रविवार, 15 मई 2011

इलाहाबाद की दोपहरी और सिविल लाईन्स का काफी हाऊस -एक जामिया वू सा अहसास!

पहले तो यह गुजारिश कि ये जामिया वू क्या बला है इस पोस्ट पर जाकर जान सकते हैं -आलसी लोगों के लिए वहीं से यह उद्धरण," जामिया ( jamiya )  वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही  नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!" ...कल अचानक इलाहाबाद जाना हुआ और अपनी घोषित रणनीति के तहत मैंने अपनी इस एक दिनी यात्रा का विवरण फेसबुक पर डाल दिया था -यह रणनीति इसलिए कि लोग बाग़ अक्सर कहते हुए पाए जाते हैं कि अरे आप तो हमारे  शहर में आये और बताया तक नहीं! पहले ही बता दिया होता तो आबे  हयात हाजिर न कर देता आपके सामने! ....बहरहाल कोई ब्लॉगर तो नहीं अलबत्ता एक -दो फेसबुकिये मित्रों ने कुछ तवज्जो जरुर दी ..साथ तो पूरा इस भौतिक जगत के ही एक मित्र ने दिया ..साथ साथ घूमे ..घुमाए अपनी चार पहिये पर ....हाँ तो बात जामिया वू की हो रही थी ..मित्र मुझे भरी दोपहर (मुई इलाहाबाद की गर्मी भी जानलेवा होती है और जाड़ा भी ) सिविल  लाईन्स के इंडियन काफी हाऊस ले गए -करीब ढाई दशक बाद पहली नजर में तो यह   मुझमें जामिया वू की फीलिंग्स जगा गया -जैसे मैं पहले तो यहाँ कभी आया ही नहीं ..कुछ नए रंग रोशन का असर था या सर पर चमकते सूर्य देव कि कुछ पलों तक मतिभ्रम सा बना रहा ... मगर जल्दी ही यादें फिर लौट आयीं  .अपने इलाहाबाद की  पढ़ाई के दौरान यहाँ तो हम आते ही थे.....
सुधियों  में बसा इलाहाबाद का काफी हाऊस 

मुझे पहली बार इंडियन काफी हाऊस का जाना भी सहसा याद हो आया ...वो पल तो मेरी स्मृति का एक अहम् हिस्सा है -बात १९७८ की है ,तब मैं एम् एस सी का छात्र था और दिमाग में जीवन और मृत्यु  के फलसफे को लेकर कई सवाल कौंधते थे ..मैं उन  दिनों बैंक रोड पर रहता था -बैंक रोड तब एक जाना माना नाम था जहाँ फिराक गोरखपुरी जैसे अजीम शायर और डॉ राम कुमार वर्मा जैसे मूर्धन्य साहित्यकार कवि और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अनेक ख्यातिलब्ध प्रोफेसरों के मकान थे -राज्यलक्ष्मी वर्मा जैसी मुखर वक्ता भी वहीं रहती थीं और... और...कितने नाम गिनाएं!  मेरे आवास की एक खिड़की सरोजिनी नायडू गर्ल्स होस्टल के पिछवाड़े की अमराई में खुलती थी ...और मेरे मौसा जी की सख्त हिदायत थी किर उस खिड़की को  कम से कम खोला जाय -मौसा जी बहुत अल्प भाषी थे ..तब भी आज भी (आज वे ९२ साल के हैं ) ..हम उनसे बहुत डरते भी थे इसलिए पूछ तक नहीं पाए कि यह पाबंदी उन्होंने क्यों लगायी थी ..तभी एक दिन मेरे एक खिलंदड़े दोस्त ने मेरे मना करने पर भी उस खिड़की को अकस्मात खोला तो ठीक सामने एक दो सुकन्यायों को देख हम सब स्तब्ध रह गए .....अरे यह तो विषयांतर होने लगा ....इस किस्साये हुस्नपरी को आगे के लिए मुल्तवी कर आईये आज के विषय पर लौटते हैं ...

हाँ तो बात बैंक रोड की हो रही थी ..एक दिन बैंक रोड के कटरा  वाले मुहाने पर मुझे प्रोफ़ेसर टी पति दिखे जो उस समय विश्वविद्यालय के प्रो वाईस चांसलर थे-उनकी छवि एक धुर विद्वान् और कुशल वक्ता की थी- वे आत्मा परमात्मा और ब्रह्म विषयों पर घंटो धाराप्रवाह बोलते थे-वे सामने थे और जैसे अंधे को क्या चाहिए बस दो आँखें तो मैं उनकी और लपक पडा और बिना किसी औपचारिकता के ही यह सवाल दाग दिया कि सर क्या आप भगवान् के अस्तित्व को मानते हैं? अविचलित से प्रोफ़ेसर ने इशारे से एक रिक्शे वाले को बुलाया ,वहीं ठेले से मूंगफली खरीदी और मुझसे कहा चलो बैठो ..मैं किसी और काम से जा रहा था मगर उस वक्त मंत्रमुग्ध सा उनके साथ रिक्शे पर जा बैठा ..उसका रुख पाश सिविल लाईन्स की और था ..मैं बार बार उनसे ईश्वर के बारे में पूछता और वे सवाल की अनसुनी करते हुए मेरे बारे में ,परिवार के बारे में सवाल करते ..फिर कहते कोई संस्कृत का श्लोक सुनाओ ..अब ब्राह्मण के घर में जन्म होने के नाते मैं एक एक कर जितने भी श्लोक याद थे उन्हें सुनाता रहा ..मगर इस बैचैनी के साथ कि अब तो वे मेरे महाप्रश्न का जवाब दे ही देगें ...इसी दौरान सिविल लाईन्स के  मशहूर काफी हाऊस के ठीक सामने रिक्शा आ रुका ..रिक्शा वाला उन्हें और उनकी मंजिल को जानता था ...बाद में पता चला वे अपनी हर शाम वहीं काफी हाऊस में ही गुजारते थे...जैसे इलाहाबाद के कवि कथाकारों सामाजिक सक्रियकों की यह एक शगल था ,एक दैननंदिनी थी ....मैंने सोचा अब संयत होकर यहाँ वे ईश्वर चर्चा करेगें..मैंने हताशा भरे स्वर में अपना सवाल फिर दुहराया ..मगर उन्होंने नाश्ते का आर्डर दिया और नाश्ते के सर्व होने तक  मेरी सवाल बनी  घूरती विस्फारित आँखों के बावजूद भी मौन साधे रहे ..नाश्ता भरपूर था ..मैंने अंतिम बार उन्हें बड़ी हताश नजरों से देखा कि हे प्रभु अब तो ईश्वर चर्चा हो जाय ...मगर उन्होंने  मुझे सामने के सुस्वादु व्यंजन को खाने का इशारा किया ..फिर काफी आयी ....और हम वापस उसी रास्ते बैंक रोड लौट आये लेकिन मेरे प्रश्न का जवाब नहीं दिया उन्होंने ....आज तक मैं उस प्रखर वक्ता के मौन को ठीक ठीक परिभाषित नहीं कर पाया हूँ  और उनके मौन के निहितार्थों को सोचा करता हूँ -ईश्वर  सचमुच बताये  जा सकने की क्षमता से परे जो हैं!"जाहि अनादि अनन्त  अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावें " को भला प्रोफ़ेसर साहब इतने अल्प समय में एक अल्पज्ञ ,अधीर छात्र को कैसे बता पाते ....

आज भी भरी दोपहर में गुलजार था काफी हाऊस  

बहरहाल वहीं इंडियन काफी हाऊस में मेरे गैर आभासी  मित्र  डॉ.  बृजेश कान्त द्विवेदी मुझे डोसे की दावत दे रहे थे..फिर हमने कुछ पुरानी यादों  को ताजा करते हुए भरी दुपहरी में कोल्ड काफी पीकर 'वही मरहलें हैं वही जलन " की कशिश को भरसक दबाने की पुरजोर कोशिशें कीं -यह भी याद आया कि मेरी विज्ञान कथा ,'सम्मोहन'  की नायिका भी मेरे इन्डियन काफी हाऊस की यादों से ही जुडी थी ....इलाहाबाद की कितनी ही भूली बिसरी यादें कोल्ड काफी पीते पीते वहीं सिमट सी आयीं ...और यह हैंग ओवर काफी देर तक बना रहा -वापसी बस यात्रा में ऐसे ही कुछ ख्यालों में डूबे हुए मैंने फेसबुक पर टिपटिपाया-

आबे जमजम भी अब जाम नजर आता है 
 तेरे इश्क में कोई बदनाम नजर आता है 
जिन्दगी के इन आख़िरी पलों में अब तो 
इक वो चेहरा सुबह शाम नज़र आता है .....

बलिहारी जाऊं उन चंद फेसबुकिये  मित्रों की जिन्होंने जवाब में  तुरंत हाल चाल पूछा ..एक फेसबुकिये मित्र ने फ़ौरन घर पर भी आमंत्रित किया,मेसेज से पता और संपर्क नंबर भी दिया मगर तब तक तो बस सिविल लाईन्स से छूट चुकी थी ....काफी आगे भी चली आयी थी ..अब तो डेस्टिनेशन बनारस ही सूझ रहा था ....जहाँ इलाहाबाद की भरी दुपहरी की जलन के बाद एक पुरसकूं शाम मेरा इंतज़ार कर रही थी.....

40 टिप्‍पणियां:

  1. अरविंद भैया,सच में आनंद आ गया और वो ब्लागर भाईयों की बजाय फ़ेसबुकिये भाईयों के रिश्तों को प्रगाढ होते देखना अच्छा तो लगता है लेकिन ब्लाग परिवार का अचानक इस तरह वैराग्य धारण कर लेना समझ से परे है।मैं खुद भी इस नयी बीमारी का शिकार होता जा रहा हूं,लगता है।बहरहाल ब्लाग परिवार के रिश्तों को भुल जाना बहुत कठीन है,और ये स्थायी बने रहेंगें ऐसी मैं आशा करता हूं।ये वैराग्य भी अस्थायी ही लगता है।आपने तो पुराने स्थानो की यात्रा और यादों के खज़ानों की पोट्ली को एक नये अंदाज़ मे खोला है।

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  2. संस्मरण और यात्रा वृत्तांत अच्छा लगा।
    ईश्‍वर का स्‍मरण करने से हमारी शान्ति व खुशी का खाता बढ़ जाता है। उन्‍हें भूल जाने से यह खाता घट जाता है।

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  3. शायद टीपति जी तब तक तय न कर पाये हों कि ईश्वर है या नहीं। क्या बाद में आपने इन विषयों पर उनके भाषण सुने? यदि हाँ तो उन्होने क्या कहा?

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  4. @अनुराग जी ,
    एक बार ही झेलना मुश्किल था ..फिर दुबारा लौट कर उन तक जाना ?
    अब इतने दिलेर भी न थे हम ....

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  5. ईश्वर को कुछ दृश्य बड़े पसन्द हैं, बार बार दुहराता है।

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  6. प्रोफ़ेसर वृतांत शानदार रहा ।
    मुझे तो प्रोफेसर्स के दिमाग को नारी की तरह समझने में बड़ी दिक्कत होती है । :)

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  7. कॉफी हाउस, कॉफी हाउस में बसते हैं ईश्वर...

    शायद प्रोफेसर साहब आपको यही अनुभव कराना चाह रहे थे...

    जय हिंद...

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  8. बड़ा रोचक विवरण है। वैसे भी इलाहाबाद के माहौल में जाने क्या है कि वहां पहुंचने पर बरबस ही साहित्य के अनेकों पन्ने खुलते दिखाई पड़ते हैं।

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  9. पता नहीं क्यों चमका दिया है कॉफी हाउस को। पहले अपने जैसा लगता था! :(

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  10. कमाल की रोचक की शैली ! आनंद आ गया पढ़कर। अपनी यादों को शब्दों में ऐसे पिरोना कि पढ़ने वाले को अपना सा लगे, वाकई कठिन है।
    ..बेहतरीन पोस्ट।

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  11. प्रोफेसर साबह के मौन पर एक विचार...

    जो पूछता है कि ईश्वर है या नहीं है, वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर रहा होता है। जो चीज होती है उसी के न होने का भ्रम होता है।

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  12. आपकी आज की पोस्ट से मुझे एक नया शब्द मिला "जामिया वू". क्या इस शब्द का कोई विपरीत शब्द भी होता है. मुझे कई बार लगता है की वर्तमान में मेरे साथ घट रही घटना बिलकुल हु बहु ढंग से मेरे जीवन में पहले भी घट चुकी है. बहुत बार तो ये इतना स्पष्ट होता है की आगे क्या होगा मैं मुझे इसका सटीक पूर्वानुमान हो जाता है. ऐसे में बड़ा अजीब लगता है. क्या ऐसे लच्छन औरों के भी होते हैं.

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  13. इलाहाबाद का कॉफी हाउस तो अपने में कुछ खास है।

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  14. कॉफी हाउस का जीवन में एक अलग ही महत्व है.

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  15. निराकार को साकार करने का उद्यम काफी के साथ अधिक सुहाता है.

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  16. शुक्र है ...मैं हमेशा ऐसे बुद्धिजीवियों से महरूम रहा हूँ ! सोंचता हूँ वे बताते भी तो क्या समझ आता ? शुभकामनायें आपको !

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  17. निकला" दे जावू सा ही" आपका जामिया वू भाई साहिब .अलाहाबाद की एक बानगी याद आ रही है -दो दोस्त मिलतें हैं तो कैसे हाल चाल पूछ्तें हैं -"और गुरु का हाल चाल बा "-
    ".............के तोसे तो ठीक इ है "।
    हाँ ,एक ब्लॉग को दूसरे में वर्च्युअल समाधि दिलवादी है .दिलवा ने में मदद की है अमित भाई ने (दामाद बेटे ने ).
    धन्यवाद आपका अपने पन के लिए और संस्मरण लिखिएगा .यह विधा अब मर सी रही है .

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  18. विचार शून्य जी का सवाल मेरा भी है ....

    इलाहाबाद की अधूरे इश्क की अधूरी कहानी टुकड़ों में तो कई बार लिख चुके आप , कभी पूरा फ़साना भी लिख डालिए , बीमारी जड़ से चली जाएगी !

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  19. काफी हाउसों की बात ही कुछ और होती है चाहे वह इलाहाबाद में हो या दिल्ली में... यह बात दीगर है कि अब शायद समय ही नहीं बचता वहां जाने और बतियाने का...

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  20. मित्रों से मिलना और पुरानी जगहों पर जाना हमेशा दिल को सुकून देता है। अब हम भी फ़ेसबुक पर अपना कार्यक्रम प्रकाशित कर दिया करेंगे जिससे कोई अप्रत्याशित सी मुलाकात संभव है।

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  21. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  22. इलाहाबाद की याद दिलाकर आपने भावुक कर दिया। वहाँ के लिए आज का ही आरक्षण कराया था लेकिन सीट दो नंबर वेटिंग पर जाकर रुक गयी। अब वैकल्पिक रास्ते से लखनऊ जाऊंगा।

    अबतक कॉफी हाउस में जाकर बैठने का सौभाग्य नहीं उठा सका। अगली बार जरूर कोशिश करूँगा।

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  23. @भरी दुपहरी की जलन के बाद एक पुरसकूं शाम मेरा इंतज़ार कर रही थी.....लौट कर तो आना ही पड़ता है , न? ...कितनी त्रासद जन्य बात है यह !!!!

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  24. @विचार शून्य और वाणी जी,
    आपने जैसी अनुभूति की बात की है उसे ही डेजा वू कहते हैं -
    पोस्ट में दिए लिंक से कृपया इस पर विस्तार से जानने के लिए पोस्ट तक जायं !

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  25. @..................जाहि अनादि अनन्त अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावें....
    वैसे इस प्रश्न को प्रो.टी पति जैसे विद्वान् से पूछा भी जा सकता था.,बाकियों से ऐसी वार्ता का मतलब ही हास्य होता.
    इलाहाबाद की काफी हॉउस का अपना दौर था,अब वो रंगत नहीं है.
    आपके इस यात्रा प्रसंग नें इलाहाबाद से जुड़े कई प्रसंगों को मेरे मन में भी जीवंत कर दिया.

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  26. ढाई दशक बाद जिस स्थान का अवलोकन करेंगे तो जामिया वू का एहसास लाजिमी है. मैं भी जब भी बनारस आता हूँ तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का वातावरण यही एहसास दे जाता है.
    मौसा जी के हिदायत और मंतव्य शायद समान नहीं रहे होंगे.... आखिर खिड़की खोल ही दी थी आपने.
    रोचक शैली के संस्मरण ने इलाहाबाद यात्रा की इच्छा बढा दी है.

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  27. मज़ा आया पढ़ कर, यहाँ तो अपनी भी बड़ी यादें जुडी हैं. और भाई ब्लॉगर लोगों का क्या कहना, ना बताया तो शिकायत और बताया तो ग़ायब. चलिए आपने अपना फ़र्ज़ तो पूरा किया.

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  28. टाइम ट्रेक का यह अनुभव भी खूब रहा.. ३० सालों टक हमने भी झेली है यह गर्मी और वो ठण्ड जिसका आपने ज़िक्र भर किया. वो कोफी हाऊस हमारे घर के करीब था.. कई यादें भी ताज़ा हो आयीं..

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  29. हम फ़ेस बुक पर नहीं जाते वर्ना आबे हयात से अच्छी चीज़..... यानि मिरांडा का झटका दे देते :)

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  30. महफ़िल में तेरी लौट के फिर आ गया हूँ मैं ,
    शायद मुझे निकालके पछता रहें हैं आप .

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  31. देखिये साहब.. आप ने काफी पी रखी थी, यदि थोड़ी पी होती तो माज़रा समझ में आता ।
    प्रोफ़ेसर साहब का कृत्य बड़ा गूढ़ होकर भी नहीं है, वह नये तरह के सँयोगवाद पर एकालाप कर रहे होंगे ।
    कॉफ़ी पीने की तलब में वह कोई साथी ( पढ़ा-लिखा ) तलाश रहे होंगे, ईश्वर को याद कर ( कोस ) रहे होंगे ।
    अचानक आपने अवतरित होकर यह प्रश्न पूछा और यह भी सिद्ध कर दिया कि ईश्वर होते हैं, और आप दूत हैं ।
    अपनी मौन वँदना के साथ उन्होंनें आगत को सप्रेम जिमाया, मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया, और विदा हो लिये ।
    घर जाकर उन्होंने तत्काल सँयोगवाद में एक अध्याय और जोड़ दिया होगा, सँयोगों में ऎश्वरिक इच्छा का महत्व ।
    ईश्वर के सम्बन्ध में आपका प्रश्न आपके जमिया वू को दर्शाता है, आप नकार रहे हों और उसने आपको भरपेट खिलाने का अवसर दे अपनी सत्ता सिद्ध कर दी ! निष्कर्ष आपके जमिया वू पर प्रोफ़ेसर का डेज़ा वू भारी पड़ा या यूँ समझिये कि सँयोगों .. खैर छोड़िये आप नहीं समझेंगे ।

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  32. किस्साये हुस्नपरी को छोड़कर आपको ईश्वर चर्चा करनी पड़ी। क्या दिन आ गये हैं। :)

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  33. @किस्साये हुस्नपरी को छोड़कर आपको ईश्वर चर्चा......

    bhavishya ke prati koun nahi chintit
    hota hai.....

    anandam...anandam...

    pranam.

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  34. सिविल लायंस(जार्ज टाउन)की याद दिला कर हमें भी डेजा वू करा दिया आपने!

    एक सरोजनी नायडू गर्ल्स होस्टिल, तेलियागंज में भी हुआ करता था ! अब भी हो शायद!!

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  35. 'वही मरहले वही जलन 'न दबी है न दबेगी। ईश्वर के वारे मे मौन ही उनका जवाब था
    विषयांन्तर हो जाने देते साहब अच्छा लग रहा था पढने में ।
    ये आबे हयात क्या होता है सरजी । क्या चाय से कहते है?

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  36. @अनूप शुक्ल जी ,
    अब ईश्वर ही कल्याण करे
    @अब भला हम कैसे समझेगें जब आप समझाएगें !:)
    @बृजमोहन जी ,
    सर चाय नहीं सुरा को कहते हैं आबो हयात :) जान जान कर भी अनजान बन रहे हैं !
    और वो फ़साना फिर कभी ...आते रहिएगा ....

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  37. झलक दिखलाकर, विषयांतर कह कर विषय पर लौट आना ठीक बात नहीं है :)

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  38. आनंद आ गया यात्रा वृत्तांत पढ़कर..रिश्तों की हकीकत जानकर भी ...

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  39. बड़ा आनंददायक वर्णन रहा.. एकदम नॉस्टैल्जिक टाइप.. कॉलेज के दिनों कि बात ही और होती है...

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