हंस विषयक पिछली पोस्ट में सुधी पाठकों /मित्रों की कई जिज्ञासाएं व्यक्त हुयी है ,सुझाव मिले हैं .पहले तो यह स्पष्ट कर दूं कि यह पोस्ट महज उस राजहंस की पहचान आपके सामने रखने के लिए है जिसका जिक्र अक्सर हमारे प्राचीन ग्रंथों और मिथकों में हुआ है ..वैज्ञानिक लिहाज से स्वान (swan ) और गूज (goose ) अलग प्रजातियों के पक्षी हैं मगर हिन्दी में इन सभी को हंस कह दिया जाता है ....कामिल बुल्के के अंगरेजी हिन्दी कोश में भी अंगरेजी के इन दोनों शब्दों का अर्थ हंस बताया गया है.कामिल बुल्के ने स्वान का अर्थ बताया है -राजहंस ,हंस तथा गूज के लिए भी हंस, कलहंस ,हंसी ,हंसिनी शंब्दों का उल्लेख किया है ...
स्वान(Swan),जैसा कि पिछले पोस्ट में जिक्र हुआ है भारतीय मूल का पक्षी नहीं है किन्तु असली 'मानस का राजहंस' वही लगता है ...और निश्चय ही प्राचीन बृहत्तर भारत के आखिरी छोरों से आज की भागोलिक सीमाओं में कभी आ सिमटे हमारे अदि पूर्वजों के की स्मृति शेष में रचे बसे उसी स्वान -राजहंस की ही छवि -विवरण हम ऋग्वेद एवं कतिपय प्राचीन संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में पाते हैं ....और परवर्ती साहित्य में हिमालय पार कर यहाँ आने वाले कई प्रवासी पक्षी (गूज आदि ) ,यहाँ तक कि बत्तखों को भी हंस माना जाने लगा. विश्वमोहन तिवारी कहते हैं कि वैदिक काल के ऋषि गणों के भ्रमण का दायरा बड़ा विस्तृत था -वे कश्मीर ,कैलाश तथा मानसरोवर तक आते जाते रहते थे जहां प्रवासी स्वान प्रजाति भी शीत ऋतु में दिख जाती थी..मगर कालान्तर के कवि जन तराई तथा गंगा की कछार तक ही सीमित होते गए जहां उन्हें गूज दिखते रहे और उन्होंने इसी प्रजाति की पदोन्नति हंस में कर दी .. हिमालय की एक घाटी जिससे ऐसे प्रवासी 'हंस' मैदानी भागों में प्रवेश करते है को कालिदास ने मेघदूत में हंसद्वार कहा है जो आज भी कुमायूं जिले में नीतीघाटी के नाम से जाना जाता है और इससे होकर तिब्बती यात्री आते जाते हैं ....
स्वान(Swan),जैसा कि पिछले पोस्ट में जिक्र हुआ है भारतीय मूल का पक्षी नहीं है किन्तु असली 'मानस का राजहंस' वही लगता है ...और निश्चय ही प्राचीन बृहत्तर भारत के आखिरी छोरों से आज की भागोलिक सीमाओं में कभी आ सिमटे हमारे अदि पूर्वजों के की स्मृति शेष में रचे बसे उसी स्वान -राजहंस की ही छवि -विवरण हम ऋग्वेद एवं कतिपय प्राचीन संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में पाते हैं ....और परवर्ती साहित्य में हिमालय पार कर यहाँ आने वाले कई प्रवासी पक्षी (गूज आदि ) ,यहाँ तक कि बत्तखों को भी हंस माना जाने लगा. विश्वमोहन तिवारी कहते हैं कि वैदिक काल के ऋषि गणों के भ्रमण का दायरा बड़ा विस्तृत था -वे कश्मीर ,कैलाश तथा मानसरोवर तक आते जाते रहते थे जहां प्रवासी स्वान प्रजाति भी शीत ऋतु में दिख जाती थी..मगर कालान्तर के कवि जन तराई तथा गंगा की कछार तक ही सीमित होते गए जहां उन्हें गूज दिखते रहे और उन्होंने इसी प्रजाति की पदोन्नति हंस में कर दी .. हिमालय की एक घाटी जिससे ऐसे प्रवासी 'हंस' मैदानी भागों में प्रवेश करते है को कालिदास ने मेघदूत में हंसद्वार कहा है जो आज भी कुमायूं जिले में नीतीघाटी के नाम से जाना जाता है और इससे होकर तिब्बती यात्री आते जाते हैं ....
संस्कृत साहित्य के विद्वानों में भी असली राजहंस को लेकर मतभेद रहा है .कुछ विद्वानों ने इसे बिलकुल सफ़ेद न मानकर धूसर माना है .अमरकोश में राजहंस के बारे में बताया गया है कि इनका शरीर 'सित' आँखें और पैर लाल रंग के होते हैं ...राजहंसास्तु ते चक्षुचरणैलोहितै: सितः ..सित का अर्थ बिलकुल सफ़ेद न होकर धूसरता लिए सफेदी से है ..जाहिर है यह विवरण 'स्वान' से नहीं मिलता बल्कि फ्लमिंगो (The Greater Flamingo (Phoenicopterus roseus) से काफी मिलता है और इसलिए यह पक्षी भी राजहंस पद का प्रबल दावेदार है -यह मूल भारतीय देशज पक्षी है और गुजरात के कच्छ जिले के 'ग्रेट रन आफ कच्छ' में इनका विशाल नीड़-क्षेत्र है -जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है .इसे फ्लमिंगो सिटी के नाम से भी जाना जाता है .यह विश्व का सबसे बड़ा फ्लमिंगो प्रजनन स्थल है . यही पास में ही हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मिले हैं जो पुरातत्व विशेषज्ञों के भी आकर्षण का केंद्र है -इस तरह कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति के आदि काल के भी साक्षी रहे हैं फ्लमिंगो! और कोई आश्चर्य नहीं यदि इस पक्षी को जन स्मृतियों में महत्वपूर्ण स्थान मिला है .सालिम अली ने अपनी पुस्तक 'द बुक आफ इंडियन बर्ड्स ' में इसे राजहंस की पदवी पर प्रतिष्ठित किया है ...कामिल बुल्के ने इसे ही हंसावर कहा है .
फ्लमिंगो गुजरात के कच्छ जिले ही नहीं देखा जा सकता बल्कि जैसा कि सालिम अली मानते हैं यह अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण भारत में कहीं भी दिख सकता है,विश्व के तमाम और भागो में तो पाया ही जाता है ... मैंने आज तक फ्लमिंगो नहीं देखा मगर हो सकता है आपमें से कुछ ने देखा हो ...यह बहुत सुन्दर पड़ा पक्षी है और राजहंस कहलाने की पूरी काबिलियत रखता है ...
क्रमशः ....
राजहंस का एक और प्रबल दावेदार (विकीपीडिया ):फ्लमिंगो
विकीपीडिया के नक़्शे में रन ऑफ़ कच्छ
मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं कभी रन आफ कच्छ जरुर जाऊं और इन नयनाभिराम पक्षियों का दर्शन कर नेत्रों को लाभ दूं .यह वैसे तो पूरा मरुथल है मगर बरसात के दिनों में मीठे -खारे पानी का जमाव यहाँ होता है और फ्लमिंगो घोसले बनाते हैं जो मिटटी के तिकोने ढूहे से लगते हैं . रिफ्यूजी फिल्म की शूटिंग यही हुयी थी ...क्या कोई ब्लॉगर मीट यहाँ हो सकती है एक लाईफ टाईम नज़ारे को आँखों में कैद करने के लिए? कोई गुजराती ब्लॉगर बंदा क्या पढ़ रहा है यह?क्रमशः ....