रविवार, 10 जनवरी 2010

सुर असुर का झमेला ,हल्की होती जेब -ब्लागिंग जो भी न कराये ....

कडाके की ठण्ड पड़ रही है इधर इस  पूर्वांचल में भी .....देवताओं के लिए घर में ही आधुनिक सुरा -ब्रांड, ब्रांडी को कंठस्थ करने के वाजिब बहाने का मौसम है यह ...सुर असुर की पिछली पोस्ट पर अनुराग जी ने हड़का लिया कि कुछ पढ़ वढ   कर लिखा करिए -बात लग गयी ....घरेलू  बजट के लिए  'ईयरमार्क' रूपयों में से घरनी को बिना बताये चुपके से १ हजार निकाल कर (आगे देखा जायेगा... ) कल पहुँच ही तो गया बनारस की चौक स्थित इंडोलोजी पर मशहूर किताबों की मोतीलाल बनारसीदास की दूकान पर -तीन किताबें खरीद ही तो ली  ! आर्थर एंटोनी मैकडोनेल की   'अ वैदिक रीडर फार स्टुडेंट्स '(आक्सफोर्ड प्रकाशन ) ,डॉ राजबली पाण्डेय की हिन्दू धर्मकोश  (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ) और  डॉ उषा पुरी विद्यावाचस्पति की भारतीय मिथक कोश. (नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली )

....और इस सप्ताहांत के एकांतवास  में जुट गया इन किताबों का अवगाहन करने -खासकर सुर असुर की उत्पत्ति  और उनके सुरापान आदि प्रसंगों के प्रामाणिक संदर्भ खोजने ,और जितना पढता गया मामला सुलझने के बजाय  उलझता ही गया है. ईरानियों/पारसियों  के धर्मग्रन्थ अवेस्ता और भारतीय ऋग्वेद में बहुत समानता है जिसके आधार पर मैकडोनेल भारत में आये आर्यों का  उदगम  इरान को मानते है -अपनी उक्त पुस्तक में उन्होंने बहुत सी रोचक बातों का इशारा किया है -उन्होंने राक्षसों के बारे में लिखा है कि उनकी दो कोटियाँ वर्णित हुई हैं -एक देवलोक (आकाशीय ) देवताओं की दुश्मन है तो दूसरी धरती वासियों मतलब मनुष्य की .देवताओं के दुश्मनों को  असुर भी कहा  गया है . अवेस्ता में ये असुर जो अहुर (स  को ह का संबोधन !) कहे गए हैं अलौकिक प्राणी ( डिवायिन बीइंग ) हैं -स्पष्ट है धरती का न होने के कारण ही ये अलौकिक है .जब हम दैव प्रकोप कहते हैं तो शायद इशारा इन असुरों की ओर भी होता हो .अब जो निचली श्रेणी के असुर हैं उनमें राक्षस ,यातुधान (जातुधान ) और सबसे क्रूरकर्मी  पिशाच रहे हैं जो नरमांस खाने वाले हैं -रामयुग के राक्षसों में ऋषि मुनियों के मांस भक्षी यही राक्षस थे जिनका समूल नाश श्री राम ने किया ,ज्ञात हो राम आर्य वंश के प्रतिनिधि हैं .   एक लम्बे चले युद्ध में कही भारत भूमि के मूल निवासियों जिन्हें अनार्य ,दस्यु ,दास तक कहा गया है और जो काले थे   (आश्चर्य है राम भी सावले हैं ) के  समूल नाश का उपक्रम तो   नहीं  किया गया था ? .ये तथ्य जितना तो समाधान नहीं देते उससे कहीं अधिक प्रश्न उठा देते हैं ..बहरहाल यह चर्चा फिर कभी ....
.
बात सुरापान की चल रही थी .इस पर डॉ. राजबली पाण्डेय ने भी रामायण से ही एक श्लोक का उद्धरण दिया  है -
सुराप्रति ग्रहाद देवाः सुरा इत्यभि विश्रुताः 
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा  स्मृताः
अर्थात सुरा =मादक  तत्वों का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये ,किन्तु ऐसा न  करने से दैतेय  लोग असुर कहलाये .
यहाँ भी देखिये -
असुरास्तेन दैतेयाः सुरास्तेनादिते : सुताः
हृष्टाः प्रमुदिताश्चासन वारूणीग्रहणात सुराः

सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य " असुर " कहलाये
और सुरा सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों को सुर संज्ञा मिली
वारूणी (सुरा की देवी ) को ग्रहण करने से देवता हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमय  हो गए
बालकाण्ड पञ्चचत्वारिन्शः  ...सर्गः ,श्लोक ३८ ,
गीता प्रेस
देवों के शत्रु होने के कारण असुरों को दुष्ट दैत्य कहा गया मगर सामान्यतः वे दुष्ट नहीं थे .वे विद्याधरों की कोटि में भी आते थे   -परम विद्वान् शुक्राचार्य उनके गुरु थे  जो विद्वता में देवताओं के गुरु बृहस्पति से किसी भी तरह कमतर नहीं थे. भगवान् कृष्ण ने गीता में खुद को कविनाम उसना कविः कहा है -यानि कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ ,बृहस्पति नहीं! हाँ असुर रहस्यमयी पेय सोम जो केवल धार्मिक अनुष्ठानों में पिया जाता था और सुरा जो अन्न के किण्वन से बनती  थी का सेवन नहीं करते थे.कुछ और भले पीते रहे हों .ये पेय केवल सुर यानि देवताओं  के लिए ही संरक्षित था . इंद्र तो सोमपान करके इतने ओजस्वी हो जाते थे कि भयानक दैत्यों का संहार कर डालते थे.सबसे भयंकर वृत्रासुर का संहार उन्होंने सोमपान करके ही किया था .मगर आश्चर्य है कि इंद्र  अवेस्ता में देव /दैत्य /दानव (demon) रूप में वर्णित  है -हमारे यहाँ देवताओं का राजा होकर भी इंद्र को नीच कर्मों में लिप्त दिखलाया  गया है -रामचरित मानस में राम के मुंह से इंद्र को कुत्ता तक कहा गया  है .कृष्ण से तो इनकी तकरार ही हुई है  .जाहिर है राम और कृष्ण के धुर विरोधी भी हैं इंद्र . कहीं हमारे ग्रंथों में इंद्र के इस दानवी स्वरुप की प्रच्छाया अवेस्ता से तो नहीं आई है ? अवेस्ता में वर्णित दैत्यतुल्य इंद्र कैसे परवर्ती देश काल ,भारत भूमि में देवताओं के राजा बन बैठे यह एक पहेली से कम नहीं है जिसमें मनुष्य के इतिहास पुराण की कोई लुप्त कड़ी आज भी उत्खनन की बाट जोह रही है .....

कहाँ सोमपान और कहाँ अब की ये सुराएँ? कौन लगाएगा हाथ इन्हें ? ?


पोस्ट लम्बी हो चुकी है ,बाकी चर्चा फिर कभी ........

32 टिप्‍पणियां:

  1. अभी और अध्ययन की आवश्यकता है।
    मना करने पर भी ;)[झूठे !] ओखली में सिर दिए तो प्रश्नों के मूसल गिरेंगे ही।
    अब मुझे भी कुछ पढ़ना पड़ेगा।
    कुछ लोग दु:खी भी होंगे। इस आदमी को ऐसे विषय मिल कैसे जाते हैं !
    नहीं,
    इस आदमी को वो विषय क्यों नहीं लुभाते जो बाकियों को लुभाते हैं?
    नहीं, यह पुरातनप्ंथी है।
    नहीं, यह प्रगतिशीलता नहीं है।......वग़ैरह

    बेबिलोन और भारत भू के रहस्यमय सम्बन्धो पर जाँच पड़ताल आवश्यक है। मुझे तो कभी कभी लगता है कि हमारे कुछ तीर्थ दुबारा रचे गए है। वास्तव में वे भारत की वर्तमान सीमा से बाहर थे।
    वह मिथक याद कीजिए - जब सभी तीर्थ गुम हो गए तब विक्रमादित्य ने एक कुँवारी गाय को छोड़ दिया। जहाँ जहाँ उसके थन से दूध श्रवित हुआ उन स्थानों की पुराने स्मृतियों के आधार पर समीक्षा की गई और निर्धारण हुआ।
    हाँ, वाराणसी का स्थान मूलत: वही रहा है जो आज है।
    बौद्ध ग्रंथों और पुराणों की संगति कई जगहों पर महाकाव्यों से नहीं बैठती।
    ...गिरिजेश! तुम इंजीनियरिंग लाइन में क्यों गए ?
    नींद आ रही है। शुभ रात्रि।
    बहुत ठंड है सो जाइए। पुस्तकों पर किया गया व्यय हमेशा सार्थक होता है। कोई पछतावा मत रखिए। हाँ, उन शीशियों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता।

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  2. काफी गहन अध्ययन कर लिखी गई पोस्ट है। बढिया जानकारी ।

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  3. सुर-असुर की चर्चा जारी रखते हुए आपने प्राचीन ऐतिहासिक बातों का बढ़िया प्रदर्शन किया..बहुत सी नई नई बातें जानने को मिली...धन्यवाद अरविंद जी

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  4. अरे डॉक्टर साहब,
    इस पोस्ट को पढ़ने के बाद विजय माल्या आपके चरण छूने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं...सुरा पीने वाले सुर यानि देवता और न पीने वाले असुर यानि दैत्य...न भई न, हमें दैत्य नहीं बनना...

    जय हिंद...

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  5. इंद्र अवेस्ता में राक्षस रूप में वर्णित है...
    अगर इन किताबों में ऐसा लिखा है तो मान लीजिये कि आपके पैसे बेकार चले गए. इंद्र को राक्षस किसी भी सन्दर्भ में नहीं कहा जा सकता है क्योंकि राक्षस एक राष्ट्रवादी शब्द है जो रावण ने अपने राष्ट्र के लिए रखा था. इसका शाब्दिक अर्थ कुछ यूं निकलेगा = जो अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है. यह शब्द सुर, असुर या दैत्य आदि का समानार्थी नहीं है.
    बात बहुत लम्बी है, एक टिप्पणी में नहीं आयेगी.

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  6. आप सुर व असुर के सुरा पान करने या न करने के चक्कर मे कहाँ अपनी गाँठ ढीली करवा रहे है मित्र सुरा को छोड कर किसी सुरबाला पर शोधकार्य कीजिये "शीतकाल मे सुरबालाओ का महत्व " वैसे भी शास्त्रों मे शीत कालीन उपभोज्य पदार्थो मे तप्त भोजन के साथ साथ तरुणी का भी उल्लेख कर डाला ही है सो शीत कालीन शोध मे ये शाही पान के बारे मे झूठ मूठ मे माथापच्ची कर मेधा को कष्ट दे रहे है चाहे सुर पीते हो या असुर हमे सुरा का ब्रान्ड अम्बेस्डर थोडे बनना है
    वैसे बडी क्लासिक पुस्तके खरीद लाये है आशा है अधय्यन से आपकी लेखनी और यशःकामी हो शुभकामनाएँ
    पुनश्च ( सुरबालाओ पर शोध के रहस्य गुप्त ही रखियेगा ब्लाग पर जिक्र ना किजियेगा अन्यथा वितण्डा जायेगा )

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  7. सुर , असुर और सुरा को दूर से प्रणाम ....
    आपका शोध पूरा हो जाएगा तो पढ़ जरुर लेंगे ...!!

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  8. अच्छा और गूढ़ विवेचन ,देवासुर संग्राम ने भी कई सवालों को जन्म दिया ?

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  9. इयर मार्क रुपयों की चोरी के मामले में विचार किया गया ! प्रथम दृष्टया यह अपराध पारिवारिक अमानत में ख्यानत का मामला है ! उचित होता यदि आप इसे प्रबंधक से ऋण बतौर प्राप्त करते! अब चूँकि यह 'कृत्य'आप अकेले का नहीं है इसलिए प्रबंधक को चाहिए कि वह आपको इस कृत्य के लिए प्रेरित करने वाले ज़ाकिर अली रजनीश और अनुराग शर्मा को भी सहअभियुक्त मानकर विधिक कार्यवाही करें !

    अब मुद्दा आलेख और आपके कन्फ्यूजन का :
    तो भाई हमारी अदना सी गुजारिश है कि मिथकों
    के साथ मिथकों जैसा व्यवहार किया जाये उन पर किसी वैज्ञानिक की तरह से टूट पड़ने की आवश्यकता संभवतः नहीं ही है ! आपकी निराशा स्वाभाविक है !

    हमने कुछ गलत लिख डाला हो तो बुरा मत मानियेगा हिच्च ....फोटो आपने लगाई हैं...हिच्च...इसमें हमारी कोई गलती नहीं है! उस दिन रजनीश नें भी ...हिच्च !

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  10. __________________________________
    सर ,आप कितना भावपूर्ण और हिन्दी के नव शब्दों के साथ लिखतें हैं कई आपकी पोस्ट को कई बार पढना पड़ता है.
    काफी गवेषणा की बाद आपनें उत्कृष्ट पोस्ट लिखी है इसके लिए आपको बहुत बधाई,लेकिन मेरे समझ में एक बात नहीं आयी कि जहाँ तक मेरी जानकारी है आपके पूरे परिवार में इस सुरा से तो कोई दूर-दूर तक रिश्ता नहीं फिर इस विषय पर यह लेखन क्यों ?कहीं बच्चन जी की तरहकि -स्वयं नहीं जाता औरों को पहुचा देता मधुशाला------------------------
    ______________________________________________________________________

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  11. @अनुराग जी ,राक्षस को दैत्य /दानव् संशोधित किया है .
    @ तनु श्री ,
    विवेच्य सुर असुर है ,suraa naheen ,aaur aapkee jaankaree saheee है

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  12. गिरजेश जी से सहमत. इस लाइन पर विचार कीजिये, ''है उपासक! दूर देश में समुद्र तट पर जो दारू काबन है, वह किसी मनुष्‍य से निर्मित नहीं है इसमें आराधना करके उनकी कृपा से बैकुण्‍ठ को प्राप्‍त हो'' -- (ऋः 10-155-3)

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  13. अति ज्ञान वर्धिनी पोस्ट है. आभार.

    रामराम.

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  14. किसी की आशंका के बहाने जानकारीपरक एक और पोस्ट पढने को मिली। लेकिन इसके लए इतने रूपये खर्च करने की क्या जरूरत थी? यह जानकारी तो किसी लाइब्रेरी की शरण में जाकर भी प्राप्त हो सकती थी। वैसे अली साहब की बात से कैसे असहमत हुआ जाए। हाँ, अरूण प्रकाश जी के सुझाव पर भी गौर फरमाएं। वो कहते हैं न मौसम भी है, मौका भी....

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  15. नॉएडा से दिल्ली में सुरा ४० % सस्ती मिलती है !

    हमें दैत्य नहीं बनना...

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  16. लेखनी कितनी सुरा-नीक होकर बोलती है ..
    जानकारी देने का शुक्रिया ..
    औरों को तो 'पहुंचा ही दिया मधुशाला ' ..
    आपके कंटेंट पर कुछ नहीं बोलूँगा ...
    अब तो अपनी औकात को (उप)भोक्ता-मय कर बैठा हूँ , अतः गूढ़ विवेचनगत
    प्रश्नों से कन्नी काटने लगा हूँ , '' हम तो बिस्मिल थक गए '' , सो सब सम्हालें
    धैर्यधनी राव साहब जैसे जन ..
    कल से मैं अज्ञेय की इस कविता पर बार-बार
    सोच रहा हूँ --- '' ......... मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में / तीन टांगों पर खड़ा / धैर्यधन
    नतग्रीव गदहा '' , यहाँ वाले '' धैर्यधन'' में खुद को पाता हूँ ..
    ........ आभार ,,,

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  17. ईश्वर करे आपकी यह जिज्ञासा हर बात को यूँ गहरे तक जानने की बनी रहे ..और हम इस से यूँ ही लाभ उठाते रहे ...

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  18. सर जब भी ऐसे आलेखों को पढता हूं तो बिना देर किये उन्हें बुकमार्क कर लेता हूं , जानते हैं क्यों , जब भी हिंदी ब्लोग्गिंग में स्तर से कमतर लेखन की बात उठेगी उन्हें यही सब दिखाऊंगा , और फ़िर प्रश्न करूंगा कि बताओ ये कौन सा स्तर है , शायद उनकी समझ में ठीक ठीक आ जाए। सर आपके ऐसे लेख हिंदी ब्लोग्गिंग के लिए धरोहर की तरह हैं
    अजय कुमार झा

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  19. सीमित मात्र में मदिरा सेवन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक सिद्ध होता है।
    कहते हैं इससे एच डी एल बढ़ता है, जो हार्ट प्रोटेक्टिव होता है।
    लेकिन इसका मतलब यह नहीं है की आप आज से ही पीना शुरू कर दें।

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  20. ज़ैदी जी,

    वैदिक मंत्रों की भाषा छान्दस है जो क्लासिक संस्कृत के सामने आने के साथ धीरे धीरे लुप्तप्राय सी हो गई। ले दे कर सायण का भाष्य ही समझने के लिए लोगों के हाथ लगता है। क्लासिक संस्कृत के नियम वेदों पर लगाने से अनर्थ होते हैं जैसे आप ने यहाँ किया है। वेदों में बैकुंठ की अवधारणा नहीं है। आप के द्वारा किया गया अर्थ अनर्थ ही है। इस सम्बन्ध में दयानन्द कृत भाष्य को भी देख लें।
    हजारों हजार साल पुरानी परम्परा के अर्थ समझने की कोशिश करने पर संशय उपजते हैं जिन्हें एकेडमिक स्तर पर ही सुलझाना या उसके लिए प्रयास करना होता है। आम जन की आस्था/मान्यताओं को बिना कोई ठोस विकल्प पाए ही झुठलाने से अनावश्यक विवाद उठते हैं जिनसे बचा जाना चाहिए। बहुत पहले 'सहमत' संस्था द्वारा बौद्ध जातकों का आश्रय ले रामकथा का विरूपण और उसके बाद उठा विवाद इसका एक उदाहरण है।

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  21. अमरेन्द्र जी,

    इतनी निराशा ठीक नहीं। शोधरत लोग ऐसे पल्ला पटकेंगे तो कौन बोझा कौन सँभालेगा?
    मुक्त हो कर अपनी बात कहिए।
    अभी तो आप जवान हैं :)

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  22. आप का लेख पढ कर लगा कि हम पहले बहुत बडे सुर थे:)... फ़िर धीरे धीरे असुर बनते गये, ओर अब ९९% से ज्यादा असुर है ओर साल मै एक दो बार थोडा स सुर बन जाते है.
    बाकी डॉ टी एस दराल जी से सहमत है

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  23. @जीशान भाई जैसे ज़हीन आदमी से एक पवित्र वेद-मन्त्र के ऐसे बेतुके अनुवाद की उम्मीद नहीं थी. अभी मैं इतना ही कहूंगा कि जो लोग अपने धर्म ग्रन्थ के बारे में अति-संवेदनशील रहते हैं उन्हें दूसरे धर्म-ग्रंथों की पवित्रता का इस प्रकार जानबूझकर अनादर नहीं करना चाहिए. संस्कृत में दार/दारु (दारू नहीं) का अर्थ लकड़ी, वृक्ष और वन तीनों ही हो सकते हैं (=अंग्रेज़ी का wood/woods) . हम सब इतना तो समझते हैं कि ४०० साल पुरानी उर्दू को हज़ारों साल पुरानी वैदिक संस्कृत पर नहीं थोपा जा सकता है. दार-उल-शफा को क्या आप दारू की दूकान कहते हैं? या देवदारु के वृक्ष को "प्रभु की दारु" कह देंगे? खासकर देवदारु के इस बेतुके अर्थ में देव/प्रभु शब्द का अपने धर्म का पर्याय कहने की दम आपमें नहीं है यह आप भी जानते हैं हम भी. तो फिर आज से यह बात गाँठ बाँध लीजिये कि जिनके घर शीशे के होते हैं उन्हें दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने से बचना चाहिए. हाँ अगर आप सचमुच सत्यान्वेषी जिज्ञासु हैं तो एक ज्ञानी ब्राह्मण का शिष्य बनिए, वेदमंत्रों के सही अर्थ अपने आप पता लग जायेंगे.

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  24. -'घरनी 'नया शब्द पढ़ा.
    -दैत्यतुल्य इंद्र कैसे देवताओं के राजा बन बैठे ?
    -[यह भी अचरज की बात है]
    -आख़िर पैरे में काफ़ी नयी जानकारियाँ मिलीं.

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  25. गिरजेश जी, ये समस्या सभी धर्मग्रंथों के साथ है. भाषा न जानने के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाता है. जो ग्रन्थ जितना पुराना है उसके साथ ये समस्या उतनी ही ज्यादा है.

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  26. @ जीशान जी ,अनुराग जी ,गिरिजेश जी ,कृपया यहाँ चल रही तत्व विवेचनी चर्चा को "वादे वादे जयते तत्वबोधः की ही परम्परा में और धर्म से तो बिलकुल निरपेक्ष लिया जय .जीशान जी आपका अनुवाद हास्यकर भी नहीं है महज हास्यास्पद है .
    अनुराग जी ,बिलकुल सही टोका है और गिरिजेश जी ने तो खैर यथोक्त परम्परा का ही मान रखा है -मुझे यह गुत्थी सुलझानी है कि अवेस्ता के असुर ऋग्वेद में सुर कैसे हो गए ? और यह आसान नहीं है -काफी बौद्धिक मीमांसा की दरकार है -हिम्मत पस्त है मेरी !

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  27. अरविन्द जी, मैं इसे धर्म से जोड़कर नहीं बल्कि विभिन्न स्थानों के निवासियों की परम्पराओं के बीच कड़ियाँ जोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ. रही बात अनुवाद की तो मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं की किसी ग्रन्थ के किसी लघु भाग का भी अनुवाद कर सकूं. वो तो मैंने नेट पर ही एक जगह देखा तो यहाँ पेस्ट कर दिया. अब मेरी विद्धजनों से अपेक्षा है की वे सही अनुवाद तक मुझे पहुंचाएं.

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  28. वाह ! अर्थ निकलना भी गजब होता है ...
    शब्द का ख़ास भाषा में जो अर्थ है , वही ग्राह्य होना चाहिए ...
    जैसे 'देव' का अर्थ राक्षस है मीर के इस शेर में ( फ़ारसी प्रभाव ) ---
    ''आतिशे-इश्क ने रावन को जला कर मारा
    गर्चे लंका सा था उस 'देव' का घर पानी में | ''
    यहाँ रावण को कोई देवता समझे तो उसकी समझ को दूर से नमस्कार करना होगा ...
    अब यहाँ( निम्नोक्त चौपाई में ) अर्थ-प्रस्तावक 'दारु' का द्रव - बोधक अर्थ निकालें
    तो क्या वे दूर से नमस्कार के पात्र नहीं हैं ( ! ).......
    '' एकु दारुगत देखिअ एकू।
    पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू।।
    उभय अगम जुग सुगम नाम तें।
    कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें।। ''
    ............. ऐसी अर्थ संबंधी भ्रांतियां न हों तो बेहतर ... आभार ,,,

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  29. इतनी गहरी विवेचना के लिये आप बधाई के पात्र हैं।अच्छा लेख....

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  30. अरविन्द भाई ,
    आपके दरबार में तो सुर असुर चर्चा गरमाई है .पस्त न हों . पता चलते ही बताईयेगा की कैसे सुर असुर हो गए .हम तो बेसुरे ठहरे पर हाँ .....................फोटू सुर असुर ससुर सब के kaam की दिख रही है .
    सच है .............ऐसे आलेख बुकमार्क कर रखने की चीज है ,तत्व और गहराई दोनों शामिल हैं . उत्सुकता तो है ही .
    संक्रांति की शुभकामनायें .

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  31. आदरणीय गिरिजेश जी की सारी टिप्पणियों मे मेरे मत भी रख लीजिये ना...जिस विषय पर कोई जानकारी नहीं हो..(बहुधा होता है मेरे साथ..)मै सर झुका बस सीखना चाहता हूँ...आभार...!

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