बिद्दा ( विद्या बालन) की यह नयी मूवी मैंने कुछ दिनों पहले ही देख ली थी मगर इस पर कुछ लिखने का मन नहीं हुआ ..एक साधारण सी फिल्म लगी थी मुझे. मगर ब्लागजगत और फेसबुक के ज्यादातर मित्रों ने इसे एक अच्छी फिल्म माना है और उनकी यह दावेदारी ईमानदारी से की गयी लगती है... मगर फिर भी बहुत सोचने विचारने के बाद भी मैं इसे एक साधारण फिल्म से ऊपर नहीं पाता....यही कोई दो ढायी स्टार लायक... विद्या बालन को लेकर कई प्रचार प्रमोशन कंपेन के जरिये दरअसल लोगों को 'कंडीशन' किया जा रहा है ...और जब हम 'कहानी' को देखते होते हैं तो हमारा अवचेतन कंडीशन हुआ मन विद्या बालन की फिल्म के बारे मे कुछ भी निषेधात्मक स्वीकार नहीं करने देता ... यह वही कंडिशनिंग ही है कि एक अन्यथा झेलाऊ फिल्म का बेड़ा बिद्दा(फिल्म में विद्या को लोग बाग़ बिद्दा ही कहते हैं ) पार लगा गयी हैं....
फिल्म की कहानी/पटकथा पश्चिमी सस्पेंस कथाओं से बेहद प्रभावित है ...मगर अपने देश में ,यहाँ के परिवेश और लोकेशन में ये कथायें सहज नहीं लगतीं .... अब कलकत्ता की पुलिस कितनी उदार है ,कितनी भद्र है ..कलकत्ता ही क्यों पूरे भारत की ही, यह हम जानते हैं ..भारतीय पुलिस और सदाशयता? शिष्टाचार? यह स्काटलैंड नहीं है. मगर फिल्म की कलकतिया पुलिस आश्चर्यजनक तौर से बड़ी भद्र और शिष्ट दर्शित की गयी है! उलटे केन्द्रीय आई बी का मुलाजिम बेहद अशिष्ट दर्शित हुआ है जबकि हकीकत ठीक उलट है ..कहना यह है कि फिल्म में कम से कम यहाँ तो यथार्थ का चित्रण नहीं हो पाया ..
इधर फिल्मों में एक चलन फिल्म की लोकेशन /पृष्ठभूमि को भी एक पात्र के रूप में प्रस्तुत करने की है -पिछले सालों की कई फिल्मों जैसे धोबीघाट इत्यादि में मुंबई को इस तरह चित्रांकित किया गया है जैसे वह शहर भी एक पात्र सरीखा हो ...यह बात यहाँ कोलकता के बारे में दुहराई गयी है ....यानी यहाँ भी कोई नवीनता नहीं है ....कोलक़ता के बारे में जो कुछ हम जानते हैं -दुर्गापूजा की धूम आदि वही यहाँ भी है ...सब दुहराव केवल दुहराव ....बल्कि कोलकता के भद्र बंगाली मोशाय नहीं दीखते ....बस यहाँ पुलिस ही भद्र है ....कहानी का यह डायलाग हकीकत की चुगली करता लगता है कि " कोलकाता से भाग जाओ यह बड़ा डैन्जेरस शहर है " भले ही कहानी की जबरन मांग हो, ऐसे अनावश्यक डायलाग अनपेक्षित हैं ...क्योकि यह बात तो फिर किसी भी शहर के साथ की जा सकती है ...
हाँ कोलकाता के दृश्यांकन के दौरान कैमरा अँधेरे कोनो को ही फोकस करता रहा -घोर अमानवीय स्थति ,गरीबी, गन्दगी ..यह एक कुटिल रणनीति है फिल्म को विदेशी व्यूअर्स पुरस्कारों के लिए क्वालीफाई कराना ...अब कहानी का क्या? सस्पेंस कथाएं और भी लिखी फिल्मांकित की गयी हैं ....यह उनके सामने भी नहीं ठहरती ... सस्पेंस क्रियेट करने के लिए अनावश्यक असम्बद्ध दृश्य भी कैमरे के एंगिल में है और दर्शक को भ्रमित करते हैं ..कहानी के कई छोटे सिरे ऐसे बिखरे हैं कि दर्शक उन्हें जोड़ता ही रह जाता है ..आरम्भिक दृश्य में ट्रेन के भीतर एक बच्चा अपने बस्ते को भींचे बैठा है ..उसके दोस्त उससे बस्ता खींचते हैं ...बगल की एक महिला का भी बस्ता (झोला ) उसके जाते ही लावारिस हो जाता है और एक दूध की बाटल उसमें से गिरती है और जहरीली गैस फ़ैल जाती है ....इस दृश्य को पता नहीं क्यों इतना जटिल बना दिया गया है . क्या केवल इसलिए कि दर्शकों को एक सस्पेंस फिल्म देखने को तैयार किया जा सके?
हाँ बिद्दा ने फिल्म को संभाल लिया है ...वन वूमन शो है यह फिल्म .....कहानी आप कहीं भी पढ़ सकते हैं ..यहाँ भी ....वैसे सस्पेंस फिल्मों की पूरी कहानी तो आपको पढने को मिलेगी नहीं ..समीक्षक की भी अपनी प्रोफेशनल आनेस्टी /मजबूरी होती है :) (समीक्षक की ,मेरी नहीं ) अगर किसी फिल्म को अच्छा माना जाता हैं तो उसका कोई वस्तुनिष्ठ मापदंड होना चाहिए -मनोरंजन ? शिक्षा सन्देश? समस्या का हल? या किसी समस्या पर फोकस? सामाजिक सरोकार? अब मनोरंजन तो बेहद सब्जेक्टिव मामला है ..और मनोरंजन छोड़ दिया जाय तो यह फिल्म अन्य पहलुओं पर औंधे मुंह गिरती है...बाक्स आफिस पर भी शुरुआती भीड़ भले ही दिखी हो अब हाल खाली जा रहे हैं .....बनारस में तो यही स्थिति है .....कोई और च्वायस हो तो इसे देखने जाना न.... जाना न ... :) बस यह प्रोमो भर देख लीजिये जो जान है फिलम की ....
पुनश्च: भारत के अभिजात्य बौद्धिक वर्ग ने अपने कई 'मेक बिलीव' बना रखे हैं,जिसके तहत वह सहज बोध के विपरीत अपनी पसंदगी नापसंदगी का निर्धारण करता है -फिल्मों के बारे में राय बनाने में भी यही मानसिकता है -चालाक निर्देशक यह बात बखूबी जानते हैं और इस तबके से भी पैसा वसूल कर लेते हैं -इस वर्ग के कुछ मेक विलीव यह हैं-
१-फिल्म सेट पैटर्न से अलग हो ..
२-तीसरी दुनियां की फिल्थ कचरा गलीजता पर कैमरे का फोकस हो
३-महिला पात्र केन्द्रीय भूमिका में हो
४-गानों का अलग से फिल्मांकन न हो ..ऐसे ही बेतरतीब पार्श्व गायन हो तो चलेगा
५-परदे पर कहानी साफ़ सपाट न हो ,दर्शकों को बेतरतीब धागों को सुलझाना पड़े -मतलब जिगसा पजल सा ..
आदि आदि फिलहाल ऊपर के लगभग सभी बिन्दुओं का समावेश कहानी में हुआ है .....
हम भी पिछले पचपन साल से श्रेष्ठ कहानी के प्रतिमानों में इन्ही को वरीयता देते आये हैं ...
मगर अब सहज होना चाहते हैं! :)
बहुत ही शानदार फिल्म है। मुझे बनाना हो तो ऐसी ही फिल्म बनाउंगा। गरीबी, अंधेरा कोना ये सब यदि दिखाये गये हैं तो इसमें खराबी नहीं है, इससे पहले कलकत्ता को किसी फिल्म में इतने करीब से नहीं दिखाया गया है या होगा भी तो मैं न देख पाया होउं वरना तो शहर के नाम पर केवल और केवल मुम्बई और बहुत हुआ तो दिल्ली बस.....कभी कभार कैमरा और शहरों की ओर घूमा है। और यह जरूरी तो नहीं की पॉश कोलकाता दिखाया ही जाय......कृत्रिम कोलकाता देखने से अच्छा है यथार्थ कोलकाता देखा जाय जोकि एक अंश में दिखाया भी गया है।
जवाब देंहटाएंकहानी का प्लॉट भी जबरदस्त कसाव लिये है।
बाकी तो अपनी-अपनी रूचि होती है।
dekhne ke baad hi kuchh kah payenge.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन फिल्मों में से एक है. पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना.
जवाब देंहटाएंहा हा हा .. बस इतना ही प्रोमो देखना है ??
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में यह फिल्म तो ज्योतिष से अधिक विवादास्पद हो गयी !!
मुझे तो यह फिल्म अच्छी लगी। इसे न देखता तो विश्वास ही नहीं होता कि हिन्दी में भी इस तरह की फिल्म बन सकती हैं।
जवाब देंहटाएंकोई न कोई तो अच्छा निकल आता है, पुलिस में भी। एक बार देख आते हैं।
जवाब देंहटाएंप्यासा के बाद इसी सिनेमा में मुझे कोलकाता की आत्मा देखने को मिली. आगे, हर किसी की अपनी पसंद.
जवाब देंहटाएंअब तक तो अच्छा ही अच्छा पढ़ा-सुना था, इसके बारे में.
जवाब देंहटाएंलेख फिल्म से अच्छा लगा
जवाब देंहटाएं@वाह यहाँ की पब्लिक तो लहालोट है फिल्म पर :)
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट तो फिल्म दिखा कर ही मानेगी। डर्टी के बाद कोई फिल्म नहीं देखी। यह ब्लॉगरी जो न करा दे।
जवाब देंहटाएंहम तो यहाँ भी कहेंगे कि फिल्म बेहतरीन है।
जवाब देंहटाएंलगता है कि 'डर्टी-पिक्चर' का नशा अब भी दर्शकों पर तारी है.उसी मूड को निर्माता ने कैश करने की कोशिश की है.आपकी समीक्षा के बाद मैंने इसे देखने का इरादा मुल्तवी कर दिया है....अगर कभी देख पाए,कुछ अलग मिला ,तो बताऊँगा !
जवाब देंहटाएंसच पूछिए,प्रोमोस भी ज़्यादा आकर्षित नहीं करते !
यह सही है कि प्रचार प्रसार से कई बार फ़िल्में महान बना दी जाती हैं , जैसे थ्री इडीयट में लोगों को क्या पसंद आया था , मुझे समझ नहीं आया ...निहायत ही फूहड़ फिल्म लगी मुझे तो ...पसंद अपनी -अपनी !
जवाब देंहटाएंमगर यह फिल्म तो जरुर देखनी है!
हमने भी यह फ़िल्म देखी काफ़ी कसी हुई कहानी है, परंतु कहानी के लेखक कर्नल रंजीत लगे, जैसा कि गोवर्मेंट एजेन्ट का परिदृश्य वे रचते थे अपने उपन्यासों में बिल्कुल वैसा ही इस "कहानी" में रचा गया है।
जवाब देंहटाएंहम तो ज्तादातर फ़िल्में टी वी पर आने तक का इंतजार करते हैं .
जवाब देंहटाएंयहाँ रिमोट अपने हाथ में होता है . :)
समीक्षा कलात्मक होनी चाहिये मतलब प्रत्येक दृष्टिकोण से . जिस पर आपने ध्यान आकर्षित किया है जो फिल्म के लिए कुछ सोचने को कहती है .
जवाब देंहटाएंहम भी पिछले पचपन साल से श्रेष्ठ कहानी के प्रतिमानों में इन्ही को वरीयता देते आये हैं ...
जवाब देंहटाएंमगर अब सहज होना चाहते हैं! :)
हमारे पुत्र -पुत्र वधु फिल्म देख आयें हैं .क्योंकि फिल्म में विद्या बालन थी ,हमें पूछना ही था फिल्म कैसी थी -'बहुत उलझी हुई कुछ समझ आई कुछ नहीं भी .कई धागे उलझे रह गए .'भैया स्टोरी क्या थी -कोई ख़ास नहीं बिद्दा अपने खोये हुए पति को ढूंढती रहती है जब मिलता है ,पता चलता है यह उसका पति ही नहीं है .पुरुष पात्र जाने पहचाने नहीं हैं. ये लोग पहचानते ही नहीं हैं .'पर मनोरंजन तो है .सस्पेंस बना रहता है .हमने कहा भैया हम अँधेरी भूल भुलैयों में नहीं जाते .'गाने कैसे हैं' हमने पूछा .'हैं ही नहीं '-ज़वाब मिला .हम गए ही नहीं .हालाकि यहाँ फौजी सिनेमा हाल में टिकिट अधिकतम पचास रुपया है .पर भैया वक्त बड़ा कीमती है .
ram ram bhai
सोमवार, 19 मार्च 2012
किशोर द्वारा दर्द नाशी दवा के गलत स्तेमाल का खामियाजा .
जुल्म की मुझ पे , इंतिहा कर दे , मुझसा ,बे -जुबाँ, फिर कोई मिले ,न मिले .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
good observation and explanation!
जवाब देंहटाएंबड़ी मेहनत से बताई हैं कमियां सिनेमा की।
जवाब देंहटाएंहमें तो पसंद आई .... धीरे धीरे चालती है फिल्म पर बंधे रखती है ... टाइम पास हो जाए जिससे वो अच्छी है अपने लिए तो ...
जवाब देंहटाएंacchi lagi yah flim ..
जवाब देंहटाएंएक अलग एंगल से आपने फ़िल्म मीमांसा पेश किया ! ऐसी बेबाक समीक्षाओं की आजकल बेहद कमी है ! पढ़कर अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएं-
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जहाँ तक मेरी बात है ! मुझे यह फ़िल्म निहायत बढ़िया लगी ..... कहानी से बंधे रहे आखिरी तक ..... छायांकन भी उत्कृष्ट लगा ! वैसे अपनी-अपनी पसंद है ..... जरूरी नहीं कि सभी को पसंद आये !
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आभार
kal hi dekhi...thik lagi ...
जवाब देंहटाएंआपका विवेचन बहुत वैचारिक गहराई लिए है......
जवाब देंहटाएंमैंने फिल्म देखी है , मुझे भी अच्छी लगी.....
पंडित जी!
जवाब देंहटाएंसबसे पहले कोलकाता.. पता नहीं आपने कोलकाता कितना देखा है या किस नज़रिये से देखा है.. मैंने कोलकाता को वहाँ रहकर देखा है.. जब आप हावडा स्टेशन से कोलकाता की तरफ आते हैं (मेरे लिए हर “हैं” का अर्थ उस काल से है जब मैं वहाँ था – १९९५ से २००१) तो हावड़ा-ब्रिज पार करते ही दोनों तरफ ऐसी इमारतें दिखाई देती हैं, जो हवा से भी धराशायी हो जाएँ. शायद अंग्रेजों के छोड़ कर जाने के बाद से रिपेयर नहीं हुईं. अभी आपने कोस्बा, रथताला, एन्टाली, जमीर लेन, कालीघाट, बेक बागान, बऊ बाज़ार वगैरह नहीं देखा. असली कोलकाता वही है जो इसमें दिखाया गया है.. और जो सारी एक्सरसाइज़ चल रही थी उसके लिए, पार्क स्ट्रीट, बालीगंज, अलीपोर, साल्ट लेक, उलटाडांगा, सदर्न एवेन्यू, चौरंगी दिखाने की ज़रूरत नहीं थी.
कहानी को उलझाए रखना, और दर्शकों की जिज्ञासा बनाए रखना अगर दोनों साथ साथ चल रही हो तो यह निर्देशक की सफलता है.. रही बात पुलिस वालों की भद्रता की.. तो इस विषय में एक बात बता दूँ... एक कहावत प्रचलित है कोलकाता के बारे में... अगर कभी रास्ता भूल जाओ तो पुलिस से पूछ लो.. मैंने ट्रैफिक पुलिस को रास्ता पार करवाते देखा है पंडित जी..
फिल्म में जिस पुलिस वाले को आपने देखा.. वो जवान था, सिर्फ छः महीने पुराना, कुछ शुरुआती जोश और कुछ गर्भवती महिला के प्रति सहानुभूति.. इतना मटेरियल काफी है उसके व्यवहार को जस्टिफाई करने के लिए और फिर पूरी कहानी ही उसी व्यवहार की थी.. अब वो चाहे लोकल पुलिस का व्यवहार हो या आई.बी. के ओफिसर का..
ये गरीबी दिखाकर बेचने वाले आरोप अब पुराने हो चुके हैं, पंडित जी.. और हाँ दुर्गा पूजा भी यूँ ही ज़बरदस्ती नहीं दिखाई गयी है, बल्कि उसका रोल तो सबसे महत्वपूर्ण है!!
चलिए! आपकी राय आपकी है, यहाँ हमारा उद्देश्य सफाई देना थोडो ना है!!
जो बात दिख गई वहीं से शुरू करता हूं ... बंगला में व होता नहीं, ब होता है, इसलिए स्थानीय लोग उसे बिद्या कहते हैं और वह बार बार कहती हैं मैं विद्या हूं , बिद्या नहीं।
जवाब देंहटाएंकोलकाता पुलिस की उदारता भलमानसाहत देखनी हो तो कुछ दिन यहां गुजारिए खासकर पूजा के समय। बूढी, विकलांग आदि को किस प्रकार वे सड़क पार कराते हैं, बड़ी बड़ी गाड़ियां रोककर ... आपके मुंह से खुद ब खुद प्रशंसा के स्वर निकलेंगे।
जवाब देंहटाएं@ एक अन्यथा झेलाऊ फिल्म
जवाब देंहटाएंमेरे साथ मेरे दोनों बेटे और पत्नी थे ... किसी को झेलाऊ नहीं लगी। हमारे चारों की पसंद ना पसंद अलग अलग है।
दूसरी बात हम स परिवार देखने गए। कितनी फ़िल्में आजकल बनती हैं जिसे आप (एक मध्यम वर्गीय और परंपरावादी परिवार ) एक साथ सपरिवार देखने की स्थिति में खुद को पाते हैं।
कोलकाता में ही चौथा सप्ताह चल रही है, यह फ़िल्म और बाइस थियेटरों में, एक झेलाऊ फ़िल्म इतना नहीं झेलवा सकती।
@ फिल्म की कहानी/पटकथा पश्चिमी सस्पेंस कथाओं से बेहद प्रभावित है ...मगर अपने देश में ,यहाँ के परिवेश और लोकेशन में ये कथायें सहज नहीं लगतीं
जवाब देंहटाएंमैंने एक जगह लिखा था, वही कोट कर रहा हूं, क्योंकि वही मेरा विचार है ...
आम तौर पर हिंदी फ़िल्मों का पुनरावलोकन (रिव्यू) करते वक़्त अंग्रेज़ी समीक्षक पश्चिम का चश्मा पहन कर नाहक ही उसकी आलोचना करने लगते हैं। इस फ़िल्म के साथ भी ऐसा ही देखने-पढ़ने को मिला।
@ कलकत्ता की पुलिस कितनी उदार है ,कितनी भद्र है .
जवाब देंहटाएंमुझे नहीम मालूम कि आपने कितना वक़्त गुजारा है कोलकता में, वरना कोलकाता पुलिस के प्रति आपकी यह राय नहीम बनती। इनकी उदारता और सदाशयता देखनी हो तो दो-चार दिन सड़कों पर पैदल घूमिए, या फिर पूजा के समय यहां आइए। बूढ़े, विकलांग, आदि को ये हाथ पकड़ कर सड़क पार कराते हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियां रोक कर। पैदल यात्री को ये प्राथमिकता देते हैं।
@ फिल्म की लोकेशन /पृष्ठभूमि को भी एक पात्र के रूप में
जवाब देंहटाएंयह तो विशेषता है। बुराई नहीं।
मैला आंचल इसी लिए अमर है कि वहां कोई नायक नहीं है, पूरा अंचल ही नायक है।
@ दुर्गापूजा की धूम आदि वही यहाँ भी है ...सब दुहराव केवल दुहराव
जवाब देंहटाएंहालिया रिलिज अग्निपथ से लेकर सैंकड़ो फ़िल्म में गणपति पूजा मुम्बई के साथ दिखाया जाता है, वहां कोई दुहराव नहीं दिखता। इसी तरह कोलकाता बगैर पूजा के सम्पूर्ण नहीं होता। और यह सब तो कहानी के बैकग्राउंड में चलता रहता है, खासकर यह तब दुहराव नहीं लगता जब नारी शक्ति की तुलना मां दुर्गा की शक्ति से करनी हो निर्देशक को।
@ कैमरा अँधेरे कोनो को ही फोकस करता रहा -घोर अमानवीय स्थति ,गरीबी, गन्दगी
जवाब देंहटाएंये कोलकाता की संस्कृति है। ये अपनी परंपरा से जुड़े हैं। मैं कई नामी-गिरामी सहित्यकार विद्वान के घर गया हूं। इसी तरह की किसी बहुमंजिली इमारत के दूसरे तीसरे माले पर रहते हैं, छोटी खिड़की वाला घर, रोशनी पर्याप्त नहीं पर मालूम पड़ेगा कि वे मूर्ति देवी या ज्ञानपीठ विजेता हैं।
@ शुरुआती भीड़ भले ही दिखी हो अब हाल खाली जा रहे हैं
जवाब देंहटाएंअब भी बाइस हॉल में चल रही है कोलकाता में।
सलिल जी ,मनोज जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ,अपना मंतव्य देने के लिए और मुझे उसके परिप्रेक्ष्य में पुनार्चिनतन के लिए
अभी तक नहीं देखा है :) आगे का पता नहीं क्यूंकि सस्पेंस किसी ने पहले ही बता दिया है.
जवाब देंहटाएंआपने प्रभावी समीक्षा की है. मगर मनोज जी ने भी तार्किक रूप से सिसिलेवार प्रत्युत्तर दिए हैं.
जवाब देंहटाएंनिःसंदेह एक ऐसी फिल्म जिसका नायक स्क्रिप्ट हो और बिना शीला- मुन्नी के सहारे के सपरिवार देखने योग्य बनाना सहज नही . मेरे ख्याल से कोई और बेहतर फिल्म न आ गई तो संभवतः इस साल 'ऑस्कर' के लिए हमारे यहाँ से यही नामांकित होगी...