हम तो गए थे बेटे के एक संस्थान में दाखिले के चक्कर में -मतलब गए तो थे कपास ओटने और अनुभव हो गए अनिर्वचनीय हरि मिलन के ..यह भाग्य कहिये (जो अपुन के मामले में ज़रा दुबला पतला ही रहा है ) या फिर ऋषि पुरुषों का पुण्य प्रताप कि इस बार मेरी रेल यात्रा तो निरापद और निर्विघ्न रही ही( घोर आश्चर्य ..!) , बंगलूरू का यह अल्प प्रवास भी यादगार बन गया .इसका श्रेय बिना लाग लपेट के एक ऋषि -व्यक्तित्व को ही है -प्रवीण पाण्डेय जी को जो इन दिनों कहीं ए
क और विश्वामित्र की भूमिका में दिख रहे हैं . इस ऋषि -पुरुष का ही प्रताप रहा कि मेरी कोई ट्रेन (संघमित्र सुपर फास्ट ) जीवन में पहली बार निर्धारित समय से पहले प्रस्थान के स्टेशन (मुगलसराय )पर आई और समय के पहले ही गंतव्य (बंगलूरू ) तक पहुँच गयी ....मानो प्रवीण जी पूरी अवधि ट्रेन पर नजर रखे हुए हों ..और वापसी यात्रा भी एक पुस्तकीय सटीकता लिए इसी ट्रेन से संपन्न हुई ! इसे आप क्या कहेगें -महज एक संयोग? या फिर एक ऋषि का पुण्य प्रताप ? हम बंगलौर स्टेशन के ही
माईलस्टोन रेल यात्री विश्राम गृह में रुके ,सौजन्य प्रवीण जी का ही -जब कोई ब्लॉगर ही हो रेल -कोतवाल तो फिर चिंता काहें की ....और फिर आई वह शाम -१० मई ,१० की शाम जो
बंगलूरू के एक ब्लॉगर मीट के नाम सुनहरे यादगार का पल सजों गयी ....
चाय की प्याली और ब्लागिंग का तूफ़ान
प्रवीण जी के चित्रों में उनकी आखों की चमक मन में गहरे उतरती है ..बंगलूरू जाने की संभावना बनते ही यह संकल्प पक्का हो गया कि मन को संस्पर्शित करने वाली आँखों वाले इस ब्लॉगर से जरूर मिलना है ...बंगलूरू का कपास ओटना जैसे ही पूरा हुआ मैंने प्रवीण जी को सूचित किया ..ठीक पांच बजे उनकी कार आ गयी हमें लेने -और अगले ही कुछ पलों में हम उनके आफिस में पहुंच गए ...बड़े अफसर का बड़ा आफिस --
इहाँ कहाँ ब्लॉगर का वासा ? मेरी चोर दृष्टि यही भाप रही थी ..मैंने विजिटिंग कार्ड चपरासी को थमाया ..जो ब्लॉगर के लिए नहीं बल्कि एक अफसर को इम्प्रेस करने के लिए टेलर मेड है मगर मानों वहां एक ब्लॉगर ही पलक पावडे बिछाए राह तक रहा था ...प्रवीण जी कुछ ऐसे लपक कर मिले कि रंभाती गाय का अपने बछड़े से मिलन या अपने
नाटी इमली के भरत मिलाप की याद हो आई ....हम सहमे सकुचाये ही रहे ...थोडा सहज और थोडा असहज सा , एक आला अफसर और एक ब्लॉगर का फर्क भापते रहे ...बहुत शीघ्र ही असहजता की दीवारे ढह गयीं ..और दो ब्लॉगर मुखातिब हो गए ....
ब्लॉगर प्रवीण जी का छोटा,प्यारा परिवार
आफीसर के कक्ष और वहां की आबो हवा में तो अफसरी थी ही ..जो नाश्ते पानी के रूप में भी दिखी ..जोरदार नाश्ते के बाद हम जल्दी ही ब्लॉगर प्रवीण जी के घर में सुशोभित होने चल पड़े ....दरवाजे पर पद -पनहियाँ उतारी गयीं ...कोई स्पष्टीकरण की दरकार नहीं थी मगर प्रवीण जी ने इस शिष्टाचार के बारे में विनम्रता के साथ कुछ बताया भी ..और यह तो एक अच्छी सी शिष्ट परम्परा है -हायिजिन के नाते भी....घर में बच्चे दौड़े आये पापा से मिलने ...
देवला और पृथु ....और ब्लॉगर की प्रेरणा ...
प्रशस्त लेखनी की अजस्र ऊर्जा -स्रोत श्रीमती श्रद्धा पांडे जी भी ....अरे यहाँ पापा के साथ दो जन और ? पृथु तो अपनी बाल सुलभ कुतूहल रोक नहीं पाए और भोलेपन से पूछ ही बैठे ,आप लोग रात में यही रुकेगें क्या ? एक पल तो हम असहज से हो उठे पर अगले ही पल ठठा कर हँसे ....प्रवीण जी ने भी ठिठोली की ..हाँ बेटे ये तुम्हारे कमरे में ही रुकेंगे .....सशंकित पृथु तो खिसक लिए मगर देवला हमारा सूक्ष्म बाल सुलभ आकलन करती रहीं -और जब आश्वस्त हो गयीं तो अपना आर्ट बुक लाईं हमारे निरीक्षण के लिए और अपनी गुडिया भी मिलाने लाईं जो उनकी ही तरह भोली भाली क्यूट सी सुन्दर थी ....फिर दो ब्लॉगर मशगूल हो गए अपनी चर्चाओं में ....
गुजरी खूब जब मिल बैठे ब्लॉगर दो
मुझे सहसा ही आभास हुआ कि श्रद्धा जी भी आ गयीं थीं ब्लागरों की बातों को सुनने और फिर जल्दी ही सक्रिय भागेदारी भी हो गयी उनकी हमारी चर्चाओं में ..यह मेरे लिए एक अलग अनुभव सा था ..सामान्यतः ब्लॉगर पुरुषों की सहचरियां ब्लॉग चर्चाओं से दूर रहती हैं और कहीं कहीं तो अलेर्जिक भी ....मगर यहाँ तो आलम ही दूसरा था ...प्रवीण जी को यह स्वीकारोक्ति करने में देर नहीं लगी कि
ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग पर बुधवासरीय उनकी पोस्टों की पहली पाठक वही हैं और बिना उनके अनुमोदन के कोई भी पोस्ट प्रकाशित नहीं होती ...यह हुई न कोई बात ..मैंने श्रद्धा जी को नारी समूह से अलग विशिष्टता प्रदान करती इस खूबी के लिए तुरंत बधाई देने का मौका नहीं गवाया! जो पति की ब्लागरी में सहयोग करे ऐसी श्रेष्ठ नारियां कितनी कम हैं न इस संसार में .....
प्रवीण जी के बारे में हमने तय पाया कि उनका हम ब्लाग जन अब तक महज "टिप ऑफ़ आईस बर्ग " जैसा ही परिचय प्राप्त कर पाए हैं ..एक आत्ममुग्ध ब्लॉगर ने अभी कहीं कमेन्ट किया कि ' प्रवीण जी आप कवितायेँ भी अच्छी लिखने लगे हैं " अब उन्हें क्या पता कि प्रवीण जी एक पक्के कवि और जन्मजात कवि ह्रदय दोनों हैं .....उनकी अब तक की २०० से ऊपर की कवितायें एक संकलन के प्रकाशन का बाट जोह रही हैं ,,मगर विनम्रता ऐसी कि उन्हें लगता है कि अभी संकलन के योग्य उनकी कवितायें नहीं हुईं .....मैंने उनसे जिद कर उनकी भीष्म कविता का सस्वर पाठ सुना .....कोई भी एक नजर में देख सुन सकता है कि ऐसी भाषा ,भाव और शिल्प की रचना नौसिखियेपन की देन नहीं हो सकती ....प्रवीण जी ब्लागिंग की तीव्र और तीव्रतर होती प्रोद्योगिकी के भी साथ हैं ...इनस्क्रिप्ट आफलाइन हिन्दी टाईपिंग उनका प्रिय शगल है -उनका मोबाईल माइक्रोसाफ्ट वर्जन के सार्थ हिन्दीयुक्त है और लैपटाप और मोबाईल का कंटेंट -विनिमय सहजता से होता है ...प्रवीण जी बहुत अच्छा गाते हैं -बिलकुल किशोर दा की आवाज ...मैंने उनके गानों की साउंड ट्रैक पर इनका गायन सुना -मंत्रमुग्ध हुआ ....कितनो की तो छुट्टी कर सकते हैं महाशय ....मगर विनम्रता भी आखिर कोई चीज होती है जो इस दंपत्ति में कूट कूट कर भरी है ....श्रद्धा जी रसायन शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुयेट हैं और उनकी लैंडस्केपिंग में बड़ी रूचि है ..मुझसे एक आदर्श लैंडस्केपिंग प्लान में मछली के तालाब की जगह निर्ध्रारण और उसकी उपयोगिता पर जब उन्होंने चर्चा शुरू की तो लगा जैसे मैं एक विषयवस्तु विशेषग्य से बात कर रहा होऊँ -क्योंकि मुझे खुद एक विषय विशेषज्ञ की भाषा शब्दावली अपनानी पडी थी ...बाद मे उन्होंने बताया कि लैंडस्केपिंग मे उनकी रूचि महज एक अमेच्योर की ही है और अपने झासी प्रवास के दौरान उन्होंने कुछ ऐसे प्रयास किये थे... मैंने उनसे आग्रह किया है कि वे भी ब्लागिंग का श्रीगणेश करें और मुझे पूरा विश्वास है कि वे निराश नहीं करेगीं ....मैंने उन्हें एक अप्रतिम प्रतिभा के सहचर का साथ मिलने के सौभाग्य पर दुबारा बधायी दी ....
गुडिया और खिलौने के साथ देवला
मेरा यह तीसरा बंगलौर भ्रमण था . इसके बंगलूरू होने के पहले दो लम्बे अंतरालों पर मैं एक बार १९७९ और फिर १९९३ में इस खूबसूरत शहर में आया था ...लेकिन तब के और अब के बंगलोर में बहुत बड़ा अंतर है -अब यह शहर जनसंख्या के भार से कराहता सा लगा -हर जगह लम्बी लम्बी लाईने ,लोगों की उमड़ती भीड़ और साफ़ सफाई भी वैसी नही-साफ़ सफाई की मामले में समीपवर्ती मैसूर बाजी मार ले गया है ...बंगलौर रेलवे स्टेशनके यात्री जन सैलाब को देखकर तो मैं स्तंभित रह गया
मैं आरक्षण / टिकट विंडो तक को देख तक नहीं सका वहां तक पहुँचने की बात तो दूर थी ....ये सारे कटु अनुभव दूर हो गए उस यादगार शाम के चलते जिसे प्रवीण जी ने हमारे नाम कर दिया था ....बंगलूरू की यह जीवंत शाम कभी न भूल पायेगें हम .....बतरस और सुस्वादु भोजन ...मनचाहे मित्र /ब्लॉगर ..सज्जन सत्संग कितना दुर्लभ है न यह सब आज की इस उत्तरोत्तर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होती दुनिया में .....हम तो धन्य हुए ....
प्रवीण जी की कविता 'भीष्म 'उन्ही के स्वरों मे -