मंगलवार, 28 जून 2011

सब्जी मंडी में खरीददारी

पता नहीं आपमें से कितने लोग खुद जाकर सब्जी मंडी से अपनी जरुरत की सब्जियां खरीदते हैं मगर मेरी तो यह हाबी है ..मैं सब्जी मंडी से खुद सब्जी लाने का कोई अवसर गवाना नहीं चाहता ....जबकि पत्नी जी का मानना है कि इतने सालों बाद भी मुझे खरीददारी का हुनर नहीं आया ...आये दिन ऊंचे दामों में और अक्सर सड़ी गली सब्जियां लेकर चला आता हूँ ..मगर मुझे लगता है उनका बार बार  यह कोसना आधारहीन है और मेरी क्षमताओं का सही आकलन नहीं है ....या वे खुद जाकर ही सब्जी खरीदना चाहती हैं ....कारण यह कि मैं सब्जियों की खरीददारी कैसे करूँ यह उनके द्वारा बार बार समझाए जाने पर उनके अनुसार  समझ नहीं पाया हूँ ...उनके मुताबिक़  सबसे पहले पूरी सब्जी मंडी के हर ठेले पर जा कर उनकी क्वालिटी और दाम का सर्वे करना चाहिए ....जब यह श्रमसाध्य कार्य पूरा हो जाय तब जाकर ही कुछ चयनित ठेलों से मोल तोल करके सब्जी खरीदनी चाहिए ..

मैं समझता हूँ कि इतना लम्बा सर्वे करनी की कोई जरुरत नहीं है -कारण कि सब्जियों की गुणवत्ता को देखते ही पहचान जाने का कुछ नैसर्गिक सहज बोध लोगों में होता ही है -मैं देखकर समझ जाता हूँ कि अमुक फल या सब्जी ठीक है या नहीं ...यह कुछ मेरे अभिभावकों द्वारा भी बताया समझाया गया है -अब इतना अनाड़ी भी नहीं हूँ मैं ... एकदम से धूप में बाल सफ़ेद नहीं किये हैं ....दूसरे अर्थशास्त्र  का सिद्धांत है कि बाजार खुद  ही जिंस/सब्जियों का दाम  निर्धारित कर देता है ....अब थोड़ी पूछ ताछ तो चलती है मगर मोल चाल के नाम पर दूकानदार की फजीहत करना कहाँ तक उचित है? 



हाँ कुछ खरीददार लोगों से भी  अहैतुक मदद  मिल ही जाती है ..अभी कल ही तो मैं लकदावे(दाल का एक व्यंजन ) के लिए अरुई के पत्तियों की ढेरी खरीद रहा था ....अब कोई पत्तियों की ढेरी में एकाध खराब पत्ती डाल दे आखिर उसका पता कैसे चलेगा? लेकिन शुक्रगुजार हूँ एक उन कुशल गृहिणी का जिन्होंने बिना मदद की गुहार के खुद उन पत्तियों में से खराब पत्तियों को अलग कर दुकानदार को डांट भी लगायी -यह है मानवता की मदद! बिना कहे, बिना प्रत्याशा ...यह सुकृत्य करके वे फिर अपनी खरीददारी में लग गयीं और मेरी  ओर देखा तक नहीं कि मैं उनके इस औदार्य  के लिए आभार भी व्यक्त कर सकूं ...इसी तरह एक दिन मुझे बाजार में अभी अभी आये बंडे की एक किस्म की खरीदारी के बारे में एक अन्य गृहिणी ने काम की बातें बतायीं जो सचमुच मैं नहीं जानता था ...पत्नी को भी नहीं पता था ...अब ऐसे एक्सपर्ट सुझाव मुफ्त में ही मंडी में मिल जाएँ तो फिर पत्नी को इस काम के लिए जाने की क्या जरुरत है ...

 पत्नी को कथित सड़ी गली सब्जी तो मंजूर है मगर इस बात से वे खफा हैं कि मैं सब्जी मंडी में यथोक्त अहैतुक मदद ले ही क्यों रहा हूँ ..अब लीजिये इसमें भी नुक्स!लगता है दाम्पत्य जीवन की समरसता के लिए अब अपनी एक अच्छी खासी हाबी की बलि देनी ही पड़ेगी .....जाएँ वे खुद ही सब्जी खरीदें ..मुझे क्या?


शनिवार, 25 जून 2011

बहुत बलवती है मनुष्य की आशा

मनुष्य मूलतः एक आशावादी प्राणी है ...निराशा उसका स्थायी भाव नहीं है....सब कुछ ख़त्म होने के बाद भी उसकी आँखों में भविष्य की चमक/झलक  देखी जा सकती है ..विवेकानंद ने एक बार कहा था कि अगर तुम्हारा सब कुछ ख़त्म हो गया है तो देखो भविष्य  अभी भी तुम्हारे  पास है ,अक्षत और सुरक्षित! मनुष्य की आशावादिता ही उसकी वह थाती है जिससे वह आज धरती पर सर्वजेता बना हुआ है .करोडो वर्ष के विकास की यात्रा में उसकी इसी आशावादिता और जिजीविषा ने दीगर पशुओं से उसे बढ़त दिलाई है...यह भी प्रकृति के अनेक चमत्कारों में से एक है कि मनुष्य का दिमाग ख़ास तौर पर आशावादिता के लिए 'प्रोग्राम्ड' है -नए वैज्ञानिक अध्ययन  तो यही खुलासा करते हैं

मनुष्य की प्रबल आशावादिता का एक उदाहरण महाभारत से है जो भले ही एक मिथक हो मगर  मनुष्य की मूल सोच का एक उल्लेखनीय उदाहरण प्रस्तुत करता  है ...  महाभारत का युद्ध अंतिम दौर में था ..कौरवों के धुरंधर सेनापति पराजित/हत  हो चुके थे..ऐसे में अंतिम सेनापति के रूप में दुर्योधन ने अपने सारथी शल्य को ही रण भूमि में सेनापति बनाकर भेजा ...संजय यह दृश्य देखकर किंचित उपहासात्मक लहजे में  धृतराष्ट्र से कहते हैं ,'राजन ,देखिये तो मनुष्य की आशा कितनी बलवान है कि अब शल्य पांडवों को जीतने चला है ..' कहाँ भीष्म और द्रोण जैसे महायोद्धा और कहाँ एक अदना सा  सारथि शल्य ...भले ही कौरवों की पराजय हुयी मगर दुर्योधन की जीतने की आशा तो अंतिम घड़ी तक बनी रही ...ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण भारतीय पुराण इतिहास में देखे जा सकते हैं ...



भारतीय जीवन दर्शन तो आशावादिता से भरा ही हुआ है -भले ही यह सच है कि उसमें बहुत सा घोर अतार्किक आशावाद है . हमारे अधिकाँश साहित्य सुखांत है ...अगर मनुष्य का मस्तिष्क ऐसा न होता तो प्रायः पूरी प्रजाति ही थक हार कर बैठ जाती...कोई प्रयास ही न करती ...कोई उद्यम ही न करती ....मगर केवल आशावादिता ही पर्याप्त नहीं है उस दिशा में प्रयत्न भी किये जाने चाहिए -ज्ञान विज्ञान के अकूत भारतीय वांगमय बार बार यह बताते रहे हैं  ..गीता तो मनुष्य के कर्म को ही प्रधान मानती है ...भगवान में आस्था भी मनुष्य की  आशावादिता का ही एक रूप है ...सब कुछ ख़त्म हो गया है मगर एक सर्व शक्तिमान तो है जो सब कुछ ठीक कर देगा ..इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ठीक कर देगा ...फिर चिंता की क्या बात ...संतोष रखिये... होयिहें वही जो राम रचि राखा .... कुतर्क मत करो ईश्वर पर भरोसा रखो ...यह प्रबल आशावादिता नहीं तो और क्या है ?  और यह आशावाद भले ही अतार्किक हो मनुष्य जाति का परचम बुलंद रखने में इसका बड़ा योगदान रहा है ...

कभी कभी सोचता हूँ मेरे जैसे वे सभी लोग कितना बदनसीब हैं जिनके पास आस्था का कोई ऐसा आधार नहीं है.जो नास्तिक हैं ,अज्ञेयवादी हैं ..ईश्वर जैसी सत्ता में जिनका विश्वास नहीं है ...जीवन की कतिपय बड़ी विपदाओं के समय उत्पन्न   निराशा के समय इनके पास खुद अपनी इच्छाशक्ति के  अलावा  आशा और विश्वास का कोई अतिरिक्त आधार नहीं होता ....कितने अकेले और असहाय से नहीं हो जाते हैं ऐसे लोग? तमाम अन्यायों और दुश्वारियों का मुकाबला इन्हें खुद अपने दम पर करना होता है ..इनके मस्तिष्क के अग्र  गोलार्ध में स्थित आशावादी केंद्र ही ऐसे में उनकी मदद करता होगा! 

रहीम का एक दोहा याद आ रहा है-रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन का फेर ,जब अइहें नीक दिन बनत लगिहें देर ...यह हमारा आशावाद ही तो है जो कवियों की वाणी बन गया है ...एक शायर ने मौत के वजूद की भी अनदेखी कर दी ..कहा -मौत से आप नाहक परीशां है आप जिन्दा कहाँ है जो मर जायेगें :) लीजिये जनाब यहाँ तो मौत को भी हंसी मजाक समझ लिया गया ...

..तो मित्रों ,आशा ही जीवन है और निराशा है मृत्यु  और यही है मूलमंत्र मनुष्य के जीवन की सार्थकता का ....





सोमवार, 20 जून 2011

यौन स्वभाव /कामवासना पर प्रदर्शनी -एक सूचना!

लन्दन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में इन दिनों एक प्रदर्शनी काफी प्रसिद्धि पा रही है जिसे टाईम पत्रिका ने भी कवर किया है ...सोचा इसे आपसे साझा किया जाय .वैसे तो यह मुख्यतः जीव जंतुओं के प्रणय व्यवहार और वन्य -प्रजनन पर आधारित है मगर विषय के मानवीय निहितार्थों से भी यह प्रदर्शनी अछूती नहीं है ...इस प्रदर्शनी को देखने वालों से की गयी रायशुमारी में कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बातें सामने आयी है .लगभग ६८ फीसदी दर्शकों का मानना था कि सच्चा प्यार (ट्रू लव ) का वजूद समूची प्रकृति में है -मतलब मनुष्य से दीगर दूसरे जीवों में भी ....समुद्री घोड़ों की लम्बे समय तक चलने वाली प्रणय  लीला जिसके दौरान नर मादा तरह तरह के रंग बदलते  हैं लम्बे समय तक साथ साथ तैरते रहते हैं(साथी चल ... मेरे साथ चल तू   ...!)   और एक दूसरे की पूछों को थामे रहते हैं -मानो यही संकेत देता है ...४६ फीसदी यह सिफारिश करते हैं कि मनुष्य को एक पति/पत्नी व्रता(मोनोगैमस)   होना चाहिए .चिड़ियों में ऐसे कई उदाहरण है -एक तो अपने सारस का है ....जो दाम्पत्य निष्ठा का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करता है ...
दाम्पत्य निष्ठा की मिसाल है सारस 

रायशुमारी में यह बात भी उभर कर आयी कि मनुष्य में महज १४ फीसदी यौन संसर्ग प्रजनन को लक्षित होते हैं ..बाकी मनोरंजन ,आपसी सहभाव ,घनिष्ठता के   पक्ष में खड़े दिखे ....मनुष्य की काम भावना का उदगम मानो बोनोबो कपियों से हुआ है जिन्हें हर पल सेक्स की ही सूझती रहती है ...उनमें किसी विपरीत लिंगी के स्वागत से लेकर खाने की मेज तक हर समय सेक्स की ही लगी रहती है ....यह प्रदर्शनी लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुयी है मगर यह आगाह भी किया गया है कि"प्रकृति के काम -व्यवहार हमारे नैतिक मानदंडों से निर्धारित -निर्णीत नहीं होते ..." उन्हें देखने जानने परखने की खुली दृष्टि होनी चाहिए ...

बोनोबो कपियों को हमेशा सेक्स की ही लगी रहती है 

प्रेम बलिदान मांगता है - प्रेयिंग मैंटिस और एक मकडी की प्रजाति (ब्लैक विडो स्पाईडर ) यौन संसर्ग के दौरान प्रायः  नर को चट कर जाती हैं ..मगर कुदरत के  संतति प्रवाह के सामने ऐसा  बलिदान कोई ख़ास मायने नहीं रखता -कम से कम मनुष्य का प्रेम तो ऐसा बलिदान नहीं मांगता -या हो सकता है कि ऐसे दृष्टांत यहाँ भी हों ...और  इस पर अभी बारीकी से अध्ययन ही न हुआ हो :) ....किसी दूसरे नर का सामीप्य भी सहवास के दौरान कई जीवों को कतई पसंद नहीं है -स्टिक इन्सेक्ट केवल इसी आशंका के चलते मादा की पीठ से ५-६ महीने चिपका ही रह जाता है और अपनी वंशावली की शुद्धता प्राण प्रण से बरकरार रखता है ....क्या ऐसी भावना मनुष्य तक में विकसित नहीं होती गयी है .....? आप खुद सोचिये! 

टाईम पत्रिका के ताजे अंक (२० जून ,२०११) के अनुसार प्रदर्शनी में वन्य पशुओं के प्रणय व्यवहार के विविध रूप रंग दीखते हैं ...यह मनुष्य की जिन्दगी  में   रूमानी अहसास के कैंडिल लाईट डिनर जैसी आश्वस्ति (कम्फर्ट ) भरी प्रेमानुभूति ही  नहीं है . यहाँ द्वंद्व युद्ध है ,युयुत्सु प्रदर्शन है एक दूसरे के लिए जान देने का जज्बा पग पग पर दिखाई देता है ...हिरन /मृग प्रजातियों का मादा पर अधिकार का द्वंद्व युद्ध अक्सर घातक भी हो उठता है ....यहाँ रात रात भर प्राणेर गीत का गायन है -जैसा कि मादा को रिझाने  के लिए नर मेढक या टोड फिश पूरी रात टर्र टर्र करते गुजार देते हैं ....और यहाँ तो चित्र विचित्र यौन उपकरणों का भी खेला है ! जैसे नर बैरान्कल का अंग विशेष उसके शरीर की तुलना में तीस गुना अधिक बड़ा होता है ......यह आंकड़ा बहुत संभव है एक आल टाईम गिनेज ब्रह्माण्ड  रिकार्ड हो ..

यह प्रदर्शनी अभी लम्बी चलेगी ..२ अक्टूबर  तक . लन्दन के कोई हिन्दी ब्लॉगर हों तो आँखों  देखा हाल भी हम तक पहुँच सकता है ..कोई है ...?  

शुक्रवार, 17 जून 2011

आईये एक दिन की 'अमवाही' हो जाय!

बनारस इस समय सचमुच  रसमय हो  चला है ..रसराज आम की बहार है ...बनारसी लंगड़े ने क्या खूब रिझाया है लोगों को ..कभी कभी हैरत यह होती है आमों के दीवाने चचा ग़ालिब बनारस छोड़ बेदिल बेरस दिल्ली में कैसे जन्मे और बस गए ....आमों की जो चौकड़ी पूरी यू. पी. में मशहूर है उसमें शामिल हैं -दशहरी ,चौसा ,लंगडा और सफेदा ....वैसे तो भारत में इतने भांति भांति और आकार प्रकार के आम हैं कि उनकी प्रजातियों   और रसास्वादन के तरीकों की उपमा के लिए बस एक सौन्दर्यशास्त्रीय उदाहरण ही दिया जा सकता है ....जिसे रस प्रेमी समझ सकते हैं ...अक्लमंद को इशारा काफी ...बनारस के लंगड़े की भी अपनी एक राम /आम कहानी है -देखने में सुडौल और खाने में ख़ास फ्लेवर लिए मीठा ....आम को रसाल कहा गया है -रस से भरा हुआ!

आम को खाने का शहरी तरीका निहायत नौसिखिया वाला है -इतने सुन्दर सुडौल आयटम पर छुरी चलाना? आम कैसे खाया जाय ताकि फलो के राजा का सम्मान भी बना रहे और खाने वाले को स्वार्गिक संतृप्ति हो इसके लिए किसी गवईं से  इसकी तकनीक सीखनी चाहिए ..पहले आम को हाथों से हलके हलके संस्पर्श से गुलगुलाईए फिर शुरुआती बूंदों (चोपी )  जो काफी तीक्ष्ण होती हैं को त्यागकर शेष रस को   होठों से लगाकर चूसिये ....आम को नकली नफासत से खाने का मतलब है कि फलों के राजा की आप को कोई कद्र नहीं है! 

मुझे भी आम बेहद पसंद हैं ..मैंने इस बार बनारस के बाहरी ग्रामीण क्षेत्र (कंट्री साईड ) में जाकर एक बागीचे में लंगडा  आम के  एक पूरे पेड़ को (आई मीन फलों को ) बयाना देकर ही खरीद लिया था....जहाँ से अभी तक आमों की आमद बदस्तूर जारी है ....अब तक के खेपों का पाल डालना पड़ा था (कच्चे आमों को रखकर पकाने की विधि ) ..ये भी कुछ कम स्वाद वाले नहीं है ....मगर असली मजा तो सीधे डाल से पके पकाए आम का है ---उसकी वैलू भी ज्यादा है ..

मुझे याद है कि एक आला आफिसर के मातहत ने जब एक पेटी  आम उन्हें दिया तो उसको मनचाहा कार्य पटल मिल गया था -आफिसर ने बस यह पूछा था कि-यह डाल का है या पाल का ? मातहत का नपा तुला संक्षिप्त जवाब  आया था -सर डाल का है ,और उसी दिन उसे मनचाहा कार्य पटल अलाट कर दिया गया था ..मगर उसी आफिसर के दुसरे ईर्ष्यालु मातहत ने सारी पोल ही खोल कर रख दी और दावे के साथ यह साबित  कर दिखाया कि कथित आम डाल का नहीं पाल का ही था ....फिर तो पहला वाला मातहत पुनर्मूसको भव की गति को प्राप्त हो गया बिचारा ....मुझे भी अब डाल के लंगड़े का ही बेसब्री से इंतज़ार है ..मानसून की छपाछप भी शुरू हो चुकी है तो डालों के आम भी बस पकने वाले हैं ..

सतीश जी के साथ पिछले साल की अमवाही  

मैंने इसलिए ही सोचा कि इस आम -पर्व पर आपको क्यों न निमंत्रित करूं -एक दिन की 'अमवाही' के आयोजन का मूड बन रहा है -मतलब एक पूरा  दिन आम के रसास्वादन को ही समर्पित ....जैसे यहाँ 'सतुवाही' होती है -मतलब तुरंता  भोजन (फास्ट फ़ूड ) के लिए एक दिन 'सतुआ संक्रांति' का आयोजन होता है तो क्यों नहीं उसी तर्ज पर अमवाही ....अब यह कोई न पूछ ले यह सतुआ(सत्तू) क्या होता है ...बनारस में तो एक सतुआ बाबा का आश्रम ही है ...सतुआ शास्त्र फिर कभी ...विषयांतर हो जाएगा !

 मुझे याद है मेरे बचपन में उन  रिश्तेदारों, जिनके यहाँ आम के बड़े बड़े बाग़ होते थे,  के यहाँ से बाकायदा अमवाही का निमंत्रण आता था ..बड़े बड़े देगचों,बाल्टों  में भर भर कर किसिम किसिम के आम लाये जाते थे और लांग डाट लगती थी कि देखो कौन कितना खा लेता है -मेरा रिकार्ड भी वन गो में पचास से ऊपर आमों को खाने.... ओह सारी चूसने का था ....अब वे दृश्य लोप हो गए ...पिछले बार आमों के सीजन में सतीश पंचम जी बड़े भाग से बनारस आ गए और हममे यह स्पर्धा फिर हो गयी ...नतीजा इस बार वे इधर आये तो बगल की पतली गली से ही  निकल गए ..हा हा ...

आप बनारस आ रहे हों तो अमवाही का मेरा निमंत्रण स्वीकार करें!अनुगृहीत होउंगा!  

बुधवार, 15 जून 2011

धर्मपत्नी,अर्द्धांगिनी ,उत्तमार्ध में किसे पसंद करेगें आप? (एक शब्द चर्चा )

विगत दिनों दिनेश राय द्विवेदी जी ने  धर्मपत्नी को जन्मदिन की बधाईयाँ दीं और उन्हें उत्तमार्ध कहा ..मैं भी कितना कुंद बुद्धि कि तत्क्षण उत्तमार्ध का अर्थ समझ नहीं सका तो द्विवेदी जी से ही तुरत पूछ बैठा था इसका अर्थ ..उनका जवाब जबकि अभी भी प्रतीक्षित है मैंने उसी दिन कुछ पलों के बाद ही व्यग्रता से गिरिजेश जी से जैसे ही इसका जिक्र किया हंस कर बोले -यह बेटर हाफ का हिन्दीकरण ही तो है ..सच में मैं भी कैसा बुद्धू हूँ कि यह बात मुझे सहसा समझ नहीं आयी ...मगर फिर एक उलझन जो अभी तक नहीं सुलझी वह आपके सामने लाया हूँ ....पत्नी के लिए हमारे यहाँ पहले से ही प्रचलित कई संबोधन हैं -श्रीमती ,मेहरारू ,अर्द्धांगिनी ,धर्मपत्नी ..दुलहिन...और सभी अवसर /संदर्भ विशेष में आज भी प्रासंगिक हैं ...

मगर मैंने उत्तमार्ध पहली बार सुना -किसी शब्द क्रीडा प्रेमी   द्वारा यह एक नयी ईजाद है ....मगर शब्द अपने साथ परिवेश और संस्कृति से जुड़े भावों को भी लाते हैं -अंग्रेज पत्नी को बेटर हाफ क्यों कहते हैं? यह तहजीब  /शिष्टाचार का वह रूप इंगित करता  है जहाँ लोग मिथ्याचारिता (सोफिस्टीकेशन ) तक जा पहुंचते हैं ....मन में भले ही कुछ हो मगर शब्दाडम्बर में पीछे नहीं ...वैसे भी बेटर हाफ का संबोधन तो मुझे यहाँ के  पुरुष प्रधान समाज में  व्यंगात्मक सा लगता है -व्यंजनात्मक लगता है .....उसे वह दर्जा देने की कटोक्ति जो वह वस्तुतः रही नहीं ...अंग्रेजों की तो छोडिये वहां नारी  बेटर हाफ से भी अधिक सशक्त हो चुकी  है ... मगर शायद दिनेश जी के सामने कोई और धर्मसंकट रहा हो ...उन्हें पत्नी के लिए अपने यहाँ प्रचलित शब्दों में त्रुटियाँ नजर आयीं हों -अब धर्मपत्नी शब्द में ही देखें तो खामी है ...धर्मपुत्र तो अपना होता नहीं ..दत्तक पुत्र होता है ,दूसरे का होता है ....धर्मपत्नी शब्द में भी यही अड़ंगा कुछ लोग मानते हैं कि कहीं लोग खुद की पत्नी को भी अर्द्धांगिनी कहने पर पराये की पत्नी न मान लें..... :) 
 भैया ,पत्नी भी अपनी होती कहाँ है ? एक लम्बे कष्टप्रद धार्मिक अनुष्ठान के बाद उसे जबरदस्ती गले में बाँध दिया जाता है ...और धर्मपत्नी कह दिया जाता है ताकि बंदा उससे कोल्हू के बैल की तरह ताजिंदगी बंधा रहे ..उसे छोड़े तो धर्मच्युत हो ..अब एक आम धर्मभीरु भारतीय इस धार्मिक रिश्ते को मरते दम तक निभाने को अभिमंत्रित(मेरी जुर्रत, अभिशप्त कह दूं ? )   हो रहता है .... :) 

अर्द्धांगिनी बोले तो अपना ही एक बराबर का हिस्सा -जैसे पार्वती और शिव ....भोले बाबा बिना पार्वती के पूर्ण नहीं हैं -वे अर्द्धनारीश्वर हैं तो बस इसी अर्थ में हैं ...नर नारी का यह सायुज्य, यह अन्योनाश्रित सम्बन्ध शिव के इसी अर्द्धनारीश्वर रूप से ही अनुप्राणित होता रहता है ...तो पत्नी को अर्द्धांगिनी का संबोधन उसे बराबरी का दर्जा देने,बराबर का सम्मान देने की नीयत रखता है. दिनेश जी को शायद इसमें भी  कोई खामी दिखी ...श्रीमती पर संकट यूं भी है कि अब सुश्री(Ms .=मिज )  कहलाने का फैशन है जिसमें यह पता ही नहीं चलता कि देवि का मैरिटल स्टेटस क्या है? पता नहीं ये कुछ पुरुष और नारियां अपने वैवाहिक स्तर को छुपा कर क्या हासिल करना चाहते हैं? 

 मेहरारू में अतिशय नारीत्व का बोध है ....संभवतः यह मेहरा शब्द से बना हो ..मेहरा का मतलब है स्त्री सरीखे हाव भाव वाला पुरुष (effeminate personality  ) ....इससे कहीं यह तो ध्वनित नहीं होता कि मेहरारू किसी ऐसे शख्स की तो पत्नी नहीं जो खुद  मेहरा हो ....मुझे लगता है इन देशी शब्दों के इन्ही झंझटों को देख दिनेश जी ने एक विदेशी संबोधन के हिन्दीकरण की जहमत उठाई हो -भले ही वह अतिशय औपचारिक है मगर है तो दुराग्रह मुक्त ...एक नया शब्द ...एक नव बोध! 

शनिवार, 11 जून 2011

एक बेचैन आत्मा से मुलाक़ात!

इस ब्लॉग के लम्बे समय से सूने चल रहे स्तम्भ चिट्ठाकार चर्चा को आज गुले गुलजार करने तशरीफ़ लाये हैं देवेन्द्र पाण्डेय जी जो बेचैन आत्मा के नाम से ब्लॉग जगत में खासे मशहूर हैं ....जब पहले से ही मशहूर हैं तो फिर यहाँ  उनकी चर्चा क्यों? मैं पहले भी बताता रहा हूँ कि किसी चिट्ठाकार की यहाँ चर्चा के पीछे उसके प्रति खुद मेरी अपनी सोच ,अपने रुख का उजागर करना होता है और कुछ तो उसके प्रति सम्मान -उदगार की अभिव्यक्ति का भी भाव रहता है .यह उसके अवदानों की  एक कृतज्ञ अभिस्वीकृति(अक्नालेज्मेंट) भी  है ....यद्यपि मुझ पर यह आरोप है कि मैं खुद अपनी ही गढ़ी मूर्तियों को कालांतर में अपवित्र -अपमानित करने की प्रवृत्ति रखता हूँ ....अन्यत्र यह कहा जा चुका है कि मैंने  इस स्तम्भ के कम से कम तीन चिट्ठाकारों के साथ ऐसा किया है..... ....अब कहने का क्या ,कुछ लोगों की हमेशा नक नकाने की आदत जो होती है ...

बात पिछले लोकसभा के चुनावों की है .सभागार  में हजार से भी ज्यादा अधिकारी चुनावों के संचालन की दीक्षा ले रहे थे.....जैसे ही मध्याह्न  अंतराल /अवकाश हुआ अधिकारियों के हुजूम से एक आम चेहरा डायस की ओर लपका और ठीक पास आकर बुदबुदाया -मैं बेचैन आत्मा ..और तत्क्षण ही वह ख़ास बन गया ..अरे ये तो अपने प्रिय ब्लॉगर बेचैन(आत्मा )  जी निकले जो अब अपनी सुडौल देह और निराकार बेचैन आत्मा दोनों के साथ मेरे सामने आ उपस्थित थे....अब तक आनंद की यादें पर  अपने जीवंत संस्मरण और बेचैन आत्मा पर अपनी काव्य प्रतिभा का वे लोहा मनवा चुके थे-तो यह था हमारा पहला मिलन ...दुबारा वे घर पर एक लघु और संक्षिप्त सी ब्लॉगर संगोष्ठी में शिरकत  करने आये और अपनी व्यंजन  प्रियता (gourmet होने का  ) का संकेत दे गए ...

मेरा अपना अनुभव है कि कविता /कविताई का निपुण व्यक्ति प्रायः अच्छा गद्यकार होता है मगर गद्यकार को कवि होते कम ही देखा है मैंने .....मगर देवेन्द्र जी इन दोनों विधाओं में सिद्धहस्त हैं ...सच कहूं तो उनका ब्लॉग आनंद  की यादें जो आत्म संस्मरणात्मक है ,मुझे बहुत प्रभावित करता है ..बचपन की यादों और अतीत के बनारसी परिवेश का इतना प्यारा और प्रामाणिक विवरण मैंने कम ही पाया है ....उनकी कवितायें भी इसी तरह बहुत मौलिक और विभोर करने वाली होती हैं ....उनमें एक हास्यकार (ह्यूमरस- ता) का भी  आवेग  कभी कभी उभरता है ....मगर संस्मरण और कविता उनकी सृजनशीलता के स्थाई भाव हैं ..

 एक सरल ,हंसमुख व्यक्तित्व  के मालिक तो वे हैं ही जबकि हैं वित्त/अकाउंटिंग  जैसे रूखे सूखे विषय के जानकार ...आज ब्लॉग जगत में उनका होना एक अच्छी बात है और उससे भी अच्छी बात है कि वे सतत सक्रिय रहकर अपने रचना कर्म से हमें कृत कृत्य कर रहे हैं ...अहर्निश अशेष शुभकामनाएं!




गुरुवार, 9 जून 2011

पहुँचना एक ब्लॉगर की शादी में इकलौते ब्लॉगर का .....

राष्ट्रीय शोक से कुछ उबरा हूँ तो आज सुध आयी एक ब्लॉगर के वैवाहिक समारोह की जिसमें केवल एक ब्लॉगर ही सभी ब्लागरों की नुमाईंदगी करता दिखा ...अब अपने मिथिलेश जी कोई ऐसे वैसे ऐरे गैरे ब्लॉगर भी नहीं हैं ..सबसे युवा ब्लागर का ख़िताब उन्हें मिल चुका है और अब २१ वर्ष होते ही उन्हें सामाजिक बंधन में बाँध दिया गया है ..इतनी कम उम्र में विवाह का मैं पक्षधर नहीं था मगर काफी किचाहिन(देशज भदेस शब्द)  और किच किच के बाद होनी होकर ही रही -और जब मां बाप राजी तो अगले की क्या बिसात! मिथिलेश ब्लॉगर के अलावा एक आज्ञाकारी पुत्र भी हैं -संस्कारों और पारिवारिक ,पारम्परिक प्रतिबद्धताओं से जुड़े! मेरा उनसे वादा था मैं उनकी शादी में जरूर सम्मिलित होउंगा ..और मैंने वायदा तो निभाया ...उनके निमत्रण कार्ड में एक बाल आकांक्षा भी उद्धृत थी -मेले चाचा की छादी  में जलूल जलूल से आना ...निधी, नैनशी.... लिहाजा जैसे भी पहुंचा तो, गिरते पड़ते कैसे भी ....जबकि उस दिन यानि  २१ मई को जबरदस्त लगन थी ..एक साथ तीन बारातों में शामिल होने की हैट्रिक पूरी करते जब मिथिलेश की बरात में पहुंचा तो सुबह हो गयी थी ..

वर वधू और पार्श्व में सालियां .

हैरत यह रही मैंने खुद को वहां ब्लागरों की जमात से  अकेला पाया ..मिथिलेश मेरे बेटे कौस्तुभ से भी कम उम्र के हैं ....और मैं उम्र के उत्तरार्ध को अग्रसर एक ब्लॉगर ..क्या ही अच्छा होता कि वहां खुशी के पलों में मिथिलेश के समवयी  ब्लॉगर मित्र दिखते ..कम से कम मुझे तो कंपनी मिलती ..अब मिथिलेश तो सामाजिक दबावों के बोझ से वैसे ही दबे थे,जिस समय  मैं वहां पहुंचा सुबह हो चुकी थी और ये महाशय कोहबर की शर्तों के बीच के परी देश में थे...मगर मेरे आने की खबर मिलते  ही भागे भागे आये .....और यह  मुझे कहाँ भाया? बच्चों के परी देश की सपनीली  दुनिया  में मेरे पहुँचने से विघ्न!  बहरहाल आगत स्वागत हुआ ....मिथिलेश की लगभग  सभी उँगलियों में सोने की सद्य आरोहित अंगूठियाँ सुशोभित हो रही थीं .निश्चित ही  एक सास की तरफ से ....एक सरहज की ओर से और एक ....मेरी नजर अपनी अंगूठियों पर से न हटते देख मिथिलेश जी ने हाथों को हठात छुपा लिया  ..न जाने क्यों? अरे मैं दे नहीं पाया तो क्या मांग लेता  कोई एक ? मगर बच्चों के मन का क्या कहिये ..अपना खिलौना भी वे बड़े ट्रस्ट वाले को ही देते हैं ....

मैंने विवाह कार्ड में ही देख लिया था मिथिलेश के भाग्यशाली परिवार में अभी उनके प्रपितामह भी हैं -श्रीधर दूबे जी और पितामह श्री विनयधर  दूबे तथा पिता जी श्री सरोजधर दुबे ..सभी बरात में मौजूद ..एक साथ चार पीढियां!यह एक सुखद /प्रशान्तिदायक अनुभव था .... बारात पारम्परिक जोश  खरोश के साथ मिर्जापुर जिले के बीदापुर गाँव के  प्रतिष्ठित पाण्डेय परिवार को गौरवान्वित कर रही थी....

चलते चलते एक फोटो सेशन ...बाएं से श्री सरोजधर दुबे (मिथिलेश के पिता जी ) ,दुल्हे राजा और मैं.

अब सुबह के ९ बजने जा रहे थे..बरात की विदाई की तैयारियां चल रही थी -इसका संकेत भी अक्षत देने की रस्म से हो गया  था ..दुल्हन की विदाई होनी नहीं थी ..क्योकि वहां गौने की परम्परा थी ...मतलब बिना दुल्हन के ही बरात को बैरंग लौटना  था(समझे ललित भाई!)   ....मैं भी  रात्रि जागरण से हुयी थकान  से भरा  था ...सभी को यथायोग्य सम्मान ,शुभकामनाएं और बधाई देकर लौटने को उद्यत हुआ तो मिथिलेश जी के पिता जी ने मुझे विदाई के रस्म बतौर  वधू पक्ष से एक बड़ी मान राशि दिलाई -विदाई!  .. अकिंचन ,किंकर्तव्यविमूढ़ ,अप्रस्तुत  मेरे सामने उसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था ....परम्पराओं के सामने और शुभ अवसर पर  ..ज्यादा ना  नुकर बुरा माना जाता है ...मेरा सारथी भी लाभान्वित किया गया ....

चिरंजीवी मिथिलेश जी और  परिणीता  सौभाग्यवती सुमन को बहुत बधाई और आशीष!   

रविवार, 5 जून 2011

राष्ट्रीय शोक!

रात में सोते समय निहत्थे लाचार मासूम लोगों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार ? शेम! शेम! 
आज सहसा ही पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की याद आयी -बाबरी ढाँचे के जमीदोज होने के बाद भोर ४ बजे जनता के नाम उनका सन्देश टी वी पर मैंने सुना था जो वहां उपस्थित जनता जनार्दन के लिए था -हाथ जोड़कर था कि अब आप लोग वहां से हट जायं ...नहीं तो किसी भी कार्यवाही की मेरी जिम्मेवारी नहीं होगी ....यह है एक लोकतांत्रिक कार्यवाही का नमूना -

अपना ये पगड़ी वाला तो दमन की इस अभूतपूर्व कार्यवाही के दौरान कहीं दिखा ही नहीं ...क्या वह खर्राटे की नीद ले रहा था -या भोर के सपनो में मगन था ...
अभी तक है कहाँ यह इटैलियन बैंड पार्टी ?
रात से जागकर सारे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हूँ -साफ़ लगता है बड़े अपराध को छुपाने की नीयत से नैतिकता खो चुके लोगों और व्यवस्था के पिट्ठुओं ने वह कर दिखाया है जो किसी भी लोकतंत्र में मान्य नहीं है...बेहद शर्मनाक भी है ...

बर्बरता की ऐसी मिसालें आजाद लोकतांत्रिक देशों में कम ही देखने को मिलती हैं ..क्या कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने ही देशवासियों से ऐसा बर्बर सलूक कर सकती है जो एक जायज मांग को लेकर सत्याग्रह कर रही हो .....क्या अमेरिका अपने देशवासियों के साथ ऐसा अमानवीय और मर्यादाहीन आचरण कर  सकता है 
?..वह भी एक लोकतंत्र है ....

रात में सोते हुए निरीह और निहत्थे लोगों पर हमला -यह तो महाभारत काल में भी केवल अश्वत्थामा के द्वारा किया गया था ...
...एक उल्लू को अपने दुश्मन कौओं का गला काट काट कर गिराए जाते देख अश्वत्थामा ने भी पांडवों के पांच पुत्रों का रात में सोते समय ही गला काटने का कायराना काम किया था ....यह नृशंसता फिर दिखी है ..यह नपुंसक आक्रोश की ही परिणति है !एक कायराना कार्य ..यह मर्दानगी तब कहाँ छुप जाती है जब आतंकवादी देश में आ जाते हैं ? 


मैं बाबा रामदेव को ठीक से नहीं जानता  था ..न हीं उनके योग  का समर्थक हूँ ...लालू किसी दिन बोले थे कि वे अहीर जाति के हैं उन्हें दूध बेचने के अपने पैतृक धंधे पर लौट जाना चाहिए ....मगर बाबा जन्मना भले ही अहीर हों सही अर्थों में मुझे यह व्यक्ति एक द्विज लगता है .....उसकी जो मुहिम है वह देश के उन महापापियों के विरुद्ध है जिन्होंने गरीब से गरीबतर होते इस देश की अरबों की संपत्ति विदेशों में जमा कर रखी है..

अब उसे उजागर करने का कोई इतना बड़ा सत्याग्रह मूर्त रूप ले रहा हो और उसे नृशंसता से कुचलने की कार्यवाही की जाय तो इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं ? अपनी ही जनता से क्या छुपाया जा रहा है ?? 

क्या जो लोग यह दमनात्मक कार्य कर रहे हैं वे ही किसी महापापी को बचाने पर तो उतारू नहीं हैं ? 
यह जवाब जनता लेकर रहेगी अब -

शुक्रवार, 3 जून 2011

मेरी पहली थ्री डी फिल्म -हान्टेड!

हान्टेड देख कर लौटा हूँ .विक्रम भट्ट द्वारा निर्देशित यह थ्री डी फिल्म है -आँखों पर एक ख़ास चश्मा लगाकर देखना होता है इन फिल्मों को .मुझे याद है भारत में पहले भी ३ डी दृश्यों युक्त फिल्मे जैसे शिवा का इन्साफ ,छोटा चेतन ,सामरी आदि बन चुकी हैं मगर कुछ ऐसा संयोग ही रहा कि मैं उन्हें नहीं देख पाया ...बच्चों ने रिकमेंड किया तो मैंने आउट आफ क्यूरियासटी हान्टेड देखने का मन बना लिया कि देखें थ्री डी फ़िल्में कैसी होती हैं ...और सचमुच गजब का अनुभव रहा ...फिल्म के कई दृश्यों ने तो सचमुच यह अनुभव करा दिया कि शरीर में झुरझुरी फैलना किसे कहते हैं -पूरी फिल्म में मैंने महसूस किया कि कम से कम आधा दर्जन बार  ऊपर से नीचे तक झुरझुरी ,सिहरन सी फ़ैल गयी ...एक तीव्र ग्रामी रोलर कोस्टर पर बैठने के  रोमांच से  कुछ कमतर नहीं ....मुझे याद नहीं कि सारे शरीर में इसके पहले कब ऐसी झुरझुरी फ़ैली  थी ....यह   एक आपात रिस्पांस सा होता है जब शरीर किसी अचानक आपदा ,खतरे के प्रति खुद को तैयार करता है -धमनियों के जरिये ड्रेनालीन नामक हारमोन पूरे शरीर में फ़ैल जाता है ....इस फिल्म को देखने का अहसास कुछ ऐसा ही है ..भले ही आप मेरी तरह भूतों प्रेतों पर विश्वास नहीं करते हों ,घोर तार्किक हों मगर इस फिल्म को देखते हुए आपका तंत्रिका तंत्र आपके चैतन्य दिमाग का साथ छोड़ देगा ... क्योकि मनुष्य को आसन्न खतरे  से बचाने के लिए उसकी इन्द्रियाँ नैसर्गिक रूप से ऐसी ही प्रोग्रामड हैं जो मानव मात्र की अस्तित्व रक्षा से जुदा एक  उपाय है ...



थ्री डी प्रभाव में आप सामने के दृश्यों की गहराई /दूरी भी देख सकते हैं ..मतलब कैमरे के ठीक सामने की वस्तु और फोकस में दूर की वस्तु के बीच का फासला साफ़ दीखता है ..कई बार तो ऐसा लगता है कि परदे पर दिख रही वस्तुओं में से कुछ तो  हाल तक बढ़ती चली आ रही हैं.  इसी फिल्म में  दीवार ढहने पर ऐसा लगा कि एक ईंट तेजी से हाल में लपकती हुयी आ पहुँची ..सभी दर्शकों को तत्काल डक करना पड़ गया अपना थोबड़ा बचाने के लिए ..नायक के हाथ का पंजा भी हाल के भीतर घुसता हुआ लगा -एक सांप ने जब एक कैरेक्टर पर अपने  फन का प्रहार किया तो सभी सिहर से उठे ..लगा यह वार दर्शकों पर ही हुआ है ...अब ऐसे दृश्यों की भरमार क्यों न दिल की धड़कन और शरीर की सिहरन बढ़ा दे..

हान्टेड जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है एक  बड़े भुतहे बंगले/हवेली  का नाम है ..जिसकी खरीददारी का मामला चल रहा होता है ...यह बना तो १९३६ में  था मगर  इसका वर्तमान मूल्य ४०० करोड़ रूपये हैं...रियल स्टेट बिजिनेसमैन    का बेटा जो विदेशों में पढ़ा है भूत प्रेत पर विश्वास नहीं करता...वह  बंगले में भूत प्रेत की अफवाहों की हकीकत  जानने आता है जिससे बंगले की डील में कोई बाधा न आने पाए .. और वहां घट रही अजब गजब घटनाओं ,पंजों के निशान,सिर कटी लाश आदि से खौफ खाता है ..और तभी उसकी मुलाक़ात एक सूफी संत से होती है जो उन घटनाओं के पीछे आत्माओं की ही भूमिका बताता है -

फ्लैश बैक में जो कहानी चलती है उसमें संगीत सीखने   वाली   एक लडकी  से  उसके   संगीत शिक्षक  की जोर जबरदस्ती और लडकी द्वारा आत्मरक्षा में शिक्षक की हत्या,शिक्षक की रूह का  लडकी के साथ खौफनाक बरताव और फिर उस लडकी का परिस्थितियों से हारकर आत्महत्या करने के दर्दनाक दृश्य है -ये सभी दृश्य दर्शकों की साँसों को सहसा रोक लेने में कामयाब हुए हैं -शरीर में कंपकपीं इन्ही दृश्यों से छूटती है ...फिल्म का सबसे रोचक हिस्सा वह है जब नायक बीते समय में -  १९३६ में जाकर  शिक्षक की हैवानियत से उस लडकी जो अब नायिका के रोल में आती है को बचाता है .बड़ी आपाधापी ,मार धाड़ के बाद वह कामयाब भी होता है -फिल्म का यह हिस्सा एक विज्ञान फंतासी (साईंस फैंटेसी ) सा है मगर जहाँ विज्ञान फंतासी का नायक टाईम मशीन से समय यात्रा करता है इस भुतही फिल्म में यह काम नायक से सूफी संत के चिलम का धुंआ  ही कर दिखाता है....

फिल्म को वैज्ञानिक नजरिये को ताक  पर रखकर महज मनोरंजन की दृष्टि से देखने में  ही मजा है ...फिल्म में थ्री डी दृश्य तो अद्भुत ही बन पड़े हैं ..लगभग सारी फिल्म ही थ्री डी में है ....अतीत में पीछे जाकर इतिहास के प्रवाह को बदलना विज्ञान फंतासियों का जाना माना विषय रहा है -इसी से वैकल्पिक इतिहास/दुनिया  की धारणा भी जुडी हुयी है ....अब जैसे इसी फिल्म में एक इतिहास वह है जिसमें नायिका आत्महत्या कर लेती है और दूसरी में नायक द्वारा वह बचा ली जाती है,शादी करती है ,पूरा जीवन गुजारती है  -लीजिये हो गए  न ये दो समान्तर संसार ...एक में १९३६ के बाद नायिका का  वजूद नहीं है दूसरी दुनिया में वह बाद में भी है और उसकी वंश परम्परा भी है -हिन्दी फिल्म दर्शकों को यह सब कुछ अटपटा  जरुर लगेगा मगर इस फिल्म का वैल्यू  एडीशन तो यही है ...

अतीत के दृश्यों में ,विंटेज मोटरों ,बंगलों आदि के लुभावने दृश्य हैं ....एक दो गीत भी कर्णप्रिय है ...जिस्म से रूह तक है  तुम्हारे निशां   इस ट्रेलर में सुन लीजिये ...फिल्म से जुड़े कुछ और उल्लेखनीय विवरण चवन्नी चैप   (पहले भी पूछा है कि यह चवन्नी  छाप क्यों नहीं है चवन्नी चैप क्यूंकर  हुआ?) और विकीपीडिया पर हैं !  फिल्म का एक बड़ा झोल यह है कि जब नायक रेहान ने भूतकाल में जाकर नायिका मीरा को रूह के प्रकोप से मुक्त ही कर दिया था तो बंगले में उस समय (वर्तमान में ) क्यों अजीब हरकतें हुयी जब रेहान ने उसमें प्रवेश किया ? जब कारण ही नहीं रहा तो फिर अकारण ही बंगला भुतहा कैसे बना रहा? बावजूद इसके फिल्म देखिये ..जरूर देखिये ..बच्चा पार्टी के साथ देखिये ....मैंने दिया साढ़े तीन स्टार! 

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