तुलसी को मनोयोग से बार बार पढना किसी भी अनिर्वचनीय आनंद से कमतर नहीं है . मानवीय सरोकारों -संवेदना के अगाध अकूत पूर्ववर्ती साहित्य का अवगाहन आप न भी करें, केवल तुलसी को तन्मयता से पढ़ लें तो समझिये बाकी के न पढ़ पाने की कसर पूरी हो जायेगी ..इसलिए कि इस युग द्रष्टा रचनाकार ने सामाजिक -सांसारिक सरोकारों पर अपने पूर्ववर्ती साहित्य का श्रेष्ठतम निचोड़ अपने रचना लोक ,खासकर मानस में समाहित करने का प्रयास किया है ...मैंने देखा है कि तमाम रंगरूट बुद्धिजीवियों को जिन्हें तुलसी का उत्तरवर्ती, पाश्चात्य साहित्य -फ्रायड ,डार्विन और मार्क्स की लेखनी ऐसी व्यामोहित करती है कि वे विचार विमर्श के अनेक शाश्वत मुद्दों पर बस वहीं गोल गोल जीवन भर घूमते रह रह जाते हैं ...माना कि इन महान शख्सियतों को पढना प्रगतिशीलता का तकाजा है और सामयिकता के लिहाज से जरूरी भी मगर अपनी पृष्ठभूमि से जुड़े पूर्ववर्ती संदर्भों से कटकर हम चिंतन के एक विराट अविच्छिन्न अतीत से पृथक हो रहते हैं ...मैं बार बार बहुत आग्रह -अनुरोध के साथ उस वर्ग से जिसे पढने लिखने में अभिरुचि है यही आह्वान करूंगा कि विश्व वांगमय के सकल अवगाहन के साथ ही तुलसी को उपेक्षित न करें ...कम से कम मानस को एक बार स्थिर मन से पढ़ तो लें ... फिर तो मन भौरे की तरह वहीं पहुंचेगा बार बार ...मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे ....
चित्रकार के मन - मानस के तुलसी
भारतीय साहित्य और लोक मानस में तुलसी का अवतरण किसी चमत्कार से कम नहीं है ..उनका पदार्पण ऐसे वक्त हुआ जब जनमानस अनेक सांस्कृतिक संघातों,झंझावातों से गुजर रहा था ..अनेक मत मतान्तरों का बोलबाला था ...कबीर की ललकार -जो घर छोड़े आपना चले हमारे साथ लोगों में जीवन के प्रति विरक्ति भाव का संचार कर रही थी ..आस्था पर अनास्था की चोट दर चोट हो रही थी ...ऐसे मे ही तुलसी प्रादुर्भूत होते हैं ..उन्होंने मानस की रचना जीवन के साठवें वर्ष में आरम्भ की ..कहते हैं साठा सो पाठा ..उन्होंने खूब स्वाध्याय और जीवन के स्वानुभूत अनुभवों से गुजर कर मानस प्रणयन की जिम्मेदारी संभाली ...जो सबसे खास बात तुलसी की है वह उनकी विनम्रता है -जहां कबीर यह कहकर कि मसि कागद छुयो नहीं एक दर्पभरा हुंकार करते हैं तुलसी कह देते हैं ..कवि विवेक एक नहि मोरे सत्य कहऊँ लिख कागज़ कोरे .....वे अपनी मूढ़ता लिखित तौर पर स्वीकारने को तत्पर दीखते हैं ...तनिक आज के कवि जनों को देखिये ...
तुलसी ऐसे समय जनोन्मुख होते हैं जब मत मतान्तरों ,सम्प्रदायों के चाल कुचाल में जनता जनार्दन भ्रमित सी हो रही थी ...विदेशी आक्रान्ता कहर ढा रहे थे...नाथों ,सिद्धों ,दंभी निर्गुनियों और पंच मकारी पाखंडियों के आचरणों से चारो ओर अश्रद्धा और अविश्वास का माहौल था-बौद्ध धर्म तिरोहित हो चला था मगर उसका शेष प्रभाव जनमानस पर था -लोग वेद विहित आचरण को लेकर आलोचनात्मक हो गए थे-कहीं सूफी मत प्रभाव जमा रहा था तो दूसरी ओर तरह तरह के ज्ञान पंथ अपने दम्भपूर्ण आचरण से लोक जीवन की सांस्कृतिक थाती पर निरंतर आघात कर रहे थे-ख्नंडनात्मक वृत्ति मुखर थी - हर ओर टूटन ,क्षरण ,बिखराव और आस्था के आयामों का दरकना ! -इसी बीच तुलसी आये और सगुण राम के आदर्श के बहाने लोगों में जीवन ,समाज के प्रति आस्था और जिम्मेदारी की भावना का संचार किया -रामराज्य के एक सर्वतोभद्र फार्मूले को भी ला सामने किया जो आज भी एक राजनीतिक अजेंडा है.और मानव सभ्यता के वजूद तक रहेगा!
तुलसी ने खल वंदना भले की हो मगर उघरहिं अंत न होहि निबाहू कहकर दुष्टजनो को उनकी औकात भी बतायी ...समाज में मूल्यों की स्थापना -संत साधुओं का आदर ,पारिवारिक मर्यादा ,सामाजिक अनुशासन ,लोकमंगल की चाह उनके कृतित्व के मूल भाव हैं -सर्वव्यापी हो रहे म्लेच्छों /राक्षसों के अनाचार और अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़े होने का मूल मन्त्र देकर उन्होंने लोक जीवन को असहायता और क्लैव्यता से बचा लिया -साहित्य भी रचा तो जनभाषा में ,ठेठ भदेस अवधी में जबकि संस्कृत को ही विद्वता का परिचय माना जाता था -उन्होंने कहा ,भाषा भनिति भूति भल सोई सुरसरि सम सबकर हित होई ..फिर जिस भी भाषा में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का नाम हो वही श्रेष्ठ बन जायेगी!आज तुलसी जयन्ती की पूर्व संध्या पर इस युगद्रष्टा महाकवि को श्रद्धा सुमन!
सुन्दर आलेख! एक प्रश्न, क्या खल वन्दना एक व्यंग्य है या उस समय वे सचमुच प्रभु की अच्छी बुरी सभी कृतियों (मानवों) की वन्दना कर रहे हैं?
जवाब देंहटाएं@अनुराग जी ,
जवाब देंहटाएंवेद पुराण वशिष्ठ सुनावहिं राम सुनहिं यद्यपि सब जानहिं -
..तो सुनें आर्य ...
सृष्टि तो राम रचि राखा ही है -लेकिन सज्जन और दुर्जन के गुण दोष का वर्णन उनके विभेदन के लिए करना ही था न ....
लेकिन अंततः सीयराम मय सब जग जानी करहूँ प्रणाम जोर जुग पाणि....
तुलसी को खल जनों ने कुछ कम पीड़ित तो किया नहीं था ...और हाँ कटाक्ष तो स्पष्ट ही है !
तुलसी महान युगद्रष्टा थे,मानस कि पंक्तिया कभी भी असामयिक नहीं होगी. खल जनो के बारे में लिखी गयी हमेशा निम्न पंक्तिया आज भी उतनी ही सामयिक है.
जवाब देंहटाएं'काटाहि पर कदली फले कोटि जतन कोऊ सीच , विनय ना मन खगेश सुनु डाटेहि पर नव नीच.'
मैं अधिक नहीं जानता बस इतना जानता हूँ कि तुलसी रचित 'राम चरित्र मानस' आज भी लाखों-लाखों का पेट भरती है. क्या है कोई दूसरा ऐसा ग्रंथ जो मानसिक भूख मिटाने के साथ-साथ उदर पूर्ति में भी इतना सहायक हो ?
जवाब देंहटाएं..उम्दा पोस्ट.
रामचरितमानस पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है। अतुलनीय है।
जवाब देंहटाएंमेरे पिता नित्य रामचरितमानस का पाठ किया करते थे. मैंने उनकी याद में उनकी ही पुस्तक को पढना आरंभ किया. यह महाकाव्य जीवन के हर हिस्से को छूता है और हमें सही राह दिखलाता है. बाल कांड में तुलसी दास जी के द्वारा की गयी खल वंदना को ही लें. ये वंदना नहीं बल्कि नकारात्मक शक्तियों की ताकत को स्वीकारना भर है की हाँ ये शक्तिया वास्तव में अनिष्ट कर सकती हैं. इन्हें अनदेखा करना या इनका तुष्टिकरण ठीक नहीं.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लेख.
अरविन्द मिश्र जी और (विचार) पाण्डेय जी, आप दोनों का आभार!
जवाब देंहटाएंअत्यंत चिंतनपरक प्रविष्टि ! क्या यह संभव था कि बाबा के अवदान के बिना लोकजीवन में श्री राम की प्रतिष्ठा वही होती जो आज है ? मेरे ख्याल से कबीर और तुलसी में कुछ बाते एक जैसी हैं जैसे दोनों ही ईश्वर विरोधी नहीं हैं पर पाखंड के विरोधी हैं ! यद्यपि कबीर का ईश्वर अपनी निर्गुणता के चलते जनमानस के लिए सहज स्वीकार्य नहीं हो सका पर तुलसी नें ईश्वर को जनसामान्य की स्वीकार्यता के अनुकूल गढ़ कर प्रस्तुत किया !
जवाब देंहटाएंआश्चर्यजनक बात ये कि दोनों ही जन बोली के पैरोकार हैं पर...कहन की दृष्टि और ईश्वर की लौकिक / दैहिक उपस्थिति की दृष्टि से दोनों के पक्ष का जनमत संतुलन स्वयमेव निर्धारित हो जाता है !
बहुत ज्ञानवर्द्धक लेख ....तुलसी जयंति पर शुभकामनायें ..
जवाब देंहटाएंयदि तुलसी ना होते तो राम राम भी ना होते
जवाब देंहटाएंBahut Hi bhadiya aalekh ke liye dhanywaad. Mahakavi ka mahakavya har yug me prasngik hi rahega.
जवाब देंहटाएंHappy Independence Day.
तुलसी और रामचरितमानस पर जितना भी लिखा जाए कम है ...कुछ असहमित होते हुए भी ...अब हम तो ऐसे ही दुष्ट हैं ...कभी-कभी अपने भगवान् से भी असहमति दिखा देते हैं ...
जवाब देंहटाएंतुलसी की खल वंदना एक तरह से गुब्बारे को फुलाना और फिर उसमे सुई चुभो देना जैसा ही है ...ये उपमा मेरी अपनी नहीं है ...उधार ली है ...
बेहतरीन प्रविष्टि के लिए बहुत आभार ...!
गोस्वामी तुलसीदास जी को सादर नमन।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।
राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।
तुलसीदास का रामचरितमानस एक चमत्कार था/है. इसमें मेरा दृढ विश्वास है. उनके स्वयं की अन्य रचनाओं से भी तुलना नहीं की जा सकती. अतुलनीय कृति है.
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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ !
विचार शून्य और वाणी गीत ने बहुत कुछ कह दिया है। धीरू जी ने तुलसी द्वारा रामकथा के प्रसार की ओर ध्यान दिलाया है।
जवाब देंहटाएंआप ने तो उस युग का सारांश ही प्रस्तुत कर दिया है।
बाबा रसिया भी थे - कालीदास और श्रीमद्भागवत का अध्ययन उनकी रचनाओं में झलकता है। शृंगार को दाम्पत्य और परिवार के सहारे उन्हों ने वह उदात्तता दी जो दुर्लभ है। वाल्मीकि के यहाँ भी प्रकरण हैं लेकिन तुलसी के यहाँ एक बड़ा भाई छोटे भाई से प्रेम के पहले प्रस्फुटन का कैसे वर्णन करता है! कुछ भी नहीं खटकता।
नाद, संगीत और शब्दों का चयन देखिए:
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि
कहत लखन सन राम हृदय गुनि
मानहूँ मदन दुन्दुभी ....
पूरा प्रसंग ही दिव्य हो जाता है।
और फिर वह विरह। वही छोटा भाई है।महाप्राण ध्वनियों के प्रयोग और परिवेश के चित्रण द्वारा तुलसी 'काम' को लेकर दो भाइयों के बीच हुए वार्तालाप को घनघोर मध्यकाल में प्रस्तुत करते हैं:
घन घमण्ड गरजत ... प्रियाहीन तरफत मन मोरा।
बाबा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। मुझे इसलिए प्रिय हैं कि तमाम दिव्यता आरोपण के बावजूद अपने पूर्वग्रह और मान्यताओं के साथ 'आम मनुष्य के विशिष्ट' बन कर सामने आते हैं। वह शायद इसीलिए जनकवि हो गए।
@भाई ,इस महाकवि के चरण के कुछ रज - पराग ही ग्रहण कर सका और यहाँ अर्पित कर पाया ...
जवाब देंहटाएंमानस की चर्चा तो आगे ही है और अभी तो अगली कड़ी मर्यादा पुरुषोत्तम पर है ...दिल बैठ रहा है क्या लिखूंगा ,कैसे लिखूंगा ?
रामचरितमानस एक अद्भुत नृत्य है। सहस्त्र वर्षों से यह असंख्य घरों में स्वयं ईश्वर की ही भांति सुसज्जित-संरक्षित है। आज भी,विविध प्रकरणों में रामायण की चौपाइयों को उद्धृत करने से यही संकेत मिलता है कि यह महज एक ग्रंथ नहीं,हमारी जीवन-शैली का हिस्सा भी है। समझा जा सकता है कि जब कृति का स्वरूप इतना विहंगम है,तो कृतिकार का अंतस् कितना विराट् रहा होगा।
जवाब देंहटाएंमानस का काव्य सौन्दर्य ! जब भी मानस का पाठ करता हूँ, शब्द-शब्द के बाद; चरण-चरण के बाद रूककर गोस्वामी जी के शब्द-चयन, उपमा-चयन, उनके काव्यशास्त्र का आनन्द पाकर आनन्द-विभोर हो उठता हूँ।
जवाब देंहटाएंमहाकवि को शत्-शत् नमन !!
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जवाब देंहटाएंwww.hummingwords.in
तुलसी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंपोस्ट और टिप्पणियों दोनों से ज्ञानवर्धन हुआ।
जवाब देंहटाएं@ वाणी गीत जी's comment -
अब हम तो ऐसे ही दुष्ट हैं ...कभी-कभी अपने भगवान् से भी असहमति दिखा देते हैं ...
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वाणी जी, मैं भी इस तरह की दुष्टता अक्सर करते रहता हूँ....क्योंकि जो आनंद भगवान के साथ दुष्टता करने में मिलता है वह और किसी के साथ दुष्टता करने में नहीं :)
इसी तरह की बात गिरिजेश जी के एक पोस्ट पर मैंने कहा था कि - अपने ईश्वर को बुरा भला कहते पोस्ट भी लिखता हूँ…..कभी उन पर व्यंग्य गढ़ता हूँ तो कभी उन्हें कुछ न करने के लिए आलसी भी ठहराता हूँ…....और फिर मैं ईश्वर को खुशी खुशी अपने भोजन में से भोग भी लगाता हूँ….
ऐसी दुष्टता का आनंद भला कौन छोड़ना चाहेगा :)
पंडित जी! यह ग्रंथ हमारे समाज में देवताओं के समान पवित्रता का स्थान रखता है... आपकी विवेचना भी उसी पवित्रता को अक्षुण्ण रखती है... नमन आपको भी जो इस अमृत वर्षा में भीजने का अवसर प्रदान किया!!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर बेहतरीन पोस्ट। बधाई।
जवाब देंहटाएंतुलसी दास के चंदन घिसने का प्रतिफल है मानस, प्रत्येक रघुवीर का तिलक.
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्द्धक आलेख
जवाब देंहटाएंअक्सर पूर्ण सुकून रामचरित मानस के पाठ से ही मिलता है...प्रसिद्द लेखक 'नरेंद्र कोहली ' ने अपनी एक संतान खोने के बाद उस दुख से उबरने के लिए इस ग्रन्थ का पठन शुरू किया और इतना रम गए कि कालजयी रचना कर डाली .
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जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख है
जवाब देंहटाएंह्रदय से धन्यवाद देता हूँ
ये लाइनें मुझे अच्छी लगीं
@मैंने देखा है कि तमाम रंगरूट बुद्धिजीवियों को जिन्हें तुलसी का उत्तरवर्ती, पाश्चात्य साहित्य -फ्रायड ,डार्विन और मार्क्स की लेखनी ऐसी व्यामोहित करती है कि वे विचार विमर्श के अनेक शाश्वत मुद्दों पर बस वहीं गोल गोल जीवन भर घूमते रह रह जाते हैं
(विचार) पाण्डेय जी की टिपण्णी भी ज्ञानवर्धक है
आप दोनों का आभार और स्वतंत्रता दिवस + तुलसी जयंती की शुभकामनायें