वैसे तो ऐसे पुरुष भी कमतेरे नहीं हैं जिनका समय का प्रबंध बहुत लचीला रहता है -समय से आफिस नहीं पहुंचते,प्रायः बॉस की डांट खाते हैं मगर अमूमन महिलाओं का समय प्रबंध बहुत कमज़ोर होता है ऐसा मेरा अनुभव रहा है . आश्चर्य है इतने महत्वपूर्ण विषय पर आज तक कोई गंभीर अध्ययन नहीं हुआ है या कम से कम मेरी खोजबीन का नतीजा यही रहा है ...कई भारतीय महापुरुषों का समय प्रबन्ध बड़ा ही सटीक और शानदार रहा -गांधी जी समय के बड़े पाबन्द थे ...एक बार उन्होंने एक अध्यापक को मिलने का समय दिया था जो दस मिनट देर से पहुंचे तो गांधी जी ने उन्हें बड़ी फटकार लगाई -कहा कि अगर यही आदत उनके छात्रों की होगी तो देश समय के कितने पीछे चला जायेगा ...विदेशों में समयबद्धता की कितनी मिसालें तो हम अक्सर सुनते ही रहते हैं ..मुझे विदेशी पुरुषों और महिलाओं के तुलनात्मक समय प्रबंध की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं है मगर कहे सुने की बात है कि सारी दुनिया में ही अमूमन समय प्रबंध के मामले में पुरुषों की तुलना में वे खासी फिसड्डी होती हैं ....
सबसे खस्ताहाल तो भारतीय महिलायें हैं -यहाँ तो लगता है कि उनसे समय का विवेक ही छिन सा गया है...एक स्टीरियोटाईप तो वही है कि पतिदेव तैयार बैठे हैं ...किसी का बुलावा है शादी समारोह का और पत्नी जी तैयार हो रही हैं ....इस स्थिति से आपका भी दो चार हुआ ही होगा ..मिनट नहीं, घंटे बीत जाते हैं मगर श्रीमती जी का सजना बजना बदस्तूर बना रहता है ...पतिदेव कुढ़ रहे होते हैं ,झंखते झल्लाते हैं मगर अंततः असहाय हो चुप मार जाते हैं ,उन्हें भी पता है ही कि इस मामले का कोई इलाज नहीं है ....मेरे एक संबंधी हैं बिचारे की पत्नी जी की तैयारियों में कई बार ट्रेन छूटी है ..एक बार तो ऐसा वाकया हुआ कि ट्रेन के चल पड़ने के साथ ही जब पत्नी जी पहुँची तो उन्हें तो ट्रेन पर चढ़ा कर वे खुद उतर गये और पत्नी को विदाई का गुड बाय कह दिया ..ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी ..खैर फोन कर यात्रांत के परिजनों को उन्हें रिसीव करने को आगाह कर दिया ...बात तो ख़त्म हो गयी लेकिन अभी भी समय प्रबंध को लेकर दंपत्ति में जिच कायम रहती है .
मैंने ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में पाया है कि देवियाँ तनिक या फिर अधिक देरी से ही पहुँचती हैं ..कई बार बेबस बॉस भी कुछ कह नहीं पाता इस कारण से कि सख्ती का परिणाम कहीं उसे ही महिला शक्ति से टकराने के के खामियाजे के रूप में न भोगना पड़ जाए -कुछ सख्त बॉस अपने ऊपर लांछन आदि भी झेल चुके हैं, इन कबाहतों के चलते ..मैं भी इस मामले में फूंक फूंक कर ही कदम उठाता आया हूँ -क्योकि मुझे पता है कि जिस तरह से मैं अपने पुरुष सह कर्मियों के ऊपर समय की लापरवाही को लेकर बिफर पड़ता हूँ अगर कहीं महिला कर्मी से यही बर्ताव हुआ तो शायद वह दिन भी न देखना पड़ जाय जिससे बच पाने में मैं विगत तीस वर्षों से भाग्यशाली रहा हूँ ..मगर इसका रंच मात्र भी गुमान नहीं है मुझे ..बल्कि डर ही बना रहता है..शेष सरकारी सेवा बस कट जाय किसी तरह!
जैवीय विज्ञान और व्यवहार शास्त्रों के अध्ययन ने मुझे इस मामले को भी सुलटाने को प्रेरित किया .काफी सोचने विचारने के बाद जो बात मन में कौंधी है वह यही है कि महिलायें इसकी दोषी नहीं हैं -दोष उनके वैकासिक अतीत का है ..उनकी जीनों में उनकी देर सवेरी का राज छुपा है -जब मनुष्य गुफावासी था तो पुरुषों का दल जहां शिकार को निकल पड़ता था वहीं घरैतिनें घर पर मौज मस्ती काटती थीं ..एक दूसरे का सुखवा दुखवा सुनती सुनातीं थीं ..आराम से बच्चों को नहलाती धुलाती थीं ...चौका बासन के साथ ही खाना पानी का इंतजाम करती थीं मगर सभी कुछ आराम से,सलीके से ....कोई जल्दीबाजी नहीं ....पतिदेव तो शाम को ही आयेगें ....ढेर सारा फुर्सत भरा समय ..समय ही समय ..फिर समय प्रबंध की जरुरत ही कहाँ ? जबकि पुरुष टोलियों के लिए समय प्रबंध उनके लिए जीवन मृत्यु का प्रश्न था ..खिसकते सूरज के साथ उन्हें शिकार की टोह में दूर सुदूर भटकने के साथ ही समय से वापस लौटने की फ़िक्र होती थी ....कहीं रात हुयी तो धुप अँधेरे में शिकारी के शिकार बन जाने की बड़ी आशंका थी ....हिंस्र पशुओं की भरमार थी तब ....दिन के उजाले में बचाव संभव था मगर रात में शिकारी असहाय था .....
पुरुषों का समय प्रबंध महिलाओं से बेहतर तभी से हुआ ..चूंकि जीन प्रेरित व्यवहार हज़ार लाख वर्ष में ही बदलते हैं इसलिए समय का यह लोचा आज भी कायम है ....दृश्य भले ही बदल गएँ हैं जीन हमारे वही हैं!
behtar lekh.........ghar pe rahkar bhi samay ke upyog ke baare me sikha ja sakta hai....per bahut had tak conditioning bhi jimmedar hai....sadhuvad....
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंघोर असहमति। बल्कि मुझे तो लगता है कि महिलाओं का समय प्रबंधन पुरुषों से कहाँ बेहतर होता है। सदियों से औरतें घर के सारे काम समय पर निपटाती रहीं हैं सो भी बिना किसी छुट्टी के। पति और बच्चों को सारे काम और भोजन समय पर चाहिए। कितने लोग हाथ बँटातेँ हैं भला? और कामकाजी महिलाओं पर तो दोहरी जिम्मेदारी होती है सुबह उठकर सारे काम निपटाकर ऑफिस जाना होता है। खुद के साथ पति और बच्चों का लंच भी तैयार करना होता है। पतियोँ को तो बस नहा धोकर नाश्ता भकोसकर निकलना होता है फिर भी अक्सर देर हो जाती है।
जवाब देंहटाएंप्रायः पुरुष स्त्रियोँ की तुलना में स्वभावतः आलसी होते हैं।
आपकी अवलोकन पूरी तरह सही नहीं है.यह बात ज़रूर है कि कहीं आने -जाने के समय स्त्रियाँ अधिक देर लगाती हैं तो इसका मतलब यही है कि वे घर के काम-काज में व्यस्त होने से अस्त-व्यस्त रहती हैं और सजने के लिए पुरुषों से अधिक विकल्प उनके पास हैं.
जवाब देंहटाएंपुरुष तो डिफॉल्ट-तैयार होते हैं.हाँ,कहीं साथ पैदल चल रहे हों तो स्त्री आपके हमकदम नहीं हो पाती,इसका सम्बन्ध आलसीपने से नहीं है.
हमारे घर में तो हमारी श्रीमती हमसे ज़्यादा मुस्तैद रहती हैं काम में !
पोस्ट पर लगाए गए चित्र से घोर आपत्ति है.गुफा का चित्र गुफा में ही रहता तो सही था !
आज की नारी हर काम में पुरुष से तेज है.सजने-संवरने का उदाहरण देकर उसे सुस्त-प्राणी कहना ठीक नहीं है.
बाकी सोमेश भाई ने कही दिया है !
जी नहीं सहमत नहीं आपकी बात से ..अपवाद हर जगह है पर अमूनन महिलायें बेहतर समय की कीमत पहचानती है ....
जवाब देंहटाएंये नहीं सुधर सकते. हमें ही समझौता करना होता है.
जवाब देंहटाएं@ऊपर की कुछ टिप्पणियों से यह भी स्पष्ट है कि पुरुष सहृदय भी तुलनात्मक तौर पर ज्यादा होते हैं!
जवाब देंहटाएंश्रृंगार में समय लेना तो स्त्रियों का अधिकार बनता है . यह तो पुरुषों को झेलना ही पड़ेगा .
जवाब देंहटाएंलेकिन यह भी सच है , स्त्रियाँ मल्टी टास्किंग में पुरुषों से आगे रहती हैं .
पंडित जी!
जवाब देंहटाएंप्रश्न सहृदयता का नहीं जजमेंटल होने का है.. जितने वज़न के साथ आपने यह निर्णय दे डाला कि "बहुत खराब है महिलाओं का समय प्रबंधन" उससे घोर असहमति है..
रेलवे में काम करते हुए भी मेरे पिताजी के एक मित्र ड्यूटी पर तो सही समय से पहुंचते थे (मजबूरी थी).. मगर पूरे इलाहाबाद डिवीज़न में लोगों को पता था कि अपनी तमाम व्यक्तिगत यात्राओं में (बिना किसी अपवाद के) उन्होंने प्लेटफोर्म से कूदकर, चलती हुई गाडी 'पकडकर' ही यात्रा की थी..
और अभी कुछ समय पहले एक महिला ब्लॉगर नियत समय पर ब्लॉगर सम्मलेन स्थल पर पहुँच गयीं थीं.. जबकि आयोजक समेत सहभागी भी नदारद थे और उन्हें संदेह होने लगा था कि वो कहीं भूल से गलत जगह तो नहीं आ गयीं..
खैर, आपने लिखा है तो उसका गहन अध्ययन अनिवार्य हो जाता है!!
शुक्रवार के मंच पर, तव प्रस्तुति उत्कृष्ट ।
जवाब देंहटाएंसादर आमंत्रित करूँ, तनिक डालिए दृष्ट ।।
charchamanch.blogspot.com
सोमेश सक्सेना जी की टिप्पणी से सहमत.
जवाब देंहटाएंAre women better managers than men?????
जवाब देंहटाएंA good manager has been variously defined. A good manager could be defined as someone who have the skills of effective delegation, have a considerable level of empathy, be comfortable with relying on the expertise of others, be able to carry out long-term plans, be able to design and define an organizational structure, be effective at planning and decision-making, be conscious of quality, be able to carry out effective performance appraisal of employees, be a facilitator not dictator, believe strongly in team work, encourages others to participate in decisions and plans, ensure that there are enough tools and resources for employees to work, understand change, empower others to get things done, encourage different view points, know how to bring people together for a task, teach others how to solve problems without solving the problems for them, ensure credit goes to whom credit is due.
The above behoves therefore that no one individual, no how endowed, can possess all the above qualities t a time, irrespective of the gender. However, a school of thought believes that women are better managers compared to their men counterparts. Their argument is not farfetched. They are of the opinion that women are better at getting results because they have management style that tend to be participatory and interactive as opposed to men’s command and control style. Women are nurturers and value-driven. They put feminine tough in all they do. They are home managers and as such able to handle a series of complex and varied tasks leading to the desired end product. They are able to grasp the nettle and manage a mixed bag of staff. They have transformational leadership qualities, motivating others by transforming their self-interest into the goals of the organization. They are naturally interactive in style and this encourages participation, power and information sharing and enhances the self-worth of others.
Ordinarily, one is either born a man or woman. However, the inborn character traits in women stand them out of the crowd and make them much more inclined to a particular kind of leadership. I am tempted to believe that the society plays a major role in molding a child by telling you about who you are. The fact that the society’s believe that the girl-child should be treated with care, love, compassion, etc influences her behviour at woman-hood. Though there are women who exceptionally behave like men. The socialization process, the upbringing, exposure and experience are some of the factors that affect management style.
Supposedly, women are the weaker sex. This view is also is also supported Biblically as the woman was formed out of the ribs of a man. They require support by the men. However, there is a school of thought that believes that a woman has to achieve as much as twice of her male counterpart before reaching the level of a manager. She has to be stronger than an average man and prove her capabilities beyond measure before being accepted. By the time she gets to management level, she would have developed a protective shield and a fighting spirit and that shows through in her dealings with colleagues and subordinates. Women sometimes exhibit tough, rigid and harsh attributes. She probably does these, realizing that she is constantly being evaluated by the least of the men so as; to prove her abilities and capabilities and to cover any perceived loopholes.
जवाब देंहटाएंDomestically, women are good managers of resources. They are managers of men, material and money in their homes. They are good at profit maximization. Though few women have been involved in the issues of corruption, majority are fighters of corruption and embezzlement, especially in the public sector. A woman normally does not have the large heart to be corrupt. She is more transparent and accountable. This is probably due to the heavy burden of obligation, especially financially, shifted to the man. This is also more pronounced in the African culture where the man is not only seen as the head of the family but must also live up to his financial responsibilities while the woman renders ‘support’ and ‘manages’ the home. The man is usually under pressure to misappropriate funds in order to fulfill his obligations to his wife, children, extended family, concubines and community. The pressure on the woman is less.
In terms of emotions and crises management, women tend to be more emotional and therefore may take best of decisions. In contrast however, this may not always be true as men’s command-and-control method may work better in certain crises. A man may be more aggressive in some situations while the woman becomes more calculative.
Efforts have been made here to balance the equation on the inherent qualities of a man and a woman. However the pendulum seems shifts and seems to favour the woman’s ability to manage the home and office simultaneously with all the challenges in both instances, makes her more focused, meticulous, result and success-oriented. Several questions though still require further answers. Does a woman’s method of inspiration and influence really work in corporate settings and situations? Should a woman’s strengths be tapped? Is there something she can learn from the man?
In conclusion, I wish to recognize the special attributes of women all over the world in their steadfastness in re-shaping and re-branding the world.
http://www.cbsnews.com/8301-505125_162-31340159/women-make-better-managers-than-men/
जवाब देंहटाएंhttp://articles.timesofindia.indiatimes.com/2011-05-02/work/28668077_1_female-executives-women-in-senior-management-male-counterparts
जवाब देंहटाएंमुझे तो लगा कि आप किसी ऐसे जीन के बारे में बताने वाले हो जो महिलाओं के समय प्रबंधन में कमजोर होने के लिए उत्तरदायी है.ऐसा तो कुछ दिखा नहीं.केवल कुछ चलताऊ उदाहरण देकर आप इतने गंभीर विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकते.हो सकता है फोटो दिखाने के लिए अपने यूँ ही लिख दिया हो:)
जवाब देंहटाएंअरविंद जी ,
जवाब देंहटाएंआप विज्ञान से संबंध रखते है तो हो सकता है की कोई वैज्ञानिक आधार पर आपने यह लेख लिखा हो ...
लेकिन मुझे नहीं लगता कि महिलाएं समय प्रबंधन में कमतर हैं ... एक सीधी सी बात यदि पुरुष अपने काम पर सही वक़्त में पहुँचते हैं तो उसका कारण भी घर की स्त्रियाँ ही होती हैं जो सारे काम समय से कर उनको सही वक़्त पर काम पर भेज देती हैं ...घर के सारे काम समय से निपटाती हैं ... आने जाने वालों का स्वागत और खातिरदारी भी उनकी ही बदौलत होती है ॥बच्चों की परवरिश में उनको स्कूल समय पर भेजना ,पढ़ाई लिखाई और अतिरिक्त खेल कूद सब पर उनकी निगाह रहती है ... घड़ी की सूईयाँ देखते हुये सारे काम करती महिलाओं को आप कैसे कह सकते हैं की वो समय प्रबंधन नहीं करतीं ...
जो महिलाएं काम काजी हैं और कभी औफिस पहुँचने में देर होती है तो भी कुछ अप्रत्यक्ष कारण हो सकते हैं ... आखिर सारे घर का प्रबंध भी तो उनकी ज़िम्मेदारी होती है ....
वैसे मेरा अनुभव तो अब तक का यही रहा है कि या ये कहूँ कि मेरे साथ हमेशा यही होता है कि कहीं जाना हो तो मैं तैयार हो कर 15 मिनट इधर उधर घूमती रझती हूँ और पति महोदय ही ज्यादा वक़्त लगाते हैं ..... समय की पाबंदी पर इतना खयाल रहता है कि कभी कभी ठीक समय पर पहुँचने पर पता चलता है कि मेजबान तो आए ही नहीं हैं और हम पहुँच गए ... कल ही इस दुर्घटना के शिकार हुये हैं :):)
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.............
दिलचस्प..बढ़िया है न पुरुष भागे समय के पीछे और जीन की कृपा से महिलाओं के इर्ग-गिर्द नाचे समय.. और....पुरुष भी..
जवाब देंहटाएं(१)
जवाब देंहटाएंअमृता तन्मय जी की टिप्पणी पे दांव लगाया जा सकता है :)
(२)
अरविन्द जी ,
समय प्रबंधन को लेकर लिंग भेद वाली किसी बहस में नहीं पड़ना चाहूंगा जब तक कि इस मुद्दे पे बहुआयामी शोध पर आधारित कोई निष्कर्ष सामने ना रख दिए जायें अतः महिलाओं के सर्व क्रियाकलापों के समय प्रबंधन पर कमेन्ट फिलहाल नहीं रे बाबा !
चूंकि आपने अपनी बात श्रृंगार विषयक समय प्रबंधन को लेकर कही है तो इस विशिष्ट मुद्दे का भुक्त भोगी मैं स्वयं भी हूं ! पत्नी और बिटिया को साथ लेकर जाने से पहले हज़ार बार सोचता हूं पर मजबूरी तो है ही :)
मेरे व्यक्तित्व की नब्बे फीसदी चिड़चिड़ाहट , झुंझलाहट , बौखलाहट और क्रोध इसी समय को समर्पित है :)
हाल ये है कि हमें किसी के सोग / दुःख कारज पे जाना हो तो भी समय लंबे से लंबा हो जाता है और अगर सुख का कोई आयोजन है तो फिर उनकी तो बल्ले बल्ले :)
खैर इस विषय पर चिंतन आपने किया है तो इस व्यक्तिगत अफ़सोस में आपके साथ हूं ! पर ...
केवल इस एक कारण से किसी सामान्यीकरण तक नहीं पहुंचना चाहता ना तो आशीष जी और सलिल जी की तर्ज़ पर और नाही आपके जैसे :)
मेरे हिसाब से सौंदर्य उत्कर्ष का क्षेत्र समय प्रबंधन के हिसाब से अपवाद क्षेत्र है और इसके लिए हम पुरुष भी उत्तरदाई है बराबर से :)
आपके आलेख में एक एडिशन करने की इच्छा है ! जैसा कि आपने कहा कि गुहा मानवों के समय में शिकारी भोजन के प्रबंध के लिए बाहर निकलता था और स्त्रियाँ घर के प्रबंध , यथा संतानों का लालन पालन भी देखती थीं ! उक्त समय में शिकारी टोली में से कई पुरुषों के शाम को वापस गुहा गृह में नहीं लौटने की भी पर्याप्त संभावना हुआ करती थी ! जीवन के संघर्ष में पशु भी उन पर भारी पड़ जाते होंगे अक्सर ! गौर तलब है कि पुरुष शिकार पर घर से बाहर हो तब याकि घर पर वापस ही ना लौटे तब , इन दोनों ही अवस्थाओं में संतान के पालन पोषण के लिए स्त्रियाँ ही महत्वपूर्ण हुआ करतीं थीं और यह वो समय था कि जब सारी दुनियां 'मातृसत्तामय' थी !
मातृसत्ता के समय के समाज में समय प्रबंधन चाहे जैसा भी रहा हो पर पुरुष का दर्ज़ा दोयम ही हुआ करता था :)
(३)
इस चर्चा में असहमत होना महत्वपूर्ण है फिर टिप्पणियां अनाम क्यों ?
@अली भाई ,मैंने खुद कहा कि विषय अभी भी गहन अध्ययन के लिए अछूता है ...और आपकी मातृसत्तात्मक बात भी दुरुस्त है ...उन दिनों भी कमी पुरुषों की ही थी -आज की जो मनु संताने हैं यानी हम सब उनमें एक आदि महिला के ही जीन ज्यादा मुखर हैं ....मगर यदि महिलाओं का समय प्रबन्ध अगर आज की दुनिया के नियम कायदों के मुताबिक़ कमज़ोर है भी तो उनकी अहमियत कहाँ से कम होती है ....? आज भी अपने विविध रूपों में वे हमारे बराबर खड़ी हैं!
जवाब देंहटाएंमैंने एस लेख को जेंडर बायस के ख़याल से लिखा ही नहीं ....
@संतोष जी जो आप देख रहे वह एक खूबसूरत पेंटिंग है,फोटू नहीं !जरा भी सौन्दर्यबोध नहीं है आपमें !:)
जवाब देंहटाएं@सोमेश जी,
जवाब देंहटाएंभले चंगे हैं न ,बड़े दिन बाद दिखे ?
श्रंगार को काम की श्रेणी में न रखें, वह देव प्रदत्त गुण हैं जो पुरुषों के पास नहीं है। उनके लिये समय प्रबंधन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है घर-प्रबंधन और स्वपुरुष-प्रबंधन।
जवाब देंहटाएं@अनामों के नाम,
जवाब देंहटाएं१-भैया फोटू के लिए लेख नहीं बल्कि लेख के लिए फोटू लगाना पढ़ा -ढूंढ कर !
२-ऐसी फोटू ही मात्र लगाना होता तो न्यूड पर ही एक पोस्ट न ठेल देता..
३-बात यहाँ समय प्रबंध की है अन्य तरह के प्रबंधों की नही..
यह कहना गलत है कि महिलायें बेहतर समय प्रबंध नहीं कर सकतीं। प्रबंध उनका खराब होता है जिसे भय नहीं होता। पुरूष हो या महिला..
जवाब देंहटाएंबॉस का भय न हो, मैनेज कर लेने का चांस हो या थोड़ी बेशर्मी हो तो कोई भी लापरवाह हो सकता है। गैरत हो..डांट सुनना खराब लगता हो..हानी होने का भय हो..तो सभी सर के बल चलकर भी समय से दफ्तर जायेंगे।
सजने सवंरने की आदत भी हमी ने डाली है। हम यदि सजी संवरी को अपलक देखना छोड़ दें तो महिलाएं सजने संवरने में इत्ता समय काहे जाया करें:)
पेंटिग बड़ी खूबसूरत है। जिसमे महिला कठिन श्रम कर रही है। उसे भय है कि समय से काम पूरा किया जाना जरूरी है नहीं तो शिकार से मेरा मर्द लौट कर आता ही होगा।
@सलिल जी,
जवाब देंहटाएंअभी तक किसी भी महिला की इस पोस्ट के प्रति सहमति नहीं आयी है मगर पुरुष सौजन्यता की देखिये तो असहमतियों की कतारें लग गयी हैं :) ..कोई उन्हें/किसी को इम्प्रेस करना चाहता है तो कोई उन्हें अपने फेवर का ऋणी बनाने का सौभाग्य से हाथ आया सुअवसर गवाना नहीं चाहता ..सच है सौजन्यता में पुरुष की सानी नहीं!:)
मगर मगर यह सब तो विवेच्य नहीं है पोस्ट का ..आईये हम अध्ययन कर ही लें -आफिसेस में ज्यादातर महिलायें अपने पुरुष साथियों की तुलना में देर से आती हैं पहले यही सर्वेक्षण कर लिया जाय!
फिर यह देखा जाय कि अगर वे किसी व्याह समारोह में अकेली गयीं हैं तो क्या समुचित समय प्रबंध कर उचित समय में घर लौट आती हैं पुरुषों के बजाय ?हम यहाँ मायके से लौटने की बात नहीं कह रहे यद्यपि समय प्रबंध वहां भी लागू होता है!
यह देखा जाय कि क्या वे पुरुष की तुलना में ज्यादा जल्दी खाना तैयार कर सकती हैं ....अब कोई यह न कहे कि बढियां खाना बनाने में उन्हें ज्यादा समय लगना लाजिमी है ....पांच सितारा होटलों में पुरुष खानसामा ही होते हैं -आखिर क्यों भला?एक कारन समय प्रबंध का भी क्या नहीं है ?
एक बार फिर से एक एक खतरनाक चर्चा छेड ही दी है आपने, तो जो ऑफिस में अब तक नहीं हुआ उसका पूर्वाभास तो होना लाजिमी ही है. :-)
जवाब देंहटाएंजहाँ तक ऑफिस की चर्चा की है आपने सीनियर महिलाओं को छोडिये, ट्रेनी भी कैंटीन में अखबार पढ़तीं, चाय पीतीं देर से आती हैं और बिलकुल 'समय से' जाती हैं. पुरुषों को डायरेक्ट- इनडायरेक्ट कई डायलौग सुनने को तो मिल ही जाते हैं मगर नारियों के प्रति 'सहृदयता' और नारीवादी प्रतिक्रिया की आशंका संभवतः उनकी ओर के तीरों का रुख भी पुरुषों की ओर ही मोड देती है...
सहृदयता का रामपुरी देखने के बाद भी आपके निष्कर्ष के साथ नहीं खड़े हो पा रहे !
जवाब देंहटाएंमहिलाए अक्सर घर में कई जिम्मेदारियां संभालती है .....पुरुष को केवल कपडे पहन कर इन्तजार करना होता है .....जाहिर है इस इन्तजार की घड़ी और अधैर्य की अवस्था में ऐसे निष्कर्ष आने लाजमी थे!
:)
अधैर्य की अवस्था
शायद आपकी बातें सही हों कुछ महिलाओं के विषय में . पर यह ठीक उसी तरह की बात होगी जैसे कुछ पुरुष भी अपने काम ढीले ढाले ढंग से करते हैं.... चित्र से तो मुझे भी आपत्ति है.....
जवाब देंहटाएंसार्थक एवं सार गर्भित आलेख सामी की कदर करना सभी को आना चाहिए फिर चाहे कोई महिला हो या पुरुष.... क्यूंकी जो समय की कदर नहीं करता समय भी उसकी कदर कभी नहीं करता और इस सब के चक्करों मे ज्यादा तर आच्छे मौके हाथ से छूट जाया करते हैं
जवाब देंहटाएंमहिलाओं को तैयार होने में वक़्त लगाना लाज़िमी है . पुरुषों को मैचिंग चूड़ी , बिंदी , सैन्डील, गहनों , हेयर स्टाईल आदि का झंझट नहीं है! वरना पार्टी या आयोजन से लौटते ताने उन्हें ही सुनने होंगे देखा नहीं वो मिसेज फलाना कैसे अपटूडेट थे , तुम्हरे पास सब है फिर भी ऐसे ही उठ कर चली आई ...
जवाब देंहटाएंघर से निकलते समय देखना, कही नल तो खुला नहीं रह गया है , गैलरी ठीक से बंद है या नहीं , दूध वाला आकर चला नहीं जाए , बच्चों ने ठीक से गर्म कपड़े पहने या नहीं , इस्त्री वाला भी कपड़े लेकर आता होगा , लौटते समय सब्जी , राशन भी लाना होगा, इसके अलावा और भी तमाम इंतजामात ....पुरुषों को क्या करना होता हैं , पैंट शर्ट और कुरता पजामा पहना , वो भी अक्सर माँ या पत्नियाँ ही निकाल कर रखती हैं .तैयार होकर सिर्फ चीखना होता है, देर हो गयी ...
कम समय में रसोई में जो समान है , उसी से स्वादिष्ट पकवान बनाने में महिलाओं का कोई सानी नहीं . होटल में खानसामों को समान का इंतजाम नहीं करना पड़ता है , उन्हें सिर्फ पकाना होता है !
इसलिए आपकी पोस्ट से घोर असहमति है ...
चित्र पोस्ट के कंटेंट से बिलकुल भी मेलखाता नहीं है !
@बिल्कुल मेरी श्रीमती सरीखी हैं आप वाणी जी ,
जवाब देंहटाएंफोटो ?पोस्ट का अंतिम पैराग्राफ ध्यान से पढ़िए...निष्पत्ति से मेल खाती है ....
@ भारतीय पतियों की ही तरह भारतीय पत्नियाँ भी अक्सर एक सी ही होती हैं !
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट पर यह तस्वीर कत्तई आवशयक नहीं है !
@बन्धु/बांधवियों -
जवाब देंहटाएंये असहमति तो ठीक है मगर ये घोर असहमति? क्या इसमें घोर शब्द लेखक के लिए है क्या ? , घृणास्पद? :)
@कोई और एक पुरुष पाठक भी कह दे तो हटा लूँगा :) अभी तक केवल संतोष त्रिवेदी ने आपत्ति दर्ज की है !
जवाब देंहटाएंलीजिए दूसरा पाठक हाजिर है !
जवाब देंहटाएंवैसे पुरुष पाठक की ही शर्त क्यूं?
जवाब देंहटाएंतो लीजिये मैं भी कहता हूँ. चित्र से भी मुझे भी आपत्ति थी. पर कहा नहीं था.
जवाब देंहटाएंप्रश्न यह नहीं है कि चित्र सामग्री से मेल खाता है या नहीं, प्रश्न यह है कि क्या यह चित्र लगाना आवश्यक था और क्या इसके बिना आपकी बात पाठकों तक नहीं पहुँच सकती थी? या ये भी कहानी कि मांग है? :)
इसकी जगह कोई अन्य चित्र भी लगाया जा सकता है.
प्रवीण जी का प्रश्न महत्वपूर्ण है.
प्रिय पाठकों,
जवाब देंहटाएंसुधी संतोष त्रिवेदी जी और प्रवीण त्रिवेदी ने तथा अन्य विदुषियों ने पोस्ट की फोटो हटाने की मांग की है ,मेरी अपनी निजी धारणा जो भी हो मगर मैंने वादा किया है तो अब इस फोटो को हटाने का वक्त आ पंहुचा है -अगर किसी को फोटो हटाने से आपत्ति हो तो अपनी राय यहाँ व्यक्त करना चाहें! फोटो शाम तक हटाई जायेगी!
अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंठण्ड रखिये घोर ही कहा है घनघोर तो नहीं :)
पेंटिंग और आलेख के अंतिम पैरे वाली बात से इत्तफाक रखता हूं !
डिस्कवरी जैसे चैनलों में उस वक्त ( जब हम मौका-ए-वारदात पर मौजूद नहीं थे ) का विजुअलाईजेशन करते हुए कार्यक्रम बनाये जाते हैं तब ऐसे चित्रों को सहजता से देखना होता है ! ये विवरण के लिए आवश्यक होते हैं !
आपकी पेंटिंग से असहमति संभवत: शालीनता और सौजन्यता के तकाजे से दर्ज कराई जा रही है ! एक छात्र की हैसियत से पेंटिंग की उपस्थिति से ऐतराज नहीं पर महिला पाठकों के नज़रिए से मुझे इससे संकोच हो सकता था !
बेहतरीन आपबीती आलेख के लिए आपका आभार मिश्र साहब !
जवाब देंहटाएं@ दूसरे पाठकों और टिप्पणीकारों की वे जाने , पोस्ट से घोर असहमति का मेरा मतलब है कि " बहुत ख़राब है महिलाओं का समय प्रबंध " कथन से असहमति!
जवाब देंहटाएंयहाँ घृणास्पद से क्या तात्पर्य है !! मैं जानना चाहूंगी क्योंकि कम्नेट में मैंने भी घोर असमति शब्द का प्रयोग किया है !
*कमेन्ट
जवाब देंहटाएंरोचक पर निष्कर्ष से सहमत नहीं...महिलाओं का समय प्रबंधन बेहतर है, वर्ना ना हम समय से ऑफिस जा पाते, न बच्चे स्कूल..कामकाजी महिलाओं में तो समय प्रबंधन और मल्टी-टास्किंग काबिले तारीफ़ है.
जवाब देंहटाएंएक आलसी का कमेन्ट:
जवाब देंहटाएंबहस देख कर लिख रहा हूँ:
कितने ही बेनामी कूद पड़े! आश्चर्य है। आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन जन हैं।
१-भैया फोटू के लिए लेख नहीं बल्कि लेख के लिए फोटू लगाना पढ़ा -ढूंढ कर !
२-ऐसी फोटू ही मात्र लगाना होता तो न्यूड पर ही एक पोस्ट न ठेल देता..
कठमग़जी की हालत यह है कि स्पष्टीकरण के बाद भी पब्लिक सब छोड़ छाड़ अब्स फोटो पर जमी हुई है। कोई बतायेगा कि ऐसा क्या है इस चित्र में कि हटाना आवश्यक हो गया है? चित्र एकदम विषय से सम्बन्धित है। लेख को लावण्यता का रूप देने के लिये लगा हुआ है। पत्रिकाओं की कहानियों में जो बेसिर पैर का ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट लगा होता है, उस पर कोई उज्र क्यों नहीं करता कि विषय से सम्बन्धित नहीं?
सभी लोग वयस्क हैं। सुरुचिपूर्ण चित्र है। बस इसलिये कि कुछ ऐसा दिख रहा है जो गोपन है, इतना बवाल! (मैं केवल दूसरों की मन:स्थिति का अनुमान लगा रहा हूँ, मुझे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लग रहा) कला माध्यमों का एक उद्देश्य गोपन की प्रस्तुति भी होता है।
कोई बताये तो इस पोस्ट(लिंक यहाँ है:
http://girijeshrao.blogspot.in/2011/11/blog-post_24.html )के चित्र पर हंगामा क्यों नहीं कटा? क्या इसलिये कि यह देवी देवता से सम्बन्धित है? या इसलिये कि सुरुचिपूर्ण ढंग से बना है और कोई खिलवाड़ी छूट नहीं ली गई है? आदिम परिवेश को दर्शाता कर्मठ स्त्री का इस लेख पर लगा चित्र सुन्दर है, सुरुचिपूर्ण है। इसे न हटाइये, हाँ, आप ने जहाँ से चित्र लिया है, उसका लिंक दे दें। सम्भवत: वहाँ देख कला को सराहने वाली नज़र डेवलप हो।
सादर,
गिरिजेश
@वाणी जी ,
जवाब देंहटाएंघृणास्पद मैंने इस भाव से लिखा था कि कहीं घोर डिग्री इस्तेमाल करने वाले पोस्ट लेखक से घृणा तो नहीं करते!
बहुत समय पहले इलेस्ट्रेटेड वीकली ने ब्यक्ति के समय पर एक लेख पढा था जिसमें कहा गया था कि आदमी दाढी बनाने में जीवन के ८ वर्ष और फ़ीते बांधने में २ वर्ष बिता देता है। अब स्त्री के १० वर्श बच गए न इस प्रबंधन में :)
जवाब देंहटाएंकुछ मामलों में सहमत , कुछ में नहीं , ५०/५० माँ लीजिए ,
जवाब देंहटाएंकृपया लगाया हुआ चित्र हटा लें , लेख को दूषित कर रहा है .
सादर
अरविन्दजी,इस पोस्ट पर बहुत विमर्श हुआ और यूँ कहिये विमर्श से ज़्यादा विवाद...अगर चित्र आपत्तिजनक ना होता तो हो सक्ता है आपके उठाये विषय पर और ध्यान दिया जाता.इस विषयान्तर के लिए भी आप कुछ हद तक जिम्मेवार हैं.
जवाब देंहटाएंरही बात चित्र रखने या हटाने की,अगर अब भी आपको लगता है कि उसकी उपयोगिता है तो उसे बने रहने में हमें कोई निजी आपत्ति नहीं है.
जो माठा होना था,वह तो हो ही गया !
@संतोष जी,
जवाब देंहटाएंमाठा आप लोगों के दिमाग मथा है अन्यत्र कहीं नहीं ... :)
दरअसल यह दृष्टि भेद का भेद है?
बहरहाल आत्यंतिक निर्णय यह है कि चित्र नहीं हटेगा :
जिन मित्रों की भावनाएं दुखी है उनसे करबद्ध क्षमायाचना ...और यह अनुरोध भी की जीवन और सोच को थोडा
और व्यापक बनाएं ---गुफा जीवन के बीते १५ हजार साल बीत गए! हम अभी क्षद्म मारैलिटी के भंवर में ही चक्कर काट रहे हैं !
अरविन्दजी,हमने इस मुद्दे का माठा करने की बात की थी,आपने तो हमरे दिमाग को ही माठा बना दिया !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंगिरिजेश जी की टिप्पणी प्रभावित करती है ! मैं जिस क्षेत्र में रहता हूं वहां गरीबी इतनी है कि लोगों के पास पहनने के लिए ढंग के कपड़े तक नहीं हैं ! इसलिए जो बात सहज दिनचर्या में है उसमें नग्नता सायास देखना चाहूं तभी दिखेगी ! यहां मुझे ग़ुरबत के सिवा कुछ नज़र नहीं आता ! मुझे लगता है कि हालात और चिंतन दृष्टि मिल कर तय करते हैं कि हमें क्या दिखेगा !
@चित्र का लिंक ये रहा -
जवाब देंहटाएंhttp://www.emile-abbott-photography.com/-/emile-abbott-photography/gallery.asp?photoID=8431457&cat=1186
@उक्त वेबसाइट पर स्पेसफिक चित्र पर सीधे जायं!
जवाब देंहटाएंhttp://www.emile-abbott-photography.com/-/emile-abbott-photography/gallery.asp?searchTerm=woman+using+grinding
बात चित्र पर अटक गई। चित्र न हटाने का निर्णय अच्छा लगा। इस पेंटिक से मुझे तो यही आभास हो रहा है कि गुफा मानवी का समय प्रबंध बड़ा तगड़ा था। एक ही समय में बच्चे को सुला भी रही है और कठिन श्रम भी कर रही है। इसलिए यह कहना कि महिलाओं का समय प्रबन्ध खराब है, गलत है।
जवाब देंहटाएंआपने अच्छा विमर्श करवाया परन्तु मुझे लगता है कुछ अध्ययन वगैरह का भी जिक्र करना चाहिए था. एक वैज्ञानिक से यह अपेक्षा रहती है कि वह वैज्ञानिक तथ्यों का सरलीकरण नहीं होने देगा.
जवाब देंहटाएं@शिव जी,
जवाब देंहटाएंयह लेख उसी दिशा में एक संकल्पना है,संकल्पना बोले तो हाईपोथेसिस -अब आगे के कदम -प्रयोग परीक्षण सत्यापन -पुनर्सत्यापन और फिर निष्पत्ति .....अभी तो एक विचार सर्वेक्षण हुआ है और ज्यादा लोग इससे असहमत हैं कि महिलाओं में समय प्रबन्ध खराब है !
बेवफाई के ,लुच्चईके ,मोटापे के और कैंसर के भी कई जीवन खंडों का तो पता चला है लेकिन लेट लतीफी की जीवन इकाइयों की आदिनांक कोई चर्चा नहीं हैं .हो सकता है कल कोई यह भी सिद्ध कर दे 'भाई साहब टाइम मेनेजमेंट 'के भी आनुवंशिक आधार स्वरूप जींस ,जीवन इकाइयां होतीं हैं .
जवाब देंहटाएंएकांगी पुरुष और विषय परक दृष्टि भले ऐसे निष्कर्ष निकलवा दे वस्तुपरक दृष्टि से ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना बड़ा जोखिम का काम है .रास्ते में पड़े पंगे को उठाकर अपनी जेब में डालना है .महिलाओं को समय प्रबंधन में पिछाड़ी कहना समझना .आयोजनों पर ही घरू महिलायें सजती संवारती हैं वरना दैनिक जीवन में हल्दी के छींटे ही दिखतें हैं लिबास पर .सजने संवरने में इन्वेस्ट किया समय जाया भी कहाँ जाता है जब समारोह में आपकी बीवी छा जाती है तब वाह वाही भी तो आपकी ही होती है .फलां की बीवी ने बड़ा सुरुचि पूर्ण मेकप किया हुआ था .शालीनता देखते ही बनती थी .वगेरा वगेरा .रश्क न करे माशूक के सजने संवरने पर-अंदाज़ अपना आईने में देखते हैं वो ,और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो .थोड़ा सा बस थोड़ा सा रीझना भी सबको आना ही चाहिए वगरना ज़िन्दगी बे -मजा है .क्या रख्खा है ताना -कशी उपालम्भों में ?
हाँ चित्र दर्शनीय है .हटाये नहीं .
जिन लोगो ने इस चित्र को हटाने की मांग की हैं वो ब्लोगिंग इतिहास के विद्यार्थी रहे ही नहीं हैं . पोस्ट लेखक के कमेन्ट देखिये विभन्न विषयों पर महिला को लेकर और साइंस ब्लॉग पर जा कर महिला के वक्ष से ले कर जांघ तक के सफ़र पर उनके लेख और महिला के सौंदर्य बोध पर एक प्रोनो ग्राफिक साईट का लिंक जो लेखक देसकता हैं उस से ये उम्मीद करना की वो इस चित्र को हटा दे ***** के आगे ****** जैसा होता हैं
जवाब देंहटाएंइसी लेखक ने एक जगह लिखा हैं
http://webcache.googleusercontent.com/search?q=cache:YWzWv2GQXGcJ:www.amankapaigham.com/2011/08/blog-post.html+http://www.amankapaigham.com/2011/08/blog-post.html&cd=1&hl=en&ct=clnk&gl=in&client=firefox-a
मैं स्लट वाक् -छिनाल मार्च जैसे प्रदर्शनों को भारतीय परिवेश के अनुकूल नहीं मानता -सेक्स वर्कर्स ऐसा कुछ करें तो बात समझ में भी आती है -मगर वे ऐसा क्यों करेगीं -अपनी जीविका के खिलाफ -ये चोचले संस्कृति और संस्कार से कटी अभिजात्य वर्ग की ललनाओं का हो सकता है -!
यह बात यहीं कहनी उचित रहेगी -क्योंकि यहाँ पब्लिक (मजमा ) काम भर का जुट गया है :)
शर्ट पहने पुरुष अपने वक्ष को खोल कर दिखाते हुए अक्सर दिख जाते हैं -आईये हमें कोई इतराज नहीं है आप भी ऐसा परिधान पहनिए -आगे आईये हिम्मत दिखाईए -हम आपका स्वागत करते हैं! जब ऐसा करने की पहल आप करें तभी लंतरानी छेड़े! है हिम्मत?http://praveenshah2.blogspot.com/2011/06/blog-post_28.html?showComment=1312160188978#c5776358145043623679
@अनामा,
जवाब देंहटाएंवो आयीं मेरे ब्लॉग पर ये हुयी न कोई बात
हम कभी उनकी टिप्पणी कभी खुद का गरेबाँ देखते हैं :)
संदर्भों का असंबद्ध उद्धरण देना मोहतरमा की पुरानी खलिश रही है,
रियली इम्पासिबल !
@वीरुभाई,हम तो कायल हैं आपके जनम जनम के ..:)
जवाब देंहटाएंएक शेर इधर से भी अर्ज है -
अंगडाई लेने को वे उठा भी न पाए थे हाथ
देखा मुझे तो मुस्कुरा के छोड़ दिए हाथ ....
@महिला के वक्ष से ले कर जांघ तक के सफ़र,
जवाब देंहटाएंमाई बाप संशोधन चाहूँगा -
नख से शिख तक वर्णन है बस वर्जित क्षेत्र आप सरीखों के भय से छोड़ दिया ..
नहीं तो मेरी मूल मूल स्क्रिप्ट में वह भी सम्मलित है ....
जनता की मांग हो जाय तो वह भी लिखा लिखाया है प्रस्तुत हो जाएगा -
एक वैज्ञानिक उस पायांत आफ टाईम में मानव अंगों को विवेच्य वस्तु के रूप में देखता है ...जैसा चिकित्सक सर्जरी के वक्त देखता है !
मिसिरजी,लगता है आपने यह पोस्ट अनामिकाओं के लिये ही लिखी है.उन्हें इस पोस्ट से बहुत कुछ सीख मिल रही है.
जवाब देंहटाएंहम भी धन्य हुए प्रभु !
@संतोष जी,
जवाब देंहटाएंबहती गंगा में आचमन और हाथ आप भी धोयिये.... घाट पर मुकम्मल व्यवस्था कर दी है मैंने! :)
दरस परस मज्जन अरु पाना !
लीजिये अरविन्दजी आपके सौजन्य से ही सही एक शैर तमाम 'अनामिकाओं '(कनिष्ठा न समझा जाए इसे प्रौढा/प्रगल्भा समझा जाए ,मुग्धाभी नहीं ,खुलकर सिर्फ प्रगल्भा खेलती है ,होली ) समझा बूझा जाए :
जवाब देंहटाएंउनसे छींके से कोई चीज़ उतरवाई है ,'
काम का काम, अंगडाई की अंगडाई है .
samay prabandhan kisi ka bhi kharab ho sakta hai....fir chahe vo mahila ho ya purush...balki kai mamlo mein purush bahut aalsi hote hai...
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नहीं सर जी,
महिलाओं का समय प्रबंधन खराब नहीं है... कितने बच्चे अल-सुबह की स्कूल बस छोड़ देते हैं आखिर ?... मुख्य बात यह है कि महिलाओं को बिल्कुल साफ-साफ पता रहता है कि कहाँ से और कितना समय निचोड़ा जा सकता है... शायद इसीलिये आपकी अधीनस्थ सहकर्मी महिलायें अक्सर देर से आती हैं जबकि कई अन्य अधिकारियों के मामलों में वे समय से पहले भी पहुंचती होंगी, आपके ही विभाग में, इलेक्शन ड्यूटी में देरी से पहुंचने वाली महिलायें कितनी थीं बताइयेगा जरा ... :)
बाकी चित्र के बारे में छिड़ी घमासान देख तो यही सोचता हूँ कि आखिर कब व्यस्क होंगे कुछ लोग ?
...
जब भी हम किसी वर्ग के लिये जजमेण्टल होते हैं - मसलन नेता चोर होते हैं, सिन्धी एथिकल नहीं होते, मुसलमान गंदा रहते हैं, औरतें समय की कीमत नहीं समझतीं - तब तब हम अपना पैर अपने मुंह में डालने को सन्नध होते हैं! :)
जवाब देंहटाएंएक वैज्ञानिक उस पायांत आफ टाईम में मानव अंगों को विवेच्य वस्तु के रूप में देखता है
जवाब देंहटाएंhahahahahahahahahahahah vaigyanik
fotu bilkul gandi nahi hai par in saheb ke yahan par gandi lag rahi hai