कौस्तुभ ने पूछा है कि शिवजी के ललाट पर बालचंद्र क्यों हैं ,पूर्णचन्द्र क्यों नहीं? अब सवाल है तो उत्तर भी होना चाहिए। किसी को यह भी लग सकता है कि भला यह भी कोई सवाल है? अर्धचंद्र है तो है अब इसकी क्या मीमांसा? देवी देवताओं के मामले में ऐसा हस्तक्षेप वैसे भी लोगों को पसंद नहीं है। मगर जो जिज्ञासु हैं उन्हें तसल्ली नहीं होती। जिज्ञासु लोगों के साथ एक समस्या और भी है वे प्रायः तार्किक भी होते हैं -एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा :-) . किन्तु यह भी सत्य है कि यदि जिज्ञासु न होते तो आज मानव जहाँ है वह नहीं होता। जिज्ञासुओं ने ज्ञान की गंगा को हमेशा प्रवाहित किये रखा है।
चन्द्रमा हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासा और श्रृंगारिकता को कुरेदता रहा है। कारण चन्द्रमा कौतुहल का विषय रहा है। यह घटता बढ़ता रहता है। कभी कभी तो अचानक लुप्त हो जाता है। कभी दिन में दीखता है कभी रात में। हजारो वर्ष पहले से यह कौतूहल का केंद्र रहा और इस आकाशीय पिंड को लेकर अनेक सवाल पूछे गए होंगे. तब हमारे पूर्वज ज्ञानियों ने अपने तत्कालीन ज्ञान के आलोक में और स्टाइल में उन सवालों के जवाब दिए होंगे। कहना नहीं है उन दिनों की जवाब की कथा शैली थी जो आज भी हमारे बीच पुराण कथाओं के रूप में हैं। हाँ पुराण कथाओं की ज्ञात अद्यतन वैज्ञानिक जानकारियों के सहारे आज पुनर्रचना की जाय तो कितना अच्छा होगा।
हाँ यह बताता चलूँ कि हजारो वर्ष पहले हमारे पूर्वजों को अच्छा खगोलीय ज्ञान था। जब यूनान में मात्र १२ राशियों से अनेक खगोलीय गणनाएँ होती थीं तभी हमारे यहाँ 27 नक्षत्रों को आसमान में पहचान दी जा चुकी थी। अब धरती और चन्द्रमा की अपनी धुरी और एक दूसरे के सापेक्ष पारस्परिक गति से चन्द्रमा का उसके अट्ठाईस दिन से कुछ अधिक के दिन की विभिन्न अवस्थाओं और आसमान में स्थिति को पूर्वजों ने भली भांति जान समझ लिया था तो आम आदमीं तक इस ज्ञान को पहुंचाने के लिए को रोचक कथाएं गढ़ीं। जिनमें एक तो दक्ष प्रजापति और उनकी सत्ताईस पुत्रियों की कथा है जिनका व्याह चन्द्रमा से हुआ -अब २७ पुत्रियां यहीं नक्षत्र ही तो थे।
देखा यह जाता था कि एक चंद्रमास में चन्द्रमा का ठहराव रोहिणी नक्षत्र में ज्यादा समय तक रहता था। सवाल आया ऐसा क्यों ? जवाब था कि दक्ष की पुत्री और अपनी इस पत्नी रोहिणी से चन्द्रमा का लगाव ज्यादा था। अब कथा और आगे बढ़ी। जिसमें चन्द्रकलाओं के रहस्य को समझा दिया गया -कुपित दक्ष ने चन्द्रमा को शाप दे दिया कि तुम्हारा रूपाकार और तेज घटता जाएगा। अब इस शाप से मुक्ति के लिए चन्द्रमा को अंततः शिव जी की शरण में जाना पड़ा ,उन्होंने आश्वस्त किया कि शाप का प्रभाव पूर्णतः तो नहीं खत्म होगा मगर तुम्हे अपना पूर्ण स्वरुप भी मिलता रहेगा। हमेशा के लिए क्षय नहीं होगा ! कहते हैं तभी से शिव के ललाट पर चन्द्रमा आश्रय लिए हैं।
मगर शिव के ललाट पर बालचन्द्र (crescent moon ) ही क्यों? मैं किसी और मिथकीय कथा को ढूंढ रहा हूँ शायद कोई उत्तर वहां मिल जाय। मगर पूर्णचन्द्र विश्व की कई सभ्यताओं में अपशकुन द्योतक हैं-ज्वार भाटा लाने वाले हैं और कभी कभी तो अचानक लुप्त हो कर भयोत्पादक भी रहे हैं। ग्रहण के चलते। आज हमें ग्रहण की वैज्ञानिक जानकारी है मगर कभी इसके लिए भी राहु केतु राक्षसों की कथा रची गयी थी। अब भला शिव अपशकुन सूचक ,भयोत्पादक चन्द्रमा के रूप को शिरोधार्य क्यों करेगें ? उन्हें तो निर्विकार निर्विघ्न बालचंद्र ही प्रिय हैं! आप को इस विषय पर और जानकारी मिले तो कृपया साझा करने का अनुग्रह करेगें!