मंगलवार, 27 मार्च 2012

पुराण कथाओं में झलकता है भविष्य(1)-मन से चालित विमान सौभ!

आज से यह नई श्रृंखला. बीच बीच में दुनियावी  बातें और लीला भी चलती रहेगी . अक्सर हम लोगों को कहते सुनते हैं कि यह नई खोज यह नई जुगत तो हमारे यहाँ वेदकाल से ही रही है .लोग विमानों पर घूमते घामते थे ,लड़ाईयों में स्वचालित आयुधों का इस्तेमाल करते थे ,पल भर में एक जगहं से दूसरी जगहं की यात्राएं कर लेते थे ....ये पश्चिम वाले जो आज खोज रहे हैं वह तो हमारे यहाँ हजारो साल पहले से ही था ...मेरा भी यही मानना है मगर सोच का अंतर बस यही है कि ये चीजें बस लोगों की कल्पनाओं में ही विद्यमान थीं ...इनका कोई भौतिक वजूद नहीं था ..क्योकि उन दिनों आज जैसी प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी ....अब पत्थर युग में प्रौद्योगिकी के नाम  पर बस विविध उपयोगों हेतु तराशे पत्थर ही तो थे ....तब नैनो टेक्नोलोजी थोड़े ही थी ...मगर हाँ ,सोच के मामले में भारतीयों की कोई सानी नहीं थी ..भले ही वह एक अरण्य सभ्यता थी मगर हमारे पुरखे ,ऋषि गण अपनी सोच और कल्पनाओं के मामले में बहुत आगे थे ..वे बीन  बीन कर दूर की कौडियाँ लाकर सहेज रहे थे  ताकि भविष्य के उनके वंशधर उन कल्पनाओं का सहारा ले कोई चमत्कार कर सकें ...और आज सचमुच हमारे पास वह उपयुक्त प्रौद्योगिकी है जो अगर पुरखों की कल्पनाओं से संयुक्त हो जाय तो हमारे सामने एक सर्वथा अनोखी दुनियाँ,एक आश्चर्यलोक उपस्थित हो जाए -वैसा ही जैसा की विज्ञान कथाओं में वर्णित है ...इसलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारी पुराकथाओं और आज की विज्ञान कथाओं में कई साम्य हैं ...यह एक लंबा और विषद विमर्श है आईये तब तक आपको हम एक कथा सुनाएँ ...
सौभ!एक परिकल्पना!
शिशुपाल की याद तो आपको होगी ही ...अरे वही वाचाल शिशुपाल जिसका वध कृष्ण ने किया था ...उसी शिशुपाल का एक मित्र था शाल्व ...उसने एक बार प्रतिज्ञा की थी कि वह धरती से यदुवंशियों का नाश कर देगा ..अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने के लिहाज से उसने भगवान् शंकर को प्रसन्न  करने के लिए घोर तप किया.. भोले भंडारी प्रसन्न हो गए ..वर मांगने को कहा ..शाल्व ने  शंकर से एक ऐसे विमान की मांग की जो अजेय हो और जो मन द्वारा नियंत्रित होता हो यानी मन से संचालित होता हो ...एवमस्तु! शंकर ने कहा और सौभ नामक विमान उसके हवाले कर दिया ..जिसे कुशल शिल्पी मय नामक दानव ने तैयार किया था ..यह एक मायावी विमान था ...जो अदृश्य भी हो सकता था और अँधेरे में केवल शाल्व को दिखता था इसी विमान में बैठ कर उसने यदुवंशियों से भयंकर युद्ध छेड़ दिया ....द्वारिकावासी घबरा उठे ...श्रीकृष्ण थे नहीं, वे युधिष्ठिर के साथ राजसूय यज्ञ में शामिल होने के लिए इन्द्रप्रस्थ आये हुए थे ...अब शाल्व से भिड़ने की जिम्मेदारी प्रद्युम्न पर थी ...भयानक युद्ध हुआ जो २७ दिनों तक चलता रहा ...सौभ जैसे मन चालित विमान के चलते शाल्व को हराना मुश्किल था ...आखिर कृष्ण के लौटने पर सौभ विमान उनके युद्ध कौशल के आगे विनष्ट हो गया और शाल्व मारा गया ....

अब देखिये आज मन के सहारे मशीनों का संचालन संभव  होता दिखायी दे रहा है ...आप विश्वविख्यात टाईम पत्रिका की यह रिपोर्ट पढ़िए ..जिसमें मन की बीटा तरंगों के संकेन्द्रण और एक जुगत 'द बाडी वेव' के सहारे कम्प्यूटर पर कमांड देना संभव  हो गया है ....ओंटारियो(अमेरिका ) की  पावर जेनेरेशन न्यूक्लियर प्लांट के कई वाल्वों को मात्र मन की बीटा किरणों के सहारे खोलने की करामात वहां के एक प्रबन्धक ने कर दिखायी ....इन बीटा तरंगों को कम्यूटर तक ट्रांसमिट करने का काम आई पाड सरीखी एक जुगत करती है जिसे कलाई में बान्ध दिया जाता है ...इस प्रविधि के और विकसित होने पर घर बैठे मन के कमान्ड से ही  कई कामों को अंजाम दिया जा सकेगा ..चाहे वह आफिस से घर के काम काज हों ..या युद्ध के मैदान में बमों का प्रहार -बस सोच भर लीजिये काम पूरा ...

अब कोई यह कहे कि अरे यह जुगत तो हमारे यहाँ पहले से ही थी ...सौभ विमान नहीं था? आपकी क्या प्रतिक्रया  होगी तब ? 

48 टिप्‍पणियां:

  1. आपने जो बताया वो अब तथ्य है जबकि कुछ समय पहले तक इसी को कथा,गल्प और फंतासी न जाने क्या-क्या कहा जा सकता था.

    ...और हाँ,हमने यह भी सुन रखा है कि पुष्पक विमान में चाहे जीतने लोग बैठ जाते थे,एक सीट खाली रहती थी,कभी इस पर भी 'टॉर्च' मारिये ना !

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  2. मस्तिष्क में हलचल पैदा करने वाला विषय है ...
    आशा है जारी रखेंगे !

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  3. अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी दी है आपने .

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  4. अविश्वसनीय साम्य तो नहीं कहा जा सकता है . विज्ञान आज जहाँ पहुंचा है वो हमारे ऋषि-मुनियों के लिए भृकुटी तनने भर से ही हो जाता था . आपकी दृष्टि से साम्य देखना रोचक तो है ही साथ में ज्ञानवर्धक भी .

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  5. हो सकता है वे प्राच्य विद्याएँ मात्र कलपना न हो। आज हम भौतिक वर्तमान प्रौद्योगिकी की संरचना के आधार पर उसे कल्पना मानते है, हो सकता है उस समय इस वर्तमान प्रौद्योगिकी से सर्वथा भिन्न अभौतिक प्रौद्योगिकी विकसित कर ली गई हो, आज की विद्युत उर्जा की जगह किसी अदृश्य अणु की उर्जा विधि प्रयुक्त होती हो उसी माध्यम से सभी तरंगो किरणों और मन-तरंगो का उपयोग साध लिया हो। और ऐसा सभी ज्ञान-विज्ञान साधना पद्धति से उपार्जित होता हो अतः बहुत ही कम व्यक्तियों में प्रसार पाता हो। यंत्रो की आवश्यक्ता ही न रहती हो कि भौतिक रूप से दिखाई दे। और उन्हें बनाने की विधिया कहीं लिखित में मिले।

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  6. हमारी जुगत थी या नहीं , यह तो पता नहीं लेकिन भविष्य में विज्ञानं में सब कुछ संभव है । हमने इंटरनेट के बारे में पहली बार १९९० में सुना था । अब रोजमर्रा का साधन बन गया है । घर बैठे बिना खर्चे कहीं भी किसी से भी बात कर सकते हैं ।
    नेनो टेक्नोलोजी बड़ी काम की चीज़ है ।

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  7. ये विमान काल्पनिक था या नहीं पता नहीं. परन्तु असंभव कुछ भी नही.

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  8. आप साबित करना चाहते हैं कि हमारा कल्पना जगत बहुत समृद्ध है और आज विज्ञान उन कल्पनाओं को साकार कर रहा है।
    लेकिन जो लोग समझते हैं कि वे कल्पनाएँ सब सच थीं उन्हें तो आप के आलेख के रूप में एक और प्रमाण मिल गया है। अब तक की टिप्पणियाँ यही बता रही हैं।

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  9. पुष्पक विमान को तो हमने खुद अपनी आंखों से देखा है। भारत के टैंपों पुष्पक विमान का ही अंश हैं, कितने भी लोग बैठ जायें, ड्राईवर एक और को घुसेड ही देता है। :)
    दिनेशजी की टिप्पणी पर ध्यान दिया जाये।

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  10. मुझे लगत है अरविन्द जी ... हर युग में विज्ञान अपनी चरम सीमा पर ज़रूर पहुंचा होगा ... कलयुग भी ज़रूर पहुंचेगा ... मैं तो उस दिन का इंतज़ार कर रही हूँ जब मैं 'तथास्तु ' बोलूं ... और जहां मेरा मन करे वहाँ पहुँच जाऊं .. :)) आई मीन प्रकट हो जाऊं .. उसी वक़्त ... मेरी आशा है मेरे रहते ये खोज हो जाए .. :)

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  11. arvind ji .. 5-6 baat try kiya tab bhi hindi waala comment publish nahi hua ... roman hindi waala ho gaya ... :(

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  12. ..कांख-कांख कर विज्ञान गुत्थी सुलझाता जाय और कोई कहे यह तो हमारे पास पहले ही से था! हम विज्ञान होते तो कहते भैया पहले तुम यइच बताय दो कि तुम्हारे पास का का है? अपनी सभी प्रकार की खोज का जल्दी से पेटेंट कराय लो। फिर हमने कुछ नई चीज ढूँढी तो मत कहना ...ये तो हमारे पास पहिल से था।
    ...काम न काज के, दुश्मन विज्ञान के।:-)

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  13. @दिनेश जी ,
    यही तो बात है देश में वैज्ञानिक विकसित होना नजरिया कितनी टेढ़ी खीर है:(
    @ नीरज जी ,
    क्या बात कही है हा हा हा ..दिनेश जी का मर्म मैं समझ रहा हूँ ...मगर आप भी तनिक मदद करिए न ..
    @ देवेन्द्र जी ,
    अब देख लीजिये न कितना जुलम किये जा रहे हैं विज्ञान पर ....

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  14. *देश में वैज्ञानिक नजरिया विकसित होना

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  15. विज्ञान की बात भी खूब कही आपने पंडित जी! इतिहास को ही देख लीजिए न.. जब आजकल बच्चे इतिहास की किताब में पढते हैं कि मोहेनजोदारो और हडप्पा की सभ्यता टाउन प्लानिंग के लिए मशहूर थी.. चौड़ी सड़कें, नालियां, स्नानघर, अन्न भंडारण के लिये वेयरहाउस.. तो वे भी यही कहते हैं कि सब बकवास है, उस समय जब ये सब था तो आज कहाँ गायब हो गया.. टूटी सड़कें, बदबूदार नालियां, नदारद पानी, और नोएडा के वेयरहाउस को तोडकर कार-पार्किंग बनाना..!!
    और फिर साइंस के मामले में ये सब!! आप जारी रखिये ये श्रृंखला, टू इं वन है.. शास्त्रीय और आधुनिक.. दोनों का मज़ा!!

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  16. वैज्ञानिक आविष्कारों के चलते सब मुमकिन होता जा रहा है........ वैचारिक पोस्ट

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  17. ऐसा सुना जाता है की महाभारत काल में जितना विज्ञान उन्नत था अभी उस तक पहुँचना टेढ़ी खीर है ... रोचक कथा ... अच्छी लगी यह शृंखला

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  18. भारतीयों को ’महानता’ का रोग है। हर नयी खोज को अपने पुराणो मे खोज निकालते है और कहते हैं कि यह तो हमारे ऋषीयों ने पहले से ही खोज रखा था, लेकिन आधुनिक विज्ञान के 400 वर्षो के इतिहास मे भारत ने क्या दिया है ? सी वी रामण/और जगदीश चंद्र बोस के अतिरिक्त किसी भी वैज्ञानिक पर हम अपना हक नही जता सकते। अन्य सभी भारतीय वैज्ञानिको ने भारत मे कार्य नही किया है।
    हम गर्व करते रहते है कि हमने शून्य दिया लेकिन उसके बाद स्वयं शून्य हो गये!
    पुराणो मे विज्ञान ढुंढने वालो के लिये एक प्रश्न है कि नयी खोजो को पुराण मे ढुंढने की बजाये, पुराणो के आधार पर नयी खोज क्यों नही की जाती है ? क्यों नही हम इन ग्रंथो को पढ़कर नये आविष्कार करते है ?
    कुछ महान आत्मा तो यहां तक दावे करते है कि जर्मनो ने भारतीय ग्रंथो को पढकर कई यंत्र बनाये है। वाह! भाषा हमारी, ग्रंथ हमारे, हम कुछ नही कर पाये और उन्होने तकनीक खोज निकाली, यंत्र बना डाले.... क्या कहने...

    भारतीय ग्रंथो की कल्पनाशीलता पर तो हम भी मुग्ध है...

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  19. सृष्टि में विकास और प्रलय का क्रम चलता ही रहा है, ये सब कतई असंभव नहीं लगता।

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  20. कल्‍पनाशीलता भी हकीकत जितनी ही जरूरी होती है.

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  21. उत्कृष्ट विवेचना, मन के भेद खोल लिये तो सब संभव है।

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  22. is this our forgotten history?!!
    pl see the link http://www.youtube.com/watch?v=TFL3X4lhcaU&feature=related

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  23. आशीष श्रीवास्तव के साथ सुज्ञ जी और अनोनीमस की टिप्पणी भी विचारणीय है। यूरोपीयंस का हीरक और रॉकेट से पहला परिचय भारत द्वारा ही हुआ था।

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  24. 'अनाम’ जी ने जो यु ट्युब का लिंक दिया है वह हिस्ट्री चैनल का है। हिस्ट्री चैनल का ना तो हिस्ट्री से कोई रिश्ता है ना विज्ञान से! ये चैनल ’ईंडीया टीवी’ का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप मात्र है है। इस चैनल पर रिचर्ड होगलैंड, जकारीया सीयाचीन और एरीक वान डैनीकेन जैसे ’क्षद्म वैज्ञानिक’ ज्यादा नजर आते है।

    हिस्ट्री चैनल के बारे मे कुछ जानकारी यहां पढ ली जाये।

    राकेट टेक्नालाजी टिपू सुल्तान और उनके पिता हैदर अली द्वारा विकसीत की गयी थी लेकिन यह किसी पुराणो से सीखी गयी तकनीक नही थी। इसकी जड़े तो चीन की आतिशबाजी मे है, जो तैमूर लंग/चंगेज खान जैसे मंगोलीयन आक्रांताओ के साथ भारत पहुंची थी।

    भूतकाल मे जीने वाली सभ्यता और संस्कृति पनप नही सकती, जब तक हम वर्तमान मे नही जागेंगे और वैज्ञानिक चेतना का विकास नही करेंगे, इस ’महान’ देश का कुछ नही हो सकता।

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  25. अनुराग जी ,
    क्या सोच और कल्पना कमतर योगदान है जो हम सभी खामखा प्राचीन भारत में वैमानिकी और अन्य उन्नत तकनीकों का प्रमाण खोजते फिरते हैं ?
    डैनिकेंन ने ऐसी तामाम किताबें लिख मारी ...मगर क्या प्रमाणित हुआ ? विज्ञान ठोस प्रमाण मांगता है ....भारत के योगदान अन्य जिन क्षेत्रों में है वह कम श्लाघनीय नहीं है ? दूर की कौड़ी की सोच क्या कुछ कम है ?

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  26. @आशीश जी
    कैसे समझाऊँ?
    आभार आपका :)

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  27. इस नई श्रृंखला के लिए शुभकामनाएं. वाकई आज के विज्ञान लेखक आने वाले कल के आविष्कारों की भी आधारशीला रख सकते हैं.
    कुछ दिनों पूर्व 'ऑल इण्डिया रेडिओ' पर इसी विषय पर आपके विचार सुने, अच्छा लगा.

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  28. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  29. आशीष श्रीवास्तव जी,

    भारतीय इस ’महानता’ के रोग न भी पाले, आत्म-गौरव से वंचित रहे। यह दिमाग में बैठा ले कि भारतीय न कुछ पहले थे, कपोल कल्पनाओं के मसखरे थे आधुनिक विज्ञान को कुछ नहीं दिया और अन्ततः शून्य हो गए। पर निश्चित मानिए इस तरह के 'हीनता-बोध' के साथ भी भारतीय कभी विकास नहीं कर सकते।

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  30. बहस तो चलती ही रहती है कि पहले सिर्फ कल्पना ही थे जो बाद में अविष्कार हुए ...यदि उस समय में लोंग इतने काल्पनिक थे तो उनकी कल्पनाशीलता को तो नमन कर ही लें !
    ज्ञानवर्धक !

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  31. ....ये पश्चिम वाले जो आज खोज रहे हैं वह तो हमारे यहाँ हजारो साल पहले से ही था ...मेरा भी यही मानना है मगर सोच का अंतर बस यही है कि ये चीजें बस लोगों की कल्पनाओं में ही विद्यमान थीं ...इनका कोई भौतिक वजूद नहीं था ..क्योकि उन दिनों आज जैसी प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी
    हमारी पुराकथाओं और आज की विज्ञान कथाओं में कई साम्य हैं
    स्टील्थ विमान नहीं था ,उसकी अवधारणा थी ,बुद्धिमान मशीनें न थी उनकी अवधारणा थी ,कृत्रिम बुद्धि न थी उसके बीज थे .बढिया पोस्ट .

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  32. कन्सेप्चुअल मॉडल तो थे ही :) और मस्त वाले.

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  33. .
    .
    .
    देव,

    आप भी कहाँ से प्राचीन महान भारत की हर उपलब्धि को संशय से देखने वाले हीनता-बोध-वादियों के चक्कर में आ यह लिख रहे हैं:-

    ये पश्चिम वाले जो आज खोज रहे हैं वह तो हमारे यहाँ हजारो साल पहले से ही था ...मेरा भी यही मानना है मगर सोच का अंतर बस यही है कि ये चीजें बस लोगों की कल्पनाओं में ही विद्यमान थीं ...इनका कोई भौतिक वजूद नहीं था ..क्योकि उन दिनों आज जैसी प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी ....अब पत्थर युग में प्रौद्योगिकी के नाम पर बस विविध उपयोगों हेतु तराशे पत्थर ही तो थे ....तब नैनो टेक्नोलोजी थोड़े ही थी ...मगर हाँ ,सोच के मामले में भारतीयों की कोई सानी नहीं थी ..भले ही वह एक अरण्य सभ्यता थी मगर हमारे पुरखे ,ऋषि गण अपनी सोच और कल्पनाओं के मामले में बहुत आगे थे ..वे बीन बीन कर दूर की कौडियाँ लाकर सहेज रहे थे ताकि भविष्य के उनके वंशधर उन कल्पनाओं का सहारा ले कोई चमत्कार कर सकें ...और आज सचमुच हमारे पास वह उपयुक्त प्रौद्योगिकी है जो अगर पुरखों की कल्पनाओं से संयुक्त हो जाय तो हमारे सामने एक सर्वथा अनोखी दुनियाँ,एक आश्चर्यलोक उपस्थित हो जाए -वैसा ही जैसा की विज्ञान कथाओं में वर्णित है ...इसलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि हमारी पुराकथाओं और आज की विज्ञान कथाओं में कई साम्य हैं ...

    जैसा कि सुज्ञ जी बता ही चुके हैं कि "हो सकता है वे प्राच्य विद्याएँ मात्र कलपना न हो। आज हम भौतिक वर्तमान प्रौद्योगिकी की संरचना के आधार पर उसे कल्पना मानते है, हो सकता है उस समय इस वर्तमान प्रौद्योगिकी से सर्वथा भिन्न अभौतिक प्रौद्योगिकी विकसित कर ली गई हो, आज की विद्युत उर्जा की जगह किसी अदृश्य अणु की उर्जा विधि प्रयुक्त होती हो उसी माध्यम से सभी तरंगो किरणों और मन-तरंगो का उपयोग साध लिया हो। और ऐसा सभी ज्ञान-विज्ञान साधना पद्धति से उपार्जित होता हो अतः बहुत ही कम व्यक्तियों में प्रसार पाता हो। यंत्रो की आवश्यक्ता ही न रहती हो कि भौतिक रूप से दिखाई दे। और उन्हें बनाने की विधिया कहीं लिखित में मिले।"

    पुराण कथाओं में लिखा गया है तो यह सब सच ही होगा... आज भी इन विधाओं के जानकार मौजूद हैं... वही अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, जापान और इजरायल की प्रयोगशालाओं में बैठ तमाम तरह के आधुनिक विमान ईजाद करते हैं... दुनिया को भरमाने के लिये बताया जाता है कि यह विमान ठोस, तरल या गैसीय ईंधन से चलते हैं ताकि भारत जैसे देशों के मूरख वैज्ञानिक उन इंजनों का इजाद करने में ही जिंदगी खपा दें जबकि यह सभी विमान चलते हैं साधना पद्धति से उपार्जित अदॄश्य अणु की उर्जा से !

    आपको चेता रहा हूँ कि ज्यादा ऐसा-वैसा नहीं लिखिये नहीं तो साधना पद्धति से उपार्जित अदॄश्य अणु की उर्जा धारी कोई कहीं बैठे-बैठे हि जल हाथ में ले संकल्प कर आपको किसी निम्न श्रेणी के जीव या पाषाण में न तब्दील कर दे...यह चेतावनी आदरणीय द्विवेदी जी, रोहिल्ला जी व आशीष श्रीवास्तव जी के लिये भी है...

    आधुनिक कबीर जस्टिस काटजू भले ही कहते रहें "most people in India are of a very low intellectual level, steeped in caste-ism, communal-ism, superstitions and all kinds of feudal and backward ideas". पर हकीकत यही है कि राज नब्बे परसेंट का ही चलेगा... कल को यही पोस्ट आपके मंतव्य के विपरीत निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिये सबूत बनाकर पेश की जायेगी... :)


    ...

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  34. @प्रवीण जी ,
    डरे हुए तो आप भी लग रहे हैं :)
    मेरा एक संकल्प है उधर ही बढ़ रहा हूँ ,आप सरीखे मित्रों का संबल मिलता रहे बस!
    काटजू साहब भी प्रेरणा पुरुष है ..जो उनका हश्र होगा वही हमारा भी ...

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  35. विज्ञान कथाएं निश्चय ही बीज रूप में पौराणिक ग्रन्थों सन्दर्भों ,मौजूद रही हैं .हम भी इस आग्रह मूलक विचार से सहमत नहीं है कि आज का सारा ज्ञान विज्ञान ,प्रोद्योगिकी वेदों के वक्त भी उपलब्ध थी .विचार रहा आया है सूत्रं रहा आया है .बेशक कल का विचार आज की हकीकत है .कह सकतें हैं ऋषियों ,मनीषियों के पास एक दूरदृष्टि विज़न था .बुद्धिमान मशीनों स्वयम चालित चालाक रहित अदृश्य बने रहने वाले विमानों की अवधारणा मौजूद थी लेकिन स्टील्थ विमान नहीं जो राडारों को चकमा दे मंजिल की जानिब आ जासकें .

    बाण गंगा आजके अधुनातन पुलों का बीज रूप था .भूमिगत ,जल के नीचे ,विस्फोट कर आज जो कुछ भी किया जा सकता है उसके सूत्र यहाँ वहां दंत कथाओं में फैले हुए हैं .

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  36. और हाँ बुम्रांग तो था ही .लक्ष्य को न बींध पाने की स्थिति में प्रक्षेपण स्थल तक लौट आने वाला मिसायल .

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  37. प्रवीण शाह जी संगतियों संभावनाओं का क्षितिज सदैव ही व्यापक रहा है .कल्पना के पंख लगाके आदमी कहीं भी पहुँच सकता है व्यतीत में भी यही तो विज्ञान कथाओं का दायरा है .

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  38. @ आपको चेता रहा हूँ कि ज्यादा ऐसा-वैसा नहीं लिखिये नहीं तो साधना पद्धति से उपार्जित अदॄश्य अणु की उर्जा धारी कोई कहीं बैठे-बैठे हि जल हाथ में ले संकल्प कर आपको किसी निम्न श्रेणी के जीव या पाषाण में न तब्दील कर दे...यह चेतावनी आदरणीय द्विवेदी जी, रोहिल्ला जी व आशीष श्रीवास्तव जी के लिये भी है...

    प्रवीण शाह साहब,
    अब उनसे क्या कहुँ जो 'साधना' शब्द को तंत्र-मंत्र-हाथ जल संकल्प मानते है। जनाब, गुणाकार के पहाड़े भी ध्यान से स्मृति में बिठाना साधना है। किसी प्रमेय को सिद्ध करना साधना है। स्मृति के आधार पर मस्तिष्कीय हलचल से उन्हें हल कर देना साधना का प्रयोग।
    आप विशिष्ट ज्ञानियों को भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। भारतीय ज्ञान आवेशी आक्रोशी और अपनी विरोधी विचारधारा का समूल नाश करने की मंशा वाली विचारधारा नहीं रही। शोषण की रुदालियों को इसीलिए यहां अधिक अवसर नहीं मिला। हां भारतीय ज्ञान में विज्ञान के साथ साथ हमेशा से नैतिकता और अहिंसा को जोड के रखा गया। इसीलिए वह विचित्र दृष्टिगोचर होता है। पुराणों में पाप के नाश की प्रेरणाएं है, विचारधारा के नाश की नहीं। इसलिए भय का कोई कारण नहीं है। और हां हाथ में जल लेना जीवनदायी जल की साक्षी से संकल्प प्रतीज्ञा आदि करना होता है। जल छिडक देने मात्र से कुछ नहीं होता, संकल्प इसीलिए लिया जाता है ताकि वचनबद्ध व्यक्ति पुरूषार्थ में लीन रहे।
    जिन्हें मानना है भारतीय ज्ञान तुक्के थे, कपोलकल्पित थे। व्यक्तिगतरूप से मानते रहें। किन्तु मेरा मात्र यही कहना है कि जैसे सार्वजनिक रूप से गौरव मण्डित करना अतिवाद है तो हीनता बोध का प्रसार भी अतिवाद ही नहीं खतरनाक भी है। दूसरी संस्कृति को श्रेष्ठ और दाता और अपनी संस्कृति को याचक स्वीकार कर लेना ग्लानी प्रेरक है।
    यह भी मान लीजिए कि अंको की इज़ाद तब भारतीयों ने 'सु-डोकु' खेलने के लक्ष्य से की होगी। क्योंकि इसकी वैज्ञानिक उपयोगिता का आभास भी उन्हें न रहा होगा, कल्पना तो दूर की कौडी है।
    इसलिए मित्र ज्ञान के अहिंसक साधको से भय का कोई कारण नहीं।

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  39. the Indian epics everyday reminds us the great talents we had in past and the possibilities of future too !!!

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  40. @सुज्ञ जी ,
    प्रवीण जी अपना संभालें ,मैं केवल यह कहता हूँ कि अगर प्रौद्योगिकी उपलब्ध होती तो हम पुस्प्का विमान पर उड़ रहे होते...मगर हाँ पुष्पक विमान की सोच एक दिन हमें उसे हमारे सामने साकार करेगी अवश्य -क्या यह कम योगदान है कि हमारे आदि मनीषियों ने ऐसी कल्पनाएँ की थीं -उनका यही अवदान बहुत है!हम कृतग्य हैं उनके!

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  41. सम्मान्नीया ज्योति मिश्रा जी एवं आदरणीय अरविन्द मिश्रा जी,

    भावनाओं को समर्थन के लिए आपका आभार!!

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  42. संशयवादियों, हीनता-बोध-वादियों या निराशावादियों से अपना कोई द्वेष नहीं है, आहत है तो इस वाद के सार्वजनिक संक्रमण और प्रसार से।

    मेरी पूर्व टिप्पणी में जो ‘कल्पनाएँ’ व्यक्त की गई है उसका आधार भी भविष्यकालिन कल्पना मात्र है……

    सन् 2112 एक वृद्ध और एक युवक।
    वृद्ध कहता है हमारे पुरखे बड़ी से बड़ी गणनाएँ दिमाग से करते थे,उन्होने ‘ब्रेन-कैल्क्यूलेटर’ बहुत पहले ही खोज लिया था।
    युवक अपनी कलई पर बंधे कम्प्यूटर को दिखाते हुए – बिना इसकी सहायता से? हैSSय अंकिल क्यों मजाक करते हो, आपको भी अपने पुरखों की बडाई और डिंग मारने की लत लग चुकी है। आज से बरसों पहले पाश्चात्य वैज्ञानिकों नें गणनायंत्र की खोज की थी, आपके बाप दादा भी उसी यंत्र से अपनी बेलेंस-शीट मिलाते थे। आज हम युवाओं को पूरा इतिहास पता है, हा हा, ‘दिमाग से गणनाएँ’? हवा में? आपके पुरखों ने दिया क्या है? अहसान फरामोश हैं आप सभी परंपरावादी। किसी को श्रेय ही नहीं देना चाहते। बस आत्मगौरव में मदहोश रहो!! अच्छा, अंकल अगर दिमाग से गणना हो सकती है तो कर के दिखाओं। वृद्ध विचार में पड़ गया। जीवन पर कम्प्यूटर से गणना का आदी वह वृद्ध भी दिमागी गणना की विधि नहीं जानता था। उसके पास साबित करने को कोई साक्ष्य नहीं था। वृद्ध बोले वह साधना पद्धति थी। “अंकल!! इस कम्प्यूटर से दस गुना बडा कैलक्यूलेटर होता था जो भारी भरकम बटन-सैल से चलता था। अपनी ओल्ड-बुकें निकालो, बाताओं तुम्हारा ‘ब्रेन-कैल्सी’ किस डिजाईन का होता था और किस तरह के सैल चार्जर या उर्ज़ा से चलता था?” आपको तो इतिहास भी कुछ पता है? गणना का प्राचीन कागजी स्वरूप १७०१ का युरोप से मिला एक नोट-बुक (पहले कागज की नोट-बुक हुआ करती थी)का पन्ना है जिस पर 2 X 2 =4 लिखा हुआ है गणना का सबसे प्रचीनतम यही दस्तावेज़ है यही एक मात्र साक्ष्य है वो भी पश्चिम में मिला। बिना X ₊ ₋ ÷ आदि के प्रयोग के कागज पर भी गणना सम्भव नहीं होती थी। आज हम दिमाग के अंश अंश को स्कैन कर देख सकते है और जानते है दिमाग में यह ₊ ₋ X ÷ सपोर्ट सिस्टम उपलब्ध ही नहीं है। कर सकते हो तो कोई नया आविष्कार कर के दिखाओ। बैठे ठाले गौरव मारने का क्या तुक?

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  43. प्रवीण शाह साहब,

    अदृश्य विचारों का प्रभाव

    मंत्रों के अर्थों पर गौर करें तो पाएँगे कि मंत्र दुआएँ, शुभकामनाएँ और शुभ-संकल्प से विशेष कुछ भी नहीं होते। और सभी मानते है कि दुआओं का कुछ न कुछ प्रभाव तो होता ही है। कुछ नहीं तो नैतिक रूप से मानसिकता शान्त पवित्र और हल्की फूल सी बनती है। आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है कि शुभ-संकल्पो की सूचना बार बार मस्तिष्क को दी जाय तो अदम्य इच्छाशक्ति पैदा होती है। इस शक्ति से उपार्जित आत्मबल और आत्मविश्वास से असम्भव कार्य सम्पन्न होते देखे गए है। मरणासन्न रोगी भी आत्मविश्वास से जीने का संकल्प-चिंतन करे तो अवश्यंभावी मौत तक से उबर आता है। और निरोगी जीने की तमन्ना छोड़ कर लगातार मृत्यु का चिंतन करे तो काल के गाल में समा जाता है।

    घोर कम्यूनिष्ट और आधुनिक भौतिकवादी भी थोक के भाव दुआएँ और शुभकामनाएँ लेते देखे गए है। कोई उन्हें समझाए कि किसी ओर के आपके बारे में शुभ सोचने भर से आपका क्या भला होने वाला है?

    यह बात अलग है कि दाता के ‘शुभध्यान’ में रहने से, दुआएं अर्पण करने वाले की मानसिकता अवश्य सधेगी।

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  44. .
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    उस समय इस वर्तमान प्रौद्योगिकी से सर्वथा भिन्न अभौतिक प्रौद्योगिकी विकसित कर लिया जाना... आज की विद्युत उर्जा की जगह किसी अदृश्य अणु की उर्जा विधि प्रयुक्त होना व उसी माध्यम से सभी तरंगो किरणों और मन-तरंगो का उपयोग साध लिया जाना... और ऐसा सभी ज्ञान-विज्ञान का साधना पद्धति से उपार्जित होना...अतः बहुत ही कम व्यक्तियों में प्रसार पाना...

    आदरणीय सुज्ञ जी,

    ससम्मान यह कहना चाहूँगा कि साधना मस्तिष्क के जरिये विचार प्रक्रिया को एक निश्चित दिशा की ओर ले जाने को कहा जाता है... ज्ञानेन्द्रियाँ रखने वाले मनुष्यों व कुछ मामलों में पशुओं के व्यवहार को, हो सकता है कोई साधक प्रभावित कर ले... परंतु निर्जीव अणुओं, परमाणुओं व उर्जा को कोई साधना से इस तरह साध ले कि बिना किसी यंत्र या निर्माण प्रक्रिया के इच्छा मात्र से ही चलने वाला विमान सामने खड़ा हो जाये...यह संभव नहीं...इस तरह का काम किया जा सकता है, यह संभावना व्यक्त करना ही कल्पनालोक में निवास करने की चुगली करता है... अरविन्द मिश्र जी ने ओंटारियो का जो उदाहरण दिया है उसमें पावर जेनेरेशन न्यूक्लियर प्लांट के प्रबंधक के मस्तिष्क में उत्पन्न बीटा तरंगों को कलाई पर बंधे उपकरण ने पढ़ा, और उनके आधार पर आई पॉड सरीखी जुगत ने एक कमाँड पावर जेनेरेशन न्यूक्लियर प्लांट तक पहुंचाई जिससे वहाँ पर उन वाल्वों को खोलने की प्रणाली चालू हो गयी... इस सब के बीच कलाई पर बंधे उपकरण, आई पॉड सरीखी जुगत व पावर प्लान्ट के वाल्वों को चालित करने वाली मोटरें सभी को उर्जा दी गयी यह हमें नहीं भूलना चाहिये...

    अब जब बात निकली ही है तो यहाँ यह भी बता दूँ कि एक शब्द है 'सुपर कंडक्टर'... यानी एक ऐसा पदार्थ जिसके जरिये गुजरने पर बिजली के करेंट का कोई क्षय (कंडक्टिंग लॉस) न होता हो... माइनस २७३ डिग्री सेल्सियस पर कई पदार्थ सुपर कंडक्टर की तरह बर्ताव करते हैं पर आज का आदमी रूम टेम्परेचर पर सुपर कंडक्टर का गुण रखने वाले पदार्थ की खोज में लगा है यदि यह खोज हो गई तो मानव मस्तिष्क से दी जाने वाली कमांड्स को दूरस्थ मशीनों तक बिना किसी क्षय के ले जाना संभव होगा तथा वर्तमान मशीनों की बजाय बेहतर प्रदर्शन वाली मशीनों का दौर शुरू हो जायेगा... पर सुपर कंडक्टर अभी कम से कम चालीस-पचास साल दूर है... :(


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  45. प्रवीण शाह साहब,

    सबसे पहले तो आपके द्वारा प्रदत्त परिभाषा “साधना मस्तिष्क के जरिये विचार प्रक्रिया को एक निश्चित दिशा की ओर ले जाने को कहा जाता है” सही नहीं है। वस्तुतः यह ‘ध्यान’ की परिभाषा है ।

    किसी भी लक्ष्य कार्य आदि को सिद्ध करने के उद्देश्य से किया जाने वाला परिश्रम साधना कहलाता है। परिपूर्ण होने पर इसे सिद्धि सिद्ध साध लिया या साधा कह सकते है। आप अध्ययन कर रहे है तो कह सकते है आप ज्ञान की साधना कर रहे है और आपने विद्या उपार्जित कर ली तो कह सकते है आपने ज्ञान साध लिया। उसीतरह प्रयोग-अनुसंधान साधना है तो आविष्कार सिद्धि।

    @"....प्रबंधक के मस्तिष्क में उत्पन्न बीटा तरंगों को कलाई पर बंधे उपकरण ने पढ़ा, और उनके आधार पर आई पॉड सरीखी जुगत ने एक कमाँड पावर जेनेरेशन न्यूक्लियर प्लांट तक पहुंचाई जिससे वहाँ पर उन वाल्वों को खोलने की प्रणाली चालू हो गयी... इस सब के बीच कलाई पर बंधे उपकरण, आई पॉड सरीखी जुगत व पावर प्लान्ट के वाल्वों को चालित करने वाली मोटरें सभी को उर्जा दी गयी यह हमें नहीं भूलना चाहिये..."

    प्रवीण शाह साहब,

    निसंदेह गजैट व वाल्व उपकरणों को विद्युत उर्जा दी गई किन्तु मस्तिष्क से बीटा तरंगों को किस उर्जा से उत्प्रेरित किया गया? मस्तिष्क की तरंगे अपने शरीर के तंत्रिका तंत्र का सहारा लेकर मात्र शरीर में ही सूचनाएं प्रेषित करने में सक्षम है, किस उर्जा से वह मस्तिष्कीय बीटा तरंगें बाहरी प्रसारण में समर्थ हुई और कलाई के गजैट के रिसिवर तक पहुंची?

    अदृश्य उर्जा से हमारा अभिप्राय वर्तमान में प्रचलित उर्जाओं से भिन्न था। इसलिए ‘उत्कृष्ट विद्युत संचालक’ (सुपर कंडक्टर ) की शोध हमारी चर्चा का विषय नहीं है। विद्युत उर्जा को कोई न कोई दृश्यमान संचालक (कंड़क्टर) चाहिए। वह किसी पदार्थ पर सवार होकर ही संचालित होती है। वहीं ध्वनि आदि तरंगो को किसी दृश्यमान सवारी की आवश्यक्ता नहीं। निसंदेह विद्युत का उर्जा उपयोग आधुनिक विज्ञान की देन है और विद्युत उर्जा की खोज का दावा कभी कोई पौराणिक बडाईमार नहीं करता। यह उसकी ईमानदारी ही है कि उसने कभी नहीं कहा कि विद्युत से चलने वाले फलां फलां साधनो की हमारे मनीषियों ने पहले ही खोज कर ली थी। उसने हमेशा अज्ञात उर्जा (शक्ति) प्रक्रिया या तकनिक की बात की क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता वो पद्धति क्या हो सकती है। अतः सम्भावनाएँ व्यक्त करना मजबूरी है अदृश्य को अदृश्य और अज्ञात को अज्ञात कहना ही तो इमानदारी है। अदृश्य और अज्ञात शब्द गूढ़ता गढ़ने के लिए नहीं है।

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