गुरुवार, 19 नवंबर 2009

इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं -आज की नायिका है विरहोत्कंठिता

चलिए आपके इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुईं ! मगर  नायिका तो आज की विरहोत्कंठिता ही है !प्रिय के पूर्व तयशुदा समय पर न आने और चिर प्रतीक्षित आगमन के विलंबित  होते जाने पर व्यग्रता और दुश्चिंताओं  से ग्रसित और व्यथित नायिका ही कहलाती है -विरहोत्कंठिता!


विरहोत्कंठिता...कल की !

नायक के आगमन का पूर्व निश्चित  समय बीत चुका है ,समय आगे खिसक रहा है पल प्रतिपल -क्या हुआ कंत को ? व्यग्र नायिका को  अनेक शंकाएं त्रस्त  कर रही हैं ! भगवान् न करे ,कहीं उनके साथ कुछ हो तो नहीं गया  ?उसके केश वेणी के फूल मुरझाने से लगे हैं ,कांतिहीन हो चले हैं -वह घबराई सी प्रिय मिलन की संभावित  उत्फुल्ल , कामोद्दीपक क्रीडा कलोलो की  रोमांचित  कर  देने वाली कल्पनाओं को भी सहसा भूल सी गयी  है !  पल पल उस पर भारी पड़ रहा है ! बिलकुल यही तो है  विरहोत्कंठिता !

विरहोत्कंठिता ..आज की ...


मगर भाव तो चिरन्तन है !
चित्र सौजन्य : स्वप्न मंजूषा शैल                                      

15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा ये आलेख धन्यवाद्

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  2. सच है,भाव तो चिरंतन है,सिर्फ रूप बदल गए हैं.

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  3. वर्णन प्रभावोत्पादक है और चित्र भावों को उभारने में पूरी तरह से सक्षम।
    ------------------
    11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
    गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?

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  4. kya baat kahi hai ---------bhav to chirantan hain.
    koi kaal ho , koi des ho ya koi vesh bhavon mein parivartan nhi hota.

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  5. विरह का दर्द हर जगह एक सामान है सही कहा .

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  6. विरह का दर्द ओर चिंता हर पल की मिल कर ओर बेचेन कर देती है.
    बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवद

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  7. स्वप्न मंजूषा जी के चित्रों ने जैसे सजीव कर दिया है इन विवरणों को । विरह की यह दशा आकर्षित करती है मुझे - अनगिन आशंकाओं वाला विरह ।

    "वह विरहोत्कण्ठिता नायिका प्रियतम का पथ हेर
    उत्कंठित रहती कि लगा दी क्यों नायक ने देर !"


    और आशंकायें भी देखिये -
    "लगता है सखि ! पर-नारी ने कर वीणा-वादन की बात
    जीत लिया मेरे प्रियतम को दोनों उलझे सारी रात ,
    होगी लगी विजय की बाजी, फिर कैसे लौटे बन्दा
    हरसिंगार सब झड़ते जाते गगन बीच आया चन्दा ।"

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  8. बिलकुल यही तो है विरहोत्कंठिता !-जान गये!

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  9. विरह भी समेटा ...
    सुन्दर ...
    मुला ,
    मामला बड़ा यकतरफा चलि रहा है ...

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  10. बैठ नदी तट
    दृष्टि क्षितिज पर
    ध्यान तुम्हीं पर।
    समय गगरिया
    गई सूख
    दिन सारा गया बह।
    न आए तुम प्रीतम
    घिरा तम -
    धरा पर,
    मन में।
    कहीं सखि संग
    तो न कर रहे अभिसार ?
    _______________________
    देर हुई कितनी !
    मॉल में कपल चहकते
    अँधेरे कोने
    किस की किशमिश खा रहे।
    एंट्रेंस पर आँखें टेक
    करूँ कितना वेट
    तुम्हारा आना लेट
    मुझे डाउट में डाले
    कहीं फ्लर्ट करते करते
    तुम पार्क के कोने
    सचमुच
    किसी नमिता के साथ... ?
    _______________________

    फोटो की डिमांड पूरी करने पर आभार लेकिन भैया लेकिन है। अदा जी के चित्रों के जोड़ का नहीं यह ...
    धन्यवाद। अगले सोपान के प्रतीक्षा है।

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  11. विरहोत्कंठिता की व्यथा बयान हो रही है ...आपके लेख में तो खैर होनी ही थी...टिपण्णी में भी ...नायिकाओं की ऐसी दशा का भान तो शायद स्वयं उन्हें भी नहीं होगा ..!!

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  12. आज की विरहोत्कन्ठिता का चित्रोपाख्यान विरहिणी का नही लग रहा है ऐसा लग रहा है कि वह नायक से शीतल पेय की प्रतीक्षा मे नजरे बिछाए बैठी है मुझे तो किसी उपभोक्ता वस्तु की प्रचारक कन्या लग रही है

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  13. माडर्न वाली विरहोत्कंठिता घणी ग्लैमरस लग रही है। उद्दीपक!

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  14. नमस्ते अरविन्द जी,
    आपकी यह पोस्ट थोड़ी देर से आयी. मैं भी इधर व्यस्त थी. अतः आज टिप्पणी लिख रही हूँ. विरहोत्कण्ठिता नायिका के विषय में आचार्य धनंजय ने दशरूपक में निम्नल्खित कारिका लिखी है,"चिरयत्यव्यलीके तु विरहोत्कण्ठितोन्मतः" अर्थात्‌ "प्रिय के अपराधी न होने पर भी देर करने पर जो नायिका उत्कण्ठित मन से उसकी प्रतीक्षा करती है, वह विरहोत्कण्ठिता है. इसके उद्धरण में धनंजय ने अत्यधिक सुन्दर पद्यांश दिया है जिसे विस्तार के भय से नहीं दे रही हूँ.
    आपके इन लेखों के माध्यम से मैं संस्कृत नायिका-भेद की हिन्दी से तुलना कर पा रही हूँ. अतः धन्यवाद!

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