रविवार, 12 जनवरी 2014

एअरगन से मछलियों का शिकार (सेवाकाल संस्मरण - 18 )

वर्ष 1989, झांसी से चलने का वक्त आ गया था।यहाँ की पोस्टिंग ने मुझे सरकारी सेवा के कई प्रैक्टिकल अनुभव कराये।  एक तरह से आगामी सेवाकाल की पूर्व पीठिका तैयार हुई । कई अप्रिय  अनुभवों से भी गुजरना पड़ा. उन दिनों एक मंत्री जी थे श्री सीताराम निषाद जी जिनके पास सिचाई और मत्स्य दोनों का प्रभार था।  उनका आगमन हुआ।  मेरे सीनियर अधिकारी ने मुझसे मंत्री जी के आगमन पर उनके स्थानीय सद्भाव के लिए मुस्तैद रहने को कहा।  यह जानकारी भी  कि मंत्री जी के आगमन के बाद उन के खान पान का सारा इंतज़ाम हमें ही उठाना होगा -और केवल उन्ही के ही नहीं बल्कि उनके आगमन पर उनके और पार्टी के समर्थकों की भीड़ को भी चायपान और खाना भी खिलाना होगा। मगर इसके लिए विभाग का कोई बजट  अलाट होता नहीं।  मैंने अपने उच्चाधिकारी से पूछा कैसे होगा सब इंतज़ाम? उन्होंने कहा "ईंट इज नन आफ माय बिजिनेस" मैं अवाक! इतना वेतन भी नहीं था  कि खुद खर्चे उठा सकूं -कोई घर आये तो भले ही अतिथि है चाय पानी करा  दिया जाय पर पूरे अमले जामे को और वह भी सरकारी दौरे पर  खर्च खुद के द्वारा? मैं असहज हो उठा था।

मैंने सिचाई विभाग के अधिकारियों से बात की तो उन्होंने कहा मंत्री जी के खान पान पर आये खर्च को तो वे  कर लेगें मगर मुझे बाद में आधी राशि देनी होगी! मैंने स्थानीय मंत्री जी के समर्थकों में से  जिनसे अच्छा  संवाद था अपनी समस्या बतायी मगर उन्होंने कहा यह तो दस्तूर है।  बहरहाल मंत्री जी के आने के बाद यह समस्या उन  तक पहुँच गयी और उन्होंने सारा इंतज़ाम केवल सिचाई विभाग पर थोप दिया। मगर यह सब आज भी चल ही रहा है और विभागों से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे ईमानदार बने रहें -यह बात तय है कि भ्रष्टाचार की कर्मनाशा (मैं गंगोत्री नहीं कहूंगा) भी ऊपर से ही प्रवाहित होती है! खासतौर पर राजनेता और भ्रष्ट अधिकारियों का गठजोड़ व्यवस्था को बदलने नहीं देता। कहते हैं न बेशर्मी का दूसरा नाम ही राजनीति है!

 मछली का एक और अप्रिय प्रसंग है जिसका अनुभव  झांसी से ही हुआ। लोग बाग़ पशुपालन विभाग से मुर्गा  खाने की फरमाईश नहीं करते मगर मछली वाला अधिकारी लोगों की रोज रोज मछली खाने की मांग से तंग हो रहता है। अब मुश्किल यह होती है कि कस्मै देवाय हविषा विधेम! मतलब किस किस को मछली दी जाय? शायद चीन जो मत्स्य क्रान्ति में भी सदियों से अग्रणी रहा है में भी यही समस्या रही है, सो वहाँ एक कहावत ही प्रचलित हो गयी है -" किसी को मछली खाने को दो तो वह अल्प  समय के लिए ही उसका लाभ उठा लेगा मगर किसी को मछली पालना सिखा दो तो वह जीवन भर उसका लाभ  उठायेगा!" मगर यह कहावत उत्तर परदेश में लागू ही नहीं हो सकती जहाँ अकर्मण्यता, मुफतखोरी  और निर्लज्जता  की एक संस्कृति सी बन गयी है! यहाँ अपनी जेब से खर्च करने की नीयत ही नहीं है! चाहे वो अच्छा ख़ासा कमाने वाले प्रशासनिक अधिकारी हो या आम ख़ास पड़ोसी!यही नहीं उच्चाधिकारियों की मीन मुफतखोरी का आलम यह रहता है कि मछली पहुचने के दूसरे  दिन की सुबह तक जी में धुकधुकी बनी रहती है कि सब कुछ ठीक ठाक निपट गया -मछली की कोई शिकायत नहीं आयी ! आला साहबों को डिसेंट्री डायरिया तो नहीं हुआ! कोई कांटा तो नहीं गले में फंस गया।  आदि आदि दुश्चिंताएं मन में उठती रहती हैं।  

 मैं  इस मत्स्यभोज  प्रसंग से क्षुब्ध रहता आया हूँ  ! झांसी मंडल के एक सबसे आला आफिसर के यहाँ एक बार भेजी गयी मछली ही बदल गयी।कुहराम मच गया। मेरे विभाग के बड़े अफसर तक की पेशी हो गयी। बंगले से हिदायत आयी थी एक ख़ास मछली की -गोईंजी जो साँप  सी दिखती है (मास्टासेम्बलस प्रजाति) -कुक ने समझा कि ये वाली तो मैडम खाएगीं नहीं सो उसे तो अपने घर भिजवा दिया और साथ भेजी गयी दूसरी मछली का पकवान बना परोस दिया।  खाने की मेज पर ही हंगामा मच गया।हम सब तलब हो गए।  बाद में स्थति साफ़ हुयी तो खानसामे पर नजला गिर गया. मैं हमेशा इन प्रकरणों से संतप्त होता आया हूँ! एक तो कहीं से मांग जांच कर मछली का इंतज़ाम करिये और फिर साहबों के नाज नखरे झेलिये। 

एक और भी ऐसा ही मत्स्य प्रकरण है जिसमें आला अधिकारी का फरमान हुआ कि उनके बंगले के स्वीमिंग पूल में ही बड़ी बड़ी किसिम किसिम की मछलियां डाल दी जायं। जिससे उनकी जब भी इच्छा हो वे खुद वहीं से मछली निकाल लिया करें। आदेश का अनुपालन किया गया-जीप के ट्रेलर में भर भर कर उसी तरह मछलियां लायी गयीं जैसा कि मानस में वर्णन है कि भरत की आगवानी में निषादराज की आज्ञा से "मीन पीन पाठीन पुराने भर भर कान्ह कहारन लाने!" मगर ये सभी तो जिन्दा थी और अच्छे वजन और प्रजातियों की थीं! हाँ यह दीगर बात है कि परिवहन के दौरान बहुत सी मछलियां काल के गाल में समा गयीं।  कुछ दूसरे दिन से तरण  ताल में मर मर कर उतराने लगीं -बावजूद इसके सौ के ऊपर मछलियां बच ही गयीं। मगर हैरत की बात यह कि हर रोज उनमें से अधिकृत रूप से तो साहब बहादुर द्वारा एक दो ही निकाली जातीं मगर उससे ज्यादा गायब पायी जातीं।  क्या कोई चोरी कर रहा था ? साहब बहादुर के कम्पाउंड में किसकी जुर्रत कि वह चोरी करे। 

आखिर एक विभाग का चौकीदार रखवाली पर लगा दिया गया।  और तब मछलियों के कम होने का राज भी खुल गया।  होता यह कि साहब बहादुर के दुलारे किशोरवयी  प्रिंस अल्सुबह एक एअरगन लेकर निकलते और मछलियों पर निशाना साधते -एअरगन से चिड़ियों का शिकार तो देखा था मगर मछलियों के आखेट का यह पहला वाकया दरपेश हुआ था।  बहरहाल एक स्टाफ को इस घटना से साहब बहादुर को बताने के लिए तैयार किया गया और इसका अप्रत्याशित रूप से परिणाम बहुत अच्छा रहा -साहब बहादुर मछलियों पर दयार्द्र हो उठे और मछलियों की आगामी ढुलाई रोक दी गयी!

सर्विस में आगे भी ऐसे अनेक अप्रिय मत्स्य प्रसंग आते रहे हैं जिनकी चर्चा समय समय पर होती रहेगी!  जारी। .... 

30 टिप्‍पणियां:

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  2. ऐसे साहब बहादुर और उनके दुलारे प्रिंसों को यदि सही समय सबक मिल जाय तो फिर ऐसे हिमाकत नहीं करे लेकिन अफ़सोस आज भी वही हाल है .... जिनके सामने ऐसा होता है वे बेचारे तो किसी न किसी रूप में उनके जुड़े होते हैं ....
    आपने बहुत बढ़िया सार्थक प्रेरक प्रशंग प्रस्तुति किया है ...जनता एकजुट होकर ही इनको सबक सिखा सकती हैं

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  3. सही कह रहे हैं । यह सिस्टम जबरदस्ती इंसान को भ्रष्टाचाऋ बनाना चाहता है । :(

    बेचारी मछलियाँ :(

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन स्वामी विवेकानन्द जी की १५० वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. राजनेता और भ्रष्ट अधिकारियों का गठजोड़ व्यवस्था को बदलने नहीं देता। कहते हैं न बेशर्मी का दूसरा नाम ही राजनीति है! - सहमति. प्राचीन भारतीय संकल्पनाएँ और आधुनिक वैश्विक ज्ञान की दृष्टि से चीनी कहावत का आधुनिक वैश्विक स्वरूप अपने शब्दों में कुछ ऐसा होना चाहिए
    Give a man a veggie burger and you feed him for a day. Teach a man to fish and he would destroy the ecosystem.

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  6. हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे... सरकारी महकमे में ये छोटी-छोटी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं.. लेकिन मुझे तो युवराज आई मीन शहज़ादे के Law of refraction का practical वाक़ई क़ाबिल-ए-तारीफ रहा!!

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    1. लगता है आप भी बचपन में कम शरारती नहीं थे :-)

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  7. जिले के अधिकारी पर अपने विभागीय मंत्री और उच्चाधिकारियों की आवभगत का जिम्मा ऐसे डाल दिया जाता है जैसे उसे इन लोगों ने इसी काम के लिए पोस्ट कर रखा है। हद तो तब हो जाती है जब इनके अर्दली चपरासी और गनर भी कुछ आर्थिक नजराने की अपेक्षा या खुली मांग करने लगते हैं। अपनी पहली तैनाती में मैंने भी टका सा जवाब दे दिया था, गनीमत यह रही कि मुझे वह नौकरी ही बदल देनी थी इसलिए कोई नुकसान नहीं हुआ।

    बहुत साहस से दो-टूक लिख रहे हैं। बहुत प्रेरक।

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  8. अभी भी सरकारी नौकरी पर ही हैं न? फिर यह जल में रह मगर के किस्से क्यों लिख रहे हैं? कोई शाकाहारी मंत्री आ जाता तो मछलियों की खैर होती.
    स्विमिंगपूल में मछलियों का आइडिया मस्त लगा! क्लोरीन वाले पानी में भी मछलियाँ जीती रह साहबजादे से आखेट करवाती रहीं.
    बढ़िया लेख.
    घुघूतीबासूती

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    1. वह तरण ताल नहाने के लिए परित्यक्त था और इसलिए क्लोरीन रहित भी घुघूती जी !

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  9. १९८९ ...यु.पी में शायद कांग्रेस का शासन था उन दिनों ! ऐसे ही होंगे मंत्री संत्री इसमें आश्चर्य नहीं लेकिन मंत्री के रहने टिकने का खर्चा विभाग या सरकार नहीं उठाती थी यह चौकाने वाली बात है.

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  10. आपके संस्मरण काफी रोचक है। स्विमिंग पूल और साहबजादे का किस्सा तो अत्यंत रोचक है। मंत्रियों को गेस्ट हाउस में टिकाने और उनकी पूरी टीम की आवभगत का खर्चा समचमुच जनपदीय मातहतो के लिए बहुत बड़ा सरदर्द है। वैसे घुघुतीबासूती जी ने सही लिखा है..जल में रहकर मगर के किस्से क्यों लिख रहे हैं? अभी सभी को लिखकर ड्राफ्ट में डाल दीजिए..जल से बाहर आने के बाद इसे धीरे-धीरे पोस्ट करते रहियेगा। :)

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  11. दस्तावेजी संस्मरण .... रोचक और यथार्थपरक

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  12. अब देखते हैं कि राजनीति के परिवर्तन के इस दौर में पूरे भ्रष्ट-तंत्र का समूल नाश होता है या नहीं.जड़ें हमारे में इतनी गहरी फैली हुई हैं कि समय तो लगेगा ही पर उम्मीद की किरण तो है.

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  13. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  14. व्यवस्था का ये हाल सम्भवतः हर समय रहा है .... आज भी क्या बदला है ?

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  15. अधिकारियों को प्रारम्भ में मजबूरीवश बात माननी पड़ती है , फिर उनकी भी आदत हो जाती है। हम आम जनता भी अपने लाभ के लिए कई प्रकार से फायदे उठाते है और व्यवस्था इसी प्रकार बिगड़ती रहती है।

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  16. सक्रारि विभागों में क्या कुछ होता है ये देख कर हैरान हूँ ... मेरे जैसे जिसने उम्र भर प्राइवेट में काम किया है उसके लिए तो ये एक अचम्भे से कम नहीं ... की कैसे मछलियों को अपने स्विमिंग पूल में डलवाया जाता है और फिर शिकार तक किया जाता है ... रोचक ...

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  17. सही है कि कि भ्रष्टाचार की कर्मनाशा ऊपर से ही प्रवाहित होती है तथा राजनेता और भ्रष्ट अधिकारियों का गठजोड़ व्यवस्था को बदलने नहीं देता। साथ ही नई पीढ़ी को भी अपने रंग में रंग ही लेता है। सिर्फ एक पार्टी में ही या विशिष्टता तो नहीं ही रही होगी। आज इतने सारे दलीय विकल्पों में से जो कमोबेश कई प्रदेशों में आजमाए जा ही रहे हैं- स्थिति कुछ अलग है क्या ?

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  18. Interesting.

    वैसे तो मच्छलियों पर आपकी कई पोस्ट हैं.

    आमजन के लिए स्वास्थ्य की दृष्टी से विभिन्न प्रकार की मछलियों के बारे में भी कुछ लिखियेगा तो बढ़िया रहेगा..

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  19. यह तो बेईमानी थी सरकारी मछलियाँ अफसरों को कैसे खिला दीं भाई जी ??
    और बता भी रहे हो सबको ?
    बधाई ! :)

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  20. विभागों में जितना रस बहता है, विभागों के स्वास्थ्य की क़ीमत पर ही बहता है।

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  21. नौकरी में भी इस प्रकार की त्रासदी झेलनी पडती है सही क़ह रहेँ हैं प्रवाह ऊपर से ही तो होता है

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