मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

आओ भामाशाहों आओ -हिन्दी ब्लागिंग को उबारो!

जब हिन्दी ब्लॉगों का एक दशक पहले आगाज  हुआ था तो कहा गया था कि अभिव्यक्ति  के  एक युगांतरकारी माध्यम का आगमन हो गया है। अब न तो संपादकों की  कैंची  का डर था और न कही कोई रोक टोक।बेख़ौफ़ बयानी का एक चुंबकीय आमंत्रण था। यह वह दौर था जब कंप्यूटर की शिक्षा लेकर युवाओं की एक फ़ौज अंतर्जाल की नयी संभावनाओं को तलाश रही थी। जाहिर है उनमें से  अधिकांश का सृजनात्मक लेखन से कोई  लेना देना नहीं था और न  कोई अनुभव ।  फिर भी उन्होंने अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की अलख जगाई और उसमें से कुछ तो रातो रात अच्छे लेखक के रूप में सन्नाम भी हो गए। यह समय (2003 -२००७ ) हिन्दी ब्लॉग लेखन का प्रस्फुटन  काल था।

हिन्दी  ब्लॉग जगत में इसके बाद साहित्यिक और सृजनात्मक प्रतिभाओं की पैठ हुई और लगने लगा कि हिन्दी ब्लागिंग के रूप में अभिव्यक्ति का एक नया युग आ गया है जो पारम्परिक मीडिया को धता बताकर रहेगा। और हिन्दी ब्लागिंग की यह धमक और ठसक आगे के कई सालों तक बनी रही। और इस माध्यम/विधा की खिलाफत भी हिन्दी के पारम्परिक खुर्राट और खेमेबाज साहित्यकारों  /संपादको की ओर से शुरू हो गयी गई -उन्हें अचानक अपने विस्थापन  का खतरा भी दिखाई देने  लग  गया था।  मजे की बात यह कि वे ब्लॉग बैठकियों में मुख्य अतिथि की हैसियत से  बुलाये जाते और मंच पर ही इस माध्यम की खिल्ली उड़ा आते। आत्ममुग्ध ब्लागर  ऐठ में उनकी बातों को तवज्जो नहीं देते। यह  हिन्दी  ब्लॉग जगत का पुष्पन -पल्लवन काल(2007 - 2010 था। 

ठीक इसके बाद ब्लॉग जगत का वह हाहाकारी स्वर्णकाल आया जिससे प्रतिभाओं का अजस्र  बहाव यहाँ देखा गया ।  एक से एक सच्चे प्रतिभाशाली , आत्ममुग्ध और स्वनामधन्य महानुभाव अवतरित हुए जिन्हे  ब्लागजगत  के अब तक पुरायट कहे जा रहे ब्लागरों ने सीख दी , संरक्षण दिया और दुर्भाग्य से हिन्दी ब्लागजगत में भी पारम्परिक साहित्य की अनेक दुष्प्रवृत्तियों का यहीं से आरम्भ शुरू हुआ। खेमे बने ,'मठ' बने और मठाधीश बने।  जाति  बिरादरी के नाम पर गोलबंदी शुरू  हुयी। कई  मगरूर ब्लॉगर आये। कई बेशऊर भी आये।  किसी ने मखमली माहौल बनाया तो किसी ने इस्पाती ताकत दिखाई। व्यर्थ के लड़ाई झगड़े बहस मुहाबिसे और रोज की चख चख ।  सृजन गायब होने लगा -रगड़ घषड़ की ऊष्मा ही ज्यादा फ़ैली।  लोगों ने देख सुन लेने की धमकियां  भी दी लीं. 

भारत का अब तक न जाने कहाँ  सोया नारीत्व भी  अचानक जाग दहाड़ें मारने लग गया  .ब्लागरों की पुरुष महिला कैटेगरी  का क्लीवेज भी साफ ज़ाहिर हो चला।  स्वाभाविक था रचनाशील सौम्यता अब परदे के पीछे जा पहुँची थी।  हिन्दी ब्लागजगत का मोहभंग काल अब शुरू हो चला था।  कुछ का ऐसा मोहभंग हुआ कि उन्होंने मुद्रण माध्यम का दामन थाम लिया -जिसे वे कभी  पानी पी पीकर कोसते थे।  कुछ ने तो यहाँ तम्बू उखड़ने के अंदेशे से  झटपट इस माध्यम  का लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर प्रकाशकों से  मिल मिला पैसे वैसे दे दिलाकर किताबें छपवाईं  और बिकवानी शुरू कर दीं।  

हिन्दी ब्लागजगत का अवसान काल  अब आसन्न था। दशेक काल में सब कुछ हो हवा गया।  उत्थान पतन सब।  अभी भी लोग कहते  हैं, नहीं नहीं ब्लॉग अब भी खूब लिखे पढ़े जा रहे हैं -मगर पाठक हैं कहाँ  भाई? हिन्दी के अन्तरजालीय पाठकों को हमने संस्कारित ही तो नहीं  किया -यहाँ तो सब  ब्लॉगर लेखक ही हैं -ब्लॉग पाठकों का टोटा है -उनकी कोई जमात नहीं, जत्था नहीं। यहाँ ब्लॉगर ही लेखक है और खुद  वही पाठक भी । अलग से पाठक वर्ग गायब है।  पाठकों को ललचाये  जाए बिना हिन्दी जगत के दिन बहुरने से रहे। तब तक शायद हम ब्लॉगर अल्पसंख्यकों को हाथ पर हाथ बैठे रहना होगा।  इस माध्यम को भी अब प्रायोजकों  प्रश्रयदाताओं की ही  तलाश है -आओ भामाशाहों आओ -हिन्दी ब्लागिंग को उबारो ! 

 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बेटे कौस्तुभ के विवाह की अविस्मरणीय क्षणिकाएँ!

ब्लॉगर और व्यंग शिरोमणि अनूप शुक्ल जी का स्नेहादेश मिला कि मैं सद्य संपन्न बेटे कौस्तुभ के विवाह पर अपने ब्लॉग पर कुछ लिखूं। अब इतने मिले जुले अनुभव हुए हैं कि उन्हें ब्लाग पोस्ट की सीमा में समेटना बहुत मुश्किल सा है -इसलिए लिखने की शैली -लिखना कम और समझना अधिक वाली ही रहेगी। बेटे ने तीन चार माह पहले अपनी माँ से रहस्योद्घाटन किया कि उसे प्रेम विवाह करना है -प्रेम विवाह तक तो फिर भी ठीक था मगर यह तो अंतर्जातीय विवाह की बात थी। माँ घोर ब्राह्मण और वह भी "सर्वश्रेष्ठ शुक्ल" परिवार की -सुना तो दहल गईं। मुझसे भी छिपाए रखी गयी बात -मगर बात कहाँ पचती -एक सुअवसर पाकर उन्होंने मुझे बतायी -इस अचानक अप्रत्याशित इस बात से मुझे थोड़ा धक्का सा लगा तो मगर मैं सहज हो गया। 
कौस्तुभ संग वर्षा
 
 मैं पहले से ही दृढ मत का रहा हूँ कि शादी-व्याह बच्चों की इच्छा पर ही होना चाहिए। उन पर पैरेंटल दबाव नहीं होना चाहिए। दूसरा कि दहेज़ का लेंन देन बिल्कुल नहीं होना चाहिए। यह व्यक्ति - परिवार की गरिमा को गिराता है। अनूप शुक्ल जी ने ब्लॉग लेखन के हाहाकारी दिनों में मेरे इस विचार को ललकारा था -क्या आप खुद अपने बेटे का ऐसा विवाह करेगें? अब चूँकि अपने समाज में कथनी करनी का एक बड़ा अंतर है इसलिए शुक्ल जी का ऐसा पूछना सहज था। मैंने हामी भर दी थी । भवितव्यता साक्षात थी।  लड़की वाले बनारस के चौरसिया परिवार के हैं तो उन्हें यह बड़ी हिचक थी कि ब्राह्मणों में बड़ा लेन देन चलता है। कौस्तुभ ने बताया कि उसने और वर्षा (वधू ) ने जब वे इंटरमीडिएट में थे तभी अनुबंध किया था कि जब दोनों को नौकरी मिल जाएगी तो वे विवाह करेगें. मुझे यह अच्छा लगा कि आज के इस अधीरता के युग में ऐसा कोई पैक्ट इतने वर्षों (पूरे आठ वर्ष) बना रहा तो निश्चय ही इनके बीच समर्पण है। बाकी मैंने अपने जीवन में जाति पाति पर कभी ध्यान नहीं दिया। मेरे लिए हमेशा व्यक्ति महत्वपूर्ण रहा है। 
वर वधू और अतिथियों के स्वागत में सजा मेघदूत


मगर समाज का प्रबल विरोध मुझे सहना पड़ा। मगर मैं दृढ रहा। हाँ मैंने कौस्तुभ को सुझाव दिया कि तुम बनारस में कोर्ट मैरेज कर लो और समान मनसा इष्ट मित्रों के साथ एक रिसेप्शन हो जायेगा। मगर साहबजादे पारम्परिक विवाह पर अड़ गए -मैंने लाख समझाया कि दो नावों पर पैर न रखो मगर ये महापुरुष तो 'बेस्ट आफ बोथ द वर्ल्ड' हासिल करने पर अड़े रहे। कई रिश्तेदारों ने कड़ी लानत मलामत की -बंधु बांधवों का कड़ा विरोध भी रहा। हाँ केवल ह्यूस्टन विश्वविद्यालय अमेरिका के मेरे सगे चाचा डॉ सरोज कुमार मिश्रा जी चटटान की तरह इस विवाह के पक्ष में दृढ रहे। और विवाह में शामिल होने का वादा किया।  फिर देश का कानून भी साथ था।

 यह निमत्रण पत्र बेटी प्रियेषा ने डिजाइन किया था 
 धीरे धीरे आंतरिक विरोध के बावजूद भी बाहरी विरोध कम होने लगा। पारम्परिक विवाह का माहौल बनने लग गया। लड़की वालों की एक बड़ी आशंका मैंने यह स्पष्ट कहकर दूर कर दी कि मुझे दहेज़ नहीं चाहिए -न तो प्रत्यक्ष और न ही अप्रत्यक्ष। यह भी नहीं कि आपने अपनी बेटी के लिए कुछ तो संकल्प किया होगा। कुछ भी नहीं। बस हम सीमित और विशिष्ट जनों की बारात लेकर और वह भी दिन की बेला  में आयेगें।  इसलिए विवाह स्थल गरिमापूर्ण हो -चौरसिया परिवार ने बनारस के एक स्टार होटल रैडिसन में यह व्यवस्था की -अभी बीते १२ दिसम्बर को कौस्तुभ -वर्षा का परिणय संपन्न हुआ और वर्षा उसी दिन/रात पैतृक निवास मेघदूत आ गयी जो खुद दुल्हन की तरह सजा इस नव विवाहित जोड़े का इंतज़ार कर रहा था। विवाह में समाज के विभिन्न क्षेत्रों -राजनीति ,सिविल प्रशासन ,ग्राम्यजन, ब्लागर मित्रगण सभी जुटे। वर वधु को आशीर्वाद दिया। कौस्तुभ बंगलौर में एक फार्मास्यूटिकल उद्योग -सामी लैब्स में सहायक प्रबंधक हैं और वर्षा का चयन रिज़र्व बैंक में ग्रुप बी अधिकारी पद पर हुआ है।

मेघदूत पर आशीर्वाद प्रीतिभोज का आयोजन अगले दिन १३ दिसम्बर को था। जहाँ माहौल सहज था -कहीं कुछ भी असहज नहीं था। जो मित्र आये उनका तो आशीर्वाद कौस्तुभ -वर्षा को मिल गया। अब आपकी बारी है।
A photo gallery link: Courtesy Santosh Trivedi! 

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

प्रेम पत्रों का विसर्जन!

 प्रौद्योगिकी की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति ने मनुष्य के निजी और सामाजिक कार्यव्यवहार पर काफी प्रभाव  डाला है और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है।  आज एक मित्र से इस पहलू पर काफी रोचक विचार विमर्श हुआ और उन्ही के अनुरोध पर यह नई ब्लॉग पोस्ट लिखी भी जा रही है।  जी हाँ मनुष्य के जीवन के एक निजी अहम पहलू पर भी प्रौद्योगिकी ने गहरा  असर डाला है और वह है प्रेम. एक समय था जब हर  घर में न तो लैंडलाइन फोन थे और  मोबाइल का  तो दूर दूर तक कोई अता  पता ही न था। और तब प्रेमी प्रेमिका के बीच खतोकिताबत का ही एक सहारा था जिससे इज़हारे मुहब्बत और इश्क़ का सिलसिला चलता था। और वह था सुन्दर सुलेख खतों का आदान प्रदान जिसके जरिये ही मुहब्बत  परवान चढ़ती थी । मेरे मित्र  ने तफ्सील से ज़िक्र किया कि कैसे सुन्दर सुन्दर रंगीन कागजों और लिफाफों का जुगाड़ होता था और लगभग रोज ही एक प्रेम पत्र मेल बाक्स के हवाले हो  जाता था या फिर माशूक /माशूका के घर की दूरी ज्यादा न हुयी तो दीगर  सन्देश वाहकों का इंतज़ाम किया जाता था।
मेरे मित्र का  किस्सा भी बहुत कुछ मेरे जैसा ही है कि जिनसे ख़तो  किताबत हुयी वे कोई और नहीं नव परिणीता पत्नी ही थीं  और उन्हें तो साधिकार प्रेम पत्र लिखने का  सामजिक लाइसेंस मिल गया था। बेशर्मी भी अगर रही हो तो उसकी पूरी स्वीकार्यता थी।  एक पूरा प्रणयकाल(कोर्टशिप पीरियड )  ही इन प्रेम पत्रों के आदान प्रदान में बीत जाता था और तब कहीं जाकर एकाध साल बाद गौना (पति पत्नी का मिलन -सेकेण्ड सेरेमनी ) होता था तब तक उभय हृदयों का  अपरिचय पूरी तरह से मिट चुका होता था। मिलन बस एक औपचारिकता भर रह जाती थी -प्रेम पत्रों  में ह्रदय उड़ेल  दिया जाता था -कस्मे वादे होते थे -जन्म जन्मांतर तक साथ रहने की कसमें खाईं जाती थीं -एक दूसरे के प्रति समर्पण अपने उत्कर्ष पर जा पहुंचता था।

 मित्र ने अपने अतीत को याद करते हुए मुझे भी कितनी ही भूली बिसरी यादें ताजा करा दीं।  यह भी कहा कि  घर घर फोन और मोबाइल हो जाने से बिचारी नयी पढ़ी का यह सुख उनसे छिन गया है - यह कहते हुए उनके चेहरे पर जो भाव था वह ठीक से पढ़ा नहीं जा  सका कि वे नयी पीढ़ी के प्रति वास्तव में अफ़सोस कर रहे थे या फिर उन पर कटाक्ष कर रहे थे. हाँ अपने समय की प्रेम प्रधानता की गौरवानुभूति उनके चेहरे पर स्पष्ट थी। जो मजा कागज़ के प्रेम पत्रों  के लिखने पढने में है भला मोबाइल नेट संस्कृति में  कहाँ? लिखती  हूँ खत खून से स्याही न समझना मरती हूँ तुम्हारे याद में जिन्दा न समझना को पढ़ने का अहसास एक अलौकिकता का बोध कराता था।  उफ़ बीत गए वो रूमानी दिन ..  

बहरहाल मित्रों के बीच का यह अतीत -संवाद एक जगहं आकर ठहर गया -
मित्र ने कहा कि वे प्रेम पत्र तो आज  भी पड़े हुए हैं बहुत ही संभाल कर और सुरक्षित -क्या  किया जाय उनका? ऐसे तो कूड़े में फेंका नहीं जा सकता।  उनका तो एक डीसेंट डिस्पोजल होना चाहिए।  एक सम्मानपूर्ण विसर्जन।  तभी उन्हें याद आया कि मैं तो ब्लॉग लिखता हूँ तो यह समस्या तनिक ब्लॉग पर डाल दूँ -यह बहुत संभव है कि समान वयी  दूसरे मित्रों का भी यही धर्म संकट हो या फिर उनके सामने इसका कोई सम्मानजनक हल हो।  मैंने तो उन्हें सुझा दिया है कि चलिए संगम क्षेत्रे  एक सामूहिक प्रेम पत्र विसर्जन कार्यक्रम ही आयोजित कर लिया जाय और पवित्र संगम की अपार जलराशि में  प्रेम की  इस धरोहर को अर्पित कर दिया जाय।  आपके पास भी अगर कोई और  उदात्त विचार हों तो मित्र की मदद सकते हैं।  

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भाग दरिद्दर भाग-दीवाली संस्मरण!

दीवाली की अनेक यादें हैं। इस बार अपने पैतृक निवास जा नहीं पाया तो यादें और भी सघन हो मन में उमड़ घुमड़ रही हैं। हमारे लिए दीवाली का मतलब ही होता था पटाखों और फुलझड़ियों का प्रदर्शन। एक माह पहले से ही छुरछुरी ( पूर्वांचल में फुलझड़ियों को इस नाम से भी पुकारते हैं ) इकट्ठी करना शुरू हो जाता था जिसमें किशोरावस्था की देहरी पर खड़े समवयी हम कुछ बच्चे बड़े बुजुर्गो से आँख बचा बचा कर एक गोपनीय संग्रह करते जाते थे. कुछ जेब खर्च और निश्चय ही कुछ चुराया हुआ धन इसमें इस्तेमाल होता था. पिता जी नयी सोच के थे तो पर्यावरण की चिंता उनको रहती थी और वे आखों के सामने पड़ते ही हमें पर्यावरण पर पूरा पाठ पढ़ा देते और पटाखों के धुर विरोधी थे। हाँ बाबा जी हमारे बीच बचाव को आते थे और पिता जी को समझाते कि एक दिन में पर्यांवरण नष्ट नहीं हो जाएगा और बच्चे इतनी छुरछुरी भी कहाँ छोड़ते हैं? 

बहरहाल इसी माहौल और तनातनी के बीच हम अपने संग्रह कार्य में जुटे रहते थे। और चर्खियों, गैस , टेलीफोन, स्वर्गबान ,अनार, लाईट बम , सुतली बम के नामों से मिलने वाले अद्भुत आइटमों की खरीद होती रहती -एक पुराना परित्यक्त थोड़ा टूटा सा बक्सा हमें मिल गया था उसी में यह खजाना संचित होता रहता। यह बक्सा एक साथी के पुराने घर के कोठिला (अन्न संग्रह पात्र ) वाले अँधेरे कमरे में सुरक्षित रखा जाता। मुझे खुद के ऐसे तीन वाकये याद हैं जिसमें मैं पटाखों से घायल हुआ हूँ।बाल्यावस्था ,किशोरावस्था और युवावस्था तीनों काल के हादसे की कटु स्मृतियाँ हैं। युवावस्था वाली तो अति उत्साह आत्मविश्वास के चलते हुई.महा मूर्खता कि हाथ में पटाखा जलाकर उसे झट से दूर फेंक देना -मगर यह तो 'तेज आवाजा" बम था न -जैसे ही पलीते में आग लगी मैंने दूर झटका मगर यह क्या हुआ -तत्क्षण तेज धमाका और आँखों के आगे अँधेरा। बम हाथ में ही फट चुका था -हथेली जख्मी हो गयी थी जो कई दिनों रुलाती रही।

लिहाजा हाथ में लेकर कोई भी पटाखा/बम फिर से न छुड़ाने का कसम खाया गया। बाकी की दो दुर्घटनाएं बाल अन्वेषी प्रकृति की देन ही थीं जिसमें विभिन्न पटाखो के मिश्रण से एक नयी फुलझड़ी बनायी जा रही थी -मगर उस बड़े हादसे में हम बालगण बाल बाल बचे थे मगर मेरी हथेली के जख्म चिन्ह आज भी उस त्रासदी की स्मृति शेष है।

एक और स्मृति कौंध आई है। मेरे यहाँ दीपावली के दिन इस त्यौहार को न मनाकर एकादशी के दिन मनाया जाता था। ठीक दिवाली के ही दिन कोई बुजर्ग कोई पचास एक वर्ष पहले चल बसे थे. सो यह दिन अशुभ हो गया था। मैं बहुत व्यग्र रहता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम लोग भी यानी पूरा पुरवा त्यौहार के समय ही इसे मनाये? जब और लोग दीपावली मनाते और फुलझड़ियाँ छुड़ाते तो हम लोग मायूस से हो रहते। मैं, बाबा जी और दूसरे बड़े बुजुर्गों से पूछता कि ऐसा कौन सा उपाय है कि हम भी ठीक इसी दिन त्यौहार मनायें? कहा जाता है कि अगर ठीक इसी दिन गाय को बछड़े का जन्म हो जाए या कोई लड़का जन्म ले ले तो बात बन सकती है.

 मगर मुझे ऐसी किसी घटना के इंतज़ार में वर्षों  बीत गए -अब क्योंकर कोई ऐसा सुयोग बने। एक गाय बियाई भी तो एक दिन बाद। मैंने थोड़ा लाबीइंग की मगर लोग राजी नहीं हुए। अब तक मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ चुका था। मैं बहुत अधीर होता कि काश दीवाली के दिन ही हमारी भी दिवाली होती -वर्ष 1980 के आस पास मैंने बाबा जी से कोई दूसरा उपाय पूछा। बड़े बुजुर्गों की पंचायत बुलाई गयी। तय पाया गया कि अगर ठीक दीपावली के दिन  घर का कोई बुजुर्ग मथुरा जाकर युमना जी में दीपदान कर दे तो बात बन सकती है। मैंने यह बात मानकर बाबा जी, माता जी और पड़ोस के और दो बुजुर्ग परिवारों की यात्रा का भार अपने ऊपर लिया . मथुरा जाकर यमुना जी में दीपदान कराया । लौटते वक्त ताजमहल को देखकर अलौकिकता का अहसास लेकर घर वापस आये. और अगले वर्ष दीवाली समय से मनाई जाने लगी।

मगर एक अड़चन तो रह ही गयी। दीवाली की एक पारम्परिक मान्यता के अनुसार दीपोत्सव के ठीक दूसरे दिन अल्ल्सुबह घरों से महिलायें सूप पीटती हुयी दरिद्र निस्तारण करती थीं ताकि मुए दलिद्दर कहीं कोने अतरे दुबके न रह जायँ। यह कार्यक्रम एकादशी की रात के बाद ही मनाया जाता रहा जबकि दीवाली उस दिन से पहले नियत समय को ही मनाई जाने लगी थी। अब बूढ़ी बुजुर्ग औरतों को कौन समझाये? मैं लाख समझाऊँ कि यह अनुष्ठान दीपावली की रात का ही है मगर वे माने तब न । एक बार मैंने फिर यह बीड़ा उठाया और नयी बहुओं को कनविंस करने लगा। मेरा भी विवाह अब तक हो गया था तो पत्नी को भी इस मुहिम में लगाया -सासू माओं से परेशान एक नयी बहू फ़ौज ने मानो अपनी भड़ास का एक रास्ता निकाल लिया था। इस बार की दीवाली के पटाखों की आवाज अभी भी फिजां में गूँज ही रही थी कि ब्रह्म मुहूर्त में सूपों पर हथेलियों की थप थप की आवाजें आनी  शुरू हो गयीं थीं।

दरिद्र निष्कासन शुरू हो चुका था। भाग दरिद्दर भाग की समवेत आवाजें भी कानों से टकरा रहीं थीं। आज संतोष त्रिवेदी ने जब यह बताया कि उनके यहाँ यह रस्म अभी भी एकादशी के दिन ही होता है तो  उन्हें मैंने  यह संस्मरण सुना दिया और उन्हें उकसाया भी कि  दीपावली के इतने दिन बाद तक भी घरों में दरिद्र बैठाये रहने का क्या मतलब है आखिर ? देखिये वे क्या कर पाते हैं! मैंने तो अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी निभा ली ! :-)

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

आप शर्मिंदा तो नहीं कि कैलाश सत्यार्थी को नहीं जानते?

 फेसबुक पर कई आत्ममुग्ध बुद्ध प्रबुद्ध लोगों ने उपहासात्मक लहजे में टिप्पणियाँ की हैं कि
उन्होंने कैलाश सत्यार्थी का नाम तक नहीं सुना -जैसे उनका यह उद्घोष हो कि अगर बन्दे को मैं नहीं जानता तो फिर उसकी  कोई काबिलियत ही नहीं है . प्रकारांतर से वे नोबेल की उनकी वैधता पर उंगली उठा रहे हैं। जानता तो मैं भी नहीं था उन्हें कल तक, किन्तु इसलिए शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ -उन कारणों के विवेचन में लगा हूँ कि ऐसे शख्स को जिसने भारत ही नहीं दुनिया के सैकड़ों देशों में बाल शोषण के विरुद्ध अलख जगायी और इस दिशा में ठोस काम किया, क्यों इतना अनजाना सा रह गया अपने ही देश में। सबसे पहले तो मैं अपना ही दोष मानता हूँ कि मेरी जागरूकता की कमी रही -मैं अपने संकीर्ण दायरों से बाहर न निकल सका या फिर इनके कार्यों को महज एक आम सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा किये जा रहे कार्यों के रूप में ले लिया-यह नाम दिमाग में जगह नहीं बना सका।

मगर मैं अन्य कारणों को भी समझना चाहता हूँ जिससे यह शख्स इतने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद भी अनजाना रहा? क्या अपने देश की मीडिया की भूमिका कटघरे में है? या देश के शासक वर्ग की अनदेखी? या फिर कोई और कारण ? फिर कैलाश सत्यार्थी का कार्य सचमुच इतना उल्लेखनीय नहीं रहा और महज वैश्विक राजनीतिक कारणों से यह पुरस्कार महानुभाव की झोली में टपक पड़ा है? कल से दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा है! हमारे देश में नेता और अभिनेता के  सिवा सेलिब्रिटी होना किसी अपवाद से कम नहीं है। विदेशी संस्थानों को हमारे यहाँ के दूसरे तीसरे दरजे के क़ाबिल लोगों जैसे वैज्ञानिकों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं की  भले ही सुधि हो आए। 

एक और बात है अब मीडिया और शासकीय वर्ग भी सत्यार्थी के विरुदावली गायन में जुट गया है मगर यह सदाशयता उन दिनों कहाँ थी जब इन्हे इसकी बहुत जरुरत रही होगी? भारत में यह पुरानी बात है कि जब तक हमारा कोई अपना पश्चिम से सम्मानित और अनुशंसित नहीं होता हम उसे तवज्जो नहीं देते? परमुखापेक्षता का यह विद्रूप उदाहरण है।इस  देश को अपनी प्रतिभाओं की न तो पहचान है और न ही कद्र। बेकदरी से जूझते अकुलाये वैज्ञानिक  और दीगर प्रतिभायें  विदेश का  रुख करती हैं। यहाँ प्रतिभाओं पर जंग लगती जाती है।  यहां प्रतिभा पलायन साथ प्रतिभाओं के जंग खाते जाने की विकराल समस्या रही है। 

अब लोगों में आत्मगौरव का जज्बा चढ़ रहा है कि वाह देखो भारत को और एक नोबेल मिल गया -मित्रों, यह सम्मान केवल और केवल सत्यार्थी का है -यह उनकी अतिशय उदारता है जो उन्होंने भारतीयों को इसका उत्तराधिकारी कहा है। सच तो यह है कि भारत का राजनीति और लालफीताशाही से दूषित परिवेश और हमारा चिर आत्मकेंद्रित समाज ऐसे पुरस्कारों की कूवत नहीं रखता -हाँ उसका श्रेय लेने को हम बढ़ चढ़ के दौड़ पड़ते हैं ! बेशर्मी की  हद तक। 

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हिन्दी ब्लॉगों की अस्मिता का सवाल!

अभी कल ही नए ब्लॉग संग्राहक ब्लॉग सेतु के संचालक केवल राम जी ने अपने फेसबुक वाल पर मेरे ब्लॉग क्वचिदन्यतोपि का हेडर लगा कर मित्रों से इस नाम पर उनकी प्रतिक्रिया पूछी थी। अभी कोई प्रतिक्रिया आयी भी न थी कि सहसा मैंने उसे देख लिया और थोड़ा असहज हो गया। क्योकि एक तो यह शब्द लोगों की जुबान पर सहजता से चढ़ता नहीं है दूसरे अब यह पुराने ज़माने का ब्लॉग हो गया -लोग याद भी काहें रखें। मुझे केवल राम जी की सदाशयता पर किंचित भी संदेह नहीं है फिर मुझे यह भी डर लगा कि कहीं कोई टिप्पणी न आने से मेरी बेइज्जती न खराब हो जाय -लोग कहें कि ई लो देखो बड़े बनते हैं बड़का ब्लॉगर और आज कोई पूछने वाला भी नहीं है -अब हम लाख कहते कि भाई मैं कोई गुजरा वक्त भी नहीं जो आ न सकूँ मगर कोई काहें को मानता। कई मित्रगण तो आज भी गाहे बगाहे मेरी खिंचाई पर ही लगे रहते हैं। अब लोगों को मौका न मिले यही सोचकर मैंने जल्दी से वहां एक झेंपी हुयी टिप्पणी चिपका ही तो दी। अब यह पोस्ट टिप्पणी विहीन तो नहीं रहेगी। शर्मनाक स्थिति से कुछ तो राहत मिलेगी।

बहरहाल कुछ समय बाद ही वहां ब्लॉग शिरोमणि अनूप शुक्ल जी का आगमन हो गया और उन्होंने मेरे सम्मान की कुछ रक्षा कर दी -क्वचिदन्यतोपि के अर्थादि को लेकर मेरे ब्लॉग पोस्ट वहां लगाए -यह अनूप जी की विशिष्ट विशेषता है -ब्लॉग के आदि(म) पुरुषों में से हैं वें और ब्लॉग साहित्य की कालजीविता के लिए प्राणपण से जुटे रहते हैं -दोस्त दुश्मन में कोई भेद किये बिना। और महानुभाव ब्लॉगों के चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया भी हैं अलग। वे इस माध्यम/विधा को आगे ले चलने को सदैव तत्पर रहते हैं। मुझे आश्चर्य है कि उनके इस महनीय योगदान के बाद भी देश के नामी गिरामी पुरस्कार देऊ संस्थायें उन तक क्यों नहीं पहुँच रहीं। अब तो मुझे लगता है अनूप जी को खुद एक बड़का पुरस्कार घोषित कर देना चाहिए -कम से कम बीस पच्चीस हजार का -इतना वेतन तो पाते हैं वे अब कोई लाख सवा लाख रूपये मासिक तो जरूर ही. ऐसे और कई महानुभाव हैं नाम नहीं ले सकता क्योकि उनसे इतनी स्वच्छंदता नहीं ले सकता जितनी अनूप जी से मगर आह्वान है कि वे भी आगे आएं और एक फंड स्थापित किया जाय जो अच्छे युवा ब्लागरों को पुरस्कृत कर सके। मैं भी अकिंचन योगदान दे सकता हूँ। अपने सतीश सक्सेना जी भी इस पुनीत कार्य में पीछे न रहगें!

अब वक्त यही है कि पहली पीढ़ी के ब्लॉगर आएं और इस माध्यम/विधा को प्रोत्साहित करने को अपनी टेंट ढीली करें ताकि ब्लागिंग का टेंट फिर मजबूती से गड जाए। मैं उन मन को बहलाने वाले विचारों से कतई सहमत नहीं हूँ कि आज भी ब्लागिंग की रौनक कायम है, ब्ला ब्ला ब्ला। अब समय है हम अपना आर्थिक योगदान भी सुनिश्चित करें अन्यथा हिन्दी ब्लागिंग पर उमड़ते संकट को देखा जा सकता है। मुद्रण माध्यम में छपास का मोह और फेसबुक इसे ले डूबने वाला है। तो ब्लागिंग के अग्रदूतों का आह्वान है कि वे इस संकट की बेला में कोई ठोस आर्थिक प्रस्ताव लेकर आएं और हम सब मिल बैठ कर उसे कार्यान्वित करें -एक ख़ास ब्लॉग बैठकी इस काज के लिए भी आहूत की जा सकती है। आप सभी के विचार आमंत्रित हैं -खुदगर्जी से तनिक आगे बढ़ें और ब्लॉग बहुजन हिताय कोई ठोस काम करें!

अंतर्जाल ने हमें मौका दिया अपने परिचय के वितान को विस्तारित करने का -आज हम चंद वर्षों में ही कितने परिचय समृद्ध हो चुके हैं। चिर ऋणी हैं अंतर्जाल के जिसने कितने ही सुदूर क्षेत्र और रुचियों के लोगों को एक साथ ही ला खड़ा नहीं किया, आजीवन प्रगाढ़ संबंधों की नींव भी रख दी। हाँ इस मौके पर कुछ मित्र मुझे शिद्दत से याद आ रहे हैं जो अंतर्जाल से छिटक कर दुनिया की भीड़ में खो गए हैं -मगर कोई बात नहीं -कोई तो मजबूरी रही होगी वार्ना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता। हाँ अगर उन तक भी यह बात संदेशवाहकों या समकालीन नारदों के जरिये पहुंचे तो उनका भी स्वागत है अगर वे जुड़ना चाहें इस मुहिम में! अज्ञात रहकर भी लोग यथायोगय गुप्तदान कर सकते हैं।

केवल राम जी, आप से बस इतना ही कहना कि आप की युक्ति कामयाब रही। गांडीव उठवा दिया आपने और अनूप जी आपको भी शुक्रिया कि क्वचिदन्यतोपि के बंद करने की (मिथ्या ) घोषणा करके आपने मुझे प्रतिवाद करने को उकसा दिया। मगर मेरे प्रस्ताव पर ध्यान जरूर दीजिये और मित्रगण भी अपने विचार यहाँ प्रगट करें और कुछ दान दक्षिणा दे सकते हों तो सलज्ज /निर्लज्ज होकर कहें भी -क्योकि यह हिन्दी ब्लॉगों की अस्मिता का सवाल है।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

एक अदद उद्धव की तलाश है!

कभी कभी सोचता हूँ कृष्ण को आखिर उद्धव की जरुरत ही क्यों पडी होगी ? गोपियों से अपने गोपन संबंधों को किसी और से साझा करना? और इसकी इतनी जरुरत भी क्या थी द्वारिकाधीश को? फिर उद्धव की जरुरत इसलिए भी नहीं समझ आती कि वे तो खुद लीला पुरुष थे और इसलिए हर पल हर वक्त सर्वगामी सर्वव्याप्त भी। वे अपनी योगमाया से द्वारिका और मथुरा -वृन्दावन एक साथ ही रह लेते। उनके लिए यह कहाँ असंभव था? अब अध्यात्मवादी यहाँ यही जवाब देगें कि यह तो उनकी 'लीला' भर थी. सचमुच यह लीला ही रही होगी और वे गोपियों और राधा के प्रति थोड़ा नैतिक आग्रह भी रखते रहे होगें -यह कृष्ण का एक उज्ज्वल पक्ष लगता है। और इसलिए अपने एक अति विश्वस्त सखा को उन्होंने संदेशवाहक बना कर भेजा।

अब आज के विरही प्रेमियों जैसी आशंका उन्हें थोड़े ही रही होगी कि उद्धव कहीं अपनी ही दाल न गलाने लग जायं । उद्धव ने प्रयास भी किया हो तो कृष्ण -प्रेमिकाओं ने एकदम से इस संभावना को निर्मूल कर दिया और कहा की हे उधो मन दस या बीस नहीं होते -हताश निराश उधो की इसके बाद की कथा का कोई खास इतिहास नहीं मिलता। पता नहीं वे लौट कर कृष्ण के पास गए भी या नहीं। गोपियों का कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण का यह एक प्रमाण है। मगर कृष्ण का प्रेम? छलिया कृष्ण?

मगर एक नैतिकता तो थी ही उनमें -कुछ तो खुद को जवाबदेह समझा गोपियों का -सोचा होगा बिचारियां वियोग में तड़प रही होगीं। तो खुद क्या जाना अब, किसी संदेशवाहक को ही भेज दो. बस इतनी नैतिकता से काम चल जायेगा। भोले लोगों को और क्या चाहिए? उन्हें मनाना कित्ता तो आसान होता है। उन्हें यह भी फ़िक्र थोड़े ही थी कहीं उद्धव अपना किस्सा चलाये तो चलायें मेरी बला से। और फिर इतना घणा सखा तो रहा है मेरा आखिर प्रेम रस -रास से यह भी इतना अछूता क्यों रहे बिचारा। इधर बिचारा उधर कितनी ही बिचारियां-कोई चक्कर वक्कर चल भी जाय तो थोड़ा इसका भी कल्याण हो जायेगा। तो कृष्ण की एक नैतिकता अपने सखा के प्रति भी रही होगी।

मुझे लगता है कृष्ण और गोपियाँ हर देश काल में रही हैं। मगर कोई उद्धव नहीं दिखता। लव जिहाद का युग है। सब कुछ खुद करने कराने का ज़माना है नहीं तो बात बिगड़ सकती है। मुझे लगा कि उद्धव की खोज होनी चाहिए। किसी कोने अतरे में हो सकता है सिमटा दुबका मिल ही जाय। मैंने अपने मित्रों में से तलाशा। एक ने तो तत्काल इस उद्धव वालंटियरशिप का ऑफर स्वीकार कर लिया। उसने अतीव उतावलेपन से तुरंत पूछा जाना कहाँ और किसके पास होगा?

मगर उसकी तत्परता ने मुझे उसके सख्यपन को लेकर गंभीर आशंका में डाल दिया -नहीं नहीं यह मेरा उद्धव नहीं हो सकता। मुझे पुरुष मित्रों में से कोई उपयुक्त नहीं लगा उद्धव बनने के लिए। एक मित्राणी ब्लॉगर ने वालंटियर बनने का आग्रह किया। मगर यहाँ भी खतरा है -गोपियाँ और राधा तो जल भुन जायेगीं -क्या क्या न कह डालें मेरी मित्र को -कलमुंही वगैरह वगैरह जैसी अनुचित बातें -अपने कुनबे में तो ठीक मगर किसी बाहरी को तो वे रकाबा ही समझ जाएगीं-नहीं नहीं यह तो जले पर नमक जैसा हो सकता है। फिर वे तो जन्म से ही संशयवादी हैं -ह्रदय हमेशा आशंकाओं से धड़कता रहता है छलिया कृष्ण को लेकर। तो यह महिला मित्र का ऑफर भी जाँच नहीं रहा?

एक विश्वसनीय और उपयुक्त उद्धव की तलाश है जो गोपियों को असहज न करे -मेरी कोई मदद कर सकते हैं आप ?

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

पारम्परिक मीडिया बनाम सोशल मीडिया: नए आयाम, नई चुनौतियां! ( परिप्रेक्ष्य: हिन्दी दिवस)


मानव के विकास में उसके शिकारी जीवन के आदि हुंकरणों से शुरू हुई अभिव्यक्ति की महायात्रा के भाषाई पड़ावों का अध्ययन बहुत रोचक है। मनुष्य ने संवाद की दिशा में संकेतों/शिकारों ,हाव भाव(gestures ) का सहारा लेते हुए भाषिक संवाद की भी जो क्षमता विकसित की वह समूचे जीव जगत की अनूठी घटना है। एक सामजिक प्राणी के रूप में भाषाई ईजाद ने बोलियों वाक्यों की संरचना मार्ग प्रशस्त किया और मनुष्य आपसी संवाद समन्वय से विकास की एक अनन्य मिसाल कायम कायम की। अब उसके पास भावों के आदिम प्रगटन की भाव भंगिमाओं और अभिव्यक्ति के शैल चित्रीय या भोजपत्रीय माध्यमों के अलावा एक तेजी से विकसित हो रही भाषा का भी सहारा था जिसमें विश्व के प्राचीनतम वैदिक साहित्य की वाचिक और श्रुति परम्परा से आरम्भ होकर आज के डिजिटल मीडिया तक का इतिहास समाहित है। वाचिक / श्रुति परम्पराओं से आगे लेखन और मुद्रण तक का इतिहास सहज ही ज्ञेय है। मुद्रण माध्यमों ने जहां समाचार पत्र पत्रिकाओं,पुस्तको के जरिये जन संवाद का नया अध्याय शुरू किया वहां प्रसारण माध्यमों में दृश्य और श्रव्य दोनों तरीकों का खूब विकास हुआ -सिनेमा और आकाशवाणी ने जन संवाद की नई मिसालें कायम की। मीडिया के इन विविध रूपों से आम समाज पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर तरह तरह आशंकाएं भी उठती रही हैं।
मीडिया और जन मानस

मीडिया के बारे में अक्सर यह बात कही जाती रही है कि वह जन विचारों को प्रभावित कर सकती है और समूह 'ब्रेन वाश' करने में भी सक्षम है। यहाँ तक कि विचारों को भी एक केंद्रीय कंट्रोल /कमांड के जरिये संचालित और नियमित भी किया सकता है. इन कथानकों पर कई कई साइंस फिक्शन फ़िल्में और उपन्यास आधारित हैं जो जनमानस और मीडिया के पारस्परिक अंतर्सबंधों की विविध संभावनाएं प्रगट करते हैं। जार्ज आर्वेल ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 1 9 8 4 में 'बिग बास इज वाचिंग यू' जैसे दहशत भरे तकनीकी दुरूपयोग की ओर इशारा किया था। विगत डेढ़ दशक से नई मीडिया -डिजिटल मीडिया का वर्चस्व दिन दूनी रात चौगुनी दर बढ़ा है जिसकी ऑफशूट है -सोशल मीडिया। सोशल मीडिया कम्प्यूटर क्रान्ति की देन है। डिजटल दुनिया का एक नया जिन! अब सोशल मीडिया की लोक गम्यता क्या क्या गुल खिला रही है यह छुपा नहीं है. खाड़ी देशों की सद्य संपन्न जन क्रांतियाँ गवाह हैं। अभी संपन्न सामान्य निर्वाचन में भी सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल हुआ है। जिसके जन प्रभावोत्पादकता के मुद्दे पर बहस अभी भी जारी है।

चिट्ठे और सोशल मीडिया

अंतर्जाल पर जब हिन्दी ब्लॉगों का प्रादुर्भाव कोई एक दशक पहले नियमित तौर पर शुरू हुआ तो लगा अभिव्यक्ति के नए पर उग गए हैं। सृजनशीलता और अभिव्यक्ति जो अभी तक 'क्रूर' संपादकों के रहमोकरम पर थी सहसा एक नयी आजादी पा गयी थी। कोई क़तर ब्योंत नहीं -अपना लिखा खुद छापो। अंतर्जाल ने लेखनी को बिना लगाम के घोड़े सा सरपट दौड़ा दिया। खुद लेखक खुद संपादक और खुद प्रकाशक। लगा कि अभिव्यक्ति की यह 'न भूतो न भविष्यति' किस्म की आजादी है। अब संपादकों के कठोर अनुशासन से रचनाधर्मिता मुक्त हो चली थी ,लगने लगा। किन्तु आरंभिक सुखानुभूति के बाद जल्दी ही कंटेंट की क्वालिटी का सवाल उठने लगा. हर वह व्यक्ति जो कम्प्यूटर का ऐ बी सी भी जान गया पिंगल शास्त्री वैयाकरण बन बैठने का मुगालता पाल बैठा। नतीजतन 'सिर धुन गिरा लॉग पछताना' जैसी स्थिति बन आई. ब्लॉग को साहित्य मान बैठने का भ्रम टूटने लगा है -यह एक माध्यम भर है या फिर साहित्य की एक विधा इस विषय पर भी काफी बहस मुबाहिसे हो चुके।

क्या हिन्दी ब्लॉगों के अवसान की बेला आ गई ?

लगता है हिन्दी ब्लॉगों का अवसान आ पहुंचा है? -उनकी पठनीयता गिरी है -कई पुराने मशहूर ब्लॉगों के डेरे तम्बू उखड चुके हैं -वहां अब कोई झाँकने तक नहीं जाता। हाँ यह जरूर हुआ कि कई रचनाकारों को ब्लॉग और फेसबुक के चलते पारम्परिक मुद्रण मीडिया में पहचान मिली और उन्होंने इस नए मीडिया को लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया। किन्तु अंतर्जाल पर अपने चुटीले कार्टूनों से ब्लॉग जगत में विशिष्ट पहचान बनाने वाले काजल कुमार का कहना है कि "ब्‍लॉग और सोशल मीडि‍या आज भी अत्‍यंत सशक्‍त माध्‍यम हें. आज भी तथाकथि‍त ग्‍लैमर वाला मीडि‍या, ब्‍लॉगों और सोशल मीडि‍या की ख़बरों के बि‍ना जी नहीं पा रहा है. जब कुछ घटता है तो लोग उसी समय नवीनतम जानकारी के लि‍ए सोशल मीडि‍या पर लॉगइन करते हैं क्‍योंकि‍ यह त्‍वरि‍त है.बात बस इतनी सी है कि‍ जो लोग अख़बारों/पत्रि‍काओं में छप नहीं पा रहे थे उनके लि‍ए ब्‍लॉग एक नई हवा का झोंका लाया, ब्‍लॉगिंग को उन्‍होंने स्‍प्रिंगबोर्ड की तरह प्रयोग कि‍या और फि‍र वे यहां-वहां छपने लगे. उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. दूसरे, आत्‍मश्‍लाघापीड़ि‍तों ने परस्‍पर-प्रशंसा के लि‍ए अपने-अपने गुट बना लि‍ए और मि‍ल-बांट कर आपस में छप और पढ़ रहे हैं. यह स्‍टॉक एक्‍सचेंज की ऑटोकरेक्‍शन जैसा है. इन सबसे, बहुत ज्‍यादा कुछ अंतर नहीं आने वाला... ब्‍लॉगिंग की अपनी जगह है बरसाती मेढक आते-जाते ही रहते हैं." अखबार भी जन मानस में पैठ बनाये हुए हैं। हाँ व्यापक रीडरशिप पाने के लिए कई मीडिया समूह अब अंतर्जाल पर भी जाकर अपना वर्चस्व बना लिए हैं।

डिजिटल डिवाईड

अंतर्जाल की सुविधा सहूलियत कितनो के पास है ? यह सवाल मौजू है। कितने लोगों के पास कम्प्यूटर और कनेक्टिविटी है ? बिजली की क्या उपलब्धता है -यही वे कारण हैं जिनसे यह आशंका बलवती हुयी की तकनीकी संचार से दो तरह की दुनिया वजूद में आ रही है -एक जिसके पास अंतर्जाल तक की पहुँच है और एक जिसके लिए अभी भी अंतर्जाल एक स्वप्न है -समाज में विषमता की एक नयी खाईं गहराती नज़र आ रही है -और जन सुविधाओं का आबंटन भी कहीं इस डिजिटल डिवाईड पर आधारित न हो जाय ? वह प्रौद्योगिकी ही क्या जो जन सुलभ और बहुजन सुखाय बहुजन हिताय न हो ? ये सारे सवाल आज विचार मंथन के मुद्दे बने हुए हैं। यह सही है कि पारम्परिक मीडिया भी ऐसी सम्भावनाओं की आहट पाकर अब अपने को अंतर्जालीय संस्कृति की ओर मोड़ रहा है मगर यह भी सच है कि अंतर्जाल तक अभी भी जान सामान्य की पहुँच नहीं हो पायी है। मगर सोशल मीडिया ने एक संचार क्रान्ति का बिगुल जरूर फूँक दिया है!

फेसबुक का बढ़ता वर्चस्व

फेसबुक पर आबाद होने वाले ब्लागरों की संख्या काफी ज्यादा हो चुकी है .वे भी जो कभी पानी पी पी कर फेसबुक को कोसते और उसकी सीमाओं को रेखांकित करते रहते थे अब फेसबुक पर विराजमान ही नहीं काफी सक्रिय हो चले हैं और ब्लागिंग को खुद हाशिये पर डाल चुके हैं .तथापि उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता क्योकि यह 'मानवीय भूल ' बहुत स्वाभाविक थी और वे इस डिजिटल मीडिया की अन्तर्निहित संभावनाओं को आंक नहीं पाए थे जबकि इस विषय पर कई बार मित्र ब्लागरों का ध्यान आकर्षित किया गया था। आज भी यह बल देकर कहा जा सकता कि कि फेसबुक में ब्लागिंग से ज्यादा फीचर्स हैं और यह ब्लागिंग की तुलना में काफी बेहतर है .बहुत ही यूजर फ्रेंडली है . अदने से मोबाईल से एक्सेस किया जा सकता है .भीड़ भाड़ ,पैदल रास्ते ,बस ट्राम ट्रेन ,डायनिंग -लिविंग रूम से टायलेट तक आप फेसबुक पर संवाद कर सकते हैं . ज़ाहिर है यह सबसे तेज संवाद माध्यम बन चुका है . महज तुरंता विचार ही नहीं आप बाकायदा पूरा विचारशील आलेख लिख सकते हैं और गंभीर विचार विमर्श भी यहाँ कर सकते हैं। आसानी से कोई भी फोटो अपडेट कर सकते हैं . वीडियो और पोडकास्ट कर सकते हैं . ब्लॉगर मित्र तो इसे अपने ब्लॉग पोस्ट को भी हाईलायिट करने के लिए काफी पहले से यूज कर रहे हैं . वे पिछड़े हैं जो ब्लागिंग तक ही सिमटे हैं!

नाम अनेक काम एक 
दरअसल ब्लागिंग या सोशल नेटवर्क साईट्स -फेसबुक ,ट्विटर आदि सभी वैकल्पिक मीडिया/सोशल मीडिया /नई मीडिया /डिजिटल मीडिया (नाम अनेक काम एक ) की छतरी में आते हैं और मुद्रण माध्यम की तुलना में आधुनिक और बहुआयामी हो चले हैं .मुझे हैरत है कि लोग यहाँ आकर फिर उसी 'मुग़ल कालीन' युग में क्यूंकर लौट रहे हैं . मुद्रण माध्यमों की पहुँच इतनी सीमित हो चली है कि एक शहर के अखबार /रिसाले में क्या छपता है दूसरे शहर वाला तक नहीं जानता . मतलब मुद्रण माध्यम हद दर्जे तक सीमित भौगोलिक क्षेत्रों तक ही सिमट कर रह गए हैं . मजे की बात देखिये जो मुद्रण माध्यम में अपनी समझ के अनुसार कोई बड़ा तीर मार ले रहे हैं वे उसे भी फेसबुक पर डालने से नहीं चूकते!

पैसा कमाना एक आनुषंगिक उपलब्धि हो सकती है मगर वह हमारे सामाजिक सरोकार को भला कैसे धता बता सकता है? हम ब्लागिंग या डिजिटल मीडिया में क्या केवल चंद रुपयों की मोह में आये थे? जो अब यहाँ नहीं पूरा हुआ तो मुद्रण माध्यम की ओर वापस लौट लिए?या फिर डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल खुद को प्रोजेक्ट करने के लिए किया और फिर इसे भुनाने मुद्रण माध्यम की ओर लौट चले जैसा कि दिनेश जी ने कहा ? मुफ्तखोर मुद्रण मीडिया तो अब खुद डिजिटल मीडिया के भरोसे पल रहा है -यहाँ से हमारी सामग्री बिना पूछे पाछे उठाकर छाप रहा है। आह्वान है कि इस डिजिटल मीडिया को छोड़कर कहीं न जाएँ . आज का और आने वाले कल का मीडिया यही है, यही है!

सोशल मीडिया की अनेक नेटवर्किंग साईट या फिर ब्लॉग अपने कंटेंट/ फीड की नेट वर्किंग के चलते एक प्रमुख सोशल मीडियम बन कर उभरा है . यहाँ कोई ख़ास प्रतिबन्ध नहीं है या बिल्कुल भी प्रतिबन्ध नहीं है .किन्तु यही खतरे की सुगबुगाहट है .....इसके दुरूपयोग की संभावनाएं हैं -साईबर आतंकवाद की भयावनी संभावनाएं हैं .जिसकी एक बानगी अभी हम बड़ी संख्या में शहरों से लोगों के असम पलायन के रूप में देख चुके हैं -एक दहशतनाक मंजर! ...ऐसी अफवाहें और भी संगठित रूप से किसी भी मसले को लेकर फिर फैलाई जा सकती है -सारे देश में अफरा तफरी का माहौल बन सकता है -यह साईबर आतंकवाद की एक छोटी सी मिसाल है ,झलक है .हमें सावधान रहना है .

इंटेलिजेंट मशीनें
तकनीक के दुरूपयोग को भयावह दानव का मिथकीय रूप दिया जा सकता है ...इस अर्थ में तकनीक को हमेशा चेरी की ही भूमिका में रहने को नियमित करना होगा ,कभी भी स्वामिनी न बने वह ..(जेंडर सहिष्णु लोग इसे स्वामी या दास शब्द के रूप में कृपया गृहीत कर लें) ..और अब तो स्मार्ट प्रौद्योगिकी वाली इंटेलिजेंट मशीनें भी आ धमकने वाली हैं जिसके पास खुद अपने सोचने समझने की क्षमता होगी -आगे चल कर इनमें संवेदना भी आ टपकेगी ...तब तो इन पर नियंत्रण और भी मुश्किल होगा -दूरदर्शी विज्ञान कथाकारों ने ऐसी भयावहता को पहले ही भांप लिया था ...इसाक आजिमोव ने इसलिए ही बुद्धिमान मशीनों पर लगाम कसने का जुगत लगाया था अपने थ्री ला आफ रोबोटिक्स के जरिये -जिसका लुब्बे लुआब यह कि कोई मशीन मानवता को नुकसान नहीं पहुंचा सकती ..मनुष्य के आदेश का उल्लंघन भी कर सकती है अगर मानवता का नुकसान होता है तो ....वैज्ञानिक ऐसी युक्तियों पर काम कर रहे हैं जिससे मशीनें बुद्धिमान तो बनें मगर मनुष्यता की दुश्मन न बने ....ऐसे नियंत्रण जरुरी हैं खासकर आनेवाली बुद्धिमान मशीनों के लिए .मगर आज भी जो मशीनें हैं ,अंतर्जाल प्रौद्योगिकी की कई प्राविधि -सुविधाएं हैं उन पर भी एक विवेकपूर्ण नियंत्रण तो होना ही चाहिए -मगर यह हम पर ही निर्भर हैं -हम इसका सदुपयोग करते हैं या दुरूपयोग!


आज सोशल मीडिया अपने शुरुआती स्वरुप यानी निजी संपर्क /अभिव्यक्ति से ऊपर आ सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ चुका है .आज कितने ही सामुदायिक ब्लॉग हैं और विषयाधारित ब्लॉग हैं -साहित्य ,संगीत ,निबंध, कविता ,इतिहास ,विज्ञान, तकनीक आदि आदि के रूप में ब्लागों/फेसबुक आदि का इन्द्रधनुषी सौन्दर्य निखार पा रहा है .....मानवीय अभिव्यक्ति उद्दाम उदात्त हो उठी है ....मानव सर्जना विविधता में मुखरित हो उठी है ... मगर एक बात मैं ख़ास तौर जोर देकर कहना चाहता हूँ -ब्लॉग मात्र अभिव्यक्ति के माध्यम भर नहीं रह गए हैं अब यह अभिव्यक्ति के एक खूबसूरत और सशक्त विधा के रूप में भी पहचाने जाने की दरख्वास्त भी करते हैं.

माध्यम या विधा
विधाओं के अपने पहचान के लक्षण होते हैं -जैसे कहानी का अंत अप्रत्याशित हो ,ख़बरों का शीर्षक अपनी और खींचता हो ,प्रेम कथाओं में प्रेम पसरा पड़ा हो ....सस्पेंस कथाओं में द्वैध भाव हो ,कहानी(शार्ट स्टोरी ) एक बैठक में खत्म होने जैसी हो ....आदि आदि ..तो ऐसे ही सोशल मीडिया में लेखन की विशेषताओं की भी पहचान और इन्गिति होनी चाहिए --क्या हो ब्लॉग विधा के पहचान के लक्षण ? ? -हम इस पर चर्चा कर सकते हैं -जैसे ब्लॉग पोस्ट ज्यादा लम्बी न हों ,ब्रेविटी इज द सोल आफ विट ....गागर में सागर भरने की विधा हो ब्लॉग ...कुछ लोग लम्बी लम्बी कवितायें ,निबंध ब्लागों पर डाल रहे हैं -कितने लोग पढ़ते हैं? -इसलिए कितने ही नामधारी साहित्यकार यहाँ असफल हो रहे हैं क्योकि उनकी पुरानी हथौटी लम्बे लेखों विमर्शों की है ....एक बार शुरू करेगें तो कथ्य का समापन और क़यामत एक ही समय आये ऐसा जज्बा होता है उनका :-) माईक पकड़ेगें तो छोड़ेगें नहीं..
निष्पत्ति
सोशल मीडिया का लेखन ऐसी ही कुशलता की मांग करता है कि कम शब्दों में अपनी बात सामने रखें ....और यह अभ्यास से सम्भव है ..अनावश्यक विस्तार की गुंजाईश इस विधा में नहीं है .... लेखक की लेखकीय कुशलता का लिटमस टेस्ट है सोशल मीडिया में लेखन ...ट्विटर तो १४० कैरेक्टर सीमा में ही अपनी बात कहने की इजाजत देता है ......किसी ने कहा था यहाँ तो मीडिया और मेसेज का भेद ही मिट गया है ..यहाँ मीडिया ही मेसेज है ...

ब्लॉग भी एक ही पोस्ट में लम्बे चौड़े अफ़साने सुनाने का माध्यम /विधा नहीं है ....हाँ जरुरी लगे तो श्रृंखलाबद्ध कर दीजिये पोस्ट को ...मुश्किल यही है ब्लागिंग के तकनीक के सिद्धहस्त जिनकी संख्या बहुत अधिक है यहाँ ,इसे बस माध्यम समझ बैठने की भूल कर बैठे हैं ....जबकि यह एक विधा के रूप में अपार पोटेंशियल लिए है हम इसकी अनदेखी कर रहे हैं .....आज ब्लागों के विधागत स्वरुप को निखारने का वक्त आ गया है ......हाऊ टू मेक अ ब्लॉग से कम जरुरी नहीं है यह जानना कि हाऊ टू राईट अ ब्लॉग? ....

रविवार, 27 जुलाई 2014

अक्सर ऐसा होता क्यूँ जब कविता लिखने को मन हो आये


अक्सर ऐसा होता क्यूँ जब कविता लिखने को मन हो आये
शुष्क जगत के व्यवहारों से रूठा मन रूमानी हो जाए
प्रीत किसी की लगे छीजने जी अकुलाने को हो आये
तब काव्य देवि के चरणों में ही जा मन कुछ राहत पाये

कैसे कैसे लोग यहाँ जो रीति प्रीति की समझ न पाये
हृदयी आग्रहों को त्यागे बस गुणा गणित हैं अपनाये
भावुकता का मोल नहीं यह बिना मोल की बिकती जाए
दुनियादारी का परचम ही हर दिशा में है अब फहराये

चाह किये अनचाहे की तो कविता ठौर कहाँ पर पाये
आद्र स्पंदनों से दुलरायें तो बंजर में अंकुर उग आये।
संवेदन हो मानव उसकी यही विरासत समझ में आये
पशुवत होता जा रहा आचरण मन को कितना अकुलाये

गीत संगीत की रुनझुन अब रास किसी को ना आये
निज स्वारथ का नशा चढ़ा हर मन को है भरमाये
प्राप्य नहीं था मनुज का यह तो राह वह नित भटका जाए
देख दशा यह कुल की अपने कविता लिखने को मन हो आये


हिन्दी ब्लॉग के अवसान की बेला?

एक मीडिया संस्थान ने आगामी हिन्दी दिवस के लिए मुझे सोशल मीडिया के बढ़ाते प्रभाव पर आलेख भेजने का अनुरोध किया। मैंने आलेख तैयार किया तो उसके कुछ अंश जो हिन्दी ब्लॉगों की मौजूदा स्थिति पर है फेसबुक पर डाला। ताकि मित्रों के विचार भी जान लिया जाय. खुशी हुयी वहां ठीक वैसे ही विचार आने लगे जैसे किसी ज़माने में ब्लॉग पोस्टों पर आया करते थे. आईये आप भी मुजाहरा कीजिये कि हिंदी ब्लॉगों की स्थिति पर हिन्दी के पुरायट ब्लॉगर क्या कहते हैं। यहाँ वही टिप्पणियाँ मैं दे रहा हूँ जो विचारवान लगीं। बाकी के मित्र अन्यथा नहीं लेगें!
मैंने जो कहा -
अंतर्जाल पर जब हिन्दी ब्लॉगों का प्रादुर्भाव कोई एक दशक पहले नियमित तौर पर शुरू हुआ तो लगा अभिव्यक्ति के नए पर उग गए हैं। सृजनशीलता और अभिव्यक्ति जो अभी तक 'क्रूर' संपादकों के रहमोकरम पर थी सहसा एक नयी आजादी पा गयी थी। कोई क़तर ब्योंत नहीं -अपना लिखा खुद छापो। अंतर्जाल ने लेखनी को बिना लगाम के घोड़े सा सरपट दौड़ा दिया। खुद लेखक खुद संपादक और खुद प्रकाशक। लगा कि अभिव्यक्ति की यह 'न भूतो न भविष्यति' किस्म की आजादी है। अब संपादकों के कठोर अनुशासन से रचनाधर्मिता मुक्त हो चली थी ,लगने लगा। किन्तु आरंभिक सुखानुभूति के बाद जल्दी ही कंटेंट की क्वालिटी का सवाल उठने लगा. हर वह व्यक्ति जो कम्प्यूटर का ऐ बी सी भी जान गया पिंगल शास्त्री वैयाकरण बन बैठने का मुगालता पाल बैठा। नतीजतन 'सिर धुन गिरा लॉग पछताना' जैसी स्थिति बन आई. ब्लॉग को साहित्य मान बैठने का भ्रम टूटने लगा है -यह एक माध्यम भर है या फिर साहित्य की एक विधा इस विषय पर भी काफी बहस मुबाहिसे हो चुके। लगता है हिन्दी ब्लॉगों का अवसान युग आ पहुंचा है -उनकी पठनीयता गिरी है -कई पुराने मशहूर ब्लॉगों के डेरे तम्बू उखड चुके हैं -वहां अब कोई झाँकने तक नहीं जाता।
और चुनिंदा प्रतिक्रियायें ये रहीं -
काजल कुमार
"ब्‍लॉग और सोशल मीडि‍या आज भी अत्‍यंत सशक्‍त माध्‍यम हें. आज भी तथाकथि‍त ग्‍लैमर वाला मीडि‍या, ब्‍लॉगों और सोशल मीडि‍या की ख़बरों के बि‍ना जी नहीं पा रहा है. जब कुछ घटता है तो लोग उसी समय नवीनतम जानकारी के लि‍ए सोशल मीडि‍या पर लॉगइन करते हैं क्‍योंकि‍ यह त्‍वरि‍त है.
बात बस इतनी सी है कि‍ जो लोग अख़बारों/पत्रि‍काओं में छप नहीं पा रहे थे उनके लि‍ए ब्‍लॉग एक नई हवा का झोंका लाया, ब्‍लॉगिंग को उन्‍होंने स्‍प्रिंगबोर्ड की तरह प्रयोग कि‍या और फि‍र वे यहां-वहां छपने लगे. उनकी मनोकामना पूर्ण हुई. दूसरे, आत्‍मश्‍लाघापीड़ि‍तों( ) ने परस्‍पर-प्रशंसा के लि‍ए अपने-अपने गुट बना लि‍ए और मि‍ल-बांट कर आपस में छप और पढ़ रहे हैं. यह स्‍टॉक एक्‍सचेंज की ऑटोकरेक्‍शन जैसा है. इन सबसे, बहुत ज्‍यादा कुछ अंतर नहीं आने वाला... ब्‍लॉगिंग की अपनी जगह है बरसाती पतंंगे आते-जाते ही रहते हैं"
वाणी गीत
"हिंदी ब्लोगिंग में जो गंभीर पाठक अथवा लिखने वाले थे , वे अब भी लिख पढ़ रहे हैं . कुछ लोग सिर्फ अपने को रौशनी में बनाये रखने के लिए जानबूझकर विचार विमर्श के नाम पर लडाई झगडे का माहौल बनाये रखते थे , कुछ अंग्रेजीदां ब्लॉग्स भी थे जिन्होंने जानबूझकर हिंदी ब्लॉगिंग को नुकसान पहुँचाने के लिए विषाक्त माहौल पैदा किया जिससे संवेदनशील ब्लॉगर्स ने अवश्य विदा ली , कुछेक गंभीर ब्लॉगर अपनी इतर जिम्मेदारियों के चलते दूर हुए तो कुछ अर्थ/नाम के लिए प्रिंट लेखन में उतरे .. मगर ब्लॉग पढने वाले बने हुए है , लिखने वाले भी!"
आशीष श्रीवास्तव
मेरे ब्लाग पर दैनिक ८०० लोग आते है, वह भी जब इसमे नया लेख महिने मे एक बार आता है.... ब्लाग जिवित है.... रचनाकार के आकड़े देख लिजीये .. वैसे आपने अपनी पढे जाने वाले ब्लागो की सूची कब नविनीकृत की थी ? नये ब्लाग आये है.... नये बेहतरीन लेखक....
शिखा वार्ष्णेय
जो लिखने वाले थे वे आज भी बने हुए हैं, और पढ़े भी जा रहे हैं. हाँ जिनका उद्देश्य कुछ और था वे छट गए हैं परन्तु इससे ब्लॉगिंग को कोई हानि नहीं हुई है. ऐसा लगता है कि ब्लॉग अब कोई लिखता पढता नहीं क्योंकि पुराने जिन लोगों के हम अभ्यस्त थे उनमें से कम दीखते हैं. परन्तु नए लिखने वाले भी आये हैं और पढ़ने वाले भी पठनीय ब्लॉग्स की रीडरशिप आज भी बनी हुई है.
सलिल वर्मा
दरसल जिस दुर्दिन की बात आपने कही है वो तो चिट्ठाजगत बन्द होने के बाद ही शुरू हो गया था... टॉप टेन की दौड़ ने बहुत दौड़ाया लोगों को... लेकिन जो उस दौड़ से बाहर ईमानदारी से लिख रहे थे, वे अब भी लिख रहे हैं और उन्हें इससे कोई अंतर नहीं पड़ा. हाँ फेसबुक को ही अब लोगों ने ब्लॉग का पर्याय बनाकर यहीं पर पोस्ट ठेलना शुरू कर दिया है! यहाँ भी वही होड़ लगी है!!ब्लॉग के सूनेपन का स्यापा करने वाले सारे लोग एक बार अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि क्या वे पढने का समय निकाल पाते हैं ब्लॉग पढने का?? चुँकि वो नहीं लिखते, इसलिये पढते भी नहीं! और पढते भी तब हैं जब अपना कुछ पोस्ट करना होता है!!तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाऊँ - यह मुहावरा ब्लॉग जगत की देन है.. लेकिन कितनों ने इसे झूठ साबित करने की ईमानदार कोशिश की है!!
रविशंकर श्रीवास्तव (रतलामी जी )
आपका कहना है कि ब्लॉगों की पठनीयता गिरी है - जबकि हुआ इसके उलट है. जब हमने शुुरुआत की थी तो दिन में 10 लोग पढ़ते थे - वह भी जब कुछ नया लिखो. अब तो गूगल सर्च से ही पुराना माल हजारों की संख्या में पढ़ा और उपयोग किया जा रहा है!
निशांत मिश्र
ब्लॉगिग को लेकर लोगों में जो जोश था वह नदारद है. एक नई क्रॉप आई है ब्लॉगिंग में जो इससे होने वाली संभावित कमाई को देखकर योजनाबद्ध तरीके से ब्लॉगिंग कर रही है. हिंदी में वे बहुत कम हैं.
सतीश चन्द्र सत्यार्थी
शुरू में हिन्दी ब्लोग्स पर व्यक्तिगत बातें ज्यादा होती थीं.. या फिर कविता कहानियाँ.. धीरे धीरे सब्जेक्ट स्पेसिफिक ब्लोग्स आ रहे हैं हिन्दी में, तकनीक, विज्ञान, साहित्य, राजनीति, फोटोग्राफी, कूकिंग वगैरह विषयों पर.. लोगों के काम की चीजें स्तरीय सामग्री के साथ हिन्दी में नेट पर आयेंगी तभी पढ़ने वाले भी गूगल से आयेंगे. जिन ब्लोगों पे ये सब है उनपर पाठक आते हैं और आते रहेंगे.
मनीष कुमार
अगर आपका content काम का है तो लोग उसे खोज खोज कर पढ़ने आते हैं। जो भी ब्लॉग शुरु से ऐसा करते आए हैं वो फल फूल रहे हैं। हाँ इस content तक पहुँचने के लिए हिंदी भाषी जनता के लिए अच्छे टूल्स उपलब्ध करने की आवश्यकता है। ब्लॉगरों ने पिछले कुछ सालों से इसके लिए सोशल मीडिया का प्रयोग किया है पर इंटरनेट पर उपलब्ध वेब एप्लीकेशन इसमें महत्त्वपूर्ण भुमिका निभा सकते हैं। हाल ही में भारतीय भाषाओं से जुड़े एक वेब एप्लीकेशन ने मेरे एक ब्लॉग को हिंदी में यात्रा संबंधी जानकारी के लिए समाचार पत्रों के साथ जगह दी। नतीज़े के तौर पर पाँच सौ से हजार प्रति पोस्ट से आंकड़ा कुछ दिनों में ही कई हजार तक पहुँच गया।
डॉ. मोनिका शर्मा
ब्लॉगिंग में नए लोग आ रहे हैं और पुराने भी लिख रहे हैं , पर निश्चित रूप से ब्लॉग्स की पाठक संख्या कम हुयी है | लेखन भी कम हुआ है | गिनती के ब्लॉगर्स हैं जो आज भी उसी तरह नियमित लेख लिख रहे हैं जैसे दो तीन साल पहले .....इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ब्लॉग अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम तो है पर इसका प्रभाव तभी दीखता है जब पाठक पोस्ट पढ़ने आते हैं | अपने विचार रखते हैं | किसी विषय पर सधी और सार्थक बहस होती है | नए दृष्टिकोण निकलकर सामने आते हैं | ब्लॉगिंग में अब ये नहीं हो रहा है, और इसी के चलते अभिव्यक्ति के इस माध्यम की गति में ठहराव आया है |
हरिवंश शर्मा
फेस बुक के माध्यम से ही हम जान पाए है ब्लॉग को। फेस बुक पर स्टेटस ओर की गई टिपणी महज चुटकुले सामान है,एक पानी का बुलबुला है। ब्लॉग पड़ने का एक अनूठा अपना सा आनंद है।
संतोष त्रिवेदी
जो चुक गए हैं, उनका जोश भी ठंडा हो गया है पर नए लोग खूब आ रहे हैं। कुछ पुरनिया अभी भी डटे हुए हैं।
अभिषेक मिश्रा
किसी विषय पर विस्तार से अभिव्यक्ति तो ब्लॉग पर ही प्रभावशाली है।
अनूप शुक्ल
मुझे नहीं लगता कि ब्लॉगिंग कि अभिव्यक्ति के किसी अन्य माध्यम से कोई खतरा है। फ़ेसबुक और ट्विटर से बिल्कुलै नहीं है। इन सबको ब्लॉगर अपने प्रचार के लिये प्रयोग करता है। इनसे काहे का खतरा जी!
ब्लॉगिंग आम आदमी की अभिव्यक्ति का सहज माध्यम है। आम आदमी इससे लगातार जुड़ रहा है। समय के साथ कुछ खास बन चुके लोगों के लिखने न लिखने से इसकी सेहत पर असर नहीं पड़ेगा। अपने सात साल के अनुभव में मैंने तमाम नये ब्लॉगरों को आते , उनको अच्छा , बहुत अच्छा लिखते और फ़िर लिखना बंद करते देखा है। लेकिन नये लोगों का आना और उनका अच्छा लिखने का सिलसिला बदस्तूर जारी है- पता लगते भले देर होती हो समुचित संकलक के अभाव में।जरूरी नहीं है फ़िर भी ये कहना चाहते हैं कि हम ब्लॉग, फ़ेसबुक और ट्विटर तीनों का उपयोग करते हैं। समय कम होता है तो फ़ेसबुक/ट्विटर का उपयोग करते हैं लेकिन जब भी मौका मिलता है दऊड़ के अपने ब्लॉग पर आते हैं पोस्ट लिखने के लिए।
रंजू भाटिया
मेरे जैसे कुछ लोग है ब्लॉग लिखते हैं पढ़ते हैं ,आदत में यह अब शुमार है , हिंदी ब्लॉग्स पहले भी इंग्लिश ब्लॉग्स की तुलना में अधिक तवज़्ज़ो नहीं पाते थे पर अभी घुम्मकड़ी के शौक में यह पता चला की आज कल फ्री लांस राइटर से अधिक ब्लॉग लिखने वालों को बुलाया जाता है। मैंने हैरान हो कर पूछा क्या उस में हिंदी ब्लॉगर भी है?तो जवाब हाँ मिला ,अब हिंदी ब्लॉगर वाकई उस में शामिल है तो यह एक उम्मीद की किरण है वैसे भी हिंदी के भी अच्छे दिन आने वाले हैं.
सतीश सक्सेना
मैंने तो पिछले एक वर्ष में पहले से अधिक पोस्ट लिखी हैं और नियमित रहा हूँ , आने वाले विजिटर भी बढे हैं।
चलते चलते मोनिका जैन
हम तो जब तक हैं हमारा ब्लॉग रहेगा और झाँकने वाले भी हमेशा रहेंगे


अब आप ही बताईये कि क्या  फेसबुक पर गंभीर चर्चा नहीं हो सकती?

मंगलवार, 24 जून 2014

तुम वो तो नहीं!

तुम वो नहीं
तसव्वुर में थी बसी एक तस्वीर जो
मुद्दत से  था जिसका ख़याल
था सदियों से इंतज़ार जिसका
तुम वो नहीं

पास तुम आये जो
लगा सच हुआ ख्वाब मेरा
मगर जल्द ही टूटे भरम
तुम वो नहीं

शुक्र है उन
नजदीकियों का
होती गयी हर हकीकत  बयां
तुम वो नहीं

तिश्नगी फिर से वही अब
इंतज़ार फिर उस प्यार का
ताकि हो ताबीर उस ख्वाब का
तुम वो तो नहीं!

रविवार, 15 जून 2014

क्या पुरुष को बस यही चाहिए?


एक ही धरती एक ही कालावधि मगर लोगों की सोच और रुचियाँ अलग अलग देशों में कितनी भिन्न हैं और हैरत में डालने वाली हैं . क्या सही है और क्या गलत यह भी पूरी तरह सापेक्षिक है . आज फेसबुक दोस्त शालिनी श्रीवास्तव ने एक लिंक साझा किया . यह मामला है एक पश्चिमी दुनिया में पली बढ़ी युवती का जिन्हे सेक्स की लत  है और वे इसकी खुले आम जिक्र भी करती हैं -पब्लिक डोमेन में उन्होंने एक आर्टिकल प्रकाशित किया है. और अपने सेक्स अभिरुचियों और झुकावों का ईमानदारी से जिक्र भी किया है. इस लेख की चर्चा अन्यत्र जगहों पर इसकी बेबाकी और ईमानदार स्वीकृतियों के चलते है। आप को पूरा आलेख पढ़ने के लिए ऊपर के  अंग्रेजी लिंक पर जाना होगा मगर मैं हिन्दी प्रेमियों के लिए यहाँ कुछ उद्धरण देना चाहता हूँ.

क्रिस्टीन व्हेलेन  ४० वर्ष की मोटी महिला हैं। एक रिलेशन में थीं जो दस वर्षों चला मगर टूट गया। अब उन्हें सेक्स की सनक सवार हो गयी - अपने सर्किल के किसी मित्र, जान पहचान वाले  के साथ सोने को तैयार। और यह सिलसिला चल पड़ा. उन्होंने अपने अनुभवों को समेट कर यह प्रकाश डाला है कि आखिर पुरुष चाहते क्या हैं? और इससे भी बढ़कर कि उनकी खुद की क्या ख्वाहिश होती  है . उनके सेक्स संबंधियों में कई आयु वर्ग के लोग हैं. टीनएजर्स भी . उनकी स्वीकारोक्ति को कुछ आलोचकों ने वर्ष २०१४ का एक बड़ा खुलासा माना है.

मोहतरमा क्रिस्टीन व्हेलेन ने खुद के बारे में बताया है कि वे बहुत इंटेलिजेंट हैं ,मनोविनोदी हैं ,कभी कभार स्टाइलिश ,अपने बारे में बेफिक्र और वास्तव में बहुत अच्छी हैं। वे कहती हैं कि आकर्षण एक निजी मामला है और उनमें वह बहुत कुछ नहीं है जो बहुतों के लिए उन्हें आकर्षक बनाए। उनकी अपनी सेक्स अभिरुचियाँ /वितृष्णायें हैं और इसलिए और लोगों के समान व्यवहार से भी उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता ।क्रिस्टीन ने अपने एक दीवाने से पूछा कि उसे एक थुलथुल चालीस वर्षीय महिला में आखिर क्या आकर्षक लगा? जवाब था क्रिस्टीन तुम्हारा जबर्दस्त आत्मविश्वास ! कांफिडेंस इज सेक्सी! 

मैंने यह क्रिस्टीन कथा एक सनसनी पोस्ट के लिए ही नहीं की है . यह भारतीय समाज के सेक्स वर्जना को  सापेक्ष रखने और उस पर खुली चर्चा के लिए पोस्ट किया है मैंने . बहुत से लोग तुरंत क्रिस्टीन को वैश्या कह देगें -काल गर्ल कहेगें! मगर उसके निर्भीक आत्मकथन, स्पष्टवादिता को तवज्जो नहीं देगें .हमारा कल्चर इतनी स्वच्छंदता को अनुमति नहीं देता बल्कि सेक्स को पाप की सीमा तक यहाँ घृणित समझा जाता है -एक उचित स्थिति कहीं बीच में है . है ना ?

मंगलवार, 10 जून 2014

क्यूँ होता है ऐसा? (कविता)

क्यूँ होता है ऐसा?

क्यूँ होता है ऐसा  कि पराये अपने हो जाते हैं और अपने पराये
कि चुक जाती  है प्रीति अनायास ही किसी मीत की और
अलगाते हैं रिश्ते  अकारण ही  बिना बात के
विस्मृत  हो जाते  हैं वे सभी  वादे
किये गए थे जो  कभी भावों के आगोश में 
क्यूँ होता है 
ऐसा कि  अनायास ही कोई मिलता है  और लगता है
जैसे हो उससे  जन्म जन्मान्तर का कोई रिश्ता
मगर  वह भी  बिखर जाता है बिना परवान चढ़े 
यह अल्पकालिक जीवन भी कैसे कैसे  श्वेत श्याम
और इंद्रधनुषी सपने दिखाता  है
 एक दिन सहसा ये सारे सपने बेआवाज टूटते हैं -
सहसा  आ धमकता है आख़िरी दिन का फरमान
ऐसा क्यूँ होता है?

गुरुवार, 29 मई 2014

एक ब्लागर की चिट्ठी प्रधानमंत्री जी के नाम - क्या अब सचमुच शुद्ध हो पाएंगी गंगा?

 प्रधान मंत्री जी गंगा के शुद्धिकरण को लेकर आप कटिबद्ध हैं। मगर तनिक रुकिए - गंगा शुद्ध हो यह कोटि कोटि जनों की मांग है।  गंगा संस्कृति प्रसूता है और  जनभावनाओं से गहरी जुडी हैं।  कहा गया है कि गंगा के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है -गंगा तव दर्शनात् मुक्तिः! और अब तो गंगा हमारी राष्ट्रीय नदी भी हैं।  मगर गंगा शुद्ध और निर्मल रहें यह एक बड़ी चुनौती हैं -हाँ उनकी पवित्रता को लेकर आस्थावानों में कोई संदेह नहीं, भले ही आज की गंगा में डुबकी लगाने से परम श्रद्धावान तक भी हिचक जाते हैं।  किसी भी पर्यावरणविद से पूछिए वह आंकड़े देकर बता देगा कि गंगा में प्रदूषण के तमाम मापदंड और संकेतक अब इसे विश्व की अनेक प्रदूषित नदियों की सूची में  ला रखते हैं और अब यह कोई विवादित मुद्दा भी नहीं है।  मगर मुद्दा यह जरूर है कि अब इसे अपनी स्वाभाविक दशा में कैसे लाया जाय। यह कतई एक आसान मुहिम  नहीं है।  

जानकारी मिली है कि  गंगा को लेकर अपनी वचनवद्धता के चलते इस महायोजना पर आपके आदेश से धनराशि का आबंटन शुरू भी हो गया है।  मगर तनिक रुकिए प्रधानमंत्री जी! आपसे भी वही भूलें न हो जायँ जो पहले की सरकारें करती आयी हैं।  गंगा शुद्धिकरण के नए अभियान पर धनराशि मुक्त करने के पहले यह सुनिश्चित करना होगा   कि इस महा अभियान की नईं कार्य योजना क्या है और उसके विभिन्न चरण और उनके समापन की समयावधियां क्या होगीं? गंगा की सफाई एक बहुल रणनीतिक /गतिविधि प्रक्रिया है। बड़े बांधों से गंगा का अविरल प्रवाह कैसे मुक्त होगा ? किनारे के औद्योगिक कचरों का प्रवाह कैसे रुकेगा ? शहरों के मलजल के  निपटान की वैकल्पिक कारगर युक्ति क्या होगी ? नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी परियोजना को कब अमली जामा पहनाया जाएगा ? गंगा और सहायक नदियों में समय के साथ जो गाद इकठ्ठा होती आयी है उसे कैसे निकाला जाएगा? नदियों के तल काफी उथले हो चले हैं।  उनकी जलधारण क्षमता  कम  होती गयी है।  खनिज निस्तारण की गलत नीतियों के चलते कई जगहों पर रेत/बालू के ढूहे  उठे हुए हैं जिनका निरंतर विवेकपूर्ण निस्तारण भी होना चाहिए।  बनारस  शहर के गंगा के उस पार के तट पर पिछले कई वर्षों से कछुआ अभयारण्य की दुहायी देकर रेत की सफाई न होने देने से जल दबाव शहर के घाटों की और बह  रहा है . किसी दिन यह शहर में भारी तबाही का कारण बन सकता है।  

बनारस की गंगा की दशा कम  शोचनीय नहीं है।यहाँ स्नान ध्यान के लिए श्रद्धालुओं का भारी ताँता रोज ही लगा रहता है मगर शहर का मलजल कई जगहों पर सीधे नदी में ही गिरता है।  एक तो राजघाट के करीब सरायमुहाना गांव के पास ही वरुणा संगम के नजदीक ही गिरता रहता है -देखकर ही जुगुप्सा उत्पन्न होती है। बिना मलजल निस्तारण के ठोस और भरोसेमंद विकल्प के गंगा कैसे निर्मल होंगी? गंगा की सफाई का जुमला आसान है मगर क्रियान्वयन के लिए फिर से एक भगीरथ प्रयास की जरुरत है।  कानपुर के औद्योगिक कचरे को गंगा में गिराये जाने से रोके बिना हम इस नदी के शुद्धिकरण का जाप कैसे कर सकते हैं?कितने ही प्रयास तो हुए मगर औद्योगिक घराने कोई न कोई बचने का तरीका निकाल लेते हैं और उन्हें तंत्र को संतुष्ट करते रहने की कला भी आती है।  हमने छोटे बांधों के बजाय दैत्याकार बांधों के निर्माण की नीति बनायी।  यह भी एक प्रमुख कारण है कि गंगा का अविरल प्रवाह बाधित हुआ।  अब हम कैसे इन बड़े बाँधों से गंगा के प्रवाह को मुक्त करेगें।  गंगा से बढ़कर तो शोचनीय दशा सहायक नदियों की है -यमुना ,गोमती और सई नदियां अपने अस्तित्व की आख़िरी जंग लड़ रही हैं।  गंगा शुद्धिकरण की कोई एकल प्रयास नीति तब तक सफल नहीं है जब तक उसकी सहायक नदियों को लेकर एक समेकित योजना को मूर्त रूप न दिया जाय।  

हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी जी ने नदियों को जोड़ने की एक महत्वाकांक्षी  परियोजना सुझायी थी , उस पर कार्य ठप है.  कुछ अतिवादी पर्यावरण विरोधी इसका मुखर विरोध करते रहे हैं।  वर्तमान सरकार की मंत्री मेनका गांधी जी भी इसके पक्ष में नहीं रही हैं।  मेरी अल्प समझ में अब भारत की नदियों के उद्धार के लिए इससे बेहतर कोई और उपाय नहीं है -पर्यावरण  असंतुलन का हो हल्ला मात्र एक मिथक है कोई सच नहीं।  विश्व में अनेक भौगोलिक बदलाव खुद कुदरत कर देती है मगर कालांतर में सब कुछ सहज हो लेता है , भारतीय नदियों को जोड़ देने से ऐसा कोई पर्यावरणीय कोहराम नहीं मचने वाला है -बल्कि कई प्रजातियों को और भी व्यापक क्षेत्र विकसित होने को मिल सकता है जो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं।  गंगा की सूंस डॉल्फ़िन जो हमारे  जलतंत्र का राष्ट्रीय जीव है उसे अन्य नदियों में विस्थापन की कार्य योजना क्यों तैयार नहीं हो सकती?   
प्रधानमंत्री जी!  ये सारे मुद्दे गंगा के निर्मलीकरण के लिए महत्वपूर्ण और अपरिहार्य हैं  ! पहले इन बिन्दुओं पर एक तूफानी ब्रेन स्टॉर्मिंग करके एक निश्चित कार्ययोेजना तैयार करना ज्यादा जरूरी लग रहा है।   अन्यथा इस नयी मुहिम पर निर्गत बजट को भ्रष्ट इंजीनियर ,नेता - ब्यूरोक्रैट नेक्सस तथा छुटभैये नेता डकार जायेगें और फिर केवल नाकामी हाथ लगेगी! और इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड में गंगा के शुद्धिकरण का उल्लेख तो करना ही होगा!

रविवार, 25 मई 2014

हिन्दी ब्लागिंग के अच्छे दिन आने वाले हैं!


हिन्दी ब्लॉगों की निरंतर बढ़ती वीरानी से सभी मायूस होते जा रहे हैं।  क्या सचमुच हिन्दी ब्लागिंग इतिहास में सिमट गया? जबकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि हिन्दी ब्लॉग्स का तो अभी इतिहास शुरू ही नहीं हुआ था।  बहरहाल मैं भी इसी उधेड़बुन में था और पिछले कुछ समय से से खुद भी यहाँ से अनुपस्थित था।  ऐसे ही जब फेसबुक पर अपनी चिंता दर्ज की तो केवल राम जी ने एक नए ब्लॉग संकलक  का नाम बता दिया -ब्लॉग सेतु और मुझसे इससे जुड़ने का अनुरोध किया।  मुझे रजिस्ट्रेशन में कुछ असुविधा हुई तो खुद फोन कर समस्या का निराकरण किया।  मेरे तीन ब्लॉग यहाँ अब जुड़ चुके हैं। 

मैंने केवल राम से पूछा कि भाई आप करते क्या हैं? उन्होंने जवाब दिया कि दिल्ली यूनिवर्सिटी से हिन्दी ब्लागिंग में शोध कर रहे हैं।  तब समझ में आया कि इस विधा को लेकर वे इतना गंभीर क्यों हैं।  वे अभी युवा हैं और सुदर्शन व्यक्तित्व के  हैं ,मृदु भाषी भी हैं -पुरुषों में ये सभी गुण  प्रत्यक्षतः एक साथ कम  ही दिखते हैं - वे हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध स्थल धर्मशाला के निवासी हैं।  जहाँ तक मुझे याद है वे हिन्दी ब्लॉग जगत में एक  समय से सक्रिय हैं।  और उनके प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए।  यह केवल उनका कंसर्न नहीं बल्कि हमारा सबका साझा कंसर्न है कि हिन्दी ब्लागिंग की बगिया में फिर से बहार आये और हमें एक बार फिर से फील गुड करा सके! 

ऐसा भी नहीं कि यहाँ नयी कोपलें न फूट  रही हों मगर एक अच्छे एग्रीगेटर के अभाव में हमें उनका पता नहीं लग पाता है  -बस वही कुछ खोज खबर ले पाते होंगे जो गहरे पानी पैठते होगें. हम सरीखों के लिए जिनके लिए राज काज नाना जंजाला है कोई ऐसा माध्यम चाहिए जो झट से ब्लॉग जगत की नयी प्रविष्टियों का एक झरोखा दिखा सके।  ब्लॉग सेतु से उम्मीद है की वह  इस जरुरत को पूरा करेगा।  केवल राम का यह भी कहना है कि कोई भी ब्लॉग जो वहां पंजीकृत हो गया है अगर कोई नयी पोस्ट प्रकाशित करता है तो ब्लॉग सेतु पर तुरंत दिखने भी लगेगा।  जैसे एक जमाने में ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत में होता था। 

 केवल राम 
आईए ब्लागसेतु से जुड़ कर इसका स्वागत करें।  हिन्दी ब्लागिंग के अच्छे दिन आने वाले हैं !

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

सधवा की साध!

विगत फरवरी माह से लोकसभा निर्वाचन की तैयारियों में ऐसा मुब्तिला होना पड़ा कि ब्लागिंग स्लागिंग सब छूटा।  बस कभी कभार फेसबुक पर आना जाना रहा।  किसी ब्लॉगर के ब्लॉग पर भी चाह कर जा नहीं पाया , सज्जन ब्लागर माफ़ करेगें और मेरी मजबूरी समझेगें। मगर कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं कि वे खुद को अभिव्यक्त करा लेने की कूवत रखते हैं जैसा कि आज का मुद्दा है।  कल पत्नी ने घर पर काम करने वाली दाई का एक ऐसा वृत्तांत सुनाया कि वह मन पर गहरे अंकित हो गया।  वही आपसे साझा करना है।

दाई का पति बहुत बीमार है और उसकी सेवा में वह दिन रात जुटी रहती है।   दाई अपना यह दुखड़ा पत्नी को सुनाती ही रहती है। उसकी भी उम्र काफी हो चुकी है।   कल उसने बहुत भावुक होकर कहा कि वे मेरे सामने ही चले जायँ मैं तो भगवान से यही मनाती हूँ नहीं तो मेरे पहले चल बसने पर उनकी कौन देखभाल करेगा? बात मेरे कानों तक पहुँची और मैं विस्मित सा हुआ।  क्योकि अक्सर हम यही सुनते हैं कि महिलायें पति से पहले ही जाने की इच्छा रखती हैं।  मतलब वे वैधव्य नहीं चाहतीं।  पति के सामने ही वे अपनी सदगति चाहती हैं।  मगर यह सोच कि जीवन साथी की देखरेख कौन करेगा मेरी दृष्टि में एक उदात्त सोच है जो रिश्ते के समर्पण को दर्शाता है।  मतलब वैधव्य का बोझ भी स्वीकार है मगर जीवन साथी की देखभाल में कोई कोताही न हो. 

मैंने इस बात का जिक्र कल फेसबुक पर किया था तो विविध विचार  आये हैं।  जिनमें एक यह भी है कि पुरुष प्रधान समाज में पति के दिवंगत होने पर पत्नी को एक बड़ी पारिवारिक और सामाजिक उपेक्षा का भी शिकार होना पड़ता है।  आर्थिक पहलू अलग है। एक दींन शीर्ण और उपेक्षित जीवन से तो मृत्यु ही भली है।  और यही सोच ज्यादातर भारतीय महिलाओं में एक सांस्कृतिक कलेवर ले चुकी है जिनमें वे सधवा ही मृत्यु का वरण करने को इच्छुक हो रहती हैं।  वे वैधव्य की नारकीय स्थिति का  सामना नहीं करना चाहतीं।

यह तो एक जीवन साथी की सोच हुयी -पत्नियों की सोच हुयी।  पति क्या सोचते हैं इस विषय पर इसकी चर्चा फिर कभी हम फुरसत में करेगें इन दिनों तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है :-(

आप अपने विचार जरूर दीजियेगा -प्रतीक्षा रहेगी!

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अथातो गुरुघंटाल जिज्ञासा......

एक दिन फेसबुक पर मैंने यह जुमला  क्या छेड़ा  कि गुरु तो गुरु ही होता है(आदि आदि ) तो इस पर काफी चर्चा हो गयी. संतोष  त्रिवेदी ने पलट वार किया की मगर चेला चेला ही नहीं रह सकता वह गुरु भी हो सकता है - अली सईद साहब इसी उत्तर की ही बाट जोह रहे थे -इस अपडेट पर लपक ही तो पड़े।  कहा, देखा न चेला पलटी  मार गया।  काफी चर्चा हुयी, गुजिश्ता टाईम के ब्लॉगर मित्र जिन्होंने अपने ब्लॉग की सुध बिसरा दी है  वहाँ आ जुटे और अपना अपना दर्शन झाड़ा और हमारा ज्ञान वर्धन किया। हमने भी ब्लॉगर तो ब्लॉगर ही होता है कि तर्ज पर सबकी फेसबुकीय टिप्पणियां झेलीं। 

मजे की बात यह हुयी कि इसी मुद्दे पर उस रात मैंने एक सपना देखा।  देखा कि उसमें अपने जमाने के कई धुरंधर ब्लॉगर्स एक ब्लॉगर मीट कर रहे हैं।  विषय था गुरुओं में गुरु और उनमें भी गुरु घंटाल की पहचान । विषय प्रवर्तन मैंने किया था।  मैंने कहा कि भारत के गुरुओं की महान परम्परा में ही आधुनिक गुरुओं की एक श्रेणी गुरु घटालों की होती है। और सम्भवतः बिगड़े शिष्य ही आगे चलकर गुरु घंटाल बन जाते हैं।  यहाँ भी अली भाई ने तुरंत  प्रतिक्रिया व्यक्त की -प्रत्यक्षं किम प्रमाणं।  मैंने उन्हें इशारे से आगे कुछ भी कहने से रोका।  संतोष त्रिवेदी भला कहाँ अपने को रोक पाने वाले थे -उन्होंने कहा कि मेरे निगाह में तो बस एक ही गुरु घंटाल है जो इन दिनों पहले की तुलना में कुछ कम सक्रिय है मगर अभी भी गुरु घंटाल नंबर वन है, अब ब्लॉगर लोगों की जिज्ञासा यह थी कि आखिर यह गुरु घंटाल होता क्या है  और यह किस तरह अन्य गुरुओं से अलग होता है।  सतीश सक्सेना जी ने कहा कि मुद्दा अहम है और इस पर वे जल्दी ही वे कुछ अपने गीत के माध्यम से लिखेगें। 

अपने समुदाय की अकेली नुमायन्दगी कर रही वाणी गीत शर्मा जी ने एक मासूमियत भरा सवाल पूछा कि क्या महिलाओं में भी गुरु घंटाल होती हैं? तभी किसी ओर  से आवाज आयी कि उन्हें तो गुरु घंटालिने कहना चाहिए। मगर आदरणीय दिनेश द्विवेदी जी ने कहा कि ये शब्द लिंग निरपेक्ष होते हैं अतः महिला वकील को वकीलाइन कहना जैसे गलत है वैसे घंटाल को घण्टालिन कहना गलत है।  इस पर कुछ आपत्तियां और आयीं और यह पक्ष प्रस्तुत किया गया कि वकील की पत्नी को वकीलाइन कहने का चलन समाज में तो है।  बहरहाल फिर से बात गुरु घंटाल पर आकर रुक गयी। किसी ने सहजता से पूछा गुरु घंटाल के लक्षण क्या क्या हैं।  अभी तक अनूप शुक्ल जी काफी चुप से बैठे थे।  उन्होंने कहा कि परसाई जी ने इस पर काफी लिखा है मगर अभी तो उन्हें याद नहीं, हाँ देखकर ही वे बता पायेगें।  तब तक एक कोने से गिरिजेश राव जी और बेचैन आत्मा गलबहियां डाले दिखे।  गिरिजेश राव ने कहा कि व्युत्पत्ति शास्त्र के मुताबिक़ गुरु घंटाल का कोई न कोई संबंध घंटे से होना चाहिए।  उनका आशय मंदिर में बजने वाले घंटे से था।  अब तक शिल्पा मेहता जी भी दिखाई दे गयीं थी, इससे वाणी गीत जी के चेहरे पर एक तसल्ली का भाव उभरा।  शिल्पा मेहता जी ने गिरिजेश जी की बात का अनुमोदन करते हुए कहा हाँ गुरु घंटाल शब्द में कुछ पण्डे और घंटे का भाव समाहित लगता है।  

तभी डॉ तारीफ़ दराल साहब और जनाब  महफूज अली भी मुझे साथ साथ बैठे दिखाई दे गए  . उन्होंने कहा कि जो भी महफूज जी का विचार होगा वही उनका भी मंतव्य समझा जाय। महफूज ने कहा कि दोनों लिंगों के गुरु घंटालों से उनका पाला तो कई बार पड़ा है मगर वे जो कुछ भी इस मुद्दे पर कहना चाहते हैं अंगरेजी में ही कहेगें। इस पर विवाद हो गया कि हिंदी ब्लागरों के बीच आंग्ल भाषा का क्या काम? महफूज जी ने चुप्पी साधना ही उचित समझा।  मुझे और कई ब्लागरों के चेहरे दिखाई पड़  रहे थे मगर वे सभी चुप चाप  इस बहस का बस श्रवण  लाभ कर रहे थे।  प्रवीण त्रयी को भी मैंने देखा और समीरलाल जी को भी मगर उनकी चुप्पी माहौल को असहज बनाये हुयी थी।  आचानक एक बड़ा शोर  सा होता लगा और मैंने देखा कि श्रीमती जी साक्षात सामने आग्नेय नेत्रों से मुझे घूर रही हैं -कब तक सोते रहेगें आज ,आफिस नहीं जाना क्या ? स्वप्न टूट गया था मगर मेरे जेहन में यही सवाल बार बार उमड़ घुमड़ रहा था कि गुरु घंटाल आखिर किसे कहते हैं और उसके लक्षण क्या क्या हैं और वह कैसे अन्य गुरुओं से अलग है? अब आप लोग ही मेरी यह जिज्ञासा दूर करिये न।  

द्वावा  त्याग : कृपया नए पुराने, भूतपूर्व और अभूतपूर्व ब्लॉगर इस स्वप्न चर्चा को अन्यथा न लें।  यह बस एक निर्मल हास्य है जिसका अभाव इन दिनों ब्लागिंग और जीवन में भी बहुत कम हो गया है। तथापि अगर कोई बंधु बांधवी अपना नाम यहाँ से हटाने को कहेगें तो ऐसा सहर्ष कर दिया जायेग!

रविवार, 19 जनवरी 2014

आपने राम चरित मानस का यह प्रसंग कभी पढ़ा-देखा है? अवश्य देखिये देखन जोगू!

विगत कई वर्षों से शीतकालीन मानस पारायण के नियमित क्रम में कल राम वनगमन का एक रोचक प्रसंग था जिसे आप सभी से साझा करने का मन हो आया। मैंने अपनी यह इच्छा फेसबुक पर जाहिर की तो अभय तिवारी जी ने तुरन्त अवगत कराया कि इसी प्रसंग पर वे भी लिख चुके हैं.यद्यपि अभय तिवारी जी ने  अयोध्या में राम की जन्मस्थली होने के दावों के विशेष संदर्भ में वह पोस्ट लिखी थी। मैं यहाँ किसी परिप्रेक्ष्य विशेष में पूरे राम वाल्मीकि संवाद को न रखकर बस तुलसीदास  कृत राम चरित मानस में राम के  वनगमन के दौरान मुनि वाल्मीकि से राम के मिलन और उनके बीच संवाद का उल्लेख करना चाहता हूँ !प्रभु राम निरंतर बिना रुके  अयोध्या से चलते आ रहे हैं। और अब वे यमुना को भी पारकर मुनिवर वाल्मीकि के आश्रम तक पहुँच गए हैं-" देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए।" अब उन्हें  वन  में रुकने का कोई अस्थायी ठाँव चाहिए। मगर ठाँव भी ऐसा हो जहाँ मुनिगण ,तपस्वी और ब्राह्मण दुखों से मुक्त हों -मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू(क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है). 

 वे  सहज ही वाल्मीकि से कह  बैठते हैं- "अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ।। तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला।।" हे मुनिवर मुझे वह  जगह बताईये जहाँ मैं कुछ समय सीता और लक्ष्मण के साथ रह सकूं। अब वाल्मीकि के लिए एक बड़ा असमंजस  था कि जो स्वयं सर्वव्यापी हैं उन्हें रहने की कौन सी जगह  बतायी जाय - उन्होंने अपना असमंजस कुछ इस तरह व्यक्त किया -
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ
(आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥)

 यह पूरा संवाद ही बहुत रोचक और हृदयस्पर्शी बन उठा है. मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि  के जरिये तदनन्तर जो भी स्थान प्रभु राम के निवास के लिए बताये गए हैं वे तुलसीदास कृत राम चरित मानस के कई श्रेष्ठ रूपकों में से एक है -कुछ वास स्थान का आप भी अवलोकन  कर लीजिये -
  काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
( जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए)
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे
( जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है,जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं) 

मुझे आश्चर्य होता है कि लोग तुलसी कृत राम चरित मानस पर तरह तरह के आरोप  लगाते हैं -वर्ण व्यवस्था के पक्ष में तुलसी की कथित स्थापनाओं को उद्धृत करते हैं।  मगर तनिक मानस की यह दृष्टि भी देखिये  -राम को इन जगहों पर भी वास  करने की सिफारिश है- 
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
( जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥) 
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु
( जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है) 

यह एक लम्बा संवाद है, मैंने कुछ चयनित अंश आपके सामने रखा है -विस्तृत संवाद का आंनद आप वेब दुनिया के श्री राम-वाल्मीकि संवाद पर जाकर उठा सकते हैं।  ये तो रहे प्रभु के रहने के स्थायी निवास स्थलों का वर्णन -फिलहाल अस्थायी तौर पर प्रभु कहाँ रहे इसके लिए मुनिवर ने सुझाया -"चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥" (आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है।) मुनि के सुझाये स्थल चित्रकूट पर्वत पर ही कुछ समय तक राम ने अपने वनवास का समय बिताया! ……जय श्रीराम! 

रविवार, 12 जनवरी 2014

एअरगन से मछलियों का शिकार (सेवाकाल संस्मरण - 18 )

वर्ष 1989, झांसी से चलने का वक्त आ गया था।यहाँ की पोस्टिंग ने मुझे सरकारी सेवा के कई प्रैक्टिकल अनुभव कराये।  एक तरह से आगामी सेवाकाल की पूर्व पीठिका तैयार हुई । कई अप्रिय  अनुभवों से भी गुजरना पड़ा. उन दिनों एक मंत्री जी थे श्री सीताराम निषाद जी जिनके पास सिचाई और मत्स्य दोनों का प्रभार था।  उनका आगमन हुआ।  मेरे सीनियर अधिकारी ने मुझसे मंत्री जी के आगमन पर उनके स्थानीय सद्भाव के लिए मुस्तैद रहने को कहा।  यह जानकारी भी  कि मंत्री जी के आगमन के बाद उन के खान पान का सारा इंतज़ाम हमें ही उठाना होगा -और केवल उन्ही के ही नहीं बल्कि उनके आगमन पर उनके और पार्टी के समर्थकों की भीड़ को भी चायपान और खाना भी खिलाना होगा। मगर इसके लिए विभाग का कोई बजट  अलाट होता नहीं।  मैंने अपने उच्चाधिकारी से पूछा कैसे होगा सब इंतज़ाम? उन्होंने कहा "ईंट इज नन आफ माय बिजिनेस" मैं अवाक! इतना वेतन भी नहीं था  कि खुद खर्चे उठा सकूं -कोई घर आये तो भले ही अतिथि है चाय पानी करा  दिया जाय पर पूरे अमले जामे को और वह भी सरकारी दौरे पर  खर्च खुद के द्वारा? मैं असहज हो उठा था।

मैंने सिचाई विभाग के अधिकारियों से बात की तो उन्होंने कहा मंत्री जी के खान पान पर आये खर्च को तो वे  कर लेगें मगर मुझे बाद में आधी राशि देनी होगी! मैंने स्थानीय मंत्री जी के समर्थकों में से  जिनसे अच्छा  संवाद था अपनी समस्या बतायी मगर उन्होंने कहा यह तो दस्तूर है।  बहरहाल मंत्री जी के आने के बाद यह समस्या उन  तक पहुँच गयी और उन्होंने सारा इंतज़ाम केवल सिचाई विभाग पर थोप दिया। मगर यह सब आज भी चल ही रहा है और विभागों से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे ईमानदार बने रहें -यह बात तय है कि भ्रष्टाचार की कर्मनाशा (मैं गंगोत्री नहीं कहूंगा) भी ऊपर से ही प्रवाहित होती है! खासतौर पर राजनेता और भ्रष्ट अधिकारियों का गठजोड़ व्यवस्था को बदलने नहीं देता। कहते हैं न बेशर्मी का दूसरा नाम ही राजनीति है!

 मछली का एक और अप्रिय प्रसंग है जिसका अनुभव  झांसी से ही हुआ। लोग बाग़ पशुपालन विभाग से मुर्गा  खाने की फरमाईश नहीं करते मगर मछली वाला अधिकारी लोगों की रोज रोज मछली खाने की मांग से तंग हो रहता है। अब मुश्किल यह होती है कि कस्मै देवाय हविषा विधेम! मतलब किस किस को मछली दी जाय? शायद चीन जो मत्स्य क्रान्ति में भी सदियों से अग्रणी रहा है में भी यही समस्या रही है, सो वहाँ एक कहावत ही प्रचलित हो गयी है -" किसी को मछली खाने को दो तो वह अल्प  समय के लिए ही उसका लाभ उठा लेगा मगर किसी को मछली पालना सिखा दो तो वह जीवन भर उसका लाभ  उठायेगा!" मगर यह कहावत उत्तर परदेश में लागू ही नहीं हो सकती जहाँ अकर्मण्यता, मुफतखोरी  और निर्लज्जता  की एक संस्कृति सी बन गयी है! यहाँ अपनी जेब से खर्च करने की नीयत ही नहीं है! चाहे वो अच्छा ख़ासा कमाने वाले प्रशासनिक अधिकारी हो या आम ख़ास पड़ोसी!यही नहीं उच्चाधिकारियों की मीन मुफतखोरी का आलम यह रहता है कि मछली पहुचने के दूसरे  दिन की सुबह तक जी में धुकधुकी बनी रहती है कि सब कुछ ठीक ठाक निपट गया -मछली की कोई शिकायत नहीं आयी ! आला साहबों को डिसेंट्री डायरिया तो नहीं हुआ! कोई कांटा तो नहीं गले में फंस गया।  आदि आदि दुश्चिंताएं मन में उठती रहती हैं।  

 मैं  इस मत्स्यभोज  प्रसंग से क्षुब्ध रहता आया हूँ  ! झांसी मंडल के एक सबसे आला आफिसर के यहाँ एक बार भेजी गयी मछली ही बदल गयी।कुहराम मच गया। मेरे विभाग के बड़े अफसर तक की पेशी हो गयी। बंगले से हिदायत आयी थी एक ख़ास मछली की -गोईंजी जो साँप  सी दिखती है (मास्टासेम्बलस प्रजाति) -कुक ने समझा कि ये वाली तो मैडम खाएगीं नहीं सो उसे तो अपने घर भिजवा दिया और साथ भेजी गयी दूसरी मछली का पकवान बना परोस दिया।  खाने की मेज पर ही हंगामा मच गया।हम सब तलब हो गए।  बाद में स्थति साफ़ हुयी तो खानसामे पर नजला गिर गया. मैं हमेशा इन प्रकरणों से संतप्त होता आया हूँ! एक तो कहीं से मांग जांच कर मछली का इंतज़ाम करिये और फिर साहबों के नाज नखरे झेलिये। 

एक और भी ऐसा ही मत्स्य प्रकरण है जिसमें आला अधिकारी का फरमान हुआ कि उनके बंगले के स्वीमिंग पूल में ही बड़ी बड़ी किसिम किसिम की मछलियां डाल दी जायं। जिससे उनकी जब भी इच्छा हो वे खुद वहीं से मछली निकाल लिया करें। आदेश का अनुपालन किया गया-जीप के ट्रेलर में भर भर कर उसी तरह मछलियां लायी गयीं जैसा कि मानस में वर्णन है कि भरत की आगवानी में निषादराज की आज्ञा से "मीन पीन पाठीन पुराने भर भर कान्ह कहारन लाने!" मगर ये सभी तो जिन्दा थी और अच्छे वजन और प्रजातियों की थीं! हाँ यह दीगर बात है कि परिवहन के दौरान बहुत सी मछलियां काल के गाल में समा गयीं।  कुछ दूसरे दिन से तरण  ताल में मर मर कर उतराने लगीं -बावजूद इसके सौ के ऊपर मछलियां बच ही गयीं। मगर हैरत की बात यह कि हर रोज उनमें से अधिकृत रूप से तो साहब बहादुर द्वारा एक दो ही निकाली जातीं मगर उससे ज्यादा गायब पायी जातीं।  क्या कोई चोरी कर रहा था ? साहब बहादुर के कम्पाउंड में किसकी जुर्रत कि वह चोरी करे। 

आखिर एक विभाग का चौकीदार रखवाली पर लगा दिया गया।  और तब मछलियों के कम होने का राज भी खुल गया।  होता यह कि साहब बहादुर के दुलारे किशोरवयी  प्रिंस अल्सुबह एक एअरगन लेकर निकलते और मछलियों पर निशाना साधते -एअरगन से चिड़ियों का शिकार तो देखा था मगर मछलियों के आखेट का यह पहला वाकया दरपेश हुआ था।  बहरहाल एक स्टाफ को इस घटना से साहब बहादुर को बताने के लिए तैयार किया गया और इसका अप्रत्याशित रूप से परिणाम बहुत अच्छा रहा -साहब बहादुर मछलियों पर दयार्द्र हो उठे और मछलियों की आगामी ढुलाई रोक दी गयी!

सर्विस में आगे भी ऐसे अनेक अप्रिय मत्स्य प्रसंग आते रहे हैं जिनकी चर्चा समय समय पर होती रहेगी!  जारी। .... 

रविवार, 5 जनवरी 2014

सबते सेवक धर्म कठोरा। (सेवा संस्मरण -17)

झांसी की यादों की एक खिड़की अब पूरी तरह खुल गयी लगती है। यह मेरा एक बड़ा सौभाग्य था कि मुझे यहाँ बहुत अच्छे सीनियर अधिकारी और सहधर्मी मित्र मिले जिनके साथ ने मेरे पूरे जीवन पर एक चिरस्थायी छाप छोड़ा है।  दो मित्रों का साथ और बात व्यवहार  आज भी  बना हुआ है -एक तो आर एन चतुर्वेदी जी जो इस समय चंदौली जनपद में जिला आपूर्ति अधिकारी हैं और दूसरे ऐ के श्रीवास्तवा जी जो खड़गपुर से आई आई टी पोस्ट ग्रेजुएशन करके प्रादेशिक सेवा में वैकल्पिक ऊर्जा विभाग में आ फंसे और इस समय मुख्यालय लखनऊ में पदस्थ हैं।  अगर ईमानदारी,  सज्जनता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति देखनी हो तो ऐ के श्रीवास्तवा जी से मिलना चाहिए। भाई आर एन चतुर्वेदी तो मित्रों के मित्र हैं -उनके कहकहों में सारी म्लानता सारा क्लेश मिट जाता है।  इन दोनों शख्सियतों से अक्सर बात होती है और ऐसा संवाद जुड़ता है जैसे हम जन्म जन्म के साथी हों। 

 उन्ही दिनों हमारे इमीडियेट सीनियर अधिकारी/ऐ डी  एम, पी सी एस सेवा के श्री कृष्णकांत शुक्ल जी थे जो मेरी सेवा के पहले सबसे ईमानदारी पी सी ऐस अधिकारी थे - सादगी और मनुष्यता के एक उदाहरण। मेरे झासी से आते समय श्रीमती शुक्ल जी ने हमें रास्ते का आहार- पाथेय दिया और यह हम आज भी नहीं भूले हैं। उनके बेटे हारित शुक्ल उन दिनों बैडमिंटन खिलाड़ी के रूप में उभर रहे थे मगर बड़ी  कृषकाया  थी उनकी।मुझे भी लगता कि एक खिलाड़ी के रूप में उनका विकास उनके साथ ज्यादती थी। हारित को मैं बायलोजी के कुछ पाठ पढ़ाता था और इसके लिए वे खुद मेरे सेलेस्टियल रांडिवू यानी आफिसर्स होस्टल के तीसरे तल  तक आते थे। मुझे उनके यहाँ जाना नहीं होता था।  आज हारित गुजरात  में आई ऐ एस हैं! 

इन्ही हारित को एक बार एक बी डी ओ साहब ने एक चाकलेट क्या थमा दिया था कि कृष्णकांत सर जी की नाराजगी झेलनी पडी थी और ईमानदारी की सीख भी।  उनके घर का अनुशासन कठोर था।  कृष्णकांत सर जी मेरा सम्मान करते थे जबकि मैं उनका मातहत था -एक बार मुझे अपने पैतृक गाँव ले गए थे।  उन्हें उन दिनों रविवार को टी वी पर आने वाले महाभारत सीरियल का बड़ा शौक था। हम  भी उन्ही के यहाँ यह सीरियल देखने बिना नागा पहुँच लेते थे।  एक दिन सीरियल शुरू ही हुआ था कि डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट का  बुलावा आ पहुंचा - बड़ा धर्म संकट उत्पन्न हो गया।  डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट ठहरे दक्षिण भारतीय और सम्भवतः महाभारत से कम प्रभावित -बहरहाल शुक्ल सर जी ने महाभारत को वरीयता दी थी और डी एम  साहब का मनोमालिन्य झेलना स्वीकार किया था।  आज भी मैं इस निर्णय पर नहीं पहुँच पाया हूँ कि कृष्णकांत सर का   निर्णय सही था या नहीं! कारण कि सबते सेवक धर्म कठोरा। 

 पता नहीं यह परम्परा आज भी है या नहीं मगर उन दिनों जिला परिषद् द्वारा एक बड़ा सालाना उत्सव -विकास प्रदर्शनी और मेला का  आयोजन का होता था जिसमें अखिल भारतीय कवि  सम्मलेन भी सम्मिलित था।  मुझे यानि  पहली बार जिला प्रशासन के किसी अधिकारी को कवि सम्मेलन के समन्वय/संयोजन   का जिम्मा दे दिया गया -यह मेरे जीवन का एक अनिर्वचनीय और अविस्मरणीय यादगार पल था।  स्थानीय पुरायट कवियों ने इसका विरोध किया था मगर मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और इसके आयोजन में इतना श्रम किया जितना आज तक फिर कभी किसी कार्य में नहीं किया हूँ। 

 कवि  सम्मलेन जिसका नामकरण मैंने बासंती काव्य निशा  रख रखा था अभूतपूर्व रहा और इसके चलते मैं भारत के कई महान कवियों का स्नेह सानिध्य भी पा सका जो आज भी मेरे मानस पर अंकित है। श्री उर्मिलेश शंखधार ने कवि सम्मलेन का संचालन किया था  और कविवर सोम ठाकुर ने उसमें अपनी जादुई आवाज और रस सिक्त काव्य पाठ से चार चाँद लगाया था।  कैलाश गौतम जी का प्रवाहपूर्ण काव्यपाठ मैंने पहली बार उसी समय सुना था। अन्य एक से एक कविगण आये थे जो मेरी मधुर स्मृतियों को  आज भी झंकृत करते रहते हैं। 

क्या दिन थे वे, जीवन को सार्थकता प्रदान करने वाले! जारी …

 

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