आज मन बहुत संतप्त है। डेजी हमेशा के लिए हमें छोड़ कर चली गयी। सत्रह सालों का ही साथ था उसका। लगभग दो दशक। मुझे याद है कि वर्ष 1999 में जब मैं वाराणसी में कार्यरत था , बच्चों मिकी और प्रियेषा की जिद पर डेजी हमारे घर आयी। एक रुई के गोले के मानिंद वह थी और बच्चों के लिए खिलौना। हमारे लिए भी आनंद का स्रोत। सभी का मन उसी में लगा रहता। उत्तरोत्तर वह अपने कौतुक से लोगों का ध्यान आकर्षित करती। आने वाले हमारे अतिथियों को वह अपना अतिथि मानती थी। स्वतःस्फूर्त स्वागत करती। बड़ी होने के साथ उसकी मासूमियत और हमसे लगाव ने उसे हमारी चहेती बना दिया।
डेजी ने कई ट्रांसफर भी झेले। अनेक सामाजिक समारोहों ,व्याह शादियों में शरीक हुयी। जिन शादियों में वह गयी उन जोड़ों की संताने भी आगे चल उसकी मुरीद हुईं । लगभग दो दशक के कालखण्ड में वह कई घटनाओं का साक्षी बनी. बच्चे उसे बहुत चाहते थे मगर वह बच्चों से दूर रहती। छेड़खानी उसे बिलकुल पसंद नहीं थी. घर में प्रियेषा उस पर ज्यादा फ़िदा रहतीं। मिकी का उस पर रोब चलता। वह कमांड किसी का मानती तो बस मिकी का। हाँ अटैच वह सबसे अधिक गृहिणी संध्या पर ही रही -आजीवन ! आखिर उसके खाने पीने का पूरा ख्याल वे रखतीं। अन्नदाता को भला कौन भूलेगा!
मेरे घर लौटने पर उसका उसका लट्टू की तरह नाच कर मेरा स्वागत करना कभी नहीं भूलता। अब पहले प्रियेषा अपनी पढ़ाई को लेकर दिल्ली गयीं और मिक्की भी आजीविका के लिए बंगलौर चले गए ! अब डेजी के साथ केवल हम दोनों रह गए थे। २०१२ के सितम्बर में मेरा फिर ट्रांसफर यहाँ सोनभद्र हुआ तो वह हमारे साथ यहाँ आ गयी। एक पल भी पत्नी संध्या का विछोह उसे सहन नहीं था। थोड़ी देर के लिए भी घर से बाहर जाने पर वह आसमान सर पर उठा लेती। अब उसे साथ लेकर ही आना जाना पड़ता। अब डेजी हमारी लायबिलिटी बनती जा रही थीं। एक बात कहूँगा -कुत्ते बहुत केयर की मांग करते हैं -बच्चे पिल्लों पर मोहित हो पाल तो
लेते हैं मगर झेलना मां बाप को पड़ता है . हम ट्रेन बस से अकेले टूर पर चले
जाते मगर डेजी के लिए AC कार हायर करनी होती ....
बचपन के उपरांत जबसे मुझे कुछ जानने समझने का शऊर आया मैंने दुख सुख दोनो
तरह की घटनाओं को तटस्थ भाव से लेने का आत्मसंयम विकसित करना शुरू किया। यह
मुश्किल है किन्तु अभ्यास से संभव है। जीवन मृत्यु, भाव अभाव, हानि लाभ से
जुड़ी घटनाओं में मन को स्थिर रखने में गीता के नियमित पाठ से मुझे काफी
सहायता मिली। मगर डेजी के मृत्यु ने मुझे गहरे संस्पर्श किया। मैं विचलित
हो उठा।एक कुत्ते की मौत पर इतना मर्माहत हो उठना?इसी विश्लेषण में लगा
हूं।जो समझ पाया हूं वह यह है कि यह एक निरीह, मासूम के अवसान
पर प्रतिक्रिया है। और अपनी असहायता जनित आक्रोश की पीड़ामय अभिव्यक्ति
भी कि उसकी जान बचाने के लिए यहां सोनभद्र में चिकित्सा की समुचित व्यवस्था
नही हो सकी।
ऐसा लगता है कि अगर शारीरिक संरचना को छोड़ दें तो भावनात्मक रूप से स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं है। हां पुरुषों को आंसुओं पर नियंत्रण रखना, कठोरता का प्रदर्शन आदि संस्कारगत सीखे हैं। जार जार रोने वाले पुरुष उपहास के पात्र बनते हैं। उन्हे तो पाषाण हृदय होना ही समाज में श्रेयस्कर माना गया है। इसके विपरीत रोना धोना, अधीरता, कातरता स्त्री मूल्यों के रुप में समाज में समादृत हैं। डेजी के अवसान ने मेरे ऊपर लागू इन बाह्य व्यावहारिक परतों को उधेड़ दिया। मन कातर हो उठा। समग्र आत्मसंयम काफूर हो उठा। निर्बल असहाय निरीह और मूक की पीड़ा में इतनी ताकत है।
डेजी पाम स्पिट्ज की प्रजाति की थी . इस प्रजाति के पालतू कुत्ते औसतन बारह वर्ष और अधिकतम सोलह वर्ष जीते हैं । इस लिहाज से उसने अपनी पूरी उम्र हमारे साथ बिताई। लगभग दो वर्षों से उसमें उम्र वार्धक्य के लक्षण दिखने लगे थे। फिर पैरों में सन्धिवात और बार बार दिगभ्रमित होना भी आरम्भ हुआ।कैनाइन कॉग्निटिव डिफिशिएंसी सिंड्रोम! विशेषज्ञ बताते हैं कि मनुष्य का दस वर्ष कुत्ते के एक वर्ष के बराबर होता है! इस तरह डेजी १७० वर्ष की सबसे उम्रदराज सदस्य थी हमारे परिवार की। आज उसके विछोह ने हमें आघात सा दिया है। एक प्रिय का लम्बे समय साथ रहकर हमेशा के लिए चला जाना बहुत सालता है। हम सभी दुखी हैं। खासतौर पर उसकी मासूमियत और हमारी असहायता कि हम उसके प्रयाण को रोक पाने में असमर्थ रहे हमें बहुत संत्रास पंहुचा रही है। मगर नियति को भला कौन टाल सकता है! अलविदा डेजी!