रविवार, 18 सितंबर 2011

दिमाग झन्ना गया है 'दैट गर्ल इन येलो बूट्स' देखकर..


पिछले कई बार से बहुत झेलू फिल्म देख देख कर काफी कोफ़्त हो रही थी तो आज सोचा एक कोई घोषित  "लीक से हटकर " फिल्म देखी जाय....सो चला गया " दैट गर्ल इन येलो बूट्स" देखने..अनुराग कश्यप  की यह फिल्म लीक से इतनी हटी कि हटने लायक नहीं हटी:) दिमाग झन्ना गया.यह फिल्म कई कई अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखायी जा चुकी है और रणनीति यही लगती है कि इसे पूरी तरह अभारतीय/अंतर्राष्ट्रीय आडियेंस के लिए -अवार्ड ,पुरस्कारों के लिए ही प्रदर्शित किया जाय..भारतीय आम दर्शकों ने भी इससे किनारा कर लिया है -हाल में बमुश्किल १०-१२ लोग थे. दमघोटू सन्नाटा था ..लोग स्तब्ध ,हैरान और अवाक थे.दृश्य दर दृश्य जो गुजर रहा था उसे सहज ही ग्राह्य कर पाना बहुत मुश्किल था ......

एक ब्रितानी लड़की रुथ(कल्कि कोएचलिन) अपनी पंद्रह वर्षीया बहन की हत्या और माँ की मौत के बाद भारत जा चुके अपने पिता के एक पत्र से प्रेरित होकर मुंबई आती है ..टूरिस्ट वीसा पर ..एकमात्र मकसद पिता की तलाश ..जीविकोपार्जन के चलते एक मसाज सेंटर में काम करने लगती है मगर महज वीसा के आधार पर प्रवास के दौरान काम न करने की कानूनी मजबूरी के चलते वीसा -अधिकारियों,वर्क परमिट अधिकारियों को 'दानदेती रहती है ताकि एन केन  प्रकारेण वह भारत में रहकर अपने पिता को ढूंढ सके.वह अधिकारियों को आये दिन 'दानदेने के लिए पैसे की जुगाड़ में एक मसाज सेंन्टर में काम करती है.  और इच्छुक ग्राहकों को मसाज से अलग आनंद के लिए 'हैंडशेककी  सिफारिश कर फी ग्राहक  हजार रूपये लेती है और काम में तटस्थ भाव रखकर  अर्जित किया गया  यह पैसा वह अपने पिता की खोज से जुडी औपचारिकताओं पर स्वाहा करती चलती है -यहीं वह एक नशाखोर पात्र प्रकाश (प्रशांत प्रकाश) से  अन्तरग होती है . मगर वह भी  केवल अपने  पिपासा को ही शांत करने को उद्यत रहता है ...एक दृश्य बहुत झकझोरने वाला है जो इंगित करता है कि बिना नारी के विश्वास को जीते उससे सहज यौन सम्बन्ध नहीं बनाया जा सकता. कहानी में एक जबरदस्त विलेन चितियाप्पा गौड़ा(गुलशन देवैया ) भी है जो दुर्धर्ष जीवट से कमाए रुथ के हजारों रूपये छीन लेता है ...कारण इसका वही नशाखोर प्रेमी है जिस पर चितियाप्पा का बड़ा कर्ज है ...


मुबई या दूसरे  महानगरों  का भी एक भीषण अँधेरा पहलू है जिसे उजागर करने में कई फिल्म निर्देशक जुटे हुए हैं -धोबी घाट  की भी याद इस फिल्म को देखते हुए आयी और डेल्ही बेली की भी ...कितना गलीज भरा हुआ है हमारे महानगरों में... एक गोरी चमड़ी और पीले बूट वाली लडकी के शरीर का हिस्सा हिस्सा  नोंचने में लगे हैं काले जाहिल भारतीय .......कहीं  ऐसे एंगल फिल्मों को एक इमोशनल बायस और रंगभेद का तड़का देकर पुरस्कार खींचने का जतन तो नहीं हैं?..अंत में जब पिता की खोज पूरी होती है तो  उबकाई लेने वाली हकीकत सामने आती है -खुद पिता ही जानबूझ कर अपनी ही लडकी का ग्राहक बना है .....इस दुखांत मोड़ पर फिल्म ख़त्म हो जाती है -बदहवास,  विक्षिप्त लडकी इस सच से साक्षात्कार कर मूल देश को पलायन कर जाती है .....इस तरह यह फिल्म बाल यौन शोषण का एक घिनौना सच उकेरती है ..जहाँ यौन विकृतिग्रस्त'पीडोफायिलपिता ने पहले तो विदेश जाकर किशोरावस्था की देहरी पर खड़ी एक लडकी इमिला को बरगलाकर अपनी हवस का शिकार बनाया और इस काम में सुभीते के लिए उसकी माँ से विवाह तक रचा लिया ....लडकी के गर्भवती होने पर उसकी ह्त्या कर दी ....बाद में भारत आकर इमोशनल पत्र लिख कर झांसे में रख रुथ को भी मुम्बई बुला लिया ..रुथ अपने पिता को ढूँढती रही जबकि  वह उसका ही नियमित ग्राहक बना रहा ...

बाल यौन शोषण पर आधारित यह फ़िल्म दरअसल अनुराग कश्यप और  उनकी पत्नी कल्कि कोएचलिन का ही भोगा हुआ यथार्थ है -यह बात दोनों जन स्वीकार करते हैं -कहानी दोनों ने मिलकर लिखी है-कई दृश्य इतने घृणित और आपत्तिजनक हैं कि ताज्जुब होता है कि उन्हें फिल्माया  कैसे गया होगा -एक निदेशक ने खुद अपनी पत्नी से ही ऐसे दृश्य कैसे कराएं होंगें -शायद प्रोफेसन से कोई समझौता न करने  वाली मनोवृत्ति यहाँ रही होगी..... फिल्म देखने की सिफारिश करने में संकोच है -जाना है तो अपने रिस्क पर जांय ..स्तब्ध हताश खिन्न होकर वापस लौटेंगें -फिल्म देखने के दौरान  हाल की स्तब्धता भी आपको सालती रहेगी सो अलग ......तीन स्टार!

28 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे पढ़े आपकी पोस्ट इस फिल्म की तारीफ़ में लिखी सबसे अच्छी पोस्ट है.

    मैं अभी तक इस फिल्म को औसत ही समझ रहा था. आपी प्रतिक्रिया के बाद मुझे अपनी राय पर पुनर्विचार करना हो रहा है.

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  2. इतनी भयानक बनायी है कि परिवार के साथ देखी ही नहीं जा सकती है?

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  3. अब तो लगता है कि गन्दगी दिखा दिखा कर सफाई पर उपदेश चल रहा है।

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  4. समय की कमी का एक लाभ यह भी है कि इस फ़िल्म को देखने का समय हमें कभी मिल ही न पायेगा।

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  5. आप तो फिल्म-समीक्षक भी गज़ब के बनते जा रहे हैं,पर आप आज की फिल्मों को कथानक और मूल्यगत दृष्टि से ना ही देखें,क्योकि कई लगातार 'झटके' आपके दिमाग को बेकार कर सकते हैं,जिसकी हमें सख्त ज़रुरत है !इस फिल्म का क्या सामाजिक सन्देश है ,यह आपने बता ही दिया है.दुखद तो यही है कि इधर वास्तविक जीवन में आदर्शवाद का क्षरण हो रहा है और उधर सिनेमा इसे और ज़ोर से घिस रहा है.एक अच्छे समाज के बनाने में क्या सिनेमा ने अपनी भूमिका खो दी है ? केवल झूठी वाहवाही और 'कैश-कलेक्शन' के लिए ही सब कुछ किया जायेगा.मुख्यधारा का सिनेमा तो मूल्यों की परवाह करता ही नहीं था,कला-फ़िल्में भी अब निराश करती हैं !

    वैसे, अगली बार जब आप दिल्ली आयें तो आपके साथ मूवी देखने का मज़ा लिया जायेगा और हाँ,'फिलम' में,हाल में सन्नाटा होगा तो उसको हम तोड़ देंगे !

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  6. जबरदस्त फिल्म होगी। देखना ही पड़ेगा। अभी तो आपका वर्णन पढ़कर ही स्तब्ध हूँ।

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  7. इस तरह के किस्से और घटनाएँ रोज देखने सुनने को मिलती हैं । फिर निर्देशक ऐसी फिल्म बनाकर क्या कहना चाहता है ?
    और आप भी अरविन्द भाई , कोई फिल्म छोड़ते ही नहीं । कोई प्रोमोशनल पास वास का चक्कर तो नहीं ! :)

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  8. हम तो हर काम अपनी रिस्क पर ही करते हैं और अभी हम रिस्क लेने लायक स्थिति में नही हैं.:)

    रामराम.

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  9. सर बेहतरीन फिल्म समीक्षा के लिए आपको बधाई

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  10. सर बेहतरीन फिल्म समीक्षा के लिए आपको बधाई

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  11. इस तरह की फिल्में आम दर्शक वर्ग के लिये नहीं होती। कहीं कहीं सत्य के नाम पर 'जुगुप्सा' देखने की ललक भी होती है।

    एक रशियन फिल्म (नाम याद नहीं) में देखा था जिसमें अंधेड़ शख्स जो मृत्यु के कगार पर है अपनी नई उम्र की पत्नी से आग्रह करता है कि अंत समय में 'फलां जगह' छूना है। पत्नी भी उसे ऐसा करने देती है और उस शख्स की मृत्यु हो जाती है।

    अब इस वाकये को हम आम दर्शक के नजरिये से देखेंगे तो मन्द मन्द मुस्करायेंगे या फिर ठठाकर हंस देंगे लेकिन कला के नजरिये से देखेंगे तो यह वाकया एक 'कसक' एक 'अतृप्त मनोव्यथा' को बयां करता दिखेगा। हर वर्ग और हर सोच का अपना अपना दायरा है, प्रकट करने की इच्छा है, माध्यम है।

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  12. आप ऐसी फिल्म देख कैसे लेते हैं....नेट पर तमाम रिव्यू उपलब्ध होते हैं....फिल्म की कुछ जानकारी तो मिल ही जाती है.
    और अगर जानबूझकर कुछ अलग सा देखने की मंशा से गए थे तो...फिर शिकायत क्यूँ...:)

    इस फिल्म का नाम जब पढ़ा होगा तो इसके बारे में भी कुछ तो पता ही होगा...और मेरे ख्याल से ब्लॉग जगत में सभी व्यस्क ही हैं...अलग से वयस्कों के लिए लिखने की जरूरत क्यूँ आन पड़ी?

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  13. @ब्लॉग जगत में सब वयस्क हैं ? सच्ची ? मुझे तो गहरा संशय है ....लोगबाग फजीहत फिर क्यों करते हैं ...सावधानी के लिए लगाया ,आपको आपत्ति है हटा ले रहा हूँ .....
    मैं फिल्म बायस्ड होकर नहीं देखता ......

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  14. कसाव दार समीक्षा .बाल यौन प्रेम और बाल यौन शोषण के गिर्द बुनी हुई कथा अति -यथार्थ परोसती है .कृपया देखें क्या कोई शब्द "पीडोफिलियाक"सेक्स मेनियाक" की तर्ज़ पर होता है ?मेरे पास यहाँ कोई शब्द कोष नहीं है फिल वक्त दिल्ली में हूँ .

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  15. आजकल पति-पत्नी मिलकर दर्शकों पर काफी एक्सपेरिमेंट्स कर रहे हैं. दो उदाहरण तो आपकी इसी पोस्ट में हैं.
    इन एक्सपेरिमेंटल हिन्दुस्तानी फिल्मों के बीच पाकिस्तान से आई बोल छुट गई शायद आपसे. मौका मिले तो जरुर देखिएगा.

    http://ourdharohar.blogspot.com/2011/09/blog-post_11.html

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  16. कथानक उद्वेलित करता है.. लेकिन प्रेरित होना मुश्किल लग रहा है..

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  17. समीक्षा पढ़कर तो देखने का मन नहीं रहा ....

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  18. मेरे विचार में ऐसी फिल्‍में हिन्‍दी में कम बनती हैं। एक गम्‍भीर प्रवृत्ति के व्‍यक्ति के इन्‍हें जरूर देखना चाहिए। वैसे 03 अक्‍टूबर तक भयानक व्‍यस्‍तता है। बाद में कोशिश करूंगा कि देख सकूं।

    ------
    कभी देखा है ऐसा साँप?
    उन्‍मुक्‍त चला जाता है ज्ञान पथिक कोई..

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  19. .
    .
    .
    कई दृश्य इतने घृणित और आपत्तिजनक हैं कि ताज्जुब होता है कि उन्हें फिल्माया कैसे गया होगा -एक निदेशक ने खुद अपनी पत्नी से ही ऐसे दृश्य कैसे कराएं होंगें -शायद प्रोफेसन से कोई समझौता न करने वाली मनोवृत्ति यहाँ रही होगी..... फिल्म देखने की सिफारिश करने में संकोच है -जाना है तो अपने रिस्क पर जांय ...

    देव,

    भले ही जब आप गये थे तो दस बारह ही थे हॉल में, पर आपके इस लिखे को पढ़ने वाला हर कोई पिक्चर देखने का जुगाड़ कर रहा होगा अब... ;))



    ...

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  20. तभी तो...... हमने दशकों पहले फिल्लम देखना बंद कर दिया :)

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  21. मैंने गर्ल इन येलो बूट्स नहीं देखी, देखना भी नहीं चाहती थी। हमलोग कई मामलों में शुतुरमुर्ग होते हैं। सामने मौजूद सच्चाईयों से सिर छुपाकर रेत में डाल लेना हमारी फ़ितरत है। हम सच का सामना करना नहीं जानते, हमें ये पूरी प्रक्रिया इतनी तकलीफ़देह लगती है कि सिर मिट्टी में छुपा लेना या आंखें मूंद लेना ही आसान लगता है। लेकिन सच्चाई इससे बदलती तो नहीं है। अफ़सोस होता है, हम कैसी दुनिया में जी रहे हैं। हम बच्चों को क्या सौंप रहे हैं।
    किसी भी रूप में कला का काम सिर्फ मनोरंजन करना नहीं होता, सच्चाई से रूबरू कराना उसकी ज़्यादा बड़ी, ज़्यादा उदात्त भूमिका है। हम ना मानना चाहें, ना सही, लेकिन अगर किसी फिल्मकार में अपने भोगे हुए सच को दुनिया के सामने लाने और उसपर एक बहस छेड़ने की हिम्मत है तो मुझे लगता है वो पीठ थपथपाने के काबिल है। हम अपने सुकून के लिए चाहे उसे मानसिक रूप से विकृत और भोंडा करार दें, लेकिन सच्चाई इससे तो बदलेगी नहीं। सच तो ये है ये सवाल खुद से है - कि क्या हममें सच सुनने, देखने, बर्दाश्त करने की हिम्मत है? मुझमें तो नहीं है फिलहाल।

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  22. हम तौ कयिउ रोज पहिलेन देखेन.
    देखय कै निश्चय कैके गा रहेन, बिसय हमैं बहुत जँचा रहा, इन चीजन से भागब रास्ता नाय होइ सकत, चिंतन करै क चाही.

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  23. पढ़ते-पढ़ते किसी भयानक नगरी की सैर हो गयी. उफ़...

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  24. अब किसको घिनौना कहा जाय..? इसको अतिवादी ही कहा जाएगा .

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