यह एक संयोग मात्र है कि मैंने और गिरिजेश जी ने आज ही पीपली लाईव फिल्म देख ली बिना एक दूसरे को बताये और प्लान बनाये .वे तो फिल्म की रिव्यू से हाथ खीच लिए हैं और मैं भी यह पुनीत कार्य करने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूँ कि यह फिल्म इतनी सशक्त और बहुआयामी बनी है कि शायद ही कोई समीक्षा इसे समग्रता से समेट पाए ....यहाँ और यहाँ प्रशंसनीय प्रयास किये गए हैं .
काफी दिनों बाद एक बहुत ही उम्दा फिल्म देखने को मिली है जिसे किसी भी उच्च कोटि की सामाजिक रचना -यथार्थवादी साहित्य के समकक्ष रखा जा सकता है -साहित्य समाज का दर्पण है -और यह फिल्म इस कथन को चरितार्थ करती हुई समाज का आईना बनकर हमारे सामने आती है और इसके फिल्मांकन में परिवेश ,किरदार ,संवाद ,पल पल का घटनाक्रम इतनी सूक्ष्मता से उभरा है कि बस पूछिए मत जाकर खुद देख लीजिये .ऐसा यथार्थ चित्रण फिल्मों मे बहुत कम ही देखने को मिलता है .
इस यथार्थवादी फिल्म ने रील और रियलिटी का फर्क मिटा दिया है ..और आज के समाज और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कथित मानिंदों और माननीयों के असली चेहरे को उघाड़ दिया है .बाजार और आर्थिकी के दबावों ने किस तरह मनुष्य की संवेदनशीलता को लील लिया है और किस तरह लोग अपने पेशें की सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर कमीनगी की सभी सीमाओं को लाँघते गए हैं यह फिल्म पूरी ईमानदारी और लेशमात्र फिल्मीकरण के बिना ऐसे दृश्यों को सामने लाने में सफल हुई है -किरदारों ने इतना सहज ,नेचुरल अभिनय किया है कि उनमें कोई अभिनेता तो लगता ही नहीं -सब अपने इर्द गिर्द के लोग लगते हैं .फिल्म ने एक बेहद गरीब परिवार के दुःख दर्द और उसके सदस्यों के मनोभावों को बड़ी सूक्ष्मता से कैमरे में कैद किया है ...खैर, दृश्यों पर चर्चा करने लगूंगा तो रात बीत जायेगी ...हठात इस लोभ का संवरण कर रहा हूँ ...
फिल्म ने आज की मीडिया ,ब्यूरोक्रेसी ,नेतागिरी की अच्छी खबर ली है ,बेशर्म चेहरों को बेनकाब ही नहीं जम कर लज्जित भी किया है . राज्य -केंद्र सम्बन्ध ,गाँव में पसरी बेचारगी और मुफलिसी,वोट की राजनीति से प्रेरित सरकारी योजनाओं की निरर्थकता आदि कई समकालीन सच्चाईयों और ग्राम्य जीवन की विवशताओं/विद्रूप को हूबहू रील पर उतार दिया है ....फिल्म पुरजोर तरीके से यह बता पाने में सफल हुई है कि मानवीय संवेदना की कीमत आज दो कौड़ी भी नहीं रह गयी है -संवेदना का मतलब सब कुछ खत्म ...नो स्कोप ...समकालीन परिदृश्यों को घटक दर घटक कवर करने में निर्देशक से कोई चूक नहीं हुई है ...कृषि मंत्रालय ,निर्वाचन विभाग,मीडिया केन्द्रों - सब पर कैमरा घूमा है -समकालीन यथार्थ का एक बेशकीमती दस्तावेज बन गयी है पीपली लाईव ....एक गाँव के बहाने राजधानी और पूरे देश की बदहाल तस्वीर !
फिल्म की कहानी और जीवंत दृश्यों को मैं आपको नहीं बताने वाला -आप खुद जाईये और देख आईये तब आपसे बात करते हैं इस फिल्म पर .....मैं इसे पॉँच में पांच स्टार देता हूँ!
अब सोच रहा हूं कि देख ही लिया जाए ,।
जवाब देंहटाएंअब वो दौर नहीं रहा जब ठेठ भारतीयों के लिए सिनेमा तैयार होता था. आज तो प्रायः हिंदी-अंग्रेजी मिक्स नाम, जबरिया बनाए गए गाने ,,,, जिसमें क्या गाया ..क्या बजाया ...कुछ समझ नहीं आता.
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"पिपली लाईव" की कहानी सीधे तौर पर भारत की मिटटी से जुडी है. साईनिंग इंडिया की सच्चाई से रूबरू कराती हुयी. आजादी के 63 साल बाद देश किस जगह आकर ठहरा है. देश के कर्णधार क्या करते हैं, उनकी सोच क्या है....यह इस फ़िल्म के जरिये दिखाया गया है.
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फ़िल्म जगत की एक खासियत है जिस ट्रैक की फ़िल्म सफल हो जाती है.... दुसरे फ़िल्म निर्माता भी उससे मिलते-जुलते ट्रैक पर फ़िल्म बनाने निकल पड़ते हैं. अगर ऐसा ट्रेंड शुरू हुआ तो जन चेतना का ये ताकतवर माध्यम अपनी सार्थकता की राह पे वापस आ जाएगा.
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लेकिन अफसोस इस बात का है कि हम नैतिकता के उस मोड़ पर आ चुके हैं कि मुद्दत बाद जब कोई इस तरह की फ़िल्म आती है तो हम उसको कामेडी मानकर मजा लेने जाते हैं.
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मुझे तो सबसे ज्यादा ख़ुशी इस बात की है कि मुफलिसी और अत्यंत तंगहाली की जिंदगी जीने वाले 'ओंकार दास' ने 'पिपली लाईव' के जरिये जबरदस्त अपनी पहचान बना ली. ओंकार ने हबीब तनवीर के नया थियेटर से अपनी अभिनय कला को तराशने के बाद बहुत लम्बा संघर्ष किया.
पंडित जी! सर्वप्रथम आपका आभार कि आपने हमारे प्रयास को सराहा.. हमारे लिए यह फिल्म हमारी पुरानी पोस्टों को सेल्युलॉयड पर देखने जैसा अनुभव था. इसीलिए हमने अपनी दोनों पोस्टों के नीचे, सम्वेदना के स्वर पर पीपली लाइव कैप्शन के अंतर्गत पुरानी पोस्ट के लिंक दिए. आपने सही कहा है कि इस फिल्म की समीक्षा इतनी व्यापक है कि इसके बहुआयामी प्रभाव को हमने चार पोस्टों में सहेजने का प्रयास किया है. आपने भी हमारी चर्चा को स्वीकारा, हमारा प्रयास सफल हुआ और हम चारों मैं, चैतन्य, मनोज भारती और सोनी गर्ग, धन्य हुए. हमारा आभार स्वीकारें और बाकी की दोनों आगामी पोस्ट पर अपने विचार अवश्य दें! लौंग लिव पीपली लाइव!!
जवाब देंहटाएंपहले तो आप फिल्मो के शौक़ीन न थे. ये फिल्मों का चस्का कबसे लग गया आपको. समझा, ब्लॉग पर पोस्ट डालने के लिए अपनी रुचियों का दायरा बड़ा रहे हैं|किप इट अप| वैसे पीपली लाइव एक ऐतिहासिक सिनेमा है | इसमें कोई दो राय नहीं |
जवाब देंहटाएंअजय श्रीवास्तव
देखनइच पडेगा अब तो !
जवाब देंहटाएंचलिये हम भी देखे गे जब नेट पर आयेगी. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदेख आये :)
जवाब देंहटाएंजैसी मूवी वैसी ही उम्दा समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंकाश इतना समय होता कि सारी फल्मों का आनन्द ले पाते :-(
जवाब देंहटाएं@रील और रियलिटी का फर्क मिटाती
जवाब देंहटाएंक्या बात है! आप ने तो शीर्षक में ही सब समेट दिया।
@ अफसोस इस बात का है कि हम नैतिकता के उस मोड़ पर आ चुके हैं कि मुद्दत बाद जब कोई इस तरह की फ़िल्म आती है तो हम उसको कामेडी मानकर मजा लेने जाते हैं.
हाँ दोस्त! सही कह रहे हो। कल फिल्म देखते मैंने भी यह महसूस किया।
अब तो देखनी ही पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित समीक्षा।
जवाब देंहटाएं*** राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।
देखते हैं!
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा ।
जवाब देंहटाएंरील और रियलिटी का फर्क मिटाती फिल्म ।
फिल्म ने आज की मीडिया ,ब्यूरोक्रेसी ,नेतागिरी की अच्छी खबर ली है ,बेशर्म चेहरों को बेनकाब ही नहीं जम कर लज्जित भी किया है ---
लेकिन यह तो रील में ही हो सकता है अरविन्द जी ।
भला कोई रियलिटी में ऐसा कर सकता है ?
अब रियलिटी में हम रोज ऐसा ही देखते हैं । बस कर कुछ नहीं पाते ।
इसलिए रील तो रील है और रियलिटी रियलिटी ही रहेगी ।
अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वो क्या देखना चाहता है --रील में भी रियल्टी या सपनों की दुनिया जिसे वह बाहर नहीं देख पाता ।
आम आदमी को तो शौक नहीं है कि वो जो रोज देखते हैं , उसी को परदे पर भी देखने के लिए पैसे खर्च करें ।
इसलिए ऐसी फिल्मे ज्यादा चल नहीं पाती । अब आगे देखते हैं क्या होता है ।
मांफी चाहूँगा , थोडा अलग लिख दिया है ।
@अशोक जी ,कौन अशोक है मित्र आप ? आप श्याद उन काल खंड की बात कर रहे जब मेरी थोड़ी विरक्ति हो चली थी सिनेमा से ..तब कुछ और ज्यादा खूबसूरत रहा होगा दुनिया में कुछ ) लेकिन कलात्मक फिल्मों का तो मैं हमेशा मुरीद रहा हूँ -दामुल से पीपली तक ..
जवाब देंहटाएं@गोदियाल जी ,
आप सही कह रहे है ..आम दर्शक इसे शायद नकार न दें क्योकि उन्हें इसमें मनोरंजन नहीं दिखेगा ,और अपना ही अक्स कौन देखना चाहेगा ! पर आपने देखी या नहीं ?
बहुत दिन से बेटी की इच्छा थी ...अब यहाँ आपका और गिरिजेश राव का सार्टिफिकेट मिल गया सो बुक करा रहा हूँ ! सादर
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा ....अब तो देखनी ही होगी ...
जवाब देंहटाएंइस फिल्म को जितने अधिक से अधिक लोग देख सकें उतना ही हमारी मृत सम्वेदनाओं को जीवन्त होने का अवसर मिलेगा । सचमुच आमिर खान और अनुषा इस काम के लिए धन्यवाद के पात्र हैं ।
जवाब देंहटाएंदेखूँगा जरूर ! आपकी प्रशंसित फि्ल्में देखने को जरूर ही प्रवृत्त होता हूँ !
जवाब देंहटाएंfilm ke hero ke sath kal hi fim dwekhi,aur bhagya se mujhe bhi us real hero kaa samman karne ka maukaa bhi mila.
जवाब देंहटाएंये फिल्म सच में दस्तावेज़ है आज के सामाजिक हालात और मीडीया, राजनीति और अफ़सरशाही की बेलगाम रफ़्तार का ....
जवाब देंहटाएंये तो बहुत गलत बात है...अकेले अकेले फ़िल्ल्म देख आये? वो भी पीपली लाईव...अब जब लाईव फ़िल्म थी तो अब हम कहां देखें? आगे जब भी कोई फ़िल्म लाईव लगे तब हमको जरूर साथ ले चलियेगा.
जवाब देंहटाएंरामराम
मैं फ़िल्में देखता तो नहीं हूँ पर आपने मेरे मन में थोड़ी उत्सुकता सी जगा दी है......
जवाब देंहटाएं-समकालीन यथार्थ का एक बेशकीमती दस्तावेज बन गयी है पीपली लाईव
जवाब देंहटाएंसौ प्रतिशत सहमत हैं आपसे.
पीपली में छत्तीसगढ़ एक अलग नजरिया akaltara.blogspot.com पर है, आशा है आप देखना पसंद करेंगे.
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंअब तो देखनी ही होगी ...
मगर रील रील ही होती है और रील की रिअलिटी रीअल में रियल नहीं हो सकती ...
आस्कर के लिये ऎसी ही गरीब फ़ैन्टेसी की जरुरत है . सत्यजीत राय ने भी खामोश गरीबी का नंगा चित्रण किया . और इसमे खिलखिलाती गरीबी का
जवाब देंहटाएंपिपली को देखने की इच्छा बलवती हो गई
जवाब देंहटाएंहम भी देख ही आए हैं।
जवाब देंहटाएंकुल मिला कर बढ़िया
लेकिन जिन पर कटाक्ष किया गया है उन्हें कोई फरक थोड़े ही पड़ेगा
सखी सैंया त बहुतइ कमात हैं - लोकप्रिय गाना है ।
जवाब देंहटाएंदेखा जाय ।
सार्थक शीर्षक है ...अच्छी समीक्षा !
जवाब देंहटाएंइस वीकेंड हमने भी देख ही ली :)
फ़िल्में अब मैं कम ही देखता हूं, साल में दो या तीन. पहले भी शौक सीमित ही था पर कुछ फ़िल्में हैं जो एक से अधिक बार देखी हैं.
जवाब देंहटाएंलेकिन पीपली लाइव ने वो करवा लिया जो अब तक की ३६ बरस की जिंदगी में नहीं किया था. चौबीस घण्टे के अंदर दुबारा उसी मल्टीप्लैक्स में था एक बार फ़िर देखने के लिये.
आपकी समीक्षा से भी शत-प्रतिशत सहमत हूं.
Interesting post !
जवाब देंहटाएंI am very curious to watch the movie now.
पीपली लाईव ने साबित किया है कि जब आप कोई ऐसी बात कहना चाहते हैं,जो आपसे पहले किसी भी रूप में कभी नहीं कही गई,तो आपको उसके लिए सब कुछ ब्रांड न्यू चाहिए होता है-निर्देशक, अभिनेता,संगीत,लोकेशन-सब कुछ। इस बात पर भी ज़ोर देने की ज़रूरत है कि इस फिल्म में कैमरे ने एक निश्चित दृष्टिकोण निर्धारित करने में निर्णायक भूमिका अदा की है।
जवाब देंहटाएंरक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएं'फिल्म ने आज की मीडिया ,ब्यूरोक्रेसी ,नेतागिरी की अच्छी खबर ली है ,बेशर्म चेहरों को बेनकाब ही नहीं जम कर लज्जित भी किया है .' -यही तथ्य इस फिल्म को लाजवाब बनाता है.आमिर खान ने इससे पहले एक उत्कृष्ट फिल्म- 'तारे जमीं पर ' दी थी. 'थ्री ईडिअट ' में भी शिक्षा संबंधी समस्या को सही ढंग से उठाया गया था, हालांकि उसके अनेक मुद्दे पहले चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव पॉइंट समवन' में पढ़ लेने के कारण प्रभावित नहीं कर पाए.
जवाब देंहटाएंदेखी नही अब तक पर आप की समीक्षा पढ कर देखना ही होगी ये फिल्म ।
जवाब देंहटाएंमहंगाई डायन खाए जात है गीत गजब का लगा.बाकी सब तो है ही बढ़िया.पता नहीं क्यों रियलिस्टिक होने के बावजूद गालियाँ भली नहीं लगीं .
जवाब देंहटाएंफिलहाल तो आपकी पोस्ट पढ ली है, समय साथ देगा तो फिल्म भी देख लेन्गे।
जवाब देंहटाएंकृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
जवाब देंहटाएंअकेला या अकेली