बुधवार, 30 दिसंबर 2009

वर्ष बीतते बीतते मुझे मिली यौनिक और लैंगिक उत्पीडन करने की धमकियां! ओह!

मैं ब्लागजगत में असहमतियों के मुद्दों को यही सार्वजनिक मंच पर निपटा लिया जाना उचित समझता हूँ . मुझे धमकाया जा रहा है कि मैं अपने वकील /विधि परामर्शी से मिल कर एक मामले में मुतमईन हो लूं -सो मामला यहाँ  महा पंचायत में रख रहा हूँ-
बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो ,ज़बाने ख़ल्क़ को नक़्क़ारा ए ख़ुदा समझो!
नारी ब्लॉग पर विगत दिनों किसी अन्य स्रोत से एक आलेख अंगरेजी में पोस्ट किया गया . चूंकि ब्लॉग एक नारी सक्रियक का है अतः मैंने यह टिप्पणी की -
"जब आप इतना समर्पित हैं नारी आन्दोलन के लिए तो इसका अनुवाद नहीं कर सकतीं ? बस बिना कुछ किये धरे मुक्ति का बाट जोह रही हैं ?"
-जवाब दिया गया -
Dr Arvind Mishra
Your comment comes under sexual harassment and if I want I can take you to court . if you don't believe me you can talk to any lawyer . Also let me tell you that your latest post where you have insulted woman bloggers by calling them blograa is also has undertones of sexual harassment again you can be sued for the same . Kindly check with some competent lawyer before you start posting remarks that are insulting for a woman writer
regds
rachna
December 26, 2009 5:06 पम
मैं इसका यथासामर्थ्य भाषानुवाद कर रहा हूँ -
डॉ .अरविन्द मिश्रा
आपका कमेन्ट यौनिक उत्पीडन की कोटि में आता है ,अगर मैं चाहूँ तो आपको कोर्ट में घसीट सकती हूँ . अगर आपको मुझ पर विश्वास न हो तो आप किसी भी वकील से पूंछ सकते हैं .और मैं यह भी बता दूं कि आपने अपनी नवीनतम पोस्ट में जहां  महिला चिट्ठाकारों को ब्लागरा  कहकर  अपमान किया है से भी यौनिक उत्पीडन ध्वनित होता है और इस हेतु भी आप पर मुकदमा चलाया  जा सकता है -इसके पहले कि आप ऐसे रिमार्क जो एक महिला लेखक के लिए अपमानजनक हों को पोस्ट करें कृपया आप किसी योग्य विधिज्ञाता से परामर्श अवश्य कर लें  
सादर ,
रचना 
मुझे आज ही इस टिप्पणी की सूचना मिली और मैं स्तब्ध रह गया हूँ . और इसी मुद्दे पर आज फिर नारी ब्लॉग पर विषय को तोड़ मोड कर प्रस्तुत किया जा रहा है . मैं तो नहीं समझता कि मेरे द्वारा उक्त बातों से किसी नारी का यौनिक शोषण हो गया हो जबकि प्रकारांतर से ऐसा कहने से मेरा अपमान जरूर हुआ है -मैं तो नारी के साथ  लैंगिक भेद भाव का भी प्रखर विरोधी हूँ यौनिक शोषण की बात ही बेहद शर्मनाक है.
क्या  मुझे मित्र दिनेश राय जी इस पर विधिक राय दे सकेंगे  ?
पूरा मामला जानने के निम्न लिंक उसी क्रम में कृपया पढ़े  जायं  -
http://mishraarvind.blogspot.com/2009/12/blog-post_23.html
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/12/blog-post_29.html
इतनी समझ और विवेक मुझे है कि देश का क़ानून जाने अनजाने भी कहीं अतिक्रमित न हो जाय -इस दलील से भी पूरी तरह वाकिफ हूँ कि क़ानून के मामले में अनभिज्ञता बचाव की दलील नहीं है . मगर मैं तो हतप्रभ हूँ और खुद को ही धमकाया जाना सा महसूस कर रहा हूँ यहाँ तो. अब आप सभी फैसला करें कि मैंने क्या लेश मात्र भी नारी का अपमान किया है जो मेरी काबिल दोस्त सुश्री रचना सिंह जी मुझे धमका रही हैं. मैं बताता  चलूँ कि शुरू शुरू में जब मैंने ब्लागिंग में कदम ही रखा था तो इन्होने उस समय मुझे ऐसे ही बिना बात के धमका लिया था -बात आई गयी हो गयी . मगर इस बार यह मामला आपके सामने रखे बिना चैन नहीं मिल रहा. सोचता हूँ यह इसी वर्ष निपट जाय तो ठीक . और हाँ मैं अगर देश के किसी भी क़ानून का उल्लंघन  करने का दोषी पाया जाता हूँ तो निर्धारित दंड को सहज ही स्वीकार करूंगा -मैं भी आम हिन्दुस्तानी की तरह एक विधि भीरु इंसान हूँ !

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

नायिकाओं के कतिपय उपभेद (नायिका भेद श्रृंखला का समापन )


सोलह नायिकाओं के उपरान्त कतिपय उपभेदों की भी चर्चा कर ली जाय.वैसे ये उपभेद तो मुख्य रूप से वर्णित सोलह नायिकाओ की मनस्थिति और उनकी दशा में तनिक विचलन की  ही प्रतीति हैं! अब जैसे शील -संकोच और सलज्जता के लिहाज से नायिकाओं के तीन उपभेद हैं -मुग्धा ,मध्या और प्रगल्भा !

 तो क्या राधा प्रगल्भा नहीं हैं ?
नायक के प्रति जिस नायिका का व्यवहार सलज्ज और संकोचशील होता है उसे मुग्धा कहते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ती घनिष्ठता से जब यह संकोच  और लज्जा कमतर होने लगती है तो वह मध्या बन जाती है और पूर्णयौवना नायिका जब नायक के साथ निःसंकोच व्यवहार  करने लगती है तो वह प्रगल्भा बन जाती है! जैसे मुख्य नायिका भेद की संयुक्ता का उदाहरण प्रगल्भा से ही तो सम्बन्धित है. 

 ये समहितायें तो नहीं ?

इसी तरह नायक के नायिका के प्रति समर्पण ,आंशिक अथवा अनन्य प्रेम के  आधार पर नायिकाएं चार प्रकार की वर्गीकृत हई हैं .समहिता  ,ज्येष्ठा,कनिष्ठा  और स्वाधीनवल्लभा . एकाधिक प्रेयसियों में जब नायक का प्रेम समान रूप से बटता है तो इसमें से कोई भी समहिता   कहलाती है .और ऐसी ही स्थिति के  अन्य प्रकरण में जिस नायिका को प्रेमी का अधिक प्रेम मिलता है अर्थात जो अपेक्षाकृत अधिक प्रेम की  अधिकारिणी बन उठती है तो वह ज्येष्ठा  कहलाती है और जो नायक का सबसे कम प्रेम हासिल कर पाती है नवयौवना कनिष्ठा होती है ! ..और नायक  के अविभाजित प्रेम की अनन्य अधिकारिणी,उसके  दिल पर एक छत्र राज्य करने वाली नायिका स्वाधीनवल्लभा कहलाती है ! यही स्वाधीनवल्लभा ही पूर्णरूपेण समर्पिता भी है ,गर्विता है -रूप गर्विता और प्रेमगर्विता भी!


स्वाधीनवल्लभा सीता
इस प्रविष्टि के साथ ही  नायिका भेद की यह श्रृंखला अब समाप्त हुई! यह बिना आपके अनवरत स्नेह और प्रोत्साहन के समापन तक नहीं पहुँच सकती थी ! आप समस्त सुधी पाठकों का बहुत आभार ! स्वप्न मंजूषा शैल का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी व्यस्तता के बावजूद इस श्रृंखला के लिए पूरी तन्मयता और परिश्रम से सटीक  चित्र जुटाए ! अकादमिक कार्यों के प्रति उनकी यह निष्ठां उनके प्रति मन  में सम्मान जगाती है -उनकी इस विशेषता को मेरे सामने उजागर किया था वाणी जी ने -इसलिए "बलिहारी गुरु आपने  गोविन्द दियो बताय" के अनुसार वे भी मेरी सहज कृतज्ञता की अधिकारिणी हैं ! आराधना चतुर्वेदी(मुक्ति ) के लिए मेरे मन  में कृतज्ञता और प्रशंसा के मिश्रित भाव हैं जो संस्कृत की  अधिकारी विद्वान् हैं  और जिन्होंने नायिका भेद के शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत श्रृंखला का परिशीलन किया और समय समय पर आपने दृष्टिकोण से अवगत कराते  हुए मेरा मार्गदर्शन किया! मित्रों (नर नारी दोनों ) में कई नाम हैं और वे जान रहे होगें /रही होगीं कि मैं उनके सौहार्द के प्रति  कितना  संवेदित रहता हूँ -अतः सभी का अलग से नामोल्लेख करना कदाचित जरूरी नहीं है!

उन सभी प्रखर विरोधियों का भी मैं ह्रदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपने विरोध से मेरे संकल्प को और भी दृढ बनाया! अगर नर नारी के संयोग वियोग/श्रृंगार पक्ष  को साहित्य से ख़ारिज कर दिया जाय तो न  जाने कितनी राग रागिनियाँ ,कला चित्र -पेंटिंग्स ,गीत गायन को भी हमें अलविदा कहना पड़ेगा! कुछ नारीवादी इसे नारी के शरीर के प्रति पुरुष का अतिशय व्यामोह जैसा  गुनाह मानते/मानती  हैं -उनसे यही कहना है नर नारी निसर्ग की उत्कृष्टतम कृतियाँ हैं -जब हम प्रकृति की अनेक  रचनाओं का अवलोकन कर आनंदित होते हैं तो फिर यहाँ अनावश्यक प्रतिबन्ध और वर्जनाएं क्या हमारी असामान्यता की इन्गिति नहीं करते ?

मैंने सोचा था कि इसी श्रृंखला में ही नायक भेद को भी  समाहित कर लूँगा मगर तब तक वर्ष का अवसान आ गया -इसलिए अब इस पुनीत कार्य को अगले वर्ष पूरी जिम्मेदारी से (जल्दीबाजी से नहीं )करने का संकल्प लेता हूँ!

चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

एक अजूबा मेरे आगे -यह कैसा पीपल का पेड़!

 चैन बाबा समाधिस्थ है यहाँ -अद्भुत पीपल  का पेड़ -चूड़ामडिपुर ,जौनपुर
मेरा गाँव मेरे लिए चिर प्राचीनता के साथ ही चिर नवीनता का भाव बोध लिए रहता  है -किसी मित्र ने एक बार टोका भी था कि जब जब आप घर जाते हैं कुछ न कुछ नया ब्लॉग मटेरियल आपको मिल ही जाता  है! सही है और इस बार तो मैं विस्मित ही रह गया जब मुझे बताया  गया कि गाँव में एक चित्र विचित्र पीपल का पेड़ है जहां एक लोक देवता चैन बाबा की समाधि भी है और सभी सद्य विवाहित जोड़े को वहां जाना पड़ता है -आशीर्वाद के लिए -मैं क्यों नहीं गया था वहां ?-जवाब मिला कि मेरे कुछ अनुष्ठान सम्पूर्णता के बजाय शार्टकट हो गये थे-लगता है चैन बाबा का विलम्बित बुलावा  आ गया था और मुझे जाना ही  था!

सचमुच यह पीपल का वृक्ष तो देखने के मामले में न भूतो न भविष्यति टाईप का ही लग रहा था -विस्मय और भयोत्पादक ! आखिर चैन बाबा के ठीक समाधि पर अवस्थित था वह! अब ऐसे दृश्य को देखकर  कोई नतमस्तक हुए बिना कैसे रह सकता है!लिहाजा  मैं तुरत नतमस्तक हो गया -आप भी देर न कीजिये ! फिर इतिहास पुराण की ओर ध्यान दिया -पता लगा कि बस्ती के ही एक ब्राह्मण पुरखे ने तत्कालीन समाज (समय का निर्धारण नहीं हो पाया -मगर बात २५०-300 वर्ष पीछे से कम की  नहीं है ) के सामंतों /जमीदारों के शोषण और अत्याचार से जीवित समाधि ले ली थी ! और कालांतर में यह पीपल का पेड़ वहां उग आया मगर इसमें कोई केन्द्रीय तना नहीं नहीं है -बस ऊपर से नीचे यह घनी पत्तियों से ढका है !

 तनिक और निकट से -तना फिर भी नहीं दिखा 

एक ब्राह्मण का आत्मत्याग अब शायद एक अमर कथा में तब्दील हो गया है -जन -स्मृतियाँ न जाने कब तक चैन बाबा की कथा को जीवित बनाये रखेगीं ! त्याग भारतीय मनीषा में एक स्थाई भाव तत्व जो है !

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

....जैसे अदाकारा ,शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकारा क्यों नहीं?

मुझे बड़ा ताज्जुब सा हुआ जब एक मोहतरमा ने मुझसे चैट के दौरान अचानक पूंछ लिया, " ...जैसे अदाकारा ,.शायरा वैसे ब्लागरा/चिट्ठाकारा क्यों नहीं ?" मैं अचकचा गया!  अंगरेजी शब्दों का हिन्दीकरण और   उनके लिंग परिवर्तन के  औचित्य और अनौचित्य पर ब्लागजगत में काफी बहस भी हो चुकी है! मैंने कहा कि यह कुछ अच्छा नहीं  लग रहा है ,अनकुस सा लगता है  कुछ! उन्होंने तपाक  से उत्तर दिया बल्कि प्रश्न पूंछ लिया या यूं कहिये कि प्रश्नात्मक उत्तर सामने धर दिया कि कवि हैं तो कवयित्री भी  हैं ,शायर हैं तो शायरा भी  हैं ,अदाकार हैं तो अदाकारा भी हैं तो जब ब्लॉगर हैं तो फिर ब्लागरा  क्यों नहीं ? मैंने कहा कि बहुत करके मैं चिट्ठाकारा शब्द तो स्वीकार कर सकता हूँ मगर ब्लागरा तो गले नहीं उतर रहा -उन्होंने मेरे सौन्दर्य बोध को ललकार दिया -कहा जरा ध्यान  केन्द्रित करके तो देखिये कितना सुघड़ शब्द है -ब्लागरा -पूरी शायरा  सी नजाकत नफासत लिए हुए ! अब मैं अप्रस्त्तुत असहाय सा उनका तर्क सुनता रहा -पहली बार अपने वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर जोर का रोना आया -काश थोड़ी संस्कृत पढी होती ,थोडा भाषा विज्ञान जाना होता और किसी वैयाकरण से दीक्षा ली होती तो आज एक "ब्लागरा"  से मुंह की न खानी पड़ती! वे तो चली गयीं मगर मन  को उद्विग्न छोड़ दिया !

अब डूबते को तो तिनके का ही सहारा होता है मगर मैंने गिरिजेश भाई को फोन मिलाया -इन दिनों उनके शब्द और शब्दार्थ ज्ञान से कईयों की कंपकपी छूट रही है ! मैंने उनके सामने सारा प्रसंग और संदर्भ रख दिया -वे ठठाकर हँस ही तो पड़े ,बोले कि इस समस्या को  सार्वजनिक रूप से लाईये तभी कुछ कहना ठीक रहेगा और फिर ठिठोलियों में लग गए! लगे घाघरा का उद्धरण देने! मतलब उनसे अब उम्मीद खत्म थी ! इस मुद्दे पर फिर जीशान से बात की -उनकी उर्दू की जानकारी ठीक ठाक है ! मैंने उनसे पूंछा कि क्यों जीशान भाई शायरा या अदाकारा  की ही तर्ज पर क्या ब्लागरा उपयुक्त शब्द है और हम इसका व्यवहार नेट पर शुरू कर दें -उनकी तुरत फुरत राय थी, नहीं पोयटेस या ऐक्ट्रेस की तरह ब्लाग्रेस कहना ज्यादा मुफीद होगा मगर फिर तुरत ही पलट गए ! कहा कि इससे तो मिस्ट्रेस की बू आ रही है लिहाजा ब्लाग्रेस भी ठीक नहीं ! बहरहाल यहाँ से भी निराशा भी मिली ! दुर्भाग्य कि कोई संस्कृत वाला या वाली से सम्पर्क ही नहीं हो पाया(लगता है अब नंबर लेकर रखना होगा )! एक ब्लागजगत में हैं भी तो उन्हें विद्वानों से फुरसत ही नहीं रहती -हम संस्कृत हीनो के लिए उनके पास समय कहाँ ? और  भी कोई हैं तो उनसे फिलहाल इतनी छूट  नहीं ली जा सकती !

तो अब यह विषय  खुली चर्चा के लिए रख रहा हूँ -इस ब्लागमानस में  तो नीर क्षीर निर्णय हो ही जायेगा . न जाने क्यूं मुझे ब्लागरा शब्द से अचानक ही इतना नेह क्यूं हो गया है -कई उदित और उदीयमान नारी ब्लागरों के नाम के आगे पीछे इसे जोड़कर देखने पर कुछ के साथ तो यह खूब फब भी रहा है ! शायरा शायरा सा कुछ! भले ही व्याकरण के लिहाज से यह गलत हो मगर एक काव्यमय सौन्दर्य तो इसमें निश्चित तौर पर है -विश्वास न हो तो मेरी टेक्नीक इस्तेमाल कर देख लें! अगर हम आगे किसी महिला ब्लॉगर का तआर्रुफ़ करते वक्त यह कहेगें कि लीजिये मिलिए मोहतरमा से.... ये हैं एक मशहूर ब्लागरा ......तो कितना अच्छा लगेगा! हैं ना ? फिर ब्लॉगर शब्द नपुंसक लिंग ही क्यों  बना रहे ? आज के दौर में चारो ओर  विशिष्ट से दिखने की  चाह में महिला ब्लागर अगर ब्लागरा का संबोधन स्वीकार कर लें तो हर्ज ही क्या है ?

रविवार, 20 दिसंबर 2009

आज मन कुछ भडासी हुआ

 जी हाँ यह पोस्ट इस ब्लॉग (नया भंडास ) के प्रेरक वाक्य कि " कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा..." से उत्प्रेरित है ! यह वर्ष बीतने को बस गिने चुने दिन रह गए हैं ! सोचता हूँ मन पर छाये कुछ मटमैलेपन  को दूर कर नए वर्ष के लिए मन  को  तरोताजा करुँ -एक नए उत्साह और खुलेपन से नए वर्ष का स्वागत करुँ ! ब्लागजगत में आये मुझे भी कुछेक वर्ष तो बीत ही चले -मगर यहाँ यह वर्ष तिक्तता ,मनोमालिन्य ,खिन्नता का जो दंश देकर जा रहा है शायद उसकी स्मृति आगे भी कई वर्षों तक  सालती रह सकती है ! आत्मान्वेषण करता हूँ तो खुद को भी बरी नहीं कर पाता ! देखता हूँ दिन ब  दिन अपने व्यवहार में हठी और आक्रामक होता जा रहा हूँ जबकि विनम्रता के महात्म्य से भलीभाति  परिचित हूँ ! क्या यह सठियाने की शुरुआत है?  -कल ही ५२ वर्ष का हो गया!  इन दिनों ज्यादा लगता है कि दुष्टों और हार्डकोर अपराधियों को कठोर दंड मिलना ही चाहिए ! जैसे शंकर ने गुरू के अपमान पर एक शिष्य (जो आगे चलकर काकभुशुण्डी  बना ) को श्राप ग्रस्त कर दिया -

जौ  नहीं दंड करहुं  खल तोरा भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा 
-मतलब जो तुम्हे दंड नहीं देता हूँ तो मेरा वेदमार्ग का आचरण ही नष्ट हो जाएगा ! दंड विधान भी यही कहता है कि कुछ  लोगों को दंड देने में ही जन कल्याण निहित है ! समाज सुधारक अलग रवैया  अपनाते हैं -गांधी जी तो कहते भये हैं -पाप से घृणा करो पापी से नहीं ! मगर ये पाप फैलाता  कौन है ? फिर ये सोचता हूँ मैं कोई दंडाधिकारी तो हूँ नहीं और कुदरत ने भी ऐसी कोई काबिलियत मुझमें नहीं  देखी तो फिर काहें इन पचड़ों में पडू -जो जैसा करेगा वैसा भरेगा ! और पाप पुण्य ,नैतिकता और अनैतिकता ,उचित अनुचित सब तो सापेक्षिक हैं !अलग अलग परिप्रेक्ष्यों में अलग तरीके से देखे सुने जाते हैं! 
मगर इस मन  का क्या करूं जो लोगों के आचरण  से कभी कभी बहुत संतप्त हो जाता है ! अभी उसी दिन एक मेल प्राप्त हुआ -
""लेकिन अफ़सोस होता है आपकी बचकानी समझ में।
आपकी एक टिप्पणी के बारे में मेरे एक मित्र की टिप्पणी थी--


अरविन्द जी मुझे हर बार धोखा दे जाते हैं। मैं जब भी यह सोचता हूं (यहाँ कौन जाने सोचती हूँ भी हो सकता है -मित्र का नाम तो बताया नहीं न  )  कि आप और नीचे न गिरेंगे तब वे पांच फ़ीट और नीचे गिर जाते हैं। अद्भुत पतन प्रतिभा है उनमें।"

-- अब यह संवाद दो मित्रों के बीच का है जो एक तीसरे मित्र यानि मुझ पर फोकस थे !--यहाँ   इंच और टेप लेकर मेरे गिरने की गति नापी जा रही है -अब मैं भी हांड मांस का बना साधारण मानुष ही हूँ किसी भी ईश्वरीय प्रतिभा से पूर्णतया रहित -अब क्यों न ऐसे वार्तालाप पर उद्विग्न न हो जाऊं -पर यह  कड़वा घूँट भी  गटक लिया  है !  अब आप ही पंच  फैसले करें कि जब ऐसे वार्तालाप और दुरभिसंधियाँ ब्लॉग जगत में चल रही हों तो मन दर्द से क्यूं न भर जाय!

बहरहाल आईये हम नए वर्ष के आगमन में थोडा और सहिष्णु बने ,विनम्र बनें ,एक दूसरे का सम्मान करना सीखें -सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार का अनुपालन करें ! लोगों को अपने व्यवहार से खुश करें और खुद इस प्रक्रिया में खुश हों ! कटुता के वातावरण से ब्लॉग जगत को छुटकारा दिलाएं ! ये संकल्प हम जल्दी से ले ले क्योंकि नए वर्ष में /के लिए तो और भी संकल्प करने हैं न ! अंत में एक आह्वान यह भी कि प्लीज ब्लॉग जगत को छोड़ कर  कर न जाएँ -आप हैं तो यह ब्लॉग जगत भी गुलजार है!

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

क्या विवाहिता को सुश्री कहना अनुचित है?(मायिक्रो पोस्ट)!

एक सज्जन ने मुझे लताड़ा है कि मैंने विवाहिता के लिए भी सुश्री का संबोधन दिया है जो कि गलत है! सुश्री का संबोधन केवल अविवाहिता के लिए ही होना चाहिए! यह मामला अब मैं ब्लॉग जगत की महापंचायत में रख रहा हूँ -अपनी समझ बुद्धि के अनुसार मैंने उन्हें यूं समझाया है -

"मैं समझता हूँ कि सुश्री चूंकि वैवाहिक स्थिति को नहीं दर्शाता इसलिए आधुनिक रीति रिवाज में यह विवाहित महिलाओं  के लिए भी प्रयुक्त होता है -अंगरेजी में भी इसका समानार्थी ms है जिसका उच्चारण मिज़ है -या यूं कहिये कि ms की प्रतिपूर्ति हिन्दी मे सुश्री के रूप  में हुई -अंग्रेजी में Mrs .(मिसेज ) कहना अब पिछड़ापन माना जाता है -अंगरेजी पत्र पत्रिकाओं में ज्यादातर ms  शब्द का प्रयोग होता है .....मगर फिर भी यह अपने अपने  विवेक और पसंद पर है कि आप विवाहित महिला को मिज कहते हैं मिसेज !"
क्या कहते हैं प्रबुद्धजन ,शिष्टाचार नियामक और पंच लोग ? 
जीवन शैली ...आचार व्यवहार

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

रचना त्रिपाठी का रचना लोक -चिट्ठाकार चर्चा

इलाहाबाद के ब्लागिंग  सम्मलेन की याद तो अभी होगी ही ....एक शख्सियत (फोटो बदलें!) वहां होकर भी अपनी अनुपस्थिति का अहसास शिद्दत से करा गयी और लानत है ब्लॉगर भाई बन्धु बान्धवियों को कि इसकी आज तलक चर्चा भी नहीं हुई है ! वे सहचरी हैं उस महानुभाव की जिनकी बदौलत ब्लागिंग सम्मलेन मूर्त रूप ले सका था - मतलब "तात जनक तनया यह सोई ब्लॉगर सम्मलेन  जेहिं कारन होई " की खुद की अर्धांगिनी और एक संभावनाशील ब्लॉगर और मेरी एक प्रिय चिट्ठाकार रचना त्रिपाठी उस सम्मलेन में आयीं भी और कोई देख नहीं सका ! गिरिजेश भईया ने तत्क्षण उत्कंठा भी की थी और मैंने उनकी मदद और खुद की भी जिज्ञासा पूर्ति के लिए नजरें भी इधर उधर फेरीं थीं मगर मेरा यह प्रिय ब्लॉगर नहीं दिखा था वहां! सच कहूं कुछ खिन्नता तो मन  में तभी आ गयी थी !  रचना त्रिपाठी  ने बहुत उत्साह से ब्लागिंग की दुनिया में कदम रखा था - टूटी फूटी का प्रगट उद्घोष मगर परोक्षतः कई सरोकारों से जुड़े चिट्ठे का आगाज होने के कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में राष्ट्रीय चिट्ठाकारिता सम्मलेन ,  जहां इस ब्लॉगर का डेबू अपेक्षित था किन्तु  इनका नामोनिशान तक न था !

मैं कृतित्व  से बढ़कर किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व को सर माथे रखता हूँ (लोग लुगाई नोट कर लें ताकि सनद रहे ) और तिस पर यदि कृतित्व भी बेहतर हो जाय तो फिर पूंछना ही क्या ? सोने में सुगंध ! कुछ ऐसी ही हैं मेरी प्रिय चिट्ठाकार सुश्री रचना त्रिपाठी .अब उन्हें कितने विशेषणों से नवाजू -कुछ धर्मसंकट समुपस्थित हैं -एक तो अनुज की भार्या और दूसरे नारी!यहाँ ब्लागजगत में ऐसे लोग भरे पड़े हैं कि सहज ही व्यक्त  बातों को भी औचित्य -अनौचित्य ,शील अश्लील के बटखरे से तौलने लगते हैं! मगर अपनी बात तो कहूँगा ही और कुछ अनुज से उनके ही  प्रदत्त अधिकार/लिबर्टी  का सदुपयोग  करते हुए! रचना त्रिपाठी  का व्यक्तित्व  पहले . वे मेरे घर भी आ चुकी हैं -यूं कहिये की मेरे घर को त्रिपाठी दम्पति आकर धन्य कर चुके हैं ! ऐसा पता नहीं क्या हुआ कि वह शुभागमन रिपोर्ट आप तक नहीं पहुँच सकी -आज शायद  कुछ भरपाई हो पाए ! उन्हें देखकर तो मुझे भी तुलसी बाबा का सा वही  अनिश्चय /असमंजस सहसा हो आया  -....सब उपमा कवि रहे जुठारी केहिं  पटतरौ विदेह कुमारी . ....और बस उसी झलक की ललक में हिन्दुस्तानी अकेडमी के हाल के उस भव्य उदघाटन सत्र में मैंने उसी छवि  को एक बार देख लेने की आस में जब निगाहें उठाई थीं तो कुछ ऐसी ही प्रत्याशा थी -रंग भूमि जब सिय पगधारी देख रूप मोहे नर नारी ...मगर घोर निराशा ही हाथ लगी ! आखिर उस समारोह में क्यों मेरा यह प्रिय ब्लॉगर अनुपस्थित हो रहा था ? किसके पास जवाब है इसका ? क्या यह कोई षड्यंत्र था ? या थी एक बेचारी गृहणी की कोई अकथ विवशता ?




 रचना त्रिपाठी और प्यारे बच्चे ,उचित ही पहले गृहणी फिर ब्लागर 

 सम्मलेन के अकादमीय पक्ष से जहाँ मैं संतुष्ट रहा वहीं कतिपय मानव संसाधन के नौसिखिया प्रबंध (जिसे बेड टी न दिए जाने के रूप में मैंने हाई लाईट किया था -हा हा  )से थोडा तमतमाया भी था .मगर मेरी प्रिय ब्लॉगर ने पूरे उलाहने के स्वर में मुझसे कहा "भाई साहब अगर आपको कोई असुविधा हुई थी तो मुझसे कहते ...." मैं तब ग्लानि बोध से दब सा गया था ! मगर फिर मन में आया कि जरूर कहता अगर  आप वहां उस तामझाम का हिस्सा  होतीं ! मगर उनका उलाहना अपनी जगह दुरुस्त था -मुझे औपचारिक प्रबंध से निराश होने पर इस अनौपचारिक सौजन्यता के शरण में जाना ही चाहिए था -मगर मेरे प्रिय चिट्ठाकार को कोई असुविधा न हो इसका भी तो ख्याल मुझे ही करना था ! उनसे बड़ा जो हूँ ! उम्र,ब्लागिंग और सामाजिक  पद में भी !

रचना त्रिपाठी (बार बार त्रिपाठी लिख कर  डिसटीन्ग्विश करना पड़ रहा है ,उफ़ !) विज्ञान में स्नातकोत्तर हैं -उन्हें तो साईंस ब्लागिंग को भी समृद्ध करना चाहिए मगर सामान्य (जनरल ) ब्लागिंग मे  भी वे नियमित नहीं हो पा रही हैं -क्या भारतीय नारी सचमुच इतनी विवश हो गयी है ? मैं सिद्धार्थ जी  को आड़े हाथों लूँगा अगर यह स्थिति नहीं सुधरी -मेरे प्रिय ब्लॉगर के इस घोषित आत्म परिचय से भी मैं फिर कुछ कुछ सिद्धार्थ जी को ही जिम्मेदार मानता हूँ -और कुछ तो इस आत्म कथ्य से ही स्वयं स्पष्ट है -
"माँ-बाप के दिये संस्कारों के सहारे विज्ञान वर्ग से स्नातकोत्तर तक पढ़ाई करने के बाद उन्हीं के द्वारा खोजे गये जीवन साथी के साथ दो बच्चों को पालने-पोसने में अभी तक व्यस्त रही हूँ ...और सन्तुष्ट भी। नौकरी करना है कि नहीं, इस विषय में सोचने की फुरसत अभी तक नहीं मिल पायी; और जरूरत भी नहीं महसूस हुई। लेकिन अब जब बच्चे बड़े हो जाएंगे, तो समय के अच्छे सदुपयोग के लिए कुछ नया काम ढूँढना पड़ेगा। शायद एक खिड़की इस ब्लॉग जगत की ओर भी खुलती है...।"..तो क्या इस रचनाकार की रचनाओं के लिए हमें अभी भी एक लम्बा इंतज़ार करना पडेगा ? मगर आज की इस अधीर सी होती दुनिया में किसको इतने लम्बे इंतज़ार का धीरज  है ?
वे खुद कहती हैं कि भाई साहब मेरी गृहस्थी पहले है -मैं निरुत्तर  हो जाता हूँ ! क्या पतिनुमा प्राणी भी इतने ही समर्पित होते हैं अपनी गृहस्थी के लिए   ?  आप भी इनसे अनुरोध करें प्लीज कि गृहस्थी  के साथ अपने को यहाँ भी सार्थक करें और  अपने अवदानों से ब्लॉग जगत को उत्तरोत्तर समृद्ध  करें! 

मेरे इस प्रिय ब्लॉगर ने कई यादगार पोस्टें  लिखी हैं ,बटलोई का चावल देखिये-

घर में ब्लॉगेरिया का प्रकोप …भूल गये बालम!!!

मुकदमेंबाज की दवा

ब‍उका की तो बन आयी...!

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

ऐसी की तैसी उन सबकी ....ये नया नया जोश है अभी!

कभी आपने " गेट क्रैश" किया है? मतलब बिन बुलाये मेहमान बनकर शादी व्याह के मंडपों या दूसरे उत्सवों की दावतों के  तर माल पर हाथ साफ किया है? संकोच न कीजिये सच सच बता दीजिये! अब इसमें हिचक काहे की ..अपने प्रधानमंत्री की शान में  ओबामा साहब द्वारा दी गयी  पार्टी में तो  बिन बुलाये पूरे एक दम्पति ही नमूदार हो गए ! अभेद्य सुरक्षा को भी तार तार करते जा पहुंचे ओबामा साहब तक और बाकायादा हाथ वाथ मिलाया -भोज पर हाथ साफ़ किया और चलते बने! अब इतने ठाठ बाठ से और वह भी सपत्नीक जाने वाले को रोकने की हिम्मत भी कौन करे ...ये मामला तो आप पढ़ ही चुके हैं! इन दिनों शादी व्याह के मौके पर आये दिन चल रहे दावतों के दौर ने ऐसी कई यादें कुरेद डाली!

हम तो शुरू से ही एक "बे" फालतू के से आत्म गौरव के शिकार रहे और ऐसे क्षणों के लुत्फ़ और रोमांच से इसलिए  वंचित भी ! साथी संगाती ऐसे अवसरों का खूब लाभ उठाते थे और लौट कर अपने शौर्य /चौर्य और उडाये गए दावत के मीनू की चर्चा जब करते थे तो  उनके मौज मस्ती और अपने आहत स्वाभिमान से मेरी हालत पतली हो जाती थी! ऐसे शौर्य गान को सुन सुन कर  कई बार आहत आत्मसमान कृत संकल्प भी हुआ कि हम अगली ही किसी पार्टी में खुद ही जा पहुंचेगें और अपने शौर्य की परीक्षा ले ही  लेगें मगर ऐसा न हुआ और उम्र की देहारियाँ पार होती गयीं -कहते हैं न जो शौक बचपन और जवानी में पूरे न हो पाए उन्हें बुढापे में पूरा करने को कितनो का मन हुलसता रहता है! तो हम भी इक्का दुक्का ऐसे सुअवसरों का लाभ अभी अभी  बीते शादी विवाह के मौसम में उठा ही लिए और आत्म समान तेल बेचने चल पडा .... जहाँ उसे बहुत पहले ही  चला जाना चाहिए था ! मगर रुकिए अभी जरा एकाध दूसरे गेट क्रेशरों  के कुछ रोचक संस्मरण /आप बीतिओ से आपके ज्ञान कोशों को समृद्ध तो करता चलूँ!



मेरे होस्टल  साथियों में दो जन (अब नाम नहीं दे रहा ....) हैबिचुअल गेट क्रेशर हुआ करते थे! मेरे एक मित्र जो इन दिनों बड़े भारी पद पर  तैनात हैं उन दिनों एक गरीब बैकग्राउंड से होते थे और अपनी  कई दमित इच्छाओं का आउटलेट ढूँढा करते थे और बड़े बड़े जलसे उत्सवों में जाकर अपने इन्फीरियारटी काम्प्लेक्स को दुरुस्त करते थे .इसके लिए उनके रूम पार्टनर जो एक बड़े घराने से थे ने दयार्द्र होकर उनके लिए एक सूट और उस समय के एक प्रचलित टाई ब्रांड जोडियक की टाई का भी इंतजाम कर दिया था और साहबजादे अपने उस सुदामा मित्र को साथ लेकर सूटेड बूटेड होकर गेट क्रैश कर जाने में माहिर हो गए थे! एक बार एक हाई प्रोफाईल विवाहोत्सव में धर ही तो लिए गए! किस्सा   कोताह यह कि सुदामा मित्र को डांस करते बारातियों को देखकर नाचने का जज्बा हो आया -अभिजात मित्र ने बार बार रोका मगर वे तो आपे से बाहर हो उठे थे और उनके आदिम नृत्य ने कुछ ऐसा समा  बाँधा कि इम्प्रेस हुए लोग उनसे उनका नाम धाम जाति बिरादरी और गोत्र तक भी पूंछने लगे! भरी मुसीबत -आपद धर्म का मारा बिचारा दोस्त भी अब क्या करे! स्थिति संभालनी चाही! दूसरे बाराती तो आगे के अजेंडे में लग गए मगर एक मानुष अड़ गया कि आप लोग आखिर हो कौन साफ़ साफ़ बता ही दीजिये!जी मजबूत कर  एक अंतिम कोशिश की मित्र ने! "जी हम दूल्हे के खास मित्र हैं और उसी ने आग्रह से हमें बुलाया है "...फिर प्रतिप्रश्न " मगर उसके तो हर दोस्त को हम जानते हैं ,आप अपना पूरा परिचय दीजिये " ..पहली बार मित्र द्वय के पैरो तले जमीन और हाथों से दावत के पकवानों की थालियाँ फिसलती नजर आयीं ..मगर मरता क्या न करता ...एक बार और हिम्मत दिखाई और इस  बार पूरे आवेश में ,"मगर आप कौन है जो इतना पूंछ पछोर कर रहे हैं" ..."जी मैं दूल्हे का बाप हूँ "उत्तर था! अब  काटो तो खून नहीं ..माफी वाफी पर उतर आये करकट दमनक मित्र! मगर एक अप्रत्याशित बात हो गयी  -दूल्हे के बाप ने कहा ,"नहीं नहीं अब आयें हैं तो शादी निपटा के जाएँ इतने वेल मैनर्ड ,ड्रेस्ड होकर आप दोनों ने तो बारात की रौनक बढा दी है -आभारी तो हम हैं आपके ,आईये आईये खाना  वाना खा के ही जाईये! " अब अँधा क्या चाहे दो आँखे ! मित्र द्वय उस पार्टी में भी खूब जीमे!

मगर एक गेट क्रेशर का अनुभव  खुशहाल नहीं रहा! अब दिखावे का ट्रेंड कुछ ऐसा चल पड़ा है कि गमी और खुशी के अवसरों पर दिए जाने वाले भोज का अंतर भी मिटता जा रहा है! ऐसे ही मेरे नायक गेट क्रेशर थोडा जल्दी ही एक दावत में जलवा फरोश हो गए! पूरा  सज धज के! काफी देर हुई खाना सर्व होने में तो उकता के किसी से पूंछ ही बैठे कि भाई  साहब बारात में इतनी देर क्यों हो रही है! उत्तर हतप्रभ करने वाला था -कैसी बारात ..यह तो फलाने की तेरहीहै ! त्रयोदश भोज है आज ! उलटे पाँव हमारा नायक भाग निकला वहां से!

अभी  उस दिन जब मेरे लंगोटिया यार और के जी एम सी लखनऊ से एम डी डॉ राम आशीष वर्मा ने रात  नौ बजे फोन  किया कि बनारस पहुँच रहा हूँ अमुक जगह पर... शादी में फौरन पहुँचिये तो अब मैं करता ही क्या ? ड्राइवर जा चुका था, उसे बुलाना ठीक नहीं था ,इतनी रात तो  बेटे से ही गुजारिश किया कि चलो छोड़ दो भाई उत्सव स्थल तक ! वह तैयार तो हुआ मगर इस शर्त पर कि वहां खाना नहीं खायेगा -क्योंकि निमंत्रित नहीं है ! बेचारा ! मेरे बीते दिनों की याद दिला कर मुझे भी कुछ क्षण के लिए बिचारा बना गया ! हमने तो बाकायदा गेट क्रैश किया ! मगर उसने लाख मनुहार के बाद भी खाना नहीं खाया ! ये आज के लड़कों को हो क्या रहा है ? या हो सकता है कि कहने से धोबी गधे पर जो नहीं चढ़ते ! मगर मेरी तो जैसे धड़क खुल सी गयी हो -कल ही रात एक हाई प्रोफाईल दावत में जीम कर लौटा हूँ ! अन इन्वायिटेड ! अब एक मित्र ने फिर फोन किया कि वे मेरे घर के ही समीप के पांच सितारा होटल के बहू भोज में पधार रहे हैं और मुझे साथ चलना होगा ! इन दिनों अकेले ही हूँ परिवार सामाजिक  कार्यों से बाहर है -खाना तो खाना ही  था  कहीं  और इतना सुन्दर अवसर ? और गेट क्रैशिंग का नया नया रोमांच और रूमान तो जीम ही आये वहां से -हाँ, कई आखें जरूर पूंछती लगीं कि "भाई साहब आप कौन हैं ?"  मगर ऐसी की तैसी उन सबकी ....ये नया नया शौके जोश है अभी!

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

और ये है सोलहवीं नायिका ....अनुशयाना!

नायिका भेद शास्त्र के एक लोकप्रिय लेखक हुए हैं भानुदत्त. उनके  अनुसार अनुशयाना वह नायिका है जो प्रिय मिलन में बाधा उत्पन्न हो जाने से उदास है और यह नायिका तीन प्रकार  की होती है !पहली तो वह जो वर्तमान के  मिलन स्थल के नष्ट हो जाने से दुखी हो जाती है और दूसरी इस आशंका से की कालांतर में किसी भी कारण (जैसे किसी अन्य से विवाह के कारण )पूर्व प्रेमी से किसी उपयुक्त मिलन स्थल के अभाव के कारण मिलना न हो सकेगा ! और तीसरी अनुशयाना  नायिका वह जो किसी बाधा के समुपस्थित हो जाने से संकेत/ अभिसार /मिलन स्थल पर न पहुँच पाने की व्यथा से उद्विग्न हो गयी है !

 
अनुशयाना  के भानुदत्त के तृतीय प्रभेद को लेकर राकेश गुप्त जी ने कितना मार्मिक  काव्य वर्णन किया है ,आप भी देखें -
लता कुञ्ज से पड़ा कान में 
मृदु वंशी -रव जब श्यामा के,
विकल अधीर हुए तन मन सब 
पिया- मिलन को तब कामा के ;
दारुण दृष्टि ननद की उलझी 
बेडी बन पग में भामा के ;
पीती रही विवश हो ,बाहर 
गिर न सके आंसू श्यामा  के



पुनश्च:यह श्रृंखला  अभी  समाप्त नहीं हुई है- अभी  चंद नायिका उपभेद रह गए हैं ! तत्पश्चात पंचो की राय पर नायक भेद भी चर्चा में आएगा ही और तब जाकर उपसंहार के बाद यह श्रृखला समाप्त होगी ! लिहाजा धैर्य बनाये रखेगें !

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मुदिता नायिका (नायिका भेद -१५)



मुदिता नायिका वह है जिसे अप्रत्याशित ,अनपेक्षित और अचानक ही प्रिय मिलन का सन्देश या मौका मिल जाय ! तब उसके आह्लाद -आनंद का पारावार नहीं रहता ! मुदिताओं के दो प्रकार बताये गए हैं -प्रिय मिलन की सुनिश्चितता को इंगित करने वाली बात सहसा सुनकर आनंद   विभोर होने वाली नायिका मिलन -निश्चय मुदिता कहलाती है तो प्रिय से अचानक ही मिलन हो जाने पर वही मिलन मुदिता बन जाती है .अब भला राकेश गुप्त जी से बेहतर इन नायिकाओं को कौन शब्द- पद्य बद्ध कर सकता है ! आईये मुदिता नायिका को लेकर लिखी उनकी कुछ रचनाओं का आस्वादन किया जाय !
( १)
दिया निमंत्रण नंदराय ने ,
पूजा का उत्सव था भारी ;
जा न सकूंगी, सोच व्यथित थी
कृष्ण प्रिया,वृषभान  -दुलारी .
'मुझे काम है',कहा पिता ने ,
"मथुरा जाने की तैयारी.  "
"तुम्ही चली जाना",माँ बोली ;
पुलक उठी सुन मुग्ध कुमारी
(2 )
पूजा करने गोवर्धन की 
चली साथ सखियों के राधा ;
बिछुड़ गयी ,संग- संग चलने मे 
हुई भीड़ के कारण बाधा .
"कैसे कहाँ उन्हें मैं ढूँढू ?"
हुआ राधिका का मन  आधा ;
तभी अचानक देख श्याम को 
फूल उठी वह प्रेम अगाधा 
(३)
लौट रही थी यमुना तट से
ध्यानमग्न बाला अलबेली ;
ठोकर लगी ,मोच सी आई ,
लंगडाती तब चली  अकेली .
पीछे छोड़ उसे आगे सब 
निकल गयीं वे निठुर सहेली ;
तभी प्रकट हो दिया सहारा ,
बाहु  कृष्ण ने कटि  मे मेली 





 


चित्र :स्वप्न  मंजूषा शैल http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/12/blog-post_05.html

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

आज चर्चा में हैं दो नायिकायें -गुप्ता और लक्षिता!

आज दो नायिकाओं  का वर्णन जिनमें बहुत कुछ गोपनीयता के आवरण में है -ये हैं गुप्ता और लक्षिता ! गुप्ता उस नायिका को कहते हैं जो प्रिय मिलन को गोपनीय रख पाने में सफल हो रहती है जबकि लक्षिता का गोपन प्रेम किसी के द्वारा देखदेख सुन लिया जाता है.गुप्ता प्रिय से मिलन के चिह्नों का कोई अन्य कारण बताकर अपने गुप्त प्रेम को छिपाने में कैसे सफल रहती है इसका राकेश गुप्त जी ने किस प्रकार रोचक चित्रण किया है-




पौ फटने से भी पहले ही 
पनघट को मैं चली हठीली ;
संध्या की रिमझिम के कारण 
राह बनी थी कुछ रपटीली ;
संभल न पाई , छलकी गागर ,
हुई शिखा से नख तक गीली
सखी ,साक्षिणी बन संग चल तूं
न हों सासू जी नीली पीली


जब नायिका के प्रिय मिलन का भेद किसी को पता हो जाता है यानि उसका गुप्त मिलन अन्य के द्वारा लक्षित हो उठता है तो उस स्थिति में ही नायिका लक्षिता कहलाती है -
राकेश गुप्त का यह विवरण तो देखिये -


चली कामिनी पूजा करने 
लेकर नीराजन की थाली .
अटक गयी संकेत कुञ्ज में ,
जहां अवस्थित थे वनमाली .
देख लौटते स्वेद -स्नात हँस 
बोली नर्म -सखी मतिवाली -
"धन्य!आज की जीभर  तुमने 
इष्टदेव की पूजा ,आली!"

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

एक चतुर नायिका है विदग्धा!

वह  नायिका जो  प्रिय से मिलन /संपर्क की व्यवस्था अपनी पहल पर चतुराई से कर लेती है विदग्धा है ! यह वचन विदग्धा और क्रिया विदग्धा दोनों ही हो सकती है -ज़ब संकेतात्मक द्विअर्थी शब्दों/वचनों  से पिया मिलन का मार्ग वह खुद प्रशस्त कर लेती  है तो स्वयं दूतिका भी बन जाती है ,मतलब वचन विदग्धा ही स्वयं दूतिका है!

राकेश गुप्त जी की ये पंक्तियाँ देखिये -
पिता गए परदेश ,कह गए ,
"नहीं छोड़ना घर सूना, री! "
चली पिरोजन में माँ यह कह ,
"रहना सजग  राधिका प्यारी! "
रूठ गयीं सखिया मत्सरवश ,
उनको मना मना मैं हारी !
आज अकेली भीत विमन मैं ,
मत मिलने आना गिरधारी ! 







नायिका प्रत्यक्षतः तो प्रिय को मना कर रही है कि वे ना आये मगर मिलन के  इतने सुन्दर अवसर को हाथ से न जाने का चतुराई भरा संकेत निमंत्रण भी वह दे रही है -"आज तो मैं निपट अकेली ,डरी सहमी सी ,क्लांत सी हूँ "  .प्रकारांतर से यह  मिलन का एक पावरफुल आमंत्रण ही तो  है ! प्रगटतः  उसके शब्द मिलन की मनाही कर रहे हैं, मगर सच में वह कह रही है , 
"आ जाओ न प्रिय  आज मिलन का सुनहरा मौका है  ..." 

नायिका उपभेद में आगे हम क्रिया विदग्धा की भी चर्चा करेगें !


नायिका भेद पर नैतिक -शुद्धतावादियों ,समाज के पहरुओं और लंबरदारों की भृकुटियाँ तन रही हैं -हम उन्हें भी माकूल जवाब देगें -उचित  समय और अवसर पर !
चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल 

रविवार, 29 नवंबर 2009

यह नायिका अन्यसंभोगदु:खिता है! (नायिका भेद -११)











यह नायिका अन्यसंभोगदु:खिता है!


"अरी ,दुष्ट मैंने तो तुम पर विश्वास कर  प्रिय तक बस एक सन्देश ले जाने को भेजा था  ,मगर यह तो सपने में भी नहीं सोचा था कि तुम उनसे ही रासरंग  रचा  बैठोगी! अरी विश्वासघातिनी ,यह तेरा अस्त व्यस्त श्रृंगार ही सारी बाते बता दे रहा है ,रति चिह्न सारी पोल खोल रहे हैं  ,यह खुली वेणी ,लम्बी निःश्वास -उच्छ्वास और पसीने से तर बतर तुमारा ये  बदन -रे कलमुही,  क्या महज यह सब मुझे दिखाने मेरे पास आई हो -चल दूर हट जा मेरी नजरो से अब!" 

यह भी तो हो सकती है आज की दुखिता


 







                                                                                                               
..डांट खाकर !


  यह नायिका अन्यसंभोगदु:खिता है जो अपनी दूती /सखी पर प्रिय के रति चिह्नों को देख विस्मित और सहसा दुखी हो गयी है !



       ..और यह  भी कहीं न हो जाय? किमाश्चर्यम?? 
  
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी ऐसी नायिकाएं क्यों नहीं हो सकतीं? युग दृश्य और पात्र बदल गए तो क्या हुआ मानव मन  तो अभी भी बहुत कुछ वैसा ही तो है ना ? अथवा नहीं?                                                                             


और कल की दुनिया में भी क्या नहीं रहेगी यह नायिका?



                                                              

चित्र साभार:स्वप्न मंजूषा शैल

शनिवार, 28 नवंबर 2009

एक और व्यथित नायिका है -विप्रलब्धा!(नायिका भेद-१०)


अनूढ़ा और परकीया के अधीन ही एक और व्यथित नायिका है -विप्रलब्धा !नायक को पूर्व निश्चित किये गए समय पर संकेत स्थल पर न पाने वाली व्यथित  नायिका ही विप्रलब्धा है .


राकेश गुप्त की यह कविता विप्रलब्धा की व्यथा को चित्रित करती है-


प्रिय से था अनुबंध मिलन का ,
खुशी खुशी थी चली गयी मैं ;
पर अभिथल पर नहीं मिले वे ,
मर्माहत थी ,भली  गयी मैं ;
चार घड़ी की व्यर्थ प्रतीक्षा ,
समय चक्र में दली  गयी मैं ;
वंचक का विश्वास किया था,
इसीलिये तो छ्ली   गयी मैं 






चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

कवि को श्रद्धा सुमन!

आज मेरे प्रिय कवि हरिवंशराय बच्चन जी की १०१वी जयंती है -इस अवसर पर उन्हें उन्हें उनकी ही कविताओं को पढ़ते हुए,गुनगुनाते हुए  श्रद्धा सुमन अर्पित करने का मन है - निशा निमंत्रण उनका एक कालजयी गीत संग्रह है जो मानव मन  के कितने ही आवर्त विवर्तों को समेटे हुए है .सच बताऊँ इस महान कवि की कविताओं ने मुझे अनेक उन अवसरों पर राहत दी है जब मैंने खुद को  क्लांत ,अकेला ,असहाय और छला हुआ पाया है .ये मेरी पीडाओं से साझा तो करती रही हैं मगर जीवन के उज्जवल पक्षों की ओर भी निरंतर प्रेरित करती रही हैं .
निशा -निमंत्रण से एक गीत आपके लिए भी -बाकी तो हम आज दिन रात कई स्वरान्जलियाँ कवि को अर्पित करते रहेगें -

दिन जल्दी जल्दी ढलता है!

हो जाय न पथ में रात  कहीं ,
मंजिल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी जल्दी चलता है !
दिन जल्दी जल्दी ढलता है !


बच्चे प्रत्याशा में होगें 
नीड़ों से झाँक रहे होगें -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !
दिन जल्दी जल्दी ढलता है !


मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता  पद को ,भरता उर में  विह्वलता है !
दिन जल्दी जल्दी ढलता है !



इसे सुनते भी तो जाईये !




                                                                       

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

प्रेमातुर नायिका है अभिसारिका!(नायिका भेद -९)

किसी निश्चित समय और स्थान पर प्रियतम से मिलने के लिए जाने वाली प्रेमातुर नायिका अभिसारिका है !चित्रकारी के संदर्भ में  एक प्रासंगिक विवरण जो नेट पर भी मौजूद है इस प्रकार  है -
"अभिसारिका ऐसी नायिका है जो किसी भी जोखिम की परवाह न करते हुए अपने प्रेमी से मिलने निकल पड़ती है। उसे विभिन्न कवियों ने अलग-अलग नाम दिया है। पहाड़ी (हिमाचली) कलाकारों का वह प्रिय विषय रही है। कृष्ण अभिसारिका और शुक्ल अभिसारिका दो तरह की नायिकाएँ हैं जो चांद की स्थिति के अनुसार कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष के दौरान अपन प्रेमी से मिलने निकलती हैं। एक आकर्षक चित्रकारी में कृष्ण अभिसारिका ने नीला दुपट्टा ओढ़ रखा है और वह रात में अकेली जा रही है। अंधेरी रात है और बादल छाए हुए हैं और रुक रुककर बिजली चमक रही है। जंगल में सांप हैं और भूत-पिशाच तथा डाइनें घूम रही हैं। जंगल के भय से बेखौफ- तूफान, सांपों, अंधेरों के आतंक की तनिक भी परवाह न करते हुए नायिका प्रेमी के प्रति जनून लिए उसकी तलाश में निकल पड़ी है।" 




-वाह ,ऐसी नायिका की हिम्मत के क्या  कहने !निर्भय ,सापो से भी घिरी मगर  कितना समर्पित है वह अपने प्रेम और प्रियतम के प्रति ! राकेश गुप्त ने ऐसी नायिका की तारीफ में कुछ पंक्तियाँ यूं लिखी हैं ...
दो उन्नत उरोज आतुर थे
आलिंगन में कस जाने को ;
फड़क रहे अधरोष्ठ पिया के 
प्रियतम के चुम्बन पाने को ;
चंचल थे पद चक्र  कामिनी -
अभिथल तक पहुचाने  को  ;
तन से आगे भाग रहा मन 
मनमोहन में रम जाने को 


अभिसारिका जैसी  स्थितियां सामन्यतः अनूढा और परकीया में ही दृष्टव्य हैं .राधा का कृष्ण प्रेम  परकीया ही है!
चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल  

 


सोमवार, 23 नवंबर 2009

......और यह है कलहान्तरिता नायिका ! (नायिका भेद -8 )

वह नायिका जो क्रोधवश दोषी नायक  को अपने से दूर करने के बाद फिर पश्चाताप करने लगती है वही कलहान्तरिता  है -जरा यह   विवरण तो देखिये -




"सखी ,भले ही उन्होंने 'वो ' गलती कर दी थी  मगर वे अपने किये पर लज्जित भी तो थे ,और वे कितना पछता भी तो रहे थे .मगर सौत से डाह के चलते मेरी चिढ और जिद के आगे उनकी कहाँ कुछ चल पायी थी -उनकी सारी मान मनुहारों निष्फल ही तो हुयी  थी ....और तो और वे मेरे पैरों पर भी गिर पड़े थे और बोल उठे थे ,"मेरी जान मुझे बस  इस बार माफ़ कर दो "लेकिन मैं  तो निष्ठुर हो गयी थी और फिर हताश से वे चले गए थे -आह अब मैं कितना पछता रही हूँ ..यह मैं ही जानती  हूँ ! "


                                                                           पश्चाताप! 

चित्र सौजन्य : स्वप्न मंजूषा शैल
कल चर्चा होगी अभिसारिका की ....

रविवार, 22 नवंबर 2009

एक शाम गिरिजेश ने की मेरे नाम!

अभी अभी तो गिरिजेश गए हैं ! थोड़ी रिक्तता तिर आई है ! सपरिवार आये थे किसी सामाजिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने ! ब्लॉगर स्नेह सौजन्य ऐसा कि मुझसे मिलने आ गये ! उनकी सदाशयता ,विनम्रता ने मेरी एक शाम को सुखानुभूतियों से भर दिया ! रहे तो वे महज एक घंटे मगर इसी में हमने मानो एक युग जी लिया ! वो कहते हैं न कि मिलन की दीर्घावधि की तुलना  में उसकी गहनता ज्यादे मायने रखती है ! हम खूब हँसे ,खिलखिलाए ,नाश्ता पानी किया ,थोड़ी ब्लागरी पर बतियाया ,एक फार्मल फोटो सेशन किया !




   आगे कौस्तुभ और अरिदम ,पीछे दायें से गिरिजेश राव  ,बिटिया अलका ,श्रीमती गिरिजेश राव ,संध्या मिश्रा और मैं  (फोटो की खराब क्वालिटी  के लिए खेद है )



मैंने दो कथा संग्रह उन्हें भेट किये -'एक और क्रौंच वध  ' और अभी सद्य प्रकाशित और लोकार्पित 'राहुल की मंगल यात्रा ' ख़ास तौर पर बच्चों,बिटिया अलका और बेटे अरिदम  को भेट किया !अब इतने सरल चित्त और विज्ञ पाठक मिलें तो  यह फायदा कौन उठाना नहीं चाहेगा ! कोई बमुश्किल एक घंटे गुजार कर वे अभी कुछ पल पहले ही सपरिवार लखनऊ कूच कर गए हैं -रोका पर रुके नहीं ! अभी अभी रास्ते से ही उनका फोन भी आ गया -बाऊ के पुनरागमन पर कतिपय  प्रिच्छायें कर रहे थे....पूरी तरह ब्लॉगर चरित्र पर उतर आये हैं बन्धु !

                             बेटे अरिदम के साथ एक पोज 

 अब उनसे यह मुलाकात सार्वजनिक की जाय या नहीं इसे लेकर भी कुछ असमंजस की स्थिति रही ....मगर ब्लॉगर क्या चाहे बस एक पोस्ट की जुगाड़ -के फलसफे पर मैं कायम था मगर पत्नी को गंवारा नहीं था हर पल ब्लागिंग को समर्पित करते रहना!  फिर मैंने कुछ तार्किक चिंतन मनन किया -ब्लागर की  स्वतंत्रता (के तर्क ) का पल्लू थामा ,यह भी कि आखिर घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा  क्या ? और यह भी सोचकर कि जिस तेजी से गिरिजेश एक ब्लॉगर सेलिब्रिटी होने को उद्यत हैं आज यह मुलाक़ात सार्वजनिक कर आप लोगों की गवाही भी ले ले -न जाने आगे वे कहीं  पहचानने से ही इनकार न  कर दें -प्रभुता पाई काह न मद होई


ब्लागरी वर्ल्ड ने सचमुच दुनिया को एक परिवार का रूप दे दिया है -जो काम रीयल जगत नहीं कर पाया अब यह रायल जगत कर रहा है -नए नए नेह सम्बन्ध बन रहे हैं ! एक नया उत्साह जीवन को नए अर्थ दे रहा है -हम तो बहुत आशान्वित हैं !  क्या आप भी ?

शनिवार, 21 नवंबर 2009

नहीं भूलेगी वो कैटिल क्लास की मानवता !(यात्रा वृत्तांत -अंतिम भाग)

पुष्पक एक्सप्रेस से एक आशा तो थी ही कि काश यह मिथकीय पुष्पक विमान की तरह एक अतिरिक्त जगह भी दिला दे तो इसके नाम के अनुरूप काम भी हो जाय ! मगर डिब्बे मे घुसते ही थरूर क्लास की जनता की भेडिया धसान देख होश फाख्ता हो गए ! जाकिर को खुद अपनी आरक्षित बर्थ ढूंढें नहीं मिल रही थी -आखिर बर्थ नंबर १७ तक हम किसी तरह ठेल ठाल कर पहुंचे भी तो उस पर पूरा एक कुनबा विराजमान था ! पति पत्नी बंच्चे सभी पूरे अधिकार से वहां जमे थे! मुझे खुद आत्मग्लानि हो रही थी कि बिना वाजिब टिकट के मैं भी एक आक्रान्ता की तरह उसी डिब्बे में घुस आया था ! पता नही ऐसे मौकों पर मैं क्यूं अतिशय विनम्रता का शिकार हो जाता हूँ ! मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं  फूट पा रहे थे! हाँ ज़ाकिर का हड़काना जारी था -फलतः १७ तो नहीं हाँ सामने वाली बर्थ  पूरी खाली कर के दे दी गयी -हुकुम आप सब तो बैठो सामने ! मैं या तो खुद बैठ गया धम से या रिक्त बर्थ ने ही तेज गुरुत्व बल से मुझे बिठा लिया था ! वे  अच्छे विनम्र लोग थे! जौनपुरी ही थे ,मेरी ही तरह ! मुम्बई से शादी व्याह के चक्कर मे साले बहनोई अपने भरे  पूरे परिवार के साथ यात्रा कर रहे थे! उनकी भी समस्या यह थी कि उनके पास सीटें तो थी कुल चार मगर वे थे पॉँच अदद ,रेजगारिया अलग ! मतलब थरूर क्लास अपने चरित्र का पूरा निर्वहन कर रहा था !  मेरा स्कोप अब कमतर होता दीख  रहा था !

मैंने थोडा सांस संभलने पर डिब्बे के अन्तःपुर का सजग निरीक्षण किया ! विंडो बर्थ पर दाहिनी ओर एक भद्र मुस्लिम परिवार का पूरा कुनबा महज दो बर्थों पर समाया हुआ था - आठ सीटों के इस जन संकुल  स्पेस में कुल आठ बच्चे थे-पूरा वातावरण एक जबरदस्त ऊर्जा के प्रवाह ,किलकारियों से गुलजार हो रहा था ! बायीं ओर की  मोहतरमा इतनी बढियां ठेठ अवधी बोल रही थी कि मैं मंत्रमुग्ध  हुआ जा रहा था - कोई खाटी अग्रेज भी क्या इतनी धाराप्रवाह अंगरेजी बोलेगा ! रहा न गया तो मैंने भी ठेठ में पूंछ लिया कि आखिर यह नारी प्रतिभा कहाँ से बिलांग करती हैं -जवाब मिला गोंडा ! और प्रश्न के जवाब देने के एवज में उन्होंने अपने लगातार रोये जा रहे बच्चे को डांट कर चुप करते रहने का जिम्मा मुझे पकड़ा दिया ! किसी अजनबी पर इतना भरोसा या अधिकार ? सहसा मैं असहज होते हुए भी इस नए मिले काम को अंजाम देने में लग गया !

जाकिर तब तक कुछ और रोबदाब  दिखा कर ऊर्ध्वगामित यानि सबसे ऊपर के बर्थ पर लम्ब लेट चुके थे! और कमाल देखिये मैं इधर थरूर क्लास की मानवता की सेवा में जुटा/जुता खुद मानवीय होता रहा  - पूरे ६-7 साथ घंटे और जाकिर ऊपर सोते रहे -बाद में मासूमी से बोले थे कि वे बस पलक ही मूदे थे-भला चिल्ल पो में किसी को नीद भी आती है ! बहरहाल उनकी साफगोई किसी को भी कन्विंस नहीं कर पाई थी ! सब मन ही मन सोच बैठे थे कि चलो किसी एक ने तो अपना नीद का कोटा पूरा कर लिया है -सभी को रात में सोने की रणनीति तंग कर रही थी ,खास तौर पर मुझे !

इसी बीच टी टी भी आ कर जा चुका था -मुझसे उसने बिना वाजिब टिकट के यात्रा करने पर लगने वाली फाईन २५० रूपये और साधारण तथा स्लीपर क्लास के टिकट का डिफ़रेंस किराया कुल ४५० रूपये वसूल कर लिए थे -मगर कुछ अतिरिक्त शुल्क  में पूरी ट्रेन में किसी भी श्रेणी में बर्थ दिला पाने के मेरे प्रस्ताव को पूरी ईमानदारी से उसने ख़ारिज कर दिया था ! आखिर ईमानदारी दिखने का मौका बार बार थोड़े ही आता है ! जब ट्रेन पुष्पक हो और खचाखच भरी हो ,फिर तो ईमानदारी छलक ही पड़ती है ! बहरहाल मैं अब तक काफ़ी विनम्र हो चुका था और कोई जो भी कुछ कहता था फौरन ही मान  लेता था ! तभी जानकारी हुई कि ट्रेन तो भोपाल  से होकर जायेगी ! मुझे कई ब्लॉगर बन्धु याद आ गये ! एकबारगी तो घोर इच्छा हुई कि किसी/कुछ  को फोन कर स्टेशन पर ही बुला लूं मगर फिर लगा कि वे यहाँ ब्लॉग पर तो आते नहीं स्टेशन तक क्या आयेगें ! वैसे आज पाबला जी से कोई ब्लॉगर  बन्धु आकर मुरैना स्टेशन पर मिल लिए हैं ! अब अपना अपना नसीब है भाई! फिर मन  हुआ कंचन जी को फोन करुँ और भोपाल में ही इस विपदा से मुक्त हो लूं ! मगर फिर घर जल्दी पहुँच जाने का सहज बोध जोर मारने लगा ! हरिवंश राय  जी की कविता बदस्तूर याद हो आई.....बच्चे प्रत्याशा में होंगे ,नीड़ों से झाँक रहे होंगे -यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है ...दिन जल्दी जल्दी ढलता है ! ट्रेन तेज गति से भागती जा रही थी!

लगता है जाकिर ने रात्रि शयन की एक रणनीति पहले ही बना रखी थी ! मुझे पूरी बर्थ दे दी, खुद नीचे अख़बारों पर चद्दर बिछा और दोहर में मुंह छुपा अव्यक्त हो गए -और मुझे अपनी अव्यक्त कृतज्ञता की असहज अनुभूति के साथ रात बिताने की सौगात दे दी ! कहने को ही कैटिल क्लास है ,यहाँ तो मानवता के कूट कूट के दर्शन हुए ! सुबह लखनऊ समय से आ गये थे! फिर  उच्च दर्जे का बनारस तक का टिकट ३३४ रूपये मे लेकर अमृतसर हावड़ा मेल की ३ ऐ सी में जा विराजा ....मात्र ६१ रूपये का अंतर अदा किया और शाम तक वाराणसी पहुंचा तो खूब  उत्फुल्ल ,प्रफुल्लित था !

खंडिता है यह नायिका :(षोडश नायिका -७)

वह नायिका खण्डिता  हो रहती है  जब  अचानक यह प्रामाणिक तौर पर मालूम हो जाता है  कि उसके  प्रेमी /पति ने उससे बेवफाई कर किसी और से प्रणय सम्बन्ध स्थापित कर लिए हैं - उसकी घोर व्यथा ,संताप/प्राण  पीड़ा और तद्जनित आक्रोश  की मनोदशा उसे जो भाव भंगिमा प्रदान करती है वह साहित्यकारों की दृष्टि में खण्डिता नायिका की है!


 ऐसे नहीं घर में घुसने दूगीं ,पहले बताओ यह सब क्या करके आ  रहे हो ?
"रात बीत बीत गयी अपलक  प्रिय की प्रतीक्षा में ...वे नहीं आये और अब सुबह लौटे भी हैं तो यह क्या हालत  बना रखी है - होठो पर काजल और गालों पर किसी के होठों की लाली और माथे पर पैरों का आलता ? आँखें भी उनीदीं ! ओह समझ गयी मैं  ,अभी मैं इनकी गत बनाती हूँ ! " 


( नायक ने बीती रात अपनी दूसरी प्रेयसी के साथ गुजारी है ,प्रणय संसर्ग के चिह्न शेष सब गोपन उजागर कर दे रहे हैं -क्या क्या गुल नहीं  खिले हैं  ... दोनों जन में पारस्परिक प्रेम व्यापार  का खूब आदान प्रदान हुआ है -होठो पर काजल होने का अर्थ है  सौत की आँखों का चुम्बन ,गाल पर लिपस्टिक प्रत्युत्तर  है उस चुम्बन का ,हद है धोखेबाज  ने सौत के पैरों पर शायद उसकी मान मनौअल में सर भी रख दिया है ,तभी तो पैरों का आलता माथे पर तिलक सरीखा जा लगा है ! और फिर यह होने में रात यूं ही बीत गयीं -उनीदीं आँखों का यही सबब है. ) .

 जीवन शैली बदली मगर क्या जीवन भी ?
आखिर कैसे बर्दाश्त हो नायिका को साजन की यह सब ज्यादतियां -खण्डिता नायिका अब मानवती बन बैठती है ! उलाहना -भाव प्रबल हो उठता है -"तुम जाओ जाओ मोसे  न बोलो सौतन के संग रहो ....अब होत प्रात आये हो द्वारे यह दुःख कौन सहे ...या फिर... कहवाँ बिताई सारी रतिया ....साँच कहो मोसे बतिया ....पिया रे साच कहो मोसे बतिया ! (यादगार ठुमरियों  के अमर बोल हैं ये ) 

मानवती नायिका, नायिका का एक उपभेद है जिकी चर्चा हम आगे करेगें !

चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

......आखिर कैसे छूटी ट्रेन और फिर शुरू हुआ 'कैटिल क्लास' का सफ़र ! (यात्रा वृत्तांत -२)

आखिर बनारस सुपर फास्ट ट्रेन छूट गयी ...और हम खड़े खड़े ,प्लेटफार्म पर जड़े जड़े गुजर गयी ट्रेन का हिसाब जोड़ते रहे ! मुझे जो समय ट्रेन के छूटने  का मालूम था ,वह था ११.४० और ट्रेन ठीक दो घंटे पहले बिलकुल सुई की नोक के ९.४० पर पहुँचते ही छूट चुकी थी ! आखिर यह गफलत हुई कैसे ? बहुत सी स्थितियां जिम्मेदार रहीं इसकी ! बल्कि सारी परिस्थितियाँ ट्रेन के छूट जाने की ही ओर अग्रसर होती रहीं और मैं उनसे बेखबर सम्मलेन और अन्य बातों की ओर बकलोल सा ध्यान केन्द्रित किये रहा !  एक वार्षिक त्रासदी या जश्न  के रूप में रेल विभाग द्वारा इस बिना पर कि ट्रेन के समय बदले जा रहे हैं  सम्बन्धित  स्टेशन से ट्रेन का प्रस्थान का समय टिकट पर न लिखा होना ,मेरे द्वारा स्वयं ट्रेन का  प्रस्थान का समय फिर से चैक न किया जाना ,औरों के इन्फार्मेशन पर ही निर्भर रह जाना-ये सब घातक कारण एकजुट हो लिए  थे    ! (नसीहत -३,खासकर नवम्बर माह में  यात्रा से जुडी ट्रेनों का निर्धारित स्टेशन पर आगमन और प्रस्थान  यात्रा आरंभ के ठीक पहले खुद अवश्य  चैक कर लें ! जाकिर ने तो नेट से अपनी ट्रेंन पुष्पक के टाईम टेबल का पूरा चार्ट ही प्रिंट आउट कर रखा था ) .पता नहीं अभी भी टाईम टेबल छपा कर आया या नहीं ! शायद ज्ञानदत्त जी प्रामाणिक जानकारी दे सकें !

 मेरी वापसी की यात्रा तो उसी दिन ही शंकाओं के घेरे में आ गयी थी जब लोकमान्य तिलक टर्मिनस -वाराणसी एक्सप्रेस २१६५ में आरक्षण के समय ही यानि २० अक्टोबर ०९ को  २ ऐ सी में वेटिंग १ की  असहज स्थिति उत्पन्न हुए  थी . लोग बार बार आश्वस्त   करते रहे कि अरे एक ही तो वेटिंग है , शर्तिया कन्फर्म हो जायेगा -मगर मुझे पहले का  एक और दृष्टांत याद आ  जाता रहा जब शिमला यात्रा के समय ऐसी ही स्थति में ज्ञानदत्त जी के आश्वासन के बावजूद भी यात्रा के एक दिन पहले ही मैंने टिकट निरस्त करा कर दूसरी कम महत्वपूर्ण ट्रेन में आरक्षण करा लिया था  ! मगर इस बार कई व्यस्तताओं और अन्य किसी ट्रेन के उपलब्ध न होने के कारण (हाय रे मुम्बई- बनारस रूट !) मैं हाथ ही मलता रह गया और वापसी का दिन भी अ पहुंचा  ! जब यात्रा का केवल एक दिन ही रह गया तो मेरा धैर्य जवाब देने लगा -उधर कांफ्रेंस अपने उरूज पर थी और इधर  मेरा मन आरक्षण की अनिश्चिता से उद्विग्न था !

उधर जाकिर को भी लौटने का आरक्षण पुष्पक में, ऐ सी में नहीं मिल  सका था मगर  उन्होंने न जाने कहाँ कहाँ से फोन वोन  कर स्लीपर में एक बर्थ का जुगाड़ कर ही लिया ! और मुझे आमंत्रित किया कि अगर आपका टिकट कन्फर्म नहीं होता तो आप भी एक ई टिकट लेकर मेरे साथ ही लखनऊ चले और वहां से वाराणसी चले जाईयेगा ! कोई विकल्प भी नहीं सूझ रहा था ,मेरा ऐ सी टू का वेटिंग अभी भी बरकरार था ,मानो मेरा मुंह चिढा रहा हो !  हजार किलोमीटर से भी दूर का सफर बिना आरक्षण कैसे संभव होगा ,सोच सोच कर दिल बैठा जा रहा था ! ज़ाकिर के सुझाव में दम दिखा और मैंने  उनके ट्रेन यात्रा ज्ञान पर मुग्ध होते हुए बगल के साईबर कैफे से  स्लीपर का का एक ई टिकट हथिया ही तो लिया ! वेटिंग १९७ ! जाकिर बोले फिकर नाट मेरे ही बर्थ पर डबलिया लीजियेगा ! टिकट तो रहेगा ही ! बहरहाल ,ई टिकट लेने के बाद कुछ राहत तो हुई ! मगर सबसे बड़ी राहत तब मिली जब अगले ही घंटे मोबाईल से सूचना मिल गयी कि पहले का वेटिंग लिस्ट आखिरकार कन्फर्म हो गया और १७ अंम्बर सीट भी अलाट हो गयी ! हो सकता है  यह मेरे मित्र और कभी रेलवे विजिलेंस में रहे देवमणि को sos भेजने का असर रहा हो !

अब मन फिर एक बार गंगा यमुना तीर हो गया था ! स्थानीय चीजों में सहसा ही फिर से एक नवीन रूचि उत्पन्न हो  गयी थी -वगैरा वगैरा ! अरे हाँ याद आया वह ई टिकट तो वापस कर देना था अब कुछ पैसे ही जु(ग )ड़  जायेगें !  ! हाँ हाँ क्यों नहीं जाकिर  ने भी हामी भरी  ! शातिर साईबर कैफे वाले ने चुपचाप  टिकट लिया ,की बोर्ड पर कुछ टिपियाया और कहा इसे जरा पढ़िए तो !वहां प्रदर्शित सूचना   में साफ़ साफ लिखा था कि चूंकि अब चार्ट तैयार हो गया है अतः रिफंड नहीं हो सकता ! जाकिर उग्र हुए ,मैंने रोका और कहा कि जाकिर यह ऐसा ही है -अब कुछ  नहीं हो सकता ! ४३० रूपये डूब चुके थे! साईबर कैफे वाले को सब पता था ,उसने चीट किया था !( नसीहत-४ ,ई टिकट को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरतें और चार्ट तैयार होने के काफी समय पहले ही  अगर ऐसी स्थिति आये तो निरस्त करा लें  !नहीं तो जैसे मेरे डूबे आपके भी डूबेंगें-रेल विभाग इन्ही हराम की कमायियों से धन्ना सेठ बना बैठा है !  )

बहरहाल यह तो एक दिन पहले का चूना लगने का वृत्तांत रहा ! हाय कन्फर्म ऐ सी आरक्षण होने और वहीं  स्टेशन तक समय से पहुँच जाने के बावजूद भी मेरी ट्रेन आखिर छूट गयी ! अब क्या किया जाय !अगले तीस मिनट में पुष्पक यानि जाकिर की ट्रेन भी आने वाली थी और अब बस वही डूबने  वाले का  एकमात्र तिनका  सहारा  थी -मगर टिकट ? हम स्ट्राली वाली खींचते खांचते स्टेशन के बाहर भागे -एक लाईन में मैं जा चुकी ट्रेन का टिकट रद्द कराने और दूसरी में ज़ाकिर मनमाड से चारबाग लखनऊ का चालू टिकट लेने लग ही तो लिए ! मुझे विंडो  बाबू ने कुल ७२८ रूपये काट के थमाए रूपये ७२७ और मैंने यंत्रवत  नए टिकट के लिए उसी  में से ज़ाकिर को थमाए ३३४ रूपये ! अभी भी ओवर ब्रिजों को क्रास कर आने  से सांसे धौकनी की तरह चल  ही रही थीं और फिर पुष्पक भी न छूट जाये इसलिए हमने फिर एक दौड़ लगाई और गिरते पड़ते आखिर ट्रेन के आगमन तक प्लेटफार्म पर जा ही पहुंचे ! इस बार कोई चूक नहीं होनी थी -अभी अभी तो दूध के जले थे हम !

धडधडाती हुई पुष्पक आ गयी और हम बकौल शशि थरूर के कैटिल क्लास में लद लिए ! मरता क्या न करता ......
जारी .......

इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं -आज की नायिका है विरहोत्कंठिता

चलिए आपके इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं ! मगर  नायिका तो आज की विरहोत्कंठिता ही है !प्रिय के पूर्व तयशुदा समय पर न आने और चिर प्रतीक्षित आगमन के विलंबित  होते जाने पर व्यग्रता और दुश्चिंताओं  से ग्रसित और व्यथित नायिका ही कहलाती है -विरहोत्कंठिता!


विरहोत्कंठिता...कल की !

नायक के आगमन का पूर्व निश्चित  समय बीत चुका है ,समय आगे खिसक रहा है पल प्रतिपल -क्या हुआ कंत को ? व्यग्र नायिका को  अनेक शंकाएं त्रस्त  कर रही हैं ! भगवान् न करे ,कहीं उनके साथ कुछ हो तो नहीं गया  ?उसके केश वेणी के फूल मुरझाने से लगे हैं ,कांतिहीन हो चले हैं -वह घबराई सी प्रिय मिलन की संभावित  उत्फुल्ल , कामोद्दीपक क्रीडा कलोलो की  रोमांचित  कर  देने वाली कल्पनाओं को भी सहसा भूल सी गयी  है !  पल पल उस पर भारी पड़ रहा है ! बिलकुल यही तो है  विरहोत्कंठिता !

विरहोत्कंठिता ..आज की ...


मगर भाव तो चिरन्तन है !
चित्र सौजन्य : स्वप्न मंजूषा शैल                                      

बुधवार, 18 नवंबर 2009

रेल यात्रियों के लिए एक आपबीती बनाम कैटिल क्लास के संस्मरण !

या तो हनुमान की तरह मगर लौटा पूरा  अंगद बनकर  ! मगर जाते वक्त "जिय संशय कुछ फिरती बारा"  जैसी  कोई आशंका न थी ! बात ११ वें राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मलेन की है जिसमे शरीक होने को हम बड़े उत्साह से चल पड़े थे औरंगाबाद, पिछले 12 तारीख को . अभी कल ही लौटें हैं !कितनी कुछ ब्लॉग गंगा बह चुकी है यहाँ ! आते ही साथ गए जाकिर   ने एक तुरंता  रिपोर्ट भी ठोंक  ही दी है ! जो विज्ञान/वैज्ञानिक में  सूक्ष्मता के  प्रेमी हैं -अनूप शुकुल जी या विवेक जी मानिंद ,वहां झांक सकते हैं ! मगर अपुन तो यहाँ आर्डिनरी एक्स्ट्रा आर्डिनरी  लोग लुगायियों  से यानि आप से मुखातिब हैं ! और बयां करना चाहते हैं अपना दुःख दर्द वापसी यात्रा का ! मगर प्लीज हँस कर मेरे जले पर नमक  मत छिडकियेगा -वादा करिए तभी आगे बढूंगा !अपनी गलतियों के बजाय पानी पी पीकर रेल विभाग को कोसा हैं मैंने इस बार ! वैसे रेल के पिछले भी कुछ अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं !  बख्शता रहा हूँ हर बार, मगर इस बार नहीं क्योंकि तब मैं ब्लागिरी के धर्म से च्युत हो जाऊँगा ! ज्यों नहिं दंड करूऊँ खल तोरा भ्रष्ट होई श्रुति मारग मोरा ! अब आप देख लीजिये कि कितना गुस्सा  अभी भी है मन  में ....हाँ हाँ खिसियानी बिल्ली /बिल्ले जैसा ही !

बहरहाल किस्सा कोताह यह कि प्रस्थान  की दो चरणी रेल यात्रा तो ठीक ठाक रही ,बनारस से मनमाड और मनमाड से औरंगाबाद -मगर वापसी की ,अजी कुछ न पूछिए  -अभी भी रह रह कर हूंक उठ जा रही है  ! पहली बार बिना नए टाईम टेबल के साथ में रखे  यात्रा की -नामुरादों ने अभी तक भी नया टाइम टेबल जारी नहीं  किया है ! हद है रेल विभाग की निष्क्रियता  की ! वापसी की ट्रेन मुम्बई बनारस सुपर फास्ट 2165 में पिछले एक माह बुकिंग  करने के वक्त से ही वेटिंग   १  पर सूई अटक  गयी थी ! जाकर यात्रा की पूर्व संध्या को ही कन्फर्म हुआ . किसी के धैर्य की परीक्षा लेना तो कोई रेल विभाग से सीखे ! कमजोर दिल वाले कभी भी रेल के वेटिंग  लिस्ट वाले टिकट न लें !  ...


 वापसी में ६ बजे औरंगाबाद से जनशताब्दी पकडनी थी ! सो हम ५.३० पर स्टेशन पहुँच  चुके थे ! अभी रात ही थी ! पिछले ज्ञात एक साल के इतिहास में  जनशताब्दी पहली बार लेट हो गयी ! मराठी में जो उद्घोषणा हुई -उसके अनुसार तकनीकी खराबी  के चलते ट्रेन को लेट कर जाना था ! मतलब इस बार वह खड़े होकर नहीं जाने वाली थी ! हम लोग लेट कर जाने  वाली ट्रेन में खुद कैसे लेटेगें या बैठेगें यह  रणनीति बनाने लगे - जाकिर ने हंसी मजाक में मेरे लिए कुछ मुद्राएँ भी समझाईं ! खैर एक घंटे विलम्ब से ट्रेन एक के बजाय नंबर दो प्लेटफार्म पर आने को  उद्घोषित हुई ! सहयात्रियों ने बताया कि जनशताब्दी का २ पर आना भी एक अनहोनी है ! अब तक मुझे हिन्दी की वह कहावत याद आने लगी थी -जहाँ जाईं घग्घोरानी ऊहा बरसे पत्थर पानी ! मगर इस बार तो मिसेज साथ न थीं तो फिर मैं घग्घोरानी का चरित्र आरोपण किस पर करुँ ? दिमाग चकराया ! ट्रेन चल दी आखिरकार ! दो घंटे में ,९ बजे मनमाड पहुँच गयी ! प्लेटफार्म नंबर ५ पर . बरसात ने स्वागत क्या  किया -पूरी फजीहत कर डाली ! नसीहत नंबर एक -अंतर्राज्यीय यात्राओं में छाता अवश्य रखें !

मेरे और जाकिर के पास छाता नहीं था ! हाँ मेरे पास पालीथीन थे -हमने सर ढंका और आगे बढे  भीगते हुए ! हमारी अलग अलग ट्रेने थीं -मगर बनारस   सुपर फास्ट और पुष्पक दो नंबर  पर ही आने को घोषित थीं ! ज्ञात जानकारी के अनुसार दोपहर 12 बजे के आस पास थीं दोनों ट्रेने ! जाकिर ने कहा कि अभी क्या करेगें २ पर जाकर ! मैंने उन्हें कहा कि यही बैठ कर ही क्या उखाड़ लेगे !  मैंने देखा है कि जाकिर में  अभी ही इस कम उम्र में भी एक ठहराव है -एक खरामा खरमापन है ! मगर उम्र के इस पावदान में भी मुझमें एक व्यग्रता सी है -अब आगत से अनभिग्य जाकिर के कहने पर हम वहीं ५ पर रूक कर बिन मौसम की बरसात में रूचि  लेने में लग गए !

मेरे टिकट या किसी  के भी टिकट पर ट्रेन का प्रस्थान समय नहीं दर्ज था -वही ट्रेनों के रूटीन वार्षिक समय बदलाव का बहाना!और हद यह कि अभी तक भी नया रेल टाईम टेबल उपलब्ध नहीं हो पाया है -मैंने किस किस स्टेशन पर नहीं पूछा  !  घर से जो समय बेटे ने दर्ज किया था उसके मुताबिक़ मेरी ट्रेन ११. ४० पर आने वाली थी ! प्लेटफार्म नंबर पॉँच पर दस बज गए तो मेरी व्यग्रता ने फिर उछाल मारी ! "चलो जाकिर वहीं २ पर ही चलते हैं ! " मगर जाकिर तो उसी ठहराव मोड में ! "क्या करेगें अभी जाकर " वे बोले .आखिर  मैं हठात खीच ही लाया उन्हें ! मगर तब तक जो  होना था हो चुका था   ! नसीहत नंबर दो -स्टेशन पर जिस प्लेटफार्म पर ट्रेन हो वहीं पर सीधे जायं,अधर उधर न रुकें  ! बहरहाल २ नंबर पर आकर भी अभी ट्रेन के यथा ज्ञात समय से हम काफी पहले जम गए वहां ! मगर काफी देर तक  बनारस सुपर फास्ट का कोई अनाउन्समेंट नहीं ! अब छठीं हिस सक्रिय हुई ! जाकिर को कहा  जाकर पता करो भाई कि कहाँ अटक गयी  ट्रेन ! थोड़ी देर बाद ज़ाकिर लौटे तो व्यग्रता की प्रतिमूर्ति बने हुए थे  -चेहरा देख कर ही मैं किसी आशंका से काँप उठा  ! और यह सुनते ही की ट्रेन तो ९.४० पर ही जा चुकी ,यानि उस वक्त जब हम बगल के ही प्लेटफार्म पर वर्षा ऋतु  का आनंद  उठा रहे थे....सुनकर तो दिल की जैसे कुछ धडकने ही रुक सी गयीं ! अब क्या होगा ?
......जारी ...

रविवार, 15 नवंबर 2009

विज्ञान कथा कांफ्रेंस चालू आहे !

यहाँ औरंगाबाद में ग्यारहवां राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मलेन चल रहा है जिसमें कई क्षेत्रीय भाषाओं के लोगों का जमघट है -मराठी मानुषों का पूरा जमावाडा है -दक्षिण भारत से भी काफी प्रतिभागी आये हुए हैं . हिन्दी से जाकिर अली रजनीश के साथ हम कुल चार जने हैं जो हिन्दी का भी झंडा बुलंद किये हुए हैं अन्यथा यहाँ हिन्दी की कोई पूंछ नहीं है -मराठी का साईंस फिक्शन साहित्य कहीं हिन्दी से भी ज्यादा समृद्ध है !

यहाँ बेड टी वगैरह समय से मिल रही है -खाने में दक्षिण भारत के खाने की प्रधानता है -हाँ मीनू बहुत सुरुचिपूर्ण अभिरुचि वाले व्यक्ति द्बारा फाईनल किया जा रहा है-पूडी के साथ रोटी भी मिल रही है और सूप भी सर्व हो रहा है -लंच और डिनर दोनों समय ,आज मांचो सूप सर्व हुआ -
ज्यादा डिटेल और तकनीकी परसों बनारस लौट कर !

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

यह नायिका है वासकसज्जा !(षोडश नायिका -५)

यह नायिका है वासकसज्जा !



"सेज को सुन्दर सुगन्धित फूलों से सजा कर सोलह श्रृंगार से संजी सवरी सुन्दरी  प्रिय की आतुर प्रतीक्षा  में मीठे सपनो में जा खोयी है....प्रियतम बस आते ही होगें यह विश्वास अटल है मन  में ....साँसों की लय में  भी उसके अंतस का दृढ विश्वास मुखर हो उठा है "
चित्र सौजन्य :स्वप्न मंजूषा शैल
नोट  :अगली नायिका का दर्शन अब १९ नवम्बर को....

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कुछ यादें इक गृह विरही की ....



एक घोर गवईं मानुष हूँ मैं -जन्म -गृह त्याग नहीं हो सका मुझसे ! आज भी वहीं पहुँचता रहता  हूँ बार बार -जननी की आश्वस्ति  भरी छाँव में ...जैसे मेरो मन  अनत कहाँ सुख  पावे ....

पिछले दिनों दीपावली और एकादशी पर घर गया घरनी  के साथ ........कुछ चित्र लायें हैं ! इसलिए यहाँ चेप रहे हैं ताकि यह विस्मृतियों  के वियाबान में कहीं खो न जायं !कुछ और चित्र फिर कभी !



                  

                          जगमग दीपावली में "मेघदूत", हमारा पैतृक आवास जौनपुर 








बेटी प्रियेषा ने बनायी जगमग रंगोली 









                                                                एकादशी पर  ईख चूसने का आनन्द  










                                                                                          आखिर डेजी ही क्यों पीछे रहती ,उसने भी चूसा गन्ना 

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