने फिल्म को संभाल लिया है ...वन वूमन शो है यह फिल्म .....कहानी आप कहीं भी पढ़ सकते हैं ..यहाँ भी ....वैसे सस्पेंस फिल्मों की पूरी कहानी तो आपको पढने को मिलेगी  नहीं ..समीक्षक की भी अपनी प्रोफेशनल आनेस्टी /मजबूरी होती है :) (समीक्षक की ,मेरी नहीं )   अगर किसी फिल्म को  अच्छा माना जाता  हैं तो उसका कोई वस्तुनिष्ठ मापदंड होना चाहिए -मनोरंजन ? शिक्षा सन्देश? समस्या का हल? या किसी समस्या पर फोकस? सामाजिक सरोकार?  अब मनोरंजन तो बेहद  सब्जेक्टिव मामला है ..और मनोरंजन छोड़  दिया जाय तो यह फिल्म अन्य पहलुओं पर औंधे मुंह गिरती है...बाक्स आफिस पर भी  शुरुआती भीड़ भले ही दिखी हो अब हाल खाली जा रहे हैं .....बनारस में तो यही स्थिति है .....कोई और च्वायस हो तो इसे देखने जाना न.... जाना न ... :) बस यह प्रोमो भर देख लीजिये जो जान है फिलम की ....

पुनश्च: भारत के अभिजात्य बौद्धिक वर्ग ने अपने कई 'मेक बिलीव' बना रखे हैं,जिसके तहत वह सहज बोध के विपरीत अपनी पसंदगी नापसंदगी का निर्धारण करता है -फिल्मों के बारे में राय बनाने में भी यही मानसिकता है -चालाक निर्देशक यह बात बखूबी जानते हैं और इस तबके से भी पैसा वसूल कर लेते हैं -इस वर्ग के कुछ मेक विलीव यह हैं-
१-फिल्म सेट पैटर्न से अलग हो ..
२-तीसरी दुनियां की फिल्थ कचरा गलीजता पर कैमरे का फोकस हो 
३-महिला पात्र केन्द्रीय भूमिका में हो 
४-गानों का अलग से फिल्मांकन न हो ..ऐसे ही बेतरतीब पार्श्व गायन हो तो चलेगा 
५-परदे पर कहानी साफ़ सपाट न हो ,दर्शकों को बेतरतीब धागों को सुलझाना पड़े -मतलब जिगसा पजल सा ..
आदि आदि फिलहाल ऊपर के लगभग सभी बिन्दुओं का समावेश कहानी में हुआ है .....
हम भी पिछले पचपन साल से श्रेष्ठ कहानी के प्रतिमानों में इन्ही को वरीयता देते आये हैं ...
मगर अब सहज होना चाहते हैं! :) 

शनिवार, 17 मार्च 2012

उनका मायका,मेरी मौज!

आज वे मायके चली गयीं हैं ..और इससे उपजे अहसास पर  सोचा एक पोस्ट चेप दूं .यह भीड़ जुटाऊ श्रेणी की पोस्ट है . कभी कभार की  ऐसी पोस्टों से ब्लॉगर की मौजूदगी का शिद्दती अहसास दीगर ब्लागरों में  बना रहता है ...अगर यह पोस्ट ज्यादा टिप्पणियाँ नहीं जुगाड़ेगी तो महज इसलिए कि भीड़ जुटाने की बात मैंने बेबाकी से कह डाली है ..लोग आयेगें तो मगर टिप्पणियाँ करने में संकोच कर सकते हैं ..मगर मैं मुतमईन हूँ मेरे चाहने वाले जरुर आयेगें और अपने प्रेरणा पुष्पों को सदैव की भांति यहाँ बिखेर जायेगें ...स्टैट काउंटर आने वालों की  संख्या भी बतायेगा ही .. मगर पहले की ही तरह कुछ लोग जलेगें भुनेगें मगर यह उनकी नियति है तो मैं क्या कर सकता हूँ ..मैं तो भीतर से सभी का शुभाकांक्षी हूँ -मगर लोग बाग़ आँखें तरेरे रहें तो  मैं  करूं भी क्या? बहरहाल वे आज मायके गयीं हैं .. जाने की प्रस्तावना विविध रूप रंगों से  कई दिन से बना रही थीं -मैं इस बार निरुत्तर और निरपेक्ष था ..पत्नी को मायके जाने से रोकने वाला कलियुग में घोर पाप का भागी बनता है ..सुना पढ़ा है ऐसे पतियों को कुम्भीपाक नरक नसीब होता है ..और अब वानप्रस्थ का समय निकट आता जा रहा है तो मुझे भी परलोक की चिंता होने लगी है -यह तो रही बाहर की बात  -एक अन्दर की बात भी  है ..जरा कान करीब  लाईये न..बताते हैं ....(खुसर पुसर ) ....

 पत्नी के मायका गमन से एक परम शान्ति ,सकून और आजादी का अनुभव भी होता है ....यह आप लोगों में से श्रेष्ठ और गुणी  पुरुषों ने अनुभव भी किया होगा ....दरअसल घर स्त्री का ही होता है ...एक गृहिणी ब्लॉगर ने इसी बात को अभी हाल में अपनी एक लम्बी कविता में समझाया भी है और मैं उनकी इस बात से पूरा इत्तेफाक भी करता हूँ -दरअसल यह भोगा यथार्थ मेरा भी है..घर पर तो गृहणी की ही चलती है -वह तानाशाह होती है ...लेडी आफ द हाउस या गृह मंत्रालय जैसे  नामकरण इसकी  पुष्टि भी करते हैं ..अब मैं प्राणी व्यवहार का अध्येता रहा हूँ तो किसी भी व्यवहार का उदगम ढूंढता फिरता रहता हूँ -आखिर गृह स्वामिनी इतनी कड़क क्यों होती हैं ? घर पर अपना अकेला अधिपत्य क्यों समझती हैं? घर स्त्री का होता है और घर बिल्ली का भी होता है ...आपको क्या पता है कि बिल्लियाँ जिस घर में होती हैं उनका गृह स्वामी/स्वामिनी के बजाय घर से लगाव होता है और कुत्ते घर के बजाय अपने स्वामी /स्वामिनी से गहरे जुड़े होते हैं ....आप किसी मकान को छोड़ जाएँ और वर्षों बाद लौट आयें तो आप ताज्जुब कर सकते हैं अपनी पुरानी पाली हुयी बिल्ली को  वहां देखकर ..मगर कुत्ता स्वामी/स्वामिनी  के साथ ही घर छोड़ जाएगा नहीं तो जान दे देगा ...

जाहिर है आज के मनुष्य में भी कतिपय इन्ही पशु  प्रवृत्तियों का  ही विस्तार तो  हुआ है ....पत्नी घर छोड़ना नहीं चाहतीं  मगर बिचारी मायके के मोह में विवश हो जाती हैं ...किन्तु  जब घर पर इस  तानाशाह की मौजूदगी रहती  है तो पति निषेध कार्यक्रम बदस्तूर जारी रहता है - यह न करो वह न करो ..ये तौलिया यहाँ क्यों रखा ...ये सामान यहाँ क्यों छोड़ा ..ये गन्दगी यहाँ क्यों की ..डेजी (कुतिया ) की चेन यहाँ क्यों रखी?अखबार यहाँ  क्यों पड़ा है? चप्पलें यहाँ क्यों निकाली?  डिटाल की शीशी खुली क्यों पडी है?मतलब नाक में दम!-लगता है हे भगवान ये तो पूरी जिन्दगी ही तबाह हो गयी है ...इसलिए गृह स्वामिनी के घर छोड़ते ही परम सुख की सहज स्वयमेव  तत्काल प्राप्ति हो जाती है ....अब तो सबै भूमि गोपाल की ..जहां कहीं भी मन हो निढाल हो रहिये ..जो भी जैसा भी करिए ...कोई बोलने वाला नहीं ...परम सुतंत्र न सर पर कोई ..एक दिव्यानुभूति! घर की ऐसी तैसी! वैसे भी कुत्तामना पुरुष घर को ठेंगे पर ही रखता है ..हाँ दूसरे आस पड़ोस के घरों के बारे में और गृह वासियों के बारें में उसका ख़याल तनिक जुदा सा होता है ...वह तो मुए अंतर्जाल ने पुरुषों को भी घर से चिपका रखा है अब, नहीं तो हमसे पहले की पीढी के मर्द घर पर रहते ही कहाँ थे -...

उस विरहिणी नायिका का आर्तनाद सुना है आपने? -कहवाँ बिताई सारी रतिया ,पिया रे सांच कहो मोसे बतिया ....या फिर ..तुम जाओ जाओ मोसे ना  बोलो सौतन के संग रहो....भोर भये आये हो द्वारे ये दुःख कौन सहे .... अब मैं होता तो बिचारी विरहणी को ढाढस देता छोडो ऐसे कुत्ता (आ)चारी पिया को वे ऐसे ही होते हैं ..उन्हें आदिकाल से पड़ोस ही अच्छा लगता आया है ...जीनों की विरासत है जो ...अब इतनी जल्दी तो बदली नहीं जा सकेगी ..रफ्ता रफ्ता एकाध लाख साल तो लग ही जाएगा ..हाँ नारीवादी थोडा जोर लगा लें तो एकाध हजार साल कम भी हो सकता है ....अब विरहिणी घर को छोड़ नहीं सकती -उसका प्राण बसा है उसी में ...और लोग भी न जाने कैसे कैसे मुहावरे गढ़ डाले हैं -डोली और अर्थी का गहरा  रिश्ता पिया के घर से जोड़ते भये हैं ...मगर मुआ मर्द वह तो चिर स्वतंत्र है ..कुत्ता है कुत्ता ..न घर का न घाट का -घाट घाट का पानी पीने के लिए भटकता रहता है ताउम्र ....तब भी उसकी प्यास नहीं बुझती ..छिः कुत्ता कहीं का .....

बहरहाल मैं परम स्वतंत्रता का अनुभव कर रहा हूँ और आज की और आगे की भी ..कुछ दिनों की इस स्वयमेव अर्जित आजादी को सेलिब्रेट करने की कार्ययोजना बना रहा हूँ -सरकारी मानुष हूँ कार्ययोजनायें बना लेता हूँ ...एक मित्र तो अभी पहुँचने वाले हैं ..हम उन्हें बुलावा भेजे हैं ..घर से निकल चुके हैं ..उन्हें भी कहीं बाहर खुली हवा में सांस लेने की दरकार है ....गुजरेगी खूब जब आज मिल बैठेगें दो यार ..कई दिल्ली के दोस्तों की भी बरबस याद आ रही है -काश वे  होते यहाँ ! न न भाई ..अब इत्मीनान से मार्च के बाद आईयेगा अभी तो यह टेम्पररी मुक्ति है ...पता नहीं कब घर की मालकिन टपक पड़ें ! खतरा तो है ही! फिलहाल तो घर पर मेरा कब्ज़ा है ..परसों नरसों तक वे फिर काबिज हो जायेगीं -मगर सच कहूं तो न घर उनका न घर मेरा यह तो बस इक रैन बसेरा है ....

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

और अब हंस गीतिका!

राजहंसों की पुनर्खोज विषयक पहली और दूसरी पोस्ट के बाद यह आख़िरी किश्त है जिसमें हंस /राजहंस की एक और प्रबल दावेदारी का उल्लेख किया जाना जरुरी लगता है .यह कटेगरी है गूज (goose )की जिन्हें भी भारतीय साहित्य में हंस और कहीं कहीं राजहंस का दर्जा मिला हुआ है .सालिम अली ने भी बारहेडेड गूज (अन्सेर इंडिकस ) को हंस, राजहंस,बिरवा और सवन  के हिन्दी नामों का उल्लेख किया है .एक मिलती जुलती प्रजाति -बड़ी बत (अन्सेर अन्सेर)  भी है.दोनों भारत में जाड़े की प्रवासी हैं और अक्सर अक्टूबर से मार्च तक नदियों ,झीलों के आस पास दीखते हैं . 
बार  हेडेड गूज -यह भी है एक हंस!

गूज जाड़े में समूचे उत्तर भारत, आसाम तक फ़ैल जाते हैं .मगर मध्य भारत को छोड़ आगे बढ़ते हुए ये मैसूर तक देखे गए हैं . मध्य भारत में इक्का दुक्का दिखाई पड़ते हैं .किसी हिन्दी कवि  ने यह कहा है कि 'सिंहों के नहीं लेहड़े,हंसों  की नहिं पांत " तो निश्चय ही उसने गूजों की टोली और पंक्तिपावन परम्परा अनदेखा ही किया था ..ये जमीन पर तो बड़े झुंडों में होते ही हैं उड़ते  वक्त भी या तो V का अकार लेते हैं या फिर रिबन सरीखी कतार से नभ के दो सुदूर कोनों को जोड़ते हुए से लगते हैं .इनकी आंग आंग की आवाज गूजती हुयी सी लगती है . 

सुरेश सिंह ने 'भारतीय पक्षी' में  बारहेडेड गूज का सोनाबत और कादम्ब हंस  भी नाम दिया है .उनका कहना है कि कि कुछ कवियों ने इसे ही कलहंस या हंसराज भी कहा है ...उनके अनुसार यह मंगोलिया और साइबेरिया के दक्षिणी भागों में अपने घोसले बनाती है . तिब्बत और लद्दाख की झीलों में भी इनकी एक बड़ी आबादी जोड़े बनाती है . 
भारत सरकार की भी दरियादिली कि एक बत्तख को भी देवहंस का दर्जा मिल गया 

कई कवियों ने ज्यादा नीर क्षीर विवेक के चक्कर में पड़कर बत्तखों को हंस मान लिया है जिनमें नुक्टा या काम्ब डक और ह्वाईट विंग वूड डक है जिन्हें क्रमशः नंदीमुख हँसक और देवहंस का नाम मिला है ...जाहिर हैं कवियों की कल्पनाएँ उनके नीर नीर क्षीर विवेक और प्रकृति के सूक्ष्म प्रेक्षण पर हावी रही हैं . कुछ कवियों ने चैती (टील )  आदि को भी हंसराली,काणक हंस  जैसे सुन्दर नाम दे डाले हैं ....आशय यह कि एक आम पाठक के लिए इन्ही विवरणों के चलते असली हंस की पहचान मुश्किल तलब होती चली गयी ....
....इसलिए ही हंस गीतिका* आपकी सेवा में दरपेश हुयी -
*स्वान सांग = अंतिम कृति! 

सोमवार, 5 मार्च 2012

हे कवयित्री!


हे कवयित्री!

होली देहरी लाँघ चुकी है अब तो छेड़ो  नेह की  बातें   
घुट घुट जीवन क्या जीना अब तो  करो फाग की बातें 
बीता जो बीता, कल की कब की अब न बात करो 
जीवन जो शेष पड़ा है अब उसका तो श्रृंगार करो 
हे कवयित्री! 
सबका जीवन ऐसा ही है जहाँ सुख दुःख का रेला है 
कोई ऐसा भी है जिसने दुःख को कभी न झेला है ?
फिर नित क्यूं  रोना धोना ह्रदय शूल को दूर करो 
फागुन ने दी दस्तक है  बढ़  आगे बंदनवार धरो 
हे कवयित्री!
माना बेदर्दों ने तुमको दुःख पहुचाये हैं अनगिन पल छिन 
लेकिन देखो  कोई है जिसकी  है तुममे  दिन रात लगन 
त्याग युगों की यह सिसकन,उठ देख  द्वार है कौन आया 
अभिसार करो   हो  धन्य, हो जाए  पुलकित  मन  काया 
हे कवयित्री!  
 मंगलमय  होली पर आप सभी मित्रगण को रंगारंग शुभकामनाएं!

रविवार, 4 मार्च 2012

बांधे रखती है फिल्म पान सिंह तोमर!

जी हाँ फिल्म के प्रमुख किरदार का नाम ही फिल्म का नाम भी है . दरअसल एक  असली किरदार के 'रियल लाईफ' का ही रील वर्जन है यह फिल्म . पान सिंह तोमर कभी सेना में दौड़ प्रतिस्पर्धाओं के नेशनल चैम्पियन हुआ करते थे ...मगर जमीन जायदाद और पट्टीदारी के चक्कर में ऐसा उलझे कि उन्हें चम्बल के बीहड़ों में शरण लेनी पडी और अंत में मुठभेड़ में उनकी जान  चली गयी ....नहीं..नहीं...यह फिल्म चम्बल के डाकुओं का महिमा मंडन या गौरव गान नहीं करती जबकि उन विवशताओं को जरुर उजागर करती है जिस खातिर एक सीधा सरल सच्चा व्यक्ति भी बीहड़ के रास्ते चल पड़ता है ...

फिल्म पर पिपली लाईव का प्रभाव स्पष्ट है -कई कलाकार भी उसी फिल्म के हैं -ग्राम्य परिवेश का चित्रण करने में फिल्म पिपली लाईव का अनुसरण करती दिखती है ...फिल्म की पटकथा कसी हुई है ...एक सेकेण्ड को भी फिल्म बोरिंग नहीं हुई है जबकि पूरे सवा दो घंटे की फिल्म है ....संवाद प्रभावित करते हैं और सबसे अधिक प्रभावित मुख्य पात्र इरफ़ान खान करते  हैं जिन्होंने इस फिल्म में अपने अभिनय के झंडे गाड़ दिए हैं ...एक जगह पान सिंह तोमर से  सेना के अधिकारी पूछते हैं कि क्या उसका सम्बन्ध डाकुओं के परिवार से है तो वह कहता है  साब! डाकू नहीं बागी कहिये ..डाकू तो भारत के पार्लियामेंट   में पाए  जाते  हैं {लगता है अरविन्द केजरीवाल इसी डायलाग से प्रभावित हुए हैं जिसका इस्तेमाल वे धड़ल्ले से हाल की अपनी तकरीरों में कर रहे हैं .. - :) } ..

पीपली लाईव के बाद इस फिल्म ने एक बार फिर भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था -ला एंड आर्डर के नकारे- निकम्मेपन ,असंवेदनशीलता और नाकाबिलियित को फोकस किया है ..किस तरह पुलिस निकम्म्मी और पक्षपाती है ,यहाँ तक कि एक बेहद संगीन और नाजुक मौके पर खुद जिले का कलेक्टर समस्या का निराकरण न कर कहता है कि दोनों पक्षों में चंबल के खून की गरमी है आपस में खुद निपट लो और घटनास्थल से चल पड़ता है ....पानसिंह तोमर की विवशता उसे चम्बल का राह दिखाती है .. जहाँ एक नेशनल खिलाड़ी के रूप में उसे कोई पूछता नहीं ,इलाके का थानेदार तक उसका मेडल फेक देता है, बागी बन जाने  पर उसकी फोटो अखबार के पहले पन्ने पर छपती है ....लोग उसके नाम से थर्राते हैं ...इसी विडंबना को लेकर वह व्यथित है .

खैर जो भी हो पान सिंह तोमर ने कानून को अपने हाथ में लिया तो फिल्म के अंतिम दृश्य में हुयी मुठभेड़ में उसका एनकाउंटर भी हो जाता है ...मगर फिल्म इस मामले का कोई हल नहीं दिखा पाती कि आखिर समस्या का समुचित समाधान /विकल्प क्या है ? क्या  पान सिंह तोमर का रास्ता ही अंतिम विकल्प है और नहीं तो फिर विकल्प क्या है? शायद आज की मौजूदा भ्रष्ट और नाकारा व्यवस्था में सचमुच कोई विकल्प नहीं दीखता? और फिल्म इसी मोड़ पर समाप्त होती है -आखिर कोई हल हो तो वह सुझाये! 

फिल्म बहुत अच्छी है .पटकथा  चुस्त दुरुस्त .अभिनय बेमिसाल! देख सकते हैं! साढ़े तीन स्टार! दीगर विवरण यहाँ देख सकते हैं !

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

४९ ओ का अन्ना फैक्टर और केजरीवाल की किरकिरी

उत्तर प्रदेश में मतदान का एक दृश्य! मतदान केंद्र पर वोट देने के लिए अपनी बारी का बेसब्री से इंतज़ार करते दो छात्र -नवयुवक जिनका मतदान करने का यह पहला अवसर है.आखिर उनका नंबर आ ही गया और वे मतदान अधिकारी प्रथम के पास पहुँचते हैं .. .....
"मुझे फ़ार्म ४९ ओ दीजिये....मुझे किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं देना है ..सबके सब  नालायक हैं, किसी काम के नहीं हैं ...." पीछे का लड़का भी यही मांग करता है .
"ऐसा कोई फ़ार्म नहीं है ..मतलब मुझे नहीं पता है, जाईये पीठासीन अधिकारी से मिलिए ...." उसने उन दोनों को एक ओर इशारा किया जहां पीठासीन अधिकारी बैठे थे ....
"अजीब मामला है इन लोगों को कुछ पता ही नहीं है ..." छात्र बुदबुदाए...पीठासीन अधिकारी के पास पहुंचकर  उनका स्वर खीझभरा हो गया ...उनमें से जो एक ज्यादा तेज था बोला ...
"आपके मतदान  अधिकारी को तो कुछ पता ही नहीं है ....हमें किसी को वोट नहीं देना है इसलिए हमें लाईये दीजिये फ़ार्म नंबर ४९ ओ ताकि किसी को भी वोट न देने के अपने अधिकार का हम प्रयोग कर सकें ...."
"फ़ार्म नंबर ४९ ओ? " पीठासीन अधिकारी के माथे पर बल पड़ते हैं ..फिर वह अपने सामने के कागजों को उलटता पलटता है ...परेशान सा बोल पड़ता है ..नहीं है ..ऐसा तो कोई फ़ार्म नहीं मिला है और न ही हमें ट्रेनिंग में बताया गया है ..."
"मगर केजरीवाल साहब का तो यही कहना है कि अगर कोई काबिल प्रत्याशी  न हो तो फ़ार्म  ४९ ओ लेकर आप अपना मत डाल सकते हैं .." दोनों लडके एक साथ लगभग चीखते हुए बोले ....
" आप एक काम कीजिये ... मतदाता रजिस्टर जो हमारे मतदान अधिकारी दो के पास है उस पर अपना मतदाता संख्या और साईन करके कह दीजिये कि हम मतदान नहीं करना चाहते ..हम फिर आपकी साईन कराके और अपनी भी साईन करके आपको यह करने की अनुमति दे देगें  ... मगर आप  ई वी एम मशीन में वोट नहीं डाल सकते और नहीं ऐसा कोई फ़ार्म मुझे मिला है ....जिसकी बात आप कर रहे हैं ..." पीठासीन अधिकारी ने लगभग उठते हुए कहा ....

अब तक उन छात्रों का टेम्पर लूज हो गया था ..मुंह से निकल रहे सुभाषितम में निर्वाचन आयोग और स्थानीय प्रशासन के खिलाफ दो शब्द  साफ़ सुनायी दे रहे थे ...अब तक शांत केन्द्रीय सुरक्षा बल का जवान सहसा हरकत में आया और अगले पल ही दोनो  छात्र खुद लम्बी लाईन के आखिरी छोर पर जा  पहुँच गए थे ...मगर वे अब  वहीं धरने पर बैठ गए ... और निर्वाचन आयोग मुर्दाबाद ,अन्ना जिंदाबाद शुरू हो गया .....निर्वाचन कंट्रोल रूम तक अनुगूंज सुनायी पडी और इक्का दुक्का ऐसी ही खबरे और भी मतदान स्थलों से आने लगीं.. 

दरअसल यह मामला किसी फ़ार्म /प्रपत्र का नहीं बल्कि एक नियम से है -निर्वाचन संचालन नियम १९६१ के नियम ४९ ओ के अनुसार कोई भी मतदाता मतदान स्थल में प्रवेश और  मतदाता पंजिका में हस्ताक्षर और अमिट स्याही या यहाँ तक कि ई वी एम मशीन में कमांड दिए जाने के बाद भी  मतदान करने से मना  कर सकता है ..इसके लिए उसके इस निर्णय के एवज में पीठासीन अधिकारी उसका हस्ताक्षर मतदाता  पंजिका (१७ अ ) में कराकर उसे इसकी अनुमति दे सकता है . यही ४९ ओ है . यह नियम है कोई फार्म वार्म नहीं! मगर अब अन्ना साहब की टीम का क्या किया जाय जो अपने प्रशंसकों को अच्छा होमवर्क नहीं दे रही है ....यह उन्हें ठीक से बताना चाहिए था कि ४९ ओ की व्यवस्था क्या है? 

मगर लगता है अन्ना साहब के टीम मेंबर भी अब पर उपदेश कुशल बहुतेरे की प्रचलित भारतीय आदत के शिकार हो चुके हैं ..खुद अरविन्द केजरीवाल जो इतना जोशीला भाषण देते हैं ,मतदाताओं को लम्बे अरसे से जागरूक करने का अभियान चलाये हुए हैं यह जानने की जहमत नहीं उठाये कि उनका ही नाम मतदाता सूची में नहीं है ....और इस खातिर अभी उनकी जोरदार किरकिरी हुयी है ....कल गोआ और उत्तर प्रदेश में मतदान है .उत्तर प्रदेश में तो आख़िरी सातवाँ  चरण ..अगर आप या परिजन मतदान करने जा रहे हैं तो यह पोस्ट पढ़कर आप अपना मत किसी भी के पक्ष में न डालने के निर्णय पर ४९ ओ की उपर्युक्त प्रक्रिया अपना सकते हैं   ..हो सकता आगे यह सुविधा ई वी ऍम में एक अलग बटन देकर कर दी जाय -राईट टू रिजेक्ट की बटन! मगर अभी तो ४९ओ से ही  संतोष  करना होगा ....भले ही इसकी बड़ी विडंबना यह है कि इसमें मतदान की गोपनीयता भंग हो जाती है ..आप ने किसी को वोट नहीं डाला यह बात उजागर हो रहती है ..जबकि निर्वाचन की व्यवस्था कानूनन गोपनीय है! इसलिए मेरी तो सलाह है कि किसी अपेक्षाकृत बेहतर पार्टी /प्रत्याशी के पक्ष में अपना गोपनीय मत ही डालें! अपने वोट को बर्बाद न करें! 

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