शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

एक अजूबा मेरे आगे -यह कैसा पीपल का पेड़!

 चैन बाबा समाधिस्थ है यहाँ -अद्भुत पीपल  का पेड़ -चूड़ामडिपुर ,जौनपुर
मेरा गाँव मेरे लिए चिर प्राचीनता के साथ ही चिर नवीनता का भाव बोध लिए रहता  है -किसी मित्र ने एक बार टोका भी था कि जब जब आप घर जाते हैं कुछ न कुछ नया ब्लॉग मटेरियल आपको मिल ही जाता  है! सही है और इस बार तो मैं विस्मित ही रह गया जब मुझे बताया  गया कि गाँव में एक चित्र विचित्र पीपल का पेड़ है जहां एक लोक देवता चैन बाबा की समाधि भी है और सभी सद्य विवाहित जोड़े को वहां जाना पड़ता है -आशीर्वाद के लिए -मैं क्यों नहीं गया था वहां ?-जवाब मिला कि मेरे कुछ अनुष्ठान सम्पूर्णता के बजाय शार्टकट हो गये थे-लगता है चैन बाबा का विलम्बित बुलावा  आ गया था और मुझे जाना ही  था!

सचमुच यह पीपल का वृक्ष तो देखने के मामले में न भूतो न भविष्यति टाईप का ही लग रहा था -विस्मय और भयोत्पादक ! आखिर चैन बाबा के ठीक समाधि पर अवस्थित था वह! अब ऐसे दृश्य को देखकर  कोई नतमस्तक हुए बिना कैसे रह सकता है!लिहाजा  मैं तुरत नतमस्तक हो गया -आप भी देर न कीजिये ! फिर इतिहास पुराण की ओर ध्यान दिया -पता लगा कि बस्ती के ही एक ब्राह्मण पुरखे ने तत्कालीन समाज (समय का निर्धारण नहीं हो पाया -मगर बात २५०-300 वर्ष पीछे से कम की  नहीं है ) के सामंतों /जमीदारों के शोषण और अत्याचार से जीवित समाधि ले ली थी ! और कालांतर में यह पीपल का पेड़ वहां उग आया मगर इसमें कोई केन्द्रीय तना नहीं नहीं है -बस ऊपर से नीचे यह घनी पत्तियों से ढका है !

 तनिक और निकट से -तना फिर भी नहीं दिखा 

एक ब्राह्मण का आत्मत्याग अब शायद एक अमर कथा में तब्दील हो गया है -जन -स्मृतियाँ न जाने कब तक चैन बाबा की कथा को जीवित बनाये रखेगीं ! त्याग भारतीय मनीषा में एक स्थाई भाव तत्व जो है !

25 टिप्‍पणियां:

  1. असाधारण मानवों को याद रखने के लिए प्रकृति भी असामान्‍य तरीके अपनाती है .. प्राचीन काल की बात थी तो आस्‍था के कारण बेचारे ब्राह्मण का त्‍याग व्‍यर्थ नहीं गया .. चैन बाबा के रूप में उसे अमर मान लिया गया .. आज की बात होती तो वहां विज्ञान ढूंढ ढूंढ कर चैन बाबा को भी परेशान कर दिया जाता!!

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  2. ये पीपल की पेड नही पीपल की झाडी दीख रही है इसका खुलासा भी आप साईंस ब्लागर ही कर पायेंगे. हमे तो रोमांचित कर रहा है. जय हो चैन बाबा की.

    रामराम.

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  3. कथा तो ठीक है। लेकिन, किसी भी पीपल के पेड़ तक जानवर न पहुँचें और उस की छंटाई न हो तो वह ऐसा ही हो जाएगा।

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  4. ऎसी बहुत सी कहानी गाव ओर शहरो मै सुनने को मिल जाती है,

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  5. जनश्रुतियां इसी तरह से आगे बढती और समृद्ध हुआ करती हैं ! कौन जाने आगे की पीढ़ियों तक इनमें क्या क्या नया कथ्य जुड़ जायेगा ! एक निर्दोष ब्राह्मण को दबंगों के कारण से असमय मृत्यु का वरण करना पड़ा यह दुखद है संभवतः नवविवाहित जोड़े वहां पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने जाते रहे होंगे जो कालांतर में अपरिहार्य सी परिपाटी बन गया है !

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  6. एक विज्ञान प्रेमी से चैन बाबा का आख्यान जानना कुछ सोचने पर मजबूर तो करता ही है। वाह...!!!

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  7. एक विशालकाय बरगद का पेड़ मेरे ननिहाली गाँव में है. जिसके नीचे मेरे ननिहाली पूर्वजों के मुर्स-ए-आला (महापूर्वज ) मीर दादा की कब्र है. किसी भी तरह का ख़ुशी या गमी का प्रोग्राम बिना उनकी कब्र पर फातेहा पढ़े पूरा नहीं होता. मीर दादा की कब्र के पास किसी भी पेड़ को काटना मन है. और शायद पर्यावरण के प्रति पुराने लोगों की जागरूकता का परिचायक भी. आज के दौर में तो सैंकड़ों हरे पेड़ देखते ही देखते साफ़ कर दिए जाते हैं. फिर रह जाता है कंक्रीट का एक जंगल.

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  8. मिश्र जी !
    प्रणामान्ते ,,,
    त्याग को ऐसे ही हरित-ललित कर दिया
    जाता है लोक में ..
    जिसका तना २५०-३०० साल मोटा है उसकी
    बात ही क्या !
    ............. सुन्दर लगा पढ़कर , आभार ,,,

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  9. हमारे देश की यही विविधता तो उसे सबसे अलग और अद्भुत बनाती है. प्रत्येक गाँव में आपको ऐसी किंवदन्तियाँ मिल जायेंगी और आप के द्वारा दी गयी जानकारी तो सचमुच अद्भुत है.
    और... किसी के बलिदान को वृक्ष के रूप में स्थापित करना यह दर्शाता है कि हमारे जनमानस में प्रकृति के प्रति कितनी श्रद्धा और लगाव है...

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  10. वजह जो भी हो पर विचित्र जरूर है ।

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  11. आश्चर्यजनक! तो ब्राहमणों को २५०-३०० साल पहले भी जीवेत समाधियाँ लेनी पड़ती थीं?

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  12. हर जवार के अपने अपने बाबा बटेसरनाथ होते हैं।
    हमारे गाँव के पास 'समाधे' नाम का स्थान था जहाँ किसी ने जीवित समाधि ले ली थी। विशाल बरगद जटाएँ कई कठ्ठे में फैली हुई थीं

    अब कट गया है। कुछ निशान ही बचे हैं।

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  13. इस तरह की जनश्रुतियाँ हमारी तरफ भी सुनने में आ जाती हैं । ब्राह्मण का आत्मत्याग और फिर उसका यह सम्मान - निश्चय ही भारतीय मनीषा की विशिष्टता को स्पष्ट करता है ।
    ज्ञान जी का गंगा-भ्रमण और आपका ग्राम-गमन बहुत कुछ सुन्दर ले आता है इस ब्लॉग-जगत में ।

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  14. साईंस से जुड़े विशेषज्ञों का जनश्रुतियों में विश्वास आश्चर्यजनक और सुखद भी लग रहा है ..
    ब्राह्मण का त्याग सफल हुआ .....!!

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  15. कुदरत के रंग नए निराले और उस पर मनुष्य का विश्वास उस में नया रंग भर देता है .रोचक लगते है इस तरह के विषय कुछ नया खोजने की खोज जैसे

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  16. .
    .
    .
    "सचमुच यह पीपल का वृक्ष तो देखने के मामले में न भूतो न भविष्यति टाईप का ही लग रहा था -विस्मय और भयोत्पादक ! आखिर चैन बाबा के ठीक समाधि पर अवस्थित था वह! अब ऐसे दृश्य को देखकर कोई नतमस्तक हुए बिना कैसे रह सकता है!लिहाजा मैं तुरत नतमस्तक हो गया -आप भी देर न कीजिये ! फिर इतिहास पुराण की ओर ध्यान दिया -पता लगा कि बस्ती के ही एक ब्राह्मण पुरखे ने तत्कालीन समाज (समय का निर्धारण नहीं हो पाया -मगर बात २५०-300 वर्ष पीछे से कम की नहीं है ) के सामंतों /जमीदारों के शोषण और अत्याचार से जीवित समाधि ले ली थी ! और कालांतर में यह पीपल का पेड़ वहां उग आया मगर इसमें कोई केन्द्रीय तना नहीं नहीं है -बस ऊपर से नीचे यह घनी पत्तियों से ढका है !"

    नतमस्तक आप चैन बाबा की समाधि पर हो रहे हों तो कोई बात नहीं, पर पीपल पर नतमस्तक होने की कोई आवश्यकता नहीं, समाधि के ऊपर उगने के कारण जड़ों को फैलने की जगह नहीं मिल रही इसे, बाकी आदरणीय द्विवेदी जी के बताये कारण तो हैं ही साथ में, अत: STUNTED GROWTH (अवरूद्ध विकास) का अच्छा उदाहरण मात्र है यह पीपल का वृक्ष ।

    आभार!

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  17. ये तो वाकई अद्‍भुत है। फरेस्ट रिसर्च वालों को तो तहकीकात करनी चाहिये...

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  18. आखिर एक विग्यान प्रेमी को आस्था ने झुका ही दिया। सुन्दर जानकारी धन्यवाद्

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  19. aapke blog par pahli baar aai ,line se kai post padhi aur ant me paaya ye naari pradhan hai ,jahan naari se judi jyaada rachna hai ,itni gambhirta se sochna ye bhi kamaal hai ,achchha laga padhna avam aana ,
    duniya me jis tarah vichitr kism ke log hote hai ,thik usi tarah ye adbhut vriksh bhi hai ,jo apne roop rang se logo me aastha jaga jaate hai ,dilchasp hai .happy new year .

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