बुधवार, 23 मई 2012

एक नए 'मानव' धर्म का आगाज


मस्जिद, चर्च और मंदिर से अलग इन दिनों एक नया धर्म आकार ले रहा है। शुरुआत अमेरिका से हुई है। इसके अनुयायी अपने को पारंपरिक धर्मों से अलग कर चुके हैं और बिना किसी धर्म के होने के चलते ' द नन्स' (nones) यानी बिना धर्म के कहे जा रहे हैं। मगर ये विधर्मी नहीं हैं- इनका मूल धर्म है मानवता की सेवा करना... 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई' को पूरी तरह चरितार्थ कर रहे हैं ये लोग... भूखे को खाना और बीमार की देखभाल ही इनका धर्म है। 'कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनाम आर्त नाशनम' ही इनका मूल मंत्र है। और इसी ध्येय में मगन रहना ही इनका धर्म और आध्यात्म है। समाज शास्त्रियों ने इस नई मानवीय प्रवृत्ति के लोगों को 'द नन्स' का नाम दिया है। 1990 के बाद अमेरिका में इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है और अब समूची जनसंख्या की 16 फीसदी हो गई है। 

एक मजे की बात यह है कि इन्होंने धर्म तो छोड़ दिया है मगर इनमें से ज्यादातर लोगों का ईश्वर में विश्वास बना हुआ है। वैसे भी अमेरिका में महज 4 फीसदी लोग ही ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते जो या तो नास्तिक हैं या अज्ञेयवादी अर्थात एग्नॉस्टिक-जो यह मानते हैं कि ईश्वर का बोध संभव नहीं है- वे न तो ईश्वर का वजूद मानते हैं और न ही उसके होने से इनकार करते हैं। उनके लिए ईश्वर अगम्य है। जाहिर है पारंपरिक धर्म मानव सेवा के अपने मूल उद्येश्य से इतना भटकता गया है कि अब लोगों में ऐसे संगठनों और स्थापनाओं से मोहभंग होने लगा है। आज सारी दुनिया में धर्म का मतलब एक दूसरे के प्रति हिंसा, ईशनिंदा, रक्तपात ही रह गया है। धर्म के नाम पर लोगों का बदस्तूर शोषण जारी है। 

'द नन्स' अभियान से जुड़े लोग मानव सेवा के अपने काम को ही सच्चा आध्यात्म बताते हैं। वे ईश्वर की सत्ता से इनकार नहीं करते मगर धर्म के संगठित रूप को ढोंग का दर्जा देते हैं। पारंपरिक धर्म जहां कट्टरता है, दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता है, भेदभाव है इन्हें प्रिय नहीं रहा। लेखिका एमी सुलिवन ने अभी हाल के टाइम पत्रिका (एशियन अडिशन, 12 मार्च 2012 ) में 'द राइज ऑफ नन्स' शीर्षक से इस नए अभियान की जानकारी दी है। मुझे लगता था कि एक ऐसे अभियान को एक न एक दिन पनपना ही था। अब पारंपरिक और संगठित धर्म अपने 'सुनहले नियमों' के स्थापित राह से काफी दूर हट आए हैं। जन सेवा अब इनका मकसद नहीं रहा। हिन्दू धर्म में जहां अनुयायियों का शोषण, अकूत धनराशि के चढ़ावे पर गिद्ध दृष्टि है तो इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है। ईसाई धर्म जो जन सेवा के प्रति अपने समर्पण के लिए विख्यात रहा है अब पादरियों के आडंबर/भव्यता की चकाचौंध बनता गया है। ऐसे में एक ऐसे मानव धर्म की आज बड़ी जरुरत है। जो विजातियों को भले ही न सही स्वजनों की तो देख रेख करे। उनकी पीड़ा में भागीदार बनें। 

आज भारत में भी टूटते संयुक्त परिवारों के चलते लोगों के जीवन में एकाकीपन आ रहा है। वृद्ध उपेक्षित हो रहे हैं। ऐसे में कोई अभियान तो हो जहां इन दुखियों को भरोसे का कंधा मिल सके। दुःख दर्द बांटा जा सके। एक वह धर्म जो मनुष्य के दुःख दर्द से जानबूझ कर किनारा किए हो, अपने घोषित उद्येश्यों से भटक गया हो उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। ऐसे किसी अभियान की भारत में भी पृष्ठभूमि तैयार है बस अगुवाई की जरुरत है। नई सुगबुगाहटें और एक नये धर्म-मानव धर्म की पदचापें अब सुनाई देने लगी हैं....

30 टिप्‍पणियां:

  1. अगर संस्था नहीं बना रहे तो बहुत अच्छा है। धर्म इंटीट्यूशन बनता है तभी दिक्कत आती है!

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  2. मानव धर्म से बड़ा कौन सा धर्म है , मगर क्या यह व्यावहरिक भी होगा ...
    यदि विभिन्न धर्मों के अनुयायी एक नए धर्म की शुरुआत करें , मगर वे अपने जन्म को कैसे भूल पाएंगे ...एशियाई मानसिकता क्या इसे निभा पाएगी , सोचने की बात है !
    अकबर ने भी "दीन-इ -इलाही " के नाम से एक अलग धर्म की स्थापना की थी , मगर व्यावहारिकता में ठीक नहीं रहा और अपना अस्तित्व खो बैठा ...
    बहरहाल अच्छी पोस्ट !

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  3. अब पारंपरिक और संगठित धर्म अपने 'सुनहले नियमों' के स्थापित राह से काफी दूर हट आए हैं। जन सेवा अब इनका मकसद नहीं रहा। हिन्दू धर्म में जहां अनुयायियों का शोषण, अकूत धनराशि के चढ़ावे पर गिद्ध दृष्टि है तो इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है। ईसाई धर्म जो जन सेवा के प्रति अपने समर्पण के लिए विख्यात रहा है अब पादरियों के आडंबर/भव्यता की चकाचौंध बनता गया है। ऐसे में एक ऐसे मानव धर्म की आज बड़ी जरुरत है। जो विजातियों को भले ही न सही स्वजनों की तो देख रेख करे। उनकी पीड़ा में भागीदार बनें।

    अकबर महान का दीन-ए -इलाही आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है .वैसे भी धर्म का अब कर्म कांडी स्वरूप ही उड़ान भर रहा है .दर्शन भी परमात्मा के जनरल ,वी आई पी और वी वी आई पी हो गए हैं .तिरुपति देवस्थानमदेवमाला से बद्रीनाथ धाम तक परिदृश्य एक ही है ,तभी हरिवंश राय बच्चन ने कहा था -वैर बढाते मंदिर मस्जिद ,मेल कराती ,मधुशाला .और कबीर तो इन सबसे भी बहुत आगे थे .उन्होंने लिखा -दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं ,गाय /कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लै बनाय ,ता पे मुल्ला बांग दे ,क्या बहरा हुआ खुदाय .इसीलिए किसी शायर ने कहा होगा -जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ के ,या वो जगह बता ,जहां पर खुदा न हो .जो जड़ में है वही चेतन में है ,यही फलसफा था पौबत्य दर्शन था .पता नहीं कौन भगवान् को गांधी की तरह घसीट कर मंदिर तक लाया .काबा तक खुदा की हदबंदी किसने की ?मस्जिद गिरजे किसकी करामात थी और बाबरी मस्जिद ? .बधाई इस बढ़िया सार्वकालिक अपडेट के लिए यह आलेख है (डॉ )अरविन्द मिश्रा के कद काठी का .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    मंगलवार, 22 मई 2012
    :रेड मीट और मख्खन डट के खाओ अल्जाइ -मर्स का जोखिम बढ़ाओ
    http://veerubhai1947.blogspot.in/
    और यहाँ भी -
    स्वागत बिधान बरुआ :आमंत्रित करता है लोकमान्य तिलक महापालिका सर्व -साधारण रुग्णालय शीयन ,मुंबई ,बिधान बरुआ साहब को जो अपनी सेक्स चेंज सर्जरी के लिए पैसे की तंगी से जूझ रहें हैं .
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/

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  4. अब पारंपरिक और संगठित धर्म अपने 'सुनहले नियमों' के स्थापित राह से काफी दूर हट आए हैं। जन सेवा अब इनका मकसद नहीं रहा। हिन्दू धर्म में जहां अनुयायियों का शोषण, अकूत धनराशि के चढ़ावे पर गिद्ध दृष्टि है तो इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है। ईसाई धर्म जो जन सेवा के प्रति अपने समर्पण के लिए विख्यात रहा है अब पादरियों के आडंबर/भव्यता की चकाचौंध बनता गया है। ऐसे में एक ऐसे मानव धर्म की आज बड़ी जरुरत है। जो विजातियों को भले ही न सही स्वजनों की तो देख रेख करे। उनकी पीड़ा में भागीदार बनें।

    अकबर महान का दीन-ए -इलाही आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है .वैसे भी धर्म का अब कर्म कांडी स्वरूप ही उड़ान भर रहा है .दर्शन भी परमात्मा के जनरल ,वी आई पी और वी वी आई पी हो गए हैं .तिरुपति देवस्थानमदेवमाला से बद्रीनाथ धाम तक परिदृश्य एक ही है ,तभी हरिवंश राय बच्चन ने कहा था -वैर बढाते मंदिर मस्जिद ,मेल कराती ,मधुशाला .और कबीर तो इन सबसे भी बहुत आगे थे .उन्होंने लिखा -दिन में माला जपत हैं ,रात हनत हैं ,गाय /कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लै बनाय ,ता पे मुल्ला बांग दे ,क्या बहरा हुआ खुदाय .इसीलिए किसी शायर ने कहा होगा -जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ के ,या वो जगह बता ,जहां पर खुदा न हो .जो जड़ में है वही चेतन में है ,यही फलसफा था पौबत्य दर्शन था .पता नहीं कौन भगवान् को गांधी की तरह घसीट कर मंदिर तक लाया .काबा तक खुदा की हदबंदी किसने की ?मस्जिद गिरजे किसकी करामात थी और बाबरी मस्जिद ? .बधाई इस बढ़िया सार्वकालिक अपडेट के लिए यह आलेख है (डॉ )अरविन्द मिश्रा के कद काठी का .
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    ram ram bhai
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  5. ...कौन कहता है कि यह धर्म नहीं है ? वास्तविक-धर्म वही है जिसमें अपनी तुष्टि ,दूसरों की तुष्टि में ही निहित हो.ईश्वर हमारा प्रेरक-तत्व तो है पर हम उसी की कृति को नकार कर कैसा धर्म-पालन कर रहे हैं ?

    हमारे देश में जब से संवेदना और नैतिकता का क्षरण शुरू हुआ और आर्थिक हित हावी होने लगे,हम बड़े-बूढ़ों के प्रति उदासीन होने लगे हैं.इसका फौरी-इलाज दिख भी नहीं रहा है !

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  6. सामान्यतः सिखों और पठानों में अंतर नहीं कर पाने वाले अमेरिकन्स में 'द नन्स' जैसे प्रज्ञावादी समूह का अभ्युदय एक सुखद संकेत है किन्तु 16 प्रतिशत का आंकडा कुछ खटकता है !

    खैर आंकड़ा जो भी हो इस प्रवृत्ति का स्वागत किया जाना चाहिये !

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  7. मानवीय धर्म...इसी तरह चल सके तो इससे अच्छा क्या होगा.परन्तु इतना आसान नहीं व्यावहारिकता में लाना और उसे अपने उद्देश्य के स्वरुप में ही बनाये रखना.

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  8. धर्म रहित मानव सेवा करने के लिए किसी संस्था की ज़रुरत नहीं होती ।
    अच्छा लगा यह जानकर कि ऐसे लोगों की संख्या बढती जा रही है । वर्ना धर्म के नाम पर जो आडम्बर हो रहे हैं , उससे तो धर्म की हानि ही हो रही है ।

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  9. पर-हित सरिस धर्म नहिं भाई,
    पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई !
    - एक-न-एक दिन इस राह पर आना ही था .

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  10. वैसे तो दूकान बनते देर नहीं लगती, लेकिन बेहतर की आशा बनती है.

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  11. पश्चिमी देश जिन चीजों को ईजाद करते हैं भारत में उसकी जड़ें पहले से ही मौजूद हैं |

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  12. ऐसे किसी अभियान की भारत में भी पृष्ठभूमि तैयार है बस अगुवाई की जरुरत है। नई सुगबुगाहटें और एक नये धर्म-मानव धर्म की पदचापें अब सुनाई देने लगी हैं...

    पता नहीं कितनी सफलता मिलेगी .... फिर भी यह स्वागत योग्य ही ...

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  13. सराहनीय सोच.... मानवता से बड़ा तो कोई धर्म नहीं.....

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  14. क्यों कहते,ईश्वर लिखते ,
    है,भाग्य सभी इंसानों का !
    दर्द दिलाये,क्यों बच्चे को
    चित्र बिगाड़ें,बचपन का !
    कभी मान्यता दे न सकेंगे,निर्मम रब को,मेरे गीत
    मंदिर,मस्जिद,चर्च न जाते,सर न झुकाएं मेरे गीत

    बचपन से,ही रहा खोजता
    ऐसे , निर्मम साईं को !
    काश कहीं मिल जाएँ मुझे
    मैं करूँ निरुत्तर,माधव को !
    अब न कोई वरदान चाहिए,सिर्फ शिकायत मेरे मीत
    विश्व नियंता के दरवाजे,कभी ना जाएँ,मेरे गीत !

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  15. @ इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है ?

    पुलिस का घोषित मक़सद शांति व्यवस्था बनाए रखना है, मुजरिमों को पकड़ना है लेकिन इस घोषित मक़सद की आड़ में कुछ पुलिसकर्मी रिश्वत लेते हैं और ज़ुल्म करते हैं तो इससे पुलिस की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती।

    इस्लाम भी एक व्यवस्था है। इस पर चलने वाले लोग ही होते हैं। जो इस्लाम का नाम लेकर अपने निजी हित साधे, उसे मुनाफ़िक़ कहा जाता है न कि आदर्श मुस्लिम। देखना यह चाहिए कि इस्लाम के उसूलों को छोड़ दिया जाए तो फिर माना क्या जाएगा ?
    इस्लाम को छोड़कर भी जब कोई अच्छी बात मानता है तो वह इस्लाम को ही बिना नाम लिए मानता है।
    जब भी संगठन बनेगा तो वहां शक्ति का उदय होगा। समय गुज़रेगा तो शक्ति पाने के लिए ग़लत आदमी वहां भी पहुंचेगे। अपना नाम ‘नन्स‘ रखकर वे बच नहीं पाएंगे।
    ईश्वर में विश्वास, जन सेवा और संगठन, तीनों इस्लामी उसूल हैं।
    इस्लाम परोक्ष ही नहीं प्रत्यक्ष भी पश्चिमी देशों में फैल रहा है। यह बात सामने रखी जाए तो ही यह जाना जा सकता है कि आधुनिक सभ्यता वास्तव में ही एक ऐसे धर्म की तरफ़ बढ़ रही है जो उसकी ज़रूरतों को पूरा करता है।
    Please see
    http://drayazahmad.blogspot.in/2012/05/blog-post_12.html

    आतंकवाद की परिभाषा ही तय नहीं है तो कैसे किसी को आतंकवादी कहा जा सकता है ?
    राजनीतिक हितों के लिए शक्तिशाली देश पूरा देश तबाह कर दे तो वह शांति की स्थापना है और मज़लूम नागरिक पत्थर भी मारें तो आतंकवादी ?
    भगत सिंह इसी अन्याय के शिकार हुए। अंग्रेज़ों का यह खेल पुराना है।

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  16. वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे..

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  17. धर्म के विषय में दो प्रकार की मान्यता प्रचलित है --

    पहली मान्यता की स्थापना\उद्घाटना, प्रसार भारत से हुआ कि ----- सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं है.
    'धर्म' शब्द की उत्पत्ति 'धृ' धातु से हुयी है, जिसका अर्थ धारण और पोषण करना है. पदार्थ के धारक और पोषक तत्व को धर्म कहते है. इसका अभिप्राय यह है कि जिन तत्वों से पदार्थ बनता है वही तत्व उस पदार्थ का धर्म है. सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं हो सकता है ............. जैसे अग्नि का धर्म ताप और जलाना है, जल का धर्म शीतलता और नमी है, सूर्य का धर्म प्रकाश आदि है.
    भारतीय संस्कृति का अवचेतन "मनु-स्मृति" के आश्रय से संचालित होता है, स्वयं उसमें भी मानव के धारणीय स्वाभाविक धर्म को इंगित करते हुए कहा गया है------


    धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।

    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।

    इन दस मानव कर्तव्यों को धर्म घोषित करते हुए किसी भी -उपास्य, उपासना-पद्दति की चर्चा तक नहीं की गयी है.
    इसी तरह अन्यान्य भारतीय ग्रंथों में भी यही बात दोहराई गयी है.

    जबकी धर्म की दूसरी मान्यता कि स्थापना, प्रचलन शेष विश्व में क्रमशः हुआ है, और इसे धर्म के स्थान पर उपासना-पद्दति\पंथ\सम्प्रदाय\रिलिजन कहना ज्यादा उचित है.
    यूँ तो पश्चिमी विचारको ने रिलिजन को परिभाषित करने की कोशिश की है ,पर मैक्समूलर ने सभी दार्शनिको की परिभाषाओं को नकारते हुए 1878 में "रिलिजन की उत्पत्ति और विकास " विषय पे भाषण देते हुए रिलिजन की परिभाषा इस तरह दी है ---
    "रिलिजन मस्तिष्क की एक मूल शक्ति है जो तर्क और अनुभूति के निरपेक्ष अन्नंत विभिन्न रूपों में अनुभव करने की योग्यता प्रदान करती है". यहाँ मैक्समूलर ने कल्पना की है की ईश्वर जैसी कोई सत्ता है जो असीम है,अनन्त है. इस से तो यह लगता है की मैक्समूलर यहाँ आस्तिकवाद की परिभाषा दे रहा है .
    असल बात तो यह लगती है की विश्व में दो ही रिलिजन है, एक आस्तिकवाद और दूसरा नास्तिकवाद . आस्तिक ईश्वर की सत्ता में यकीन रखता है और नास्तिकवाद ईश्वर को चाहे जिस नाम से पुकारो, उसके अस्तित्व को ही नकारता है .

    इस तरह स्पष्ट है की आस्तिकता और धर्म का अर्थ पर्याप्त भिन्नता लिए हुए है.
    धर्म का नाम लेकर जितने भी उत्पात होतें है वस्तुतः वे उपासना पद्दति की भिन्नत के आधार पर होतें है .................... जबकि धर्म नहीं हो तो लड़ाई-झगडे कि तो दूर रही सृष्ठी ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????

    ************************************************

    मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे:
    धर्म का मूल है शंकर और शंकर का कोई संकीर्ण मतलब ना निकाले,शंकर का मतलब है कल्याण .
    बाकि तो जैसा जो समझे ,

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  18. आर्य संस्कृति कहो या भारतीय संस्कृति, यहाँ धर्म सदैव अपने विशुद्ध रूपमें विद्यमान रहा है। और यहां का धर्म-दर्शन मानव-कल्याण आधारित ही रहा है। मानव से भी दो कदम आगे बढकर समग्र सृष्टि कल्याण भाव भी रहा है। विधि व उपासना पद्धतियों में जड़त्व आ जाता है और मान्यता संस्थागत रूप लेती है जो विकृति ही है। फिर भी भारत में जनसेवा और मानव सेवा वाली विचारधाराएं अनवरत जन्म लेती रही है यह विचार भारत के लिए नवतर प्रयोग नहीं है।
    स्वपर कल्याण भावना से प्रकृति नियमानुसार संयम भाव ही मनुज का धर्म है। उसे इन लक्षणों से परखा जा सकता है।-
    धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।

    किन्तु ऐसे ही सुख शान्ति कल्याण के विधानों को निर्बोध विद्वान जड़रूप नियमावली में बांधते है तब भिन्न और परस्पर विपरित उपासना-पद्दति\पंथ\सम्प्रदाय\रिलिजन\ मजहब अस्तित्व में आते है। ऐसे मत, सम्प्रदाय, पंथ अन्ततः अपने प्रमुख 'कल्याण भाव' से दूर चले जाते है। उनमें धर्म का कोई लक्षण नहीं होता होता भी है तो मात्र किताबों में या कहने-दर्शाने भर को। पर व्यवहार पूर्णतया धर्म विरूद्ध होता है।

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  19. शुरुआत हर धर्म की ऐसे ही हुयी होगी .. मुझे ऐसा लगता है पर समय के साथ साथ मानव स्वभाव के चलते उसमें खामियां आती गयी होंगी और कट्टरता आती गई होगी ...
    वैसे अगर परिवर्तन आ सके इस नए धर्म के आने से तो इसका स्वागत है ...

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  20. एक नये धर्म-मानव धर्म की पदचापें अब सुनाई देने लगी हैं....

    जो लोग मानव सेवा वास्तव मे करना चाह्ते हैं ,वो तो कर ही रहे हैं |शांत रह कर जो अपना काम करते हैं बस उनके बारे मे लोगों को पता नहीं चलता |मानवता की सेवा से बड़ा कोइ धर्म वास्तव मे नहीं है ...!!The nones के विषय मे अच्छी जानकारी .....
    शुभकामनायें.

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  21. धर्म के विषय में समस्या ही ब्राण्ड नाम की है और ब्राण्ड का अभिमान ही उसे दिखावे और कर्मकाण्ड की ओर ले जाता है। 'द नन्स' भी अन्ततः ब्राण्ड ही है और लोग उसे भी गौरवान्वित महिमामण्डन कर ही लेंगे। अन्यथा सभी उपदेशों में सदाचारण के उपदेश ही तो है।
    लाखों उपदेश और करोडों बोध-कथाएं आखिर मानव से मानव के प्रति सदाचरण के लिए ही तो है। किन्तु अपने एकाध नियम और प्रवर्तक के महिमामण्डन से लोग घमण्ड पूर्वक श्रेष्ठ्ता और ईमान का ढोल बजाने लगते है और उसी से दूर हो जाते है।
    अन्यथा-
    माता-पिता की सेवा,
    गुरूजन का आदर,
    अतिथि सत्कार,
    भूखे को भोजन,
    दान का महत्व,
    साथ-सहायता,
    अहिंसा,
    सत्य,
    अपरिग्रह,
    चरित्र,
    अचौर्य,
    ईमान,
    वफादारी,
    मित्रप्रेम,

    आखिर मानव द्वारा मानव को सुखी सन्तुष्ट बनाने के उपदेश ही तो है

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  22. सभी धर्मों का सार तत्व मानव सेवा ही है .हरियाणा में मानव संघ की शाखाएं बरसों से चुप चाप सेवा रत हैं .लोगों को स्वच्छ जल मुहैया करवाता है यह संघ.यदि हिन्दुस्तान की समस्त मंदिरों का चढ़ावा एक साल का शौचालयों पर खर्च कर दिया जाए तो एक तरफ सब को सम्मान पूर्ण जीने का ज़रिया मिले दूसरी तरफ खुले में शौच से पैदा बीमारियाँ कम हो जाएँ .
    भाई साहब आप हमारी टिपण्णी 'जायका बदल पोस्ट लगाईं है वीरू भाई ने 'काजल कुमार जी के कार्टूनों को सौंप आयें हैं .पेट्रोल की बढती कीमत और सफ़ेद हाथी (कार )दहेज़ पर ..हमारी टिपण्णी हमें लौटाएं .ये ना -इंसाफी है .हमारे पास टिपण्णी के अलावा और है क्या .
    कृपया यहाँ भी पधारें -
    ram ram bhai
    शुक्रवार, 25 मई 2012
    सिजेरियन सेक्शन की सौगात बचपन का मोटापा
    सिजेरियन सेक्शन की सौगात बचपन का मोटापा
    http://veerubhai1947.blogspot.in/

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  23. तमसो मा ज्योतिर्गमय ... समाज सुधरते हैं, धर्म बदलते हैं, मज़हब मिट जाते हैं, कालचक्र चलता रहता है।

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  24. धर्म के आड़ में सभी खुद को घिसट ही तो रहे हैं.पुराने धर्म,पुराने शास्त्र ,पुराने सिद्धांत आदि मनुष्यता को ही खंडित कर दिया है . अपने ही हाथों से अपना नरक निर्मित करवाया है. नये मनुष्य की पदचाप सुनाई दे रही है तो ये शुभ संकेत है..

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  25. धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
    व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
    धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन
    लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  26. धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है भगवान शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म एवं ‘ईश्वर की उपासना द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  27. मानवता से बड़ा तो कोई धर्म नहीं.....

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