कुदरत के करिश्में भी गजब होते हैं -अभी परसों के दैनिक जागरण अखबार के सोनभद्र संस्करण में एक रोचक खबर पढी . धनेश पक्षियों द्वारा कुचिला के बीज खाये जाने की तो चौक उठा -कारण कुचिला वृक्ष का फल/बीज बहुत विषैला होता है। कुचिला वृक्ष लोगेनियेसी (Loganiaceae) कुल का है और जिसे स्ट्रिक्नोस नक्स-बोमिका (Strychnos nux vomica) कहते हैं।कुचिला बहुत विषैला होता है। क्योंकि इसमें स्ट्रिक्नीन और ब्रूसीन दो तीव्र जहरीले ऐल्कालायड रहते हैं। अगर कोई बड़ा जानवर भी इसे खा ले तो वह निश्चित मर ही जायेगा . मगर धनेश इसे चाव से खाते हैं और उन पर इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता . धनेश पक्षी इसके बीज को बिना कवच तोड़े समूचा निगल लेते हैं। यही कारण है कि कुचिला के विषैलेपन का प्रभाव इन पर नहीं पड़ता।
कुचिला फल और फूल
सोनभद्र के पुनरान्वेषण श्रृंखला की एक पोस्ट में मैंने लोकनायक लोरिक की गाथा के दौरान स्थानीय अगोरी किले और कुचिला का जिक्र किया था जहाँ आज बसरा देवी का मंदिर भी है . वहां कुचिला के वृक्षों में फूल और फल लग गए हैं जिन्हें धनेश पक्षियों द्वारा चाव से खाए जाने की खबर है . यह एक अद्भुत सहजीवी सम्बन्ध है -कुचिला के फल धनेश पक्षियों को तनिक भी नुकसान नहीं पहुंचाता और बदले में इसे धनेश पक्षी के नियंत्रित पाचन क्षमता से यह उपहार मिलता है कि इसके बीज का कवच नरम पड जाता है जिससे इनके अंकुरण में सहजता हो जाती है . मतलब इन दोनों प्राणियों -एक जंतु दूसरी वनस्पति के बीच एक अद्भुत सहजीवी सम्बन्ध है। अब सोचिये अगर धनेश पक्षी लुप्त हो जाएँ और जो वे तेजी से हो रहे हैं तो क्या होगा? एक दिन कुचिला की प्रजाति लुप्त हो जायेगी। पारिस्थतिकी सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं . सारे जीव जंतु ऐसे ही ज्ञात अज्ञात रिश्तों के अदृश्य धांगों से बंधे हैं -यह पारिस्थितिकी विवेक मनुष्यों में जागृत हो रहा है और इस दिशा में आम लोगों की पहल के शुभ संकेत पिछले दशकों से मिलने लगे हैं -चाहें वे पहाड़ के चिपको आन्दोलन हों या फिर केरल की घाटी का अप्पिको आन्दोलन या फिर विश्नोई समाज का हिरनों -मृगों के प्रति अनन्य प्रेम ..
मुझे खुशी हुयी कि अगोरी के आस पास के लोगों में धनेश पक्षी को न मारने देने की मुहिम यहाँ के निवासी श्री शिवनन्दन खरवार जी ने ग्राम सभा द्वारा एक आम सहमति के प्रस्ताव के जरिये चला रखी है जिसमें धनेश पक्षी को मारने पर पांच सौ का जुर्माना भी है . धनेश पक्षियों का बड़े पैमाने पर शिकार इसकी चर्बी से निकलने वाले कथित औषधीय गुणों के कारण होता रहा है . अगर इनकी रक्षा नहीं हुयी तो अगोरी किले के समीप के अब मात्र पचास की संख्या में बचे कुचिला के वृक्षों का आगे फैलाव रुक जाएगा।इन विषय पर पर्यावरण प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करना भी इस पोस्ट का उद्येश्य है -ख़ास तौर पर वन विभाग का भी जो धनेश पक्षी की वंश संरक्षा के कड़े उपाय कर सकता हैं।
मुझे है पता है कि कैसे मारिशस के विशालकाय डोडो पक्षियों के विलुप्त हो जाने से कैवेलेरिया पादप प्रजाति का समूल नाश हो गया . इस प्रजाति के वृक्षों के बीज का कठोर कवच भी इन्ही डोडो पक्षियों की जठराग्नि में नरम पड़ता था और अंकुरण सहज हो जाता था -डोडो गए फिर यह पादप प्रजाति भी धरा से लुप्त हो गयी .यही कहानी ब्राजील और कुछ अन्य देशों की है जहाँ कतिपय पक्षी प्रजातियों के ख़त्म कर देने से कई फलदार वृक्ष भी कालान्तर में लुप्त हो गए। दुर्भाग्य से यह दुखद गाथा अभी भी विश्व के अनेक भागों में दुहराई जा रही है -भारत भी उनमें एक है।
मुझे हाथियों और कपित्थ (कैंत= Elephant apple) फल -वृक्षों के रोचक अंतर्सबंध की भी जानकारी है . हाथी को कपित्थ बहुत पसंद है .गणेश जी की प्रार्थना में वो संस्कृत का श्लोक है न "कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं" . हाथी कपित्थ के कठोर कवच वाले फलों को समूचा निगल जाते हैं -मगर बिना फल को पचाए अपने व्यर्थ के साथ बाहर कर देते हैं . निश्चय ही इससे कपित्थ के फलों के अन्दर बीज को अंकुरित होने में सहजता होती होगी .इधर कपित्थ के पेड़ भी तेजी से कम हो रहे हैं . क्या इसका कारण हाथियों की तेजी से घटती संख्या तो नहीं है -मुझे इस विषय पर किसी भी शोध की जानकारी नहीं है .आपमें किसीको हो तो जरुर बताईयेगा। यह पर्यावरणीय शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है .
कोई आगे आएगा ?