मंगलवार, 29 मई 2012

मानविकी और विज्ञान की दूरियां, नजदीकियां-विषय गंभीर है,फुरसत से बांचें!


वैसे तो ब्रितानी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी पी स्नो ने विज्ञान और मानविकी विषयों और प्रकारांतर से वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के फासलों को बहुत पहले ही १९५० के आस पास "दो संस्कृतियों " के नाम से बहस का मुद्दा बनाया था मगर आज भी यह विषय प्रायः बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहता है कि विज्ञान और मानविकी या फिर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के अलगाव के कौन कौन से पहलू हैं? हम क्यों किसी विषय को विज्ञान का तमगा दे देते हैं और किसी और को कला या साहित्य का?

इस विषय पर ई ओ विल्सन जो आज के जाने माने समाज -जैविकीविद हैं ने विस्तार से फिर से प्रकाश डाला है . पहले हम मानविकी का अर्थ बोध कर लें -मानविकी के अधीन प्राचीन और आधुनिक भाषाएँ,भाषा विज्ञान, साहित्य और इतिहास ,न्याय ,दर्शन और पुरातत्व ,संस्कृति , धर्म ,नीति शास्त्र ,आलोचना ,समाज शास्त्र आदि आदि विषय आते हैं . दरअसल मानव परिवेश और उसके वैविध्यपूर्ण अतीत,परम्पराओं, इतिहास और उसके आज के जीवन से जुड़े अनेक पहलू मानविकी के अंतर्गत हैं. मगर यह आश्चर्यजनक है कि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान के अनेक अनुशासनों में लम्बे अरसे से कोई उल्लेखनीय समन्वय नहीं रहा है. इस दूरी को कम करने का तो एक तरीका यह है कि इन दोनों अनुशासनों के प्रस्तुतीकरण के तौर तरीकों -लिखने के तरीके में कुछ साम्य सुझाया जाय. मतलब लिखने की शैली और सृजनात्मक तरीकों में कुछ समानतायें बूझी जायं. यह उतना मुश्किल भी नहीं है जितना प्रथम दृष्टि में लगता है .इन दोनों क्षेत्रों के अन्वेषक मूलतः कल्पनाशील और कहानीकार की प्रतिभा लिये होते हैं.



अपने आरम्भिक अवस्था में विज्ञान और कला/साहित्य /कविता की कार्ययोजना एक सरीखी ही होती है. दोनों में संकल्पनाएँ होती हैं -संशोधन और परिवर्धन होते हैं और अंत में निष्पत्ति या अन्वेषण का अंतिम स्वरुप निखरता है- किसी भी वैज्ञानिक संकल्पना या काव्य कल्पना का अंत क्या होगा,निष्पत्ति क्या होगी शुरू में स्पष्ट नहीं होती.....और निष्पत्ति ही शुरुआत की संकल्पना को मायने देती है ...उपन्यासकार फ्लैनेरी ओ कोनर ने वैज्ञानिकों और साहित्यकारों दोनों से सवाल किया था," ..जब तक मैं यह देख न लूं कि मैंने कहा क्या था मैं कैसे जान सकता हूँ कि मेरे कहने का अर्थ क्या है?"यह बात साहित्यकार और वैज्ञानिक दोनों पर सामान रूप से लागू होती है -दोनों के लिए निष्पत्ति -अंतिम परिणाम/उत्पाद ही मायने रखता है...एक सफल वैज्ञानिक और एक कवि आरम्भ में तो सोचते एक जैसे हैं मगर वैज्ञानिक काम करता एक बुक कीपर जैसा है-वह आकंड़ो को तरतीब से सहेजता जाता है . वह अपने शोध प्रकल्पों/परिणामों के बारे में कुछ ऐसा लिखता है जिससे वह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू) में पास हो जाय .समवयी समीक्षा के साथ ही तकनीकी और आंकड़ो की परिशुद्धता भी विज्ञान के परिणामों के दावों के लिए बेहद जरुरी है .इस मामले में एक वैज्ञानिक की ख्याति ही उसका सर्वस्व है. और यह ख्याति प्रामाणिक दावों पर ही टिकी रह सकती है. यहाँ हुई चूक एक वैज्ञानिक का कैरियर तबाह कर सकती है. धोखाधड़ी तो एक वैज्ञानिक के कैरियर के लिए मौत का वारंट है . 

मानविकी -साहित्य में धोखाधड़ी के ही समतुल्य है साहित्यिक चोरी(प्लैजियारिज्म).मगर यहाँ कल्पनाओं का खुला खेल खेलने में कोई परहेज नहीं है बल्कि फंतासी /फिक्शन साहित्य की तो यह आवश्यकता है. और जब तक साहित्य की स्वैर कल्पनाएँ सौन्दर्यबोध के लिए प्रीतिकर बनी रहती हैं,उनका महत्व बना रहता है. साहित्यिक और वैज्ञानिक लेखन में मूलभूत अंतर उपमाओं के इस्तेमाल का है ...वैज्ञानिक रिपोर्टों में जब तक दी गयी उपमाएं महज आत्मालोचन और विरोधाभासों को अभिव्यक्त करनें तक सीमित रहती हैं,ग्राह्य हैं. जैसे एक वैज्ञानिक यह लिखे तो मान्य है," यदि यह परिणाम साबित हो पाया तो मैं आशा करता हूँ यह अग्रेतर कई भावी फलदायी परिणामों के दरवाजे खोल देगा " मगर यह वाक्य कदापि नहीं-" हम यह विचार रखते हैं कि ये परिणाम जिन्हें हम बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाए हैं अग्रेतर परिणामों के ऐसे झरने होंगें जिनसे निश्चय ही शोध परिणामों के कई और जल स्रोत फूट निकलेगें " यह शैली विज्ञान में मान्य नहीं है . 

विज्ञान में शोध के परिणाम का महत्व है और साहित्य में कल्पनाशीलता,उपमाओं की मौलिकता महत्वपूर्ण है. कव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ साहित्य में रचनाकार के मन से पाठक तक संवेदनाओं/भावनाओं के संचार का जरिया हैं . मगर विज्ञान का यह अभीष्ट नहीं है बल्कि यहाँ उद्येश्य तथ्यों को वस्तुनिष्ठ तरीके से पाठकों तक पहुंचाते हुए उसके सामने अन्वेषण की सत्यता और महत्व को प्रमाणों और तर्क के जरिये प्रस्तुत कर उसे संतुष्ट करना होता है . साहित्य में भावनाओं को साझा करने की जितनी ही प्रबलता होगी भाषा शैली जितनी ही काव्यात्मक /गीतात्मक होती जायेगी. एक साहित्यकार के लिए सूरज का उगना,दोपहर में शीर्ष पर चमकना और सांझ ढले डूब जाना जीवन के आरम्भ, यौवन का आगमन और जीवन की इति का संकेतक हो सकता है यद्यपि वैज्ञानिक जानकारी के मुताबिक़ सूर्य धरती के सापेक्ष  ऐसी कोई गति नहीं करता ...किन्तु साहित्य में पूर्वजों से चले आ रहे ऐसे प्रेक्षण आज भी मान्य हैं.काव्य सत्य हैं! साहित्य में वैज्ञानिक सच्चाई  कि सूर्य स्थिर है, धरती ही उसके इर्द गिर्द घूमती है समाहित होने में अभी काफी वक्त है!

 आज बस यहीं तक .. :) आगे कभी फिर इस विषय पर आपको बोर करेगें :) :) 

24 टिप्‍पणियां:

  1. ...ठीक है फिर फुर्सत से ही बांचेंगे :-)

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  2. मानविकी और विज्ञान का सम्बन्ध हमेशा से समझने में जटिल रहा है,पर इतना तो सही है कि बिना मानवीय हुए विज्ञान अनर्थकारी और व्यर्थ है.इस लिहाज़ से दोनों एक-दूसरे के पूरक हुए न कि प्रतिस्पर्धी !
    मानविकी में भावनाओं और संवेदनाओं की प्रबलता है जबकि विज्ञान तथ्यात्मकता,तर्क और डाटा को आधार बनाता है.इसलिए इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन भी समझ से परे है !

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  3. @ गंभीर विषय है अतः...

    कौन धूप में,जल को लाकर
    सूखे होंठो तृप्त कराये ?
    प्यासे को आचमन कराने
    गंगा, कौन ढूंढ के लाये ?
    नंगे पैरों, गुरु दर्शन को ,आये थे मन में ले प्रीत !
    विशिष्ट क्षात्रों की कक्षा से , दूर भगाए मेरे गीत !

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  4. ऊपर देखिये ...
    चेले आपके स्मार्ट हो गए हैं !

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  5. साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि लेख !
    हालाँकि अपने तो कुछ समझ नहीं आया .
    अब दोबारा जल्दी बोर मत करना . प्लीज ! :)

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  6. साहित्यकार?
    अपनी सम्वेदनाओं
    की अभिव्यक्ति
    करते है संकेतों से,
    बिंब, प्रतीक और
    अभिधा से
    किन्तु कभी भी
    विज्ञान को चुनौति
    नहीं देते।
    लेकिन ये विज्ञान के
    नवपढ़ाकू छबिले
    साहित्य के मुहावरों
    पर भी आपनी
    अक्ल जरूर छाटेंगे
    एक कवि को भी
    विज्ञानबोध
    अवश्य बांटेंगे।
    कोई विरही
    ताकेगा चांद
    तो उसे पागल कह
    चांद की दूरी
    प्रकाशवर्ष में
    बताएंगे!!
    इसप्रकार
    सभी बिंबो को
    तर्क पे चढ़ाएंगे।

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  7. हम तो दोनों के बीच कहीं बसे हुये हैं, थोड़ा विज्ञान थोड़ी मानविकी..

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  8. किसी साहित्यकार के उकसावे पर हम किसी बहस में क्यों शामिल हों जबकि हम स्वयं साहित्य के विद्यार्थी नहीं हैं ! मेरे ख्याल से इस तरह की बहस बेफिजूल है कि साहित्य को जैविकी याकि जैविकी को साहित्य हो जाना चाहिये !

    साहित्य जैविकी और मानविकी के अन्य विषयों के मध्य सब्जेक्ट कंटेंट की श्रेष्ठता और हीनता को लेकर कोई बहस करना समय नष्ट करने की कवायद है !

    अब मुद्दा विज्ञान का ! विज्ञान किसी सब्जेक्ट कंटेंट को समझने / पढ़ पाने / अनालाईज कर पाने का एक दृष्टिकोण है ! अगर इस दृष्टिकोण की शर्तों पे कोई सब्जेक्ट कंटेंट पढ़ा जा सकता हो तो उसे विज्ञान विषय कहने में कोई आपत्ति नहीं है !

    विज्ञान अपने आप में कोई सब्जेक्ट नहीं है ! वो एक दृष्टिकोण मात्र है ! साहित्य के लोगों को अपने सब्जेक्ट कंटेंट को डील करते वक़्त विज्ञान के दृष्टिकोण को अपनानना चाहिये याकि नहीं / अपना सकते हैं याकि नहीं / अपना पाएंगे याकि नहीं , खुद ही तय करना होगा ! किन्तु जैविकी इसमें कहां से घुस गई ? जैविकी नाम के सब्जेक्ट कंटेंट की डीलिंग विज्ञान नाम के दृष्टिकोण से परफेक्ट हो सकती है ! पर साहित्य नाम के सब्जेक्ट कंटेंट से यह अपेक्षा रखना ज़रुरी नहीं है !

    अब मुद्दा मानविकी के दूसरे सब्जेक्ट कंटेंट्स का , मिसाल के तौर पर मनोविज्ञान बनाम खगोल विज्ञान के सब्जेक्ट कंटेंट ! एक खगोल विज्ञानी , विज्ञान के अध्ययन दृष्टिकोण को अपनाते हुए किसी ग्रह से पृथ्वी की सटीक दूरी माप सकता है तो क्या मनोविज्ञान भी विज्ञान की शर्तों का अनुपालन करते हुए दो व्यक्तियों के मध्य प्रेम की सटीक माप कर सकता है ? निकटता / दूरी /वजन कुछ भी ?

    कहने का आशय ये है कि मानविकी के ज्यादातर सब्जेक्ट कंटेंट विज्ञान के अध्ययन दृष्टिकोण को अपना पाने में विफल रहे हैं क्योंकि उनके सब्जेक्ट कंटेंट विज्ञान की शर्तों के एकदम / पूरी तरह से अनुकूल नहीं है ! इसलिए जैविकी जैसे विषयों से उनकी दूरी बनी हुई है ! जिस दिन वे अपनी इस सामर्थ्य ( विज्ञान सम्मत अध्ययन की सामर्थ्य ) को पा लेंगे ये दूरी स्वयमेव समाप्त हो जायेगी !

    अब सवाल ये है कि किसी जीव की देह रचना और उस जीव के मनोसंसार में कोई अंतर है भी कि नहीं ? क्या देह रचना के अध्ययन की तरह से मनोसंसार के अध्ययन संभव हैं ? क्या संभव हो पायेंगे ?

    जबाब शायद हां में भी हो पर इसमें एक लंबा वक्त लगने वाला है !

    तब तक अपने 'मेढक' को मेरे 'प्रेम' के साथ एक ही तराजू में मत तौलिए :)

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  9. विज्ञान अगर पहली सीढ़ी है तो साहित्य छत वाया खुला आसमान . हाँ ! परिकल्पना से निष्पत्ति की यात्रा में अद्भुत साम्य अवश्य है . पर दोनों में एक अंतर है ..पहला स्थूल है और दूसरा अति सूक्ष्म..काफी हद तक सहमती ..

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  10. अली सैयद: केवल जैविकी पर इतना समय काहें जाया किये ?
    विषय वही कला और विज्ञान के फासले का है .
    आपके बाकी बातें विचारणीय है !
    सुज्ञ:बहुत मनोरम -शुक्रिया
    अमृता: खुशी है विषय को आपने सही पकड़ा और समझा है !

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  11. अरविन्द जी ,
    जैविकी को लेकर बात कुछ खास नहीं :)
    आलेख में ई.ओ.विल्सन का हवाला नहीं होता तो किसी और विषय पे समय ज़ाया करते :)

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  12. मैं तो 'स्‍टार ट्रेक्‍क' लेखन को आज तक के सर्वोत्‍तम वैज्ञानि‍की लेखन का उदाहरण मानता हूँ.

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  13. @काजल कुमार,
    हाँ प्रस्तुतिकरण में कुछ साहित्यिकता से स्टार ट्रेक जैसे प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं -
    मजे हुए लोकप्रिय विज्ञान लेखक भी यही करते हैं !

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  14. vishay chahe koi bhi ho sabhi vishyo mein samantaye to hoti hi hai aur asamanta bhi ...alag alag kisi ka bhi astitva nahin hai ...surya chahe sthir mana jaye chahe gatiman ...vigyan aur sahitya dono me suraj prakash, urja aur roshni se hi juda hoga..alag nhi...vicharneey lekh...

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  15. विज्ञान में कल्पनाएँ आविष्कारों की जननी है , निश्चित सूत्र में परिणाम भी निश्चित ही होंगे जो भविष्य में साकार होने वाली कल्पनाओं के लिए ठोस नियम बनेंगे , जबकि साहित्य में कल्पनाएँ असीमित हैं , चाँद किसी को चरखा काटती बुढिया लगे , तो किसी को प्रेमिका का चेहरा , किसी को मामा ! जबकि विज्ञान में सभी के लिए एक ही नियम है ...चाँद एक उपग्रह है !!
    विषय रोचक है , टिप्पणी लिखने के लिहाज़ से मुश्किल !

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  16. ..जब तक मैं यह देख न लूं कि मैंने कहा क्या था मैं कैसे जान सकता हूँ कि मेरे कहने का अर्थ क्या है?"यह बात साहित्यकार और वैज्ञानिक दोनों पर सामान रूप से लागू होती है -दोनों के लिए निष्पत्ति -अंतिम परिणाम/उत्पाद ही मायने रखता है...एक सफल वैज्ञानिक और एक कवि आरम्भ में तो सोचते एक जैसे हैं मगर वैज्ञानिक काम करता एक बुक कीपर जैसा है-वह आकंड़ो को तरतीब से सहेजता जाता है . वह अपने शोध प्रकल्पों/परिणामों के बारे में कुछ ऐसा लिखता है जिससे वह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू) में पास हो जाय .समवयी समीक्षा के साथ ही तकनीकी और आंकड़ो की परिशुद्धता भी विज्ञान के परिणामों के दावों के लिए बेहद जरुरी है .इस मामले में एक वैज्ञानिक की ख्याति ही उसका सर्वस्व है. और यह ख्याति प्रामाणिक दावों पर ही टिकी रह सकती है. यहाँ हुई चूक एक वैज्ञानिक का कैरियर तबाह कर सकती है. धोखाधड़ी तो एक वैज्ञानिक के कैरियर के लिए मौत का वारंट है .

    साहित्य कार को अभी यह समझ लेना बाकी है प्रेयसी का चेहरा चाँद की तरह ऊबड़ खाबड़ नहीं होता और न ही वहां निरंतर उल्का पात होता है .अलबता नजरों से स्केनिंग ज़रूर होती है उस रूप गर्विता की .

    अलबत्ता हमारा ऐसा मानना है समस्त ज्ञान ही विज्ञान है .वर्गीकरण विस्तृत अध्ययन की सुविधा के मद्दे नजर ही किया गया है .
    कुछ अरसा पहले विश्विद्यालयों में ज्योतिष विज्ञान का अध्ययन क्यों विषय पर काफी नोंक झोंक हुई थी .हमारी भी शिरकत थी वहां .खुशवंत जी ने यह कह कर इस अध्ययन का विरोध किया कि ज्योतिष कोई विज्ञान नहीं है .साथ ही हमारे तर्कों को सुनके जड़ दिया -
    'sorry Mr.sharma ,what quackery is to medicine so is astrology to astronomy '

    हमने कहा था -

    'Astrology is the predictional part of astronomy .A uniform methodology should be developed to make predictions .Some astrologers are carrying calculations based on nine planets ,others 8and 12 .In Indian system moon and sun are lined together on temple walls in a circle etc.So a common code should be evolved but you can not discard the study of astrology in university systems .

    Even astronmy is an observational science.But Khushvant singhji was un -yielding.

    हमने साथ ही यह भी कहा था क्या अध्ययन सिर्फ विज्ञानों का होना चाहिए .साहित्य को कूड़े दान के हवाले कर दिया जाए .जबकि दोनों ही विधाएं हैं अभिव्यक्ति की .हिंदी चिठ्ठाकारी विज्ञान साहित्य रच रही है .दोनों की यारी करवा रही है .

    बढ़िया आलेख डॉ अरविन्द मिश्र का उनकी भारी भरकम (बौद्धिक रूप से )कद काठी के अनुरूप .
    कृपया यहाँ भी पधारें -

    ram ram bhai

    बुधवार, 30 मई 2012
    HIV-AIDS का इलाज़ नहीं शादी कर लो कमसिन से

    http://veerubhai1947.blogspot.in/

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/

    कब खिलेंगे फूल कैसे जान लेते हैं पादप ?

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  17. वाणी:सुचिंतित टिप्पणी!साहित्य और विज्ञान की कोई तो समंजन रेखा हो
    वीरू भाई : भरी भरकम के श्लेष को समझ रहा हूँ मगर लाचारी है !

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  18. अरविन्द जी,
    साहित्य और विज्ञान का समन्वय कैसे सम्भव है?
    दोनो के परस्पर विपरित गुण-धर्म है।
    'वो डोलत रस आपने और उनके फाटत अंग॥' :)
    साहित्य जड़ नहीं बन सकता और विज्ञान अनुशासनहीन नहीं बन सकता।

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  19. दोनों की भूमिका विस्मय में है...दोनों की साधना भी अंतर्मुखी व्यक्तित्वों द्वारा ही सम्भव हो पाती है ..बहुत बार तो कवि की कल्पना, कल्पना ही क्यों.. स्वप्न भी, विज्ञान की खोज का आधार बनते हैं ...अंतर केवल इतना है कि कवि यदि सच्चा है तो वह अंतर्जगत के रहस्यों को उदघाटित करता है और वैज्ञानिक बाह्यजगत के ! सच तो यह है कि जहाँ कविता और विज्ञान का संगम होता है, वहाँ अध्यात्म फलित होता है...मेरे देखने में तो आइंस्टीन के या स्टीफन हकिंज के वक्तव्य उतने ही आध्यात्मिक हैं, जितने की कृष्ण के या बुद्ध के या पतंजलि के या शिव के ! हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सृष्टि का आधारभूत तत्व ज्ञान है जो इन्द्रिय-गोचर नहीं है लेकिन हर चीज़ छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी ..सिर्फ और सिर्फ उसी की गवाही देती है !

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  20. विषय कोई भी हो, सबका लक्ष्‍य मानव जीवन को बेहतर बनाना ही होना चाहिए ...

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  21. मानविकी और विज्ञान के बीच कहाँ-कहाँ नजदीकियाँ हैं इसकी पड़ताल की जा सकती हैं लेकिन दूरियाँ तो हमेशा रहेंगी। दिल से लिखने वालों और दिमाग से तार्किक पक्ष ही रखने वालों के विचारों को पढ़कर हमारा बच्चों की तहर नई अनुभूति पर उत्तेजित होना भी स्वाभाविक है।

    मानविकी समाज को नई दृष्टि दे सकती है विज्ञान मानविकी को नया आकाश, नई धरती उपलब्ध करा सकता है। दोनो में भेद नहीं, दोनो के सामंजस्य के कारण होने वाले मानव कल्याण पर चर्चा किया जाना अधिक सार्थक होगा।

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  22. सुनिए सर , ई जो आप समझ रहे हैं कि ई पोस्ट को पढने के बाद समझ के हम कुछ उदगार व्यक्त करें तो कतई गल्त है जी जे तो ,। हमें तो इत्ता गूढ विषय आप हिमालय पर टुईसन देके भी पढाने का पिरयास करें तो कसम से हम सायकिल ले के ही सही भाग निकलेंगे हिमालय से ।

    आचार्य अगली बार ही टीपेंगे कुछ विशेष , ई वाला के लिए तो बस भईया जी ईश्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्माईल ही धर जा रहे हैं

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