गाँव और कस्बों में तो सुबह शाम यह सुमुधुर गायन सहज ही सुना जा सकता है ,हाँ घने कंक्रीट के जंगल इससे रहित हैं ....बात दहगल पक्षी के गायन की है - इन दिनों अल्लसुबह यह ऐसे तराने छेड़ती मिलेगी कि मन मुग्ध हो जाता है -सूरज निकलने के एक डेढ़ घंटे पहले से ही यह तराने छेड़ देती है और सूर्यास्त के बाद भी अपनी रागिनी छेड़ती है मानों सूर्यदेव की आगवानी और विदाई को विकल हो ....
छोटी सी करीब २० सेंटीमीटर की है यह चिड़िया ....इसे हिन्दी में दोयल या दहगल और अंगरेजी में मैगपाई कहते हैं..आपमें बहुतों ने देखा होगा ,मगर हो सकता है इसका मधुर गायन न सुना हो ....सुबह सूरज उगने के पहले उठिए और इसकी 'प्राणेर रागिनी ' का आनंद उठाईये ..यह इनका प्रणय काल है ....निश्चय ही नर पक्षी अपने गाने के हुनर से मादा को आकर्षित करता है और यह भी जता देता है कि उसका अधिकार क्षेत्र(टेरीटरी ) कहाँ तक है ताकि भूले भटके भी और नर वहां न आ धमकें और उसकी इकलौती प्रेमिका पर डोरे डाल सकें !
यह है नन्हीं दहगल (विकीपीडिया )
इसके गायन में बकायादा आरोह है और एक तराने के खंत्म होने के चंद पलों के बाद ही दूसरा आलाप शुरू हो जाता है ...चिड़ियों के हाव भाव व्यवहार या गायन के मानवीय मंतव्य निकालने को जैव विज्ञानी "अन्थ्रोपोमार्फिज्म "की संज्ञा देते हैं जिसका मतलब है मनुष्य खुद अपनी भावनाओं का आरोपण इनके गाने बोली और व्यवहार में करता है जो वैज्ञानिकता के लिहाज से सही नहीं है -कोयल की कूक भले ही विरहिणी के ह्रदय की हूक बन जाती हो मगर यह कहना कि कोयल भी विरह वेदना से संतप्त है -अन्थ्रोपोमार्फिज्म है ....व्यवहार विज्ञानी ऐसे भावनिष्ठ निष्कर्षों से बचते हैं ....इस समय कोयल की कूक अपनी आख़िरी दम ले रही है -दहगल का गायन अपने चरम पर है .....मगर जल्दी ही वह समय आने वाला है जिसके लिए कवि कह गया है -अब तो दादुर बोलिहैं भये कोकिला मौन ..मतलब बरसात आ जायेगी ..या यूं कहिये कि हमेशा शहनाई ही नहीं मुखर होती ,नगारखाने में औरों(वाद्य यंत्रों ) की भी तूतियां बोलने लगती हैं :) .....तब रहिमन चुप हो बैठिये ....देख दिनन का फेर ...
यह पिजड़े की भी शोभा है!
..तो दहगल का गायन सुन कर बताईयेगा कि कैसा लगा ?
बिलकुल नयी जानकारी दी है आपने ..
जवाब देंहटाएंआभार !
हम (छत्तीसगढि़या) दो चिडि़या जानते हैं- बकसुई और कारीसुई(यह कलचुरि भी कही जाती है, जो एक प्रसिदध राजवंश का नाम है.), बाद में जाना कि ये दोनों ही क्रमशः मैगपाई और इंडियन रॉबिन हैं. इस संदर्भ में मुझे दो बातें याद आ रही हैं- पहली, नील आता था रॉबिन ब्ल्यू, तो हम समझते थे कि यह चिडि़या नीली होती होगी, जैसे दूसरी ब्ल्यू जे या नीलकंठ और देखा कि न तो रॉबिन, नीली होती न ही नीलकंठ का कंठ नीला होता.
जवाब देंहटाएंइस चिड़िया की आवाज़ कई बार सुन चुका हूँ, यहां तक कि एक सुबह गाँव में छत पर सोकर उठा ही था कि इसकी आवाज सुनाई पड़ी और उसे मोबाइल में रिकार्ड कर लिया मोबाइल में। बाद में कहीं मोबाइल खराब हुआ कि क्या पता नहीं, किंतु वह आवाज न मिल सकी।
जवाब देंहटाएंआज फिर उसी आवाज को सुन दिल खुश हो गया। बहुत बहुत शुक्रिया इस 'नॉस्टॉल्जिक ख़ुराक' हेतु ।
जानकारी देती सुंदर पोस्ट.... गाँव में इस चिड़िया की आवाज़ पहले भी सुनी है..... आज फिर सुनी बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह ! आनन्द आ गया.
जवाब देंहटाएंसुन्दर जानकारी,अति रोचक लगी.
मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार है.'सरयू' स्नान का न्यौता है. यह पोस्ट आपकी सुन्दर प्रेरणा सी ही प्रस्तुत की है मैंने.
सुबह सवेरे रोज ही फूलों की बेल पर लटकती गुनगुनाती दिख जाती है ...
जवाब देंहटाएंअच्छभ् जानकारी ..
जवाब देंहटाएंबढिया गायन !!
धन्यवाद ..
कैसा लगा?: बहुत अच्छा.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी आवाज़ है । और पक्षी भी बहुत सुन्दर है । लेकिन इसे आपने पिजरे में कैद कर परतंत्र बना दिया है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.. पहली बार ऐसा लेख सामने आया हैं।
जवाब देंहटाएंगाना तो सुना हुआ सा लग रहा है..
जवाब देंहटाएंगिरिजेश ने कहा -
जवाब देंहटाएंरोज कोयल का गायन सुन रहा हूँ। कल परसो मोबाइल से ऑडियो/वीडियो रिकार्ड किया। यह जानकारी मेरे लिये नई है। आभार।
वाह जी वाह ! आनन्द आ गया.
जवाब देंहटाएंसुन्दर जानकारी,अति रोचक लगी.
सुर लहरें तब ग्रीष्मगान में।
जवाब देंहटाएंइसका गाना आसमान में।
चलो, पता चला ये मैगपाई है। मेरे बगल में रामबगिया में रहती है। गाती बढ़िया है। पर गरीब है - मेरे ख्याल से रमबगिया वाले को किराया नहीं देती रहने का!
जवाब देंहटाएंइस पक्षी को बहुत बार देखा है पर इसका नाम नहीं जनता था और इसका इस प्रकार मधुर स्वर में चहचहाना कभी भी नोटिस नहीं किया था. ठीक इसके आकार और प्रकार का एक दूसरा पक्षी जो चोकलेटी रंग का होता है बिलकुल इसी अदा से अपनी पूंछ के पंख फैलाते हुए सूर्यास्त के बाद और सूर्यास्त से पहले यूँ ही सुन्दर स्वर में गाता मैंने अपने घर के आस पास बहुत बार देखा है. हो सकता है वो इसकी ही कोई दूसरी नस्ल हो. कई बार मैंने उसकी तस्वीर लेनी चाही है पर अभी तक सफल नहीं हो पाया हूँ.
जवाब देंहटाएंहाँ जी, मैं रोज सुनता हूँ... यहाँ इसे दहगौल कहते हैं ।
जवाब देंहटाएंमेरे बाग में रोज इनकी मीटिंग होती है, पक्षियों के लिये रखे पानी की नाँद से एक मैग-पाई पानी पीकर दूसरी को यूँ बुलाती है... कि क्या कहने ।
मगर एक दो बोलें तो सुमधुर लगता है, जब कई एक साथ बोलते लग जाती हैं.. तो लगता है जैसे मीडिया वाले बढ़ती मँहगाई पर चीख-पुकार मचाये हुये हों !
कभी सुन नहीं पायी.एकदम नई और सुन्दर जानकारी के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंमिठास भर गयी!!
जवाब देंहटाएंसूरज उगने से पहले ही उठाना होता है...कुछ ऐसे संयोग हैं कि आस-पास बहुत हरियाली है...कोयल की कूक तो हमेशा ही सुनायी देती है...कुछ चिड़ियों की चहचाहट भी ...इस आवाज़ को पहचनाने की कोशिश की जाएगी.
जवाब देंहटाएंयहाँ तो सुनकर बहुत अच्छा लगा.
यह विडियो वाली चिड़िया तो जैसे बातें करती लगी..बहुत ही मधुर ..
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हमें यहाँ भी हर सुबह बहुत ही मधुर कलरव सुनायी देता है ..
बेचारी तडफ़ रही हे पिंजरे से बाहर निकलने के लिये ओर अपने साथी से मिलने के लिये. मेरे घर के चारो ओर हरियाली ही हरियाली हे, सुबह चार बजे से शाम तक ऎसी आवाजे खुब सुनाई देती हे, गर्मियो मे तो संगीत का मजा आता हे, कई बार आवाज भरने की कोशिश की लेकिन पता नही यह पक्षी शर्मा जाते हे शायद, बहुत सुंदर लगा धन्य्वाद
जवाब देंहटाएंविडिओ आज देख पाया ! सुबह सुबह यह गान दिल खुश कर गया ...अब दिल्ली में यह मधुर गान कहाँ सुने ? आपका आभार !
जवाब देंहटाएंबड़ी प्यारी पोस्ट लिखी आपने... वाह! आनंद आ गया।
जवाब देंहटाएंइस पंछी का गायन तो खूब सुना है लेकिन इतने विस्तार से नहीं जानता था।
देर से उठा, मार्निंग वॉक में नहीं गया तो अलग बात है वरना सारनाथ में भांति-भांति के पंछी नित्य चहकते रहते हैं। सभी दहगल की तरह सुरीले नहीं हैं। कुछ तो इतने कर्कश हैं कि क्या कहूं.. इनके नाम-गुण के बारे में कुछ नहीं जानता सिर्फ आनंद लेता रहता हूँ।
वीडियो से इसकी आवाज को पहचानने में और भी सुविधा हुई. शायद प्रत्त्युत्तर भी मिल रहा है इसे आस-पास से.
जवाब देंहटाएंजानकारी रोचक लगी।
जवाब देंहटाएंमहानगरों की बहुमंजिली इमारतों में इनके स्वर कहां सुनाई पड़ते! यहां तो रोज़ सुबह कौवा काएं-काएं कर हमें जगाता है। गांव जाऊंगा तो सुनूंगा इनके स्वर ..!
नन्ही दहगल पिंजड़े की शोभा चाहे हो लेकिन पिंजड़ा उसकी शोभा नहीं हो सकता...शायद पिंजड़े से मुक्त होने की छटपटाहट का गीत हो...
जवाब देंहटाएंशहरों में तो ‘ट्वीटर’ है ना :)
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'दहगल' दी गल्ल वड्डी सोनी लगी असां नूं...
आभार!
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मैंने भी सुना है यह सुमधुर संगीत.आपने बड़े ही रोचक प्रस्तुति दी है .आभार
जवाब देंहटाएंभाई साहब आप हमें बताइये क्या नर कोयल (कोयला )गाता है .मादा की मनुहार में .कोयल शाका हारी है लेकिन कौवी के घोंसले में अंडा जनने के बाद यह उसका अंडा अपनी चौंच में लेके उड़ जाती है इस दरमियान नर कोयला कौवे को अपने साथ लड़ाई में उलझाए रहता है .यही कौवी का अंडा कोयल का पहला उत्तर प्रसव आहार होता है .यूं कोयल एक शाकाहारी प्राणी है .
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है आपका .सुबह का यूं अपना संगीत होता है लेकिन पक्षियों का कलरव ,मेटिंगकाल्स उसे नए आयाम आरोह और अवरोह देती है .
हाँ गाता तो नर कोयल ही है -नीड़ परिजीविता की बात सच है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, नन्हीं दहगल का मीठा स्वर सुनकर आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंआपका पिछला पोस्ट और दह्गल का प्रणय-निवेदन मादा से ...दोनों अच्छा लगा ..
जवाब देंहटाएंकल भाई साहब वह वीडियो लिंक खुला नहीं था आज सुनी है :दहगल "की आवाज़ .
जवाब देंहटाएंआवाज तो सुन रखी है पर विस्तार से इसके बारे में आपसे जान पाया ..
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी,मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार है.
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