मैं निर्णय ले नहीं पा रहा कि इस खबर को अपने ब्लॉग की विषय वस्तु बनाऊं भी या नहीं पर उंगलियाँ हैं कि
की- बोर्ड पर थिरकती ही जा रही हैं ,बिना रुके ,बिना थमें और अनिर्णय की ही स्थिति में यह सब लिखा जा रहा है .अभी अभी पत्नी ने बताया इसराजी बुआ नहीं रही -'ओह ' मेरे मुंह से अकस्मात निकल पडा ! और सहसा ही मैं दुखी मन ,संतप्त हो गया हूँ ! पत्नी ने बताया कि ब्रेन स्ट्रोक से उनकी सहसा ही मृत्यु हो गयी -गाँव के लोगों की बोली भाषा में यह एक शानदार मृत्य थी -बिना बीमारी की पीडा झेले और किसी को परेशान किये वे अचानक ही चल बसीं ! उनकी मृत्यु भले ही "शानदार " रही हो उनका जीवन पीडा और संत्रास की एक अकथ कहानी कहता है !
पहले जान लें इसराजी बुआ कौन थीं ! जब से मैंने होश संभाला श्वेत - वसना इसराजी बुआ को मैंने अपने पैत्रिक गाँव की हर गतिविधि में शरीक पाया -मगर यह भी मार्क किया की उनकी उपस्थिति को लेकर सदैव एक अन इजी फीलिंग लोगों में रहती थी ! इसका एक कारण भी था वे बाल विधवा थीं ! और विधाता उन पर इतना क्रूर था कि व्याह के ठीक बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गयी थी -उन्होंने न तो पति और न ही ससुराल का मुंह देखा ! यह बात आज से कम से कम से ७५ वर्ष पहले की है ! तब की रूढियां ऐसी कि उनका पुनर्विवाह नही हुआ क्योंकि उन्हें अपशगुन का ही रूप मान लिया गया ! और तब से वे इस नृशंस और असंवेदनशील ,अन्धविश्वासी समाज में अपनी पहाड़ सी जिन्दगी काटने को अभिशप्त हो गईं ! मुझे याद है कि उन्हें हर अनुष्ठान अवसरों पर लोगों की घोर उपेक्षा ही सहनी पडती -और मुझे आज घोर आत्मग्लानि है कि जो ग्राम्य - परिवेश मुझे मिला था उसी के अनुरूप आश्चर्यजनक रूप से मैं भी उनके प्रति स्नातक होने के पूर्व तक एक अतार्किक उपेक्षा भाव ही रखता था !
ओह समझ गया शायद यही वह कारण है कि आज प्रायश्चित स्वरुप मैं उन्हें यह श्रद्धांजलि देने को विवश सा हो उठा हूँ ! शायद यह श्रद्धांजलि -अर्पण मुझे कुछ राहत दे सके ! वे हमारे मूल गाँव की नही थीं -उनके पिता को मेरे गाँव में कुछ जमीन जायदाद मिल गयी थी जिसे ग्रामीण बोली में नेवासा कहा जाता है ! बाल वैधव्यता का बोझ ढोते हुए वे अपने मूल गाँव से पैदल चल कर लगभग तीन किलोमीटर प्रति दिन मेरे गाँव अपने नेवासा की संपत्ति की देखभाल के लिए बिना नागा आती रहीं -जीवन के अंतिम क्षणों तक ! मेरी माता जी से उनकी अच्छी पटती थी सो अक्सर मेरे पैत्रिक घर पर उनका आना जाना लगा रहता था ! उन्होंने ससुराल का मुंह तो नहीं देखा मगर मुझे मालूम हुआ है कि उनकी अंतिम इच्छा थी कि मृत्युपरांत उन्हें उनके ससुराल अवश्य ले जाया जाय और उसके उपरांत ही उनका दाह संस्कार किया जाय ! उनकी अंतिम इच्छा तो पूरी कर दी गयी मगर जीवन भर इस समाज ने उन्हें जो संत्रास और अकथनीय दुःख दिया उसकी भरपाई भला कैसे हो सकती है !
अचानक ही मुझे आज के समाज में नारी की दशा से जुड़े अनेक विमर्श बहुत सार्थक से लगने लगे हैं ! इसराजी बुआ को मेरी भावपूरित श्रद्धांजलि ! उनके साथ जो हुआ वह किसी के साथ न हो ! और हम यह अपने तई मनसा वाचा कर्मणा सुनिश्चित करें तभी यह प्रवंचित नारी के प्रति की गयी सही श्रद्धांजलि होगी !
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