शनिवार, 31 जनवरी 2015

युवावस्था कब तक?

प्रायः लोगों की उत्कंठा होती है युवावस्था कब तक होती है?
बुजुर्ग लोग प्रायः सीधा उत्तर न देकर यह कह देते हैं कि जब तक उत्साह उमंग कायम है युवावस्था है? वैसे शारीरिक क्षमता और काम क्रिया की सक्रियता (उर्वरता नहीं) युवावस्था का प्रमुख मानदंड है।पुरुष के शुक्राणु तो जीवन के अंत तक सक्रिय रहते हैं। तो क्या वह मृत्युपर्यन्त युवा है? निश्चित ही नहीं? लेकिन पुरुषार्थ के सनातनी उद्देश्यों में 'काम' भी है।कहा गया है कि मनुष्य के सार्थक जीवन के चार उद्देश्यों में धर्म,अर्थ और मोक्ष के साथ काम भी है।
क्या है यहाँ 'काम' का अर्थ?
'काम' के अधीन -इच्छा ,दीवानगी ,भावविह्वलता, ऐन्द्रिय सुख ,सौंदर्यबोधयुक्त जीवन का निर्वाह ,लगाव ,सेक्स सहित या रहित प्रेम का भाव है.जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य यानि पुरुषार्थ माने गये हैं।पहले नंबर पर धर्म, फ़िर अर्थ , काम और मोक्ष। वैसे सर्वोच्च उद्देश्य तो मोक्ष ही है और उसके बाद धर्म है। नैतिक आग्रहों के साथ जीवन जीना धर्म है।धनार्जन दूसरा किन्तु गौण लक्ष्य है. हिन्दू धर्म में जीवन की चार अवस्थाएं भी निर्धारित हैं -ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास!
अब तनिक इन चार अवस्थाओं (आश्रम ) को पुरुषार्थ की अवधारणा के साथ जोड़िये। एक सामंजस्य दीखता है। छात्र के लिए धर्म या नैतिक आचरण प्रमुख है ,गृहस्थ के लिए धर्म के साथ ही अर्थ और काम तथा वानप्रस्थ/ सन्यास के लिए धर्म और मोक्ष।
अब आईये इस प्राचीन व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के उम्र का कालक्रम देखें -
यह है -शैशव-0 -2 वर्ष,बाल्य -3 -12 वर्ष,फिर कौमार्य -(यहां दो वर्ग हैं )-अ -किशोर -13–15 वर्ष,ब -तरुण -16–19 वर्ष,अब इसके बाद आता है -यौवन, और रोचक बात यह कि इसके भी दो काल वर्ग हैं-यौबन -1 (तारुण्य यौवन )- 20–29 वर्ष,यौवन -2 (प्रौढ़ यौवन ) 30–59 वर्ष,अर्थात यौवन का विस्तार 20 से 59 वर्ष का हैऔर फिर ६० से वार्धक्य।यह वर्गीकरण कितना विज्ञान सम्मत है! अर्थात गृहस्थ(५९ वर्ष तक) युवा है -और धर्म अर्थ के साथ काम उसका प्राप्य अभीष्ट है!
बाटम लाईन: मनुष्य की युवावस्था 59 वर्ष तक है ! ६०+ वार्धक्य -वृद्धावस्था का आरम्भ।जिसमें वानप्रस्थ फिर सन्यास है। वानप्रस्थ दरअसल यौवन और सन्यास का संक्रमण काल है। किन्तु यह भी सोचिये यह वर्गीकरण हजारो वर्ष पुराना है। तब मेडिकल साइंस इतना उन्नत नहीं था। इसलिए अमिताभ का बहु प्रचारित डायलॉग "बुड्ढा होगा तेरा बाप " कोई अतिशयोक्ति तो नहीं!
पुनश्च: चूँकि नारी की उम्र चर्चा पर सभ्य जगत में निषेध है अतः मुखर रूप में नारी का उल्लेख यहाँ नहीं है मगर विद्वानों का कहना है कि यह प्राचीन वर्गीकरण नर नारी दोनों के लिए था।

सोमवार, 26 जनवरी 2015

तुलसी के लिए गुरु ,ब्राह्मण और दुष्ट भी वंदनीय हैं!


तुलसी मानस का आरम्भ गुरु वंदना से करते हैं। गुरु के प्रति उनके मन में अनन्य श्रद्धा और समर्पण है -वे गुरु के चरणधूल की वंदना करते हैं जो उनके लिए मकरंद के समान है -
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा 
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है!
गुरु वंदना के उपरान्त तुलसी धरती के देवताओं का वंदन करते हैं। अर्थात ब्राह्मणों का। मगर तुलसी के ब्राह्मण कौन हैं ? उन्होंने बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है -
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं।
अर्थात ब्राह्मण वही जो मोह से उत्पन्न सारे भ्रमों को दूर करने की क्षमता रखता हो ,न कि स्वयं मोह ग्रस्त हो. आज के अधिकाँश ब्राह्मणों की तो कुछ मत पूछिए।अपनी दुर्दशा के कारण वे स्वयं हैं। कभी समाज को दृष्टि देने वाले आज स्वयं दिग्भ्रमित हैं. और आज के तमाम अंधविश्वासों, कुप्रथाओं और अज्ञान के प्रसार के लिए मुख्यतः ब्राह्मण ही जिम्मेदार हैं। इसलिए तुलसी ने ब्राह्मणों को लेकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है। 

तुलसी फिर संतों की वंदना करते हैं। कहते हैं सत्संगत से बढ़कर और कुछ नहीं। और संतो की संगत अर्थात सत्संगत सारे संसारी कष्टों को दूर करने वाली है -
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला
:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है.
 दुष्टों की वंदना
मानस के बालकाण्ड में दुष्टों की वंदना का भी रोचक वर्णन है. दुष्टों के प्रति क्लेश रखने के बजाय उनका भी पूजन वंदन कर लेने से शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होगें -कदाचित तुलसी का यह भाव रहा हो या फिर यह प्रसंग मात्र एक शुद्ध परिहास भी हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ के आरम्भ में रचनाकार का निश्चय ही निश्छल और गंभीर रहना ही अधिक संभव लगता है और उन्होंने खल वंदना भी सच्चे मन से ही किया होगा।
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है .
*तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके
-जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है.
* पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा
 जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं .
* बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा
-जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं'
* उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति -दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है .
* मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा
-मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे।
कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
 क्रमशः

रविवार, 18 जनवरी 2015

पी के-अपने पूर्वाग्रहों को हाल के बाहर ही छोड़ आएं!

1  सितम्बर 2012 को बनारस से ट्रांसफर होकर जब से सोनभद्र आया नए स्थान की कटु कुटिल चुनौतियों से जूझते हुए और नयी परिस्थितियों में खुद को ढालते हुए समय कुछ ऐसा बीता कि मनपसंद कई बातें, कई शौक बिसरा बैठे। यहाँ तक कि कोई फिल्म भी नहीं देख पाये। अब कहाँ बनारस के माल में फिल्म देखने का एम्बिएंस और कहाँ यहाँ सोनभद्र के कस्बाई मुख्यालय  रॉबर्ट्सगंज के जजर्र सिनेमाघर! जाने की हिम्मत भी नहीं जुटी। और मुझे यह भी नहीं लगा कि वहां "इज़्ज़तदार आदमी"(!)  को देखने वाली वाली फिल्मे भी लगती होंगी। इस  बीच कितनी अच्छी अच्छी फ़िल्में आईं और चली गयीं।  मन मसोसता रहा और फिल्मों के  दीवाने अपने एक प्रिय सर को कनविंस करने का असफल प्रयास भी कि सर मैं इन कारणों से फिल्म नहीं देख पा रहा।  
मगर जब पी के की चर्चा और उस पर मचे हो हल्ले की खबर सुनायी पड़ने लगी तो संकल्प किया कि इसे देखनी है और वह भी बनारस चल के।  इसमें एक अंतरिक्ष वासी के धरती पर आने और यहाँ के हालात से जूझने के कथानक ने भी आकर्षित किया। मैं इस फिल्म को इस नज़रिये से भी देखना चाहता था कि क्या   यह साइंस फिक्शन के फ्रेम में आ सकती है?बहरहाल कल वह सुदिन आ गया और हम मियाँ बीबी फिल्म बनारस के आई पी माल में देख ही आये. 
ठीक ठाक फिल्म है। थीम धार्मिक पाखंड है।  मगर कई और भी संकेत हैं।  कहानी को बंम्बईया चाशनी में लपेटा गया है -प्रेम सीन है ,धमाका है ,विछोह है ,फैमिली ड्रामा है।  यह सब कोई नया नहीं है।  और धर्म के पाखण्ड पर कटाक्ष करने के मामले में भी यह फिल्म कोई नयी नहीं है।  बस नया है तो एक एलियन का नज़रिया।  सुदूर अंतरिक्ष से धरती पर शोध करने आया शोधार्थी असहज स्थितियों में एक सर्वथा अजनबी संस्कृति से साक्षात्कार करता है। मैं जैसे सोनभद्र आकर अपने शौक भूल गया वैसे ही बिचारे के साथ आते ही  एक ऐसी त्रासदी हुयी कि उसे अपना मकसद ही भूलना पड़ा।  उसका वह यंत्र  उससे छीन लिया गया जिससे उसे यान को वापस बुलाना था।  अब घबराहट और घर जाने की फ़िक्र में कोई शोध ठीक से भला कैसे हो पाता।  अगर एक एलियन की निगाहों से आप इस फिल्म को देखे तो आनंद आएगा -अपने पूर्वाग्रहों को हाल के बाहर के स्ट्रांग रूम  में जमा कर दें! 
ईश्वर सार्वभौम नहीं है।  केवल धरती पर है। धर्म केवल धरती पर है। संस्कृति  धरती पर है।कम से कम ये सब एलियन की धरती पर तो जैसे यहाँ हैं वैसा नहीं है।  और फिर धर्म को लेकर फैले पाखंड का जो अतार्किक  स्वरुप एक एलियन की नज़र देखती है उससे वह स्तब्ध और भ्रमित हो रहता है. मजे की बात तो यह है कि धर्म के जिस पाखंड पर फिल्म चोट करती है बिल्कुल उसी की पुनरावृत्ति इस फिल्म को लेकर मूर्खजन करते हैं और हास्य का पात्र बनते हैं। और तो और स्वामी रामदेव जी भी इस फिल्म को लेकर आक्रामक हो गए थे संभवतः बिना देखे ही।  फिल्म ने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के पाखंड पर चोट की है और उनके अतार्किक अंतर्विरोधों को दिखाया है।  एक एलियन के साथ धरतीवासियों का इनट्रैक्शन रोचक है -उसे पियक्कड़ समझ लिया जाता है -नाम पी के पड जाता है। 
आपमे जायदातर लोगों  फिल्म अब तक देख ली होगी सो कहानी बताने की जरुरत नहीं।  धर्म की प्रासंगिकता को लेकर चुटीले और सार्थक संवाद हैं।  धर्म और पाखंड के अंतर को बताने का प्रयास है -मगर थीम कोई नयी नहीं।  ओह माई गाड़ इसी अधिक प्रभावशाली तरीके से विषय को रखती है।  इसमें कई फूहड़ कॉमेडी है जो कुछ ख़ास तरह के दर्शकों को ज्यादा भाएगी।  जैसे बच्चों और महिलाओं को और कुछ दृश्य उन्हें असहज भी करेगें। हाल की खिलखिलाहट और स्तब्धता से भी  मैंने यही समझा।  

अब यह फिल्म विज्ञान  कथा की श्रेणी में रखी जा सकती है या नहीं ? विचार विमर्श फेसबुक पर चल रहा है।  हाँ थोड़े से दृश्य और कोण  फिल्म में जरा हट के और डाल दिए गए होते तो यह शर्तिया मुख्यधारा की साइंस फिक्शन कही जा सकती थी -अभी तो थोड़ा हिचकिचाहट सी है। काश निदेशक ने मुझसे संपर्क किया होता? :-) मुझे अपनी लिखी पहली विज्ञान कथा गुरुदक्षिणा की याद ज़ीशान ने दिलाई और कहा कि फिल्म तो शुरू में आपकी कहानी सी लगती है।ना ना मैं निदेशक या फिल्म राईटर पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ :-) 

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ब्लॉग पर मानस प्रभाती! वन्दे वाणी विनायकौ!



फेसबुक पर मानस प्रभाती ने सुधी मित्रों, मानस प्रेमी पाठकों को मुझसे  ब्लॉग पर भी इसे अभिलेखार्थ डालते रहने के लिए प्रेरित किया और उनके निरंतर अनुरोध पर अब मानस प्रभाती यहाँ आवधिक तौर पर उपलब्ध होगी। शुरुआत मानस के आरम्भ से ही करते हैं। 
वन्दे वाणी विनायकौ!
जी, इस वन्दना से ही तुलसी ने मानस का प्रारम्भ किया है। दरअसल लोक परम्परा में प्रथम पूजा के अधिकारी गणेश जी हैं। आप सभी ने भी कितने ही कार्य 'श्री गणेशाय नमः' के साथ शुरू किया होगा। और आज भी कोई भी मांगलिक कार्य गणेश की आराधना से ही शुरू होता है। वे विघ्न विनाशक माने गए हैं। मानस आरम्भ में भी संत तुलसी के मन में यह बात कौंधी होगी। मगर तुलसी तो तुलसी। इस सरस्वती पुत्र को माँ सरस्वती का भी प्रथम आराध्य के रूप में अपने महान ग्रन्थ के प्रणयन के आरम्भ में आह्वान करना था। सो एक युक्ति निकाली उन्होंने -वन्दे वाणी विनायकौ! मतलब दोनों का समान रूप से आह्वान कर लिया। मगर इसमें भी विद्या और बुद्धि की अधिष्टात्री को उन्होंने प्राथमिकता दी। बड़ी ख़ूबसूरती और विद्वता के साथ। अस्तु , वन्दे वाणी विनायकौ!
* वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ
अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ!
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आज शोध/काव्य प्रबंधों में जहाँ संदर्भिका(Bibliography) अंत में देने का प्रचलन है ,तुलसी ने पहले ही अपने अध्ययन स्रोतों का उल्लेख कर दिया है-
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति
अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है'तुलसी ने एक बड़ी अच्छी बात कही कि मानस की रचना उन्होंने खुद अपनी संतुष्टि के लिए की है -"स्वान्तः सुखाय" -संभवतः रचना की सोद्देशता को लेकर उठने वाले विवादों से वे अपनी इस मानस -कृति को दूर रखना चाहते थे। मगर मानस को लेकर हुआ वाद वितंडा भला कौन नहीं जानता। उन्हें बनारस के संस्कृत के पंडितों, शैवों से जूझना पड़ा कालांतर में समाज के अनेक वर्गों की भी प्रखर आलोचना सहनी पड़ी -मगर मानस का महत्व कम न होकर बढ़ता ही गया है तो इसका कारण इसकी काव्यश्रेष्ठता और उद्येश्यपूर्णता ही है। जिसका उत्तरोत्तर परिचय हमें मिलेगा।

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