सोमवार, 4 जून 2012

जो साहित्य संगीत से विहीन हैं वे पशुओं से भी बदतर हैं


मनुष्य में संगीत प्रेम एक सहज बोध है . बांसुरी सरीखे वाद्य यंत्र 30 हजार वर्ष से भी पुराने पुरातत्व उत्खननों में मिले हैं . यहाँ तक कि तब की चिड़ियों की पाईपनुमा हड्डियों से बांसुरी बनाने के प्रमाण मिले हैं .कृष्ण को बांसुरी बहुत प्रिय थी . फ्रांस के आस पास किये गए उत्खननों में 225 किस्म के बासुरीनुमा वाद्य यंत्र मिले हैं . इनमें सुरों के आरोह अवरोह को साधने के लिए बाकायदा छेद हैं जिनपर उँगलियों को रख कर स्वरों में प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है .जाहिर है आदि से भी आदि मानव का संगीत प्रेम काफी विकसित हो चला था . कई अन्य तरीके की संरचनाएं भी मिली हैं जैसे महीन पत्थर के बलेड्स जिन्हें जोड़कर सांगीतिक ध्वनियाँ निकाली जा सकती थीं . और यह सयोंग भी देखा गया कि तत्कालीन और आज भी मौजूद उन गुफाओं में जिनमें आदिमानव भित्ति चित्रकारी करता था,इन वाद्य यंत्रों को बजाने पर अद्भुत अनुगूंज उत्पन्न होती है. 


मानव विकास में आखिर संगीत का क्या रोल रहा है? यह प्रश्न आधुनिक विकास- जैविकीविदों के लिए एक टेढ़ी खीर है . संगीत के साथ ही नृत्य का संयोजन अनिवार्य रूप से देखा गया है . ऑस्ट्रेलिया के मूलभूत आदिवासी जो वहां तकरीबन 45 हजार वर्षों से भी पहले से रहते आये हैं,कालान्तर के मानव प्रवासों के पहले से ही संगीत और नृत्य का आनंद लेते आये हैं और यह देखा गया है की उनके इस हुनर से आज के कथित 'सभ्य' मनुष्य के संगीत और नृत्य की बारीकियों का कई आश्चर्यजनक साम्य है.यह जाहिर है कि कल और आज की 'सभ्यताओं ' में संगीत -नृत्य के आयोजनों के इस समान वृत्ति से समूह -एकता का भाव संचारित होता है . समूह एकता(ग्रुप स्पिरिट) ही वह एक प्रमुख कारण लगता है जिसने मनुष्य को संगीत और नृत्य की अभिरुचि को बरकरार रखा है . तब भी यह आश्चर्यजनक लगता है कि नृविज्ञानियों ने मनुष्य की कतिपय दूसरी आदि -वृत्तियों के मुकाबले नृत्य और संगीत के अध्ययनों को कम वरीयता दी है . जबकि भाषा विज्ञान और लोक वानस्पतिकी (आदिवासी समूहों द्वारा चिकित्सा के लिए उपयोग में लाये जाने वाले पेड़ पौधों-खरबिरैयिया का अध्ययन ) पर नृ-विज्ञानियों का ज्यादा जोर रहा है .



संगीत सृजन और प्रस्तुतीकरण मनुष्य की एक नैसर्गिक रुझान है . एक तंत्रिका विज्ञानी अनिरुद्ध डी. पटेल ने ब्राजीलियन आमेजन के एक छोटे से आदिवासी समूह की सांगीतिक अभिरुचियों का अध्ययन किया है . उनका कहना है कि उनके पास गीतों का एक विशाल भण्डार है जबकि उसमें एक भी सृजन मिथक का गीत शामिल नहीं है और न ही उन्हें संख्याओं का कोई ज्यादा ज्ञान है .मगर संगीत की उनकी अभिरुचि समृद्ध है . इससे इंगित होता है कि संगीत मनुष्य के प्राचीनतम व्यसनों में से एक है . डॉ पटेल के शोध ने यह साबित किया है कि संगीत सृजन और श्रवण दोनों ही मनुष्य के दिमाग के कतिपय हिस्सों में संरचना की तब्दीली ला देता है . दिमाग का जो हिस्सा संगीत -सहिष्णु होता है वह मस्तिष्क के दोनों दायें बाएं हिस्सों को ख़ास तंत्रिका कोशाओं से जोड़ता है .

 मनुष्य की भावनाओं पर संगीत का गहरा प्रभाव प्रमाणित है . कुछ राग रागिनियों से कतिपय मानसिक बीमारियों के उपचार के उत्साहवर्धक परिणाम आ रहे हैं . पाया गया है कि कम से कम 6 मस्तिष्क -गतिविधियों पर संगीत का सीधा असर है . क्या संगीत का विकास मनुष्य की भाषा का ही एक उभय उत्पाद है ? यद्यपि इस प्रश्न के जवाब में विशेषज्ञों के मत अलग हैं मगर कुछ अध्ययन यह बताते हैं कि बच्चे पाठ को संगीतमय लहजे में जल्दी सीखते हैं . मगर फिर भाषा का अधिगम (सीख ) तीव्र हो उठता है और संगीत पीछे रह जाता है .भाषा के व्यवहार -उपयोग में बच्चे जल्दी पटु होने लगते हैं . मगर संगीत की समझ और सीख ज्यादा ध्यान ,रियाज और सीखने की मांग करती है . भाषा को सीखने का एक 'क्रिटिकल समय काल' देखा गया है जबकि संगीत सीखने का कोई ऐसा निश्चित काल नहीं है . यह भी सही है 2 से 4 प्रतिशत लोग संगीत को न समझने की जन्मजात कमी लिए होते हैं .मगर यह अध्ययन अमेरिका का है -भारत में ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है मगर मेरा दीर्घ अनुभव रहा है कि यहाँ सिनेमा और लोक संगीत (इधर के लेडी संगीत को समाहित करते हुए !) तो तब भी ज्यादा लोग समझते- सराहते हैं मगर क्लासिकल संगीत के जानने समझने वाले 10 फीसदी भी नहीं होंगे ...जबकि संगीत का यह स्वरुप अधिक उदात्त और हमारी महीन भावनाओं को भी संस्पर्श करने में समर्थ है .मगर लोगों की इसमें बचपन से ही रूचि विकसित नहीं की जाती जिसके चलते उनके मस्तिष्क के संगीत -सहिष्णु हिस्से निष्क्रिय पड़ जाते हैं.


संगीत प्रेमी तो गैर संगीत अभिरुचि के लोगों को इतना हेय भाव से देखते हैं कि मत पूछिए -कहा भी गया है- साहित्य संगीत कला विहीनः नरः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः

25 टिप्‍पणियां:

  1. हमको भी ईश्क बाजी में बांसुरी बजाने का शौक चढ़ा था। पहली धुन बजायी..सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन।:)

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  2. वाह...सटीक आलेख... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  3. संगीत का नशा ही ऐसा है कि जो इसके सम्पर्क में आया बच नहीं सकता। देखिए न,मेरे पिता संगीत मुझे संगीत सीखने देना नहीं चाहते थे, पर मुझे ऐसा लगता है कि संगीत इस धरा की सबसे विलक्षण दैवीय चीज है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे हर देवी-देवता के पास एक संगीत वाद्य-यन्त्र नहीं होता । इसलिए मैंने पहले उनके चोरी-चोरी माँ के सहयोग से पहले हारमोनियम फिर गिटार तत्पश्चात तबला और गायन सीखा। मेरा लिखने का कारण ही संगीत है। सुन्दर आलेख के लिए पुनः बधाई...

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  4. 'साहित्य,संगीत कलाविहीनः,साक्षात् पशु: पुच्छविशाणहीनः' यहाँ साहित्य और संगीत का मतलब अकादमिक हुनर के बजाय संवेदनशीलता से ज़्यादा है |यह समझा जाता रहा है कि जिस व्यक्ति में साहित्य और संगीत के प्रति लगाव होगा,वह लोगों की भावनाओं और दुःख-दर्द को अच्छी तरह से समझेगा.
    अधिकतर लोगों को संगीत का 'क ख ग नहीं पता होता पर वे उसमें डूब जाते हैं.जहाँ हम संगीत सुनकर ग़मगीन होते हैं,वहीँ हम मन से नाचते भी हैं.

    इसलिए बिना साहित्य और संगीत के जीवन नीरस है और व्यर्थ भी !

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  5. सबसे पहले शानदार आलेख के लिए साधुवाद !

    आगे यह कि... मनुष्य को स्वयं अभिव्यक्त होना था और इस अभिव्यक्ति के रिसीविंग एंड पर किसी दूसरे मनुष्य की मौजूदगी अपरिहार्य थी ! ज़ाहिर है कि ये सामूहिकता का पहला लक्षण है , जिसके बिना मनुष्य की किसी भी भावना को अप्रकटित बने रहना था !
    दुःख और उल्लास / नैराश्य और विश्वास जैसी आंतरिक ऊर्जा के प्रकटीकरण के लिए समूह ज़रुरी था और यही वज़ह है कि उल्लास की सांगीतिक और नृत्य अभिव्यक्ति भी सामूहिकता की मोहताज़ हुई ! कृष्ण की बांसुरी को गोपियों / गायों की ज़रूरत थी और आदिवासियों को नृत्य /गायन के अन्य सहयोगियों की !

    अगर गौर से देखा जाये तो संगीत और नृत्य हमारी
    आन्तरिकता का बाह्य प्रकटीकरण है ! आन्तरिकता दुखमय हो तो रुदाली की तर्ज़ पर और सुखमय हो तो , मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले की तर्ज पर !

    यह सारा कुछ मनः से दैहिक और फिर दैहिक से मनः के क्रम में चलता है , कंठ अगर उपकरण है तो बांसुरी और सरोद भी !

    मानव के विकास में संगीत के रोल को समझना जैविकीविदों के लिए टेढी खीर यूं है कि वे इस पक्ष को नगण्य मानकर ही मात्र देह रचनाओं को समर्पित रहते आये हैं :)

    पुनः एक बढ़िया / सार्थक आलेख के लिए हार्दिक अभिनन्दन लेकिन शीर्षक से असहमत होना चाहूंगा क्योंकि पशु और पक्षियों के सांगीतिक गुणों की अनदेखी सा लगता है यह शीर्षक !

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  6. संगीत चीज़ ही ऐसी है ... ईश्वर का वास रहता है संगीत में, ये मन कों एकाग्र कर के समाधि की स्थिति में ले जाता है ... इस विषय पे गहरी खोज कर के लिखा है आपने ... बधाई इस पोस्ट के लिए ...

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  7. साहित्य व संगीत सुदृढ़ है, कला कमजोर है।

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  8. @अली भाई,
    एक तरह से आपकी शीर्षक की आपत्ति वाजिब है क्योकि मैंने
    पशु पक्षियों से जुड़े अपने आलेखों में इनके नृत्य और गायन का जिक्र किया है मगर
    मनुष्य का सांगीतिक बोध महज सहज बोध नहीं है वह काफी कुछ सीखा हुआ और संस्कार
    से प्रभावित है ....
    फिर भी यह उक्ति ज्यादा उचित लगती है कि जो साहित्य संगीत से विहीन हैं वे
    पशुओं से भी बदतर हैं -शीर्षक भी यही कर दे रहा हूँ -अब किसी और की आपत्ति न आ जाय ..
    ख़ास कर अपने आपत्ति कुमार की ही जो बस ऐसयिच मौके ताड़ते रहते हैं :)

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  9. पहली बार किसी ब्लॉग में प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी का विस्तृत कमेंट पढ़ा। मन प्रसन्न हुआ। उन्होने एक बढ़िया बात कही..यदि ऐसा न होता तो हर देवी-देवता के पास एक वाद्य-यन्त्र न होता। देवी-देवता के होने में जिन्हें संदेह हो और यह मानते हों की यह हमारी प्राचीन कल्पना मात्र है तो भी उस कल्पना में संगीत का इतना जुड़ा होना स्वयम् इसकी महत्ता को स्वीकार करता है।

    अली सा ने शीर्षक पर सही आपत्ति की है, ऐसा लगता है। क्योंकि पशु पक्षियों का संगीत प्रेम जग जाहिर है। तानसेन का गायन सुनकर हिरणें आ जाती थीं। कान्हाँ की बंसुरी सुन कर असंख्य गायें दौड़ी चली आती थीं। बीन की धुन पर सर्पों के दौड़े चले आने वाली बात। पंछियों के कलरव गान। यह सब सिद्ध करता है कि पशु पक्षियों में संगीत की गहरी समझ है। अंत के श्लोक में ...(साहित्य संगीत कला विहीनः नरः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः) भी ऐसे पशु की बात की है जो पूँछ और सींग से हीन हो लेकिन यह नहीं कहा कि ह्रदय हीनः । संगीत विहीन व्यक्ति उस पशु के समान है जो सींग और पूँछ से हीन हो। ऐसा पशु तो शायद ही मिलता हो..है तो अवश्य संगीत विहीन होगा।:)

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  10. चलिए, इस श्रेणी के पशुओं में तो गिनती नहीं ही होगी अपनी| बेशक श्रोता पाठक के रूप में ही सही, इनसे विहीन नहीं|

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  11. बिलकुल सहमत हूँ ....
    आभार बढ़िया लेख के लिए !

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  12. संवेदनशीलता के भाव जगाती हैं ये अभिरुचियाँ ..... सुंदर विवेचन

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  13. संगीत और नृत्य अपनी खुशी सबके साथ मनाने का जरिया है । भाषा तो भाषा और भी विषय कविता रूप में अच्छे से याद हो जाते हैं ।

    आपने ठीक कहा है कि शास्त्रीय संगीत की समझ सब में नही होती । हमारे घर में इतना काव्य संगीतमय वातावरण होते हुए भी मुझे शास्त्रीय संगीत में बहुत रुचि नही है भजन, ठुमरी, छोटे ख्याल तक तो ठीक है पर इससे आगे ..............

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  14. सार्थक आलेख के लिए हार्दिक अभिनन्दन

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  15. उत्कृष्ट संगीत और साहित्य मानवीय गुणों के विकास में सहयोगी होते हैं.
    अच्छी पोस्ट!

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  16. संगीत सभी को भाता है . शायद ही कोई होगा जो संगीत में अभिरुचि न रखता हो . शास्त्रीय संगीत का ज्ञान अलग बात है .
    संगीत के मेडीटेश्नल और मेडिकल इफेक्ट को मान्यता प्राप्त है . लेकिन सीखना एक साधना है जो सब के बस की बात नहीं .
    हम भी नहीं सीख पाए , इस बात का ग़म है .

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  17. ह्रदय का सतत झंकृत होते रहना..अवचेतन मन का लय को पकड़ना ही संगीत से सहज जुड़ाव कर देता है जिसे हम अपनी अभिरुचि बतौर जाहिर करते हैं..सही कहा है..

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  18. क्लासिकल संगीत के जानने समझने वाले 10 फीसदी भी नहीं होंगे ...जबकि संगीत का यह स्वरुप अधिक उदात्त और हमारी महीन भावनाओं को भी संस्पर्श करने में समर्थ है .मगर लोगों की इसमें बचपन से ही रूचि विकसित नहीं की जाती जिसके चलते उनके मस्तिष्क के संगीत -सहिष्णु हिस्से निष्क्रिय पड़ जाते हैं.......sahi kaha aapne...sangeet ka vartman swaroop badalta ja raha hai ....rochak vicharneey lekh :)

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  19. डॉ पटेल के शोध ने यह साबित किया है कि संगीत सृजन और श्रवण दोनों ही मनुष्य के दिमाग के कतिपय हिस्सों में संरचना की तब्दीली ला देता है . दिमाग का जो हिस्सा संगीत -सहिष्णु होता है वह मस्तिष्क के दोनों दायें बाएं हिस्सों को ख़ास तंत्रिका कोशाओं से जोड़ता है .
    बहुत बढ़िया रचना है विश्वास और मुस्कान की ताकत किसी भी और चीज़ से कम नहीं .
    अरविन्द जी जादू वही है जो सिर चढ़के बोले लेकिन संगीत प्रेमी कान का होना भी ज़रूरी है .रवि -शंकर का सितार वादन सुनके फसली उत्पाद प्रति एकड़ बढ़ जाता है गायें ज्यादा दूध देतीं हैं .तानसेन का संगीत तो पशु जगत को विमुग्ध कर देता था .बैजू बावरा में यह जादू मुखर होता है .अनिद्रा रोग का समाधान है संगीत .

    लोरी का अपना जादू बच्चे को विमुग्ध करके गहरी नींद में ले जाता है .संगीत चिकित्सा आ.ज एक मान्य विधा है .

    अवसाद रोधी संगीत सुनके कितने ही आज आनंद में हैं .

    बढ़िया आलेख प्रस्तुत किया है आपने इतिहास के झरोखे से और उतना ही सुन्दर उसे संपन्न किया है .

    निश्चय ही आज भी ऐसे अनेक नर नाऱी हैं जिनका पुस्तकों और संगीत से कोई लगाव नहीं है .क्या कहिएगा इन्हें ?

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  20. pathak aur srota hue to bhi pashu-ness se exempt ho jaayenge na ? :)

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  21. भारतीय संस्कृति में संगीत रचा बसा है जन्म से मृत्यु तक .उपनयन संस्कार हो या विवाह संस्कार ,या फिर महा प्रयाण हर अवसर का संगीत है.उम्र पूरी करके जो महा प्रयाण करते हैं उनकी शव यात्रा के अवसर का अलग संगीत है .संस्कृति शून्य व्यक्ति ही संगीत की स्वर लहरियों से वंचित रहता है .बढ़िया पोस्ट .

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  22. @ Abhishek:pathak aur srota hue to bhi pashu-ness se exempt ho jaayenge na ? :)

    Kuchh Kuchh :)

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  23. आपका भी मेरे ब्लॉग मेरा मन आने के लिए बहुत आभार
    आपकी बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना...
    आपका मैं फालोवर बन गया हूँ आप भी बने मुझे खुशी होगी,......
    मेरा एक ब्लॉग है

    http://dineshpareek19.blogspot.in/

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  24. संगीत का जादू तो सर चढ़कर बोलता है (मेरे लिए केवल श्रवण के स्तर तक) और आंशिक रूप से साहित्य संगत कर ही लेता हूँ. चलो पशु बनने से बच गया.

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  25. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
    स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं,
    पंचम इसमें वर्जित है,
    पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग
    भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
    .. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में
    चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
    ..
    Also visit my page :: हिंदी

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