रविवार, 29 जुलाई 2012

बाप बड़ा या बेटा -खेल शुरू होता है अब!


आखिर एक वैज्ञानिक तकनीक ने दूध का दूध और पानी का पानी कर ही दिया .डीएनए फिंगर प्रिंटिंग तकनीक ने साबित कर दिया कि एन डी तिवारी (एन डी टी ) ही रोहित शेखर के जैविक पिता है . आजकल पूरी दुनिया में यह तकनीक तरह तरह के अपराधियों की शिनाख्त और पितृत्व के मामलों को सुलझाने में अचूक मानी जा रही है और अदालतें अब इन पर पूरी तौर से भरोसा करती हैं . आज इन तकनीकों के चलते कई ऐसे सामजिक मुद्दे सामने आ रहे हैं जिनकी गुजरे जमाने में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी . अब रोहित का मामला ही लें ,अब उनके दो पिता हैं .एक वैधानिक या कहिये धर्म पिता तो दूसरे जैवीय (या अधर्म पिता :-) ? ) शेखर के जन्म के बाद उनकी मां की दूसरी शादी हुयी और और एक और पुत्र हुआ .शेखर का सहोदर भाई . 
जाहिर हैं अपने पिता का अधर्म जग जाहिर कर अब शेखर कुछ शांति महसूस कर रहे होंगे. मगर मित्र शेखर, पिता तो हमेशा बाई चान्स ही होते हैं बाई च्वायस नहीं ....हाँ दोस्त मित्र भले ही बाई च्वायस बनते हैं . फेसबुक पर इस मामले से  प्रतिक्रियाओं की झड़ी लग गयी .बड़े रोचक रोचक शीर्षक उभरे. बेटे ने बाप को जन्मा......कई वर्षों का प्रसव काल और पुरायट पिता का जन्म ,जनम लियो मेरे पापा बजे बधाई चहुँ ओर आदि आदि .....ज्यादातर लोगों ने एन डी टी को कोसा तो कुछ उनके बचाव में भी उतरे....कहा कि शेखर एक नाजायज सम्बन्ध की उपज रहे और उनकी मां बेटे ने मिलकर एन डी टी के ऐश्वर्य का सुख भोगा और फिर नाजायज सम्बन्ध को जायज बनाने में जुट गए .
किसी ने यह सवाल भी किया कि ऐसा क्यों देखने में आता है कि पुरुष ऊंचे ओहदे और रसूख पर महिलायें मर मिटती हैं ....मेरे एक मित्र ने लिखा " यह तिवारी की सज्जनता है कि वे मां बेटे पर मेहरबान रहे और निजी तौर पर उनका ध्यान सम्मान रखते रहे मगर जो रिश्ता ही सार्वजनिक नहीं था उसे वे कैसे स्वीकारते? कोई और राजनेता रहा होता तो मां बेटे कब कहाँ लोप हो गए होते किसी को कानो कान खबर नहीं होती जैसा कि उत्तर प्रदेश में कई मामलों में ऐसा हो चुका है ..... या फिर खुद एन डी टी की ही  डी एन ए टेस्ट की परोक्ष सहमति थी अन्यथा ब्लड सैम्पल दूषित कर देना उनके लिए कौन सा मुश्किल था.."  बहरहाल यह तो त्वरित प्रतिक्रियाएं थीं ....बहुत सधी और सुचिंतित नहीं ...सरोकारनामा चिट्ठे ने तो एन डी टी के समर्थन में एक विकराल पोस्ट ही लिखी है -फुरसत हो तो आप भी पढ़िए. 
मगर अभी तो यह शुरुआत भर है ..पिता जन्में हैं और बधाईयों का दौर है . अब शुरू होगा  कानूनी लड़ाईयों का दौर. वैसे भी एन डी टी के पास कोई बड़ी जागीर नहीं हैं मगर फिर भी जो कुछ भी है बिना उनकी सहमति के वह जायज बेटे का भी नहीं हो सकता -यह उनकी मर्जी पर है या विधि विशेषज्ञ बेहतर जानते हैं . अब जैवीय हक़ तो काबिज हो गया मगर पिता तो कभी पुत्र का ऋणी माना नहीं गया है.   सनातन व्यवस्था है कि पितृ ऋण तो पुत्र को ही चुकाना पड़ता है ...और यह बहस चलती रहेगी ...मगर इन सबसे ऊपर और अलग मेरा अपना मानना है कि अगर एन डी टी को यह इल्म था कि रोहित उनका ही बेटा है तो उन्हें इसे स्वीकार कर लेना था -इससे उनका कद और ऊंचा उठता और उनकी नैतिकता और साहस की लोग बडाई करते ..वे निःसंतान भी हैं ..खैर अब भी देर नहीं हुयी है उन्हें सार्वजनिक आयोजन कर बेटे को गले लगा लेना चाहिए ...

बुधवार, 25 जुलाई 2012

डिजिटल युग में इजहारे मुहब्बत ....


पिछली लगातार तीन पोस्टें भारी गुजर गयीं ,,अब कुछ हल्कानी(तर्ज तूफानी) भी हो जाय .... :-) 
डिजिटल युग के एक प्रेमी का उल्लेख यहाँ है जिसने अपनी माशूका को जो मेसेज भेजे उससे १२०० पृष्ठों का मजमून बना और प्रेम पत्रों की सिमट रही दुनिया की याद करा गया .अब प्रेम पत्र कहाँ  लिखे जाते हैं?. अब तो प्रेम की अभिव्यक्ति टेक्स्ट मेसेजों में शोभित हो रही है -अब वे खुशबूदार रंग रंगीले प्रेम  पृष्ठ तो गुजरे जमाने के  अध्याय हो चुके-अब उनकी अमानत भी शायद कहीं सहेजी  हों -महापुरुषों के प्रकाशित प्रेमपत्रों को छोड़कर ..मैंने अपने तो सहेजे हुए हैं मगर अब उन्हें माँ  गंगा को समर्पित कर देने का वक्त आ गया है -मानव  ज़िन्दगी के बहुत ही अन्तरंग पहलुओं को भी टेक्नोलोजी ने कितना बदल डाला है ....
आज फेसबुक ,ट्विटर जैसी कई अन्य सोशल साईटों ने प्रेम के इजहार से लेकर उसके फलने फूलने तक का सारा जिम्मा संभाल लिया है ...बस थोड़ी सजगता जरुरी है .शेप्स एंड मेंस मैगज़ीन के हाल के एक अंक में हुए सर्वे के मुताबिक़ चुने गए लोगों में से पैसठ फीसदी से अधिक लोगों ने प्रेम का इज़हार डिजिटल माध्यमों से किया .अब चुनाव के यहाँ  ज्यादा मौके हैं . और रिजेक्शन के भी ...इंटरनेट अब लोगों की पोल पट्टी भी खोल रहा है .आप किसी के बारे में ज्यादा जानना चाहते हैं -मसलन उसकी रुचियों ,उसके नाक नक्श, उसके कार्य आदि तो यह सजरा इंटरनेट के खंगालने से मिल जाएगा -यहाँ रोमियो को ढूंढना किसी जूलियट के लिए मुश्किल नहीं है ....और अब सारी वसुधा आपके सामने हैं ....आनुवंशिकीविद भी कहते हैं जितना ही जीनों की दूरी होगी उनके सम्मिलन  से जीनी विवधता उतनी ही बढ़ेगी और आगामी पीढी अन्तःप्रजनन आदि दोषों से उतनी ही मुक्त होगी -संकर ओज वाली देदीप्यमान संताने जन्म  लेगीं ...
मैंने यह गुरु दीक्षा अपने एक चेले को क्या दे दी वह यहाँ की सुन्दरियों/भारतीय अंतर्जाल, ब्लॉग सुन्दरियों  को तुरत फुरत छोड़ छाड़ एक अमेरिकन हूर को ही पटा लिया ..अच्छी बात हुयी दोनों की शादी हो गयी और अब वे साथ साथ अमेरिका में रह रहे हैं -जाति पांति का रूढिगत बंधन टूटा सो अलग .....हाँ यहाँ कथित निम्न सामाजिक स्तर का वरण अमेरिका के एक बड़े ऊंचे घराने की बाला ने कर लिया ....अभी तक वंशावली वृद्धि की खुशखबरी तो नहीं सुनायी दी ..नालायक का यही अभीष्ट  यही होना था मगर  पता नहीं कर क्या रहा है? दो साल तो बीत गए... अभी अपने अली भाई भी उस दंपत्ति को खोज बैठे तो मुझसे जोड़ी की वास्तविकता का शिनाख्त करा बैठे ..एक दिन अचानक उनका बहुत ही संक्षिप्त  सन्देश मिला -यही है? साथ में एक लिंक ..मैंने रिफ्लेक्स एक्शन में प्रतिप्रश्न किया -"क्या यही है ?" ?उन्होंने कहा लिंक देखिए ..मैंने देखा और पुष्टि कर दी ..अब अली भाई यह शिनाख्त क्यों करा रहे थे वही जाने आज तक तो साफ़ साफ़ बताये नहीं ....समाजविद हैं ऐसे अध्ययन करना उनकी पेशागत जरुरत है .
तो आज प्रेम प्रणय के जितने अवसर अंतर्जाल दे रहा है पुराने सभी नई पंडित मुल्ला के दिन लदते  भये  हैं.प्रेम- प्रणय परिणय के मामले भी महज दो जिंदगियों से जुड़े हैं -पुराना जुमला है -मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी ....यह कितना हास्यास्पद है कि जीवन संगी बनना दो जनों को है और उनके बजाय कितने और लोग रिश्ते ढूंढ रहे हैं -माँ बाप बिचारे हलकान हैं सो अलग ....अंतर्जाल युग के युवाओं को भी यह आजादी क्यों न हो? यहाँ  अवसरों  की  भरमार है -रिश्ते ही रिश्ते कोई भी चुन लो ....मगर फाईनल चयन के पहले काफी जांच पड़ताल तो जरुरी है अन्यथा कितने ही कैसोनोवा और मियाँ रंगीले यहाँ  घूम रहे हैं जिन्हें जीवन साथी ही नहीं बाकी सभी कुछ चाहिए ....
अंतर्जाल के प्रेम युग में आप सभी  गैर विवाहितों का स्वागत है ....अब विवाहितों को भी ऐसा कोई निषेध नहीं ..वे मन -रंजन तो कर ही सकते हैं ....कोई मनाही थोड़े ही है बस मन मिलने की बात है :-) 

सोमवार, 23 जुलाई 2012

मानस में नारी विमर्श:समापन पोस्ट!


पूर्व संदर्भ: 
मित्रो मानस में नारी विमर्श के मुद्दे पर आवश्यक विचार आ गए हैं  और मैं सोचता हूँ इस विमर्श का अब समापन किया जाय ...महिला मित्र ब्लागरों /टिप्पणीकारों का इन विचारों से और वह भी मेरे सौजन्य से प्रस्तुत करना संतप्त करने वाला  रहा होगा, यह समझ में आता है.  मगर उनकी टिप्पणियाँ बहुत विवेकपूर्ण और संतुलित आयी हैं  इस बार... समझा जा सकता है कि नारी ने बीती शताब्दियों में अपने को सचमुच साबित किया है और कई निरे घोघाबसंतों से तो वे लाख गुना बेहतर ही हैं....
मुझ पर कुछ आरोप लगे हैं कि मैं धर्मग्रंथों को गलत तरीके से उद्धृत कर रहा हूँ .....या फिर पोंगापंथी विचारों को प्रचारित कर रहा हूँ . समग्र परिप्रेक्ष्य में मैं अपनी बात निम्न प्रकार कह रहा हूँ -मित्रगण अपना जवाब उसमें पा सकते हैं -
१-मैं धर्म को रूढ़ तरीके से नहीं लेता....मानस को मैं एक धार्मिक ग्रन्थ से कहीं अधिक सामाजिक सरोकारों का और साहित्य का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ मानता हूँ .
२-नारी की निंदा वैश्विक साहित्य में खूब हुयी है और जमकर हुयी है -कारण स्पष्ट है लेखक, रचनाकार, कवि  प्रधानतः पुरुष रहे  हैं -पता नहीं अगर नारी रचनाकारों का बाहुल्य होता तो कहीं पुरुष को लेकर इससे भी गलीज बातें लिखी गयीं होती :-) ....और वह समय अब आ  ही गया है .....नारी रचनाकारों ने जम कर भड़ास निकालनी शुरू भी कर दी है.  समकालीन नारी सृजित साहित्य के पुरुष पात्र ज्यादातर दया के पात्र ही बने हैं ..
३-मानव व्यवहार के कई पहलू इतनी जल्दी तो नहीं बदलने वाले हैं उनका उदगम वन्शाणु जनित है ...अब अगर नारी मक्कार है, मूर्ख जाहिल है पुरुषों में लड़ाई करने वाली है,फरेबी है ,झुट्ठी है तो यह कुछ ट्रेट उसके हैं या नहीं यह आधुनिक अध्ययन ,अनुभव और भोगे यथार्थ से भी समझे जा सकते हैं  -कम से कम वह पुरुषों से बेहतर बहला फुसला लेती है बहनेबाजी कर लेती है ..सफ़ेद झूंठ भी चेहरे पर बिना शिकन के बोल जाती है -यह ट्रेट  बच्चों के लालन  पालन, उनके मान मनौवल के चलते और पुख्ता ही हुआ है ....कुछ नैसर्गिक कुछ सीखा हुआ -वह पुरुष की तुलना में परफेक्ट झुट्ठी है (प्यार से कह रहा हूँ) ..हम झूठ बोलते ही पकड़ा जाते हैं -शायद यही वह व्यवहार प्रतिरूप रहा हो जिसने त्रिया चरित्र के जुमले को जन्म दिया ..आज भी वैयक्तिक  जरायम /अपराध का  हेतु/मोटिव ज्यादातर  जर जोरू जमीन का होता है -कथित रूप से दो बड़े युद्ध नारी के चलते ही लड़े गए ..अब कवि करे भी तो क्या -मानस के प्रणयन के पीछे का बैक ग्राउंड यह था ......हाँ बाद की आसिफ लैला की कहानियों अरेबियन नाईट्स में भी सैकड़ों कहानियों में नारी का ज्यादा मगर पुरुष का भी कम  दुश्चरित्र चित्रण नहीं हुआ है ....आशा है आप लोगों ने अरेबियन नाईट्स की कहानियाँ पढी या टी वी पर देखी होंगी ..
४-मैं मानस का पाठ खुद के लिए ही नहीं करता -बाकी लोगों से शेयर करना चाहता हूँ, करता रहता हूँ ....अब कईयों ने तो मानस पढी ही नहीं तो वे बिचारे निरीह हैं -नाहक ही इस विवाद में अपनी नारी सहिष्णुता साबित करने को कूद पड़े -मानस कोई ऐसा वैसा ग्रन्थ नहीं है जिसे इतने हलके तरीके से खारिज कर दिया जाय -लोग कई सौ सालों से ऐसा करते आये है -ग्रन्थ और रचनाकार को गालियाँ देते फिरे है मगर हाशिये पर आते गए हैं ...बहुत से दिग्गज साहित्यकार यह सहज ही कबूल करते हैं कि ज्ञात और अभिलिखित   साहित्य के इतिहास में इससे अच्छा और बहुआयामी ग्रन्थ कोई रचा ही नहीं गया ....भाषा अलंकार, रूप विधान, नैरेशन, उपमा और यूटोपिया का ऐसा ग्रथ पूरे विश्व साहित्य में शायद ही कोई हो....और तुलसी बाबा कोई पल्लव ग्राही ..बोले तो इधर उधर का कुछ पढ़ लिख कर ही दिखाऊ विद्वान् नहीं बन गए थे -तत्कालीन अद्यावधि साहित्य वांग्मय का उनका बड़ा ही पूर्ण और विषद अध्ययन था और उनकी एक दिव्य दृष्टि विकसित हो गयी थी -जिसे त्रिकालदर्शी होना कहते हैं -ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं - जो उनमें विषद ज्ञानार्जन से उद्भूत  हो गयी थी - जब वे एक नहीं कई ब्रह्मांडों की बात करते हैं ,कल्कि प्रसंग की बात करते है तब उनका यह भविष्यदर्शी रूप प्रत्यक्ष होता है ...तो उनका आकलन ऐसे ही सतही सतही तरीके  से  करने वालों पर हंसी आती है ..
५-वे नारी के मोह को ज्ञानी पुरुष की सबसे बड़ी कमी बताते हैं .....नारद मोह का प्रसंग उन्होंने मजे से रचा .....खुद नारी से चोट खाये हुए थे ..मनुष्य की कामाग्नि बड़ी प्रबल होती है -ऋषि मुनि भी उससे बचे नहीं है ...कितने अपराध इसी के चक्कर में होते हैं जबकि नारी अपने यौन भावनाओं पर कुशलता से नियंत्रण कर लेती है -उसका जेनेटिक मेकप और मजबूरियाँ भी ऐसी हैं कि सबके लिए हाँ करती चले तो चिरन्तन गर्भिणी ही बनी रहे बिचारी ..मगर पुरुष यहीं नैसर्गिकता के आगे कमजोर पड़ गया है-यहाँ प्रत्यक्षतः कितने ही बड़े सद्विचारी और गुडी गुडी भले ही दिखना चाहे   मगर एक पुरुष होने के नाते मैं जानता हूँ कि कामाग्नि के आगे वह बार बार हारता है, बर्बाद होता है -कितने ठाकुरों ने वैश्याओं के चक्कर में पड़ कर अपनी रियासते लुटा दीं  -और भी बहुत कुछ हुआ है नारी के चक्कर में  -तुलसी इसी बर्बाद कर देने वाली कामाग्नि से पुरुषों को बार बार चेताते हैं और नारी के प्रति वितृष्णा भरते हैं और उनकी उपास्य नारी पात्र  तो जैसे इस युग के  हैं ही नहीं -कौशल्या, सीता अपने विवेचन में मिथकीय अधिक हैं  सहज और सामान्य लोकजीवन के पात्र कम -वे देवी हैं ! हमारा  समाज तो कैकेयियों,मन्थराओं से ही अधिक भरा पड़ा है ....ये हमारे आम ज़िदगी के पात्र हैं ....बोले तो रोजमर्रा के ...:-) हमारे पूर्वांचल में तो भाईयों में बंटवारा/अल्गौझी   दुलहिने ही कराती हैं -एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं ... मेरा दावा है कि यहाँ ब्लॉगर बन्धु भी जरा अपने गिरेबान में झांक लें ....भाईयों में बटवारा किसने कराया? भले ही यह  नारी की ब्रूडिंग इंस्टिंक्ट ही क्यों न हो?  
६-मुझ पर यह आरोप लगा है कि मैंने बिना संदर्भ के उद्धरण दिए हैं -नहीं ,मैंने बहुत सावधानी बरती है ...और किसी भी उद्धरण को बिना उसके कथा प्रसंग के नहीं दिया है -हाँ एक छोटे पोस्ट में कथा प्रसंगों को संक्षेप में ही दिया जा पाना संभव था ...
७-मानस में तो तुलसी ने फिर भी उदारता बरती है . वाल्मीकि रामायण में तो मत पूछिए .....राम सीता के चरित्र पर ही शक कर बैठते हैं -कहते हैं कैसे मान लूं कि रावण ने तुझे दूषित नहीं किया होगा -ऐसा करो तुम लक्ष्मण  या भरत के साथ रह जाओ ..अब बताईये -एक आम मनुष्य की  शंकाएं ही यहाँ तुलसी के 'मर्यादा पुरुषोत्तम; राम की भी क्या नहीं हैं ....
बस मुझे इतना ही कहना था फिलहाल ...मानस विमर्श तो आगे भी चलता रहेगा! 

रविवार, 22 जुलाई 2012

का न करै अबला प्रबल?.....(मानस प्रसंग-7)



अब आगे ....
बालकाण्ड में पहली बार नारी विषयक उदगार तब व्यक्त हुए हैं  जब वन में नारी विछोह में भटकते भगवान राम की  सती ने परीक्षा ले ली, शंकर जी की अनिच्छा के बावजूद -नारी के इसी दुराव छिपाव को लक्षित करते हुए  संतकवि कहते हैं -सती कीन्ह चह तहहूँ दुराऊ देखऊँ नारि सुभाव प्रभाऊ ..अर्थात जो सर्वज्ञाता है सती उससे भी छल कर रही हैं -नारी का स्वभाव तो देखिये .....और इसी दुराव को लक्षित कर शंकर जी ने सती का परित्याग किया -यहिं तन सती मिलन अब नाहीं ... खुद सती के ही अगले जन्म में पार्वती यह स्वीकारती हैं -"नारि सहज जड़ अज्ञ ... नारी स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है ..मैंने शिवजी से कपट किया था और उसका परिणाम भोगा"  -अयोध्या काण्ड में कैकेयी ने राजा दशरथ के साथ जो प्रपंच किया उससे भला कौन अपरिचित है ..वहां भी उल्लेख हुआ है -जदपि सहज जड़ नारि अयानी..नारी तो सहज ही मूर्ख और अज्ञानी है (मतलब जन्म से ही  मूर्ख) ..राजा दशरथ नीति निपुण होते हुए भी नारी मोह में पड़ गए -कारण? जद्यपि नीति निपुण नरनाहू नारि चरित जलनिधि अवगाहू ..बिचारे क्या करते? त्रिया चरित्र ही अथाह है उसका पार नहीं  पाया जा सकता . और राजा दशरथ नारी का विश्वास कर कहीं के नहीं  रहे ....गयऊँ नारि विश्वास.....! 
अयोध्या काण्ड में ही विभिन्न प्रसंगों में आया है -सत्य कहऊँ कवि नारि सुभाऊ सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ यानि कविगण सत्य कहते हैं कि नारी का स्वाभाव पकड़ में आने वाला  नहीँ है .अथाह है और भेद भरा है अपनी परछाईं तो फिर भी पकड़ी जा सकती है मगर नारी की गति समझ पाना असंभव है -निज प्रतिबिम्ब बरकु गहि जाई जानि न जाई नारि गति भाई ...हाँ एक जगहं वह निरी अबला भी नहीँ है -काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाई का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाई ....आग क्या नहीँ जला सकती ,समुद्र में क्या नहीँ समां सकता काल किसे कवलित नहीँ कर सकता और नारी क्या नहीँ कर सकती -वह तो दरअसल प्रबला है, अबला बस कहने भर को ही है  ....राजा दशरथ का तो प्राण ही हर लिया ...इतने ज्ञानी, विद्वान मगर अबला बिबस ग्यानु गुण गाजनु ..एक अबला से विवश हो गए ... 

भरत  स्वयं कैकेयी को धिक्कारते हुए कहते हैं -विधिहुं न नारि ह्रदय गति जानी सकल कपट अघ अवगुण खानी..अर्थात स्वयं ब्रह्मा भी नारी के ह्रदय की बात नहीँ जान सकते जो हर तरह के कपट बुराई और अवगुण की खान है...एक स्वीकारोक्ति शबरी की भी है -अधम ते अधम अधम अतिनारी तिन्ह में मैं मदिमंद अघारी ...जो अधम से भी अधम हैं नारी उनमें भी अधम है ...और उनमें भी मैं अति मंद बुद्धि की हूँ .....अरण्य काण्ड शुरू हुआ तो संतकवि ने राम के मुंह से -सीधे श्रीमुख से भी नारी की निंदा कराकर मनो संतुष्ट हुए हों -राख़िय नारि जदपि उर माहीं जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं -यानि नारी को भले ही ह्रदय में ही क्यों न रखा जाय वह ,शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रह सकते ...वे स्वभावतः स्वच्छंद होते हैं ..अरण्य काण्ड का समपान ही नारी विमर्श /विषयक परामर्श से होता है - 

दीप शिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग 

युवती का तन दीपक के लौ के सामान है, हे मन तूं उसके लिए पतंगा मत बन (नहीं तो नष्ट हो जाएगा )......

क्या सचमुच ज्ञानार्जन और पुरुषार्थ का मार्ग नारीविमुखता या उससे तटस्थ रहने  से ही संभव है? या फिर आर्ष ग्रथों की बात बस ऐसे ही कल्पना की बेवजह  उड़ान है और उसे अनदेखा कर देना चाहिए? संतकवि का खुद का अपना भोगा  हुआ यथार्थ -पत्नी की लताड़ उनकी आजीवन की कसक रही हो जिसे उन्होंने रामायण के पात्रों में यत्र तत्र आरोपित किया हो? ये सारे सवाल मेरे मन को मथते रहे हैं ,आप क्या कहते हैं ? 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

नारी सब दुखों की खान है -बोले सियावर रामजी! (मानस प्रसंग, 6)


सबसे पहले यह निवेदन और दावात्याग: प्रस्तुत लेख एक खुला हुआ नारी विमर्श है और मेरा अपना कोई पूर्वाग्रह पोस्ट-कंटेंट के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। विषय पर मेरी अपनी समझ और व्याख्याएं हैं। मगर यहां मैं उनसे निरपेक्ष रहकर मानस के नारी विमर्श को जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं।मेरे मित्रगण खासकर महिला ब्लॉगर और मित्र इसी परिप्रेक्ष्य में इस पोस्ट को देखेगें/देखेगीं! हां विवेचन में अपने मनोभाव भी व्यक्त कर सकूंगा अगर कोई स्वस्थ बातचीत-विवेचन होता है तभी! पोस्ट लम्बी हो गयी है अतः दो भागों में आएगी...आज अरण्यकाण्ड पूरा हुआ। एक ख़ास प्रसंग है यहां . सीता की खोज में राम वन-वन भटकते हुए आगे बढ़ रहे हैं। एक सुरम्य सी जगह रुकते हैं। विराम करते हैं। मुनिजन, देवता गण आते हैं। स्तुति गान करते हैं। नारद भी आते हैं। सुअवसर जानकर एक सवाल पूछते हैं –

तब बिबाह मैं चाहऊँ कीन्हा केहिं कारण प्रभु करहि न दीन्हा...

प्रभु! मैं जब विवाह करना चाहता था तब आपने मुझे क्यों नहीं करने दिया? नारद को एक कसक थी...सो पूछ ही लिया...मोह में उनकी बड़ी फजीहत हुई थी। उन्हें अपने कामजेता होने का घमंड हो गया था और विश्वमोहिनी के स्वयंवर का सारा माया जाल उनके इसी दर्प को तोड़ने के लिए रचित हुआ था। कथा आपको पता ही है। भगवान राम ही अब उन्हें इत्मीनान से बताते हैं कि उन्हें उस समय विवाह करने से हठात खुद उन्होंने ही रोकने का यत्न क्यों किया था। यह प्रसंग मानस में नारी विमर्श का एक अनूठा प्रसंग है। श्री राम कहते हैं –


काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि।।43।।
सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता।।
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी।।
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका।।
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई।।
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा।।
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई।।
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी।।
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना।।
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि।।44।। 


उन लोगों को जिन्हें अवधी पढ़ने समझने में असुविधा है, अर्थ भी बताते चलते हैं - संसार में काम क्रोध लोभ और मद मनुष्य के मोह के बड़े कारण हैं। मगर उनमें भी स्वयं माया रूपा नारी तो अत्यंत दारुण और दुखद है। हे मुनि, पुराण और श्रुतियों तक में यही कहा गया है कि मोह रूपी वन के लिए नारी बसंत ऋतु के समान है। अर्थात् सभी मोहों को बढ़ाने वाली है। और जप तप नियम रूपी जलाशय के लिए तो वह ग्रीष्म ऋतु बन कर इन गुणों को सोख लेती है। मगर काम क्रोध मद और डाह रूपी मेढकों के लिए नारी वर्षा ऋतु बनकर हर्षित कर देती है। और बुरी वासनाओं के कुमुदों के लिए तो यह सदैव सुख देने वाली शरद ऋतु बन जाती है। और सभी तरह के धर्मं कर्म रूपी कमलों के समूह के लिए नारी हिम (ऋतु) बन कर उन्हें क्षय कर देती है। ममता मोह रूपी जवास (के वन) को तो नारी शिशिर ऋतु बनकर हराभरा करती है। पाप रूपी उल्लू समूहों के लिए नारी घनी अंधेरी सुखभरी रात है जो उनके बढ़ने में सहायक है। और तो और बुद्धि बल शील और सत्य रूपी मछलियों के लिए यह बंसी (मछली पकड़ने का कांटा) बन जाती है।

हे मुनिवर युवती स्त्री सभी अवगुणों की मूल,पीड़ा देने वाली और दुखों की खान है और इसीलिए मैंने आपको विवाह करने से रोका थाअब जैसे मुनि और ज्ञानी जनों के लिए नारी सानिध्य ही पूर्णतया प्रतिबंधित हो!

मानस का यह प्रसंग निर्विवाद रूप से संतकवि के निजी भोगे हुए अनुभव और नारी विषयक तत्कालीन अद्यावधि ज्ञान का निचोड़ था जो किसी और के मुंह से नहीं स्वयं श्रीराम के मुंह से संत कवि द्वारा कहलाया गया। हमारे धर्मग्रंथों, आर्षग्रंथों में नारी को ज्ञान और तपस्या का एक विरोधी कारक बताया जाता रहा है जबकि यह भी सत्य है कि अनेक संदर्भ ग्रन्थ वैदिक -उपनिषदीय काल की नारियों को परम विदुषी और वेदों के ज्ञाता भी घोषित करते हैं।

मेरा असमंजस यही है - क्या कालान्तर में कतिपय कारणों, जिनकी पहचान की जा सकती है, के चलते नारी की यथोक्त स्थिति विद्वत मानस में बनती गयी। क्या सनातनी ब्राह्मणों ने बुद्ध विहारों में नारी स्वच्छंदता से उपजे व्यभिचार और ज्ञान मार्गियों के अधोपतन से कोई सबक लिया था? मानस में नारी विमर्श के इस स्वरुप को देखकर मैं हतप्रभ हूं। लिहाजा मैंने पूर्व कांडों का भी एक सिंहावलोकन किया। दरअसल बालकाण्ड से ही नारी का ऐसा रूप स्थापित होता दीखता है।

शेष अगले भाग में...


शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

मदमत्त हो रहा सावन

मदमत्त हो रहा सावन 

खुशबू खुशबू दिन हैं 
महकी महकी रातें
अलसाई सी सुबहें
औ बहकी बहकी बातें 
सुनहली हुई  दोपहरी
रुपहली घिरती शाम 
नित बरसा की फुहारें 
होठों पे उनका नाम 
मन मयूर का  नर्तन 
दहगल का शुभ गान 
मदमत्त हो रहा सावन 
छेड़ी अनंग ने तान 


बुधवार, 11 जुलाई 2012

बाबा भोलेनाथ का दर्शन


सावन का महीना काफी धरम करम का होता है. बनारस में काफी भीड़ जुटती है श्रद्धालुओं की. इनकी एक और कैटिगरी पिछले एक दशक से आ जुड़ी है, कांवरिये. हर गली हर सड़क इन श्रद्धालुओं से लबरेज दिखती हैं. सावन के सभी सोमवारों पर बाबा भोले के दर्शन को लक्खी भीड़ (लाख से ऊपर) आ जुटती है मानो श्रद्धा का सैलाब उमड़ा आ रहा हो. अब इतनी भीड़, शहर की गड्ढों से भरी सड़कें और पतली गलियां. तिस पर बाबा भोले का एक अलग घनी आबादी और सकरी जगहं विराजमान होना. इंतजामिया विभाग के लिए बड़ी चुनौती. कैसे करे श्रद्धा के उमड़ते सैलाब को व्यवस्थित. लिहाजा बाबा भोले जो खुद विश्वनाथ हैं उनके इर्द गिर्द चप्पे चप्पे पर पुलिस और हर गली कूचे में एक मैजिस्ट्रेट की व्यवस्था ताकि खुदा न खास्ता कुछ अनहोनी हो तो उसकी पतली गर्दन नाप दी जाए :-). हम भी लगभग ऐसी ही एक जिम्मेदारी और घोर श्रम के काम में लगते हैं. एक रात के 11 बजे से शुरू हुई ड्यूटी दूसरे दिन शाम तक की हो जाती है क्योंकि श्रद्धा का सैलाब अर्धरात्रि से ही ऐसा शुरू होता है कि लगातार अहर्निश दूसरे दिन के शाम तक चलता रहता है. बिना रुके बिना थमे. किसी को भी बिना चार घंटे लाइन में लगे बाबा भोले का दर्शन मिलना शायद ही मयस्सर हो.
भला आप भी दर्शन से क्यों वंचित रहें 


ये दर्शनार्थी इतना कष्ट उठाते हैं कि मत पूछिए. कलेजा दहलता है और मुंह को आता है. और सिर श्रद्धा के इस रूप को देखकर स्वतः झुक जाता है. खुद की मुश्किल भरी ड्यूटी का कष्ट जाता रहता है. खुले में वर्षा में भीगते हुए, घंटों खड़े हुए, सूजे  हुए और झलकों से अटे पैरों के बावजूद भी चेहरों पर आशा और उत्फुल्लता की चमक...बोल बम के नारे...महादेव महादेव की रटन...एक अद्भुत दृश्य. जमीन पर दंडवत करता आता हुआ एक श्रद्धालु दूर से दिखा. पता लगा किसी दूसरे जिले से एक महीने पहले जमीन पर दंडवत करता ही चला आ रहा है. अब बाबा के दरवाजे आ पहुंचा है. कतार में नहीं है वह. मगर इस हठयोगी और बाबा के भक्त के लिए कतार की जरूरत ही कहां. मुझे कहने की जरूरत भी नहीं पड़ती. मुख्य वीवीआईपी द्वार का अवरोध उठा दिया जाता है. मंत्रमुग्ध द्वार प्रहरियों द्वारा. वह निर्विकार भीतर प्रवेश कर जाता है. अब वह बाबा का ख़ास भक्त है. उसे किसकी परमिशन लेनी है! मानो बाबा की प्रेरणा से दरवाजा खुल गया है. यह है श्रद्धा की विवेक और तर्क पर जीत. मैं भी किंकर्तव्यविमूढ़ देखता रहा यह लीला.





घंटों से कतार में लगे हैं दर्शनार्थी 



इन दृश्यों को देखकर सारे तर्क और बुद्धि की चंचलता जड़वत हो जाती है. भले ही चप्पे चप्पे पर पुलिस और सुरक्षा का भारी तामझाम है मगर सच पूछिए तो श्रद्धालुओं की यह भीड़ स्वयं बड़ी अनुशासित दीखती है. उसे बस बाबा भोलेनाथ का दर्शन चाहिए और किसी बात से उन्हें कोई मतलब नहीं है. वे एकाग्र होकर बस उसी पल की प्रतीक्षा में अपना नंबर लगाये रहते हैं. कतार में उन्हें घंटे दो घंटे चौबीस घंटे बीत जाएं कोई फरक नहीं है. मगर इतनी बड़ी भीड़ को नियमित करना सचमुच एक बड़ी समस्या है. प्रशासन के लिए नाकों चने चबाने का मौका है यह. पंजों पर खड़े रहने का वक्त. हम सब कुर्सी तोड़ मुलाजिम इतनी कठिन ड्यूटी के अभ्यस्त नहीं हैं तो दूसरे दिन तक पांव दुखते हैं. शरीर पोर पोर दुखता है और तापे पुरवईया भी पीर बढ़ाती चलती है. अब अगले सोमवार तक यह पीर बनी रहेगी जब तक दूसरी न घेर ले. यह सिलसिला इस महीने तक चलेगा. मगर यह कष्ट तो श्रद्धालुओं के कष्ट के सामने कुछ भी नहीं है..


 नन्हा कांवरिया बड़ा सा डमरू -बोले डम डम 



अब अगले सोमवार का इंतज़ार है...

रविवार, 8 जुलाई 2012

गैंग्स आफ वासेपुर देखने जाना हो या न जाना हो, यह पढ़ जरुर लीजिये!

हिन्दी फिल्मों में एक  ट्रेंड तेजी से अब स्थायी रूप लेता जा रहा है -वह है गालियों का खुल्लमखुला प्रयोग ,तेरी माँ की..... ,बहन**,मादर**.भो*****,गाँ*, ला*, झा*...  सारी पूर्वी गालियाँ अब बालीवुड के जरिये जगजाहिर हो रही हैं! मगर जब अनावश्यक रूप से इन भदेस गालियों का बात बात पर बिना बात  के भी इस्तेमाल होगा तो वे वैसी     सम्प्रेषणीयता या  हास्य मूलकता खो देगीं जैसा कि पीपली लाईव की कुल जमा एक दो गालियों की थी.या नो वन किल्ड जेसिका की माहिला पात्रों से दिलवाई बेलौस गालियाँ . . तबसे तो मानो फिल्मों में गालियों का एक धडल्ला प्रचलन ही चल चुका है. गैंग्स आफ वासेपुर अपनी मौके बेमौके की गालियों के चलते सन्नाम हो रही है..यह सही है कि कभी कभार तो रियल ज़िंदगी के पात्र भी गालियाँ बूकते हैं मगर इतना नहीं जितना निर्देशक अनुराग कश्यप इस फिल्म में हर रहीम शहीम पात्र से बोलवाते चलते हैं..इस फिल्म में गालियाँ मानो  पात्रों की संवाद अदायगी की टेक सी बन गयी हों -हाँ कहीं कहीं पर वे सहज भी लगी है और वहां दर्शकों के ठहाके भी गूजे हैं! 


हाल में घुसते ही देखा कि दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ है . बाक्स आफिस पर फिल्म अपना सिक्का जमा चुकी है .तो क्या यह भीड़ केवल गालियाँ सुनने वालों की है?नहीं यह भीड़ अपने ही बीच के  एक अंधेरी हकीकत को परदे पर भी देखने को आतुर है .जहाँ रोशनी नहीं है केवल रात ही रात है -जरायम है,सेक्स है ,खून खराबा है ,जुगुप्सा है, दहशत है और मजे की बात कि ज़िंदकी की धड़कने तब भी वहां बदस्तूर कायम है . दृश्यों का फिल्मांकन जबर्दस्त हुआ है -फिल्म के अनुसार वासेपुर झारखंड का एक वास्तविक गाँव है जहाँ दो गुटों का प्रतिशोध ,खून खराबा -गैंगवार पुश्तनी है .ताज्जुब है यह गैंगवार दो मुस्लिम गुटों के बीच है -अरे सिया सुन्नी नहीं बल्कि कुरेशी (कसाई) और खान समुदायों के बीच में मचा घमासान  जिसमें राजनीति  भी घुसपैठिया  है. अब कसाईयों की बस्ती है तो जगह जगह कटे जानवरों के भयानक दृश्य वितृष्णा /जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं जो बहुत लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं . 
कहानी एक लबे कालक्रम के फलक पर चलती है जिसमें गुलाम भारत से लेकर स्वतंत्र भारत और आज तक कहानी की निरंतरता बनाए रखने के लिए  निदेशक को काफी मशक्कत करनी पडी है -धनबाद कोयला खदान -माफिया फिर ट्रेंड यूनियनों की दादागीरी ,अंग्रेजों के बाद खदानों पर स्थानीय दबंगों का कब्ज़ा, फिर इस्पात -स्क्रैप का धंधा और काफी बाद में माफिया गैंगों द्वारा मछली -व्यवसाय के हथियाने के दंद फंद फिल्म की थीम है .इन्ही में कितनी हत्याएं हुयी हैं ,ताबड़तोड़ गोलियां और बम चले हैं -लाशों पर लाशें बिछती गयीं है -एक चालबाज नेता कसाईयों को अपने प्रतिशोध के लिए इस्तेमाल करता चलता है . और अंत में उनका भी खात्मा करवाता है . दरअसल इसी दृश्य से फिल्म की स्तब्धकारी शुरुआत होती है और सारी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है .नैरेशन और डाक्यूमेंट्री शैली के सहारे. बीच बीच में पूर्वांचल के देशी गीत गवनई की भी रह रह कर छौंक है . कहीं कहीं इससे संवाद आदायगी को सुनाने में भी खलल पड़ती है .

फिल्म के पात्रों के चरित्र चित्रण पर काफी मेहनत की गयी है  . मुख्य पात्र सरदार की भूमिका में मनोज वाजपेयी एक वहशी ,कुछ  मनोरोगी   ,नारी देह के दीवाने और क्रूर निर्मम  हत्यारे के मिश्रित चरित्र के निर्वाह में जी जान से लगे दिखते हैं .फिल्म के नारी पात्र अनुराग कश्यप की फंतासी की 'ख़ास च्वाईस' लगती हैं ....अपने पति की नारी देह की भूख की चारित्रिक वृत्ति को स्वीकार करती हुयी सरदार की पत्नी उसे मछली का एक अतिरिक्त मुंडा खाने को देती हुयी यह फिकरा /ताना भी कसती है कि 'ठीक से खाया करो .... उसके सामने कहीं  बेईज्जती मत करवा बैठना" जबकि सरदार की फिलासफी यह है कि पुरुष जितनी नारियों को उपकृत करता है कम से कम उतने परिवार का भरण पोषण तो होता रहता है . एक बंगालन बेसहारा हिन्दू लडकी के पीछे पड़कर सरदार का  कामुक हाव भाव प्रदर्शन अभिनेता में ऐसे पात्र मानो प्रविष्ट कर देता है -अभिनेता और पात्र का चरित्र  यकसां  हो जाते हैं -लाजवाब अभिनय! .उधर अभिनेत्री भी कुछ कम नहीं है -लगता है दोनों पात्र एक दूसरे को फंसाते है -एक को सहारा चाहिए और एक को काम पिपासा का अहर्निश शमन ....इस नयी नारी पात्र के चलते सरदार कुछ समय के लिए अपना परिवार भी छोड़ देता है . सरदार के बाद उसके दोनों बेटे भी लड़की पटाने और उनको व्याहने का हुनर बदस्तूर जारी रखते हैं . नारी पात्रों के चयन और उनके प्रति पुरुष फंतासियों को सेल्यूलायड पर उतारना तो कोई अनुराग से सीखे .
मैं पशोपेश में हूँ -फिल्म के लिए रिकमेंड करूँ या न करूँ -फिल्म की सिलसिलेवार कहानी मैं इसलिए  बताता नहीं कि आप का मजा किरकिरा न हो और आप अपना खुद का निर्णय ले सकें ....मगर हाँ अगर आप को हिंसा ,गाली गलौज और खुद अपनी ही धरती-देश काल में  पर  गन्दगी,फूहड़ता पसंद नहीं तो मत जाईये देखने .....और हाँ यह भी न पूछिए कितना स्टार मेरी ओर से इस फिल्म को मिल सकता है  .....मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ .....हाँ तीन के ऊपर तो किसी कीमत पर नहीं.. अभी यह फिल्म का पहला पार्ट है -पार्ट टू अगस्त में आने वाली हैं जिसकी कुछ झलकियाँ बतौर प्रोमो इस फिल्म के आखीर में है ...और उसे देखने के लोभ में दर्शकों को हाल से निकलते निकलते सहसा खड़े होकर काफी देर तक प्रोमो -दृश्यों को देखना दर्शकों को नागवार लगता है. 

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

अब सावन से आस है!


कविता की अपनी एक कशमकश भरी सृजन प्रक्रिया है ..किसी प्रसव वेदना से कम नहीं ..

जब तक वह भीतर हो एक बेचैनी सी बनी रहती है ...मगर बाहर आते ही एक गहन संतोष भाव उमड़ता है -यह कविता जो परसों  अंकुरित हुई,फेसबुक पर अवतरित हो  अब आपके सामने है ....ब्लॉग जगत में इतनी अच्छी अच्छी कवितायें लिखी जा रही हैं .फिर ऐसी अनगढ़ कविता पोस्ट करना? आखिर बेशर्मी भी कोई चीज है! कविता पारखी जनों से क्षमा याचना सहित! 

अब सावन से आस है! 

आषाढ़ रीत गया 
सावन से आस है ...
जीवन घट सूना सा 
न मीत कोई पास है 
न छाई है बदरी, 
बेगानी उजास है
घटा कोई घिर आये
एक यही आस है! 
अकेला यह सफ़र 
औ' विछोह के दंश हैं 
मृगतृष्णायें राह की 
प्यास हुई अनंत है 
कोई तो योग हो 
मन का संयोग हो 
मजिल मिले ना  मिले 
बस मनचाहा साथ हो 
टूटती है आस अब 
घुटती है साँस अब 
 मिलना हो  उनका 
  तो आख़िरी पड़ाव हो

बुधवार, 4 जुलाई 2012

गुरु ,गुरुघंटाल और ब्लागजगत के अफ़साने


अभी कल ही की तो बात है .गुरु पूर्णिमा पर अपनी पोस्ट का लिंक जैसे ही मैंने फेसबुक पर डाला वे अवतरित हो गए ...भावुकता भरे शब्दों में अपना उदगार व्यक्त कर गए -मेरे तो गुरु आप ही हैं .मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई की ही तर्ज़ पर . वे अक्सर हमें यह अहसास दिलाते रहते हैं कि वे मेरे शिष्य है और यह हर बार मेरे लिए एक असमंजस भरी अनुभूति होती है ...कारण, मैं बराबर की मित्रता में बिलीव करता हूँ -उम्र का कोई झाम  आड़े हाथ नहीं आने देता ....और फिर खुद को गुरु मानने की मूर्खताभरी  अहमन्यता से भी दूर रहना चाहता हूँ ...वैसे भी आजकल काहो गुरु! का संबोधन व्यंगात्मक ज्यादा है .पता नहीं उनमें सचमुच का शिष्यत्व है या नहीं या फिर वे भी काहो गुरु वाली ही स्टाईल में यह उपाधि मेरी और उछालते हों -मैं भी सावधान रहता हूँ -और उनके ऐसे संबोधन को मजाकिया लहजे में ही लेता हूँ .....
एक बार मैंने थोडा गंभीर मगर पवित्र भाव से पूछ ही लिया कि अगर मैं गुरु हूँ तो वे फिर वे कौन हैं जिनकी चर्चा अक्सर उनके होठों पर रहती हैं तो वे तपाक से बोल उठे -"अरे वे तो गुरु घंटाल हैं .अब  गुरु घंटालों की चेल्हआई से राम बचाएं ....मेरे लिए तो गुरुवार आप ही ठीक हैं ."मगर मेरा मन हमेशा असमंजस में ही रहता है कि ये शिष्य कब कौन सी खुराफात न कर बैठे -चलो बच्चू ज्यादा खुरचाली कभी की तो गुरु द्रोणाचार्य की याद करके अंगूठा मांग लूँगा गुरु दक्षिणा में और उसी दिन असली नकली शिष्यत्व का फैसला भी हो जाएगा .. :-) मुला मेरे एकाध शुभाकांक्षी जो रह गए हैं ताकीद करते हैं कि भैया आधुनिक शिष्यों से सावधान रहा करियो नहीं तो वे गुरुओं का ही अंगूठा काट लेते हैं -मैं तुरत ग़मगीन होकर उन्हें बता दिखा देता हूँ कि अब कोई स्कोप नहीं है ...दोनों अंगूठे तो पहले से ही लिए जा चुके हैं अब तो और की गुंजायश ही नहीं है -गनीमत है डैशबोर्ड पर अंगूठों का इस्तेमाल नहीं होता -नहीं तो कलमों पर अभिव्यक्ति टिकी होती तो मैं तो गया था काम से ....आधुनिक तकनीकीविद कैसे युग द्रष्टा हैं उन्हें आभास है कि गुरुओं के अंगूठे गायब हो रहेगें ....शिष्यों का ऐसा ही कुछ जलवा है आज के युग में ....मेरे मित्र फिर कहते हैं कि वे दंडवत होकर आपके पैर का अंगूठा भी काट सकते हैं ....मैं दहल तो जाता हूँ मगर फिर कह पड़ता हूँ चलो कोई बात नहीं परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर ..मगर अपने डर की आशंका को हंसी में उड़ाते हुए यह भी जोड़ देता हूँ चलो ससुरे जो भी अंग वे चाहें काट ले जाएँ बस न ....अब इस उम्र में कई अंग वैसे ही अवशेषी अंग की उपाधि ग्रहण करने वाले हैं ......
बहरहाल मैंने अपने शिष्य से बातचीत आगे बढ़ायी-और भाई क्या हाल हैं गुरु घंटाल के? बोले हाल कुछ ठीक है चाल तो कभी सुधरेगी नहीं और वैसे भी बिचारे इन दिनों बड़ी मुसीबत में हैं .काहें? एक अद्भुत सुखानुभूति के साथ मैंने पूछ ही तो लिया .."अरे हालत पस्त और तबीयत खस्ता है इन दिनों उनकी ...." मैंने सलाह दी,.. तो फिर ज्ञानदत्त जी गंगा किनारे वाले ब्लॉगर से कुछ पिस्ता विस्ता क्यों नहीं दिलवा देते उन्हें ...अभी फेसबुक पर वे डिक्लेयर किये थे कि उनके पास मेवे का जखीरा है और गुरु पूर्णिमा के दिन उन्होंने खूब  मेवे डालकर खीर बनवाई है ..मगर इस हास्य बोध को न पकड़ कर मेरे शिष्य का मुंह अब भी गुरुघंटाल की हालत बयान करते हुए लटका हुआ था ..
मैंने अपनी आवाज में जानबूझ कर थोडा रहस्य का पुट देकर पूछा और कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं है ...."वो तो मुझे पता नहीं मगर इन दिनों वे खोयी हुए शान शौकत को फिर से जमाने में लगे हैं" ...भला कैसे? मैंने पूछा और यह भी जोड़ा कि भाई वे तो बड़े आशावादी ब्लॉगर हैं."हाँ आशा तो उनकी बलवती है ही   -उसी तरह जैसे पांडवों और कौरवों के युद्ध में जब सारथी  शल्य को अंत में दुर्योधन ने अपना सेनापति बनाया  तो संजय धृतराष्ट्र से कह उठे कि राजन देखिये दुर्योधन कितना आशावादी है जो शल्य को पांडवों पर विजय के लिए भेज रहा है . यही हाल बिचारे गुरु घंटाल का है जिन्होंने एक नया चिटठा चर्चाकार चुना है जो चिट्ठाचर्चा का बेड़ा पर करेगा ...और उस नए चिट्ठा चर्चाकार ने अपनी गोल  जुटा कर सर संधान भी कर लिया है ....ओह चिट्ठाचर्चा को भला यह दिन भी देखना था ...? मेरा मन क्षुब्ध हो गया .....शिष्य ने मुझे चिंतन से उबारा -आप काहें चिंतित होते हैं ....जो हो सो हो आपसे क्या लेना देना ....मेरा मुंहबोला  शिष्य अब पूरे शिष्यत्व भाव से मेरे सहज होने के प्रयास में जुट गया था ..ब्लॉग जगत के कई दूसरे अफसानों  का जिक्र शुरू हो चला  था ......

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

गुरु वंदना ऐसी भी!(मानस प्रसंग-5)


आज गुरु पूर्णिमा है। गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक सुअवसर। मानस अवगाहन के वक्त मुझे संत कवि तुलसी द्वारा की गयी गुरु वंदना बहुत प्रभावित करती है। आइये आज आप भी मेरे साथ इस अनुपम भाव बोध से जुड़िये।

बंदऊं गुरु पद पदुम परागा सुरुचि सुवास सरस अनुरागा
अमिय मूरिमय चूरन चारू शमन सकल भव रुज परिवारू

तुलसी मानस की चौपाइयों की शुरुआत ही गुरु की वंदना से करते हैं। गुरु के प्रति उनके असीम समर्पण भाव को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है - वे गुरु के कमलवत चरणों में नत हैं और उनसे निकलने वाले पराग की सुगंध सहज ही मन में अनुराग उत्पन्न करती है - मतलब यहां चरण धूलि की तुलना सुवासित पराग से की गयी है और इसी पग धूलि को ही तमाम रोगों के निवारण के लिए अमृत-चूर्ण कहा गया है। गुरु के प्रति तुलसी का यह समर्पण सम्मान भाव इस महाकवि के प्रति श्रद्धा से भर देता है!

वह आगे कहते हैं –


सुकृति शम्भु तन विमल विभूति मंजुल मंगल मोद प्रसूति
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी किये तिलक गुण गन बस करनी

अर्थात् वही गुरु पद रज शिव जी के शरीर पर लिपटी विभूति के समान है जो सुन्दर, कल्याणकारी और आनन्द देने वाली है और अपने भक्त के मन रूपी दर्पण पर आयी मलिनता को दूर करती है तथा इससे तिलक कर लेने पर वह गुणों के समूह को वश में करने वाली है। तुलसी गुरु चरण वंदना में भाव विभोर होकर कहते हैं कि उनके चरण नख मणियों के वे प्रकाश पुंज हैं जिनका स्मरण मात्र ही ह्रदय में ज्ञान का प्रकाश ला देता है। मन के मोह जनित अंधकार को दूर करने वाल है। मगर यह ज्ञान की ज्योति गुरु की कृपा से ही भाग्यशालियों को प्राप्य है।

श्रीगुर पद नख मनिगन ज्योती सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती
दलन मोह तम सो सप्रकासू बड़े भाग उर आवई जासू

वह आगे कहते हैं -

उघरहिं विमल बिलोचन ही के मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के

अर्थात मणि सरीखे गुरु पद नखों की ज्योति के हृदय को आलोकित करते ही ज्ञान के चक्षु खुल जाते हैं और मोहमाया और संसारिकता रूपी रात्रि के कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। गुरु के प्रति अपने इसी श्रद्धा-समर्पण और उनकी अक्षुण कृपा के आह्वान के साथ ही तुलसी राम चरित मानस का प्रारम्भ करते हैं -

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन नयन अमिय दृग दोष विभंजन
तेहिं कर बिमल बिबेक बिलोचन बरनऊँ राम चरित भव मोचन

अर्थात गुरु के पद रज के अंजन से नेत्रों के सभी विकारों को दूर करते हुए अपने निर्मल हुए विवेक रूपी नेत्रों से राम चरित का अवलोकन करके संसार रूपी बंधन से मुक्ति देने वाली रामकथा का वर्णन करता हूं।

आज गुरु पूर्णिमा के अवसर पर संत कवि की गुरु के प्रति असीम समर्पण के प्रसंग का उल्लेख मुझे समीचीन लगा सो आपसे साझा किया...आप सभी को गुरु पूर्णिमा की बहुत शुभकामनाएं!

रविवार, 1 जुलाई 2012

जौं न होत जग जनम भरत को....(मानस प्रसंग 4)


रामचरित मानस एक आदर्श परिवार, समाज और व्यवस्था की रूप रेखा सामने रखता है -जिसे 'रामराज्य' का संबोधन दिया जाता है। यद्यपि यह रामराज्य कई विवेचकों के लिए यूटोपिया का पर्याय बना है। मध्ययुगीन संत कवि तुलसी का प्रादुर्भाव तब होता है जब घोर तार्किकता और निःसंगता की तूती बोल रही थी और कबीर का उद्धत घोष - कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुआठीहाथ जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ लोगों को घर बार से बाहर निकालने का आह्वान दे रहा था - तुलसी ऐसे में टूटते परिवार और खंडित आस्था के मंडन को अवतरित होते हैं। आज मानस में एक भाई के रूप में भरत के चरित्र चित्रण के कुछ अंश आपके सामने रखना चाहता हूं। 

राम के वन गमन और पिता के मृत्यु से भरत बिखर से गए हैं - राज्याभिषेक को दुत्कार देते हैं और चल पड़ते हैं राम को मनाने। वह आगे, सारी प्रजा पीछे पीछे...लोग बाग अनुरोध करते हैं -पैदल नहीं रथ पर चलिए आप। तो वे जवाब देते हैं - 

सिर भर जाऊं उचित अस मोरा

सबतें सेवक धरमु कठोरा
वह कहते हैं कि इसी मार्ग से राम पैदल गए हैं तो मेरे लिए तो उचित यह है कि मैं सिर के बल जाऊं क्योंकि सेवक का धर्म बड़ा कठोर होता है। यहां भरत खुद को राम का भाई नहीं सेवक मानते हैं। यह है विनयशीलता, विनम्रता का उदाहरण और सेवक के आचरण की एक सीख। पावों में छाले/झलके पड़ जाते हैं मगर वह आगे बढ़ते जाते हैं। प्रयाग के संगम (त्रिवेणी ) तक आ पहुंचते हैं। थकी प्रजा, परिवार, माताओं के विश्राम के लिए पड़ाव डलवा देते हैं। यहां सभी श्रम-थकान को दूर करने और पुण्यलाभ के लिए त्रिवेणी स्नान करते हैं। भरत का विक्षोभित मन युमना और गंगा की लहरों को देख कुछ शांत होता है। और फिर प्रयाग के पुण्य प्रताप-सकल कामप्रद तीरथराऊ, बेदबिदित जग प्रगट प्रभाऊ से मन में सहसा एक विचार आता है कि अपनी मनोकामना प्रयाग के इस प्रसिद्ध त्रिवेणी तीर्थ पर क्यों न प्रगट कर दूं। वह विनयावनत हो उठते हैं। तीर्थराज त्रिवेणी के सामने कह पड़ते हैं - 
मांगऊं भीख त्यागि निज धरमू 
आरत काह न करई कुकर्मू 
हे तीर्थराज मैं अपना क्षत्रिय धर्म त्याग कर आपसे भीख मांगता हूं - आखिर दुखी-आर्त व्यक्ति कौन सा कुकर्म नहीं करता (यहां बुभिक्षितम किम न करोति पापं का कितना प्रांजल भाव आया है ) ...और मांग है -
अर्थ न धरम न काम रूचि गति न चहऊं निरबान 
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन
मुझे किसी भी पुरुषार्थ –धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बिल्कुल भी चाह नहीं है। बस जन्म-जन्म में मेरा राम जी के चरणों में प्रेम हो यही वरदान, दूसरा कुछ नहीं, मांगता हूं।
भारद्वाज ऋषि से भी यहीं मुलाकात होती है। उन्हें पहले से ही सब कुछ पता रहता है। वह देखते हैं भरत ही नहीं उनकी पूरी प्रजा बहुत क्लांत, दुखी है। अपने तपोबल से वे सब वैभव सृजित कर देते हैं –
रितु बसंत बह त्रिविध बयारी सब कहं सुलभ पदारथ चारी
स्रक चन्दन बनितादिक भोगा देखि हरष बिसमय सब लोगा 
मानो बसंत ऋतु ही आ गयी हो। शीतल मंद सुगंध वाली हवा बहने लगी। यही नहीं भोग के सब पदार्थ सुलभ हो गए...उर्वशियां, माला (वेणी की माला ) चन्दन आदि भोगों को देख लोग विस्मित भी हैं तो उदास भी - वे उदास राम के वियोग के कारण हैं। प्रजा की छोड़िये मगर अपना चरित्र नायक इन सबसे तटस्थ ही रहता है –
सम्पति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेलवार 
तेहि निसि आश्रम पिजरां राखे भा भिनुसार 
काव्य-मान्यता है कि चकवा चकई रात में विरक्त हो रहते हैं। यहां तक कि बहेलिये द्वारा एक ही पिजरे में बंद करने के बाद भी दोनों में संयोग नहीं होता। उसी तरह भारद्वाज मुनि के सारे सुख सुविधा के ताम-झाम के बाद भी भरत का मन उन सब भोगों से विरत ही रहा और सुबह हो गई। राम के बजाय उनका मन कहां रमने वाला था?
संतकवि सच ही कहते हैं - 
जौं न होत जग जनम भरत को
सकल धरम धुर धरनि धरत को ...
अगर भरत का जन्म न होता तो आखिर धरती पर धर्म के चक्र का धारण कौन करता ?
भरत का चरित्र हर परिवार समाज के लिए एक उदाहरण है। जय श्रीराम!

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