इन दिनों होम मिनिस्ट्री साथ नहीं है , पैतृक आवास पर सास की भूमिका का निर्वहन हो रहा है जबकि मैं यहाँ सरकारी सेवा के तैनाती स्थल पर एकांतवास कर रहा हूँ। किन्तु यह ब्लॉग पोस्ट इस विषय को लेकर नहीं है। यह उस असहज सवाल को लेकर है जिससे मुझे ऐसे एकांतवास के दिनों में अक्सर दो चार होना पड़ता है। यह जानकारी होने पर की पत्नी साथ नहीं हैं पता नहीं घनिष्ठतावश या फिर महज औपचारिकता के चलते मुझसे यह सवाल इष्ट मित्र और सगे संबंधी अक्सर पूछ बैठते हैं कि अरे पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है ?
यह सवाल इतनी बार सुनने के बाद भी मैं हर बार असहज हो जाता हूँ और सवाल का ठीक ठीक जवाब नहीं दे पाता। आखिर क्या केवल खाना बनाने के लिए ही पत्नी का साथ रहना आवश्यक है ? नारीवादी और / या महिलायें तक जब ये सवाल पूछती हैं तब मुझे और भी क्षोभ होता है। क्या घर में नारी की भूमिका केवल खाना बनाने तक ही सीमित है?
आज भी यह आदि ग्राम्य मानसिकता बनी हुयी है कि शादी व्याह इसलिए जरूरी है की कोई दो जून की रोटी तो बनाने वाला हो! मतलब इसके सिवा आज भी व्यापक स्तर पर महिलाओं की अन्य विशेषताओं /आवश्यकताओं को रेखांकित नहीं किया जा पा रहा है. यह एक सोचनीय स्थति है। भई पत्नी है तो उनकी भूमिका को केवल खाना बनाने और परोसने तक ही क्यों अवनत कर दिया गया है? क्या उनकी उपस्थिति उनका साहचर्य अन्य अर्थों में उल्लेखनीय नहीं है? क्या घर में उनकी भूमिका मात्र इतनी भर रह गयी है और प्रकारांतर से यह भी कि पुरुष क्या मुख्यतः एक अदद खाना बनाने वाली के लिए ही व्याह करता है? यह बात हास्यास्पद भले ही लग रही हो मगर आज की इस इक्कीसवी सदी में भी अधिकाँश पुरुष खुद खाना नहीं बनाते या फिर बना ही नहीं सकते/पाते। क्योंकि संस्कार ही ऐसा मिलता है। गाँव घरों में आज भी पुरुष रसोईं में घुसना अपनी शान के खिलाफ समझता है।
पुरानी सोच की महिलायें भी पुरुष को खाना खुद अपने हाथों से बनाने को हतोत्साहित करती रहती हैं। वे खुद नहीं चाहती कि पुरुष रसोईं संभाले -यह उनका कार्यक्षेत्र है। यह सही है कि महिलायें अपने जैवीय रोल में एक चारदीवारी की भूमिका में रहती रही हैं किन्तु अब समय और सोच में बहुत परिवर्तन हुआ है और नर नारी की पारम्परिक भूमिकाएं बदल रही हैं। आज भी एक महिला को मात्र रोटी बनाने की मशीन के रूप में लेना उसकी महत्ता और उसके पोटेंशियल को बहुत कम कर के आंकना है। इसलिए मुझसे जब यह प्रश्न भले ही मेरे प्रति अपनत्व की भावना से पूछा जाता है मुझे नागवार लगता है। और यह पुरुष के अहम भाव को भी तो चोटिल करता है -अब क्या हम इतने नकारे हो गए कि अपने खाने पीने का इंतज़ाम तक नहीं कर सकते?
अरे हम जब 'राज काज नाना जंजाला' झेल सकते हैं तो उदरपूर्ति में परमुखापेक्षी क्यों बने रह सकते हैं? यह सवाल सिरे से खारिज है मित्रों -सवाल यह होना चाहिए कि अरे पत्नी नहीं हैं तो आपको कोई असुविधा तो नहीं हो रही है? अकेलेपन की तो अनुभूति नहीं हो रही है? कोई यह भी पूछे कि पत्नी नहीं हैं तो घर कैसे व्यवस्थित है ? समय कैसे कटता है? आदि आदि सवाल भी तो पूछे सकते हैं? कब तक यह चलेगा आप उन्हें लाते क्यों नहीं?
पत्नी का आपके साथ होना आपके पारिवारिक जीवन की समृद्धता का द्योतक है। घर की जीवंतता का परिचायक है। सम्पूर्णता का अहसास है। एकाग्रता और आत्मविश्वास का सम्बल है। भगवान राम तक कह गए प्रिया हींन डरपत मन मोरा। पत्नी साथ नहीं तो आप अधूरे हैं जनाब -एकांगी जीवन जी रहे है -समग्रता का अभाव है यह ! आप मनसा वाचा कर्मणा सहज नहीं है। और यह कमी आपके व्यवहार में प्रदर्शित हो रही होगी। आपने नहीं तो आपके सहकर्मियों और अधीनस्थों ने यह नोटिस किया होगा और कदाचित झेला भी होगा -कभी उन्हें कांफिडेंस में लेकर पूछिए!
किसी प्रियजन ने इस पुरानी पोस्ट को भी इसी संदर्भ में प्रासंगिक बताया
किसी प्रियजन ने इस पुरानी पोस्ट को भी इसी संदर्भ में प्रासंगिक बताया