रविवार, 30 अगस्त 2009

ब्लॉग दशाब्दि -कतिपय बुनियादी सवाल !

ब्लॉग दशक पर चंद बुनियादी सवालों पर चिंतन मौजू है ! प्रोग्रामर जोर्न बार्जेर ने १९९७ में वेब लाग(Web Log ) शब्द गढा था और दिसम्बर आते आते RobotWisdom.com को मूर्त रूप दिया जिसमें राजनीति ,संस्कृति ,पुस्तक चर्चा ,तकनीक आदि के बेहतरीन लेखों का संग्रह था.वेब लोंग शब्द को एक पीटर मेर्होल्ज ने मजाकिया अंदाज में वी ब्लॉग (We blog ) कहा था ! और फिर यह ब्लॉग बन गया ! यह एक दशक पुरानी बाते हैं ! आज हम अंतर्जाल की इस अद्भुत उपलब्धि के दशाब्दि समारोहों की रूप रेखा तय कर रहे हैं !

इस एक दशक में ही ब्लॉग बहुरूपिये ने क्या क्या रूप नही धरा -साधारण से टेक्स्ट ब्लागिंग से फोटोबलाग्स ,वीब्लाग्स (वीडियो ) ,मोब्लाग्स (मोबाईल से पोस्टिंग) आडीब्लाग्स (ऑडियो ब्लाग्स ) ,पोडकास्ट ,मायिक्रोब्लाग्स,और न जाने क्या क्या ! अनंत संभावनाएं -कंटेंट और कलेवर के साथ स्कोप्स और उद्येश्यों में भी ! यह अनुमान भी लगाना कठिन है की यह आगे नित नित किन रूपों को धरेगा ! मगर यह तय है कि ब्लागों ने मानव अभिव्यक्ति को नए रंग दिए हैं, नए आयाम दिए हैं !

एक अनुमान के मुताबिक आज १० करोड़ ब्लॉग अंतर्जाल की शोभा बढ़ा रहे हैं ! भारतीय भाषाएँ भी पीछे नहीं हैं ! मगर यहाँ सर्वेक्षित ७८९५ ब्लाग्स में ९२ प्रतिशत अंगरेजी के ब्लॉग हैं ,फिर हिन्दी ५२प्रतिशत की भागेदारी कर रही है ,तमिल १९ और मराठी ९ ,तेलगू ७ ,मलयालम की ५ फीसदी की दावेदारी है ! मगर जो बात अब साफ तौर पर दीखने लगी है वह है कंटेंट (अंतर्वस्तु ) की प्रधानता ! यदि कोई क्वालिटी आईटम नहीं दे पा रहा है तो उसके तम्बू अब उखड़ने से लगे हैं ! आईटम नृत्यों से महफ़िल कब तक रोशन रहेगी ! मतलब साफ़ है ब्लागिंग में अब जिम्मेदारी का जज्बा शुरू हो चुका है ! यह अनेक सामजिक उत्तरदायित्वों की तरह अपना भी रुख बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की ओर मोड़ रही है !

ब्लॉग लेखन के शुरुआती दौर से ही यह बात रूढ़ हो चली थी कि ब्लॉग निजी डायरी है -अमें लिख ले जो चाहो बिंदास ,अरे भइया /बहना यह जब निजी डायरी है तो काहें इसे सार्वजनिक किए हुए हो -जा अंधेरे में और मुंह काला कर वही -काहें यहाँ नरक मचाये हुए हो ! यह ब्लॉगगंगा कितनो के उद्धार के लिए है -आचमन तो करले इसमें मगर विष्ठा त्याग न कर -कोई ग़लत कहा क्या ? अरे बाबू ,भइया इन बातों पर इस दशाब्दि समारोह के अवसर पर तनिक सोच विचार करिए बस इसी खातिर इन बातों को हम ईहाँ उठा रहे हैं -और एक ठो समारोह भी होने वाला है उसमें भी कुछ बोलना ही पड़ जाय तो ...इसलिए ही ये सवाल यहाँ उछाले हैं ! मत कहियेगा कि हम पूर्वाग्रस्त हो उठे हैं !

शनिवार, 22 अगस्त 2009

ब्लॉग ,सब्जी मंडी और प्रौद्योगिकी !

अब एक ब्लॉगर के व्यामोह को क्या कहिये वह दुनिया की सब चीजों को ब्लॉग के नजरिये से देखने का अभ्यस्त सा हो जाता है -अब भला सब्जीमंडी का ब्लॉग से और इन दोनों का प्रौद्योगिकी से क्या सम्बन्ध हो सकता है ? मगर हो गया एक गहरा सम्बन्ध ब्लॉगर के नजरिये से !

दूर से कुछ ऐसी दिखी सब्जी मंडी

कभी कभार शौकिया या अभिजात्य प्रवृत्ति जो भी कह लीजिये आप मैं ख़ुद सब्जी लेने पदयात्रा पर निकलता हूँ -दस मिनट के वाक पर नाटी इमली चौराहे पर सब्जी मंडी है -यह वही नाटी इमली है जहाँ विश्व प्रसिद्ध भरतमिलाप होता है ! सब्जी लेने जब वहाँ पंहुचा तो एक ख़ास बात पर ध्यान गया -शाम के धुंधलके में बिजली गायब होने के बावजूद भी सब्जी मंडी दूधिया रोशनी में नहाई लग रही थी ! पचास की संख्या में ठेलों पर सी ऍफ़एल बल्ब लहलहा रहे थे -मगर वे बिजली से नही बल्कि प्रत्येक ठेलों पर स्थापित डिजिटल सी ऍफ़ एल इनवेर्टर से जुड़े थे ! केवल एक कोने में अभी भी पुराने एसिटेलीन लैंप की रोशनी भी दिखी ! मैं उस ठेले के पास जाकर पूंछ बैठा कि उसने सी ऍफ़ एल बल्ब वाली नयी प्रौद्योगिकी का सहारा क्यों नही लिया तो उसने उत्साहित होकर कहा कि अगले दो तीन रोज में वह भी डिजिटल सी ऍफ़ एल इनवेर्टर खरीद लेगा -मैंने बिटिया से झट से फोटो लेने को कहा -कौन जाने अगली बार यहाँ आगमन पर बीते दिनों का स्मारक यह एकमात्र लैंप दिखे या न दिखे !
और यह रहा जीवन की अंतिम रोशनी देता एसीटेलींन का चिराग

प्रौद्योगिकी की गति बहुत तेज होती है ! अचानक ही एक सस्ती और सुविधानजनक प्रौद्योगिकी आंधी की तरह आती है और पुराने कितने व्यवसायों को पलक झपकते धराशायी कर देती है ! एच एम् वी रेकार्ड्स की याद भी अब उन्हें होगी जो जीवन के पाँचवे दशक में होगें -आज वह नदारद है -कैसेट्स आए चले गए -सी डी का जमाना चल रहा है -पेन ड्राईव अब जोर मार रही है -महज कुछ दशको में ही कितने व्यवसाय बंद गए ! यह सब तीव्रगामी प्रौद्योगिकी के बदौलत !


और यह है सी ऍफ़ एल लैंप की लहलाती रोशनी की खरीददारी


मैं इन्ही सोचों में डूबा था -साधारण से मिट्टी के दिए से ,मोमबत्ती ,गैस लैम्पों और अब सी ऍफ़ एल रोशनी तक के सफर के पीछे कई व्यवसायों की उजड़ चुकी दुनिया के अंधेरे भी व्यथित कर रहे थे -बिटिया ने खरीददारी के साथ कुछ मोब फोटो भी उतार लिए थे और हम वापस लौट चले थे ! एक ब्लॉग पोस्ट की सामग्री मिल चुकी थी !

यह भी पढ़ें -

सच्चाई से रूबरू होती विज्ञान फंतासी !

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

पद्मभूषण डॉ कामिल बुल्के -प्रेरक व्यक्तित्व को नमन !

अवतरण -1 सितम्बर 1909, राम्स्कपेल्ले , बेल्जियम ;अवसान -17 अगस्त 1982, नयी दिल्ली

अब तक के जीवन में जिन चंद लोगों के प्रति मैं गहरे श्रद्धावनत हुआ हूँ उसमें पद्मभूषण डॉ कामिल बुल्के भी हैं -एक प्रातः स्मरणीय महाविभूति और विश्व मानव ! वे जन्में तो बेल्जियम में थे मगर ४१ वर्ष की उम्र में भारत आकर यहीं के होकर रह गए -नागरिकता ग्रहण की ! संस्कृत -हिन्दी महज सीखी ही नही इसमें पारंगत भी हुए ! इनके जिस एक अवदान के प्रति मैं उनका चिर ऋणी हूँ वह है उनका रचा अंगरेजी हिन्दी शब्द कोष जो किसी भी भारतीय हिन्दी विद के रचे शब्दकोष से ज्यादा प्रमाणिक है ! यह एक प्रयोगकर्ता का उद्घोष है किसी भाषाविशारद का नहीं !

जब भी अंगरेजी से हिन्दी में अनूदित किसी भी शब्द पर विवाद उत्पन्न होता है कामिल बुल्के याद आ जाते हैं ! उनका दिया शब्द ही प्रामाणिक होता है ! मुझे याद है कि करीब बीस वर्ष पहले तक अंगरेजी के शब्द टाईगर को एक बहु प्रचलित हिन्दी डिक्शनरी की भयंकर भूल के कारण लोग हिन्दी में चीता जान बैठे थे -यहाँ तक कि उस काल के "बुजुर्ग " पत्रकार तमिल टाईगर्स को तमिल चीते कह बैठे और वह हिन्दी पत्रकारिता में इसी अर्थ में रूढ़ हो गया है -जबकि आज कोई भी जानकार व्यक्ति यह जानता है कि टाईगर और चीता अलग अलग प्राणी हैं -कामिल बुल्के को कोई संशय नही है -उनकी डिक्शनरी में टायगर का मतलब है व्याघ्र ,यानी बाघ ! और चीता का अर्थ चीता ही है ! काश हिन्दी के कई बुजुर्ग पत्रकार बुल्के की डिक्शनरी खोल लिए होते तो तमिल चीते का तर्जुमा होने का अनर्थ तो नही होता -तब लिखा जाता तमिल व्याघ्र !

मुझे आज बेहद खुशी हुयी जब अपने ब्लॉग जगत में उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' के नए अंक के कामिल- बुल्के जन्मशती के उपलक्ष्य में प्रकशित होने की सूचना मिली है ! मैंने पत्रिका डाउन लोड कर ली है और पढ़ रहा हूँ ,सोचा आपको भी अवगत करा दूँ -आप यहाँ से इसे डाउनलोड कर सकते हैं !


यह बुल्के जी का जन्म शताब्दी वर्ष है ! हिन्दी ब्लागजगत भी उनसे प्रेरणा ले सकता है -एक विदेशी होकर ,वह भी अधेड़ उम्र में किस ललक और प्रेरणा से उन्होंने भारतीय भाषायें सीखी और उनमें निष्णात हो गए ! आज हम भारत में ही जन्म लेकर हिन्दी के प्रति अक्सर नाक भौ सिकोड़ते हैं और ब्लॉग जगत में भी स्तरीय हिन्दी के विरोधी कम नही है जिसके पीछे ख़ुद उनका आलस्य ही है !

मेरी एक गुजारिश है -आप ख़ुद नही तो अपने बच्चों के लिए कामिल बुल्के की अंगरेजी -हिन्दी डिक्शनरी खरीद कर इस महान विभूति की जन्म शती पर उन्हें भेट करें ! यह हमारी एक सच्ची श्रद्धांजलि भारत और हिन्दी के अनन्य प्रेमी इस महामानव के प्रति होगी -मेरी अपनी प्रति तो जीर्ण शीर्ण सी हो रही है -आज ही मैं एक नई प्रति खरीद लूँगा ! क्या आपसे भी ऐसी ही उम्मीद रखूँ ?

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

ताऊ के शोले में टंकी का सीन !

यह ताऊ ही कर सकते थे और उन्होंने कर भी दिखाया ! शोले फिल्म ने मानवीय संवेदना को इतना गहरे छुआ था कि दशकों बाद आज भी लोग उसकी अपनी अपनी तरह से याद करते रहते हैं -रामगोपाल वर्मा ने उसे आग केशोले के रूप में फिल्मांकित किया तो अब अपने ताऊ ब्लॉग के शोले का मूहूर्त करते भये हैं ! उनकी अपनी भरोसे की टीम है और वह यह प्रोजेक्ट पूरा कर भी लेगें -हमारी कोटिशः शुभकामनाएं है उन्हें ! मगर एक ख्याल रह रह कर मुझे परेशान कर रहा है कि वे ब्लॉग के शोले में किसे टंकी पर चढायेगें ! किसी ऐसे को जो टंकी पर चढ़ने में अभ्यस्त हो या फिर किसी नौसिखिये को ? भगवान उस ब्लॉगर को चिरंजीवी बनाए जिसने टंकी पर चढ़ने का ब्लागजग्तीय मुहावरा ही गढ़ डाला ! ब्लागिंग के आदि देव बताएगें ही कि आख़िर यह महान कल्पनाशीलता किसकी थी !

नवागंतुक ब्लॉगर मित्र जान लें कि टंकी पर चढ़ने के ब्लागीय मुहावरे का मतलब है ब्लॉग जगत छोड़ देने की धमकी देना -या ब्लागजगत से सहसा उदासीन हो उठना और इस आभासी दुनिया से वानप्रस्थ पर जाने की घोषणा कर देना /इच्छा जाहिर कर देना -बाद में भले ही यही से चिपके रहना -मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे की स्टाईल में ! शोले में धर्मेन्द्र के टंकी के सीन का तनिक सुमिरन कर लें ! यह लीला अनेक जन निपटा चुके हैं यहाँ तक कि ब्लॉग सम्राट तक भी -समीर लाल जी ने जब कहा था कि वे टंकी पर चढ़ने जा रहे हैं तो हमारे जैसे कितने ही भावुक ब्लागरों की रूहे काँप गयी थीं -बहरहाल वे मान गए थे ! ऐसे ही ज्ञानदत्त जी ने भी कभी ट्यूब खाली होने ,राजकाज की व्यस्तता आदि अन्यान्य बहानों से टंकी पर चढ़ने का मन बनाया तो हम लोगों ने उन्हें रोकने का हल्ला वैसे ही मचाया था जैसे युद्धिष्ठिर के नरक दर्शन से वापस होते समय उनके बन्धु बांधवों ने ! हे तात तुम चले गए तो फिर से नरक की बदबू और प्रेतिनियों की प्रताडनाएँ झेलनी होगीं ! और उन लोगों के कहने ही क्या जो बिना बताये धीरे से टंकी पर जा चढ़े और अभी भी चढे हुए हैं उतरते ही नहीं ! उन महान संज्ञाओं का नाम लेकर उन्हें सर्वनाम क्यों करुँ -जानकार लोग जानते ही हैं !

कुछ लोग यह कभी नहीं कहते हुए या सुने गए कि वे भी टंकी पर चढ़ जाने का इरादा और माद्दा रखते हैं जैसे दिनेशराय द्विवेदी जी और अपने आदिम ब्लॉगर अनूप शुक्ल जी ! भले ही इनके मन ने कितने ही आवर्त विवर्त झेले हों मगर मर्दानगी बरकरार रखी ! मेरे लिए तो यही अनुकरणीय ब्लॉग जन हैं ! कुछ ने ब्लॉग जगत छोड़ा मगर अचानक ही एक सुबह नमूदार हो गए यहाँ और वह सुबह खुशनुमा बन गयी -जैसे अपने विवेक भाई !
पर लोग ऐसी मनःस्थिति में पहुँच कैसे जाते हैं -कई कारण है ! कुछ सवेदनशील तो कबीलाई माहौल की तू तू मैं मैं से अचानक बहुत संतप्त हो उठते हैं और सीधे टंकी की ओर भागते हैं -फिर उन्हें कुछ और नही दीखता ! टंकी तक पहुँच कर सरपट चढ़ भी जाते हैं ! लोग लुगाई हाथ मलते रह जाते हैं ! कुछ लोग /लुगाई बिना कहे ही दुःख कातर हो पानी पी पी कर ब्लॉग जगत को कोसते हुए मगर बिना बताये टंकी पर चढ़ कर प्रायः वही बने रहते हैं, हाँ. बीच बीच में चारा पानी के लिए चुपके से नीचे उतर आते हैं मगर लोग बाग़ देखे इसके पहले फिर टंकी -आरूढ़ हो जाते हैं !

हाँ यह तो विषयांतर हो गया -बात ताऊ के शोले की चल रही थी -टंकी पर चढ़ने का रोल किसे देगें वे -कोई गेस ?
क्यों नही वे रील लाईफ से किरदार चुनते ?-सुनते हैं कि अमिताभ बच्चन टंकी पर चढ़ने वाले हैं ! तो ब्लॉग जगत का अमिताभ बच्चन कौन ? ताऊ की मदद शायद कुश कर सकें ! उनका पटकथाओं आदि के लेखन में हाथ काफी खुल गया है ! मेरी गुजारिश तो है कि ताऊ मेरे जैसे अनुभवी को इस रोल के लिए ले लें -अभिनय ही तो करना है कौन ससुरा सचमुच टंकी पर चढ़ना है -इन दिनों मेरा मन भी कुछ उभ चुभ कर रहा है एक्टिंग से शायद कुछ शान्ति मिल जाय ! अगर मुझे वे न भी लें तो इतनी गुजारिश जरूर मान लें कि किसी नौसिखिये को तो बिल्कुलै टंकी का रोलवा न दें ! अब आप पून्छेगें काहें ? तो लीजिये इस पोस्ट के उपसंहार के रूप में भोजपुरी के प्रख्यात कवि पंडित चन्द्रशेकर मिश्र का यह संस्मरण सुन लें !

पंडित जी प्रायः सभी कवि सम्मेलनों में इसे सुनाते हैं ! कहते हैं जब उन्हें सायकिल सीखने का शौक छुटपन में चर्राया तो एक दिन कभी पैदल कभी कैंची (बिना सीट पर चढे फ्रेम में से टागें निकाल कर पैडल मारना ) वे एक बाग़ में सायकिल साधना करने लगे -आखिर अकस्मात सीट पर भी उछल कर आरूढ़ हो लिए ! उनकी खूशी का कोई ठिकना नही रहा जब उन्होंने देखा कि सायकिल बखूबी दौड़ पडी है ! वे सायकिल चलाना सीख चुके थे ! अभी उनका मन व् पैडल पर पैर कुलाचे ही मार रहे थे कि अचानक एक आशंका मन में उठ खडी हुयी -बन्दे चढ़ने को तू चढ़ गया अब उतेरेगा कैसे ? नौसिखियों के साथ अक्सर यही होता है और ब्लॉग जगत कोई अपवाद नही है -आव न देखा ताव बस चढ़ लिए ,उतरना मालूम ही नहीं ! मुझ जैसे अनुभवी के साथ यह लफडा नही आने को ..ताऊ आश्वस्त हो सकते हैं कि हम चढेगें भी सलीके से ( जानी ) और उतरेगें भी उसी ठाठ के साथ ! हमें यह हुनर मालूम है ! अब नौसिखिये चंद्रशेखर नही हैं हम कि उन्हें निर्जन बाग़ में चढे हुए घंटों बीत गए और ससुरी सायकिल ही उन्हें उतरने न दे !
मगर लोगों का क्या कहें वे नौसिखियों को ही तवज्जो दे देते हैं -ताऊ किसी नौसिखिये को तवज्जो दे दी तो जान लेना फिल्म में गतिरोध आ जाएगा हाँ ! मित्र हो चेताये दे रहे हैं !

सोमवार, 17 अगस्त 2009

ब्लागर अरुण प्रकाश - प्रोफाईल लो मगर पोटेंशियल हाई !....

अरुण प्रकाश जी यथार्थ जगत के मेरे उन पुराने साथियों में से हैं जिन्होंने इस आभासी जगत में भी अपनी दस्तक दी है ! अब वे मुझसे भी बड़े अधिकारी हैं (...तो समझ सकते हैं कि वाकई कितने बड़े होगें ) . यहीं वाराणसी की धरती को सुशोभित कर रहे हैं ! पुरूष तत्व के काफी धनी हैं ! इसलिए नारी नख शिख सौन्दर्य गाथा में इन्होने अपनी घणी उपस्थिति दर्ज कराई थी । इतनी घणी कि कुछ सुंदर ब्लागरों को उस ब्लागमाला से ही प्रत्यक्षतः घृणा हो गयी और मेरे न चाहते हुए भी वहां से वापस न लौटने के लिए फूट लिए -इस तरह मेरे ब्लॉग के कुछ नियमित टिप्पणीकारों को भड़काने में इनका बड़ा हाथ रहा ! मैं गुस्साता तो रहा पर मित्रता की खातिर कुछ कह न सका ! आख़िर मित्र धर्म भी कोई चीज ठहरी !

मैंने उनसे बार बार आग्रह करता हूँ कि वे ब्लॉग जगत में ज्यदा सक्रिय हों तो वे कई बहाने बनाते हैं । जैसे राज काज नाना जंजाला ! या फिर वे जो भी लिखते हैं उन पर कम लोग झाँकने आते हैं और जो आते भी हैं टिपियाते उनसे भी कम हैं ! मैं गारंटी के साथ कहता हूँ कि उनका व्यंग बाण श्रेणी का लेखन उत्कृष्ट किस्म का है -पर वे पूरी प्रत्यक्ष विनम्रता के साथ इससे इनकार कर देते हैं और यह जुमला जोड़ते हैं कि अगर यह उत्कृष्ट श्रेणी का होता तो कैसी इतनी कम टिप्पणियाँ मिलती ! अब मैं या कोई भी उन्हें कैसे समझाए कि टिप्पणी प्राप्त करने के लिए कितने टोटके करने होते हैं यहाँ और कैसे कैसे पापड बेलने होते हैं ! वे चाहें तो आदरणीय समीरलाल जी की शागिर्दगी कर इस गुर को सीख लें .मगर वे मेरी एक नही सुनते !

उनकी रसानुभूति परले दर्जे की है ।पक्के रसिक और रसिया हैं ! उनके ब्लॉग पर की फोटू से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है ! उनकी इस दर्जे की रसिकप्रियता के लिए शायद मैं भी कुछ कुछ अपने को जिम्मेवार मानता हूँ -करीब दस वर्ष पहले उन्होंने ऐसे ही एक दिन मुझसे अपने पीठ दर्द का जिक्र किया था ! उन दिनों से ही मैं डेजमांड मोरिस का मुरीद हो गया था और उनके हवाले से यह नुस्खा उन्हें बता दिया ! अब इस कम खर्च वाला नसी नुस्खे से उनका दर्द जरूर छूमनतर हो गया होगा क्योंकि उसके बाद उन्होंने फिर से दर्द उभरने की चर्चा तो नहीं की पर हाँ गाहे बगाहे पीट दर्द के उल्लेख से रसिक चर्चा जरूर छेड़ देते हैं ! और मैं असहज सा हो जाता हूँ -जिसके कुछ निजी कारण हैं !

उनकी लेखनी में बड़ी चुभन हैं -एक बानगी देख ही लीजिये !और यह भी ! मेरा पक्का मानना है की वे ब्लागरी अफसरी से ज्यादा अच्छी तरह कर सकते हैं और इस मामले में अनूप शुक्ल जी सरीखा मिसाल कायम कर सकते हैं पर वे मान नहीं रहे हैं -आप सभी से गुजारिश है उन्हें मनाने में मेरी मदद करें ! एक संभावनाशील ब्लॉगर इस तरह गुम सुम रहे यह आपको भी गवारा नहीं होगा !

शनिवार, 15 अगस्त 2009

ई मुई पी एच डी जो जो न कराये !

मेरे दो तीन ब्लागर मित्र इन दिनों पी एचडी में बुरी तरह मुब्तिला हैं -ज़ाकिर ,रीमा और अभिषेक ! ज़ाकिर से आज ही बात हुई और मजे की बात यह कि इस पोस्ट को लिखने का एक मसाला मिल गया ! ज़ाकिर जो बाल कहानियों में पिछले तीन साल से पी एच डी में रमे हैं ने अपनी पीड़ा कुछ यूँ व्यक्त की -
ज़ाकिर :तीन साल हो गए मगर अब जाकर शुरुआत कर पाया हूँ -बस शुरुआत ही तो मुश्किल होती है ।
मैं : हाँ ,ठीक कहते हैं ज़ाकिर भाई ,लेकिन मेरे विचार से जब शुरुआत समझ में न आए तो अंत से शुरू करना चाहिए !
समवेत ठहाका .....
जाकिर : लेकिन मेरी तो शुरुआत हो गयी है ......
मैं : तो अंत भी निकट मानिए ....और आज स्वतंत्रता दिवस पर क्या कर रहे हैं ?
ज़ाकिर : जी ,यही पी एच डी ही में लगा हूँ ॥
मैं: हद है यार ,पी एच डी के अलावा भी जीवन में कुछ होना चाहिए । चलिए पी एचडी को लेकर कुछ यह भी सुन लीजिये -
एक आधुनिक कहावत : किसी भी विश्वविद्यालय के परिसर में एक ढेला -पत्थर ऐसे ही उछाल फेकिये वह किसी कुत्ते को लगेगा या फिर किसी पी एच डी डिग्री धारक को ...
जाकिर :ओह हो हो हो हो .....
मैं : अब इसे भी सुन ही लीजिये -
बात अमेरिका की है ! एक घुड़दौड़ के प्रेमी रईस को उसके दोस्तों ने यह कहकर दुखी कर दिया कि उसके पास समृद्धि ,ऐश्व्यर्य सब कुछ है बस एक पी एच डी की डिग्री की कमी रह गयी है ..और बिना पी एच डी की डिग्री के यह ऐश्वर्य भी कुछ अधूरा अधूरा सा लगता है । यह सुन उस रईस को धक्का सा लगा .मगर उसने तुंरत प्रतिवाद भी किया -" मेरे घोडे को भी तो यह डिग्री नही मिली है ...कितना प्यार करता हूँ मैं उससे ! तो पहले मैं क्यों न उसी को पी एचडी दिलवाऊँ ? " अब चाटुकार मित्रों की बारी थी ," हाँ हाँ यह तो बड़ा नेक विचार है -शुभस्य शीघ्रम ...क्यों नही ? क्यों नहीं ?" फिर तो रईस के घोडे को पी एच डी दिलवाने की कवायद शुरू हो गयी ! आख़िर एक विश्वविद्यालय ने लम्बी चौड़ी कैपिटेशन फी लेकर उस घोडे को पी एच डी अवार्ड कर ही दी -अब रईस का घोड़ा डाक्टर बन गया था ! मगर दोस्तों ने एक बार फिर आवाज बुलंद की कि मित्र आपको भी पी एच डी ले ही लेनी चाहिये -अपने घोडे को पी एच डी दिलाकर रईस का हौसला बुलंद था -अब उस मनबढ़ ने फिर से उसी विश्वविदयालय को आवेदन किया ख़ुद को पी एच डी की डिग्री के लिए .......विश्वविदयालय का उत्तर भी जल्दी ही आ गया था -
" विश्वविद्यालय के विद्वत परिषद् ने आपके आवेदन पर गंभीरता पूर्वक विचार किया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हम घोडों को तो पी एच डी दे सकते हैं मगर गधों को नही ..इसलिए खेद सहित आपका आवेदन अस्वीकृत किया जाता है "

ये तो रही मजाक की बातें - सच यह है कि पी एच डी के नाम पर भारत में छात्रों के शोषण की की पुरानी परम्परा रही है .गाईड की साग सब्जी लाने के साथ साथ कभी कभी उनकी होनहार बेटियों से शादी करने पर ही डिग्री हासिल हो पायी है .अपने शोध छात्र के घोर परिश्रम से प्राप्त आंकडे को गाईड महोदय अपने नाम से छापते भये हैं ! उसको मिलने वाली आकस्मिक धनराशि में मुंह मारने के साथ ही कभी कभार फेलोशिप से भी हवाई जहाज टिकट का जुगाड़ भी शिष्य को करना पड़ जाता है ...सबसे बढ़ कर पीएच डी स्कालर की हैसियत किसी बंधुआ मजदूर से भी गयी गुजरी हो जाती है ! उसके मुंह से सहज मुस्कान गायब रहती है ! कुछ लोग तो ब्लॉग लिखना तक भी छोड़ देते हैं ताकि उनकी पी एच डी निर्विघ्न पूरी हो जाय ! सहज मानवीय रिश्तों से भी लोग दरकिनार हो लेते हैं !

हे पी एच डी आकांक्षियों ! यह ध्यान रहे कि पी एच डी ज्ञान और स्वाध्याय की शुरुआत मात्र है अंत नही -इसलिए इसे एक प्रोजेक्ट के तौर पर लीजिये -प्रोजेक्ट का मतलब है जिसकी एक शुरुआत हो और अंत भी ! पी एच डी को अंतहीन सिलसिले का रूप न दें -अब आप पद्मभूषण डॉ .कामिल बुल्के ही हैं तो बात अलग है जिन्होंने रामकथा पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएच डी के लिए विभिन्न भाषाओं के तीन सौ राम कथा साहित्य/दस्तावेजों का आद्योपांत अध्ययन मनन किया था ! उन सभी को जो इस महान कार्य -साधना में लगे हैं मेरी कोटि कोटि शुभकामनाएं -जल्दी आपकी पी एच डी पूरी हो -दुनिया में और भी बहुत कुछ है करने को ! समय आपको पुकार रहा है !

बुधवार, 12 अगस्त 2009

नहीं चाहिए मुझे !

नहीं चाहिए मुझे
अधूरा, खंडित और विकलांग प्यार
देह और मन का द्वंद्व भी
नहीं आएगा रास मुझे
मैं प्यार को उसकी समग्रता में
हासिल करने का मुन्तजिर हूँ
अनमने विखंडित मन का प्यार
नहीं रास आता मुझे
दे सको तो दो अपना निर्बाध प्रेम
नहीं तो ,विवशता और बन्धनों से
ग्रसित यह तुम्हारा प्यार
नहीं चाहिए मुझे

मेरे उस मित्र की याद है न आपको ,आज यह उनकी दूसरी कविता मेल में आयी है -बिल्कुल दुरुस्त लगती है ,इसमें क्या शुद्ध परिशुद्ध करना ! क्या कहते हैं आप ?

सोमवार, 10 अगस्त 2009

क्या हमारी जीवन्तता को निगल रही है यह आभासी दुनिया !

ब्लागजगत की मेरी एक मित्र को अपने लैपटाप से इतना मोह बल्कि व्यामोह सा है की वे उससे पल भर को अलग नही होना चाहतीं -उनका कहना है कि उनका लैपटाप उनके वजूद का ही एक विस्तार बन गया है ! मैंने उनको कहा कि वे विज्ञान फंतासी के साईबोर्ग अवधारणा की एक जीती जागती उदाहरण बनती जा रही हैं और वे इस दुनिया में अकेली नही है -अब वह पीढी आ रही है जिसे कलम से लिखना नही आएगा और उसके बाद जो पीढी आयेगी वह की बोर्ड को भी परे धकेल सीधे अपने पी सी पर बोल कर लिखेगी ! और उसके भी आगे मनुष्य के मस्तिष्क में ही ब्रेन इम्प्लान्ट्स लगा दिए जायेगें जो सीधे ब्रेन टू ब्रेन संवाद में सक्षम हो जायेगें ! और उसके आगे की दुनिया भी आप सोच सकते हैं यह आपकी वैयक्तिक कल्पनाशीलता पर निर्भर है ।

मगर क्या मशीनों पर इतनी निर्भरता मनुष्य के लिए उचित भी है -आज ही हमारी जीवन शैली कितनी बदलती जा रही है -मशीनों की दखल ने हमें बाहरी दुनिया के परिप्रेक्ष्य में बहुत आत्मकेंद्रित कर दिया है और एक बिल्कुल ही मायावी दुनिया की ओर लिए जा रही है जो आध्यात्म्वादियों के मायाजगत/मिथ्याजागत सरीखी ही है -आज की अंतर्जाल की आभासी दुनिया जिसके लिए नया शब्द -सायिबर्ब भी गढा चुका है अब विचारकों का धयान अपनी ओर खीच रही है -इस दुनिया का एक और रूप सेकंड लाईफ के रूप में हम देख ही रहे हैं -जहाँ एक सामानांतर संसार उभर रहा है -वहां समानानतर सरकारे वजूद में आ रही है ,आभासी मुद्रा का भी प्रचलन शुरू हो गया है जिसे वास्तविक दुनिया में भी भुनाया जा सकता है -वहां एक नयी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कायम होने को अंगडाई ले रही है .कैसा होगा आभासी दुनिया का साईबर (प्रजा ) तंत्र ,क्या वहाँ भी साईबर आतंकवाद सिर उठाएगा ? चुनाव होगें ? नेता गण धमाचौकडी मचायेगें ? साईबर युद्ध होगें ? संप्रभुता कैसे परिभाषित होगी ? राष्ट्रवाद का क्या होगा ?कुल मिला कर कैसी होगी नयी साईबर संस्कृति ?

क्या ये सवाल आपके मन में भी कौंधते हैं ? मुझे इसलिए आक्रांत करते हैं कि मैं विज्ञान फन्तासिओं में रूचि रखता हूँ और मुझे आगामी दुनिया का कुछ कुछ आभास होने लगता है -मैं भी अगर फलित ज्योतिषी होता तो आए दिन कुछ न कुछ भविष्यवाणी करके आप सभी को हैरत में डालता रहता -मगर मुझे यह भी मालूम है कि भविष्य को सटीक देख पाना बहुत मुश्किल है -कौन बता सकता है कि स्वायिन फ्लू से भारत में कितने लोग काल कवलित होगें ? लगता तो है कि यह एक बड़ी संख्या होगी -मगर नही भी हो सकती ? आपका क्या ख्याल है ? गिरिजेश राव कहेगें कि सब फालतू बात है कमाने खाने का जरिए है बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ! अनूप शुक्ल जी ने शायद इसके बारे में अभी सोचा तक न हो ! ज्ञानदत्त जी भी बेपरवाह ही हैं ! रंजना भाटिया जी और सीमा गुप्ता जी आज थोड़ी डरी हुयी दिखती हैं -और मैं ,मत पूँछिये अगर मन की बात कहँ दूँ तो दहशत फैल जायेगी यहाँ !

लीजिये कहाँ से बात शुरू कर ये कहाँ ले आया मैं आप सब को ! पर क्या यह उचित नहीं कि हम जरा अपनी आगामी दुनिया के बारे में भी सोचे और इस आभासी जगत से अपने रिश्ते के चलते मानवीयता के क्षरण (यदि संभावित है या हो रहा है ) की भयावनी संभावना की भी आहट लें ! मैंने अपने मित्र को आगाह कर रखा है कि मुझसे वे अपने लैपटाप को सदैव दूर रखें नही तो वह एक दिन टूट भी सकता है ! मशीन नहीं मनुष्यता सर्वोपरि है!

शनिवार, 8 अगस्त 2009

चर्चा एक शब्द साधक की ....

जी हाँ बिल्कुल सही समझे आप! आज चिट्ठाकार चर्चा के अतिथि हैं शब्दान्वेषी ,शब्द साधक अजित वडनेरकर जी जिन्हें हिन्दी ब्लॉग जगत का बच्चा बूढा आख़िर कौन नही जानता ? अजित जी का शब्दानुराग अप्रतिम है -वे अपना खुद का शब्द भंडार तो उत्तरोत्तर बढ़ा ही रहे हैं ,हिन्दी ब्लाग जगत को भी अपने अवदान से निरंतर समृद्ध कर रहे हैं -मुझे याद आता है कि मैंने हिन्दी ब्लॉग जगत में इसी ब्लॉग के बुकमार्क करने से इस सुविधा का श्रीगणेश किया था ! अजित जी कई चिट्ठों पर साझा लेखन करते हैं मगर शब्दों का सफर उनका नितांत अपना है -शब्दों की दुनिया के प्रति उनका समर्पण और हठयोग ही कुछ ऐसा है कि कोई उनके साथ होने का साहस भी शायद कर सके ! इतनी प्रतिबद्धता ,इतना समर्पण किसके बूते की बात है ?

अपने ब्लागजगत में सुवरण प्रेमी और भी हैं -मगर उनमें शब्द कौतुक का ही भाव प्राबल्य है । जबकि अजित जी जैसे शब्द शुचिता प्रेमी नित नए शब्दों के उदगम और व्युत्पत्ति की व्याख्या में ही लगे रहते हैं ,उन्हें निश्चित ही सायास की जाने वाली शब्द विकृतियों से चिढ होगी ! हाँ ,अज्ञेय जी की परम्परा को बुलंद किए ज्ञानदत्त जी जैसे शब्द शिल्पी होने की चाह उन्हें भले ही हो ! हिन्दी के शब्दों का कुछ ज्ञानी होने का मेरा प्रमाद शब्दों का सफर पर जा जा कर धूल धूसरित होता रहता है और मैं विस्फारित नेत्रों से शब्द व्युत्पत्तियों को देखता रहता हूँ, हतप्रभ होता हूँ और कभी कभी अतिशय उमंग उत्साह से कुछ टिट्टिभ प्रयास /योगदान करता हूँ जिसे अजित जी बड़े ही उछाह से स्वीकार करते हैं -मेरा मनोबल बढ़ा देते हैं ! अब जैसे एक दिन की शब्द चर्चा में उन्होंने डासना शब्द पर प्रकाश डाला तो मुझे बाबा तुलसी की ये पंक्ति याद हो आयी -डासत ही गयी बीत निशा ,कबहूँ नाथ नीद भरि सोयो -मैंने उनसे तुरत फुरत अनुरोध किया किया कि अवधी में डासना का एक अर्थ बिस्तर बिछाना भी होता है तो उन्होंने उल्लसित ,प्रमुदित मन से उसे स्वीकार ही नही किया मुझे प्रोत्साहित भी किया !

मगर अग्रेतर यह भी कह दूँ कि उनकी यह शब्द -एकनिष्ठता ,निरपेक्ष साधना कभी कभी संभवतः ईर्ष्या जनित चिढ भी उत्पन करती है -खास तौर पर उन अवसरों पर जब देश दुनिया में कुछ और चल रहा हो और यह शब्द योगी बेपरवाह अपनी दुनिया मे ही मग्न हो ! मुझे शिद्दत के साथ याद आता है 26/11 हादसे पर भी भाई जान शब्द साधना में ही रत रहे -मैं क्या पूरा हिन्दी ब्लागजगत ही मर्माहत था -नैराश्य जनित आक्रोश से क्षुब्ध था मगर अजित जी अपने शब्द प्रेम मे ही रमे थे .मुझे आघात सा लगा और मैंने कोई बेतुकी टिप्पणी कर दी शब्दों का सफर पर -वही कुछ जलते रोम में नीरो का बांसुरी वादन टाईप ! मगर अजित जी मेरी मनोभावना को तत्क्षण न समझ कर मेरी खीज को बढाते हुए उल्टे मेरे ऊपर ही फायर हो गए -तब मैंने जाना कि यह महारथी केवल एक शब्द बौद्ध /युद्धिष्टिर/भीष्म ही नहीं बल्कि आत्मरक्षार्थ सदैव तत्पर गांडीव धारी भी है -यह शब्दं शरणम् गच्छामि के साथ ही गाण्डीवं धारणाम -इदं शास्त्रं इदं शस्त्रं का अनुयाई भी है .बहरहाल हममें तब जो मल्ल शब्द युद्ध हुआ उसे सोचकर आज भी सिहरन आ जाती है -मगर समय जैसा कि सबसे बड़ा मरहम होता है हम धीरे धीरे सहज हो गए -आपसी गिले शिकवे दूर हुए -माफी साफी का विनिमय हुआ ! पास होते तो कुछ और भी हुआ ही होता !

आज हम परस्पर गहरी समझ वाले मित्र हैं -लगता है गाढी मित्रता में एकबार की गहरी उठापठक की भी भूमिका है /होनी चाहिए ! एक दो लोगों -लुगायियों से मेरी चल भी रही है इन दिनों और कुछ लोग छेड़ने पर भी छिटक ले रहे हैं ,बहरहाल आप शब्दों का सफर पर आज की पोस्ट सुर में सुरंग और धमाका पढ़ें और इस विरले शब्द साधक को शुभकामनाये दें !


गुरुवार, 6 अगस्त 2009

एक मुहावरे के त्रासद अनुभव से गुजरते हुए .....

जी हाँ एक मुहावरा आंशिक रूप से ही सही अपने अर्थ को भली भांति समझा गया है -वो कहते हैं न जाके पैर न फटे बेवाई वो क्या जाने पीर पराई? मगर मुहावरा यह नही बल्कि यह है -राड़ साड़ सीढी संन्यासी इनसे बचे तोसेवे काशी ! किस्सा कोताह यह कि परसों एक सुधी स्वजन के आकस्मिक मृत्यु के धक्के से हम उबरने की कोशिश में थे -कल ही अन्तिम संस्कार -दाह कर्म गंगा के प्रसिद्द श्मसान घाट -मणिकर्णिका घाट पर था ! दाह कर्म के बाद गंगा स्नान की परम्परा है ,लिहाजा स्नान की तैयारियों में हम सब लगे थे तभी पैर फिसला ,संभलते संभलते गिर ही गए और दायें पैर में मोच आ गयी -एक दो घंटे तो लगा कि कुछ ख़ास नही है मगर दर्द बढ़ना जो शुरू हुआ तो ब्लागजगत का अवलोकन जो आप जानते ही हैं कि इन दिनों हम लोगों का कितना प्रिय शगल है ,जारी रह पाना सम्भव नही हुआ ! डाक्टर साहब ने चेक कर बताया कि कुछ लिगामेंट स्ट्रेच हो गए हैं -दर्द निवारक गोलियाँ और क्रीम दी और पैर में एक ख़ास तरह का मोजा पहना दिया -कल रात तो दर्द ने काफी परेशान किया -जब राहत मिली तो लगा कि दुनिया में दर्द के होने से बढियां कुछ भी नही है

आज छुट्टी ले रखी है -सुबह ही समीर जी का बीमार लोगों का ब्लॉगर क्लब ज्वाईन कर लिया है -बैठे ठाले इस दुर्घटना पर जब पुनार्चितन शुरू हुआ तो याद आ गयी इस मुहावरे की -राड़ साड़ सीढी संन्यासी इनसे बचे तो सेवे काशी! अब प्रबुद्ध लोगों का इसका अर्थ क्या बताना ! फिर भी बताता चलूँ कि काशी की सेवा तभी हो सकती जब आपकी जान इनसे बख्श दी जाय -राड़ सांड सीढी संन्यासी ! अब वैधव्य बोझ उठा रही अबला से भला किसीको क्या हानि हो सकती है मगर यहाँ कालसम घूमते बलिष्ठ साड़ों और आपको लूट लेने वालों संयासी कहर बरपाते ही रहते हैं ! मगर मुझे तो सिंधिया घाट की खडी सीढियों ने जो सबक सिखा दिया है की मैं अनुभव जन्य मुहावरों की महिमा से बखूबी परिचित हो गया -साहित्य में भी भोगे हुए यथार्थ की चर्चा गाहे बगाहे होती ही रहती है ! आप भी ध्यान रखें बनारस में जब दाखिल हों इस मुहावरे को याद रखें -राड़ साड़ सीढी संन्यासी इनसे बचे तो सेवे काशी!

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