शनिवार, 21 अगस्त 2010

रील और रियलिटी का फर्क मिटाती पीपली लाईव: जाईये देख आईये !

यह एक संयोग मात्र है कि मैंने और गिरिजेश जी ने आज ही पीपली लाईव फिल्म देख ली बिना एक दूसरे को बताये और प्लान बनाये .वे तो फिल्म की रिव्यू से हाथ खीच लिए हैं और मैं भी यह पुनीत कार्य करने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूँ कि यह फिल्म इतनी सशक्त और बहुआयामी बनी है कि शायद ही कोई समीक्षा इसे  समग्रता से समेट पाए ....यहाँ और यहाँ प्रशंसनीय प्रयास किये गए हैं .

काफी दिनों बाद एक बहुत ही उम्दा फिल्म देखने को मिली है जिसे किसी भी उच्च  कोटि की सामाजिक रचना -यथार्थवादी साहित्य के समकक्ष रखा जा सकता है -साहित्य समाज का दर्पण है -और यह फिल्म इस कथन को चरितार्थ करती हुई समाज का आईना बनकर हमारे सामने आती है और इसके फिल्मांकन में  परिवेश ,किरदार ,संवाद ,पल पल का  घटनाक्रम  इतनी सूक्ष्मता से उभरा है कि बस पूछिए मत जाकर खुद देख लीजिये .ऐसा यथार्थ चित्रण फिल्मों मे बहुत कम ही देखने को मिलता है .

इस यथार्थवादी फिल्म ने रील और रियलिटी का फर्क मिटा दिया है ..और आज के समाज और राष्ट्रीय  स्तर पर  सक्रिय कथित मानिंदों  और माननीयों  के असली चेहरे को उघाड़ दिया है .बाजार और आर्थिकी के दबावों ने किस तरह मनुष्य की संवेदनशीलता को लील लिया है और किस तरह लोग अपने पेशें की सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर कमीनगी की सभी सीमाओं को लाँघते  गए हैं यह फिल्म पूरी ईमानदारी और लेशमात्र   फिल्मीकरण के बिना ऐसे दृश्यों को  सामने लाने  में सफल हुई है -किरदारों ने इतना सहज ,नेचुरल अभिनय किया है कि उनमें कोई अभिनेता तो लगता ही नहीं -सब अपने इर्द गिर्द के लोग लगते हैं .फिल्म ने एक बेहद गरीब  परिवार के दुःख दर्द और उसके सदस्यों के  मनोभावों को बड़ी सूक्ष्मता से कैमरे में कैद किया है ...खैर, दृश्यों पर चर्चा करने लगूंगा तो रात बीत जायेगी ...हठात इस लोभ का संवरण कर रहा हूँ ...

फिल्म ने आज की मीडिया ,ब्यूरोक्रेसी ,नेतागिरी की अच्छी खबर ली है ,बेशर्म चेहरों को बेनकाब ही नहीं जम कर लज्जित भी किया है .  राज्य -केंद्र सम्बन्ध ,गाँव में पसरी बेचारगी और मुफलिसी,वोट की राजनीति से प्रेरित सरकारी योजनाओं की निरर्थकता आदि कई समकालीन सच्चाईयों और ग्राम्य जीवन की विवशताओं/विद्रूप  को  हूबहू रील पर उतार दिया है ....फिल्म पुरजोर तरीके से यह बता पाने में सफल हुई है कि मानवीय संवेदना की कीमत आज दो कौड़ी भी नहीं रह गयी है -संवेदना का मतलब सब कुछ खत्म ...नो स्कोप ...समकालीन परिदृश्यों को घटक  दर घटक कवर करने में निर्देशक से कोई चूक नहीं हुई है ...कृषि मंत्रालय ,निर्वाचन विभाग,मीडिया केन्द्रों - सब पर कैमरा घूमा है -समकालीन यथार्थ का एक बेशकीमती दस्तावेज बन गयी है पीपली लाईव ....एक गाँव के बहाने राजधानी  और  पूरे देश की बदहाल  तस्वीर !

फिल्म की कहानी और जीवंत दृश्यों को मैं आपको नहीं बताने वाला -आप खुद जाईये और देख आईये तब आपसे बात करते हैं इस फिल्म पर .....मैं इसे पॉँच में पांच  स्टार देता हूँ!

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बोलो सियावर रामचंद्र की जय .....कबीर तुलसी श्रीराम त्रयी और मानस का बोनस -3

..राम के नाम से जन जन में जाने गए उस महा मानव को एक अकिंचन संबोधन यह भी  ...
मैंने भी खूब तलाशा, ढूँढा आखिर हैं कौन राम ? भले ही कबीर दादा ने मना कर दिया था -कस्तूरी  कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहि ऐसे घट घट राम है दुनिया जानत नाहि ..मगर मूर्ख हृदयों को कहाँ चेत ...फिर भी लगा ढूढ़ने राम को ...कब हुए  होंगे राम ? हुए भी होंगें या नहीं ? क्या बस एक मिथक हैं राम ? इतना विराट मिथक जो दिक्काल के  इतने अपरिमित  परिमाप को समेटे हुए है ?..भारत ही नहीं बाली सुमात्रा सिंगापुर पेरू और कितने और देशों तक भी  राम का प्रताप जा पहुचा है -करोड़ों लोगों की दैनन्दिनी से सीधे जुड़े हैं राम ....जन्म के सोहर से मृत्यु की शैया तक राम राम ....मिलो तो राम बिछड़ो तो राम ...घृणा भी ,हिकारत भी राम राम से ... .बस केवल एक राम सत्य हैं बाकी सब मिथ्या ...आखिर हैं कौन राम ? 

कभी कभी लगता है जब से मनुष्य में सत्य और चेतना की कौध आई तभी से राम का आविर्भाव हो गया ....सिन्धु घाटी की लिपि नहीं पढी जा सकी ....वेदों में दाशरथि राम का जिक्र है ,सीता का भी है ...मगर उन्हें देवत्व प्राप्त नहीं है ....देवत्व उन्हें तब भी प्राप्त नहीं है जब वे आदि काव्य रामायण के नायक बनते हैं ..वे पुरुष श्रेष्ठ है ,नरोत्तम हैं ....मगर ब्रह्म नहीं हैं ....उन्हें तो ब्रह्म का दर्जा देते हैं कबीर और बाद में तो तुलसी उन्हें सगुण ब्रह्म का स्वरुप दे जन जन के लिए  प्रणम्य बना देते हैं ..मगर राम अगर ब्रह्म रूप में न भी .होते तो भी वे जन जन के प्राण होते ..उन्हें देवत्व प्रदान किया जाना देवत्व का सम्मान है ...ब्रह्म राम से संपृक्त हो एक अगम्य निर्वैयक्तिक विचार से सहसा ही सबके लिए सुगम बन जाता है ...अगुनहि सगुनहि नाहि कछु भेदा..
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 मुझे नहीं लगता कि राम बस मनुज कल्पना की एक  मंजु मूर्तिमान स्वरुप   हैं ..उत्तर से दक्षिण की ओर आर्यों का प्रवास हुआ है ....अब रावण अनार्य था और राम आर्य -मैं इस मीमांसा  में नहीं जाना चाहता ...मगर यह तो सत्य है कि हमारी विरासत राम की ही दी हुई है ..आज कथा सूत्रों के साथ भौगोलिक विवरणों का मेल करें तो वे सारी जगहें , सारे परिवेश अपने विस्तृत  और सूक्ष्म दोनों पैमानों  पर पग पग पर विद्यमान है ..अयोध्या से तमसा , संद्यिका (सई ) , गंगा ,यमुना ,चित्रकूट ,नासिक -दंडकारण्य  ,रामेश्वरम और फिर एक समुद्री पगडंडी से होते हुए श्रीलंका तक राम -पथ  अविछिन्न रूप में दिखता है ...राम ने समुद्र सेतु का नव निर्माण न भी किया हो तो उसका जीर्णोद्धार तो किया ही है -ऐसा लगता है ...आज श्रीलंका इसी राम के पद चिह्नों पर चल अच्छी खासी मुद्रा पर्यटन  व्यवसाय से कमा रहा है ...क्या इन सारे तथ्यों को ठुकरा दिया जाय ? चलिए यह भी थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं ...मगर फिर राम भारतीय मनीषा में इतना आराध्य क्यों हैं ..पूज्य क्यों हैं अनुकरणीय क्यूं हैं ? 

राम पर चार काव्यों की चर्चा जरुरी है ...एक तो आदि काव्य वाल्मीकि विरचित रामायण ,दूसरा कालिदास कृत रघुवंश ,तीसरा भवभूति का उत्तर रामचरितम और चौथा तुलसी का राम चरित मानस ...रामायण से शुरू होकर मानस  तक राम की कथा एक महाकाव्यीय यात्रा कथा की पूर्ण.सम्पन्नता  की ही कथा  है जिसे लव कुश ने ही नहीं अनगनित लोगों ने स्वर संवर्धित किया ...राम को मानव से पूर्ण मानव ,पुरुषोत्तम राम और ब्रह्ममय राम तक बना दिया ..

वाल्मीकि पूरी नृशंसता के साथ राम के दोषों को उजागर करते हैं ..उनके बेटों तक से उन्हें धिक्कार कहलवाते  हैं - शाश्वत सतीत्व की मूर्तिमान  संज्ञा और पति की अनुगामिनी बने रहने वाली सीता का परित्याग ..? और वह भी एक अदने से आदमी के कह देने पर ? वाल्मीकि के साथ ही लोकमन राम के  इस कृत्य पर खिन्न हो उठता है ...कलिदास भी इस मुद्दे पर राम का साथ नहीं देते ..बस भवभूति  राम के इस नितांत वैयक्तिक पहलू को उभारते हैं ...क्या सीता के बिना राम का कोई अस्तित्व है -?? ..अंतर्साक्ष्य है कि नहीं ,कदापि नहीं ..-सीता के निर्वासन के साथ ही अयोध्या  श्रीं हींन  हो जाती है ..

टूटे शिथिल विरक्त  राम का विषाद उन्हें जनस्थान को ले जाता है जहाँ वन देवता का कवि मन  प्रसूत चरित्र  उनकी उसी पीड़ा को उभार कर जनोन्मुख करता है ...राम ने जो किया वह लोक समर्थन में किया ...एक अदने से व्यक्ति की बात नहीं ...पूरी अयोध्या उस तरह बिलख कर सीता निर्वासन को रोकने सामने नहीं आई जैसा राम के वन गमन के समय दृश्य उपस्थित हुआ था ...शायद  इसलिए भी कि राम की बात पलटती  नहीं थी -वही रघुकुल रीति आड़े आई ...इसलिए ही राम के आचरण का यह बड़ा धब्बा भी उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम की पदवी से रोक नहीं पाया क्योकि उन्होंने जो किया लोक मत के अनुसार किया ..किसको किसको सीता की सच्चरित्रता का प्रमाण देते फिरते ? लोक ने ऐसी अनुचित बात की ही क्यों ? असहाय से  धोबी विचारे पर तो लोगों ने सारा ठीकरा फोड़ दिया ..राम के गुप्तचरों की खबर थी कि घर घर में सीता के चरित्र की चर्चा है जैसा कि आज भी लोक मानस उसी मूढ़ता के साथ नारी को चरित्र का  सार्टीफिकेट बांटता फिरता है  ...यथा स्त्रीणाम तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनों जनः  .....(स्त्री के बारे में परिवाद फैलना ही लोगों का काम है ) लोकोपवाद से सीता को बचाने के लिए इतना बड़ा त्याग राम के अलावा कौन कर सकता था  ....फिर वे एक चक्रवर्ती राजा बन गए थे ....जिस जगह सीता रहीं वह उनके ही पर्यवेक्षण में ही  था ...सहज बुद्धि यह क्यों नहीं समझ जाती ...
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अब एक पोस्ट में राम के किस रूप को समेटूँ  - आज्ञाकारी पुत्र ,आदर्श भाई ,एकनिष्ठ दाम्पत्य को समर्पित आदर्श पति ,.एक श्रेष्ठ शासक ...यह अपौरुषेय कर्म है ...हाँ एक बात कह दूं, राम और सीता जैसी जोड़ी और उनकी देवोपम  सुन्दरता के इतने विवरण हैं कि लगता है जिसने इस युगल जोड़ी को देखा वह तो ठगा ही रह गया जिसने नहीं देखा उसका जीवन ही व्यर्थ चला गया ....यह भी एक पहलू है राजा  राम कथा का जिस पर चर्चा फिर कभी .....राम का जीवन त्याग त्याग और सर्वथा त्याग का है ,कड़े विधान नियमों में जीवन यापन  का है ....आज इसलिए भारतीय जनमानस में त्याग का बड़ा मूल्य है ....आप परिवार में , समाज में ,राजनीति में त्याग के उदाहरण तो दिखाईये ,फिर देखिये  जनता जनार्दन किस तरह आपको मानो राम का राज्य ही सौपने  को उद्यत हो जाती है ......
 राम सीता के भेष में थाई नर्तक नर्तकी 
मानस की इस चौपाई से सीता के प्रति राम की भावना -उदगार के साथ ही यह ब्लॉग पोस्टीय  रामांक पूरा करता हूँ -इनका ह्रदय एक दूसरे के प्रेम को जानता है ,सीता हर जन्म में राम की ही प्रिया बनने को आकांक्षी हैं ..कृष्ण रूप में वही राधा हैं ..जन मानस आज भी उन्हें अलग अलग कहाँ देखता है ....हर सुघड़ जोड़ी सीता राम की ही जोड़ी है ....राम सीता से कभी न अलग हुए और न कभी होंगे ......
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा ,जानत प्रिया एक मन मोरा 
सो मन  सदा रहत तोहिं पाहीं ,जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं
(मानस ,सुन्दर काण्ड :१४/६-७) 
सियावर रामचन्द्र की जय ....

रविवार, 15 अगस्त 2010

तुलसी जयन्ती पर युगद्रष्टा कवि को श्रद्धा सुमन: कबीर तुलसी श्रीराम त्रयी और मानस का बोनस -2

तुलसी को मनोयोग से बार बार पढना किसी भी अनिर्वचनीय आनंद  से  कमतर नहीं है . मानवीय सरोकारों -संवेदना के अगाध अकूत पूर्ववर्ती साहित्य का अवगाहन आप न भी करें, केवल तुलसी को तन्मयता से पढ़  लें  तो समझिये बाकी के न पढ़ पाने  की कसर पूरी हो जायेगी   ..इसलिए कि इस युग द्रष्टा रचनाकार ने सामाजिक -सांसारिक सरोकारों पर अपने पूर्ववर्ती साहित्य का श्रेष्ठतम निचोड़ अपने रचना लोक ,खासकर मानस में समाहित करने का प्रयास किया है ...मैंने देखा है कि तमाम रंगरूट बुद्धिजीवियों को  जिन्हें   तुलसी का  उत्तरवर्ती, पाश्चात्य साहित्य  -फ्रायड ,डार्विन और मार्क्स की लेखनी ऐसी व्यामोहित करती है कि वे विचार विमर्श के अनेक शाश्वत मुद्दों पर बस वहीं गोल गोल जीवन भर घूमते रह  रह जाते हैं ...माना कि इन महान शख्सियतों को पढना प्रगतिशीलता का तकाजा है  और सामयिकता के लिहाज से जरूरी भी  मगर अपनी पृष्ठभूमि से जुड़े पूर्ववर्ती संदर्भों से कटकर हम चिंतन के एक विराट अविच्छिन्न अतीत  से  पृथक हो रहते हैं  ...मैं बार बार बहुत आग्रह -अनुरोध के साथ उस वर्ग से जिसे पढने लिखने में अभिरुचि है यही आह्वान करूंगा कि विश्व वांगमय  के सकल अवगाहन के साथ ही  तुलसी को उपेक्षित न करें ...कम से कम मानस को एक बार स्थिर मन से पढ़ तो लें ...  फिर तो मन भौरे की तरह वहीं पहुंचेगा बार बार ...मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे ....

चित्रकार के मन - मानस के तुलसी
भारतीय साहित्य और लोक मानस में तुलसी का अवतरण किसी चमत्कार से कम नहीं है ..उनका पदार्पण ऐसे वक्त हुआ जब जनमानस अनेक सांस्कृतिक संघातों,झंझावातों से गुजर रहा था ..अनेक मत मतान्तरों का बोलबाला था ...कबीर की ललकार -जो घर छोड़े आपना चले हमारे साथ लोगों में जीवन के प्रति विरक्ति भाव का संचार कर रही थी ..आस्था पर अनास्था की चोट दर चोट हो रही थी ...ऐसे मे ही तुलसी प्रादुर्भूत होते हैं ..उन्होंने मानस की रचना  जीवन के साठवें वर्ष में आरम्भ की ..कहते हैं साठा सो पाठा  ..उन्होंने खूब स्वाध्याय और जीवन के स्वानुभूत अनुभवों से गुजर कर मानस प्रणयन की जिम्मेदारी संभाली ...जो सबसे खास बात तुलसी की है वह उनकी विनम्रता है -जहां कबीर यह कहकर कि मसि कागद छुयो नहीं एक दर्पभरा   हुंकार करते हैं तुलसी कह देते हैं ..कवि विवेक एक नहि मोरे सत्य कहऊँ लिख कागज़ कोरे .....वे अपनी मूढ़ता लिखित तौर पर स्वीकारने को तत्पर दीखते हैं ...तनिक आज के कवि जनों को देखिये ...

तुलसी ऐसे समय जनोन्मुख होते हैं जब   मत मतान्तरों ,सम्प्रदायों के चाल कुचाल में  जनता जनार्दन भ्रमित सी हो रही थी ...विदेशी आक्रान्ता कहर ढा  रहे थे...नाथों ,सिद्धों ,दंभी निर्गुनियों और पंच मकारी पाखंडियों के आचरणों से चारो ओर अश्रद्धा और अविश्वास का माहौल था-बौद्ध धर्म तिरोहित हो चला था मगर उसका शेष प्रभाव जनमानस पर था -लोग वेद विहित आचरण को लेकर आलोचनात्मक हो गए थे-कहीं सूफी मत प्रभाव जमा रहा था तो दूसरी ओर तरह तरह के ज्ञान पंथ अपने दम्भपूर्ण आचरण से लोक जीवन की सांस्कृतिक थाती पर निरंतर आघात कर रहे थे-ख्नंडनात्मक वृत्ति मुखर थी - हर ओर टूटन ,क्षरण ,बिखराव और आस्था के आयामों का दरकना ! -इसी बीच तुलसी आये और सगुण राम के आदर्श  के बहाने  लोगों में जीवन ,समाज के प्रति आस्था और जिम्मेदारी की भावना का संचार किया -रामराज्य के एक सर्वतोभद्र फार्मूले को भी ला सामने किया जो आज भी एक राजनीतिक अजेंडा है.और मानव सभ्यता के वजूद  तक रहेगा!

तुलसी ने खल वंदना भले की हो मगर उघरहिं अंत न होहि निबाहू  कहकर दुष्टजनो को उनकी औकात भी बतायी ...समाज में  मूल्यों की स्थापना  -संत साधुओं का आदर ,पारिवारिक मर्यादा ,सामाजिक अनुशासन ,लोकमंगल की चाह उनके कृतित्व के मूल भाव हैं -सर्वव्यापी हो रहे म्लेच्छों /राक्षसों के  अनाचार और अत्याचार  के विरुद्ध उठ खड़े होने का मूल मन्त्र देकर उन्होंने लोक जीवन को असहायता और क्लैव्यता से बचा लिया -साहित्य भी रचा तो जनभाषा में ,ठेठ भदेस अवधी में जबकि संस्कृत को ही विद्वता का परिचय माना जाता था -उन्होंने कहा ,भाषा भनिति भूति भल सोई सुरसरि सम सबकर हित होई ..फिर जिस भी भाषा में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का नाम हो वही श्रेष्ठ बन जायेगी!आज तुलसी जयन्ती की पूर्व संध्या पर इस युगद्रष्टा महाकवि को श्रद्धा सुमन!

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

शर्म उनको मगर नहीं आती ...आज मेरा शोक दिवस है!

आशंका सच साबित हुई -प्रकाशन विभाग से पुस्तक छप के आ गयी -इस समय मेरे सामने है ..विकासवाद के जनक चार्ल्स डार्विन .मेरा नाम गायब है ...जबकि लगभग पूरी किताब ही मेरे पूर्व प्रकाशित लेखों और दूसरे लेखकों के समय समय पर प्रकाशित लेखों से कामा ,फुलस्टाप सहित जस का तस लेकर छाप दी गयी है -पूरा विवरण यहाँ अवश्य देख लें -इस पूरे मामले में एक घोषित नारी वादी और लेखक भी -दोनों भारत सरकार के प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्यरत हैं की घृणित भूमिका है .ऐसे लोग अपने संस्थानों जहाँ वे कार्यरत है पर भी अपने घृणित ,भर्त्सनीय आचरण का धब्बा लगा देते हैं -इस देश में कोई देखने सुनने वाला है ऐसे लोगों के  आचरण को ?

क्या हो गया है भारतीय बौद्धिकता को ? चोर गुरुओं की चांदी क्यों  गयी है यहाँ ? दूसरे के श्रम और बौद्धिकता पर क्यों पलते हैं लोग ? क्या अकादमीय जगत ऐसे परजीवियों से मुक्त हो पायेगा ? शर्म उनको मगर  नहीं आती -दूसरे की सामग्री पैराग्राफ  दर पैराग्राफ उड़ा ली जाती है -और उसको यथोचित क्रेडिट नहीं दी जाती! एक लेखक की प्रचुर सामग्री किसी पुस्तक में छाप दी जाती है और लेखक से उसका नाम इसलिए  हटा दिया जाता है कि कुछ लोगों ने उसे नारी विरोधी तनखैया घोषित कर रखा है -मानवता की न्याय संहिता के किस अध्याय में ऐसा न्यायिक  विधान लिखा हुआ है ? क्या मानवीय नैतिकता ऐसे कुकृत्य को माफ़ कर देगी ? क्या आज के भ्रष्टाचार के नागारखाने में न्याय की यह गुहार  दब के रह जायेगी ? मित्रों, मनुष्य की बौद्धिकता की ऐसी गिरावट पर आज मेरा शोक दिवस है -

बस इतना ही आज .....क्या इस शोक दिवस में आप मेरे साथ हैं ??

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

शेरो शायरी की मेरी पसंद ..

पिछली पोस्ट से आरम्भ हुई 'त्रयी ' ने दिमाग पर इतना जोर डाला कि मन  हो आया   आपसे कुछ हल्का फुल्का ही फिलहाल साझा कर लिया जाय .इन दिनों ब्लॉग जगत में शेरो शायरी की बहार आई हुई है -ताज्जुब होता है कि लोग बाग़ इतना उम्दा लिख कैसे लेते हैं ,अकस्मात इच्छा हो आती है कि कलम या की बोर्ड को संभाले उन उँगलियों को चूम लूं जिन्होंने किन्ही होठों को चूम न पाने की अपनी कशमकश को इतनी ख़ूबसूरती से कागज़ या ब्लॉग पृष्ठ पर उतार दिया है ....हम भी याददाश्त की गलियों में गोते लगाने लग जाते हैं ...अब आज के नव युवा के बारे में कोई सर्वेक्षण हुआ हो तो हम नहीं जानते मगर बीते ज़माने के  एक गवई बेसऊर ,किशोरावस्था की दहलीज पर पड़े उस शख्स की दास्तान हम आपको जरूर सुना सकते हैं जिसे हम उम्र कितने ही दूसरे दोस्तों के साथ शेरो शायरी में अचानक रूचि हो आई थी ....

हाई स्कूल के नतीजे निकलने वाले थे...दिल की धडकन बढ़ती जा रही थी ..अब सारा समय तो गुल गपाड़ा में ,शेरो शायरी का मतलब जानने में बीत गया था तो परिणाम होना क्या था ..मगर फेल होने पर  ठुकाई /जग थुकाई का ख़याल आते ही डर के मारे उस किशोर  के  शरीर के रोयें रोयें  सिहर उठते थे-घबराहट और बेचैनी के उसी अलाम  में उसने यह  मैडेन शेर लिखा  और उसके बाद फिर उसकी कलम हारे हुए अर्जुन की गांडीव बन गयी,फिर सध न सकी   -हर्फ़ हर्फ़ याद है उसे वो पहला और आख़िरी स्वरचित  शेर -
दिल जानने को बेचैन है आखिर 
क्या होगा नतीजा मेरे इम्तिहाँ का 
बहरहाल हजरत पास तो हो गए मगर शायरी का असर अंकतालिका पर पड़ चुका था ...और अब तो शेरो शायरी  को लेकर एक अजीब सा प्रतिशोधात्मक भाव भी उनके  मन में आ गया था ..सारे के सारे पढ़ डालूँगा .अब या तो ये  रहेगी मन  में या इसका काम तमाम ही कर  देगें हमेशा के लिए  .उन्होंने  हिंद पाकेट बुक्स की ग़ालिब की शायरी पर एक पेपर बैक मंगा ही ली ...अब मियाँ का मुंह और मसूर की दाल ...शेरो सुखन की पहली ही चुनौती ग़ालिब से मिली और मियां चारो खाने चित ..चले थे शायरी की मय्यत उठाने ..खीझ में बिना समझे ग़ालिब के कई शेर ही रट डाले -मतलब आज तक पता नहीं ...(कोई हमदर्द बताएगें क्या ?कुछ गलती हुई हो तो वह भी सुधार देगें ...अब याददाश्त ही तो है जो कहते हैं बड़ी बुरी दोस्त होती है एन  वक्त पर साथ छोड़ देती है ... )
इशरते  कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना 
दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना 

इन आबलो के पाँव से घबरा गया हूँ मैं 
जी खुश हुआ है राह को पुरखार देख कर
उस पूरे दीवान में बस नीचे का एक यही शेर जनाब के कुछ  समझ में आया,इसमें वाईज साहब कौन हैं यह तो आज तक समझने में  लगे हैं ..ग़ालिब के कोई दोस्त  -वोस्त रहे होंगे ...
ग़ालिब बुरा न मान   जो वाईज बुरा कहे 
ऐसा भी कोई है सब अच्छा कहे जिसे 
 जनाब को जल्दी ही लग गया कि शेरो शायरी  को  प्यार और  ख़ुलूस से ही हासिल किया जा सकता है ...दोस्तों ने भी समझाया कि  मियां ग़ालिब के अलावा और भी सुखनवर है इस दुनिया में ..और लाकर दीगर शायरों के कुछ नायाब किताबे भी सामने रख दी ...उन्हें पढ़ते हुए लगता था कि कोई अज्ञात नाम के अजीम शायर हो चुके हैं जो इतने उम्दा शेर लिखते हैं मगर आज तक यह समझ में नहीं आया कि फिर वे खुद का नाम  अज्ञात क्यों लिखते थे..शायद बदनामी का डर रहा होगा उन्हें ..अब देखिये न यह कैसा शेर है उनका -
अंगडाई ले भी न पाए थे वे उठा के हाथ 
देखा मुझे तो मुस्कुरा के छोड़ दिए हाथ 
और यह भी कि 
अभी नादाँ हो खो दोगे कहीं दिल मेरा 
तुम्हारे लिए ही  रखा है ले लेना जवां होकर 
अब नीचे वाले वाले शेर को पढ़ पढ़ के जनाब मुतमईन हो जाते थे जबकि उनका एक होशियार साथी समझाता रहता था -अरे इनका चक्कर तुम नहीं जानते ,ये बस बहानेबाजी है ,ये दिल वो किसी और को देने के फिराक में हैं  बस तुम्हे उल्लू बन रहे हो ...और बात सच ही निकली ...आज वो मोहतरमा खुद भी कई शेरो शायरियों की  जन्मदाता होकर ये भी भूल गयीं कि उनका वो दीवाना कबका जवां हो चुका है ...उन्ही दिनों के कुछ और शेर सुनाकर यह सेशन यही समाप्त करते हैं ---मगर यह अफसाना तो अभी शुरू ही हुआ है ......
एक वो आलम था कि खुदा को खुदा न कह सका 
इक  ये आलम है कि हर बुत को खुदा कहते हैं ..

याद में तेरी जहां को भूलता जाता हूँ मैं 
भूलने वाले कभी तुझको भी याद आता हूँ मैं


मिलते हैं फिर ....

रविवार, 8 अगस्त 2010

कबीर तुलसी श्रीराम त्रयी और मानस का बोनस -1

मेरी पिछली पोस्ट कौन और क्यूं हैं राम  पर अली सा ने टिप्पणी की है कि मैं कबीर ,तुलसी और /के राम पर कुछ क्रमबद्ध लिखूं जो यहाँ  ब्लॉग पर चल रहे ईशनिंदा के माहौल से अलग हो ....मैंने इस विषय पर उन्हें अपने सीमित अध्ययन के चलते  टिट्टिभ प्रयास का वायदा किया था तो आज ही 'काल करे सो आज कर आज करे सो अब ' के अनुसार कबीर साहब पर कुछ लिख रहा हूँ -पहले ही कह दूं कि कबीर तुलसी के पहले आये तो यह भारतीय जनमानस के लिए मंगलकारी साबित हुआ .ऐसा क्यों हुआ आप खुद इस श्रृखला के समापन पर समझ जायेगें .

जैसा सब जानते ही हैं ,कबीर के जन्म के विषय में जो भी किवदन्ती हो इतना तो तय है कि उनका लालन पालन मुस्लिम परिवार में हुआ .-उनके जन्म के पहले काशी में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था... आज जो कबीर साहित्य उपलब्ध है उसके बारे में यह कहना मुश्किल है कि कितना मूल कबीर साहब का है और कितना उनके अनुयायियों का ..कबीर पंथियों को लोक जीवन ने लम्बे समय तक हाथो हाथ लिया -क्योंकि तत्कालीन पाखंडियों की कबीर ने जम कर खिचाई की थी ...कबीरपंथी पोंगापंथियों और सामाजिक शोषण कर्ताओं पर भारी पड़ने लगे ..कबीर ने कूप मंडूकता,और अतार्किक गतिविधयों पर गहरी चोटें की ..लोगों को ललकारने की भाषा में उनकी बेवकूफियों की खबर ली ..पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजु पहाड़ ,तासे यह चकिया भली पूजि खाय संसार और काकर पाथर  जोरि के मस्जिद लई बनाय  ता चढि मुल्ला  बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाय .....आदि आदि  मगर इन चार पॉँच  सौ सालों में भी कोई फर्क आया है भला ?...कबीर तल्ख़ से और तल्ख़ होते गए ..कबीरपंथी भी  अक्खड़ होते रहे ,कबीर के बाद तो और भी ....उनके संदेशों की एक अलग सधुक्कड़ी भाषा ही बनती गयी ,जिसमे भोजपुरी ,अवधी ,मैथिली ,उड़िया ,राजस्थानी ,पंजाबी के पुट भी आते चले गए .कबीरपंथ का इतना व्यापक फैलाव होने के बाद भी आज भी बड़े पैमाने पर कर्मकांडों  और कट्टरता का बोलबाला बना हुआ है.
इस छोटे से आलेख /पोस्ट में कबीर के व्यक्ति,काव्य क्षमता -रस निष्पत्ति  और पंथ का विस्तार से वर्णन संभव नहीं है ...कई मनीषी इस पर पहले लेखनी चला चुके हैं ..हिन्दी साहत्य के पुरोधा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर आधिकारिक तौर पर लिखा -अंतर्जाल पर भी प्रभूत सामग्री उपलब्ध है .कबीर अपने काल के चारण कवियों के भांति  तो नहीं थे ....वह ऐसा काल था  जब चारो ओर हठवाद,पाखंडवाद ,और तमाम तरह की कुरीतियाँ फ़ैली हुई थीं ..एक तरफ इस्लामिक साम्राज्यवाद का अहम् जोर पकड़ रहा था तो दूसरी ओर हिन्दुओं का जर्जरित पोंगापंथ -धर्म को "तिजारत" बना दिया गया ..आज भी कहाँ बदला है कुछ ??  ..
कबीर ने पोंगापंथी हिन्दुओं ,कठमुल्ले मुसलमानों को तर्क के आधार पर चुनौतियाँ दी  ..और दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के गंभीर प्रयास किये  .संत नानक के अनुयायियों ने कबीर को पूरा सम्मान दिया -गुरु ग्रन्थ साहब में इसकी झलक भी दिखती है ..हिन्दुओं में भी आज कबीर पंथी यत्र तत्र सर्वत्र दिखते हैं मगर मुसलमानों में कबीरपंथी नहीं दिखते यद्यपि कबीर की ईश्वर में अगाध श्रद्धा थी ...एक मुसलमान परिवार के होने के बाद भी आज मुसलमान "कबीर साहब" को वह सम्मान नहीं देते दिखाई देते जिसके वे वास्तविक हक़दार हैं .

कबीर का अध्ययन सम्पूर्ण संत साहित्य के अध्ययन की आधारशिला है -सच तो यह है कि तुलसी साहित्य की चरम वास्तविकता को बिना कबीर को समझे आत्मसात नहीं किया जा सकता ..कबीर का प्रादुर्भाव  लोक साहित्य के  इतिहास में कई सुनहले पन्ने जोड गया है ....
.अगली बार तुलसी ...
कबीर तुलसी श्रीराम त्रयी और मानस का बोनस -1

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कौन और क्यूं हैं राम ?

बात आपने शुरू की है और आपकी शिकायत है कि आपके सवालों का सीधा जवाब नहीं दिया जाता बल्कि कुछ का कुछ बताया जाता है .तो आज सीधा जवाब भी सुन लीजिये ...वैसे यह बात तो शुरू की थी मौलाना  कबीर ने जिन्हें  आज खुद मुस्लिम भाई भूल गए हैं -किसी कबीरपंथी मुस्लिम का नाम बताईये!जबकि कबीरपंथी हिन्दू एक ढूंढो हजार मिल जायेगें . कबीर ने कहा था -
रामनाम का मरम है आना  
दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना
तुलसी यही शंका मानस में पार्वती के जरिये रखते हैं -
राम सो अवध नृपति सुत सोई,
की अज  अगुन अलख गति कोई 
और  शंकर ने उत्तर दिया -
तुम जो कहा राम कोउ आना ,
जेहिं श्रुति कहहिं धरहिं मुनि ध्याना 
देखिये यहाँ राम नाम का मरम है आना और तुम जो कहा राम कोउ आना में कितना साम्य है !अब उत्तर भी देखिये -
जेहिं गावहिं वेद बुध  
जाहि धरहि मुनि ध्यान 
सोई दशरथ सुत भगत हि
कोशल पति भगवान 
दरअसल कबीर पंथियों द्वारा अविश्वास ,आस्थाहीनता और अराजकता ,प्रमत्तता व्यथित तुलसी ने कबीरपंथियों की ही भाषा में जवाब दिया -
सगुनहि अगुनहिं नहीं कछु भेदा 
गावहिं मुनि पुराण बुध वेदा 
जितना ही   कबीर पंथियों ने राम के निर्गुण स्वरुप को स्थापित करने का प्रयास किया,तुलसी ने दाशरथी राम को प्रतिष्ठित किया -उन्होंने राम को निर्गुण और सगुन दोनों का ही समन्वित रूप उदघोषित  किया -बिनु पग चलई सुनई  बिनु काना ,कर बिनु  करम करई विधि नाना ,आनन रहित सकल रस भोगी बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ...यही तो हैं राम -उन्हें पहचानने में तुलसी ने कोई भूल नहीं की -अब जनता  जनार्दन के लिए यह पहेली एक टेढ़ी खीर बन गयी ....उसे तो आस्था का कोई आधार चाहिए -हम आपने माता पिता पुरखों की तस्वीर के आगे नतमस्तक हो ध्यान मग्न होते हैं -अब निराकार ,अलक्ष्य की ओर देखना आम आदमी के लिए तो एक मूर्खता भरा ही प्रयास हैं न ? फिर राम के आदर्शों का अनुपालन तो दूर की बात है -इसलिए ही सोई दशरथ सुत ....और यह भी कि तुलसी अलखहिं का लखहिं राम नाम भज नीच ....सोई दशरथ सुत में सोई पर ध्यान दीजिये ..तुलसी ने विशेष ध्यानाकर्षण के लिए ही सोई को जानबूझ कर रखा और वही राम जन जन प्राणी प्राणी में विद्यमान है ....
सीय राम मय सब जग जानी 
करहुं प्रणाम जोरी जुग पानी 
अब भोले लोग आज भी पूछते हैं कि राम कौन हैं ? अब कोई हमें बताये कि हम इन्हें बतायें क्या ?
संदर्भ/मूल भाव :
आधुनिक हिन्दी निबंध:डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र और डॉ मनोज मिश्र






सोई दशरथ सुत 

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

मैं लखनऊ ब्लॉगर अशोसिएशन से हटने की घोषणा करता हूँ!

अभी इस ब्लाग पर एक पोस्ट चर्चा में चल ही रही है एक आपातकालीन पोस्ट करने की जरूरत आ  पडी है ...मैं लखनऊ ब्लॉगर अशोसिएशन से हटने की घोषणा करता हूँ -मैं इसके उद्येश्यों को लेकर शुरू से ही संशय में था मगर अनिच्छा से   ज्वाईन कर लिया था क्योंकि उसमें कुछ अच्छे सेंसिबल ,परिपक्व विचार व्यवहार के लोगों को देखा था ...जो आज भी हैं वहां -मगर  मैं ऐसी किसी संस्था में नहीं रहना चाहता जिसके अंदरूनी अजेंडे कुछ और हों और बाहरी कुछ और ....मतलब हाथी के दात दिखने के और खाने के और ...लिहाजा मैं इससे हट रहा हूँ यह कोई सामूहिक आह्वान नहीं है एक व्यक्तिगत पराजय है मनुष्य को न पहचाने की -अब प्रायश्चित जरूरी है ...
मैं इस मंच को ज्वाईन करते समय अपनी पहली पोस्ट अभिलेखार्थ और आप पढने की सदाशयता दिखायेगें तो परिशीलनार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ -मूरख ह्रदय न चेत जो गुरु मिले विरंचि सम ...

मैंने ज्वाईन तो कर लिया है ,लखनऊ ब्लॉगर असोसिएशन को ,मगर मेरी शर्ते हैं!

सलीम खान के निरंतर अनुरोध पर अपने तमाम हिचक और हिचकियों के बाद मैंने लखनऊ ब्लॉगर असोसिएशन को आखिर ज्वाईन कर लिया है .मगर मेरी कुछ  शर्ते हैं.मगर पहले मैंने क्यों ज्वाईन किया है इस पर कुछ रोशनी डालता चलूँ .सलीम खान के निरंतर अनुरोध को मेरे द्वारा टाला जाना संभव नहीं हो पाया .मैं उस प्रजाति में से हूँ कि किसी को भी न कह पाना बहुत मुश्किल पाता हूँ .दूसरे यह मंच सामाजिक सरोकारों के लिए बहुत कुछ  कर सकता है इस संभावना से भी मैं उत्साहित हूँ -मुझे पता नहीं कि यह संस्था सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अधीन पंजीकृत है या नहीं ? अगर नहीं है तो इसे शीघ्र कराने की कार्यवाही की जानी चाहिए .जाकिर को इसका अनुभव है वे मददगार हो सकते हैं .

मैं एक फुल टाईमर लोकसेवक हूँ इसलिए मात्र वैज्ञानिक और कला विषयक प्रविष्टियों पर मेरी जवाबदेही और सहयोग यहाँ हो सकेगा -बाकी से मेरा कोई नाता  नहीं है और न ही मेरी जिम्मेदारी .यद्यपि इस ब्लॉग पर व्यक्त विचारों और टिप्पणियों की साझी जिम्मेदारी से हम मुक्त नहीं हो सकते -इसलिए हमरा प्रयास होना चाहिए कि हम ऐसी कोई बात न कहें और न प्रचारित करें जिससे समाज की साम्प्रदायिक  संरचना  को ठेस पहुँचती हो .हमें धर्म के मामलों पर बातों को कहने में अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए -धर्म वही है जो इंसानियत सिखाये ,इंसान बनाए बाकी सब बकवास है कूड़ा-करकट है .मैं जनता हूँ यह कहना आसान है और अमल में लाना  मुश्किल .मगर कोशिश करने से क्या संभव नहीं है ?

हम यहाँ समाज के कई और मुद्दों को ले सकते हैं जो ज्यादा जमीनी हैं ,ज्यादा जरूरी हैं  .हनुमान ने मंदिर क्यों नहीं तोडा और फलाने ने मस्जिद क्यों  ढहाई ? शायद  इन बातों की  समझ और सलीके से कहने को अभी यह मंच परिपक्व नहीं है .यह सब कहते हुए हम अपने कबीलाई दौर में पहुँच जाते हैं जहाँ पत्थरों के बड़े भोडे आकार के आयुधों से लोगों के सर भुरता कर दिए जाते थे-तबसे मानव  का बड़ा सांस्कृतिक विकास हुआ है- हमने बहुत तहजीब सीखी है -हम फिर उसी हिंस्र युग में नहीं जा सकते -मगर मनुष्य की तहजीब ने जो बदलाव किये हैं दुःख है कि वह बहुत कुछ ऊपरी ही है -आज भी हमारे अंदर एक   वनमानुष ही छुपा है   -क्या इस को साबित करने के लिए प्रमाण चाहिए ? बात बात में हम एक दूसरे के खून के प्यासे हो उठते हैं .क्या यह प्रमाण कुछ कम है ? और हमको फिर से वनमानुष बनाने वाले तत्व कौन हैं -मजहब /धर्म की श्रेष्ठता  की बकवादें,दीगर रकीबी - जर जोरू जमीन के  मामलात ,खुद को सारी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ -हिटलर बनने का सपना ,नस्ली श्रेष्टता की सोच -हम यह भूल जाते हैं कि हम सब एक ही माँ के जाए हैं जो आज धरती पर मानव  के नाम से जाने जाते हैं -हमारी वह माँ जो करीब करोड़ वर्ष पहले अफ्रीका में  जन्मी थी -बस उस एक की औलादें ही आज कई अरब हो चुकी हैं -बाकी माओं के न जाने दूध में कुछ जान   न  रही होगी शायद जो उनकी संताने हमारे साथ यहाँ तक मनुष्यता का परचम  थामे नहीं आ पाई .
हम एक मूल के हैं -सभी जेनेटिक तौर पर ९९.९ फीसदी समान -बस समयांतराल के साथ इस विशाल धरा पर फैलते गए.


-याद है वह  नूह की कश्ती ? आर्क आफ नोआ ? मनु की नौका ? सब एक है मेरे भाई -उस महाप्रलय से हम बच गए मगर आज के भाई भाई की दुश्मनी से बच पायेगें -यह कहना मुश्किल लगने लगता है . हमारा मूल एक है -हम एक वंशमूल के हैं -मैंने अपना डी  एन ये जंचवाया -जो कि ईरान की आबादी में आज रह रहे लोगों से सौ फीसदी मिलता है .तब भी हम इतने अहमक हैं कि धर्म के नाम पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं -हो सकता है सलीम की उसी जीनिक पुकार ने मुझे विचलित कर दिया हो और आज इस नक्षत्र -घड़ी में मैंने लखनऊ ब्लागर  असोसिएशन ज्वाईन कर लिया है.
आशा है सलीम भाई मेरे विश्वास की कद्र  और रक्षा करेगें .
१८ मार्च २०१०
आज यहाँ से विदा लेता हूँ दोस्तों ,रवीन्द्र प्रभात जी मुझे क्षमा करिएगा  -एक सुझाव यह देकर जा रहा हूँ अगर संभव हो सके तो सलीम के लिखे आलेखों को खुद पढ़ते हुए उनका मूल्यांकन एक कमेटी से करा लीजियेगा !
६ अगस्त 2010

हैट्स आफ अल्पना जी ....ब्लॉग जगत आपके अवदानों से कृत कृत्य है!

गीत उन्मन है गजल चुप है औ रुबाई है उदास ..ऐसे माहौल में नीरज को बुलाया जाय ...(ब्लॉग जगत के नए  जेहादियों लानत है तुम पर,कम से कम मेरी एक रात तुमने बर्बाद कर दी है ... ) ......और मैं आह्वान करता हूँ अल्पना वर्मा जी का -मेरी एक और प्रिय चिट्ठाकार जो  अब किसी परिचय का मुहताज नहीं हैं .यहाँ इतनी देर से उनके  आह्वान पर मैं खुद भी थोडा अचम्भित हूँ -उन्ही से शिकायत करता हूँ  -बड़ी देर कर दी मेहरबां   आते आते ..होता है होता है ...कभी कभी ऐसा भी हो जाता है ...अब वे इतने दिनों से हमारी सहयोगी हैं -साईंस ब्लॉगर असोसिएशन की जिम्मेदारियों  का भार  शुरुआती दौर  में अल्पना जी के कन्धों पर भी था और उन्होंने जितनी गम्भीरता और नियमितता  से इसका निर्वहन किया कि मैं उनके प्रति एक सम्मान भरी  कृतज्ञता से आप्लावित होता रहा ...बहुत कम लोग हैं जो किसी भी कार्य को टीम -अभियान की गति देने में कुशलता से जुट जाते हैं-अल्पना जी साईंस के काज को समर्पित एक ऐसी ही प्रखर कामरेड हैं ...सबाई परिवार उनके इस व्यक्तित्व से बखूबी परिचित है और चिर  कृतज्ञ  भी ...

मैं चिट्ठाकार चर्चा में अल्पना जी को सम्मिलित  करने को कई बार उन्मुख हुआ पर शायद  तस्वीर पूरी बन नहीं पाती थी ....या वे खुद संभवतः किसी अलौकिक प्रेरणा के चलते यहाँ आह्वानित (गिरिजेश भैया ,मुक्ति ये शब्द गलत तो नहीं ? )  नहीं हो पा  रही थीं या फिर देवी आह्वान का मेरा ही अनुष्ठान किसी अनजान कमी का शिकार हो रहा था ,कौन जाने ? तभी वह तस्वीर भी दिख गई जो ऊपर है - कहते हैं कि वह तो बहुत पहले से ही वहां थी ....रही होगी मैंने  देखी नहीं या मुझे दिखी नहीं ...? ये सब अनुत्तरित  प्रश्न  ही हैं -लेकिन जब मैंने देखी  तस्वीर  तो पीत वसना  अल्पना जी को अकस्मात कह बैठा -आप भारतीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति दिख रही हैं और उनकी -  "शुक्रिया " का औपचारिक जवाब आ जाने से मैं आश्वश्त  हो गया कि उन्होंने यह  काम्प्लीमेंट  स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत कर दिया है -यद्यपि उन्होंने अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अपने धन्यवाद ज्ञापन में यह जोड दिया -" अपनी प्रशंसा आखिर किसे अच्छी नहीं लगती " अब इस बात से कौन मुतमईन नहीं होगा?   ..मगर मेरा आह्वान -यज्ञ पूरा हुआ तो मुझे बड़ी राहत मिल गई थी -देवी आह्वान पूरा हो चुका था -आज यह प्रतिष्ठापन भी ...  बिहारी मैंने तुम्हे भी  मात दे दी ...
लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥*
अल्पना जी हैं तो प्रवासी  भारतीय मगर उनका मन प्राण अपनी जन्मभूमि में बसता है -यह उदगार उनकी रचनाओं ,पोस्टों से अक्सर ध्वनित होता है .उनके  मुख्य ब्लॉग व्योम के पार पर  उनकी कविताओं और आलेखों से उनकी सोच की गहराई और प्रतिभा का सहज ही अहसास हो जाता है.उनकी प्रमुख रचनाओं के लिंक उनके ब्लॉग पृष्ठों पर दृष्टव्य हैं .-रानी लक्ष्मी बाई पर उनका लेख उनकी शोध वृत्ति और गहरे परिश्रम को भी इंगित करता है .मगर उनकी सबसे बड़ी खासियत है अपनी प्रतिभा का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रक्षेपण न करना ...बैद्धिक आग्रहों को दुराग्रहों में न बदलना ...अपनी साधना को चुपचाप अंजाम दिए जाना -वाद विवादों में न पड़ना जिससे कि रचनात्मक ऊर्जा का अपक्षय न हो  ...उनके दूसरे ब्लागों -गुनगुनाती धूप ,   भारत दर्शन से उनकी बहुमुखी  प्रतिभा का पता  चलता है .भारत दर्शन तो जैसे उनके मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम  को ही समर्पित है .वे खुद कहती हैं -
'यूँ तो वतन से दूर हूँ लेकिन इस की मिट्टी मुझे हमेशा अपनी ओर खींचे रहती है.
पहेली साम्राज्ञी तो वे है हीं -वे कहीं तो पहेली बुझाती हैं तो कहीं पहेलियों को  पलक झपकते सुलझा लेती हैं -तस्लीम की कई पहेलियाँ वे चुटकियाँ बजाते हल करती आई  हैं -उनकी इस प्रखर मेधा से मेरा परिचय तब हुआ था जब उन्होंने एक बड़ी कठिन सी पहेली का तत्क्षण जवाब दे  मेरा दर्प तोड़  दिया था (ओह !) जब मैंने एक पत्थरनुमा संरचना पर बुजेरिगर चिड़ियों की  चोंच मारती तस्वीर तस्लीम पर लगायी थी  तो उन्होंने उस पत्थर के बाबत सटीक जानकारी देकर मुझे स्तब्ध सा किया था -और ब्लॉग जगत को हल्के में न लूं यह ताकीद भी करा दी थी ...  दर्प टूटने के क्षणों की कसक आज भी महसूस होती है और तब से पहेलियों के बूझने के खेल में मेरे और उनके बीच  तू डाल डाल और मैं पात पात का खेल बदस्तूर जारी है .  अपनी इसी  बहुआयामी प्रतिभा से वे कितने ही सम्मान /अलंकरण से विभूषित हुई  हैं ..सुर संगीत की उनकी काबिलियत पर मैं नाकाबिल हूँ कुछ कह पाने में ..कोई संगीत परखी ही इस पर कुछ बोले  तो ज्यादा मुफीद होगा -हाँ गाहे बगाहे मैं उनके गाये गीतों को सुनता हूँ और आनंदित   होता हूँ ,फ़िल्मी गीतों का उनका चयन हमेशा सुरुचिपूर्ण होता है और उनके संवेदना के स्तर को दर्शाता है . उनकी कविताओं का लगभग नियमित पाठक हूँ और उनकी सोच की परिपक्वता और गहराई का प्रशंसक रहा हूँ ...
आज पहली बार ऐसा लग रहा है कि मेरे पास इस चिट्ठाकार की आलोचना के लिए न कोई शब्द है न भाव ...हैट्स आफ  अल्पना जी ....ब्लॉग जगत आपके अवदानों से कृत कृत्य है -बढती चलिए !
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*भाव -अर्थ=
‘‘लिखन बैठी जाकी सबी, गहि-गहि गरब गरूर,
भये न केते जगत के चतुर चितेरे कूर’’
-बिहारी
बिहारी नायिका के सौन्दर्य-चित्रण के लिए बड़े-बड़े और गर्वीले कलाकारों को बुलाया गया, किन्तु क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए उसके रूप को कोई भी चित्रकार-चित्रत नहीं कर सका। सारे कलाकार विफल होकर लौट गए। सौन्दर्य को परिभाषित करने में संस्कृत-साहित्य की एक उक्ति ही, इस घटना के लिए समीचीन जान पड़ती है-
‘‘क्षणै-क्षणै यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया’’
(जो क्षण-क्षण परिवर्तित हो, वही रमणी का रूप है।)
क्या किसी नारी का ऊपरी परिधान, उसकी साज-सज्जा, उसका बाह्य रूप-रंग एक क्षण में परिवर्तित होता है ? क्षण-क्षण परिवर्तित होने वाली तो अगाध गहराइयों में छिपी हुई अरूप और निराकार भावनाएँ हैं, जो सहस्त्रों भावों-अनुभावों के रूप में सदा गतिवान रहती हैं। मन के इन्हीं सुन्दर भावों से नारी लावण्यमयी बनती है, जिस असाधारण लावण्य को आज तक न कोई परिभाषित कर सका है और न कोई चित्रकार चित्रित कर सकता है।
नारी अपने प्रकृतिप्रदत्त सहज संवेदनीय गुणों से अभिभूत इस सृष्टि का फूल है, जो उसके अन्तर्मन में अक्षुण्ण रूप में लिखा हुआ है। काँटो की चुभन से दूर जो नीरस, सूखा और एक ठूँठ मात्र है। जिसका अन्तर्मन सुन्दर है, वह सदा सुन्दर है। आन्तरिक सौन्दर्य से मण्डित नारी अक्षुण्ण सौन्दर्य की अधिष्ठात्री है। नारी ! तुम कितनी सुन्दर हो !


चिट्ठाकार चर्चा

सोमवार, 2 अगस्त 2010

बेवफा ,छिनाल ,कामुक कुतिया पर गीदड़ हुआंस और कुक्कुर विलाप -गैर ब्लागीय साहित्य की एक झलक !

वर्धा अन्तर्ऱाष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वी एन राय पर इस बार का हमला ज्यादा घातक  है .अपने ज़माने की मशहूर पत्रिका ज्ञानोदय के नए समकालीन रूप   -नया ज्ञानोदय के ताजे अंक में उनका एक इंटरव्यू छपा है जिसे लेकर हंगामा मच गया है .. इंडियन एक्सप्रेस और डी  एन ऐ  ने खबर यहाँ और यहाँ  प्रकाशित की है ...पत्रकारिता के स्थापित मानदंडों के अनुरूप डी एन ऐ ने वी एन राय का पक्ष भी उद्धृत करने की सावधानी बरती है .ब्लाग जगत में भी इस घटना को  लेकर  कुछ हलचले हुईं हैं पर ब्लॉग जगत ने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी है ..कारण यहाँ  नारी विमर्श आम ब्लागरों तक समुचित तरीके से संवादित नहीं हो पाया है -इस दिशा में महज कुछ  ही गंभीर और ईमानदार प्रयास हुए हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि आधुनिक मानवीय सरोकारों का एक  यह अहम् मुद्दा अपने सही स्वरुप और समझ के साथ ब्लागरों को विश्वास में लेने में सफल होगा -अभी तो बस नारी विमर्श के नाम में केवल पुरुष विद्वेष ,असहिष्णुता ,अ -साहचर्य   का ही दौर रहा है और इसकी जिम्मेदार  नारीवाद का  नकाब लगाये कुछ मूढमति प्रतिगामी तत्व ही हैं .

पहले तो इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की रपट को देख लिया जाय जिसमें छिनाल शब्द के लिए -प्रास्टीच्यूट-  वैश्या शब्द का इस्तेमाल कर सनसनी फैलाई गयी है -छिनाल वैश्या नहीं है .वह लोकजीवन में कुलटा है ,पतिता है मगर वैश्या नहीं है ...और यह भी माना जाना चाहिए कि ये गालियाँ निश्चित ही पुरुषवादी सोच की देन हैं यद्यपि छिनाल का पुरुषीय विकल्प छिनरा है ....मतलब वह जो चरित्र की शुचिता से वंचित है जीवन साथी के प्रति इमानदार नहीं है वह छिनाल और छिनरा /भंडुआ  है .अब इंडियन इक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्टिंग में वैश्या (वृत्ति ) जो एक अनैतिक पेशा है को छिनाल के समानार्थी प्रस्तुत किया है तो इसके भी निहितार्थ हो सकते हैं .

अब आते हैं वी एन राय के साक्षात्कार पर जो यहाँ मूल रूप में देखा जा सकता है .मेरी अल्प समझ पूरे साक्षात्कार को इस रूप में देखती है -वी एन राय का कहना है कि कुछ नारीवादी लेखिकाएं केवल बेवफाई (इनफेड़ेलिटी =दाम्पत्य -च्युति  ) और नारी देह को ही मुख्य नारी विमर्श मान  बैठी हैं जबकि नारी से जुड़े और भी समीचीन मुद्दे हैं -उन्ही के शब्दों में -"यहाँ नारी विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह  है ...इसी रौ में वे आगे कह जाते हैं -"लेखिकाओं में  होड़ लगी है यह साबित करने में कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है ... मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रोमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक कितने बिस्तरों पर कितनी बार (धन्य हो गुरु अज्ञेय)   हो सकता था .." अब यह लेखिका कौन हैं और उनकी पुस्तक कौन है यह कयास का विषय  है - बिना पुस्तक को पढ़े इस पर क्या कहा जा सकता है ?.इतना कह लेने के बाद वी एन राय निष्पत्ति देते हैं -" दरअसल इससे स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे चले गए हैं .........औरतें भी वही गलतियाँ कर रही हैं जो पुरुषों ने कीं। देह का विमर्श करने वाली स्त्रियाँ भी आस्था, प्रेम और आकर्षण के खूबसूरत सम्बन्ध को शरीर तक केन्द्रित कर रचनात्मकता की उस सम्भावना को बाधित कर रही हैं जिसके त...हत देह से परे भी ऐसा बहुत कुछ घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है।"
  इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए पुरुष बेवफाई पर वे इलाहाबाद  के किसी मार्क्सवादी रुझान वाले रचनाकार को केंद्र मे लेकर लिखी एक कहानी "नमो अन्धकारम   "जिसमें  एक महिला पात्र  के चरित्र को अति कामुक कुतिया की तरह दिखाया गया है का भी हवाला देते हैं ....

मैं  इस विषय पर अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा हूँ -केवल मनन कर रहा हूँ कि एक प्रसिद्ध वामपंथी विच्रारक/लेखक  अगर ऐसा कह रहा है तो क्या वामपंथी साहित्य के विमर्श की भाषा यही है ? अपनी पल्लवग्राही सोच के अनुसार मैं नारीवाद और वामपंथी प्रगतिशील सोच के अन्तर्सम्बन्धों की कयास भी लगाता  रहा हूँ -जरा कल्पना कीजिये अगर यही शब्द किसी संघी (य ) सोच के महानुभाव के मुखारविंद से प्रस्फुटित हुए होते तो (उनकी बोली भाषा अलग है और मुझे कृत्रिम ज्यादा लगती है) ....तो क्या इस बार शिकारी खुद जाल में है ?   इस पूरे वाकये को दरअसल पूरे साक्षात्कार के संदर्भ में ही देखा जाना युक्तियुक्त होगा .
मैंने कुछ ऐसे ही विचार एक ब्लॉग पर व्यक्त किया तो वहां कहा गया कि मैं कुक्कुर विलाप करने वालों  की जमात में हूँ -मतलब उनकी गीदड़ हुआंस  टीम से अलग जो कि बिना पूरे परिप्रेक्ष्य को जाने हुआं हुआं पर उतर आई ..गीदड़ों का यह व्यवहार तो जग ख्यात है मगर कुक्कुर विलाप -इसकी अवधारणा कोई राय विरोधी टीम के नीलः श्रृंगाल समझाएगें क्या ? 

पुनश्च -यह पूरी पोस्ट विषयनिष्ठता  को परे धकेलते हुए लिखी गयी है क्योकि मुझे पता है मेरे कुछ मित्र समूचे घटना क्रम से संतप्त हैं और उन्हें मैं और संतप्त करना नहीं चाहता -यह पोस्ट उन तमाम ब्लॉगर मित्रों की जानकारी में यह प्रकरण जस का तस लाने  का एक प्रयास भर  है!मैं किसी वाद से न कभी जुड़ा और न ऐसे विषयों की मेरी समझ ही दुरुस्त  है ...
 

रविवार, 1 अगस्त 2010

.....अब आप भी प्रेम की रूहानी यादों में तनिक खो जाईये तो बात बनें!

इन दिनों छोटे भैया गिरिजेश जी एक अमर प्रेम कथा की प्रस्तावना कर चुके हैं ..दूसरा  अंक तक आते ही मेरी हिम्मत छूट गयी ..मैंने कॉपते होंठों और लरजते लफ्जों मे उनसे कह दिया कि मैं तो भैया आगे नहीं पढ़ नहीं पाऊंगा क्योंकि खुद का जख्म अभी हरा  है -प्रेम जीवन की यादगार अनुभूतियों में से है -नए शोध भी कहते हैं बाकी बहुत कुछ भूल जाय प्रेम पगी /प्रेम में परिपाक हुई अनुभूतियाँ मृत्यु शैया तक भी नहीं भूलतीं /छूटती ..वे जीवन को अनुप्राणित करने वाली एक पुनर्नवीय सतत  ऊर्जा बन पल पल कदमताल करती चलती रहती हैं ...बहरहाल ....

 प्रेम की उसी रूहानी  अनुभूति को अभिव्यक्त करती गुलाम अली की दो गजलें आपकी सेवा में आज प्रस्तुत हैं -मैं हूँ तो मेहंदी हसन का फैन मगर गुलाम अली की गायी  कुछ गजलें भी बेखुदी के आलम में पहुंचा देती हैं -एक बानगी -इस गजल को किसने लिखा है कोई बताएगें क्या ?

वो कभी मिल जायं तो क्या कीजिये 
रात दिन सूरत को देखा कीजिये
चांदनी रातों में इक इक फूल को
बेखुदी कहती है सजदा कीजिये
जो तमन्ना बर न आये ,उम्र भर
उम्र भर उसकी तमन्ना कीजिये
इश्क  की रंगीनियों में डूबकर
चांदनी रातों में रोया कीजिये
हम ही उसके इश्क के काबिल ना थे
क्यों किसी जालिम का शिकवा कीजिये

इसे यहाँ जरूर जरूर  सुन भी लीजिये ..अब गुलाम अली की ही गायी एक और गजल -नासिर काजमी की 
पूरी यह गजल यूं है -
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है खान-ए दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
याद के बेनिशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आरही है अभी
शहर की बेचिराग गलियों में
ज़िन्दगी मुझ को ढूंढती है अभी
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जगती है अभी
वक़्त अच्छा भी आयेगा नासिर
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
 अब आप भी प्रेम की रूहानी यादों में तनिक खो जाईये तो बात बनें !
 
 
 

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