शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या मृत्योपरांत इस लोक प्रथा से आप परिचित हैं?

अपने किसी स्वजन ही नहीं पास पड़ोस के  किसी की भी मृत्यु होने पर हम संतप्त हो उठते है,पीड़ा अनुभव करते हैं और एक विरक्ति सा भाव भी मन में आ जाता है -मगर यह स्थाई नहीं रहता .कहा जाता है न कि समय सारे घावों को भर देता है ...कुछ दिन शोक मना  कर मनुष्य फिर  दुनियावी कामों में लग जाता है -यक्ष ने जब युधिष्ठिर से यह पूछा था कि दुनियाँ का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या  है तब उनका जवाब भी यही  था कि  लोग मृतकों का रोज दाह संस्कार करते समय जीवन की नश्वरता का बोध करते हैं और सोचते हैं कि एक दिन उनकी भी यही गति होगी मगर फिर से दुनियादारी में डूब जाते हैं -यही सबसे ब़डा आश्चर्य है!

किसी के भी दिवंगत होने पर दुखी होना मनुष्य का मानवीय गुण है ....यह उसकी जीनिक अभिव्यक्ति है -और मनुष्य की ही मोनोपोली इस क्षेत्र में नहीं है. कई ऐसे पशु हैं जो अपने समुदाय के सदस्य के मृत होने पर दुखी ही नहीं होते कुछ अनुष्ठान सा करते दिखाई देते हैं -गैंडे अपने शिशु-शावकों के मरने पर उनका सर सूंघते हैं और गोल गोल उनके शव के इर्द गिर्द घूमते हैं ..मनुष्य में भी मृत्योपरांत यह अनुष्ठानीकरण काफी विस्तृत होता गया है ....शोक सभा /शान्ति पाठ के साथ साथ कच्चे पक्के श्राद्ध और ब्रह्म चिंतन (जिसका विकृत रूप कालान्तर में ब्राहमण/ब्रह्म भोज हो गया ) का आयोजन हमें अपनी मनुष्यता का अहसास दिलाता है ...मृत्योपरांत ऐसे आयोजनों का स्वरुप विभिन्न संस्कृतियों में भले ही अलग अलग तरीके से हो मगर ऐसा आयोजन  होता अवश्य है! 

हमारे लोक जीवन में ,कम से कम भारतीय भूगोल के जिस हिस्से को मैं आबाद कर रहा हूँ -उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल ,यहाँ  मृत्यु के उपरान्त बड़े  कठिन क्रिया कर्म का प्रावधान है ....पूरे तेरह दिन के कठोर कर्मकांडी व्रत का विधान है यहाँ! दाह संस्कार ,छोटा श्राद्ध (छोटका सुद्ध  ) ,दशगात्र (दसवां ) और फिर तेरहवीं  और उसके बाद भी पूरे एक वर्ष तक के कई निषेध - डूज एंड डोंट्स! आखिर मनुष्य एक अति विकसित सामाजिक प्राणी है तो उसके मृत्यु -कर्मकांड भी तो इलैबोरेट  होने थे न? और पंडित जजमान की भी ऐसी प्रथा कि स्वजन के चले जाने की विछोह पीड़ा को झेलता जजमान वह सब क्रिया कर्म करता है जो लोभी कर्मकांडी  करवाता जाता है ...नहीं तो जग हंसायी तय है ....ऐसे ही लोभी लालची कर्मकांडियों  की एक जमात महापात्र कहलाने लगी जो ऐसे कर्मकांडों में श्रद्धा (?) से दिए जाने वाले सामानों का एक बड़ा हिस्सा हथियाने को हर हथकंडा अपनाते हैं!इसलिए हमारे समाज में महापात्र ब्राह्मणों को हेय दृष्टि से देखा जाता है  ...श्राद्ध का अर्थ ही है जो श्रद्धा से किया जाय या दिया जाय ...मगर महापात्र तो सब कुछ छीनने पर उतारू रहते हैं! मुझे अपने एक पड़ोसी की याद है जिनके पिता जी कोई ९५ वर्ष पर दिवंगत हुए ....अब उनसे श्राद्ध के कर्मकांडी महापात्र  ने अनुष्ठान के समय इतनी उठक बैठक  कराई कि उन्होंने हाथ जोड़ दिए और महापात्र से विनती की कि उसी समय उनका भी श्राद्ध कर दिया जाय:) 

मृत्यु से जुडी एक और लोक परम्परा है और इसे भी सदियों से समाज ने एक अनुष्ठान का रूप दे दिया है .....किसी स्वजन के मृत्यु के उपरान्त बड़े विस्तृत और लम्बे समय तक स्त्रियों के रोने के प्रदर्शन का ....इसे हमारे यहाँ 'कारण कर कर के रोना' कहते हैं और यह बड़े अंचल में प्रचलित है ....स्त्रियाँ  बहुत सी संगत  असंगत  बातों को रोते हुए कहती जाती हैं -मृतक को कई उलाहने भी देती है जो मृतक के प्रति उनकी घनिष्टता के स्तर को दर्शाती हैं ....ऐसा रुदन अनुष्ठान दूसरे विछोह के अवसरों पर भी होता है ..जैसे जब कोई लडकी विवाहोपरांत पिता का घर छोड़ के पहली बार  विदाई पर ससुराल जाती है -तब भी वह जिस किसी को देखती है कई कई बातें कहकर एक ख़ास रोने की शैली अपनाती है ..कई बार तो मुझे यह बड़ा हास्य मूलक भी लगता है...अब जैसे विदाई के वक्त किसी भी अड़ोसी पड़ोसी को देखकर रोजमर्रा की दिनचर्या का कोई प्रसंग छेड़ देना ..अब कब कौन गाय को भूसा देगा या भैंस का दूध दुहने में उसकी मां या बापू का  मदद करेगा अदि आदि ....मगर ये लोक प्रथाएं है और किंचित भी किसी तरह की अपसंस्कृति नहीं ....इसलिए हमें इनके प्रति एक सहिष्णु भाव रखना पड़ता है भले ही इनको लेकर थोड़ी हंसी ठिठोली हो जाय!


 अपने प्रिय ब्लागर डॉ. अमर कुमार के अवसान पर भी ऐसी कतिपय पोस्टों को  मैं इसी विधा-परम्परा  में मानता हूँ और उनका भी सम्मान करता हूँ! काश वे मेरी इस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी दे पाते ......


27 टिप्‍पणियां:

  1. किसी प्रिय के जाने पर दुःख और शोक होना तो स्वाभाविक है । लेकिन समय के साथ सब्र भी करना पड़ता है ।
    आफ्टर ऑल , लाइफ हैज टू गो ओन ।
    पुरानी रीति रिवाजों में बहुत सी खामियां थी । अधिकतर पंडितों द्वारा बनाई गई थी अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए । आज भी बहुत से लोग पंडित के कहने पर चलते हैं और तरह तरह के उचित अनुचित अनुष्ठान करते हैं ।

    लेकिन सच यही है कि जीवित इन्सान के साथ ही जिंदगी के मायने हैं । बाद में तो बस यादें ही रह जाती हैं । और यादों में रहते हैं मनुष्य के किये कर्म --अच्छे या बुरे ।

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  2. बस शायद ऐसा ही कुछ होता है कि हम किसे किस तरह याद करते हैं, उसकी कमी किसे क्‍यों खलती है.

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  3. मैं इसी विधा-परंम्परा में मानता हूँ

    आप जरूर ऐसा मानें....पर मुझे ऐसा नहीं लगा...कि किसी परम्परा का वहन किया जा रहा है...जब कोई चला जाता है...तो उसके बारे में...उसकी याद में...उस से सम्बंधित बातें करने की इच्छा होती है.....और ब्लॉग में पोस्ट लिख कर ही ये किया जा सकता है..

    कई उदहारण दे सकती हूँ...जब किसी के सम्बन्ध में बात करने की इच्छा होती है तो पोस्ट लिखी जाती है...पर यहाँ कुछ भी और लिखने की ना तो इच्छा है ना ही उचित लग रहा है लिखना...

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  4. काश उनकी जैसी टिप्पणी मुझे लिखनी आती होती तो आज आपकी पोस्ट पर डॉ अमर कुमार की तरफ से अवश्य जवाब देता ...
    :-(

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  5. आपके लेख की अंतिम पंक्ति को पढ़ कर अपने लेख पर डॉ अमर की दी गई एक टिप्पणी याद आ गई...जस का तस रख दिया यहाँ ....
    "चेतन जगत को लेकर कुछ ऎसे ही ख़्यालात मेरे भी हैं..पर मृत्यु के बाद क्या और कैसे होगा.. यह नहीं सोचता । मूँदहू आँख कतऊ कछु नाहीं... कौन अपना जिया जलाये जिस तरह परिजन चाहें.. क़फ़न दफ़न करें, कुछ तो करेंगे ही, दुनिया को दिखाना होता है...वैसे न भी कुछ करें मृत प्राणी को क्या फ़र्क़ पड़ता है, जिन्दा में घात प्रतिघात..मरने पर दूध भात !"
    आख़िरी नींद की तैयारी

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  6. किसी रिश्तेदार की मृत्यु पर घूंघट निकाल महिलाओं का रुदन और फिर एक दम से चुप होकर इधर -उधर की बातें करने लग जाना हमेशा दुखद आश्चर्य में भरता रहा है , शायद इस तरह चिल्लाना या रोना उनके भीतर के दुःख या घुटन को को कम करता है !
    लोकाचार के ये नियम शोकसंतप्त परिजनों के दुःख को कम करने या उस दुःख से ध्यान बँटाने के लिए तय किये गये होंगे ,जो कालांतर में रुढियों में बदलते गये .

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  7. अपनों की याद भी आती है, उनकी कमी भी महसूस होती है।

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  8. परिचित हूँ ...काश हम लोग कुछ अंध परम्पराओं को निर्वाह न करने की हिम्मत जुटा पाते ...पर बहुत भावुक क्षण होते है वे जब हम अपने बुजुर्गों की बातों को नकारते हैं ...(कोशिश तो की है कुछ हद तक..शायद आगे न हो वो)
    रही बात डॉ.अमरकुमार जी के अवसान पर आई पोस्टॊं की... ये परम्परा आप भी निभा गए..

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  9. अनुष्ठान इस बात का परिचायक है कि आत्मा रहती है मृत्यु के बाद भी।

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  10. मनुष्य जब सोचने का काम आउटसोर्स कर देता है तो अनुष्ठानों में जा फंसता है...

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  11. मेरे पूज्य काकाजी 11 अगस्त को हरि शरण को प्राप्त हुए। उन के तेरह दिनों के दरम्यान अपने संस्कार और लोक रीतियों को एक बार फिर से क़रीब से देखना का मौक़ा मिला। जाती हुई, विद्यमान स्थापित और नेतृत्वातुर पीढ़ी के विचार भी सुनने को मिले। रीति रिवाज़ कुछ समय के साथ बदलते रहते हैं। यहाँ कुछ समय का तात्पर्य कम से कम कुछ दशकों से होता है।
    संस्कार हमारे रक्त में हैं, जब हम अपने पूर्वजों के संस्कार नहीं मान रहे होते हैं तब भी हम किसी और सभ्यता को फॉलो कर रहे होते हैं। फॉलो करना हमारा स्वाभाविक गुण है। बेहतर हो, यदि हम अपने संस्कारों को ही समय के साथ परिमार्जित करते चलें।

    हमें अपने पूर्वजों को अवश्य याद रखना चाहिए। हर जीवन अपने जीवन काल में बहुत कुछ अर्जित करता है, उस के इस अर्जन से हम विविध प्रकार से लाभान्वित हो सकते हैं।

    रोना धोना - संबन्धित परिवारी जनों को सामान्य प्रक्रिया में लाने का एक जरिया है, बस इस की अति नहीं होनी चाहिए।

    कर्म काण्ड - बारीकी से देखे बिना इसे समझना वाक़ई दुष्कर है। पक्ष और अपक्ष हर पहलू के होते हैं।

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  12. स्वजन का बिछोह हमेशा ही दुःखदायी होता है और चिरकालिक भी.किसी के भी जाने के बाद हम उसे उसकी सूरत से नहीं सीरत से याद करते हैं.उसके क्रियाकलाप उस समय हमें चाहे खटकते भी रहे हों,पर उसी 'संताप' को हम याद करके ज़ार-ज़ार रोते हैं .उसकी'खट्ठी-मीठी' झिडकियों को हम तरसते हैं.
    हम अपने घर में किसी बुजुर्ग को भी तभी ज्यादा तरजीह देते हैं या उसकी उपयोगिता समझते हैं जब वह हमारा साथ हमेशा के लिए छोड़ जाता है.
    रही बात इस रोने के तौर-तरीकों की ,तो मन के भाव जिस प्रकार भी उमड़कर आँसू बनकर निकल जाएँ,मन हल्का हो जाता है.हमारे समाज में स्त्रियाँ सबसे नाजुक और उदार होती हैं सो रोने के मामले में भी वह परिलक्षित होता है.ऐसा नहीं है की पुरुष रोते नहीं हैं मगर वे इसे प्रकट करने के बजाय आत्मसात कर लेते हैं क्योंकि पुरुष के रोने पर शेष परिवारीजनों को कौन संभालेगा?
    मृत्योपरांत होने वालों कर्मकांड पर डॉ. अमर के 'बैसवारा' में एक 'मसल' (कहावत) प्रचलित है,"जिए न देहेन कौरा,मरे बंधायेन चौरा".
    फिर भी, जो भी अनुष्ठान होते हैं वे हमारी संस्कृति के अंग हैं और आवश्यक भी !

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  13. Its from pre-historic ages human beings perform some rituals or processes upon death... every religion or culture have differences in the process but ultimate aim of each one of them is the Peace of departed soul.

    Whether we have after-life or not, it doesn't matter coz the person who had spent the life with us those moments r imp.

    Rest..
    Life goes on as it never ends
    Eyes of stones observe the trends
    they never say
    forever gaze :)

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  14. सम्वेदना से भरी और भावुक मन से लिखी गयी पोस्ट
    मृत्युलोक में आवागमन से हम मुक्त नहीं हो सकते जाने वालों की स्मृतियाँ ही हमारी धरोहर हो जाती हैं

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  15. सम्वेदना से भरी और भावुक मन से लिखी गयी पोस्ट
    मृत्युलोक में आवागमन से हम मुक्त नहीं हो सकते जाने वालों की स्मृतियाँ ही हमारी धरोहर हो जाती हैं

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  16. किसी के निधन पर उससे भावनात्मक जुड़ाव ही उसकी कमी महसूस कराता है ,परन्तु श्मशान-वैराग्य से अगर उबर न पायें तो जीवन जी पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा ......

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  17. यक्ष प्रश्न का जवाब जानते हुये भी अगर इंसान उसे भूलने की भूल ना करे तो फ़िर जीयेगा कैसे? अपनों से बिछदने का दुख तो सालता ही है. और कबीर सदियों में एकाधा पैदा होता है. अफ़्सोस अब कबीर की टिप्पणी के लिये हम सब तरसते रहेंगे.

    रामराम.

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  18. यह परम्पराएँ लोकजीवन में इतनी आबद्ध हैं ,इनसे दूर नहीं जाया जा सकता.

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  19. किसी परिजन के जाने पर दुखी होना स्वाभिक है मगर कब तक , समय के साथ सब सामान्य हो जाता हैं | अच्छा आलेख

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  20. सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं। परंपराओं का सकारात्मक पक्ष भी है। पूरा कुनबा इस अवसर पर चाहते न चाहते हुए भी इकठ्ठा हो जाता है। किशोर वय के बच्चे तो ऐसे ही अवसर पर जान पाते हैं कि वो मेरे फलाने मामा के लड़के हैं तो मेरे भैया ही हैं या ऐसे ही कई गुम रिश्ते...

    घर के बुजुर्ग की मृत्यु पर होने वाले इस कर्मकाण्ड में पूरे कुनबे के जुड़ने से कई त्वरित समस्याओं का तुरत निदान संभव हो पाता है।

    लोभ और अज्ञानता ऐसे समय कष्टकारी वातावरण भी उत्पन्न कर देते हैं। यह हम पर है कि हम उनसे कैसे निपटते हैं।

    डा0अमर जाने के बाद भी आपको गहरे विचारों में गोता लगाने के लिए बाध्य कर रहे हैं इससे तो यही सिद्ध होता है कि कुछ बात तो थी अगले में...!

    वैसे एक और परंपरा है कि जब तक घर में बुजुर्ग
    जीवित हैं हम उन्हें कोसते रहते हैं। ज्यों ही गुजर जाते हैं एक दूसरे से कहते फिरते हैं...बड़े अच्छे आदमी थे!

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  21. मन फूला फूला फिरे जगत में झूंठा नाता रे ,
    जब तक जीवे माता रोवे ,बहिन रोये दस मासा रे ,
    तेरह दिन तक तिरिया रोवे फेर करे घर वासा रे .आजकल तो जीते जी ही माँ बाप का श्राद्ध हो लेता है .निस्संग भाव जीवन आगे बढ़ता है परम्पराएं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी यहीं हैं लेकिन आजकल शोक भी डिजिटल हो चला है .तीसरे दिन सब कुछ एक साथ संपन्न हो लेता है .
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

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  22. कई परंपरायें क्यों बनी कैसे बनीं इसका कोई सटीक उत्तर नहीं मिल सका है और यही वजह है कि हम उनमें से कई ज्यों के त्यों ढोते रहे हैं। लेकिन समय के साथ काफी बदलता जा रहा है। महापात्र वालों के बारे में तो मैंने भी सुना कि बडे निर्दयी होते हैं, बेमुरब्बत वसूलते हैं।

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  23. आपने इस पोस्ट में भोज का उल्लेख किया ही नहीं. कैसे समाज में इस श्राद्ध कर्म की होड़ को प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है. जितने व्यंजन उतनी प्रतिष्ठा.चाहे दिवंगत की मृत्यु सही भोजन न मिलने के कारण क्यूँ न हुई हो. फिर दबे स्वरों में एक दूसरे तक मृत्यु के पहले का सारा राज़ पहुँचाना...बहुत सारी ऐसी ही बातें मैंने भी बहुत करीब से देखा है.वसे कुछ लोग परंपरा तोड़ने की पहल भी कर रहे है.जैसे महापात्र के स्थान पर जरुरत मंद गरीबों को यथा सामर्थ्य दान व भोजन कराना . इससे जुडी बहुत सारी बातें हैं जो सोचने को विवश करती है.

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  24. किसी मृतक के प्रति अपने जुडाव को दर्शाने के विभिन्न माध्यम हैं. सोशल नेटवर्किंग में बनने वाले संबधों को अभिव्यक्ति देने का भी एक पृथक माध्यम विकसित हो रहा है.

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  25. जीवित इन्सान के साथ ही जिन्दगी का अर्थ है जीवित आदमी को जितना सुख पहुंचा सकें हम पहुँचायें बाकि मरणोपरांत तो सब श्रध्दा पर निर्भर है ।

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  26. वास्तव में शाश्त्र अधिकतर संस्कृत में लिखे गए ,व कुछ तथाकथित पंडितों या माहपात्रो ने इस भाषा को साजिशन सीमित लोगों तक रखा.इस कारण शास्त्र एक पहेली बने रहे ,जिस का गलत अर्थ समय समय पर हर कोई आपने अनुसार लगाता रहा. आप यकीन कीजिये ,वेद-पुराणों में लिखी कोई भी बात ,शास्त्रों में वर्णित कोई भी नियम बेमतलब या बेतुका नहीं है.बस उस पहेली को सुलझाने में हम से भूल हो रही है.अर्थ का अनर्थ हो रहा है.एक उदाहरण के रुप में देखें कि "बच्चे को कमरे में बंद रखा गया "को लिखावट कि गलती से "बच्चे को कमरे में बंदर खा गया,"यदि पड़ लिया जाय तो कैसा अनर्थ हो जाता है. बस यही कुछ हिन्दु परंपराओं के साथ हो रहा है जी

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