बुधवार, 31 अगस्त 2011

मैकडानेल माल में मियाँ मुहम्मद आजम से मुलाक़ात

आज ईद के त्यौहार का खुशनुमा माहौल चारो  ओर था ..खुशियाँ उमड़ी पड़ रही थीं ..बहुत अच्छा लग रहा था..बेटी ने भी इस खुशी को अपने तरीके से सेलिब्रेट करने के लिए मुझसे  निकट के माल में चलने की खुशामद की ....वहां भी भीड़ उमड़ी पड़ रही थी ..चारो ओर उमंग और खुशियों से लबरेज दृश्य ..सचमुच ईद एक ऐसा ही त्यौहार है ....बेटी ने मैकडानेल से कुछ खाने का आर्डर दिया ..वही सब जंकी स्टफ ..बच्चों का टेस्ट भी कैसा है -मगर वे कहाँ मानते हैं ....लिहाजा बर्गर ,कोल्ड ड्रिंक्स मैक पिजा वगैरह ...मैं भी बेटी का मन रखने को साथ दे रहा था -रेस्तरां में बहुत भीड़ थी ...ईद के रंग  मैकडानेल के संग! ओर तभी मैंने महसूस किया कि मेरे पीछे की कुर्सी पर बैठा एक ५-६ साल का बच्चा बड़ी चाहत से बिटिया के कोल्ड ड्रिंक को निहार रहा है ....जब हम कुर्सी पर बैठ रहे थे तो लगा कि वह एक समूह के साथ है ..मैंने फिर चेक किया ..सचमुच उसकी आँखे ललचाई सी थीं ...मतलब साफ़ था ..वह अकेला था ओर उसके पास पैसे भी नहीं थे शायद! मैंने उससे पूछा बेटे तुम्हारा नाम क्या है? मुहम्मद आजम ..उस भोली सूरत के होठ बुदबुदाए .....क्यों तुम्हारे साथ कोई आया नहीं क्या? नहीं ..बड़ी मायूसी थी उसके जवाब में ....मैंने पूछा कुछ खाओगे ..उसने हसरत से जवाब दिया -हाँ ....और कोल्ड ड्रिंक की भी फ़रियाद कर दी ....मैंने उसकी इस छोटी सी साध को तुरंत आज्ञाकारी जिन की तरह पूरा कर दिया ...ईद की मुबारकबाद दी और हम वहां से चले आये ..

.नन्हे मियाँ मुहम्मद आजम 
अब लौटने पर जो टिप्पणियाँ मिलीं वे बड़ी मिली जुली सी थीं ...नहीं करना चाहिए था यह ..कुछ लोगों ने पेशा बना लिया है ..बच्चों से भीख मंगवाते हैं ..हो न हो वह पाकेटमार रहा हो ..हद है ईद का दिन ..एक नन्हे मियाँ ..हम उन्हें एक सबसे न्यारे और प्यारे त्यौहार पर छोटी सी गिफ्ट न दे सके तो लानत है हमारी मानवीय संवेदना पर ..मैं तो आज उसके  चेहरे के संतोष को देखकर अपनी ईद मानो मना ली ...नन्हे मियाँ पूरी तरह नए परिधान और खूबसूरत जूते में नमूदार थे वहां ..मुहल्ले की भीड़ के साथ मैकडानेल में आ गए थे..मगर खलीता तो खाली था सो मायूस से बैठे थे ..बहरहाल अल्लाह मियाँ ने इन नन्हे मियाँ की सुन ली .....

मैं यह पोस्ट इसलिए लिख रहा हूँ कि हम कर सके तो ऐसा करना चाहिए और नेकी कर दरिया में डाल के भाव से करना चाहिए -यह कोई आत्म प्रचार नहीं है -यह आप सबसे अपेक्षा है ....ऐसा पुण्य आपको मंदिर मस्जिद में जाने से भी नहीं मिलेगा ..कभी मौका मिले तो चूकिएगा नहीं -और नसीब वालों को{ :) } ऐसे मौके मिलते ही रहते हैं ....

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

मन की उम्र

मेरे मित्र ,सहपाठी ,पारिवारिक चिकित्सक और जार्जियन डॉ. राम आशीष वर्मा जी अक्सर समवयियों(पीयर ग्रुप )  को चेताते रहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ काया तो जरावस्था को प्राप्त होती रहती है मगर मन उसी तरह स्फूर्त और युवा बना रहता है-मतलब शरीर मन का साथ छोड़ने लगता है.आशय यह हुआ कि मन और देह का चोली दामन का साथ नहीं है . और इस लिए बहुत सावधान रहना चाहिए और मन की हर बात को मानने के पहले अपनी दैहिक समीक्षा अवश्य कर लेनी चाहिए और एक विज्ञ सुचिंतित निर्णय लेना चाहिए नहीं तो अपने  स्वास्थ्य को आप खतरे में डाल  देगें और चिकित्सकों की चांदी में और इजाफा ही होगा -मुझे नहीं मालूम कि हमारे ब्लॉगर चिकित्सक, डॉ.वर्मा की इस बात से इत्तेफाक रखेगें या नहीं मगर मेरा पूरा इत्तेफाक है -क्योकि मैं डॉ.वर्मा पर एक चिकित्सक और मित्र के नाते भी पूरा विश्वास रखता हूँ . उनकी डायग्नोसिस सटीक होती है -और मैं इस उधेड़बुन में हूँ कि इधर वे कई बार यह बात मुझसे क्यों कह गए हैं? क्या मुझे भी उनकी सलाह पर गंभीरता से सोचना चाहिए या फिर इस बात को बस ऐसे ही कही जाने  वाली कतिपय बातों (प्लैटीचूड)   की तरह टाल दिया जाना चाहिए ..मगर मैं समझता हूँ कि उनकी बात में दम है!और इसलिए मैंने उनकी इस सलाह पर गंभीर चिंतन मनन किया है ..कुछ प्रेक्षण ब्लॉग जगत में भी किया है और खुद अपना भोगा हुआ यथार्थ तो है ही ... :) 

आखिर ऐसा क्यों है कि शरीर का साथ मन नहीं देता? बचपन में मन तो बच्चा रहता है किशोर और युवा भी होता चलता  है.. मतलब उम्र के सामयिक बढाव (क्रोनोलोजी) के साथ एक समय तक तो मन की  और देह की उम्र का सायुज्य -समन्वय बना रहता है मगर जैसे ही शरीर जरावस्था की ओर    अग्रसर होता है वह मानों जिद्दी बच्चे की तरह देह से किनारा करने लगता  है ....तुम जाओ भाड़ में अभी तो मैं जवान हूँ ..... एक अजीब सी कान्फ्लिक्ट शुरू हो जाती है ...शरीर बुढ़ाता जाता है मगर मन उसी तरह चंचल बना रहता है .....गीता में कृष्ण ने भी अर्जुन के माध्यम से जन जन को इसलिए ही आगाह किया -हे अर्जुन यह मन बड़ा चंचल है मगर हाँ , निरंतर स्व -अनुशासन   से इस पर नियंत्रण रखा जा सकता है ..मगर यह नियंत्रण वाली थियरी मानवता पर पूरी तरह लागू नहीं हो पाई -कितनी ही शकुन्तलाओं और मत्स्यगंधाओं के जन्म इस बात के प्रमाण हैं ....मतलब आज तक न तो अध्यात्म और न ही विज्ञान या तकनीक के पास इस दुर्निवार समस्या का कोई स्थाई हल मिल सका है ....हाँ आत्म अनुशासन कुछ सीमा तक कारगर है मगर यह  परिवेश ,स्फुलिंग ,अंतरावस्था ,मनः स्थति आदि अन्यान्य बातों पर निर्भर है ....

पुराण कथा है है की राजा ययाति ने अपने एक पुत्र से युवावस्था की भीख तक मांग ली ...पितृभक्त पुत्र ने अपने मन का अर्पण कर दिया ..क्या आधुनिक चिकित्सा कोई ऐसा माजूम -मन्त्र मनुष्य को कभी सौंप सकेगी? एक कथा आती है अर्जुन की जब वे एक हिजड़े (बृहन्नला) के रूप से उन्मोचित हुए तो सचमुच बड़ी क्लैव्यता का अनुभव कर रहे थे तब दैव-चिकित्सकों ने उनको पुनः  उर्जित किया -वे मन से फिर युवा हो गए -क्या इस चिरयौवन की कुंजी मनुष्य को कभी मिल पायेगी? यह पोस्ट लिखते समय मेरे मन में बार बार यह एक असहज सी बात आ रही है कि देह और मन की यह बेमेलता पुरुषों के साथ ही क्यों ज्यादा है -वे ही इस अभिशाप से क्यों ज्यादा त्रस्त हैं?(ब्लॉग जगत के निरंतर प्रेक्षण ने इस अध्ययन में मेरी काफी मदद  की है -शुक्रिया ब्लॉग जगत! ) ..आखिर प्रकृति की क्या गुप्त अभिलाषा है?वह चाहती क्या है? एक जैविकी के अध्येता के रूप में मेरी कुछ संकल्पनाएँ हैं  -

मनुष्य अपनी अंतिम सांस तक प्रजनन -उर्वर रहता है जबकि नारी यह क्षमता जल्दी ही ,सामान्यतः ५० वर्ष के बाद ही त्याग देती है ....अब शरीर भले ही जरावस्था में है मगर कुदरत की खुराफात तो देखिये उसने नर की प्रजनन क्षमता -शुक्राणुओं को सक्रिय बनाए रखा है ...और यह बिना उद्येश्य के नहीं -यह प्रकृति चाहती है कि पुरुष मरते दम तक प्रजनन में योगदान देता रहे ....और यह तब तक क्रियात्मक नहीं होगा जब तक उसके मन को भी चंचल न रखा जाय! मगर विचारणीय यह है कि कुदरत की यह अपेक्षा पुरुष से ही क्यों है ? इन प्रश्न का उत्तर हमें जैविकी और मानव अतीत के कई अतीत -गह्वरों में ले जाएगा ....क्या संतति संवहन के लिए पुरुष(शुक्राणु )  का योगदान ज्यादा जरुरी है ? मगर बिना नारी के योगदान (अंडाणु ) के संतत्ति निर्वहन /संवहन संभव नहीं यह हम सभी जानते हैं ....क्या अतीत के किसी धुंधलके में पुरुषों की संख्या बहुत कम हो गयी थी -नारियां भोग्य थीं इसलिए  अबध्य थीं ..उनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी ...पुरुष संख्या क्रांतिक सीमा तक कम होती जा रही थी... प्रकृति के पास कालान्तरों में   इसके बिना कोई चारा नहीं रहा कि वह पुरुष को अखंड उर्वरता दे दे ? सोचिये आप भी ....

मगर ऐसा परिहास कि मन के  ओज को बनाए रखने के बावजूद  भी शरीर को  प्रकृति  बुढापे से मुक्त नहीं कर पायी और पुरुष को प्रायः  उपहास का पात्र  बनाया :( ....यह ठीक नहीं हुआ ..सरासर नाइंसाफी ...मैं तो चाहता हूँ स्त्री और पुरुष दोनों को ही चिर यौवन की सौगात मिल जाय .
.
अब वैज्ञानिकों से हम यही   आस लगाए बैठे हैं!  




शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या मृत्योपरांत इस लोक प्रथा से आप परिचित हैं?

अपने किसी स्वजन ही नहीं पास पड़ोस के  किसी की भी मृत्यु होने पर हम संतप्त हो उठते है,पीड़ा अनुभव करते हैं और एक विरक्ति सा भाव भी मन में आ जाता है -मगर यह स्थाई नहीं रहता .कहा जाता है न कि समय सारे घावों को भर देता है ...कुछ दिन शोक मना  कर मनुष्य फिर  दुनियावी कामों में लग जाता है -यक्ष ने जब युधिष्ठिर से यह पूछा था कि दुनियाँ का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या  है तब उनका जवाब भी यही  था कि  लोग मृतकों का रोज दाह संस्कार करते समय जीवन की नश्वरता का बोध करते हैं और सोचते हैं कि एक दिन उनकी भी यही गति होगी मगर फिर से दुनियादारी में डूब जाते हैं -यही सबसे ब़डा आश्चर्य है!

किसी के भी दिवंगत होने पर दुखी होना मनुष्य का मानवीय गुण है ....यह उसकी जीनिक अभिव्यक्ति है -और मनुष्य की ही मोनोपोली इस क्षेत्र में नहीं है. कई ऐसे पशु हैं जो अपने समुदाय के सदस्य के मृत होने पर दुखी ही नहीं होते कुछ अनुष्ठान सा करते दिखाई देते हैं -गैंडे अपने शिशु-शावकों के मरने पर उनका सर सूंघते हैं और गोल गोल उनके शव के इर्द गिर्द घूमते हैं ..मनुष्य में भी मृत्योपरांत यह अनुष्ठानीकरण काफी विस्तृत होता गया है ....शोक सभा /शान्ति पाठ के साथ साथ कच्चे पक्के श्राद्ध और ब्रह्म चिंतन (जिसका विकृत रूप कालान्तर में ब्राहमण/ब्रह्म भोज हो गया ) का आयोजन हमें अपनी मनुष्यता का अहसास दिलाता है ...मृत्योपरांत ऐसे आयोजनों का स्वरुप विभिन्न संस्कृतियों में भले ही अलग अलग तरीके से हो मगर ऐसा आयोजन  होता अवश्य है! 

हमारे लोक जीवन में ,कम से कम भारतीय भूगोल के जिस हिस्से को मैं आबाद कर रहा हूँ -उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल ,यहाँ  मृत्यु के उपरान्त बड़े  कठिन क्रिया कर्म का प्रावधान है ....पूरे तेरह दिन के कठोर कर्मकांडी व्रत का विधान है यहाँ! दाह संस्कार ,छोटा श्राद्ध (छोटका सुद्ध  ) ,दशगात्र (दसवां ) और फिर तेरहवीं  और उसके बाद भी पूरे एक वर्ष तक के कई निषेध - डूज एंड डोंट्स! आखिर मनुष्य एक अति विकसित सामाजिक प्राणी है तो उसके मृत्यु -कर्मकांड भी तो इलैबोरेट  होने थे न? और पंडित जजमान की भी ऐसी प्रथा कि स्वजन के चले जाने की विछोह पीड़ा को झेलता जजमान वह सब क्रिया कर्म करता है जो लोभी कर्मकांडी  करवाता जाता है ...नहीं तो जग हंसायी तय है ....ऐसे ही लोभी लालची कर्मकांडियों  की एक जमात महापात्र कहलाने लगी जो ऐसे कर्मकांडों में श्रद्धा (?) से दिए जाने वाले सामानों का एक बड़ा हिस्सा हथियाने को हर हथकंडा अपनाते हैं!इसलिए हमारे समाज में महापात्र ब्राह्मणों को हेय दृष्टि से देखा जाता है  ...श्राद्ध का अर्थ ही है जो श्रद्धा से किया जाय या दिया जाय ...मगर महापात्र तो सब कुछ छीनने पर उतारू रहते हैं! मुझे अपने एक पड़ोसी की याद है जिनके पिता जी कोई ९५ वर्ष पर दिवंगत हुए ....अब उनसे श्राद्ध के कर्मकांडी महापात्र  ने अनुष्ठान के समय इतनी उठक बैठक  कराई कि उन्होंने हाथ जोड़ दिए और महापात्र से विनती की कि उसी समय उनका भी श्राद्ध कर दिया जाय:) 

मृत्यु से जुडी एक और लोक परम्परा है और इसे भी सदियों से समाज ने एक अनुष्ठान का रूप दे दिया है .....किसी स्वजन के मृत्यु के उपरान्त बड़े विस्तृत और लम्बे समय तक स्त्रियों के रोने के प्रदर्शन का ....इसे हमारे यहाँ 'कारण कर कर के रोना' कहते हैं और यह बड़े अंचल में प्रचलित है ....स्त्रियाँ  बहुत सी संगत  असंगत  बातों को रोते हुए कहती जाती हैं -मृतक को कई उलाहने भी देती है जो मृतक के प्रति उनकी घनिष्टता के स्तर को दर्शाती हैं ....ऐसा रुदन अनुष्ठान दूसरे विछोह के अवसरों पर भी होता है ..जैसे जब कोई लडकी विवाहोपरांत पिता का घर छोड़ के पहली बार  विदाई पर ससुराल जाती है -तब भी वह जिस किसी को देखती है कई कई बातें कहकर एक ख़ास रोने की शैली अपनाती है ..कई बार तो मुझे यह बड़ा हास्य मूलक भी लगता है...अब जैसे विदाई के वक्त किसी भी अड़ोसी पड़ोसी को देखकर रोजमर्रा की दिनचर्या का कोई प्रसंग छेड़ देना ..अब कब कौन गाय को भूसा देगा या भैंस का दूध दुहने में उसकी मां या बापू का  मदद करेगा अदि आदि ....मगर ये लोक प्रथाएं है और किंचित भी किसी तरह की अपसंस्कृति नहीं ....इसलिए हमें इनके प्रति एक सहिष्णु भाव रखना पड़ता है भले ही इनको लेकर थोड़ी हंसी ठिठोली हो जाय!


 अपने प्रिय ब्लागर डॉ. अमर कुमार के अवसान पर भी ऐसी कतिपय पोस्टों को  मैं इसी विधा-परम्परा  में मानता हूँ और उनका भी सम्मान करता हूँ! काश वे मेरी इस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी दे पाते ......


बुधवार, 24 अगस्त 2011

डॉ.अमर कुमार: अंतर्ध्यान हुआ ब्लागजगत का दुलारा स्फिंक्स ...एक श्रद्धांजलि!

श्रद्धांजलि 
यह स्तब्धकारी सूचना संतोष त्रिवेदी जी ने कल शाम को दी और इसे सत्यापित किया डॉ.दराल साहब ने  ...मन बेहद उद्विग्न हो गया ....ब्लॉग जगत में अपनी जीवंत मौजूदगी का हमेशा अहसास दिलाने वाली शख्सियत हम सभी का साथ छोड़ चुकी थी ..मैं अक्सर सतीश सक्सेना जी से उनके बारे में बोलते बतियाते उन्हें ब्लॉग जगत का स्फिंक्स कहा करता था -मगर डरावने नहीं दुलारा किस्म वाला स्फिंक्स ..कारण यह भी कि उन्हें कोई ठीक से समझ नहीं पाया ,कम से मैं तो बिलकुल भी नहीं और इसलिए उन्हें एक रहस्यमय वजूद वाले व्यक्तित्व का दर्जा मैंने दिया था, स्फिंक्स कहकर -मगर एक सबका प्यारा दुलारा सा स्फिंक्स ....उनका अध्ययन का एक बड़ा विषद क्षेत्र था .....चिकित्सा तो उनका कर्म ही था मगर उससे हटकर साहित्य और जीवन के लालित्य में उनकी रूचि अपनी ओर आकर्षित करती थी ....वे ब्लॉग जगत में अपनी ख़ास स्टाईल की टिप्पणियों के कारण  विख्यात थे जिन्हें काजल कुमार ने 'बीहड़ ' कहा है -क्योकि वे बहुत प्राकृत होती थीं ....देशी शब्द मुहावरों से लबरेज .....और प्रायः इटालिक्स में भी .....   

वे कब कैंसर से पीड़ित हुए नहीं पता ....जिजीविषा ऐसी कि कभी बताया तक नहीं ..जब अस्पताल से लौटे तब ज्यादातर लोग जान  पाए उनकी असाध्य बीमारी के बारे में ..मगर विनोद प्रियता देखिये कि आते ही शरद पवार जी की फोटो चेप कर कहते  भये  कि आपरेशन के बाद मेरा थोबड़ा ऐसा हो गया है ..... उनकी टिप्पणियाँ कभी कभार तो ऐसी बहुअर्थी हो जाती थीं कि समझने में बहुतों के छक्के छूट जाते थे ... बिलकुल बाणभट्ट की  कादम्बरी की भांति ....इसलिए ही सतीश जी से  बातचीत में उन्हें स्फिंक्स कहकर मैं किनारा कर लेता था कि इस  रहस्यमय व्यक्तित्व को ज्यादा जानने का प्रयास बेमानी है ....विगत आम के मौसम में मुझे उन्होंने अपनी बाग़ के चौसा आमों के रसास्वादन का न्योता दिया था ..अब अवसान इतना निकट है कौन जानता था ..वे ठीक भी तो हो चले थे..पर कल अचानक हालत बहुत खराब हो गयी और शाम को वे अपने दैहिक वजूद से मुक्त हो लिए ....मगर उनकी यशः काया हमारे साथ बनी रहेगी! उनके इस आकस्मिक अवसान से सारा ब्लागजगत मर्माहत है ..संतोष त्रिवेदी जी ने उन्हें यहाँ श्रद्धांजलि दी है ...अनुराग शर्मा जी ने उनके शोक श्रद्धांजलियों के संकलन का बीड़ा यहाँ उठाया है ..फेसबुक पर उनके लिए श्रद्धांजलियों का तांता लगा हुआ है ...चिट्ठाचर्चा पर भी शोक आयोजन है! नारी पर भी शोक प्रस्ताव  है!


उनके इस तरह से सहसा चले जाने से बेहद स्तब्ध और दुखी हूँ  ....ईश्वर उनकी आत्मा शान्ति दे और परिवार को इस हादसे से उबरने की शक्ति ... .

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

कान्हा जब धरती पर अवतरित हुए तो बैकुंठ खाली हो गया.......

जन्माष्टमी करीब आ गयी है ...इससे जुडी खरीददारियां शुरू हो गयी हैं .शिशु  कान्हा के पहनने के लिए नन्हे नन्हे झिंगोला दुपट्टा ,मुकुट ,बांसुरी ,मोरपंख सभी बाजारों में बरबस ही आकर्षित कर रहे हैं .मेरे यहाँ भी ये खरीददारी हो गयी है ....इन सामानों से किशन कन्हैया के जन्मोत्सव की झांकी सजाई जायेगी ....बनारस में अब वैष्णवों का भी बोलबाला है यद्यपि मूलतः यह प्राचीनतम नगरी शैवों की रही है .शिव भक्ति यहाँ की मूल संस्कृति में रची बसी है -यह तो बाबा तुलसीदास का चमत्कार कहिये कि उन्होंने राम और शिव का ऐसा अन्योनाश्रित सबंध स्थापित कर दिया कि वैष्णवों को शिव सुहाने लगे और शैवों के लिए राम भी आराध्य बन गए ....
झांकी का ताम झाम और हसरत से देखता बच्चा 
कहते हैं जहां भगवान राम महज आठ कलाओं से युक्त थे कान्हा सभी सोलह कलाओं के साथ जब धरती पर अवतरित हुए तो बैकुंठ खाली हो गया ....क्योकि अपने सम्पूर्ण रूप में विष्णु कान्हा का रूप ले धरती पर आ गए ....साम दाम दंड भेद सभी की सभी चालों से युक्त थे कृष्ण .....छलिया थे,रसिया थे ,रणछोड़ थे, सब कुछ थे ....परकीया प्रेम में आसक्त रहे ,भोली भाली गोपियों को छला,महाभारत के दौरान -युद्ध क्षेत्रे धर्म क्षेत्रे कितने ही अर्ध सत्य बोले ,शत्रु दमन के लिए झूठ तक का सहारा लिया किन्तु तब भी हर दिल अजीज बने रहे ...

.कभी कभी सोचता हूँ भगवान राम   बिचारे सीता के निर्वासन की एक गलती कर आलोचना के पात्र बन गए ...उन्हें आम लोगों ने ही नहीं कविजनों तक ने नहीं बख्शा .....मगर कृष्ण को जन मानस कभी शायद ही कोई कोसता हो ....उत्तर राम काल में राम को दीवानगी की हद तक शायद ही किसी ने चाहा हो मगर कृष्ण की दीवानगी की एक झलक तो बावरी मीरा में ही देखी जा सकती है ...बिचारे राम!कृष्ण कूटनीति में माहिर थे....राम को केवल रघुकुल की रीति का सम्मान ही सर्वोच्च था ...वे वचन पर दृढ थे मगर अपने छलिया महराज सब तरह के कूट -प्रपंच में माहिर ....प्रत्यक्ष रूपवती सूर्पनखा के प्रति राम तुरंत अलेर्जिक हो उठते हैं ..कृष्ण ने कितनों को उपकृत किया यह सूचीबद्ध करने की किसी को भी सूझा तक न हो -पटरानियों ,रानियों के साथ उनका द्वारिकापुरी का अन्तःपुर श्री संमृद्धि से भरापूरा था ..
नन्हे कान्हा के नन्हे नन्हे लिबास 

कृष्ण ज्यादा आधुनिक लगते हैं .....लोक मानस  ने उनके साथ ज्यादा तादाम्य बना लिया ....राम जहां आराध्य ही बने रहे वहीं कृष्ण के प्रति लोगों में सखा भाव संचारित होता रहा ....कृष्ण से बढ़कर भला कौन तारणहार हो सकता है ? गज को ग्राह से मुक्त किया ....सुदामा का दारिद्रय दूर किया ,द्रोपदी की ऐन वक्त पर लाज बचा ली -यह सखत्व भाव किसी और देव में नहीं दीखता .....अपनी इसी लोकगम्यता के कारण ही कृष्ण  जन जन के ज्यादा करीब हैं ,मित्रवत लगते हैं ,ज्यादा सामजिक और अपने से हैं ....

कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं ! 




रविवार, 14 अगस्त 2011

सुन्दर आँखों वाले कुणाल से क्या आप मिलना चाहेगें/चाहेगीं?

एक दिन सुबह ही लैंडलाईन फोन घनघनाया -मेरी भतीजी स्वस्तिका ने कुणाल का अर्थ पूछा ...यह एक अच्छा सा नाम है -कई लोगों का यह नाम सुना भी है मगर इसका अर्थ तत्काल नहीं बता पाया ..खोज बीन की ...विकीपीडिया देखा , यह खूबसूरत आँखों वाली  एक पहाडी चिड़िया है -पर एक खोजी का काम अभी कहाँ पूरा हुआ था? कौन सी चिड़िया -क्या नाम है इसकाफिर सालिम अली की बुक आफ इंडियन बर्ड्स के पन्ने पलटे-अरे यह तो चहा है -स्नायिप(snipe) है ....

चहा की दो प्रजातियाँ हैं -एक कामन स्नायिप और दूसरी पेनटेड स्नायिप.... कामन/फैन्टेल  स्नायिप यानी चहा प्रवासी है जबकि पेंटेड स्नायिप जो राजचहा के नाम से भी जानी जाती है प्रवासी नहीं है .राजचहा की मादाएं बहु पतित्व के गुण रखती हैं और प्रणय लीलाओं में दबंगता दिखाती है और सुयोग्य नर की प्रतिस्पर्धा में दबंग मादायें दब्बू मादाओं से रणहू  पुतहू(शब्द सौजन्य :गिरिजेश राव)  पर उतारू हो जाती हैं ,मतलब लड़ झगड़ पड़ती हैं जो अन्य जानवरों में नरोचित व्यवहार है!मतलब यहाँ मादाएं दबंग हैं! 
कुणाल जिसे राजचहा भी कहते हैं 

विकीपीडिया के अनुसार ,'कुणाल हिमालय में पाये जाने वाले पक्षियों मे एक है. सम्राट अशोक जिन्होंने सारे भारत पर राज किया था, उन्होंने अपने पुत्र कुणाल का नाम इस पक्षी की आँखो के ऊपर रखा था. कुणाल का संस्कृत  मेँ अर्थ होता है "सुन्दर नेत्रों वाला पक्षी" और यदि यह किसी का का नाम है तो इसका अर्थ होता है "वह व्यक्ति जो प्रत्येक  वस्तु मे सुंदरता देखता हो" अथवा 
"सुंदर नेत्रों वाला व्यक्ति". संस्कृत में इसका  एक अर्थ "कमल" भी होता है'...

विधि का क्रूर विधान देखिये कि अशोक के जिस पुत्र की आँखों की सुन्दरता के कारण उसे कुणाल नाम दिया गया उसकी सौतेली मां ने कुचक्र से गर्म लोहे की सलाखों से उसकी आँखें फोड़वा  कर उसे अँधा बना दिया.... ....अब यह कथानक कितना सत्य है कितनी  एक किंवदंती यह तो शोध का विषय है मगर कुणाल पक्षी आज भी एक जीवंत हकीकत है ....अब अगली बार किसी बच्चे के नामकरण संस्कार में शामिल हों तो कुणाल नाम सुझाने के पहले इस परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखें! 

प्रिय स्वस्तिका तुम्हारे प्रश्न का यह विस्तृत जवाब है!
  

बुधवार, 10 अगस्त 2011

सावन में सितार- तबले की जुगलबंदी!


राग यमन की युगलबंदी 
पहले ही मैं पूरी विनम्रता से कह दूं कि यह एक पारिवारिक किस्म की पोस्ट है और अगर कोई इसे आत्म प्रचार/प्रशस्ति  का प्रयास मानता है तो वह तनिक भी गलत नहीं है-मैं यह  काम किसी भी प्रकार के घने या झीने परदे -शब्दाडम्बर के करना  चाहता हूँ ....ब्लागिंग में परिवार को सम्मलित न किया जाय  ऐसी कोई ब्लॉग आचार संहिता भी प्रख्यापित नहीं है. तो फिर इस काम  को खुले तौर पर आपसे साझा करने के बजाय क्यों कोई अनावश्यक भूमिका बांधी जाय! 



माँ बेटे की संगत 

बेटे कौस्तुभ प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद से तबला वादन में आरम्भिक ग्रेड के डिग्री होल्डर है .इन्होने २००३ का पूरा वर्ष वहां के गुरुओं से तबला वादन सीखा और इसके पहले कि  उनका हुनर परवान चढ़े हमारा ट्रांसफर बनारस हो गया -शायद यह एक तरह का छुपा हुआ वरदान था -अब संगीत और बनारस का रिश्ता ऐसा कि हमें ज्यादा ढूंढना भी नहीं पडा हमारे बगल के ही मोहल्ले कबीरचौरा में प्रख्यात तबला वादक स्वर्गीय पंडित गुदई महराज के प्रपौत्र  उस्ताद मंगला प्रसाद जी ने कौस्तुभ को शागिर्द के रूप में स्वीकार कर लिया  ...उन्ही दिनों मेरे टेक्सास निवासी चाचा और कभी नासा में वैज्ञानिक रहे डॉ. सरोज कुमार मिश्र यहाँ आये हुए थे उन्होंने श्रीमती जी को प्रेरित किया सितार  वादन के लिए -पहले तो ये बड़ी घबरायीं ,लेकिन स्नातक स्तर तक इन्होने भी गायन में संगीत की शिक्षा ली हैं इसलिए सितार वादन की चुनौती स्वीकार कर लिया .....चाचा जी ने एक सितार इन्हें बतौर उपहार सौंपा और विदेश वापस हो लिए... 


श्रीमती जी के सितार गुरु बने श्री ध्रुव मिश्र जी ..अब माँ बेटे अभ्यास में जुट गए ..बेटी प्रियेषा कौमुदी  ने कत्थक का भी रियाज  आरम्भ किया मगर वह कई कारणों से आगे नहीं बढ़ पाया ....इसी दौरान मेरे दो ट्रांसफर फिर हो गए और परिवार को भी असुविधा हुयी मगर इनका अभ्यास किसी तरह चलता रहा ....हाँ अनियमित होने लग गया ...विगत  वर्षों से संगीत साधना पर मानों ग्रहण सा लगा रहा ....

.मैंने देखा है एक मध्यवर्गीय परिवार में रोजाना ऐसे विघ्न विप्लव होते रहते हैं कि कला साधना /संगीत साधना सहज नहीं रह पाती ....हर रोज कोई  कोई विपदा ,हस्तक्षेप जिसके चलते माँ बेटे की संगीत की संगत प्रभावित होने लगी ...इसी बीच श्रीमती जी को विटामिन  डी की ऐसी अत्यधिक कमी हुयी कि उनका चलना फिरना दूभर हो गया -एक तरह छः महीने से भी अधिक समय के लिए उनकी दिनचर्या बेड पर ही सिमट कर रह गयी ....सितार से दूरी बढ़ती ही चली गयी .. 

 अब जब  कुछ सामान्य सा होने लगा है .... और ज़िन्दगी फिर पुराने ढर्रे पर वापस लौटने लगी तो सावन की एक शाम संगीत के नाम हो ही गयी ..माँ बेटे सितार और तबले की  युगलबंदी पर जमे ....और खूब जमें. मगर कौस्तुभ  फिर बंगलुरु वापस हो लिए हैं ....और  संगत बिगड़ गयी है लेकिन  सितार का सोलो अब फिर परवान पाने लगा है.अभी भी ये दोनों संगीत प्रेमी संगीत के लिहाज से नव साक्षर हैं -इन्हें आपका स्नेह संबल चाहिए !



संगीत को समर्पित इस पोस्ट पर मैं अगर स्वर्गीय पिताश्री  डॉ. राजेन्द्र मिश्र को याद न करूं तो यह मेरी कृतघ्नता होगी -संगीत का संस्कार तो उन्ही से मिला -वे हारमोनियम के वादन में पारंगत थे और अपनी अन्य विशेषताओं के साथ ही  क्षेत्र के ख्यात हारमोनियम वादक के रूप में जाने जाते रहे .....मुझे तो न जाने क्यूं कुदरत ने इस हुनर  से विरक्त ही कर रखा है ..हाँ एक श्रोता और कभी कभार कुछ गुनगुना लेने की छोटी  हैसियत/विरासत मेरे हाथ भी आई  लगती है मगर यह तो काफी नाकाफी है ....
कई दौर चल चुके हैं मुझे क्यों न हो शिकायत
 मेरे हाथ मेरे साकी अब तक न जाम आया!   


नोट:वीडियो की खराब क्वालिटी के लिए दुःख /खेद है   











सोमवार, 8 अगस्त 2011

स्लीप टाईट :खटमल धीरे से आना खटियन में ...

अब हम तो पढ़े  देहाती प्राथमिक विद्यालय में -वह भी एक  कन्या विद्यालय ...आरम्भिक शिक्षा हिन्दी भी क्या लोकल ठेठ में ....अब कोई मित्र मुझे चैट के दौरान विदाई के समय 'स्लीप  टाईट' कहे तो दिमाग का ठनकना स्वाभाविक ही था.... अब क्या कहें जवाब में ....कुछ उल्टा पुल्टा कह दिया तो नया  नया आभासी सम्बन्ध खटाई में ....लिहाजा मैंने कुछ नहीं कहा ..हिम्मत कर बस  स्वीट ड्रीम्स कह  चैट आफ कर दिया ....अब क्या होता है -स्लीप टाईट का मतलब ...कुछ देर विचार मग्न हो रहा ......क्या यह कोई रूमानी उद्वेलन था? शयन -सहचरी के साथ टाईट हो सोने का .....जैसा कि २००३ के उन बेहद ठंड के दिनों में एक बुजुर्ग से ही सलाह मिली थी कि ठण्ड से बचने में शारीरिक ऊष्मा बड़ी मददगार होती है इसलिए बेहद ठण्ड के दिनों में यह नुस्खा - शैया सहचरी/सहचर  के साथ के साथ टाईट हो सोने की आजमाईश की जानी चाहिए ....अब बुजुर्गों की बात तो हम गाँठ बाँध  कर मानते आये हैं ....लेकिन एक नयी नयी मित्र का यह चैट सन्देश -स्लीप टाईट ,सहसा ही निःशब्द कर गया था ....उधेड़बुन के समय गूगल बाबा याद आते हैं -गूगल शरणं गच्छामि ......
.
कभी ऐसी भी होती थी खटिया?  

अब इत्ती सी बात पर गूगल साहब तो फैले हुए नजर आये ....स्लीप टाईट की इतनी विस्तृत विषद व्याख्या संकलित कर डाली है कि बस कुछ मत पूछिए ....कहते हैं सदियों पहले बिस्तरे छल्लों से युक्त होते थे ...उन्हें बिना टाईट किये अच्छी नीद नहीं आती थी... इसलिए दरअसल यह प्रकारांतर से  बिस्तर यानी खटिये को टाईट करने की शुभकामना थी ....वैसे ही कुछ जैसे एक फिल्म में यह सलाह दी गयी थी कि सटाई लो खटिया जाडा  
लगे टाईप ...मतलब कुछ जुगाड़ करने की सलाह .........मगर विद्वान् लोग इस व्याख्या से अपनी विद्वता के चलते सहमत नहीं हुए ..उन्हें कहा कोई खटिये को भला कोई क्यों शुभकामना देगा? मैं भी यही सोचता हूँ अब मेरी मित्र क्यूंकर  मेरे बिस्तर को शुभकामना देगीं ..फिर? ....गूगल बाबा फिर उवाचे ....कोई कहे कि यह खटमलों से बचने की शुभकामना है -न काटेगें खटमल और न सोने वाला हिलेगा डुलेगा, चैन की टाईट नींद नसीब होगी  ....खटमल धीरे से आना खटियन में जैसा ही कुछ ...  हम गूगल पर पन्ने दर पन्ने पलटते जा रहे थे ..मन का कुछ पाने को तभी यह नर्सरी राईम दिख गयी ....
Good night, sleep tight,
Don’t let the bedbugs bite,
Wake up bright
In the morning light
To do what’s right
With all your might.

खटमल धीरे से आना खटियन में ...
ओह तो यह बच्चों का मामला है ....सारी अभिलाषायें धडाम हुईं :) मतलब केवल इतना कि स्लीप टाईट का मतलब बस केवल इतना कि स्लीप वेल ....किसी को टाईट पकड़   कर नहीं ..अच्छे बच्चे की तरह बस सो जाना ......ऐसी ही  कई कहावते हैं जिसका मतलब न समझिये तो अर्थ का अनर्थ होना पक्का .....अब जैसे स्केप गोट-इसका मतलब है बलि का बकरा बन जाना ....गड़ेरियों की भेंड बकरियों के झुण्ड में कोई एक भाग न पाने वाले जेनेटिक दोष का  बकरा / भेंड/बकरी भी होती है .चारागाहों के  आसपास भेड़ियों के आक्रमण पर यह भाग नहीं पाता और जब तक भेड़िया इससे निपटता है ..भेंड जमात बिना तनिक नुक्सान के भाग  लेती है ..गड़ेरिये जन बूझ कर ऐसी भेड़ें भी रखते हैं पालते पोषते हैं जैसे अपने  कलमांडी साहब जो इन दिनों स्केप गोट बने हुए हैं ...
.
ऐसे ही सोर ग्रेप्स का मामला है -अंगूर खट्टे हैं!  और ..स्पिल द बीन्स मतलब  कोई राज खोल देना .....अब मेरी इस पोस्ट से कोई राज खुला क्या ?..नहीं तब तो आपको अभी और इंतज़ार करना होगा !:) स्ट्रेट फ्राम हार्स'स माउथ....  बी  पेशेंट .....

बुधवार, 3 अगस्त 2011

बम भोले नाथ ,बाब मार्ली और मोबाईल का रिंग टोन

जब भी मेरे मोबाईल फोन का रिंग  टोन बजता है बाब मार्ली का गाया हुआ  अद्भुत विस्मयपूर्ण और श्रद्धाभाव से परिपूर्ण गीत सुनायी पड़ता है....जब यह रिंग टोन पहली बार बेटे ने सुनाया था तो मुझे कुछ पल के लिए नए जमाने के लड़कों की रूचि पर क्षोभ हुआ था मगर जब मैंने एक दो बार इसे सुना तो इसके प्रति समर्पित होता गया ...और ऐसा लगभग सभी मेरे मित्रों के साथ हुआ जिन्होंने मेरे साथ ही इस अद्भुत गीत को अब अपने मोबाईल का रिंग टोन बना लिया है.... 

बाब  मार्ली(6 फरवरी  1945 – ११ मई  1981) ) पर  विकीपीडिया पर पर्याप्त जानकारी है ...फिर भी बताता  चलूँ कि जमैकावासी बाब मार्ली अश्वेत गायकों में एक जानी मानी शख्सियत रहे और बाबा भोलेनाथ के प्रति उनके मन में ख़ास अनुराग था ...वे नेपाल में तो विष्णु के अवतार तक माने गए ...जो वीडिओ यहाँ है उस पर कुछ विवाद है कि उसे बाब के बजाय किसी और ने गाया है ....मगर ऐसी दावेदारियां मशहूर कृतियों के साथ तो होती रहती है ..मैं जब बाब का जीवन चरित पढ़ रहा था तो यह बात मुझे इस महान गायक के प्रति संवेदित कर गयी कि बहुत अल्पकाल में ही और कैंसर से  घोर वेदना और एकाकीपन में इनकी मौत हुई .

इस समय बनारस में बाबा भोले नाथ का ही जलवा चहुँ और है ...सावन (श्रावण ) में बाबा के दर्शन का बड़ा पुण्य माना गया है और खासकर सभी सोमवारों को -सोम अर्थात चन्द्रमा जो शिव के सर पर सुशोभित हैं -तो शिव और चंद्रमा का यह संयोग प्रत्येक सोमवार को ख़ास लाभकारी समझा गया ...ऐसे में बाब मार्ली का का यह गीत और भी अर्थपूर्ण हो उठता है ...आप भी सुने ..पहली बार अच्छा न लगे तो दुबारा तिबारा सुने ..सहसा आपको लगेगा कि आप की रूचि इस अद्भुत गीत में बढ़ती जा रही है -विश्वास न हो तो आजमा कर देखें -आप भी इसे अपना रिंग टोन बनाना चाहेगें! 

मेरी ब्लॉग सूची

ब्लॉग आर्काइव