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सोमवार, 5 सितंबर 2011

ब्लॉग:महज माध्यम या विधा भी?

यह सवाल मैंने मित्रों से पूछा कि क्या ब्लागिंग महज अभिव्यक्ति का एक माध्यम भर है या इसकी कुछ विधागत विशिष्टतायें भी हैं ...अभी भी मुझे संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है ..इसलिए इस  प्रश्न पर विचार मंथन के लिए आप सभी को निमंत्रण ...पहले हम अपनी अल्प समझ को यहाँ प्रस्तुत कर दें ..मीडिया शब्द के उल्लेख से हमारे सामने प्रिंट मीडिया ,ब्राडकास्ट मीडिया ,डिजिटल मीडिया की एक तस्वीर उभरती है....और जब हम विधा की बात करते हैं तो  कविता ,कहानी ,नाटक ,निबंध ,रूपक ,साक्षात्कार,समाचार लेखन /वाचन   आदि  आदि का बोध हो उठता है .... अब हमारे  पारम्परिक प्रिंट  या ब्राडकास्ट माध्यमों में इन्ही विधाओं की ही परिधि में जन संवाद होता है ...उद्येश्य चाहे मनोरंजन हो  या ज्ञानार्जन . अपने इन्ही पारम्परिक माध्यमों को मुख्य मीडिया /मेनस्ट्रीम मीडिया कहा जाता रहा है .अब जिस मीडिया का नया परचम लहराने लगा है वह डिजिटल मीडिया है ....और इस नए माध्यम ने  पारम्परिक माध्यम के कान काटने और पर कतरने शुरू कर दिए हैं ..फिर भी  इसे वैकल्पिक मीडिया का संबोधन मिला है. 



आज सोशल नेटवर्क -फेसबुक ,ट्विटर ,ब्लॉग जगत ,चैट समूह सभी द्रुत और दुतरफा संवाद के माध्यम बन चले है. आपसी विचार विमर्श का स्कोप यहाँ बहुत विकसित हो चला है और दिन ब दिन यह और समर्थ और सशक्त होता जा रहा है क्योकि यह नया मीडिया बेहतर तरीके से प्रौद्योगिकी क्षम है ..एक नया समाज मूर्तमान हो रहा है जहाँ संवाद के मायने ही बदल गए हैं ...जहाँ सम्वाद के नए नियम ,नए शिष्टाचार विकसित हो रहे हैं और जहाँ भौगोलिक सीमा रेखायें मिट चुकी हैं ....१९७७ में जान बर्गर ने वेबलाग शब्द का संबोधन अंतर्जाल पर 'लगभग बिना दमड़ी लगाये, कुछ लिख कर छापने (के पृष्ठों) के लिए'  किया ,,,,पीटर मेर्होल्ज़ ने १९९९ में इन्हें ब्लॉग का नाम दे दिया .माना जाता है कि सोशल नेट्वर्किंग भी एक तरह की माईक्रो ब्लागिंग है -मगर फेसबुक ने तो अब अपने यूजरों को बहुत स्पेस उपलब्ध करा दिया है ...अब यह ट्विटर सरीखा ही नहीं है जहां शब्दों पर तगड़ा सेंसर है -मगर हाँ यहाँ मेसेज ही मीडिया बन बैठा है -ट्विटर को लोग 'मेसेज मीडिया' के नाम से भी पुकारने लगे हैं!  


 ब्लागिंग भी एक अंतर्जालीय मीडिया  है जिसके जरिये निजी या दीगर जानकारियाँ ,सन्देश, विचार ,दृष्टिकोण लोगों से साझा किये जा रहे हैं  ....यहाँ सब कुछ अपने हाथ में है -'कम खर्च वालानसी'  का मामला है ...और चित्र ,वीडियो ,पोडकास्ट सभी सुविधाओं से लैस है ...गावों में भी अब इसकी पहुँच तेजी से बढ़ रही है .....एकल ब्लागों के अलावा अनगिनत सामुदायिक ब्लॉग,विषयाधारित ब्लॉग भी आज वजूद में है ...अभिव्यक्ति का एक पूरा इन्द्रधनुषी साम्राज्य मुखरित हो चला है ..मगर क्या ब्लॉग महज अभिव्यक्ति के माध्यम ही हैं या फिर अपनी अभिव्यक्ति की विशिष्टता के चलते ये एक विधा का भी बोध करा रहे हैं? ...ब्लॉग का मतलब बस पारम्परिक विधाओं को मंच देना भर है या ब्लागिंग की अपनी भी कोई खास  खूबी है? ....जैसे ट्विटर पर मेसेज ही मीडिया बन उठा है .....

हम ब्लॉग को ब्लॉग ही बनाये रखें और उसे पारम्परिक विधाओं से एक अलग पहचान दें -जैसे ब्लॉगर आज नयी कटेगरी है -कवि,लेखक ,सम्पादक ,निबंधकार से आगे की एक नयी जमात जो अपने कथ्य की विशिष्टता के खातिर जानी जाती है .....बेलौस बिंदास कहने की क्षमता के कारण जो अपना पहचान बना रही है ..यहाँ पारम्परिक विधाओं की आरोपित,बंधनयुक्त  शिष्टता नहीं है बल्कि स्वयंस्फूर्त विचार विनिमय का उल्लास है .....और जो अभी भी ब्लागिंग के इस  तेवर/क्षमता  को नहीं पहचान पा रहे हैं वे इस पावरफुल माध्यम /विधा का समुचित दोहन नहीं कर पा रहे हैं....वैसे भी जब डायरी लेखन साहित्य की एक स्थापित विधा है तो फिर अंतर्जाल -डायरी लेखन क्यों नहीं?

मजे की बात है कि अंतर्जालीय मीडिया की प्रौद्योगिकीय गति इतनी तीव्र हो चली है कि यहाँ जवाब पहले मिल रहे हैं सवाल बाद में पूछे जा रहे हैं ....मैं तो ब्लॉग को अभिव्यक्ति की एक नयी विधा भी मानता हूँ ..मेरे लिए ब्लॉग कम कहे में अधिक समझना है ,तीव्रतर संवाद की मारकता लिए है ,प्रस्तुति में नूतनता लिए है ,कलेवर में अपूर्व सुन्दरता लिए हैं ...क्षणे  क्षणे यन्नवतामुपैति...... दूसरे ब्लागों को लिंक कर एक नयी पद्धति -अर्थगामिता की पहल है .....तो फिर  यह एक नवीन विधा क्यों नहीं है -हम क्यों इसे बस अभिव्यक्ति का एक माध्यम कहकर  इसकी असीम सम्भावनाओं को खारिज किये दे रहे हैं ....कल्चर कैट की उद्घोषणा उल्लेखनीय है " a poem is a genre and a sonnet is a subgenre; a blog is a genre and a warblog is a subgenre.'


आज फिलहाल इतना ही,आगे आपके विचार एक नयी चर्चा,नयी बहस की भावभूमि तैयार करेगें  -यही उम्मीद है!



मंगलवार, 30 अगस्त 2011

मन की उम्र

मेरे मित्र ,सहपाठी ,पारिवारिक चिकित्सक और जार्जियन डॉ. राम आशीष वर्मा जी अक्सर समवयियों(पीयर ग्रुप )  को चेताते रहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ काया तो जरावस्था को प्राप्त होती रहती है मगर मन उसी तरह स्फूर्त और युवा बना रहता है-मतलब शरीर मन का साथ छोड़ने लगता है.आशय यह हुआ कि मन और देह का चोली दामन का साथ नहीं है . और इस लिए बहुत सावधान रहना चाहिए और मन की हर बात को मानने के पहले अपनी दैहिक समीक्षा अवश्य कर लेनी चाहिए और एक विज्ञ सुचिंतित निर्णय लेना चाहिए नहीं तो अपने  स्वास्थ्य को आप खतरे में डाल  देगें और चिकित्सकों की चांदी में और इजाफा ही होगा -मुझे नहीं मालूम कि हमारे ब्लॉगर चिकित्सक, डॉ.वर्मा की इस बात से इत्तेफाक रखेगें या नहीं मगर मेरा पूरा इत्तेफाक है -क्योकि मैं डॉ.वर्मा पर एक चिकित्सक और मित्र के नाते भी पूरा विश्वास रखता हूँ . उनकी डायग्नोसिस सटीक होती है -और मैं इस उधेड़बुन में हूँ कि इधर वे कई बार यह बात मुझसे क्यों कह गए हैं? क्या मुझे भी उनकी सलाह पर गंभीरता से सोचना चाहिए या फिर इस बात को बस ऐसे ही कही जाने  वाली कतिपय बातों (प्लैटीचूड)   की तरह टाल दिया जाना चाहिए ..मगर मैं समझता हूँ कि उनकी बात में दम है!और इसलिए मैंने उनकी इस सलाह पर गंभीर चिंतन मनन किया है ..कुछ प्रेक्षण ब्लॉग जगत में भी किया है और खुद अपना भोगा हुआ यथार्थ तो है ही ... :) 

आखिर ऐसा क्यों है कि शरीर का साथ मन नहीं देता? बचपन में मन तो बच्चा रहता है किशोर और युवा भी होता चलता  है.. मतलब उम्र के सामयिक बढाव (क्रोनोलोजी) के साथ एक समय तक तो मन की  और देह की उम्र का सायुज्य -समन्वय बना रहता है मगर जैसे ही शरीर जरावस्था की ओर    अग्रसर होता है वह मानों जिद्दी बच्चे की तरह देह से किनारा करने लगता  है ....तुम जाओ भाड़ में अभी तो मैं जवान हूँ ..... एक अजीब सी कान्फ्लिक्ट शुरू हो जाती है ...शरीर बुढ़ाता जाता है मगर मन उसी तरह चंचल बना रहता है .....गीता में कृष्ण ने भी अर्जुन के माध्यम से जन जन को इसलिए ही आगाह किया -हे अर्जुन यह मन बड़ा चंचल है मगर हाँ , निरंतर स्व -अनुशासन   से इस पर नियंत्रण रखा जा सकता है ..मगर यह नियंत्रण वाली थियरी मानवता पर पूरी तरह लागू नहीं हो पाई -कितनी ही शकुन्तलाओं और मत्स्यगंधाओं के जन्म इस बात के प्रमाण हैं ....मतलब आज तक न तो अध्यात्म और न ही विज्ञान या तकनीक के पास इस दुर्निवार समस्या का कोई स्थाई हल मिल सका है ....हाँ आत्म अनुशासन कुछ सीमा तक कारगर है मगर यह  परिवेश ,स्फुलिंग ,अंतरावस्था ,मनः स्थति आदि अन्यान्य बातों पर निर्भर है ....

पुराण कथा है है की राजा ययाति ने अपने एक पुत्र से युवावस्था की भीख तक मांग ली ...पितृभक्त पुत्र ने अपने मन का अर्पण कर दिया ..क्या आधुनिक चिकित्सा कोई ऐसा माजूम -मन्त्र मनुष्य को कभी सौंप सकेगी? एक कथा आती है अर्जुन की जब वे एक हिजड़े (बृहन्नला) के रूप से उन्मोचित हुए तो सचमुच बड़ी क्लैव्यता का अनुभव कर रहे थे तब दैव-चिकित्सकों ने उनको पुनः  उर्जित किया -वे मन से फिर युवा हो गए -क्या इस चिरयौवन की कुंजी मनुष्य को कभी मिल पायेगी? यह पोस्ट लिखते समय मेरे मन में बार बार यह एक असहज सी बात आ रही है कि देह और मन की यह बेमेलता पुरुषों के साथ ही क्यों ज्यादा है -वे ही इस अभिशाप से क्यों ज्यादा त्रस्त हैं?(ब्लॉग जगत के निरंतर प्रेक्षण ने इस अध्ययन में मेरी काफी मदद  की है -शुक्रिया ब्लॉग जगत! ) ..आखिर प्रकृति की क्या गुप्त अभिलाषा है?वह चाहती क्या है? एक जैविकी के अध्येता के रूप में मेरी कुछ संकल्पनाएँ हैं  -

मनुष्य अपनी अंतिम सांस तक प्रजनन -उर्वर रहता है जबकि नारी यह क्षमता जल्दी ही ,सामान्यतः ५० वर्ष के बाद ही त्याग देती है ....अब शरीर भले ही जरावस्था में है मगर कुदरत की खुराफात तो देखिये उसने नर की प्रजनन क्षमता -शुक्राणुओं को सक्रिय बनाए रखा है ...और यह बिना उद्येश्य के नहीं -यह प्रकृति चाहती है कि पुरुष मरते दम तक प्रजनन में योगदान देता रहे ....और यह तब तक क्रियात्मक नहीं होगा जब तक उसके मन को भी चंचल न रखा जाय! मगर विचारणीय यह है कि कुदरत की यह अपेक्षा पुरुष से ही क्यों है ? इन प्रश्न का उत्तर हमें जैविकी और मानव अतीत के कई अतीत -गह्वरों में ले जाएगा ....क्या संतति संवहन के लिए पुरुष(शुक्राणु )  का योगदान ज्यादा जरुरी है ? मगर बिना नारी के योगदान (अंडाणु ) के संतत्ति निर्वहन /संवहन संभव नहीं यह हम सभी जानते हैं ....क्या अतीत के किसी धुंधलके में पुरुषों की संख्या बहुत कम हो गयी थी -नारियां भोग्य थीं इसलिए  अबध्य थीं ..उनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी ...पुरुष संख्या क्रांतिक सीमा तक कम होती जा रही थी... प्रकृति के पास कालान्तरों में   इसके बिना कोई चारा नहीं रहा कि वह पुरुष को अखंड उर्वरता दे दे ? सोचिये आप भी ....

मगर ऐसा परिहास कि मन के  ओज को बनाए रखने के बावजूद  भी शरीर को  प्रकृति  बुढापे से मुक्त नहीं कर पायी और पुरुष को प्रायः  उपहास का पात्र  बनाया :( ....यह ठीक नहीं हुआ ..सरासर नाइंसाफी ...मैं तो चाहता हूँ स्त्री और पुरुष दोनों को ही चिर यौवन की सौगात मिल जाय .
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अब वैज्ञानिकों से हम यही   आस लगाए बैठे हैं!  




शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

गुरु प्रसंग!

आज गुरु पूर्णिमा है .गुरु की पूजा और आराधना का दिन .भारतीय वांगमय में गुरु की अनंत महिमा गाई गयी है -कभी एक गुरुकुल प्रणाली भी हुआ करती थी जब वन उपवनों में गुरु के पैरों के सानिध्य में ज्ञानार्जन होता था -यह  उपनिषदीय परम्परा थी  -जिसका शाब्दिक अर्थ ही है नीचे बैठना ....लगता है उपनिषद काल तक गुरु का स्थान बहुत ऊंचा था जिसकी प्रतीति कालांतर की इस उक्ति से भी होती है -गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पायं ,बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय ...मतलब ईश्वर साधना बिना गुरु कृपा के संभव नहीं!गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाऊँ !

आज विगत की यह गुरु परम्परा केवल संगीत की दुनियां में ही देखी जा सकती है और वहां भी यह अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रही है ...बावजूद इसके कि एकलव्य प्रसंग में गुरु की निष्पक्षता कटघरे में आने का महाभारतीय काल का दृष्टांत सामने था बाबा तुलसी का  गुरु समर्पण जहाँ अचम्भित करता है वहीं कबीर गुरु चयन  के मामले में बहुत सावधान से दिखे हैं...वे आगाह करते हैं ....जाका गुरु है आंधरा  चेला निपट निरंध अँधा अंधरो ठेलियो दोऊ कूप परंत....किन्तु तुलसी का गुरु समर्पण अपनी उदात्तता पर है, वहां भ्रम या संशय की कोई गुंजायश ही नहीं! वे गुरु को ईश्वर से भी ऊपर मानते हैं ...और मानस का प्रारम्भ ही गुरु की चरण वंदना से करते हैं -बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा ,सुरुचि सुवास सरस अनुरागा .....वे गुरु की पद धूलि को अमृत तुल्य मानते हैं, नाखूनों को दिव्य प्रकाश वाली मणियाँ मानते हैं -गुरु के प्रति यह समर्पण और उसकी सहज स्वीकारोक्ति मैंने कहीं अन्यत्र नहीं देखी -हाँ गुरु का नाम छिपा जाने की गुरुता तो कितनी और कितनो की ही  देखी है ...

यह सही है कि लोकजीवन में गुरु शब्द नए अर्थ अपनाता गया है ..अब गुरु का अर्थ है चालाक ,माहिर ,शाणा..'काहो गुरु...' की  अभिव्यक्ति में यही भाव छुपा है ....लगता है महाभारत काल के बाद से ही गुरु पद संदेह के घेरे में आता गया ....जहाँ पहले गुरु कृपा बिना किसी मूल्य के ही होती थी ..बाद में वह कतिपय शर्तों और मूल्य के बंधन में आती गई..उपनिषदीय परम्परा को उपाध्यायी परम्परा ने तिरोहित किया ..जब शिक्षा सशुल्क बनती गई ..लगता है इसी सशुल्क शिक्षा ने समाज में गुरु के सम्मान का तिरोहण किया ....और आज तो गुरु की जो (महा)दशा समाज में है कुछ न पूछिए ..अब तो गुरु किसी के लिए एक असहज उपाधि सी हो गई है ....

आज गुरु शिष्य का सहज स्नेह-श्रद्धा का सम्बन्ध ख़त्म हो गया है ....विश्वविद्यालयों के गुरु अपने ही शोध छात्र की खून पसीने के मेहनत से मिले परिणामों को अपने नाम से छपा ले रहे हैं ..अनेक मामले प्रकाश में आये हैं....आज उस उपनिषदीय गुरु की परम्परा   ही विलुप्त हो गई है -सच्चे गुरु का मिलना असम्भव सा हो गया है ....इससे बढ़कर  किसी सच्चे शिष्य की क्या व्यथा हो सकती है कि उसके लिए कोई गुरु ही अप्राप्य है ....मगर कोई सच्चा गुरु कहीं अंतिम साँसे ले भी रहा हो तो उसे भी एक अदद सच्चे शिष्य की तलाश  है जो उसे दगा न दे जाय ....आज गुरु घंटालों का ज़माना है तो मक्कार कृतघ्न  शिष्यों की भी कमी नहीं है.....आज किसी ऐसी मैट्रिमोनियल सेवा प्रदाता सरीखी सुविधा की नितांत आवश्यकता है जो किसी सच्चे गुरु को सच्चे शिष्य से मिला सके ....मेरी अपनी आपबीती तो बहुत ही बुरी रही ..जब गुरु की जरुरत में दर दर भटक रहा था तो मन का गुरु नहीं मिला और जब गुरु की उम्र सीमा तक पहुंचा तो शिष्यों की ऐसी जमात मिली की तबीयत हरी हो गई ....दोनों जहां बर्बाद हुए .... :( ....दोनों जहाँ तेरी मुहब्बत में हारकर वो जा रहा है कोई शबे गम गुजार कर ....!)


वैसे सीखने के लिए कोई उम्र बड़ी नहीं होती और गुरुओं की न ही कोई कमी  -एक ऋषि हुए हैं दत्तात्रेय उनके तो २६ पशु पक्षी गुरु थे... शायद   शिष्यत्व  भाव ज्यादा मायने  रखता  है बनिस्बत इसके कि गुरु कौन है ...एकलव्य प्रसंग भी शायद  यही इंगित करता  है ....किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि किसी गुरु को शिष्य धोखा दे जैसा कि कर्ण ने परशुराम को दिया था ...और श्राप ग्रस्त हुआ था ...गुरु भले अपनी गुरुता छोड़ दे मगर शिष्यत्व का अभाव नहीं होना चाहिए ....हमारी बोधकथाएँ भी यही संकेत करती लगती हैं ! 

कहने को तो बहुत कुछ है ...आज गुरु पर्व पर सोचा ये कुछ बातें आप से साझा करूं! 



  

शनिवार, 25 जून 2011

बहुत बलवती है मनुष्य की आशा

मनुष्य मूलतः एक आशावादी प्राणी है ...निराशा उसका स्थायी भाव नहीं है....सब कुछ ख़त्म होने के बाद भी उसकी आँखों में भविष्य की चमक/झलक  देखी जा सकती है ..विवेकानंद ने एक बार कहा था कि अगर तुम्हारा सब कुछ ख़त्म हो गया है तो देखो भविष्य  अभी भी तुम्हारे  पास है ,अक्षत और सुरक्षित! मनुष्य की आशावादिता ही उसकी वह थाती है जिससे वह आज धरती पर सर्वजेता बना हुआ है .करोडो वर्ष के विकास की यात्रा में उसकी इसी आशावादिता और जिजीविषा ने दीगर पशुओं से उसे बढ़त दिलाई है...यह भी प्रकृति के अनेक चमत्कारों में से एक है कि मनुष्य का दिमाग ख़ास तौर पर आशावादिता के लिए 'प्रोग्राम्ड' है -नए वैज्ञानिक अध्ययन  तो यही खुलासा करते हैं

मनुष्य की प्रबल आशावादिता का एक उदाहरण महाभारत से है जो भले ही एक मिथक हो मगर  मनुष्य की मूल सोच का एक उल्लेखनीय उदाहरण प्रस्तुत करता  है ...  महाभारत का युद्ध अंतिम दौर में था ..कौरवों के धुरंधर सेनापति पराजित/हत  हो चुके थे..ऐसे में अंतिम सेनापति के रूप में दुर्योधन ने अपने सारथी शल्य को ही रण भूमि में सेनापति बनाकर भेजा ...संजय यह दृश्य देखकर किंचित उपहासात्मक लहजे में  धृतराष्ट्र से कहते हैं ,'राजन ,देखिये तो मनुष्य की आशा कितनी बलवान है कि अब शल्य पांडवों को जीतने चला है ..' कहाँ भीष्म और द्रोण जैसे महायोद्धा और कहाँ एक अदना सा  सारथि शल्य ...भले ही कौरवों की पराजय हुयी मगर दुर्योधन की जीतने की आशा तो अंतिम घड़ी तक बनी रही ...ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण भारतीय पुराण इतिहास में देखे जा सकते हैं ...



भारतीय जीवन दर्शन तो आशावादिता से भरा ही हुआ है -भले ही यह सच है कि उसमें बहुत सा घोर अतार्किक आशावाद है . हमारे अधिकाँश साहित्य सुखांत है ...अगर मनुष्य का मस्तिष्क ऐसा न होता तो प्रायः पूरी प्रजाति ही थक हार कर बैठ जाती...कोई प्रयास ही न करती ...कोई उद्यम ही न करती ....मगर केवल आशावादिता ही पर्याप्त नहीं है उस दिशा में प्रयत्न भी किये जाने चाहिए -ज्ञान विज्ञान के अकूत भारतीय वांगमय बार बार यह बताते रहे हैं  ..गीता तो मनुष्य के कर्म को ही प्रधान मानती है ...भगवान में आस्था भी मनुष्य की  आशावादिता का ही एक रूप है ...सब कुछ ख़त्म हो गया है मगर एक सर्व शक्तिमान तो है जो सब कुछ ठीक कर देगा ..इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ठीक कर देगा ...फिर चिंता की क्या बात ...संतोष रखिये... होयिहें वही जो राम रचि राखा .... कुतर्क मत करो ईश्वर पर भरोसा रखो ...यह प्रबल आशावादिता नहीं तो और क्या है ?  और यह आशावाद भले ही अतार्किक हो मनुष्य जाति का परचम बुलंद रखने में इसका बड़ा योगदान रहा है ...

कभी कभी सोचता हूँ मेरे जैसे वे सभी लोग कितना बदनसीब हैं जिनके पास आस्था का कोई ऐसा आधार नहीं है.जो नास्तिक हैं ,अज्ञेयवादी हैं ..ईश्वर जैसी सत्ता में जिनका विश्वास नहीं है ...जीवन की कतिपय बड़ी विपदाओं के समय उत्पन्न   निराशा के समय इनके पास खुद अपनी इच्छाशक्ति के  अलावा  आशा और विश्वास का कोई अतिरिक्त आधार नहीं होता ....कितने अकेले और असहाय से नहीं हो जाते हैं ऐसे लोग? तमाम अन्यायों और दुश्वारियों का मुकाबला इन्हें खुद अपने दम पर करना होता है ..इनके मस्तिष्क के अग्र  गोलार्ध में स्थित आशावादी केंद्र ही ऐसे में उनकी मदद करता होगा! 

रहीम का एक दोहा याद आ रहा है-रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन का फेर ,जब अइहें नीक दिन बनत लगिहें देर ...यह हमारा आशावाद ही तो है जो कवियों की वाणी बन गया है ...एक शायर ने मौत के वजूद की भी अनदेखी कर दी ..कहा -मौत से आप नाहक परीशां है आप जिन्दा कहाँ है जो मर जायेगें :) लीजिये जनाब यहाँ तो मौत को भी हंसी मजाक समझ लिया गया ...

..तो मित्रों ,आशा ही जीवन है और निराशा है मृत्यु  और यही है मूलमंत्र मनुष्य के जीवन की सार्थकता का ....





बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

मौन ही मुखर है आज ...

मौन को महिमामंडित करने में हमारे प्राचीन अर्वाचीन मनीषी प्रायः मुखर होते रहे हैं . मुनि शब्द ही मौन धारण करने की गुणता के कारण है .मौन आपकी स्वच्छन्दता  का कारण हो सकता है -
आत्मनः गुण दोषेण बंध्यते शुक सारिका 
बकाः तत्र न बध्यते ,मौनं सर्वार्थ साधनं

अर्थात वाचालता के   अपने गुण /दोष के चलते ही तोते और मैना पिजरे में कैद हो जाते हैं ;मगर बगुला चुप्पी लगाये रहने के कारण ही स्वतंत्र रहता है -मतलब मौन रखने से सब कुछ साधा जा सकता है ....अंगरेजी साहित्यकारों की ऐसी उक्तियाँ हैं कि वाचालता  रजत है जबकि मौन स्वर्ण या फिर पानी वहां शांत बहता है जहाँ सोता गहरा होता है ...साथ ही यह भी कि खाली शीशी जोरदार आवाज करती है (इम्प्टी वेसेल मेक्स हाई न्वायज ..) और अपने यहाँ भी अधजल गगरी छलकत जाय जैसे मुहावरे चुप रहने की ओर ही निर्देश करते लगते हैं ..ऊपर के संस्कृत श्लोक की ही तर्ज पर एक देशी कहावत भी है कि न निमन्न गीत गायन न दरबार धर के जायन ....

कभी कभी सचमुच समझ में नहीं आता कि मुखर हो जाना ठीक है अथवा मौन ....हाँ यह जरूर है कि अति की वर्जना तो होनी ही चाहिए ....अति का भला न बोलना अति की भली न चूप ..अति का भला न बरसना अति की भली न धूप ...अति सर्वत्र वर्जयेत .....मगर मेरी अपनी तो व्यथा ही अलग रही है -
नतीजा  एक ही निकला 
कि किस्मत में थी नाकामी 
कहीं कुछ कह के पछताया 
कहीं चुप रह के पछताया 
अब  यह तो किसी विडंबना से कम नहीं ....मेरे मन  में ये बाते परसों से न जाने क्यूं उमड़ घुमड़ रही थी कि  सुबह ही सिद्धार्थ जी ने बताया कि आज तो मौनी अमावस्या है यानि जम्बू  द्वीपे  भारत भू खंडे का एक प्राचीन पर्व -एक मौन पर्व जिसका विधान रहा है कि आज के दिन पुण्य सलिला नदियों में स्नान ध्यान दानादि करके यथासम्भव चुप रहना चाहिए ...मानवता का एक गुण है मौनता ....चिर मौन हो जाने के पहले भी मौन होने का  शायद एक पूर्वाभ्यास या चिर मौनता का एक पूर्वाभास :) मतलब मौन रहकर आध्यात्मिकता की अनुभूति .... गंगा स्नान न कर पाने की विवशता में घर में गंगा जल के छिडकाव से  ही मैंने गंधर्व स्नान कर लिया है और यथा संभव मौन रहने के प्रयास में लगा  हूँ ..आप भी कुछ समय मौन रहकर इस पर्व की भावना से जुड़ें -यही अनुरोध है ! 




गुरुवार, 17 जून 2010

गृहिणी -लक्ष्मी ,सरस्वती या दुर्गा ? एक परिशिष्ट चिंतन!

पिछली पोस्ट गृह लक्ष्मी ही क्यों गृह सरस्वती क्यों नहीं पर खूब चिंतन मनन हुआ! विद्वान् ब्लागरों ने एक से एक नायाब और दुर्लभ संदर्भ दिए ..मनुस्मृति तक से उद्धरण दिए गए -गृहिणी को लक्ष्मी माने जाने और कहने की परम्परा बहुत पुरानी लगती है .दूसरी देवियाँ भी हैं मगर गृहिणी  लक्ष्मी के रूप में साक्षात है .प्रवीण जी ने चुटकी ली -दुर्गा पर भी विचार कर लिया जाय .मुझे अपने युवा -काल की याद आ गयी -मेरे एक मित्र जो आज एक नामी गिरामी वकील हैं की शादी जिस कन्या से तय हुई उनका नाम दुर्गा ही था ....बड़े धूम धाम से शादी हुई थी ..बलिया से आसाम तक का रिश्ता जुड़ गया था ...बाद में रोजी रोटी के चक्कर में मित्र गण अलग थलग हो गए -कई वर्षों बाद मेरे वे मित्र अचानक कहीं दिखे तो कुशल क्षेम के क्रम में मैंने उनसे भाभी का हालचाल पूछा तो वे अनमने हो गए -गहरा निःश्वास ले के बोले मिश्रा जी वे तो यथा नामो तथा गुणों ही थीं -हमारा तलाक हो गया है ...तो दुर्गा की छवि गृहिणी के रूप में लोकमानस में स्वीकार्य नहीं -वे प्रातः स्मरणीया हैं ,शक्ति की अधिष्टात्री हैं मगर पत्नी के रूप में स्वीकार्य नहीं -कौन चाहेगा एक रणचंडी स्वरूपा पत्नी ? तो दुर्गा देवी तो घर से आउट! वे केवल और केवल माँ के रूप में ही स्वीकार्य हैं ! 

सरस्वती और दरिद्रता का चोली दामन का साथ रहा है -वे विपन्न साहित्यकारों ,सृजनकर्मियों ,रचनाकर्मियों पर ही उदार रहती आई हैं -अब भले ही बौद्धिकता को संपत्ति का दर्जा दे  दिया गया हो मगर सम्पत्ति से केवल लक्ष्मी का ही आदिम रिश्ता रहा है -अगर कोई सर्वे किया  गया हो या फिर फिर किया जाय तो बार बार यही तथ्य उजागर होगा कि लक्ष्मी रुपायें आँख के अंधे और गांठ के पूरे का ही वरण करने को उद्यत रहती हैं -जीर्ण शीर्ण विपन्न को भला कौन लक्ष्मी चुनना चाहेगी ? और पहले से ही सरस्वती कृपा पात्र कोई भी सुयोग्य वर भी क्यों दरिद्रता की द्योतक सरस्वती की चाह रखेगा ! भले ही सौतिया रार ठनती रहेगी मगर पत्नी के रूप में लक्ष्मी ही आज भी पहली पसंद हैं ..कुछ विचार यह भी आये कि आज सरस्वती और लक्ष्मी का समन्वयन जरूरी है -अच्छा विचार है ,मैं भी इससे अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ ! मगर कोई परफेक्ट समन्वयन तो संभव नहीं है या तो सरस्वती का भाव अधिक होगा या फिर लक्ष्मी का ...लक्ष्मी भाव प्रबल हुआ तो वह धनाढयता की चाह करेगीं और सरस्वती भाव प्रबल हुआ तो वह बौद्धिकता की चाहना  करेगीं -दूसरी स्थिति ज्यादा लोगों के लिए कई कारणों से स्वीकार्य नहीं रही है -एक घर में पहले से ही सरस्वती का वरद हस्त प्राप्त भला दूसरी सरस्वती क्यों चाहेगा ? फिर तो दरिद्रता और भी हावी होती जायेगी !इसलिए जनमानस में गृहिणी सरस्वती नहीं लक्ष्मी की ही प्रतिमूर्ति बनी रही है ..सरस्वती के वरण से रोज रोज कौन वाद विवाद खिच खिच पसंद करेगा ..उभय पक्ष की शांति समृद्धि केवल लक्ष्मी की ही कृपा से संभव है !

लक्ष्मी की एक और रूढ़ छवि भी जनमानस को आनन्दित करती रही है -उनका सेवा भाव! धन धान्य से पूर्ण घर में आराम की जिन्दगी और सेवा रत पत्नी किसी भी के लिए एक आदर्श /यूटोपिया सदृश ही है -जैसे क्षीरसागर में शयन करते विष्णु का पैर दबाते अनन्य सेवा भाव में डूबी लक्ष्मी का चित्र दिमाग में हमेशा कौधता रहता है ...इस कारण भी पत्नी लक्ष्मी स्वरूपा हुईं ...भला किसी ने सरस्वती को कभी ब्रह्मा का पैर दबाते देखा है ? मगर आज सामाजिक जीवंन के प्रतिमान बदल रहे हैं -आज सरस्वती लक्ष्मी प्राप्ति का जरिया बन रही हैं ....आज पति की चड्ढी बनियान साफ़ करने के पारम्परिक  सेवा भाव का तिरोहन भी स्पष्ट दीखने लगा है ...कुछ भी हो लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही स्वीकार्य हो सकती हैं ..मगर देवी दुर्गा को घरेलू झमेले में खींचना ठीक नहीं है वे रण की ही चंडी बनी रहें .....शक्ति रूपा बन लोक मंगल का मार्ग निर्विघ्न बनाए रहें बस! 

 या देवी सर्वभूतेषु गृहिणी रूपेण संस्थिता नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः 

ब्लॉग जगत में भी यह रायशुमारी करा लेने में कोई असंगत बात नहीं लगती कि एक गृहिणी के रूप में नारी आज लक्ष्मी के पारम्परिक रूप में रहकर आँख के अंधे गांठ के पूरे को अपना पहला पसंद देती है या फिर किसी बुद्धिजीवी को तरजीह देगी ? उसी तरह पुरुषों में कितने लोगों की पसंद लक्ष्मी और कितनो की सरस्वती होंगीं ? अपना विचार व्यक्त करें न !

मंगलवार, 15 जून 2010

गृह लक्ष्मी ही क्यों, 'गृह सरस्वती' क्यों नहीं ?

कभी कभी मन में कुछ बातें ऐसी उलझती हैं कि सुलझाए नहीं सुलझतीं बल्कि और उलझती  चली जाती हैं .यह आज की उलझन भी ऐसी है -गृह लक्ष्मी ही क्यों,  'गृह सरस्वती' क्यूं नहीं ? हम पत्नी को गृह लक्ष्मी क्यों कहते आये हैं और प्रकारांतर से उल्लू होने का बोझ उठाये रहे हैं! पत्नी को लक्ष्मी  का दर्जा देते ही चिरकालिक  उल्लू होना पति की नियति बन जाती है . शायद ही कोई बुद्धिमान पति इस बात से असहमत होगा कि अपनी पत्नी के चयन के मामले में वह उल्लू न बना हो ...चाहे  यह चयन खुद उसके द्वारा किया गया हो या फिर सामजिक व्यवस्था के चलते उस पर यह थोप दिया गया हो -दोनों ही मामलों  में उसे यह समझने में ज्यादा दिन नहीं लगता कि वह उल्लू बन बैठा है या उसे बनाया जा चुका है! .वैसे लोग लुगायियाँ  यह भी दलील देगीं कि सरस्वती तो आखिर माँ तुल्य हैं उन्हें पत्नी के रूप में भला कैसे देखा जा सकता है ? मगर यह एक लचर तर्क है क्योंकि सभी देवियाँ हमारी माँ तुल्य ही हैं ...
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मेरी एक मित्र ने एक निजी (चैट ) चर्चा के दौरान कहा कि पत्नी को सरस्वती कहने में ख़तरा यही है कि फिर उन्हें ज्यादा बुद्धिमान मानना होगा जो पुरुष अहम् को गवारा नहीं है .दरअसल यह लक्ष्मी चिंतन कई पहलुओं को समेटे हुए हैं जिसमें एक आम भारतीय के  पारिवारिक जीवन ,उसकी सामजिक मान्यताएं ,पूजा उपासना पद्धति और पुरनियों की सोच और पारिवारिक -सामाजिक व्यवस्था ,मिथकीय चिंतन  के भी कई रोचक सूत्र समाये हुए हैं ....अगर लक्ष्मी घर में  हैं तो फिर सरस्वती भी तो कहीं निकट ही होंगीं जहाँ एक पति मन खुद को राजहंस मानने की अनुभूति से प्रमुदित भी होना चाहता होगा  ? मुझे यही लगता है कि जीवन भर उल्लू बने रहने की मानसिकता से उबरने का भी हर पति -मन कभी न कभी जरूर प्रयास करता है  -पल भर के लिए ही वह राजहंस होने ,नीर क्षीर विवेक की क्षमता से युक्त होने को मचलता है लिहाजा किसी सरस्वती को खोजता फिरता है ....और यह एक शाश्वत खोज है ...पति के लिए .चरैवेति चरैवेति किस्म की ....

पति की एक और चालाकी भरी सोच हो सकती है -वह पत्नी को लक्ष्मी का संबोधन देकर प्रकारांतर से खुद को विष्णु बन जाने की खुशफहमी पालता हो ...महज इस अर्थ में कि विष्णु बहुत सुन्दर और मोहक व्यक्तित्व के स्वामी हैं ..कहते हैं समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी ने विष्णु का वरण ही इसलिए किया कि वे सर्वांग सुन्दर थे ..मौके पर इतना सुन्दर वहां कोई और नहीं था ...तो ज़ाहिर है पत्नी को लक्ष्मी मानने  मात्र से खुद को सुन्दर होने की सुखानुभूति पतियों को सहज ही मिल जाती हैं ..मगर एक बात मुझे यहाँ व्यथित करती है -संस्कृत के एक श्लोक का भाव यह है कि -पुरुष पुरातन की प्रिया क्यों न चंचला होय ? मतलब लक्ष्मी का मन स्थिर नहीं रहता,गति भी स्थिर नहीं है  -हमेशा चंचल है -कहीं पत्नी को लक्ष्मी की संज्ञा से विभूषित कर पति का सहज संशकित मन उस पर  हमेशा सजग दृष्टि की आवश्यकता की इन्गिति तो नहीं करता ? पति पुरनिया बेचारा कहीं किसी और सुदर्शन पुरुष के चलते बेसहारा और निरीह न हो उठे ! इसलिए ही वह पत्नी को लक्ष्मी का नामकरण देकर शाश्वत सजगता का उपाय कर बैठा हो ! 

जो भी हो लक्ष्मी और सरस्वती के फेर में पुरुष का जीवन बीत जाता है -लक्ष्मी स्वरूपा पार्वती जी सरस्वती रूपा माँ गंगा से सौतिया डाह रखती हैं क्यों कि शंकर जी गंगा जी को हमेशा सिर चढ़ाये रहते हैं -खुद तो आदि देव गंगा -संयुक्ता हो लिए मगर अपनी संतति पुरुषो को केवल लक्ष्मियों के सहारे ही छोड़ गए -भोले बाबा ये आपकी कैसी फितरत है ? खुद लक्ष्मी और सरस्वती को एक साथ साधे बैठे हैं और हमें केवल लक्ष्मियों के ही रहमो करम पर छोड़ बैठे हैं ..बहुत बेइंसाफी है यह ...

लक्ष्मी और सरस्वती चिंतन में आपके विचार आमंत्रित है! .

मंगलवार, 25 मई 2010

वे जिनका विवादों से चोली दामन का साथ है...ब्राह्मण हैं वे?

एक लम्बे अंतराल के बाद मेरी एक चुनिन्दा  ब्लॉगर ने मेरा कुशल क्षेम पूछा -कुछ गिले शिकवे हुए! मैंने पूछा  बहुत दिनों बाद मेरी सुधि आई है तो उन्होंने कहा कि चूंकि बीते दिनों मैं विवादों में रहा और वे विवादों से दूर रहती हैं इसलिए दूर ही दूर रहीं -उन्हें विवादों में रूचि नहीं है -जवाब अपने लिहाज से दुरुस्त था मगर मुझे अपने अतीत में लेकर चला गया ...मैं उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राणी शास्त्र से पी. एच. डी. कर रहा था और मेरे एक प्राध्यापक थे,मेरे बहुत आदरणीय डॉ ऐ के माईती जी (अब दिवंगत ) ..वे सादा जीवन और उच्च  विचार के प्रतिमूर्त थे...मैंने दुनियादारी के बहुत से धर्म संकटों  में उनसे परामर्श लिया और लाभान्वित हुआ -उनकी कई सीखें आज भी मेरी धरोहर हैं -कुछ तो पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक चलने वाली भी ...लेकिन मैं उनकी एक बात जीवन में नहीं उतार सका और इसलिए ही शायद बीच वीच में संतप्त होता रहता हूँ -वह है विवादों से दूर रहने की .....मैंने उनसे तभी कहा था कि मैं प्रेम और ईश्वर के अस्तित्व पर लिखना चाहता हूँ -उन्होंने मना किया था ...कहा था कि विवादित विषयों से दूर रहो और भी कितने विषय हैं उन पर भी लिखो न ...

लेकिन मेरी विवादित विषयों से अरुचि कभी नहीं रही ...कभी सोचता था कि जब मैं इन विषयों पर लिखूंगा तो सारे विवाद एक झटके से दूर हो जायेगें ...मगर मैं कितने मुगालते में था आज अपनी इस भोली सोच पर हंसी आती है ...ईश्वर हैं या नहीं ,प्रेम के कितने रूप हैं आज भी यह बहस जारी है और शायद  तब तक ये बहस चलती रहेगी जब तक खुद मानवता का वजूद है ....और मुझे यह भी लगता है कि क्या दुनिया सचमुच इतनी मूर्ख है जो इतने सीधे से मामले को समझ नहीं पा रही है  या मैं ही महामूर्ख हूँ जो दुनिया को समझ नहीं पा रहा हूँ .खैर ,माईती   साहब की एक बात तो कालांतर में शिद्दत के साथ समझ में आ गयी कि ईश्वर और प्रेम (यौनिक ,अशरीरी और दूसरे रूप ) के सही रूप की  समझ 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना" जैसी ही है और इन पर समय बर्बाद करना कदाचित उचित नहीं है ...क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं ? 

लेकिन एक ब्राह्मण को ऐसा सोचना क्या उचित है .यहाँ ब्राह्मण से मेरा तात्पर्य है ," बंदहु प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना" (मैं सबसे पहले उन  ब्राह्मणों की चरण वंदना करता हूँ जो मोह से उत्पन्न सब भ्रमों को दूर करने वाले हैं -गोस्वामी तुलसीदास ) अगर विवादों का हल  ढूँढने में ,नई दिशा देने में कोई ब्राहमण सफल नहीं है तो फिर तो उसका ब्राह्मणत्व ही शक के दायरे में है ....तो फिर विवादों पर अपने मत क्यूं व्यक्त न करुँ -आखिर अपने ब्राह्मणत्व की पुष्टि जो करती रहनी है ....बहरहाल मैंने अनिता जी को जवाब दिया कि चूंकि वे अकादमीय जिम्मेदारियों से जुडी हैं इसलिए उनके पास निश्चित ही विवादों में हिस्सा लेने का समय नहीं है ....अकादमीय लोगों को अपने काम से काम रहना चाहिए ...(मगर मित्रों की सुधि लेते रहना चाहिए.. )  मैंने आराधना जी के बारे में यही सोचता हूँ कि वे भी चूंकि असंदिग्ध अकादमिक व्यक्तित्व हैं उन्हें भी विवादों से दूर रहना चाहिए -

मगर उनका भी शायद ब्राह्मणत्व बार बार आड़े हाथ आ  जाता है और वे कई मुद्दों पर एक दिशा देने समुपस्थित हो जाती हैं .
शायद ब्राह्मणों की एक कटेगरी वह भी है जो कोशिश तो करती है  विवादों को सुलझाने  की मगर उनके दुर्भाग्य से वे और भड़क जाते  हैं ....मैं शायद इसी अभिशप्त कोटि में हूँ ....या फिर नित नए विवादों को जन्म देने वालों की एक अलग कटेगरी है ब्राह्मणों की ......

पता नहीं शायद यह वाद  भी किसी नए विवाद को जन्म न दे दे .....आमीन!

सोमवार, 3 मई 2010

अच्छे बुरे लोगों की मेरी आख़िरी पोस्ट

पसंद नापसंद और अच्छे बुरे लोगों पर यह आख़िरी यानि समापन पोस्ट है. एक बात तय है कि अच्छाई बुराई एक सापेक्षिक अवधारणा है -विद्वान् टिप्पणीकारों अली सा आदि ने इस विषय की विवेचना और एक निश्चित राय /विचार तक पहुचने में बड़ी मदद की है -व्यक्ति तो निजी  तौर पर पसंद नापसंद  किये जा सकते हैं मगर बुराई या अच्छाई का निर्धारण एक सामूहिक सोच के आधार पर ही होने की परम्परा रही है -कोई अगर अपराधी है तो समाज का एक बड़ा हिस्सा उसे अपराधी  समझता  है .अब ब्लॉग जगत में भी ऐसी प्रवृत्तियाँ दिख रही/चुकी  हैं जिनसे वह दिन दूर नहीं लगता जब यह सामूहिक निर्धारण भी होने लग जायेगा कि  अमुक अमुक ब्लॉगर तो सचमुच गन्दा आदमी /औरत है -और यह कुछ लोगों के मामलों में हो भी चुका है और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया चल रही है -इसलिए सभी को अपनी अपनी फ़िक्र हो जानी चाहिए -मुझे भी बहुत लोग नापसंद करते हैं और यह संख्या बढ़ती जा रही है ..आये दिन कोई न कोई मेरी खिलाफत की गोल में अपनी हाजिरी दर्ज कर रहा है .मगर मैं समूह की बात के बजाय अपने खुद के आकलन पर ज्यादा निर्भर रहता हूँ ....यद्यपि यह लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया के विरूद्ध एक विचार है ...


सबसे गंभीर विवेचन को आमंत्रित टिप्पणी जील /डॉ.दिव्या श्रीवास्तव की थी और उस पर एक पोस्ट लिखने को उकसाती /उत्प्रेरित करती टिप्पणी अल्पना वर्मा जी की थी ....दोनों विदुषियों ने  पिछली पोस्ट पर सब बातों को विस्तार से ला दिया है ,मगर मुझे भी जरूर कुछ कहना है ...मैं जैविकी का विद्यार्थी रहा हूँ -जबकि मेरे कुछ काबिल मित्र जैव  निर्धारण वाद के विरुद्ध है -मगर मैं जैविकी को सिरे से नहीं नकार सकता. मैं मनुष्य को एक पशु ही मानता हूँ -एक सांस्कृतिक पशु -और उसकी एक निश्चित जैवीय विरासत  है. अगर  नर नारी के एक दूसरे के तरफ पारस्परिक रुझान  की बात करें तो -यह मूलतः जैवीय ही हैं -प्रथम दृष्टि का प्रेम जैवीय ही है ....और यह मामला सीधे सीधे लैंगिक चयन से जुडा है ,चाक्षुष चयन  और नारियों के  मामले  में  चरण दर चरण जैवीय अवचेतन  आकलन कि यह बन्दा भावी संतति का बोझ उठाने के प्रति ईमानदार भी  है -आनाकानी तो नहीं करेगा - अवचेतन  तो इसी उहापोह में लगा रहता है ....कोर्टशिप के अगले चरणों के कई अवरोधों के पार होने के बाद ही कोई भाग्यशाली (या हतभाग्य! ) नारी के "पर्सनल स्पेस" तक पहुँच पाता है -जैवीय मूल्यांकन के उपरांत ही ....मनुष्य ने एक अलग ही सामजिक व्यवस्था बना ली है -शादी व्याह, वैश्यागमन  या जिगोलोज इस जैवीय मूल्याकन  के विरुद्ध की मानवीय व्यवस्थाएं हैं .यहाँ पर्सनल स्पेस को प्रगटतः पा जाने में कोई प्रतिरोध नहीं है ....मगर उन स्थतियों में जहां एक सीमा के बाद नर उपेक्षित या तिरस्कृत होता है वहां मुश्किल आने लगती है -वह पीछे नहीं हटना चाहता ....आखिर उसका भी तो समय संसाधन सब कुछ गवायाँ हुआ रहता है -मगर नारी का सहज बोध उसे नहीं स्वीकारता क्योकि उसके जैवीव संवेदी तंतु जवाब दे चुके हैं -वह एक अच्छा बाप नहीं होने जा रहा है ....यही बड़ी त्रासद  स्थति है -मनुष्य में यह लैंगिक चयन नारी के मामले  में भावी संतति /वंशबेलि के नैरन्तर्य से जुडा है -अब इस बात को लेकर इतना संवेदी हो जाना समझ में तो आता है मगर इसे एक रूग्ण मानस -भय तक की अभिव्यक्ति दे देना शायद   ठीक नहीं है ....मनुष्य एक समझदार प्राणी है -ठीक से बातें समझाई जानी चाहिए -ऐसी कोशिश नहीं होनी चाहिए कि आपके तनिक हडबडी के निर्णय से कोई और एक बुरा बन जाय -अल्पना  जी के अनुसार खून खच्चर न कर बैठे .....मैंने भी कभी किसी को समझाया  था ....उसने तो मान   लिया था -यह निर्भर करता है कि आप ईमानदार कितने हैं ? .......कभी दूर तक न जायं अगर आप गम्भीर नहीं हैं ....दो दिलों का खेल कैजुअल नहीं है ..इसे गंभीरता से लें अथवा शुरू ही न करें ...शुरू भी कर दिया तो फिर फूक फूक कर कदम रखें ...और जितना जल्दी हो वापस हो लें .....हर पग आगे बढाने के किये सौ बार सोच लें ...

पुरुष का नारी की ओर और नारी का पुरुष की ओर आकर्षण सहज है ,स्वाभाविक है मगर तनिक सावधानी अपेक्षित है .लड़कियां भी सहज ही पुरुषों की ओर आकर्षित होती हैं -पुरुष मनोहर निरखत नारी ....मगर यहाँ सावधानी अपेक्षित है ....शुरू के मोहक आकर्षण बाद के लफड़ों में बदलने लगते हैं ...मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने कहा कि यार ये लडकियां भी अजीब होती हैं पहले तो खुद आगे बढ़कर गलबहियां डालती है और कुछ समय बाद   पहचानने से भी  इनकार करने  लगती हैं ....पुरुषों में भी ऐसे ही दृष्टान्त दिखने को मिलते हैं और बाद में अनेक परेशानियों और मानसिक संत्रास के कारण बनते हैं -इनकी ओर शुरू से ही जागरूक  होना चाहिए -आगे बढिए मगर सोच विचार कर -क्योकि उभय पक्ष उत्तरोत्तर  डिमाडिंग होने लगते है और एक सीमा के बाद कोई रोक टोक मुश्किले ला खडी करती है ....कुछ ही दिन पहले  का प्यारा अब आंख की किरकिरी बन जाता है -एक नया बुरा व्यक्तित्व समाजं में आ धमकता  है किसी के प्यार का ठुकराया  हुआ...और हाँ हर हाव भाव और मुद्राएँ लैंगिक आकर्षण वाली नहीं होतीं ,सब जानते हैं यह -बताने की जरूरत नहीं होती-कुछ भ्रम भी होता है तो जल्दी दूर हो रहता है .....

किसका दोष कहें इसमें ? कुदरत या आदमी .....मगर यह इश्यू तो है और लाखों जिंदगियां इसके चलते बर्बाद हो रही हैं ....


शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अच्छे और बुरे लोग -भाग दो (जानबूझ कर शीर्षक भड़काऊ नहीं है )

अंग्रेजी में एक  कहावत है ,बर्ड्स आफ सेम फेदर फ्लाक टुगेदर -मतलब एक जैसी अभिरुचियों और पसंद नापसंद के लोग एक साथ  रहते हैं ...सहज दोस्ती मित्रता और घनिष्ठ सम्बन्ध तक ऐसी अभिरुचि साम्य की बदौलत  ही होती है .कहते हैं की फला फला में दांत काटी रोटी है या फला फला  एक आत्मा दो शरीर हैं ....कभी कभी यह रूचि साम्यता तो एक नजर में ही दिल में गहरे  पैठ बना लेती है और कभी कभी अपना पूरा समय  भी लेती है --अनुभूति की गहनता कभी कभी सम्बन्धों में  किसी किसी को  एक दूजे के लिए बने होने की परिणति तक ले जाती है ......एक सहज बोध सा हो जाता है कि फला अच्छा है और फला बुरा ....

आधुनिक युग की प्रेमियों की डेटिंग भी  इसलिए ही लम्बी खिचती है ताकि जोड़े एक दूसरे की पसंद नापसंद को  भली भाति समझ बूझ  लें जिससे आगे   साथ साथ निर्वाह कर सकें यद्यपि यहाँ भी कुछ धोखे हो जाते हैं और बाद में साथ रहना झेलने सरीखा होने लगता है...हमारे पूर्वजों ने हजारों सालों के प्रेक्षण के दौरान इन बातों को बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था ...और इन कटु यथार्थों के बावजूद भी जीवन की गाडी खिचती रहे इसलिए कई सुनहले सामजिक  नियम आदि बना कर मनुष्य की आदिम भावनाओं पर अंकुश लागना शुरू किया था  ..दाम्पत्य में एक निष्ठता के देवत्व का  आरोपण .उनमे से एक था ..लेकिन मूल भाव तो वही है आज भी -.जो जेहिं भाव नीक तेहि सोई....मतलब जो जिसे सुहाता है वही तो उसे पसंद है ....तुलसी यह भी कहते हैं कि मूलतः भले बुरे सभी ब्रह्मा के ही तो पैदा किये हुए हैं -पर गुण दोष का विचारण कर शास्त्रों  ने उन्हें अलग अलग कर दिया है ...यह विधि (ब्रह्मा )  प्रपंच (सृष्टि ) गुण अवगुणों से सनी हुयी है .....यहाँ अच्छे बुरे ही नहीं ...पूरा चराचर ही  जैसे परस्पर विरोधी द्वैत में सृजित  हुआ है ...

दुःख सुख पाप पुण्य दिन राती . साधू असाधु सुजाति कुजाती 
 दानव  देव  उंच  अरु  नीचू . अमिय  सुजीवनु   माहुर  मीचू
माया ब्रह्म जीव जगदीसा .लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा 
कासी मग सुरसरि क्रमनासा .मरू मारव महिदेव गवासा 
सरग नरग अनुराग विरागा. निगमागम गुण दोष बिभागा  
[बालकाण्ड (५)]

दुःख -सुख ,पाप पुण्य, दिन रात, साधु(भले)  -असाधु(बुरे ) , सुजाति -कुजाति ,दानव -देवता ,उंच -नीच ,अमृत विष ,सुजीवन यानि सुन्दर जीवन या मृत्यु ,माया- ब्रह्म ,जीव- ईश्वर ,संपत्ति -दरिद्रता ,रंक -राजा ,काशी- मगध,गंगा -कर्मनाशा ,मारवाड़ -मालवा ,ब्राहमण -कसाई ,स्वर्ग -नरक ,अनुराग -वैराग्य ,ये सभी तो ब्रह्मा के ही बनाए हुए हैं मगर शास्त्रों   ने इनके गुण दोष अलग किये हैं -प्रकारांतर से सृजन/सृजित  का कोई दोष नहीं ,सब चूकि अलग अलग प्रकृति के हैं इसलिए इनमे मेल संभव नहीं है ....जो जेहि भाव नीक सोई तेही ...हाँ कुछ क्षद्म वेशी इस समूह से उस समूह में आवाजाही लगाये रहते हैं -चेहरे पर मुखौटे लगाये मगर कौन कैसा है यह भी बहुत दिनों तक छुपा नहीं रहता -उघरहि अंत न होई निबाहू कालनेमि जिमी रावण राहू ....अन्ततोगत्वा तो सब उघर ही जाता है ,अनावृत्त हो जाता है कि कौन क्या है ,रावण, कालनेमि, राहू --कब तक छुपे रह सकते हैं ये ....एक दिन तो .....

हम तो खुद को बुरा ही मानते हैं अगर अपनी कमियों को देखते हैं .....जो दिल देखू आपना मुझसा बुरा न कोय -खुशदीप ने ठीक उद्धृत किया ......यह कोई नया  चिंतन नहीं है सदियों से मनुष्य इन पर विचार विमर्श करता आया है ......आप अच्छे बने रहिये ,तब तक तो हम स्वतः बुरे रहेगें ही .......


गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

अच्छे और बुरे लोग ....1

भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक  बेहद ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले अधिकारी जो  इस समय उत्तर प्रदेश में एक उच्च पद को सुशोभित  कर रहे हैं ने काफी वर्षों पहले अपने लिए गए  एक निर्णय पर थोड़ा विचलित  होकर मुझसे पूछा था कि क्या उनका लिया गया निर्णय सही था ...वे  मुझसे वरिष्ठ अधिकारी थे  /हैं ..और चूंकि हायिआर्की का दबाव  ऐसा होता है कि आप ऐसे ही कोई कैजुअल जवाब अपने वरिष्ट अधिकारी को नहीं दे सकते इसलिए मैं थोडा पशोपेश में पड़ गया कि आखिर जवाब क्या दूं -मैं जानता था कि वह प्रश्न उन्होंने तमाम अधिकारयों की भीड़ में मुझसे ही पूछा था -बाकी उनके सामने बिछ जाने को लालायित ही रहते थे- सरकारी सेवाओं में जी हुजूरी की अपनी परम्परा रही ही है -उन्होने मुझसे पूछा, यह मुझ पर उनके विश्वास का तो परिचायक था ही मगर इस सवाल ने मेरे सामने सहसा  ही धर्मं संकट ला दिया था -बॉस को गलत जवाब भी न दूं ,उनकी औरों की तरह चापलूसी करुँ ना करू या सच इस तरह कहूं कि उन्हें मेरा जवाब चापलूसी सा न लगे -और यह कुदरती हुनर है जिसके कभी मसीहा हुआ करते थे बीरबल या तेनालीराम जैसे चतुर दरबारी .शायद उस समय मैंने इन्ही महापुरुषों का ध्यान किया हो ,अकस्मात मुंह से निकल पड़ा -
" सर आपका यह कदम अच्छे लोगों को अच्छा लगेगा और बुरे लोगों को बुरा  ...."
वे मुस्कुरा उठे और बात ख़त्म हो गयी ......मगर अकस्मात मुंह से निकल गयी बात पर मैं तब भी और आज भी वह प्रसंग याद आने पर विचारमग्न हो जाता हूँ .मेरे कहने का निहितार्थ क्या था ,यथार्थ क्या था ? आखिर उस बीरबली बात का क्या था भावार्थ ? मैं आज भी यह सोचता रहता हूँ ...

इसका एक सरलार्थ तो यही है कि दुनिया में एक ही मानसिकता के लोग नहीं होते ....संस्कार  ,परिवार और परिवेश -मतलब रहन सहन के चलते लोगों के अलग अलग व्यक्तित्व हो जाते हैं -एक जैसे विचार ,बुद्धि और व्यक्तित्व के लोगों में जमती है और अलग किस्म के अलग होने लगते हैं ....और यह आभासी दुनिया इस मामले में और भी धोखेबाज है ...मायावी है ..यहाँ लोगों के चेहरे के हाव भाव तो दीखते नहीं हैं -कुदरती निषेध भी समय रहते आगाह नहीं करते ..इसलिए यहाँ कई बिलकुल विपरीत विचारों के लोग धोखे  से पास आ जाते हैं मगर धीरे धीरे उन्हें लग जाता है की गलती हो गयी बन्दा /बंदी तो  अपने गोल की है ही नहीं -मेरे साथ ऐसा हो चुका है -और यह सचमुच बहुत पीड़ा दायक होता है दोनों पक्षों के लिए --ओह कहाँ फंस गए ..किस बजबजाती नाली /नाले में ....कितना समय तो कीचड साफ़ करते ही बीत जाता है...नए दोस्त तलाशो तो भी खतरे वही के वही ....बच के रहना रे बाबा बड़े धोखे हैं इस जाल में .....

तो तय बात यह है कि आप जो कुछ करते हैं वह समान धर्मा ,समान मनसा लोग पसंद करते हैं दीगर लोग नापसंद ..ब्लोगवाणी में  नापसंद की मौजूदा होड़ भी यही साबित करती है ..और लाख कोशिश की जाय ये छोटे छोटे दल यहाँ  बने ही रहेगें ....बल्कि और उग्र होते जायेगें यहाँ,  शन्ति के प्रयास बेमानी है -हम मनुष्य की प्रक्रति को इतनी जल्दी नहीं बदल सकते .संभल सकते हैं .....नीच लोग नीचों   के साथ ही रहेगें और अच्छे लोग अच्छे लोगों के साथ ..वे भी बिलकुल यही सोचते हैं .
पर दरअसल  नीच कौन है और कौन देवदूत ? अपनी अपनी निगाहों में तो सभी देवदूत ही हैं ..
यह चर्चा आगे भी चलेगी ... 






शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

आखिर एहसानमंद होना भी कोई बात है! शुक्रिया उन्मुक्त जी!

कौन इस पर ऐतराज करेगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है .हम मिल जुल कर रहते हैं ,एक दूसरे के सुख दुःख में शरीक होते हैं . मदद मांगने वाले की मदद करते हैं -आज सारी धरती पर मनुष्य की विजय पताका ऐसे ही नहीं फहरा  रही है -हम अब अन्तरिक्ष विजय की ओर भी चल पड़े हैं -बिना एक टीम भावना और साझे सरोकार के ये उपलब्धियां हमें हासिल नहीं हुई हैं .मनुष्य ने आत्मोत्सर्ग (altruism ) की भी मिसाले कायम की हैं -वह अपनी जांन  की परवाह किये बिना डूबते को किनारे ले आता है और धधकती आग से बच्चे को बाहर  ला देता है जो खुद उसका अपना नहीं होता -आज भी जबकि लोगों की संवेदनशीलता के लोप होते जाने के किस्से आम हैं ऐसी घटनाएं दिख जाती हैं .मतलब मनुष्यता आज भी अपने को प्रदर्शित कर जताती रहती  है कि  वह  अभी पूरी तरह मरी नहीं है .

 ऐसा ही कुछ मामला मनुष्य के प्रत्युपकार की भावना का है -हम दिन ब दिन शायद अकृतज्ञ होते जा रहे हैं -जैसे राजनीति में तो यह एक कहावत सी बन गयी है कि नेतागण  जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं सबसे पहले उसी को नीचे फेक देते हैं -मतलब एहसानफ़रामोशी का नंगा नाच! इसलिए ही न राजनीति को गेम आफ स्काउन्ड्रेल्स कहते हैं ,मगर अब यह देखा जा रहा है कि राजनीति की अनेक नकारात्मक बातें /व्यवहार आम जीवन को भी प्रभावित कर रहा है -लोगों में कृतज्ञता का समाज -जैवीय भाव शायद  तेजी से मिट रहा है .हम लोगों से लाभ तो पा जाते हैं मगर उनके प्रति कृतज्ञ  तक नहीं होते ,धन्यवाद प्रदर्शन तक की जहमत नहीं उठाते ..शिष्टाचार वश भी इसका उल्लेख तक नहीं करते .यह भले कहा जाता है कि शिष्टाचार में दमड़ी भले नहीं लगती मगर वह खरीद सब कुछ लेती है -लेकिन समाज में बढ़ते अकृतग्यता भाव को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि हम ऐहसानफरामोश ज्यादा है एहसानमंद कम ...मैंने इसी अंतर्जाल पर देखा है कि कुछ लोग दूसरों के श्रम का शोषण तो किये हैं मगर उसका समान और सम्माननीय प्रतिदान नहीं किया उन्होंने ..बस चालाकी से काम बनाकर निकल गए ....यद्यपि हमारे आचरण के सुनहले नियमों में प्रत्युपकार की चाह तक का भी निषेध  है -गीता में ऐसे लोगों को सुहृत कहा गया है जो प्रत्युपकार के आकांक्षी नहीं होते ..संतो की परिभाषा ही  है   नेकी कर दरिया में डाल......संत कबहुं ना  फल भखें ,नदी न संचय नीर : परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर .....यह तो उन लोगों की बात है जो प्रत्युपकार नहीं चाहते -मगर क्या हम उपकार के बदले दो शब्द कृतज्ञता के भी नहीं बोल सकते ? आज मेरे मन में यह सवाल बार बार उठ रहा है ....(मन कुछ और कारणों से भी संतप्त हुआ है ) ..
 शुक्रिया उन्मुक्त जी!

 ऐसे परिदृश्य में ही कुछ ऐसे व्यक्तित्व उभरते हैं जिनसे यह आश्वस्ति भाव जगता है कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है -उन्मुक्त जी उनमें से एक हैं -ये उन चन्द  बेनामियों में से हैं जिन पर न जाने कितने सनामी न्योछावर किये जा सकते हैं .मुझे खीझ तो होती है कि वे बेनामी क्यों हैं मगर उनकी मजबूरी मुझे समझ में आने लगी हैं -बहुत छोटी बातों के लिए भी उन्मुक्त जी कितना सहिष्णु और संवेदित हैं इसका एक उदाहरण देता हूँ -उनकी एक श्रृंखला उल्लेखनीय रही -"बुलबुल मारने पर दोष लगता है " जिसका पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है ..इसमें बुलबुल के नामकरण  का उनका रोचक संस्मरण है -वह इसलिए कि मूल अंगरेजी पुस्तक में दरअसल माकिंग बर्ड की चर्चा है जो छोटी सी चिड़िया है मगर उक्त प्रजाति  भारत में नहीं मिलती -अब इसका नाम हिन्दी पाठकों के लिए क्या रखा जाय -उन्म्कुत जी ने मुझसे मेल पर विचार किया -मैंने सोनचिरैया बताया , उन्होंने शास्त्री  जी से भी राय ली -अब भारतीय सोंन चिरैया (गोडावण ) बड़ी चिड़िया है -माकिंग बर्ड के अनुकूल नहीं था यह नाम तो उन्होंने फिर मुझसे पूछा ,मैंने सहज ही उन्हें कह दिया तो सोंन  चिरैया की जगह बुलबुल रख दीजिये -बात उन्हें जंच गयी -दिन आये गए हुए -कल अचानक उनकी पॉडकास्ट सुनी तो मैं विस्मित और उनके प्रति कृतज्ञ  हुए बिना नहीं  रह सका कि भला इतनी छोटी सी बात का भी इतना ध्यान रखा उन्मुक्त जी ने और पूरा संदर्भ दिया .....जबकि यहाँ कथित सम्मानित अकादमीय लोग भी लोगों के ग्रन्थ तक अपने नाम से छाप देते हैं और चूँ तक नहीं करते  ...आज मेरे आधे दर्जन मित्र ऐसे हैं जिन्होंने मुझसे विज्ञान संचार का कभी ककहरा सीखा था मगर आज उनमे से अधिकाँश मेरा नाम तक नहीं लेते,दिल्ली में  बड़े पदों पर हैं ..मगर आज उन्हें मेरे अवदान को स्वीकार करने में शर्म आती है -मैं भी चुप रहता हूँ -नेकी कर दरिया में डाल ..आज मन  उद्विग्न हुआ तो इतना भर कह दिया और उन्मुक्त जी का उदाहरण भी ऐसा रहा कि ये बातें सहज ही चर्चा में आ गयीं ..
क्या हम भी कृतज्ञता ज्ञापन /प्रत्युपकार के मामले में इतना सचेष्ट हैं? आत्ममंथन कीजिये!

मंगलवार, 9 मार्च 2010

फागुन के दिन चार बीत गए रे भैया

फागुन बीत गया -मनुष्य की चिरन्तन श्रृंगारिकता को उत्प्रेरित और आलोडित करके चला गया .अब अगले वर्ष फिर लौटेगा! कितना उत्सव प्रिय है मनुष्य आज भी ,मगर यह बात लोक जीवन में ही आप ज्यादा अनुभव कर सकते हैं.  बढ़ता  नागरीकरण मनुष्य मन को निरंतर आत्मकेंद्रित ,स्वार्थी और व्यक्तित्वहीन ही बनाता गया है -नागरीकरण की प्रेत छाया से गाँव भी बदलते गए हैं मगर वहां आज भी सामाजिक जीवन की जीवंतता,साझे सरोकार उत्सवों के आयोजन में देखने और खूब देखने को मिलते हैं -ऐसे ही एक पारम्परिक लोकोत्सव से कल लौट आया मगर मन  अभी भी उन्ही अमराईयों में कहीं बेसुध सा पड़ा है -पीड़ित सा क्लांत सा -"अमवाँ बौर गयल हो रामा ,,,पिया नहीं आये ..." "सेजिया पे टिकुली हेराने हो रामा" की गायन  अनुगूंजे  अभी  भी मन को व्यथित किये हुए है -बार बार लगता है यही वियोग ही श्रृंगार का मूल तत्व है .जो  इस वियोग की चेतना  से संपृक्त नहीं हुआ समझो वह श्रृंगारिकता के सहज बोध से ही प्रवंचित रह गया .लोग कहते हैं यह श्रृंगार उत्सव तो मध्यकालीन विलासिता की ही देंन  हैं -स्मृति शेष है .मुझे दुःख होता है कि लोकजीवन से कटे ये लोग जीवन की जीवन्तता से ही मानो वंचित हो गए हैं -जीवन की मुख्य धारा से ही मानो अलग हो गए हों .

क्या बिहारी और पद्माकर रचित विपुल  श्रृंगार साहित्य निःशेष हुआ ? निरर्थक हुआ ? महानुभावो अगले वर्ष किसी भी होली के लोकोत्सव में भाग लेकर देखिएगा -हाँ भले ही आप अप्रस्तुत से हो जायं मगर आप एक लाईफ टाईम अनुभव तो करके ही लौटेंगे  जैसा कि अभी अभय भाई बनारस से करके लौटे हैं -बताता चलूँ आज भी बनारस और इलाहाबाद कम से कम ऐसे 'आधुनिक ' शहर हैं जो प्राचीनता के कितने ही स्पंदनो को समाहित किये हुए हैं .कन्टेम्पररी क्लासिक -जैसे कुछ चिर नवीन के साथ  चिर प्राचीन भी! आज की कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की पगडंडियों पे चलकर  लोकमानस की मुख्यधारा से ही मानो  अलग थलग पड़ती गयी है -बहुत कुछ बनावटी और मेक बिलीवों से भरी  हुई -आज रीतिकालीन कवियों की कवितायें बृहत्तर मानव जीवन को जीवन्तता दे रही हैं तो कैसे मान  लिया जाय कि वे अप्रासंगिक हुईं -अब रही बात अश्लीलता और श्लीलता  की -आज की नगरी पीढी की तो श्लीलता भी कुंठित होती लग रही है और अश्लीलता भी -उन्हें तो यह भी शायद ठीक से नहीं मालूम की असली अश्लीलता होती क्या है और इस नासमझी में वे उसे अंजाम दे देते हैं -आज भी गाँव में अश्लीलता -श्लीलता का पाठ समाज समझाता है ऐसे उत्सवों के अवसर पर और प्रकारान्तर  से उनकी मनाही भी करता है सरेआम और सकारात्मकता से ...

ये उत्सव सौन्दर्यबोध के उद्दीपनो के सामूहिक कारखाने भी हैं -जीवन से सौन्दर्यबोध गया तो बचा भी क्या -ठेंठ और रूढ़ सा जीवन -आज के मशीनी  जीवन में तो सौन्दर्यबोध के सतत उत्प्रेरण की  और भी आवश्यकता है -बहरहाल इतनी बड़ी प्रस्तावना मैंने आपको एक गायक -श्री नागेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी ,हिन्दी प्राध्यापक ,डॉ भगवानदास इंटर कालेज बघैला जौनपुर द्वारा सुनाये पद्माकर के इस कवित्त के अस्वादन के आमंत्रण के लिए दे डाली है -मैं इसे सुनवा भी सकता हूँ मगर उनके गायन  के दौरान व्यवधान हैं इसलिए फिलहाल कविता से ही संतोष कीजिये और खुद अर्थ समझिये . ज्ञानी जन तो समझ ही जायेगें और आस पड़ोस के भोले लोगों को समझा भी देंगें -फिर भी कहीं कोई संवादहीनता हो तो मुझसे संवाद कर सकते हैं -परमारथ के कारने सधुन धरा शरीर ! 
ऊंचे उसासन सो कहत पड़ोसन से 
मेरे हिय उठत कठोर दुई पाके हैं 
याही सकोचन से कछु ना सोहाय आली 
ऐसो कठोर ये पिरात नहीं पाके हैं 
कहैं पद्माकार न घबराहू ये बाला 
ए रतिजाल वाल पोषक सुधा के हैं 
जाके उर होत हैं पिरात नाहीं ताके उर 
जो इन्हें ताके पिरात उर ताके हैं 
हाय बीत गए ये  दिन चार फागुन के ....

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

बालम मोर गदेलवा -एक एडल्ट पोस्ट (गदेलों की तांक झाँक वर्जित है)

मनोज के फागुनी पोड्कास्टों की  बयार के मदमस्त झोकें में  ब्लागजगत झूमने लगा है -ज्ञानदत्त जी तो फगुआ के बजाय कजरी गाने लग गए हैं -और बड़े मिसिर जी को भी शिद्दत से याद किया है उन्होंने जोडीदार बनने के लिए . हाजिर साहब जी . किसी ने जिज्ञासा भी  की है कि गदेलवा माने क्या होता है ? मनोज ने बताया बच्चा होता है गदेलवा . तरसे जियरा मोर बालम मोर गदेलवा -ये लाईन है जो नायिका गहरी  अनुभूतियों और आक्रोश   के साथ कहती हुई पाई जाती है -न जाने किससे किससे कहती जाती है बेचारी! मुझसे तो नहीं कहा अब तक !उसकी बेबसी ,उसकी अतृप्ति देखी नहीं जाती -मगर क्या इसलिए कि उसका बालम  गदेला है ? जी गदेला तो है मगर क्या वह  उम्र से गदेला है -बस यहीं झोल है और समझ का फेर  है -अरे नायिका तो है पूर्ण यौवन सम्पन्न और काम केलि /क्रीडा में पूरी दक्ष मगर बालम मिल  गया है निरा बुद्धू ,बकलोल ,निपट अनाडी -ससुरा कुछ समुझतै नहीं है -अब सलज्ज नारी संकोच से भी  बिचारी नायिका उबर नहीं पा रही है -अब क्या कहे और बताये भी तो क्या क्या ,पिय को कैसे अपने मदन आग्रहों और स्थलों की जानकारी देकर अग्र केलि के रहस्यों को समझाए -वह बुडबक तो बस ठेठ ही तरीका अपनाता है बार बार ,कोई परिष्कृत कार्य विधि नहीं है उसके पास -बुडबक कुछ समझता ही नहीं है नारी मन  को ....आखिर कशमकश और खीझ इन शब्दों में फूट ही पड़ती है -तरसै जियरा मोर बालम  , मोर गदेलवा!

मगर सावधान ये विचार भी तो किसी  रंगीले पुरुष के ही  हैं जो वह नायिका के जरिये कह रहा है -मतलब यह एक तरह  से /प्रकारांतर से वह उन तमाम काम कला प्रवीण मर्दों को खुला आमंत्रण दे रहा है -अरे भाई लोगों ,इस नायिका की पीड़ा तुममे से ही कोई दूर कर दो न -मेरी भव बाधा हरो  राधा नागर सोय की ही तर्ज पर कोई तो आगे बढ़ो -और अर्ह मर्दों की टोली कल्पनाओं में उड़ने लग जाती है -मस्त बहारे होली की मानों उन कल्पनाओं में पंख लगा देती हैं -और उद्दीपित और उद्वेलित कथित नायिका के संग संग उनकी  भव बाधाओं को पार करने में लग जाता है मर्दों का सदल बल .जैसे इस फाग को सुन सुनाकर भैया चचा लोग मदमस्त होने लग गए हैं और ब्लॉग होली शुरू हो चुकी है -फलाने फलानी के संग और फलानी फलाने के संग होली खेलने लग भी गए हैं -यहाँ बुडबक बालम हो तो तनिक भी फिक्र  न करें - ब्लाग नायिकाओं ! अगर तुम्हारा मन  अभी भी किसी से नहीं बिंध पाया है तो सलाहकार सेवा यहाँ उपलब्ध है -जो कोई यह कहे कि उसे होली अच्छी न लागे  है तो समझिये उसके मन  माफिक का गबरू गैर गदेला नायक अभी नहीं मिल पाया है उसे ......आप अपनी अर्जी दे सकते हैं मगर  आपको गदेला न होने का सार्टीफिकेट मिल गया हो तभी -यह ताऊ साब बाँट रहे हैं तुरंत अप्लाई  कर ही दीजिये -महफूज भाई आप तो इस बार लाईन में लग कर ले ही लो -मुझे बालवुड की कुछ तारिकाओं ने बताया है कि आप अभी गदेलवा की श्रेणी में  ही है भाई! नाम मैं उजागर कर दूंगा! 

और हाँ कुछ जोड़े भूमिगत भी हो गए हैं उनका पता आप यहाँ से लगा सकते हैं .नायिका ने तड से भांप लिया कि अमुक ब्लॉगर तो दिखता गदेलवा है मगर हैं नहीं तो इसका परीक्षण करने दोनों जने यानि जोडियाँ भूमिगत हो चुकी हैं  -और कुबरी संग जूझें रामलला का मंजर साकार होने लग गए हैं - यहाँ नहीं भाई असली संसार में -इसलिए ज़रा आस  पास चौकन्ना होकर देखिये कौन कौन गायब है ? 


आप सभी को होली की रंगारंग शुभकामनाएं!



शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

वसंत का शंखनाद!

हिन्दी ब्लागजगत  में वसंत पंचमी से बालक बसंत की  फिफिहरी जो बजनी शुरू हुई अब वह  शंखनाद बन गयी है .इस बार की उसकी चतुरंगिनी सेना की अगुवाई  कर रहे सेनापतियों की एक सूची यहाँ देखी जा सकती है .संक्रामकता की पूरी आशंका है .तरह तरह के गुप्त सुषुप्त संकेत और मनुहार शुरू हो गए हैं .मन  महुआ और तन फागुन होने लग गया है .यह प्रेमाकुलता का मुखर पर्व है .मनुष्य का तो कोई निश्चित ऋतुकाल नहीं होता अर्थात उसका हर पल ऋतुकाल ही  है मगर वसंत के दिनों की यह मादकता सोचने पर विवश करती है .आज नहीं हजारो वर्षों  से मदनोत्सव मनाया  जाता रहा है -ऋषि मुनियों तक ने इसके महात्म्य को स्वीकारा और वसंत ने उनके दंभ को पराभूत किया .जब आदि देव शंकर और मर्यादा पुरुषोत्ताम श्रीराम ही वसंत के पुष्प वाणों से आहत हो उठे हों  तो दूसरे तपस्वियों, पामर देहियों का तो  कहना ही क्या ?

उसी कामदेव ने लगता है अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ ब्लागजगत पर धावा बोल दिया है .तब आपन प्रभाउ विस्तारा ,निज बस कीन्ह सकल संसारा ....सदाचार जप जोग बिरागा ,सभय बिबेक कटकु सब भागा और सबके हृदय मदन अभिलाषा लता निहार नवहिं तरु शाखा जैसी स्थिति बस होने ही वाली है. मगर न जाने क्यूं मुझे प्रेमातुरता का यह मुखर रूप सदैव  आतंकित करता रहा है . प्रेम क्या शंखनाद का मुहताज है ? बशीर बद्र की इन पक्तियों को देखिये -
मुझे इश्तिहार सी लगती  हैं ये मुहब्बतों की कहानियां 
जो कहा नहीं वो  सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो 
प्रेम  तो बस अनुभूति का विषय है .और सार्वजनिक करने का मामला नहीं है ,भले ही वह जगजाहिर हो जाय यह बात दीगर है .एक और शायर पूरी सन्जीदगी  से कहता है कि उसके पास बहुत कुछ तो सारी दुनिया को सुनाने के लिए हैं मगर चंद अशआर तो बस दिल में बसी उस और सिर्फ उस माशूका के लिए ही हैं .

मित्रों, मेरी गुजारिश है प्रेम का आतंक यहाँ मत शुरू करें -यह एक बहुत ही सुकोमल नाजुक अनुभूति है .होली की उद्धतता कभी कभी शालीनता की सारी हदे पार कर जाता है और बात बनने के बजाय बिगड़   जाती है .मुझे डर  है  कि कहीं मैं भी संक्रामकता के चपेट में आकर हुडदंगीं  न बन जाऊं और अपना भी कुछ नुक्सान कर डालूँ -पहले के ही भारी नुक्सान की अभी भरपाई नहीं हो पाई है .तो यह मेरा डर ही आज यह अपील  करवा रहा है  मुझसे .....

बाकी तो आप सब खुद जिम्मेदार और होशियार हैं .....थोडा लिखा अधिक समझना .हा हा (इतना लिखने के बाद भी ) .

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

मन का ट्रांसप्लांट!

न जाने क्यूं नए वर्ष की पूर्व संध्यां से मन  बहुत क्लांत ,खिन्न खिन्न सा है -बेबस, व्यग्र और अधीर सा -गुस्साया हुआ सब पर और खुद पर भी. सुबह ही अचानक एक ब्लॉग मित्र से चैट पर ही कह बैठा -मैं निजात चाहता हूँ इस बेहूदे मन से जो इन दिनों हर वक्त भुनभुनाया हुआ है परायों से ही नहीं अपनों से भी -क्या इसका ट्रांसप्लांट नहीं कराया  जा सकता ? मित्र भौचक! हा हा हा .दैया रे! अब क्या मन  का भी ट्रांसप्लांट होगा ?क्यूं  नहीं ? अगर मन  ऐसा सोच सकता है तो ऐसा हो भी सकता है. आखिर मैं सोचता  हूँ तो इसका मतलब ही  है कि मैं हूँ ,मेरा वजूद है. तो अगर मन ऐसा सोचता है कि उसका ट्रांसप्लांट हो सकता है तो क्यूं नहीं हो सकता -चलिए आज नहीं तो कल होगा और कल नहीं तो परसों होगा ,परसों नहीं तो नरसों..होगा जरूर -आखिर ययाति ने जब अपने बेटे से जवानी उधार ले ली और खूब जीभर कर जवानी जी भी ली तो यह भी  तो  कुछ ऐसा ही मामला है. अब जब भेजा तंग करने लगे तो उसे गोली थोड़े ही मार दी जायेगी -खालिस और भोंडे बालीवुड   स्टाईल में-गोली मारो भेजे में भेजा तंग करता है -हाऊ फुलिश! ये कोई  मानवीय तरीका है समस्या से निजात का ..हाँ मन  जब बहुत उधम करे तो दुष्ट का ट्रांसप्लांट ही क्यूं  न करा लो. मुफीद ,निरापद तरीका लगे हैं यह मुझे !

मगर फिर किसका मन ट्रांसप्लांट के लिए निरापद होगा ? शर्तियाँ किसी मासूम से बच्चे का ..मगर मैं वो लेने सा रहा ,अब इतना स्वार्थी और अमानवीय भी नहीं है मेरा मन  कि किसी मासूम का भविष्य ही खराब हो जाय .फिर किसी नारी का ? चल सकता है क्योंकि कहते हैं नारियों का मन बहुत सुकोमल होता है -यहाँ ब्लागजगत में भी कईं हैं न  -बिलकुल सच्ची -नो पन -आपकी कसम. हाँ नारीवादी मन न हो -बहुत डर लगता है ऐसे मन का और न जाने मेरे तन का भी वह क्या हाल कर डाले ....मगर ऐसी मनफेक कौन होगी नारी यहाँ सभी तो मुझसे खार खाए बैठी हैं -भला  वे क्यों देने लगी अपना मन  मुझे -कुछ पा  जायं ठांव कुठाँव तो भुरकुस बना डालें मेरे मन तन का -तो वहां से पूरी ना  उम्मीदी ही है ...फिर पुरुष मनों पर मन  जाता है तो कई नादान दिखते हैं और कई दानेदार भी हैं .वे देने को भी तैयार हो सकते हैं मगर मेरा मन ही उनका ट्रांसप्लांट नहीं चाहता दुष्ट -सहसा ही श्रेष्टता बोध से ग्रस्त हो उठता है -कहता है जो भी हैं उनसे तो मैं खुद ही हर हाल में अच्छा हूँ .तब आखिर हे दुष्ट तुम्हे कैसा मन  चाहिए जल्दी से बोल और मेरी जिन्दगी को और नारकीय मत बना!

तूने मुझे कहाँ फंसा दिया ..न ब्लोगिंग छोड़ने दे रहा है और न वह करने जो करने मैं यहाँ आया था ..जहां हरी घांसे हैं वहां कोई घास नहीं डाल रहा ...जहां बियाबान है वहां गधे तू जाना नहीं चाहता. आखिर क्या चाहता है तू बोल दे आज -सुना है इस ब्लागजगत में बहुत सहृदय भी हैं तेरी मनसा पूरी कर देगें -अपना मन  देकर तेरा पीछा तुझसे छुडा देगें -पर बेअक्ल तूं कहा जायेगा ? तुझ सड़े गले गलीज को तो कोई लेने को तैयार नहीं होगा.  चलो अपने किसी वैज्ञानिक मित्र से बात करते हूँ वे तुम्हे तबतक किसी जीवन दायक घोल में रखेगें जब तक तूं फिर तरोताजा ,नया सा नहीं हो जाता जैसा तूं चालीस वर्ष पहले हुआ करता था -उमंगों ,चाहतों से लबरेज .दुनिया को बदल डालने के जज्बे से भरा हुआ -प्राणी  मात्र से प्रेम की आकांक्षा लिए हुए ...
अब तो तू बिलकुल दुष्ट हो चुका है -सारा ब्लागजगत भी तुझे शरारती मान चुका है -इसलिए अब तूं छोड़ साथ मेरा और यह सोच किसके मन से तुझे ट्रांसप्लांट करुँ -जल्दी कर ,ढूंढ ढांढ बता दे -फिर उससे निगोशिएट किया जाय -हो सकता है बात बन ही जाय .

सोमवार, 4 जनवरी 2010

कौन बताएगा पहली लाईन का अर्थ .......समर शेष है!

 कौन बताएगा पहली लाईन का अर्थ .......
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

कितनी अच्छी बात है दिनकर समग्र की चर्चा हो रही है दिनकर विशेषज्ञों द्वारा ब्लागजगत में ...मैंने तो  कहीं दिनकर की उक्त  बहुउद्धृत  पंक्ति ही फिर से उद्धृत कर दी थी -कई बार कह चुका हूँ ,फिर दुहराता  हूँ कि साहित्य  की मेरी समझ अधकचरी है और ज्ञान पल्लवग्राही -मैं साहित्य के अलिफ़ बे का भी विद्यार्थी नहीं हो पाया और यह दुःख मुझे जीवन भर सालता रहेगा.बस विद्वानों की सोहबत का दुर्व्यसन न जाने से कहाँ से छूत सा लग गया मुझे ...बहरहाल ....

 मैंने तो  दूसरी पंक्ति को ही साभिप्राय उद्धृत  करना चाहा था मगर पहली लाईन भी काफी अर्थबोधक है इसलिए उसे भी साथ ले लेने का लोभ छोड़ नहीं पाया .यानी यह लाईन -
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध!
मगर इसका अर्थ क्या है ? यह दिनकर विशेषज्ञ ही बता सकते हैं अपने बूते का तो नहीं .इसलिए दिनकर व्याख्यान पर ये टिप्पणी चेप आया हूँ -
"अब लगे हाथ  दिनकर स्पेशलिष्ट पहली वाली लाईन का मतलब भी  बता दें ....
तो शागिर्दगी कर लूँगा नहीं तो ...अब खुदैं फैसला कर लें अपने बारे में अब कुंजी वुन्जी मत देखियेगा भाई लोग.... यह ब्रीच आफ ट्रस्ट नहीं ब्लाग्वर्ल्ड में ..(..शागिर्दगी का मतलब जीवन भर टिप्पणी करता रहूँगा ऐसे विद्वान् की पोस्ट   पर जो इसका सटीक अर्थ बता देगा -मूल टिप्पणी में नहीं है यह वाक्य . )
नीचे क  सरल लाईन क व्याख्याकार और भाष्यकार कौनो कम नहीं हैं ,यानी बहुत हैं
मगर असली तेजाबी परीक्षा त  ई लाईन में है -
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध!"

-पूरी कविता पढनी चाहें तो यहाँ मौजूद है .तो भैया कौनो है सरस्वती क लाल या दिनकर साहित्य विद्वान् जो इस दिनकरी ढाई आखर का अर्थ बता दे .....
मुझे इंतज़ार रहेगा .......

गुरुवार, 4 जून 2009

भारतीय शास्त्रीय संगीत ,योग और अध्यात्म से बढ़ती है जीवन की गुणवत्ता !

आज की भागम भाग जिन्दगी और अनेक चुनौतियों के चलते उत्पन्न तनाव से मनुष्य का जीना दूभर हो रहा है -तनाव जानलेवा भी हो सकता है ! जीवन को नारकीय बना सकता है ! यह उन बच्चों के जीवन को भी कई तरीकों से प्रभावित कर रहा है जिनके माँ बाप तनाव ग्रस्त हैं ! तनाव के चलते दाम्पत्य जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है -पश्चिमी देशों में बढ़ते तलाक ,सहज यौन जीवन पर भी यह बुरा प्रभाव डाल रहा है ! यहाँ तक की लोगों की उम्र भी तनाव के चलते घट रही है -रोगों से शरीर के लड़ने की कुदरती शक्ति लगातार तनाव के चलते घटती जाती है और एक समय शरीर पर अनेक रोगों का हमला हो जाता है ! पर्याप्त शोधों द्बारा अब यह पूरी तरह साबित है !

पर यह तो समस्या रही पर इसका समाधान ? यह पोस्ट इसलिए ही तो है ! समाधान है भारतीय शास्त्रीय संगीत ,आध्यात्म ,योग और ध्यान में रूचि ! और यह बात कोई धार्मिक गुरु नही -आधुनिक विज्ञान की पद्धति को अपना कर बर्लिन और अमेरिका में विगत २५ वर्षों से शोधरत भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक वैज्ञानिक
डॉ जैस्लीन मिश्रा का कहना है जो इन दिनों भारत भ्रमण पर हैं ! कल ही उनका एक रोचक व्याख्यान इसी विषय पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अकैडमी स्टाफ कालेज में संपन्न हुआ जिसे टाईम्स आफ इंडिया के आज केअंक में कवर किया गया है !

डॉ मिश्रा ने कहा कि उनके शोध के दौरान यह पाया गया है की राग मालकौंस की तनाव शैथिल्य में अद्भुत भूमिका है ! साथ ही आध्यात्म ,भक्ति , ध्यान और नियमित योग से तनाव से काफी हद तक मुक्ति पायी जा सकती है ! जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं वे दीर्घ जीवी होते हैं -और अनेक रोगों के चलते मृत्यु दर में भी काफी कमी पायी गयी है -इस तथ्य की पुष्टि में उन्होंने लेविन और शिल्लेर (१९८७ ) के अध्ययन का हवाला दिया ! उन्होंने मनुष्य के इर्द गिर्द एक आभा मंडल (औरा ) की मौजूदगी पर भी अपने शोध का ब्यौरा दिया ! बी एच यू के करीब ५० शिक्षकों और प्रोफेसरों के बीच उनका व्याख्यान चर्चा का विषय रहा !

हम भारतीयों की एक मजेदार आदत है -कोई भी देशज ज्ञान जब पश्चिमी विज्ञान के अनुमोदन के बाद यहाँ पुनरावर्तित होता है तो हम आत्ममुग्धता के मोड में चले जाते हैं -तुंरत कहते हैं कि "देखा मैं तो पहले ही कहता था कि .........." पर भाई ख़ुद अपने ही ज्ञान की थाती की भारत में इतनी उपेक्षा क्यों ? हम ऐसे शोधों को भारत में ही क्यों नहीं अंजाम दे सकते ! किसने मना किया है ?

अगर आप इसे अन्यथा न लें (वैसे यह सचमुच आवश्यक भी नही है !) तो यह भी बताता चलूँ कि डॉ जैस्लीन मिश्रा मेरी चाची हैं और गर्मीं की छुट्टियां अपने पैत्रिक आवास और पर्यटन में बिताने का इरादा रखती हैं ! अकेले आयीं हैं ,चाचा जी आए नहीं और इसलिए आप मेरी व्यस्तता समझ सकते हैं -आज से मैंने भी योग और ध्यान आजमाया है -जरूरत पड़ गयी है ! वैसे आपके कान में मैं यह भी धीरे से कह दूँ कि मैं बहुत संशयवादी आत्मा हूँ और ऐसे शोधों को तब तक स्वीकार नहीं कर पाता जब तक उनकी व्यापक पुष्टि न हो जाय ! नहीं तो ऐसे दावों और क्षद्म विज्ञान के बीच की विभेदक रेखा बहुत महीन है ! कम कहा अधिक समझा ! क्यों ?

रविवार, 26 अप्रैल 2009

शुक्र है शुक्र दिखा मगर चाँद नदारद !

प्रातः दर्शनीय शुक्र और बृहस्पति -शुक्र उदय हो रहा है!
सौजन्य -अस्ट्रोनोमी गो गो
गत्यात्मक ज्योतिष के दावे की जांच के लिए मैं अपने ग्राम्य प्रवास की २४ अप्रैल की ब्राह्म बेला में उठा और तुरत फुरत पूर्वाकाश को निहारने भागा ! पूर्व दिशा में दो तारे बहुत ही तेज आभा बिखेर रहे थे ! अरे ये तारे नही दो ग्रह थे -बृहस्पति/जुपिटर ( देवताओं के गुरु ) और शुक्र /वीनस ( राक्षसों के राजा ) जिन्हें आम तौर पर इवेनिंग स्टार ( misnomer ! ) कहा जाता है क्योंकि ये अक्सर लोगों को शाम के समय दीखते हैं !

मैं पूर्वाकाश में इन दोनों ग्रहों के दृश्य सौन्दर्य से स्तंभित सा रह गया ! गत्यात्मक ज्योतिष के दावे के अनुसार चाँद को भी दिखना था मगर चाँद तो सिरे से नदारद था और सुबह होने तक उसका अता पता नही था ! जबकि दावा यह किया गया था कि यह शुक्र के साथ सुंदर युति बनाएगा ! महज पत्रा-पंचांग देख कर आकाशीय भविष्यवाणियों का कभी कभी यही हश्र होता है ! बहरहाल चाँद का न होना मेरे लिए तो छुपा हुआ वरदान ही साबित हुआ क्योंकि उसकी रोशनी न होने से शुक्र और बृहस्पति और भी दीप्तिमान हो रहे थे !

बृहस्पति जल्दी ही उदित होकर क्रान्तिवृत्त ( जिस तलपट्टी पर सारे ग्रह सूर्य की परक्रमा करते हैं ,क्रान्ति वृत्त है !यह आसमान में ऊत्तर पूर्व क्षितिज से एक रेखा में दक्षिण -पश्चिम क्षितिज तक विस्तारित है जिस पर सारे ग्रह चलते दीखते हैं ! ) की पट्टी पर काफी आगे निकल चुके थे ,आख़िर देवताओं के राजा जो ठहरे और शुक्र उनके नीचे मानों उनका तेजी से पीछा कर रहे हों ,ऐसे दिखे !


गावों में पूर्व में शुक्र को उगने को किसी महापर्व से कम नही माना जाता -लोक जीवन में शुकवा का यही उदय कई मांगलिक कामों खासकर व्याह शादी की शुरुआत की उद्घोषणा माना जाता है ! आजकल के फलित ज्योतिषी आसमान में न देखकर पत्रा में देखकर ही शुक्र उदय की घोषणा करते है और यह कैसी विडम्बना है कि वह आसमान में कहीं ज्यादा स्पष्ट और सुंदर दीखते है ! यह बहुत अजीब सा लगता है कि एक ओर तो शुक्र भारतीय मिथकों में राक्षसों के राजा हैं तो फिर वे लोकजीवन में मांगलिक कामों के मसीहा क्योंकर हुए ! किसी फलित ज्योतिषी से पूँछिये तो वह ऐसे सवालों का बस उल जलूल उत्तर देने लगेगा !


दरअसल आज की हमारी संस्कृति विभिन्न संस्कृतियों के मेल से विकसित एक मिश्रित और अपने में न जाने किन किन देशों के रीति रिवाज और यहाँ तक कि परस्पर विरोधी मान्यताओं को भी समेटे हुए है ! शुक्र (शुक्राचार्य ) हमारे यहाँ भले ही राक्षसों के राजा हैं वे यूनान में स्त्रीलिंग हो प्रेम की देवी के रूप में पूजित हैं ! अब कौन नहीं जानता की भारत के फलित ज्योतिष पर यूनानी और बेबीलोन सभ्यताओं की भी गहरी छाप है ! तो हमने इन दोनों मान्यताओं जिसमें एक ओर शुक्र दैत्यों के गुरुदेव हैं और दूसरी और प्रेम की देवी के रूप में प्रतिष्ठित भी हैं के बीच समन्वय कर लिया है ! आज जब शुक्रोदय से व्याह शादी के मूहूर्त तय होने लगते हैं तो बहुत संभव है की हम शुक्र के प्रेम की देवी वाले रूप के ही स्मृति शेष का स्तवन कर रहे होते हैं !

कृष्ण ने तो गीता में यहाँ तक कह दिया है -" कविनाम उसना कविः " -शुक्र के कई नाम हैं जिसमें एक नाम उसना भी है ! अब देखिये कृष्ण स्वयं कह रहे हैं की वे कवियों में शुक्राचार्य हैं -जैसे कि राग रंग .कविताई सभी आसुरी वृत्तियाँ हों ! मजे की बात है कि राग रंग नाचना गाना इस्लाम में वर्जित सा है ! क्या कभी कोई ऐसी विचारधरा भी भारतीय मनीषा में उपजी जिसने आमोद प्रमोद कविता कला ,अन्य विभिन्न कलाओं का प्रतिषेध किया हो -जैसे वे मानव के अंतिम अभीष्ट /श्रेय के मार्ग में रोड़ा अटकाती हों ! क्यों नहीं , इस्लामी मान्यताओं में ऐसा ही तो है ! प्रकारांतर से ये आसुरी वृत्तियाँ कही गयीं ! अब भला राक्षसों के गुरू शुक्राचार्य में इन का परिपाक क्यों न हुआ हो ! तो क्या प्रकारांतर से इस्लाम के अनुयायी असुर नहीं हैं -आदि देवता हैं ? कितना घालमेल है ना ? तभी कृष्ण यह उदघोषित कर देते हैं कि वे कविताई में शुक्राचार्य हैं ! बस इस्लामी मान्यता हो गयी तिरोहित ! अब कृष्ण भी हमारे पूज्य हैं तो उनकी हर बात हमें पूज्य है ! जाहिर है भारतीय चिंतन मनीषा में इसलामी विचारधारा को नकारने का यह भी एक प्रयास रहा होगा जब गाने बजाने को ,कविताई और आमोद प्रमोद को मुख्य धारा में समाहित कर लिया गया -भले ही वह आसुरी वृत्ति रही हो -इस्लाम विरुद्ध हो !

तो हे ब्लॉगर मित्रों ,शुक्र दर्शन ने मेरे मन में चिंतन की यह आंधी भी चलायी जिसके चपेट में आप भी आ गए ! हाँ अनुरोध यह है कि गत्यात्मक ज्योतिष की अधिष्ठात्री संगीता जी अपने काम को और भी मनोयोग और उत्तरदायिता के साथ करें ।

उनसे यह अनुरोध भी है और शुभकामना भी ! हाँ उनका मैं बहुत आभारी हूँ कि वही हेतु बनीं हैं इस शुक्र दर्शन और चिंतन का !

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

पालिटिक्स की बातें और आकाश दर्शन !

मतदान का दूसरा चरण भी पूरा हो गया -आज गाँव से वोट डालकर लौटा हूँ ! गाँव में पहुच सायास वोट डालने के अपने अभियान और इस के पीछे के हेतु की चर्चा कल ही कर चुका हूँ ! आप कई ब्लागर मित्रों के बहुत ही प्रोत्साहन भरे विचार भी जानने को मिले ! खुशी की बात है कि हम निरर्थक बौद्धिक मीमांसा में न पड़ कर इस स्थापना में लगे है कि वोट देना लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है -बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी खामी यही है कि वे तटस्थ होकर बिना समरांगण में आए बौद्धिक जुगाली कर रहे होते हैं ओर देश की तकदीर पर ढार ढार आंसू बहाते रहते है, वोट तक भी देने को घर के बाहर नहीं निकल पाते ! नतीजा यह रहता है कि बी एच यू जैसे विश्व प्रसिद्द विद्या के प्रतिष्ठान में भी परिसर के भीतर ही मतदान बूथ होने के बावजूद बमुश्किल १८ फीसदी मतदान हो पाता है !

मैंने कल जिस मतदान स्थल पर जाकर अपना पहला मत डाला और लोगों को अपने अनुज मनोज मिश्र के साथ निरंतर उत्प्रेरित किया तो ४५ डिग्री के तापक्रम के बावजूद भी लोगों ने बढ़ चढ़ कर मतदान में हिस्सा लिया !जौनपुर जिले का औसत मतदान का आंकडा भले ही ४५ के पास सिमट गया ( फिर वही ढांक के तीन पात !),अपने गाँव के बूथ पर हम लोग ६२ फीसदी के मतदान के आंकडे तक पहुच गए ! १०५० मतदाताओं में ३२३ पुरुषों ने और सुखद आश्चर्य कि ३२२ महिला मतदाताओं ने मतदान का रिकार्ड स्थापित कर दिया ! महिलाओं का उत्साह प्रशंसनीय रहा ! गाँव के पुरूष और महिला के अनुपात १०० /८९ के लिहाज से तो महिलाओं ने मतदान में आनुपातिक बढ़त हासिल कर ली ! मेरा गाँव पहुंचना सार्थक रहा !

इतने उत्साहपूर्ण मतदान के बाद यह सहज ही था कि शाम को चौपालं बैठे-मुझसे मिल कर बातचीत करने को ,बनारस के चुनाव परिणामों पर जहाँ से मुरली मनोहर जोशी जी अपनी तकदीर आजमा रहे हैं पर वार्ता के लिए लोग उत्सुक थे ! विचार मंथन की प्रस्तावना शुरू हुई !
थोड़ा अवधी बोली भी जरा झेलिये तो -

" भैया ई बात त तय बा कि यहि दाईं (मतलब इस बार ) ब्राहमण लोग मायावती के साथे पिछली दाईं के मुकाबले नाई बाटें ! "
" का बोलत हया यार ,तब केकरे साथ हैन बताव ?"
" बी जे पी के साथ और केकरे साथ "
"जौनपुर में त कांग्रेस आपन कौनों उम्मीद्वारै नाय खडा केहेस इंहीं के नाते बी जे पी यहि दायं बढिया लड़त बाटे !"
"मुसलमान भी यहिं दायं मुलायम का साथ छोडिन देहेन -ऊ कल्याण वाला मामला रहा न ! "

"हाँ लागत ब अब मुसलमान लोग मायावती के साथ जुड़े जात बाटें ! "

हाँ भइया देखात त इहै बा ! "

साधारण से ग्रामीणों की इन बातों को सुन कर मैं उनकी तुलना तथाकथित राजनैतिक पंडितों ,मीडिया विशषज्ञों के बौद्धिक विवेचनों से करने में लग कर कहीं खो सा गया और नजरे अंधियारी रात के आसमान पर उठ गयीं ! उधर चर्चा में तेजी आती गयी और मैं सप्तर्षि मंडल के सातों तारों -पुलह, क्रतु ,पुलस्य ,अत्रि ,अंगिरस ,वशिष्ठ, मारीच की ओर ध्यान लगाते हुए ध्रुव तारे तक पहुच गया और फिर पुलत्स्य से दक्षिण की ओर एक सीधी रेखा में थोड़ी दूर व्योम विहार करते हुए सिंह राशि में जा पहुचा जो सर के ठीक ऊपर विराजमान दिखी .उधर पोलिटिक्स की चर्चा जोर पकड़ती गयी और मैं व्योम विहार का लुत्फ़ उठाता रहा ! मैंने पुलह से दक्षिण पश्चिम दिशा में एक लम्बी सीधी रेखा पर मृग नक्षत्र के दर्शन भी किए ! कहते हैं गरमी में यही मृग नक्षत्र धरती को तपाता है -मतलब यह गरमी में बहुत प्रामिनेंट दिखता है ! कभी साईब्लाग में आपको व्योम विहार पर साथ ले चलूँगा ! गाँव में और वह भी अंधियारी रात में आकाश दर्शन का भला क्या कहना ! बस मौजा ही मौजा !

मेरा व्योम विहार और उधर पालिटिक्स की बातें अपने उरूज पर थी कि अचानक उद्घोषणा हुई कि अहरा ( इन्डियन बार्बिक्यू ) पर खाना तैयार है -और सब दाल बाटी चोखे पर टूट पड़े -दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद यह स्वाभाविक ही था !

नीद भी बस बिस्तर पर आते ही लग गयी मगर मेरी आँखें ४ बजे सुबह ही खुल गयीं -गत्यात्मक ज्योतिष की एक घोषणा का सत्यापन जो करना था ! मतलब एक और व्योम विहार ! जिसकी चर्चा अब कल !
* सप्तर्षि मंडल को ही उरसा मेजर या बिग डिपर भी कहते हैं जिसे इस समय आकाश में सहज ही देखा जा सकता है ! आप लिंक के सहारे दिए गए वीडियो से इसे सहज ही आसमान में ढूंढ सकते हैं !

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