यात्रारंभ से आगे ....
यह तो अच्छा हुआ हम बोध गया में ज्यादा देर बिना रुके पहले सीधे गया पहुंचें क्योकि कम से कम मेरे लिए तो बोध गया में रुकने और 'बोध' प्राप्ति के बाद फिर गया जाने का कोई औचित्य ही न रहता ...मेरी मित्र के पितरों के लिए श्राद्ध अनुष्ठान मंत्रोच्चार के बीच चल रहा था -इसी बीच मैंने आस पास का कुछ अन्वेषण आरम्भ कर दिया...यहाँ भी उसी चक्रवाती मानसून ने अब धावा बोल दिया था और बरसात ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे ..सूर्यास्त नहीं हुआ था मगर अभी ही रात जैसा माहौल बन गया था ....बरसात की रात में गया और पितरों के आह्वान और ख़ास गंध वाले धूप दीप और अगरबत्तियों ने माहौल में एक रहस्यात्मकता और भय का संचार कर दिया था जिसने मुझ जैसे नास्तिक और अघी किस्म के मानव को भी संवेदित करना आरम्भ कर दिया था ....हजारों साल से गया (कम से कम तीन हजार वर्ष पहले से ) को पितृ -तीर्थ (पितर तीर्थ ) का गौरव प्राप्त है -यहाँ का सकारात्मक पक्ष यह है कि उस समाज में जहां आधुनिक जीवन शैली ने अपने पितरों के प्रति आदर भाव और कृतज्ञता में निरंतर क्षरण का काम किया है -यहाँ पितरों के प्रति श्रद्धार्पण का एक भरा पूरा विधि विधान ही है -अनुष्ठान का शाश्वत आयोजन है -और यह सब हिन्दू जीवन दर्शन के उस प्रबल विचार की बदौलत है जिसके अनुसार आत्मा अजर अमर है ....मनुष्य देह से मृत्यु को प्राप्त होता है, आत्मा नहीं मरती ....
गया एक अति प्राचीन तीर्थ है ...और मान्यता है कि आत्मा की शान्ति और उसके स्वर्ग /बैकुंठ तक बिना बाधा के पहुँचने के पहले उसकी (आत्मा ) तृप्ति आवश्यक है अन्यथा वह प्रेत योनि में पडी रहती है ....इसी प्रेत योनि से पितरों को मुक्ति दिलाने के लिए यहाँ श्राद्ध कर्म को एक लम्बे अनुष्ठान के जरिये सम्पन्न किया जाता है जिसमें पितरों की तृप्ति के लिए उन्हें जौ और चावल के आटे के बने और मधु - घी और काले तिल lसे युक्त कर छोटे छोटे गोले (पिंड ) जल सहित अर्पित किये जाते हैं और मन्त्रों से आह्वान कर प्रेत योनि में पड़े पितरों को बुलाया जाता है ...यह क्रिया वैसे तो बारहों माह चलती है मगर पितृपक्ष (भादव की चतुर्दशी से क्वार के अमावस्या तक -१७ दिन का विशेष मेला ) में विशेष महत्व की हो जाती है और अपार जन समूह अपने पितरों को तारने के लिए गया आ पहुँचता है -जाहिर है यह हजारो साल से अनवरत होता आया है ....
मैं देख रहा था कि एक साथ सैकड़ों लोग पिंड दान कर रहे थे -मतलब अगर इसमें शतांश भी सच हो तो उस समय भी जब मैं वहां था हजारों आत्माएं परिसर में भटक रही होंगीं -मेरा मन खिन्न होने लगा था -जो सामने दिख रहा था और जैसा परिवेश हो गया था उस लिहाज से एक अनास्था वाले व्यक्ति पर यह सब भारी पड़ना लाजिमी था -मैं हठात उधर से ध्यान हटाकर कुछ अन्वेषणोंन्मुख हुआ -सामने विष्णु पद मंदिर की भव्यता ने मुझे आकर्षित किया -मिथकों के अनुसार गयासुर नामक असुर के दमन के बाद उस असुर की ही इच्छानुसार विष्णु के पदों की यहाँ पूजा होने लगी ....और वर्तमान मंदिर तो अहिल्याबाई होलकर ने १७८० में बनवाया ....मंदिर के परिसर में भी जगह जगह पिंड दान क्रिया सम्पन्न की जा रही थी ..अजीब सी गंध चारो ओर फ़ैली हुयी थी ...
बगल ही फल्गू नदी बह रही थीं जहाँ जाकर पिंडों का अंतिम अर्पण-निस्तारण किया जाता है .फल्गू बरसात में तो उफनाई हुयी दिखीं मगर शेष माहों में खासकर गर्मी में तो पूरी तरह अन्तः सलिला हो जाती हैं ....कहते हैं कभी राम लक्ष्मण और सीता भी यहाँ राजा दशरथ के तर्पण (तृप्ति) के लिए पिंड दान देने आये थे ..कथा है कि राम लक्ष्मण पूजा सामग्री लेने चले गए और फल्गू के किनारे सीता जी अकेले रह गयीं ...और तभी पिंड दान का शुभ महूर्त आ पहुंचा और सीता जी ने पूरे श्रद्धाभाव से बालू का ही पिंड बना उसे राजा दशरथ को अर्पित कर दिया मगर राम और लक्ष्मण के लौटने पर लालची ब्राह्मण ने दान के चक्कर में झूठ बोल दिया कि पिंड दान तो हुआ ही नहीं -फल्गू नदी ने भी हाँ में हाँ मिला दिया .कुपित सीता ने श्राप दिया कि गया के ब्राह्मणों को दान से कभी भी संतुष्टि न हो और फल्गू सूख जायं -यह कथा निश्चित ही फल्गू नदी की मौसमी स्थिति और गया के पण्डे -ब्राह्मणों की लालच को लक्ष्य कर किसी मनीषी ने गढ़ी होगी ... यह बात भी महत्वपूर्ण है कि अगर श्रद्धाभाव हो तो बालू का भी पिंड दान किया जा सकता है ...श्राद्ध का अर्थ ही श्रद्धा से किया जाने वाला कार्य /अनुष्ठान है ...
विष्णु पद मंदिर में विष्णु पद
और जगहों पर तो मैं नहीं जा पाया ...जिनकी संख्या दर्जनों हैं .मगर यहीं पास में मौजूद वैतरिणी सरोवर के बारे में सुना जिसका गरुड़ पुराण में विशेष उल्लेख है और कहा गया है कि पुण्य कर्मों से वंचित लोगों की आत्माएं/जीव वैतरिणी नहीं पार कर पातीं ...पहले मैं कर्मनाशा और वैतरिणी को भूलवश एक ही मानता था मगर मेरा भ्रम यहाँ टूटा ....प्रेत शिला और मंगलागौरी स्थल भी उल्लेखनीय हैं -मंगला गौरी वह 'शक्ति पीठ' स्थल है जहाँ विष्णु द्वारा विक्षिप्त शिव के कंधे पर पड़े दक्ष यज्ञ में झुलसी सती के मृत शरीर को कई खंडों में काट कर गिराए जाने के बाद उनका स्तन मंडल (मंगल भाग) गिरा था -यहाँ कोई जीवित व्यक्ति भी खुद अपना मरणोपरांत का श्राद्ध भी पहले ही कर सकता है ऐसा विधान है ..अगली बार इन स्थानों को देखने की इच्छा है ..
पिंडदान अनुष्ठान
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गया निश्चित ही एक अत्यंत प्राचीन पूजा स्थल है जो पितरों को समर्पित है - कहा गया है -सवधा स्था तर्पणयाता मे पितृऋण(यजुर्वेद मंडल २,मन्त्र ३४) -पितरों को तर्पण (जल आदि ) से संतुष्ट करो!पुराणों में बार बार यह उल्लेख है कि मनुष्य को बहुत से पुत्रों की इसलिए कामना करनी चाहिए कि उनमें से कोई तो गया जाकर पिता की सदगति के लिए तर्पण करेगा ...समय बहुत बदला है अब पुत्रियाँ भी अपने पिता और स्वजनों का तर्पण करने यहाँ आती हैं -मेरी मित्र का तर्पण पूरा हो चला था ...हम अब बोध गया में विश्राम के लिए वापस हो लिए थे ...आज भी गावों में यही मान्यता है कि सब तीरथ बार बार ,गया गंगासागर एक बार ...पहले घोर घने जंगलों में से होकर पैदल ही लोग जाते थे ..आवागमन का साधन नहीं था ...इसलिए उम्र की अंतिम अवस्था -वानप्रस्थ में लोग इन तीर्थों के लिए जब निकलते थे तो लौट कर वापस नहीं आते थे ...और यही परम्परा बनी हुयी थी ...मुझे गया जाने वालों की बचपन की स्मृतियाँ हैं -मैंने तब भी भय और विस्मय से गया महात्म्य सुना था -यात्रा पूर्व के विविधता भरे आयोजनों -कर्मकांडों को देखा था और मृत्योपरांत जीवन और पितरों के लोकों का एक खाका भी मन में उतर आया था ...जो आज स्पष्ट नहीं है ..मगर मैंने यह देखा कि मेरे अध्यावधि जीवन काल में गया -गंगासागर जाने वाले अब सशरीर स्वस्थ लौट रहे हैं.....लौटने के उपरान्त बढ़ चढ़ भोज भात दे रहे हैं ....देखते देखते समय इतना बदल गया है .....अब गया जाने का मतलब लौट कर फिर नहीं आना नहीं है ..हम लौट कर ही तो यह वृत्तांत आपको सुना रहे हैं ...:)