गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बोलो सियावर रामचंद्र की जय .....कबीर तुलसी श्रीराम त्रयी और मानस का बोनस -3

..राम के नाम से जन जन में जाने गए उस महा मानव को एक अकिंचन संबोधन यह भी  ...
मैंने भी खूब तलाशा, ढूँढा आखिर हैं कौन राम ? भले ही कबीर दादा ने मना कर दिया था -कस्तूरी  कुंडल बसे मृग ढूंढें वन माहि ऐसे घट घट राम है दुनिया जानत नाहि ..मगर मूर्ख हृदयों को कहाँ चेत ...फिर भी लगा ढूढ़ने राम को ...कब हुए  होंगे राम ? हुए भी होंगें या नहीं ? क्या बस एक मिथक हैं राम ? इतना विराट मिथक जो दिक्काल के  इतने अपरिमित  परिमाप को समेटे हुए है ?..भारत ही नहीं बाली सुमात्रा सिंगापुर पेरू और कितने और देशों तक भी  राम का प्रताप जा पहुचा है -करोड़ों लोगों की दैनन्दिनी से सीधे जुड़े हैं राम ....जन्म के सोहर से मृत्यु की शैया तक राम राम ....मिलो तो राम बिछड़ो तो राम ...घृणा भी ,हिकारत भी राम राम से ... .बस केवल एक राम सत्य हैं बाकी सब मिथ्या ...आखिर हैं कौन राम ? 

कभी कभी लगता है जब से मनुष्य में सत्य और चेतना की कौध आई तभी से राम का आविर्भाव हो गया ....सिन्धु घाटी की लिपि नहीं पढी जा सकी ....वेदों में दाशरथि राम का जिक्र है ,सीता का भी है ...मगर उन्हें देवत्व प्राप्त नहीं है ....देवत्व उन्हें तब भी प्राप्त नहीं है जब वे आदि काव्य रामायण के नायक बनते हैं ..वे पुरुष श्रेष्ठ है ,नरोत्तम हैं ....मगर ब्रह्म नहीं हैं ....उन्हें तो ब्रह्म का दर्जा देते हैं कबीर और बाद में तो तुलसी उन्हें सगुण ब्रह्म का स्वरुप दे जन जन के लिए  प्रणम्य बना देते हैं ..मगर राम अगर ब्रह्म रूप में न भी .होते तो भी वे जन जन के प्राण होते ..उन्हें देवत्व प्रदान किया जाना देवत्व का सम्मान है ...ब्रह्म राम से संपृक्त हो एक अगम्य निर्वैयक्तिक विचार से सहसा ही सबके लिए सुगम बन जाता है ...अगुनहि सगुनहि नाहि कछु भेदा..
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 मुझे नहीं लगता कि राम बस मनुज कल्पना की एक  मंजु मूर्तिमान स्वरुप   हैं ..उत्तर से दक्षिण की ओर आर्यों का प्रवास हुआ है ....अब रावण अनार्य था और राम आर्य -मैं इस मीमांसा  में नहीं जाना चाहता ...मगर यह तो सत्य है कि हमारी विरासत राम की ही दी हुई है ..आज कथा सूत्रों के साथ भौगोलिक विवरणों का मेल करें तो वे सारी जगहें , सारे परिवेश अपने विस्तृत  और सूक्ष्म दोनों पैमानों  पर पग पग पर विद्यमान है ..अयोध्या से तमसा , संद्यिका (सई ) , गंगा ,यमुना ,चित्रकूट ,नासिक -दंडकारण्य  ,रामेश्वरम और फिर एक समुद्री पगडंडी से होते हुए श्रीलंका तक राम -पथ  अविछिन्न रूप में दिखता है ...राम ने समुद्र सेतु का नव निर्माण न भी किया हो तो उसका जीर्णोद्धार तो किया ही है -ऐसा लगता है ...आज श्रीलंका इसी राम के पद चिह्नों पर चल अच्छी खासी मुद्रा पर्यटन  व्यवसाय से कमा रहा है ...क्या इन सारे तथ्यों को ठुकरा दिया जाय ? चलिए यह भी थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं ...मगर फिर राम भारतीय मनीषा में इतना आराध्य क्यों हैं ..पूज्य क्यों हैं अनुकरणीय क्यूं हैं ? 

राम पर चार काव्यों की चर्चा जरुरी है ...एक तो आदि काव्य वाल्मीकि विरचित रामायण ,दूसरा कालिदास कृत रघुवंश ,तीसरा भवभूति का उत्तर रामचरितम और चौथा तुलसी का राम चरित मानस ...रामायण से शुरू होकर मानस  तक राम की कथा एक महाकाव्यीय यात्रा कथा की पूर्ण.सम्पन्नता  की ही कथा  है जिसे लव कुश ने ही नहीं अनगनित लोगों ने स्वर संवर्धित किया ...राम को मानव से पूर्ण मानव ,पुरुषोत्तम राम और ब्रह्ममय राम तक बना दिया ..

वाल्मीकि पूरी नृशंसता के साथ राम के दोषों को उजागर करते हैं ..उनके बेटों तक से उन्हें धिक्कार कहलवाते  हैं - शाश्वत सतीत्व की मूर्तिमान  संज्ञा और पति की अनुगामिनी बने रहने वाली सीता का परित्याग ..? और वह भी एक अदने से आदमी के कह देने पर ? वाल्मीकि के साथ ही लोकमन राम के  इस कृत्य पर खिन्न हो उठता है ...कलिदास भी इस मुद्दे पर राम का साथ नहीं देते ..बस भवभूति  राम के इस नितांत वैयक्तिक पहलू को उभारते हैं ...क्या सीता के बिना राम का कोई अस्तित्व है -?? ..अंतर्साक्ष्य है कि नहीं ,कदापि नहीं ..-सीता के निर्वासन के साथ ही अयोध्या  श्रीं हींन  हो जाती है ..

टूटे शिथिल विरक्त  राम का विषाद उन्हें जनस्थान को ले जाता है जहाँ वन देवता का कवि मन  प्रसूत चरित्र  उनकी उसी पीड़ा को उभार कर जनोन्मुख करता है ...राम ने जो किया वह लोक समर्थन में किया ...एक अदने से व्यक्ति की बात नहीं ...पूरी अयोध्या उस तरह बिलख कर सीता निर्वासन को रोकने सामने नहीं आई जैसा राम के वन गमन के समय दृश्य उपस्थित हुआ था ...शायद  इसलिए भी कि राम की बात पलटती  नहीं थी -वही रघुकुल रीति आड़े आई ...इसलिए ही राम के आचरण का यह बड़ा धब्बा भी उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम की पदवी से रोक नहीं पाया क्योकि उन्होंने जो किया लोक मत के अनुसार किया ..किसको किसको सीता की सच्चरित्रता का प्रमाण देते फिरते ? लोक ने ऐसी अनुचित बात की ही क्यों ? असहाय से  धोबी विचारे पर तो लोगों ने सारा ठीकरा फोड़ दिया ..राम के गुप्तचरों की खबर थी कि घर घर में सीता के चरित्र की चर्चा है जैसा कि आज भी लोक मानस उसी मूढ़ता के साथ नारी को चरित्र का  सार्टीफिकेट बांटता फिरता है  ...यथा स्त्रीणाम तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनों जनः  .....(स्त्री के बारे में परिवाद फैलना ही लोगों का काम है ) लोकोपवाद से सीता को बचाने के लिए इतना बड़ा त्याग राम के अलावा कौन कर सकता था  ....फिर वे एक चक्रवर्ती राजा बन गए थे ....जिस जगह सीता रहीं वह उनके ही पर्यवेक्षण में ही  था ...सहज बुद्धि यह क्यों नहीं समझ जाती ...
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अब एक पोस्ट में राम के किस रूप को समेटूँ  - आज्ञाकारी पुत्र ,आदर्श भाई ,एकनिष्ठ दाम्पत्य को समर्पित आदर्श पति ,.एक श्रेष्ठ शासक ...यह अपौरुषेय कर्म है ...हाँ एक बात कह दूं, राम और सीता जैसी जोड़ी और उनकी देवोपम  सुन्दरता के इतने विवरण हैं कि लगता है जिसने इस युगल जोड़ी को देखा वह तो ठगा ही रह गया जिसने नहीं देखा उसका जीवन ही व्यर्थ चला गया ....यह भी एक पहलू है राजा  राम कथा का जिस पर चर्चा फिर कभी .....राम का जीवन त्याग त्याग और सर्वथा त्याग का है ,कड़े विधान नियमों में जीवन यापन  का है ....आज इसलिए भारतीय जनमानस में त्याग का बड़ा मूल्य है ....आप परिवार में , समाज में ,राजनीति में त्याग के उदाहरण तो दिखाईये ,फिर देखिये  जनता जनार्दन किस तरह आपको मानो राम का राज्य ही सौपने  को उद्यत हो जाती है ......
 राम सीता के भेष में थाई नर्तक नर्तकी 
मानस की इस चौपाई से सीता के प्रति राम की भावना -उदगार के साथ ही यह ब्लॉग पोस्टीय  रामांक पूरा करता हूँ -इनका ह्रदय एक दूसरे के प्रेम को जानता है ,सीता हर जन्म में राम की ही प्रिया बनने को आकांक्षी हैं ..कृष्ण रूप में वही राधा हैं ..जन मानस आज भी उन्हें अलग अलग कहाँ देखता है ....हर सुघड़ जोड़ी सीता राम की ही जोड़ी है ....राम सीता से कभी न अलग हुए और न कभी होंगे ......
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा ,जानत प्रिया एक मन मोरा 
सो मन  सदा रहत तोहिं पाहीं ,जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं
(मानस ,सुन्दर काण्ड :१४/६-७) 
सियावर रामचन्द्र की जय ....

44 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सियापति राजा रामचन्द्र की जय|
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  2. अरविन्द जी बहुत ही शानदार लेख लिखा है. बहुत बढ़िया....बेहतरीन.

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  3. सुंदर वर्णन....
    सियावर रामचन्द्र की जय ...

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  4. राम की महिमा तो खूब गाई गई है और गाई जा रही है। अब तो राजनैतिक कारण भी उस के साथ जुड़ गए हैं। लेकिन यह श्रावण मास तो केवल शिव-शम्भू को समर्पित है। पूरे वर्ष पूरे देश भर में शिव-शंकर के प्रति जो आत्मीयता और श्रद्धा दिखाई पड़ती है। उस से लगता है कि भारतीय देवताओं में भारतियों के मन की गहराई तक जिस देवता की पकड़ है वह शिव ही हैं। जरा इसे भी अपनी दृष्टि से प्रकाशित कर दीजिए।

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  5. बड़ा ही सुन्दर परिचय। बड़ा नया सा लगा पुनः राम चिन्तन।

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  6. हरी अन्नत हरी रूप अनन्ता....बहुत भड़िया रहा यह रामांक !
    धन्यवाद
    जय सिया राम जय जय राम
    मिले प्रभु राम जय जय राम !!

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  7. पंडित जी..हम तो डूब गए राम रस के साग्र में!

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  8. शायद आपने कभी नाम सुना हो
    "किंकर जी महाराज"
    उनका स्मरण हो आया
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    सुन्दर वर्णन
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    [यकीन करना मुश्किल है कि आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं]

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  9. बहुत सुन्दर लेख ...सियावर रामचंद्र की जय ...

    अच्छा विश्लेषण किया है ..

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  10. मनोहारी वर्णन है, धन्यवाद!

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  11. @दिनेश जी ,शिव तो अपने में एक सम्पूर्ण अलग प्रोजेक्ट हैं ...आप सही कहते हैं जन मानस में जितना शिव छाये हैं उतना कोई नहीं और यह चुनौती तुलसी के लिए जिनके उपास्य राम थे बहुत बड़ी थी ..फिर काशी तो शिव की ही त्रिशूल पर स्थित है ..मगर फिर कभी बाबा की प्रेरणा से ही उन पर कुछ लिखने की जुर्रत कर सकूंगा ..
    @प्रकाश जी ,इस मुए विज्ञान ने मानवता से बहुत कुछ श्रेष्ठ छीना भी है .....बात आप हमेशा मार्के की करते हैं !

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  12. राम पर आपका चिंतन बहुत अच्‍छा लगा !!

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  13. बढ़िया चिंतन है।

    @ मिलो तो राम बिछड़ो तो राम

    यदि इन शब्दों की बात करूँ तो गाँवों में रामरहारी आज भी उसी अंदाज में होती है जैसे कि जय राम जी की, राम राम भईया.....और जब शहर की बात हो तो वहां गुड मॉर्निंग और गुड इवनिंग व्यवह्रत है.....लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि आखिर में शहर वालों के लिए भी अर्थी के वक्त अंत समय में 'राम नाम सत्य है' कहा जाता है.....गुड यात्रा या Happy Journy नहीं :)

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  14. अरविन्द जी, द्विवेदी जी नें आपको नया प्रोजेक्ट दिया :)

    विज्ञान के विद्यार्थियों से कितनी नाउम्मीदियां पाल रखी थी प्रकाश जी नें :)

    एक बात ये सूझी कि राम के प्रति बाल्मीकि के व्यवहार की तुलना एक वैज्ञानिक से की जा सकती है या कि नहीं ? जोकि अपने महाकाव्य के नायक के बारे में, बिना लाग लपेट और पक्षपात के अपनी बात कहते हैं ,निर्पेक्ष से ! चरित्र को गढनें में कोई बाहरी / लोकजीवन और लोकप्रियता के लिये केवल अच्छा अच्छा जैसा दबाब भी नहीं ग्रहण करते !

    इस अर्थ में तुलसी केवल लोक जीवन के महाकवि शेष रह जायेंगे ! लेकिन गौर तलब ये भी है कि उनका रचना कर्म भी सोद्देश्य है स्रजनात्मक है जहां वे खन्डित होते जा रहे समाज को एक रस कर डालते हैं सो वे भी एक अलग तरह से वैज्ञानिक /इंजीनियर हुए शायद ?

    अब मैं कंफ्यूज हो रहा हूँ वैज्ञानिक्ता को लेकर ...

    मसलन सीता के निर्वासन को लेकर दोनो के पक्ष अलग अलग हैं और आप तुलसी के पक्ष में खडे है ज़रा स्थिति सुलझाइयेगा मैं अभी लौटता हूँ !

    एक विचार बिना टिप्पणी आपके लिये ...
    जाकी रही भावना जैसी...एक विरही की नजर से आपने सीता राम की जोड़ी को देखा - सीता के प्रति राम की भावना का प्रतिबिम्बन कहीं आपकी मनोदशा जैसा तो नही ?

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  15. अली सा ,तुलसी ने तो सीता निर्वासन प्रकरण को ही छोड़ दिया -बस यही कहा कि
    दुई सुत सुन्दर सीता जाए लव कुश वेड पुरानन गाये ..
    और हाँ मेरे मनोभावों की इतनी सूक्ष्म पकड़ -क्या मैं भी निर्वासित हूँ ?

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  16. कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
    ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥

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  17. सीता के परित्याग पर कुछ शंकाओं का समाधान करने की कोशिश ...
    हमारे लिए तो यही सही है कि
    राम से बड़ा राम का नाम ...!

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  18. "अब एक पोस्ट में राम के किस रूप को समेटूँ - आज्ञाकारी पुत्र ,आदर्श भाई ,एकनिष्ठ दाम्पत्य को समर्पित आदर्श पति ,.एक श्रेष्ठ शासक ...यह अपौरुषेय कर्म है ...हाँ एक बात कह दूं, राम और सीता जैसी जोड़ी और उनकी देवोपम सुन्दरता के इतने विवरण हैं कि लगता है जिसने इस युगल जोड़ी को देखा वह तो ठगा ही रह गया जिसने नहीं देखा उसका जीवन ही व्यर्थ चला गया ..."

    मैं आपसे सहमत हूँ ...रामकथा श्रद्धा है वहां बहस कि गुंजाइश नहीं !

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  19. .
    .
    .
    बोलो सियावर रामचंद्र की जय...

    आदरणीय अरविन्द मिश्र जी,

    पूर्णरूपेण 'राम मय' होकर लिखी है आपने यह पोस्ट...जहाँ इतनी श्रद्धा हो... वहाँ बहस की गुंजाईश नहीं... और बेमतलब भी है बहस...

    राम को मर्यादा पुरुषोत्तम की पदवी मिली क्योंकि उन्होंने जो किया लोक मत के अनुसार किया ...

    मेरे विचार में यही सार है आपके आलेख का... न्याय, नैतिकता, समानता, जीवन साथी की भावना आदि को दरकिनार कर राम ने हमेशा लोकमत को महत्व दिया... Conformity के नायक हैं राम... मेरी नजर में... और वही रहेंगे हमेशा...

    हाँ, शिव की बात अलग है... शिव पर पोस्ट का इंतजार रहेगा!


    ...

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  20. प्रवीण भाई ,जी आपने बाटम लाईन पकड़ ली ...!एक आप ही तो हैं जो मुझे कभी मिस /अंडर/स्टैंड नहीं करते /रखते -सच्ची !

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  21. त्याग का मूल्य प्रतिष्ठापित करती पोस्ट.
    यदि आपकी पोस्टों से एक बड़े समुदाय का भला हो रहा है और आपको इसका एहसास भी है तब आपको इसके प्रवाह में निरंतरता लानी ही होगी. उस समय आपकी वैयक्तिक निजी ज़िंदगी नहीं रह जाती. तब आपको काफी-कुछ त्यागना पडेगा. हाँ वैसे ही, जैसे श्रीराम ने अपनी वैयक्तिक आकांक्षाओं को परे रखकर किया.
    जहाँ तक सीता के साथ समय-समय पर परीक्षाओं का प्रश्न है, जिसमें बुद्धिजीवी लोग उलझकर कल्पना के घोड़े दौडाते रहते हैं और अनायास ही स्त्री को उसमें लांक्षित कर बैठते हैं.
    एक पत्नी जो अभी नव-ब्याहता है, उसे अपनी शारीरिक समस्याओं का पता है, जिसके अभी संतान नहीं है. जिसे आने वाली अपने जिमेदारियों का एहसास है,
    एक पति जिसे राजा बनने से पूर्व जन-समर्थन चाहिए, जिसे रोजगार के रूप में पिता द्वारा अर्जित सत्ता नहीं चाहिए, जिसे वृहत साम्राज्य की कमजोरियों का अवलोकन भी करना है. जिसे अपने राज्य को एक शक्तिशाली राजा भी सौंपना है, घरेलू कलह को रोकना है, भाइयों में सौहार्द, प्रजा में आदर्श स्थापित करना है.
    — इन सभी कार्यों में समय लगा.
    — मीडिया [सन्देशदूत/सन्देशवाहक] हमेशा से अपना धर्म निभाती रही है, घरेलू मसलों को प्रजा में उछालने का, प्रजा भी चाहती है कि उनके राजा के निजी जीवन की झाँकी उनको मिलती रहे, सो मीडिया ने जिस रूप में सीता की परीक्षाओं को प्रजा के सम्मुख रखा वे अशिक्षित जनता के बीच ग़लत रूप में समझी गयीं.
    — लंका से वापसी के समय 'अग्नि-परीक्षा' .......... जो समस्त 'मेडिकल चेकअप' के रूप में माने जा सकते हैं. जिस प्रकार कोई व्यक्ति 'आतंकियों के चंगुल से निकलकर' या फिर किसी बुरी स्थितियों से निकलकर बाहर आता है तो उसकी मेडिकल जाँच की ही जाती है. इसमें संदेह को स्थान नहीं होता. यह एक मानसिक संतुष्टि-भर है.
    — 'सीता-वनवास' एक ऎसी परिस्थिति है जिसे केवल पति-पत्नी ही बेहतर समझ सकते हैं. उस समय में कृत्रिम-गर्भाधान को सामाजिक मान्यता ऋषियों के स्तर पर थी. [यहाँ ऋषि का अर्थ केवल पूजा-पाठ करने से न लिया जाए, वह किसी विषय का पंडित और अन्वेषक से है]. IUI और IVF जैसे शब्द बेशक नहीं थे, लेकिन ये समस्याएँ शाश्वत हैं. और उनका समाधान प्रत्येक सभ्य समाज में होना चाहिए. और था भी. लेकिन अपढ़ और अबोध जनता के (जो/जिस तरह से) समझ आया उसने वह बोला और गाया [साहित्य रचा]. इसलिये निचले तबके में पैदा हुए भक्त कवियों की रचनाओं में यह सब बाखूबी देखा जा सकता है.
    — सीता के दो जुडवा-पुत्र 'लव और कुश', टेस्ट-ट्यूब बेबी के रूप में प्रजा में स्वीकार्य होते या नहीं — यह इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि आज इस सत्य को कितने लोग पचा पायेंगे. प्रचार करके देखिये, पता लग जाएगा.
    — क्या वाल्मीक का घर केवल 'घर' है, एक लेबोरेटरी नहीं. क्या उस समय के ऋषियों के 'समाज' से परहेज था जो जंगल और सुनसान-प्रदेशों में बसेरा किये रहते थे? सोचिये....

    ........... आपके लेख ने मुझे आपके लेख की प्रशंसा करने की बजाय विचारों में झोंक दिया...........
    ऑफिस निकलना है ...... एक विचारों को गति देती पोस्ट. लाजवाब.

    हाँ मैं जो कहना चाहता था वह फिर भी छूटा जा रहा है. ...... वह यह कि ....
    'त्याग' मतलब जो 'वस्तु' हमारे लिये अनुपयोगी हो जाए, उसको उसे सौंप दें जिसे उसकी जरूरत है.
    और इसे 'व्यक्ति' के स्तर पर भी रूप दिया जा सकता है. यहाँ 'श्रीराम ने सीता को उन स्थितियों को सौंप दिया, जिन्हें उसकी ज़रुरत थी."
    फिलहाल इतना ही.

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  22. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...आभार

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  23. प्रतुल जी ,
    आपने तो विचारों की एक श्रृंखला ही उद्दीपित कर दी ....आभार !
    फिलहाल केवल यह कहूँगा कि यह सोच दुरुस्त लगती है की पराये देश /माहौल से आने पर कुछ समय का आयीसोलेशन/ क्वैरेनटायींन सरीखी रूटीन कार्यवाही निश्चित रूप से ही उस समय भी रही होगी -जिसे तब अग्नि परीक्षा कहा गया -जिसका मतलब आग में झोकना नहीं है ...यह कुछ तरह की जाँच /परीक्षण भी हो सकता है तत्कालीन विशेषज्ञों द्वारा -यह राम की आकांक्षा नहीं थी -लोगों के चेहरों पर राम इसे पढ़ रहे थे ...वे विवश थे ..यह तो रही युद्ध के तत्काल बाद वहां के लोगों के सामने सीता के सतीत्व का दिखावटी परीक्षण ,जब अयोध्या आये तो वही प्रश्न चिह्न वहां भी लोगों के चेहरों पर विशाल आकार लेता जा रहा था ....कोई सूरत नहीं दिखी ..लांक्षित सीता मायके तो नहीं जा सकती थीं ....वहां तो और भी ताने सुनने को मिलते ....लिहाजा पिता तुल्य ऋषि सानिध्य ही एक मात्र रास्ता बचा ... लव कुश को एक नए नाना मिले जिन्होंने उन्हें पराक्रमी बनाया पर उनके पिता को डिफेंड भी नहीं किया -अयोध्या की गद्दी के लिए तैयार किया ...

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  24. अरविन्द भाई, भरतीय मनीषा शिखर ज्ञान से सम्पन्न रही है. पर देश-काल की बाधा तो हर रचनाकार के सामने आती है. इनसे कोई रचनाकार निरपेक्ष नहीं हो सकता. चाहे वाल्मीकि हों या भवभूति या कम्बन या तुलसी, सबने राम को अपने देश काल के साथ जिया. सैकड़ों वर्ष बाद हम अपने समय में खड़े होकर उसी राम को देखने की कोशिश करते हैं, अपने समय के लिये कोई राम नहीं गढ्ते, यह एक बड़ी समस्या है. वह राम एकदम अप्रासंगिक हो गया है, मैं यह नहीं कहता लेकिन आज के समय में भूख, दरिद्रता, अन्याय, भ्रष्टाचार से लड़्ने की ताकत उस राम में नहीं है, जो यह जानते हुए कि कैकयी ने छल से उन्हें निर्वासन दिलाया है, वन चला जाता है, जो यह जानते हुए कि सीता निर्दोष हैं, एक मामूली आदमी के आरोप पर उन्हें अग्निपरीक्षा में झोंक देता है. ऐसा राम तो आज के छल सम्राटों के हाथ शहीद हो जायेगा. अब एक नया राम रचने की जरूरत है जो न्याय के लिये शठे शाठ्यम समाचरेत का हथियार धारण करे.

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  25. राम पर आपके लेख में राम की वही छवि पाकर जो मेरे मानस (और संभवतः आम हिन्दू मानस) में है, प्रसन्नता हुई. विद्वतापूर्ण टिप्पणियों द्वारा इस विषय के नए आयाम प्रकट हुए, जिससे और भी अधिक प्रसन्नता हुई. ब्लॉग जगत की सार्थकता यहीं समझ आती है.

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  26. राम पर आपके लेख में राम की वही छवि पाकर जो मेरे मानस (और संभवतः आम हिन्दू मानस) में है, प्रसन्नता हुई.लेकिन विद्वतापूर्ण टिप्पणियों द्वारा इस विषय के नए आयाम प्रकट हुए, जिससे और भी अधिक प्रसन्नता हुई. ब्लॉग जगत की सार्थकता यहीं समझ आती है.

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  27. अच्छी रचना है

    बहुत बहुत आभार

    सियावर रामचन्द्र की जय

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  28. बहुत ही सुन्दर और शानदार लेख लिखा है आपने! सियावर रामचंद्र की जय!

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  29. सर जी हम तो राम को इन्सान तक मानने से इंकार करते हैं......एक जिद्दी आदमी है और क्या है राम....

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  30. प्रवीण जी से सहमत,
    बड़ा ही सुन्दर परिचय। बड़ा नया सा लगा पुनः राम चिन्तन।

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  31. सुंदर अति सुंदर, सियावर रामचंद्र की जय.

    रामराम

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  32. समृद्ध संस्कृतियाँ आदर्श पुरुषों के सहारे विकसित होती हैं। अपने यहाँ तो तीन तीन आदर्श युग्म स्थापित हैं - सीताराम, राधाकृष्ण और गौरीशिव। बहुत पुराने समय से ही ये संस्कृति प्राण रहे हैं। इन्हों ने हमें गढ़ा है, हमारे दु:ख सुख में साथ रहे हैं और हमारे रक्त में घुल मिल गए हैं। इनके बारे में जितना ही लिखा जाय, कम है, कम पड़ता है। ... मुझे तो इस पर आश्चर्य होता है कि लोकपरम्परा ने इन तीन युग्मों को उनके दोषों के साथ भी कितनी आत्मीयता से अपना बना रखा है! जैसे घर के सम्मानित सदस्य हों। ...लिखिए भारतदेश रूपी शिव पर और वंशी बजैया कृष्ण पर भी। एक लेख गौरी, सीता और राधा पर भी - मिथक हैं तो भी। मिथकों का सृजन मनुष्य ही करता है भैया! और इसी गुण के कारण वह कथित ईश्वर से भी आगे निकल जाता है।
    आप का लेख पढ़ कर अबूझ सी तृप्ति हुई है। थोड़ा और आयुष्मान हो जाऊँ तो शायद अभिव्यक्त भी कर पाऊँ।यह लेख मेरी 'निजी' दृष्टि में आप का सर्वोत्तम लेख है। क्यों है? व्यक्त नहीं कर पा रहा।
    आभार।

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  33. राम-राम कहु राम सनेही।
    पुनि कहु राम लखन वैदेही॥


    यह रस कभी चुकने वाला नहीं है।

    आपने मन प्रसन्न कर दिया। बलो सियावर रामचंद्र की जय!!!

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  34. अरविन्द जी,
    धन्यवाद. आपने उन विचारों को समर्थन दिया और आपकी त्वरित प्रतिक्रिया तो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आयी. आभार.
    फिर आपका इसलिये और धन्यवाद करता हूँ. इस सत्संग में काफी राम-भक्तों को एकत्र कर लिया. इतनी अच्छी अनुभूति तो किसी भी तरह नहीं मिल सकती: सच कहा है : "सात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरहीं तुला इक अंग, तूल ना ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग."
    अरविन्द जी आपकी लेखनी से लिखा पड़ने पर मुख को सुख मिलता है. लेकिन ब्लॉग का नाम जिह्वा को अच्छा व्यायाम करा देता है. हम नए ब्लोगर आपके सन्दर्भ की बात करने के लिये केवल यही कहते हैं कि "अरविन्द जी पढ़ना" या "मिश्र जी को पढ़ना". हमारी परेशानी समझें.

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  35. @प्रतुल जी,
    शुक्रिया ,किन्तु जब आप जैसे शब्द और भाषा के धनी लोग ऐसी बात कहते हैं तो मन को ठेस पहुँचती है .
    जन सामान्य की शिकायत जायज हो सकती है मगर आप भी जब ऐसा कहें तो शायद समीचीन नहीं है .
    क्वचिद अन्यतो अपि =क्वचिदन्यतोपि इत्ता सा तो है !
    एक बात और बताऊँ -कितने सुधी जानो ने कहा कि वे इस नाम के कारण ही ब्लॉग पर आये :)
    नाम की महिमा से आप भी अपरिचित नहीं होंगें ...

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  36. @ अरविन्द जी, कृपया मन न दुखाएँ.
    मेरे मुखसुख ने आलस्य में यह बात कही.
    लेकिन अब वह फिर से बिस्तर छोड़कर प्राणायाम करने उठ खड़ा हुआ है.
    मैं भी इसी नाम के कारण खिंचा था.
    राम का चरित कहने वाली मानस की भाषा अवधी है.
    लेकिन संस्कृत के शब्दों की भी बहुतायत है जिससे अवधी की मिठास और बढ़ गयी है.
    यहाँ समस्या एकाधिक संधियों से है.
    जहाँ जोड़ होते हैं वहाँ अटकाव आ ही जाता है.
    बस इस अटकाव को रसभंग का कारण मान बैठा था. क्षमा करें.
    'राम' का नाम दुनिया सहजता से बोल लेती है. 'त्रियम्बकेश्वर' जैसे शब्द न अधिक प्रचलित हैं और ना ही बोलना उनका सहज है.
    फिर भी यदि केवल पहचान के लिए शब्द गढ़े गए हैं तो स्वीकार्य हैं.
    मेरी कोशिश विषय भटकाव की नहीं है.
    "बोलो सियावर रामचंद्र की जय"

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  37. सीताकान्त स्मरण जय जय राम ।

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  38. वाकई आपने अपने इस आलेख में बता दिया कि अयोध्या में एक राजकुल के ज्येष्ठ पुत्र ही नहीं थे श्रीराम अपितु श्रीराम तो हमारे रोम रोम में बसने बाले सत्य का पर्याय हे ,अनुपम ,सरल और लोकहितकारी आलेख के लिए आपके प्रति कृतज्ञ हु और अपेक्षा करता हु कि आगे भी आपसे ऐसी ही रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारिया प्राप्त होती रहेगी !आपको बहुत -बहुत बधाई ,धन्यवाद के साथ जय सियाराम जी की

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  39. वाकई आपने अपने इस आलेख में बता दिया कि अयोध्या में एक राजकुल के ज्येष्ठ पुत्र ही नहीं थे श्रीराम अपितु श्रीराम तो हमारे रोम रोम में बसने बाले सत्य का पर्याय हे ,अनुपम ,सरल और लोकहितकारी आलेख के लिए आपके प्रति कृतज्ञ हु और अपेक्षा करता हु कि आगे भी आपसे ऐसी ही रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारिया प्राप्त होती रहेगी !आपको बहुत -बहुत बधाई ,धन्यवाद के साथ जय सियाराम जी की

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