विभिन्न सामाजिक अवसरों के इस वाक्य से भला शायद ही कोई अपरिचित हो -...."हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को ..." मतलब मेहमान को एक बड़ी पदवी देकर सम्मान सहित बुलाने का भाव इस अर्धपंक्ति में निहित है ..मगर मानस के राजहंस से क्या सचमुच हम भलीभांति परिचित हैं? ...यह आश्चर्यजनक है कि भारत में कई पक्षी विद्वान भी इस पक्षी की वास्तविक पहचान को लेकर भ्रमित रहे हैं .ऋग्वेद में जो राजहंस वर्णित है वह तो भारतीय महाद्वीप का पक्षी ही नहीं है ...पक्षी प्रेमी विश्वमोहन तिवारी अपनी पुस्तक "आनंद पक्षी निहारन का" (नेशनल बुक ट्रस्ट ) में कहते हैं कि 'हंस शब्द वैदिक काल में अधिकतर महाहंस (हूपर स्वान-Cygnus cygnus ? ) को इंगित करता था' मैं उनके कथन से सहमत हूँ मगर महाहंस जिसे मैं राजहंस भी कहूँगा यहाँ का पक्षी है ही नहीं ..
यह शुभ्र -श्वेत पक्षी विभाजित रूस के अधिकाँश भाग से लेकर फिनलैंड तक अपना साम्राज्य आज भी बनाए हुए है और ये कई यूरोपीय देशों,कैस्पियन सागर,जापान ,चीन के कुछ क्षेत्रों और कभी कभार भूले भटके कश्मीर तक प्रवास करते देखे गए हैं .....आज भी इनकी संख्या १८0,000 है मगर अफ़सोस कि भारत में ये नहीं मिलते.. मगर जो बात आश्चर्य में डालती है वह यह कि आज के भारत में इनकी नामौजूदगी के बाद भी प्राचीन भारतीय ग्रन्थों ,वैदिक साहित्य और संस्कृत साहित्य में हंस की इसी प्रजाति का बहुलता से विवरण है ..ऐसा कैसे संभव है?
हंस ज्ञान की देवी सरस्वती का वाहन घोषित है -कवियों ने हंस को सरस्वती के वाहन के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं किया, नीर -क्षीर विवेक के गुण से भी युक्त किया -यह सरस्वती के साहचर्य के साथ सर्वथा उपयुक्त ही था -हेन्सैर्यथाक्षीरमिवाम्बुमध्यात ....अर्थात यह हंस पानी का पानी और दूध का दूध (अलग) कर सकता है -कवि कल्पना ने यहीं विराम नहीं लिया वरन कैलाश पर्वत के सन्निकट मानसरोवर(अब चीन नियंत्रित तिब्बत में ) को इसका वास स्थान बताकर उस सरोवर से मोती चुग कर खाने की विशिष्ट आहार प्रियता के गुण का भी बखान किया ...मगर फिर वही प्रश्न उठता है कि जब महाहंस यहाँ था ही नहीं तो इसका इतना विपुल विवरण भारतीय साहित्य में कैसे है?
निश्चय ही भारत की आज की भौगोलिक सीमा हजारों वर्ष पहले इतनी सिमटी हुयी नहीं थी -या फिर इरान और कैस्पियन सागर तक रह रहे हमारे पूर्वज जो महाहंस से पहले से ही बखूबी परिचित रहे हों ,अपने रचना लोक .में इसका उल्लेख करते रहे हों. जब प्रवास गमन के उपरान्त वे और नीचे मौजूदा भौगोलिक सीमाओं में आयें हों तो यह स्मृति भी स्मृति -वाचिक परम्परा में यहाँ अक्षुण बन गयी हो ...ध्यान रहे ईरानियों के ग्रन्थ अवेस्ता और ऋग्वेद में आश्चर्यजनक समानताएं हैं -अब यह पक्षी साक्ष्य भी इसी तथ्य की इन्गिति करता है कि हमारे पूर्वजों का साम्राज्य निश्चय ही इरान और वाह्य यूरोपीय सीमाओं तक कभी न कभी अवश्य फैला था और वे कालांतर में दक्षिण पूर्व की और लौटे हैं ....जबकि प्रवासी पक्षी हजारो साल से एक निश्चित परिक्षेत्र में ही रहते आये हैं उनके प्रवास क्षेत्र /मार्ग में बड़े परिवर्तन नहीं हुए हैं ...यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने इस पक्षी को भलीभांति देखा भाला था ,अपनी स्मृतियों-श्रुतियों में अमर कर रखा था और बाद में उनकी आगामी पीढ़ियों की कृतियों में भी उनका उल्लेख बना रहा है -भले ही कभी भी महाहंस का यह पर्यावास न रहा हो ....
हमारे लौकिक साहित्य में भी हंस को कई रूपों में जाना समझा गया है -दो हंसो का जोड़ा दाम्पत्य निष्ठा का प्रतीक है तो हंस आत्मा का भी प्रतीक है ..हंस विद्वता का प्रतीक है, परमहंस परम ज्ञानी का द्योतक है ....कालिदास ने महाहंस (स्वान ) तथा अन्य हंस प्रजातियों में विभेद किया है -विश्वमोहन तिवारी ने अपनी उक्त पुस्तक में महाहंस ,हंस तथा हंसक श्रेणियों का उल्लेख किया है और बताया है कि भारत में महाहंसों के चार वंश ,हंसों के नौ वंश तथा हंसकों के छत्तीस वंश हैं जिनमें गूज 'goose ' और बत्तखें तक सम्मलित है .इसी संदर्भ में उन्होंने कालिदास को उद्धृत किया है -जिन्होंने रघुवंश में स्वयंबर के लिए राजाओं के सामने चलने वाली इंदुमती की चाल को महाहंस की चाल ,रानी बनने के बाद गरिमा और भव्यता को दर्शाती उनकी हंस की चाल का उल्लेख किया है -महाभारत के एक कथा दृश्य - राजकुमारी दमयन्ती और हंस संवाद को रवि वर्मा ने अपनी पेंटिंग के लिये चुना है जहां हंस दरअसल 'स्वान' ही है ..जाहिर है हंसों की विभिन्न प्रजाति का ज्ञान पूर्व मनीषियों को था .मगर सबसे बड़ा सवाल तो यह कि जिस महाहंस की बात आज हम यहाँ कर रहे हैं उसका प्रवास क्षेत्र तो कभी यहाँ रहा ही नहीं! स्पष्ट है हमारे पूर्वज कवि निश्चय ही 'स्वान' के प्रवास क्षेत्र से ही इन स्मृति बिम्बों को पीढी दर पीढी अक्षुण बनाए रहे ...
जारी .... .
यही है वह हंस -महाहंस जिसका उल्लेख हमारे ग्रंथों में हुआ है -(Whooper स्वान)
हंस ज्ञान की देवी सरस्वती का वाहन घोषित है -कवियों ने हंस को सरस्वती के वाहन के रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं किया, नीर -क्षीर विवेक के गुण से भी युक्त किया -यह सरस्वती के साहचर्य के साथ सर्वथा उपयुक्त ही था -हेन्सैर्यथाक्षीरमिवाम्बुमध्यात ....अर्थात यह हंस पानी का पानी और दूध का दूध (अलग) कर सकता है -कवि कल्पना ने यहीं विराम नहीं लिया वरन कैलाश पर्वत के सन्निकट मानसरोवर(अब चीन नियंत्रित तिब्बत में ) को इसका वास स्थान बताकर उस सरोवर से मोती चुग कर खाने की विशिष्ट आहार प्रियता के गुण का भी बखान किया ...मगर फिर वही प्रश्न उठता है कि जब महाहंस यहाँ था ही नहीं तो इसका इतना विपुल विवरण भारतीय साहित्य में कैसे है?
स्वान -हंस का मूल पर्यावास और प्रवास क्षेत्र :ध्यान दें भारत तक इनकी पहुँच नहीं है (विकीपीडिया )
निश्चय ही भारत की आज की भौगोलिक सीमा हजारों वर्ष पहले इतनी सिमटी हुयी नहीं थी -या फिर इरान और कैस्पियन सागर तक रह रहे हमारे पूर्वज जो महाहंस से पहले से ही बखूबी परिचित रहे हों ,अपने रचना लोक .में इसका उल्लेख करते रहे हों. जब प्रवास गमन के उपरान्त वे और नीचे मौजूदा भौगोलिक सीमाओं में आयें हों तो यह स्मृति भी स्मृति -वाचिक परम्परा में यहाँ अक्षुण बन गयी हो ...ध्यान रहे ईरानियों के ग्रन्थ अवेस्ता और ऋग्वेद में आश्चर्यजनक समानताएं हैं -अब यह पक्षी साक्ष्य भी इसी तथ्य की इन्गिति करता है कि हमारे पूर्वजों का साम्राज्य निश्चय ही इरान और वाह्य यूरोपीय सीमाओं तक कभी न कभी अवश्य फैला था और वे कालांतर में दक्षिण पूर्व की और लौटे हैं ....जबकि प्रवासी पक्षी हजारो साल से एक निश्चित परिक्षेत्र में ही रहते आये हैं उनके प्रवास क्षेत्र /मार्ग में बड़े परिवर्तन नहीं हुए हैं ...यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने इस पक्षी को भलीभांति देखा भाला था ,अपनी स्मृतियों-श्रुतियों में अमर कर रखा था और बाद में उनकी आगामी पीढ़ियों की कृतियों में भी उनका उल्लेख बना रहा है -भले ही कभी भी महाहंस का यह पर्यावास न रहा हो ....
राजा रवि वर्मा की एक अमर कृति : राजकुमारी दमयंती और राजहंस
जारी .... .
सर बहुत ही सुन्दर ज्ञानवर्धक पोस्ट |हंस पक्षी का तो पौराणिक महत्व है |
जवाब देंहटाएंअगर प्रवासी पक्षी किसी को गांगेय प्रदेश या मानसरोवर में दिखें तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा हाँ मोती चुगने जैसी बात उन्हें सीप खाते हुए देखने वाले कवियों का मधुर काव्य लगती है।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
'हंस शब्द वैदिक काल में अधिकतर महाहंस (हूपर स्वान-Cygnus cygnus ? ) को इंगित करता था'
इस निष्कर्ष का आधार क्या है आखिर, भारतीय उपमहाद्वीप में पाये जाने वाले या जाड़ों में आने वाले अन्य पक्षी राजहंस क्यों नहीं हो सकते आखिर...
...
'हे मानस के राजहंस' शब्द बड़ा आकर्षक लगता है, विशेषकर उसे जिसका कि विवाह होने वाला हो :)
जवाब देंहटाएंअनुराग जी की बात से सहमति, कवि लोगों के कल्पना की बात सच जान पड़ती है।
@प्रवीण शाह जी,
जवाब देंहटाएंहम आपके प्रश्न का विवेचन अगली पोस्ट में करेगें!
प्रव्रजन के तार जरूर जुडेंगे..., रोचक.
जवाब देंहटाएंहंसों से सम्बद्ध कवि कल्पनाओं को इतनी बेरुखी से मत तोड़िये...
जवाब देंहटाएंयूँ तो कवि सीमाओं से नहीं बंधा। सुन भर ले, जान भर ले तो वह अपने प्रिय की अनुभूति कर लेता है। इसलिए कहते हैं जहां न पहुँचे रवि वहां पहुँचे कवि। लेकिन हंस के संदर्भ में यह अनूठी बात लगती है क्योंकि यह पक्षी हमारी धार्मिक चेतनता में भी रचा बसा है। माँ सरस्वति का वाहन मात्र कवि की कोरी कल्पना ही होगी, मन विश्वास नहीं करता है। कुछ तो है। देखें अगली पोस्ट में और इस पोस्ट में भी विद्वान पाठक क्या लिखते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक - आभार :)
जवाब देंहटाएं"ईरानियों के ग्रन्थ अवेस्ता और ऋग्वेद में आश्चर्यजनक समानताएं हैं" एकदम सहमत. निश्चित ही यह हमारे अनुवांशिक स्मृति कि देन है.
जवाब देंहटाएंतथ्यों एवं साक्ष्यों से परे विकल्पना में बड़ा बल होता है . धीरे-धीरे उनपर इतना भरोसा होने लगता है कि वह प्राणवान हो जाता है और जन मानस में वास्तविक मालूम होने लगता है . आपका खोजपरक आलेख इसी को इंगित कर रहा है .
जवाब देंहटाएंरोचक शोधपूर्ण जानकारी है। अगली किस्त का इन्तजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंहंस पक्षी के विषय में अच्छी जानकारी मिली ... आगे की कड़ी का इंतज़ार है ॥ वैसे देवी सरस्वती का वाहन भी माना गया है ...
जवाब देंहटाएंअभी नहीं मिलते लेकिन कभी तो रहे ही होंगे .
जवाब देंहटाएंतभी तो कवियों के मन पसंद पक्षी रहे हैं हंस .
सोचने पर मजबूर कर रही है यह पोस्ट .
सोच को नयी दिशा देती अहि आपकी पोस्ट ... हंस आम मानस के ह्रदय में बसा है पर इसका कारण जानने का प्रयास कभी नहीं किया ... अब आपने बताया तो आगे जानने की जियासा भी बढ़ गयी है ...
जवाब देंहटाएंसाहित्य कोई सीमायें नहीं मानता :) न भौगोलिक न काल्पनिक.
जवाब देंहटाएंबचपन से नानी दादी की कहानियों में भी हंस हुआ करता था पर इसी तरह कि वह बहुत दूर कहीं से आते हैं और और अपवाद स्वरुप ही दीखते हैं.या फिर किसी रजा ने दूर देश से हंसों का जोड़ा मंगवाकर अपने सरोवर में रखवाया..मतलब कि आपके शोध में सत्यता तो है कहीं न कहीं.
हाँ पुराने वेदों में जहाँ तक उनके जिक्र की बात है तो हो सकता है तब भौगोलिक सीमायें इतनी संकुचित न हों.या फिर हंसों के लिए ये सीमायें न मायने रखती हों :).
ईमेल से गिरिजेश:
जवाब देंहटाएंदेखिये ग्रीक मिथक क्या कहते हैं हंस के बारे में? :)
http://en.wikipedia.org/wiki/Leda_and_the_Swan
लेडा एक राजकन्या थी जिसकी सुन्दरता से मोहित हो ग्रीक देवता ज़ीयस ने उससे हंस का वेश बदल सम्भोग किया। आकाश में एक तारासमूह भी हंस के नाम से जाना जाता है:
http://www.skyscript.co.uk/cygnus.html
जिसे वृहस्पति के पास बताया गया है। यहाँ वृहस्पति को ज़ीयस से सम्बन्धित (दूसरा रूप?) माना गया है।
ज्ञान की रोमन देवी मिनर्वा बुद्धिमान उल्लू से सम्बन्धित है न कि सरस्वती की तरह राजहंस से! इसी कारण मैंने 'भारतवासी' उल्लू को अपने ब्लॉग पर निज चित्र के स्थान पर लगा रखा है ;) हंस तो भारत में मिलता ही नहीं!
http://en.wikipedia.org/wiki/Minerva
मैं संकेत भर दे रहा हूँ। अब बीड़ा उठा लिये हैं आप तो ढंग से निबाहिये।
सादर,
गिरिजेश
@गिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएंआपने महत्वपूर्ण लिंक दिए हैं ...यूनान क्या विश्व के अन्य भागों में भी उल्लू बुद्धिमत्ता का ही प्रतीक है -मात्र भारत में हमारे साहित्यप्रेमी जिनकी नियति चिर विपन्नता रही है उल्लू को लक्ष्मी से जोड़कर उसे मूर्खता के अर्थ में रूढ़ बना दिए ...और प्रकारान्तर से सरस्वती के हंस को सर्वगुण संपन्न बना दिया ...
बाकी यह कहना है कि लेख का मुख्य फोकस पुराणों और मिथों की पुनर्प्रस्तुति न होकर वैज्ञानिक नजरिये से काव्य विश्रुत .पुराणोक्त हंस की वास्तविक पहचान स्थापित करना है !
pakshiyo ka mahatav bahut hai, lekin ajkal ke deforestation ke karan ye gayab hote ja arhe..
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी दी..... हंस का विवरण तो हमारे पौराणिक साहित्य से लेकर कविताओं तक हमेशा से रहा है..... आप तो बहुत कुछ खोज लाये इस पक्षी के विषय में.....
जवाब देंहटाएं.हो सकता है प्रवासी पक्षी के रूप में यह नियमित आता रहा हो यहाँ के अनुकूल माहौल में प्रजनन हेतु .
जवाब देंहटाएंभारत सोने की चिड़िया तो था ही मोती चुगने आते होंगें राजहंस ,इधर पर्यावरण पारितंत्र कुछ इस तरह टूटें हैं राजहंस तो राजहंस ,मानसरोवर रह गया कविताओं में शेष .
जवाब देंहटाएं....अगली पोस्ट का इंतजार करते हैं। :)
जवाब देंहटाएंहंस एक अद्भुत प्राणी है...हमें तो उसका वर्णन पौराणिक ग्रंथों में ही मिला है ! इनके बारे में आम जन अभी भी अनभिज्ञ हैं.सुनते हैं कि मानसरोवर में पाए जाते है.
जवाब देंहटाएंकवियों की कल्पनों से इतर भारत की भौगालिक सीमा विस्तृत थी , इसलिए इनके पाए जाने की सम्भावना को नगण्य भी नहीं माना जा सकता ..
जवाब देंहटाएंपढ़ते हैं अगली किश्त में !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंओह. तो मानसरोवर में नहीं पाए जाते ये !
जवाब देंहटाएं