शनिवार, 26 जून 2010

अभी अभी बाबा भोलेनाथ की आरती से लौटा हूँ !

अब अनुज से क्या डाह मगर कभी कभी गिरिजेश जी के आलस्य से जबरदस्त ईर्ष्या हो उठती है ...सारा आलस्य अपने में स्थित   और स्थिर किये वे बाकी हम निरीह संसारियों को लास्य (ता) के नर्तन में   झोक दिए हैं ...अब देखिये न कल सुबह दस बजे से निरंतर राजकीय  कामों में लगे होकर एक फील्ड विजिट और जांच पड़ताल से उबर कर रात साढ़े बारह बजे जब घर लौटा तो  मेरे पास कुल डेढ़ घंटे का आराम का समय बचा था  ..क्योंकि उसके बाद अपने दो लंगोटिया मित्रों  ..एक अमेरिका से आये डॉ प्रदीप सिंह और दूसरे सुल्तानपुरी डॉ.आर. ऐ. वर्मा को सपरिवार बाबा विश्वनाथ की  मंगला आरती में शरीक कराना  था ....सो एक घंटे सो भी लिया और फिर तैयार हो गया ड्यूटी के लिए ....घर से निकल कर रेडिसन होटल से मैंने मित्रों को लिया और बाबा के दरबार में अल्लसुबह हाजिरी लगा दी ....सुबह के पौने तीन बजे थे ....बाबा भोले नाथ की मंगला  आरती शुरू हो चुकी थी ....सुबहे बनारस का नैसर्गिक आनंद और तिस पर बाबा की मंगला आरती ....क्या कहिये ..इस आनंद का वर्णन  शब्दों में तो हो ही नहीं सकता ....

बताता चलूँ कि बाबा भोलेनाथ की चौबीस पहरों में कई आरतियाँ होती हैं ....सबसे पहली आरती होती है मंगला आरती ...सर्वतो भद्र कामना से बाबा का प्रातःकालीन अभिषेक पूरे  बाजे गाजे और बधाई गान के साथ होती है और उसके बाद मंदिर आम दर्शनार्थियों के लिए खुल जाता है ...आरती देखने के लिए प्रति व्यक्ति २०१ रुपये का टिकट है ...फिर साढ़े ग्यारह बजे बाबा की भोग आरती होती है ...उनका भोग लगता है जो दर्शनार्थियों में बटता है . बाबा के भोग तृप्ति के बाद चराचर में भला अतृप्त कौन रह सकता है ....मुझे सबसे भव्य ,खूबसूरत आरती सप्तर्षियों द्वारा शाम ढलते ही की जाने वाली सप्तर्षि   आरती  लगती है ..जिसकी  भव्यता और श्रृंगार अलौकिक है ....और सौन्दर्यबोध की ऐसी आकंठ तृप्ति कि मत कुछ पूछिए ..इसके पश्चात एक और श्रृंगार आरती और रात ११ बजे शयन आरती के बाद मंदिर कपाट बंद हो जाते हैं मंगला आरती के लिए ..
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 आप भी प्रात दर्शन कीजिये बाबा विश्वनाथ जी के ...
तो आज हम मंगला आरती से सीधे लौटकर आपसे रूबरू हो गए हैं ...साढ़े चार बजे लौटा हूँ और अब इस समय साढ़े पांच बज रहे हैं ....नीद आँखों से कोसो दूर है और साढ़े आठ बजे फिर दोस्तों के साथ नाश्ता करना मुक़र्रर हुआ है ...अब मैं गिरिजेश  जी (गिरिजा +ईश ) से डाह न भी करुँ तो आखिर कैसे ....? मगर वे बहुत भोले हैं इसका तनिक भी माख न रखेगें !
गिरिजेश जी और प्रिय बेनामी के अनुरोध पर कबाडखाना पर पंडित पद्म भूषण छन्नूलाल  मिश्र जी के सुर  में तुलसीदास कृत और मुझे भी बहुत प्रिय स्तुति का लिंक यह है ,आप भी जरूर सुनिए ...

गुरुवार, 24 जून 2010

इस मनभावने गीत में सौदाई का अर्थ क्या है ?यह पोस्ट उर्दू की कम जानकारी वाले दोस्तों के लिए है !

मुझे क्लासिकल ज्यादा अच्छे  लगते हैं मगर कभी कभी कोई सुगम गीत संगीत भी मन  में गहरे पैठ  जाता है जैसे कि दो चार दिनों से फिल्म जोशीला का यह गीत -किसका रस्ता देखे ऐ दिल ऐ सौदाई .....मन  में गूंजता जा रहा है -किशोर कुमार की जादुई आवाज ने इस ग़ीत की तासीर और भी बढा   दी है ..मेरी सिफारिश पर इस गीत का वीडियो आप तनिक देखिये और इस यादगार गीत में थोड़ी डेर डूबिये ना! तब मैं कुछ निवेदन और करुँ ! नहीं नहीं पहले गीत को सुन आईये प्लीज! हाँ तो आगे बढ़ते हैं हम ...आप पर विश्वास करके कि आपने मेरा विश्वास नहीं तोडा होगा और अब तक गीत सुन लिए होंगे मैं अब  कुछ आगे अर्ज करता हूँ -इस मनभावने गीत में सौदाई का अर्थ क्या है ? देखिये यह गीत आप पहली बार  थोड़े ही सुन रहे/रही  हैं ,कितनी बार पहले भी इस गीत ने आपको यादों की वादियों में पहुंचाया होगा -क्या कभी भी आपके मन  में नहीं आया कि सौदाई का मतलब क्या है ? ..तो आज हम आपसे पूछते हैं सौदाई माने क्या ? नहीं नहीं डिक्शनरी नहीं ऐसे ही बताईये न ..बाद में तो हम इस शब्द की व्याख्या कर ही देगें ...चलिए बताईये !

उर्दू भाषा- साहित्य के अनेक शब्द है जिन्हें हम अक्सर सुनते हैं  और इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते मगर सही अर्थ नहीं मालूम होता जबकि बिना जाने किसी भी भाषा के शब्द का गलत इस्तेमाल बहुत हास्यास्पद हो सकता है और बड़ी शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ सकती है ..इसलिए जिस शब्द के बारे में आपको पक्का पता न हो उसे इस्तेमाल में न लायें -रोब गांठने और इम्प्रेसन जमाने के लिए तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि तब तो आपकी अज्ञानता और भी आपकी इज्जत खराब कर सकती है ....कहीं आप मेरी बात को मानने  से इनकार तो नहीं कर रहे तो चलिए लगे हाथ  उर्दू के इन शब्दों का भी  अर्थ तो बताते चलिए ...
रुसवाई ,इरशाद , इस्तकबाल ,सनम,उल्फत ,कयाम ,कफस ,बागबाँ,यल्गार,मजरूह   

चलिए आम बोलचाल और फिल्मो से लिए ये दस शब्द आज आपके  उर्दू शब्दज्ञान  की परीक्षा के लिए हैं ......सूक्ष्म भावनाओं के इज़हार में इस जुबान की कोई सानी नहीं ...तो क्यों न हम उर्दू का शब्द ज्ञान बढायें ..आज से यह नई श्रृंखला शुरू हो रही है मगर नियमित नहीं यदा कदा ही आपको  उर्दू शब्दों की चर्चा को आमंत्रित करेगी ....

मैं सौदाई के साथ ऊपर के दस शब्दों का अर्थ आपसे जानने को बेकरार हूँ .....

बुधवार, 23 जून 2010

प्रकाश झा की राजनीति -कहीं की इंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा!

मैंने 'राजनीति' देखी -प्रकाश झा की राजनीति -कहीं की इंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा...कुछ महाभारत के पात्रों के किरदार लेकर उन्हें मौजूदा हालातों पर आरोपित कर दिया तो कुछ दृश्य सरकार से ले मारा और राजनीति की जिस गंदगी को बच्चा बच्चा जानता है उसकी छौंक लगायी और कुछ कांग्रेसी राजनीति के परिवारवाद का तड़का -लीजिये हाजिर है फिल्म राजनीति ...फिल्म कुछ मौलिक दिखाने के नाम पर बुरी तरह झोल खा गयी है ..हैरत होती है कि इसी निर्देशक ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर दामुल ,अपहरण और गंगाजल जैसी बेहतरीन और दर्शकों को बांधे रहने वाली फिल्मे निर्देशित की हैं ....मगर उनकी "राजनीति" निराश करती है .

किसको नहीं मालूम है राजनीति में गुंडे- माफिया हावी है ,उद्योगपतियों और नेताओं की गठजोड़ हैं ,टिकट लेने के लिए अपने जमीर और शरीर का सौदा करने वाली 'आधुनिकाएं' है ,पग पग पर शोषण है ....अब क्या यही देखने दर्शक सिनेमा घर तक जाएगा ? नया क्या है ? आश्चर्य इस पर भी होता है कि एक योग्य निर्देशक इस बार कलाकारों से उनकी प्रतिभा के मुताबिक़ समुचित काम भी  नहीं ले पाया है नाना पाटेकर (कृष्ण सरीखा रोल ) ..अजय देवगन  (फिल्म में कर्ण सरीखी भूमिका  )  जैसे प्रतिभाशाली कलाकार थोपे हुए से लगते हैं उनकी अभिनय प्रतिभा दबी ही रह गयी है ,फिल्म में गाने नदारद हैं ....कुछ क्लासिकल संगीत की बंदिशें टाट में मखमली पैबंद की माफिक पैबस्त कर दी गयी हैं ..थोपी हुई सी और फिल्म के दृश्य और घटनाक्रम से समुचित संयोग न बिठा पाने के लिए हास्यास्पद लगती हैं ...कहीं कहीं तो ऐसे दृश्यांकन है जो बेहूदगी भरे भी है ...

कामवासना के दैहिक घृणित रूप -दृश्यों को फिल्म ने बार बार  हाईलाईट कर न जाने कौन सी कलात्मकता दर्शायी है या दर्शकों के न जाने किस  तबके को ललचाने की कोशिश की है ...कुल मिलाकर प्रकाश झा की यह नई प्रस्तुति बहुत निराश करती है !

चलिए ढाई स्टार दे देते हैं! नहीं सिफारिश तो बिलकुल  नहीं..आप अपना पैसा  और समयकहीं और लगायें !

गुरुवार, 17 जून 2010

गृहिणी -लक्ष्मी ,सरस्वती या दुर्गा ? एक परिशिष्ट चिंतन!

पिछली पोस्ट गृह लक्ष्मी ही क्यों गृह सरस्वती क्यों नहीं पर खूब चिंतन मनन हुआ! विद्वान् ब्लागरों ने एक से एक नायाब और दुर्लभ संदर्भ दिए ..मनुस्मृति तक से उद्धरण दिए गए -गृहिणी को लक्ष्मी माने जाने और कहने की परम्परा बहुत पुरानी लगती है .दूसरी देवियाँ भी हैं मगर गृहिणी  लक्ष्मी के रूप में साक्षात है .प्रवीण जी ने चुटकी ली -दुर्गा पर भी विचार कर लिया जाय .मुझे अपने युवा -काल की याद आ गयी -मेरे एक मित्र जो आज एक नामी गिरामी वकील हैं की शादी जिस कन्या से तय हुई उनका नाम दुर्गा ही था ....बड़े धूम धाम से शादी हुई थी ..बलिया से आसाम तक का रिश्ता जुड़ गया था ...बाद में रोजी रोटी के चक्कर में मित्र गण अलग थलग हो गए -कई वर्षों बाद मेरे वे मित्र अचानक कहीं दिखे तो कुशल क्षेम के क्रम में मैंने उनसे भाभी का हालचाल पूछा तो वे अनमने हो गए -गहरा निःश्वास ले के बोले मिश्रा जी वे तो यथा नामो तथा गुणों ही थीं -हमारा तलाक हो गया है ...तो दुर्गा की छवि गृहिणी के रूप में लोकमानस में स्वीकार्य नहीं -वे प्रातः स्मरणीया हैं ,शक्ति की अधिष्टात्री हैं मगर पत्नी के रूप में स्वीकार्य नहीं -कौन चाहेगा एक रणचंडी स्वरूपा पत्नी ? तो दुर्गा देवी तो घर से आउट! वे केवल और केवल माँ के रूप में ही स्वीकार्य हैं ! 

सरस्वती और दरिद्रता का चोली दामन का साथ रहा है -वे विपन्न साहित्यकारों ,सृजनकर्मियों ,रचनाकर्मियों पर ही उदार रहती आई हैं -अब भले ही बौद्धिकता को संपत्ति का दर्जा दे  दिया गया हो मगर सम्पत्ति से केवल लक्ष्मी का ही आदिम रिश्ता रहा है -अगर कोई सर्वे किया  गया हो या फिर फिर किया जाय तो बार बार यही तथ्य उजागर होगा कि लक्ष्मी रुपायें आँख के अंधे और गांठ के पूरे का ही वरण करने को उद्यत रहती हैं -जीर्ण शीर्ण विपन्न को भला कौन लक्ष्मी चुनना चाहेगी ? और पहले से ही सरस्वती कृपा पात्र कोई भी सुयोग्य वर भी क्यों दरिद्रता की द्योतक सरस्वती की चाह रखेगा ! भले ही सौतिया रार ठनती रहेगी मगर पत्नी के रूप में लक्ष्मी ही आज भी पहली पसंद हैं ..कुछ विचार यह भी आये कि आज सरस्वती और लक्ष्मी का समन्वयन जरूरी है -अच्छा विचार है ,मैं भी इससे अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ ! मगर कोई परफेक्ट समन्वयन तो संभव नहीं है या तो सरस्वती का भाव अधिक होगा या फिर लक्ष्मी का ...लक्ष्मी भाव प्रबल हुआ तो वह धनाढयता की चाह करेगीं और सरस्वती भाव प्रबल हुआ तो वह बौद्धिकता की चाहना  करेगीं -दूसरी स्थिति ज्यादा लोगों के लिए कई कारणों से स्वीकार्य नहीं रही है -एक घर में पहले से ही सरस्वती का वरद हस्त प्राप्त भला दूसरी सरस्वती क्यों चाहेगा ? फिर तो दरिद्रता और भी हावी होती जायेगी !इसलिए जनमानस में गृहिणी सरस्वती नहीं लक्ष्मी की ही प्रतिमूर्ति बनी रही है ..सरस्वती के वरण से रोज रोज कौन वाद विवाद खिच खिच पसंद करेगा ..उभय पक्ष की शांति समृद्धि केवल लक्ष्मी की ही कृपा से संभव है !

लक्ष्मी की एक और रूढ़ छवि भी जनमानस को आनन्दित करती रही है -उनका सेवा भाव! धन धान्य से पूर्ण घर में आराम की जिन्दगी और सेवा रत पत्नी किसी भी के लिए एक आदर्श /यूटोपिया सदृश ही है -जैसे क्षीरसागर में शयन करते विष्णु का पैर दबाते अनन्य सेवा भाव में डूबी लक्ष्मी का चित्र दिमाग में हमेशा कौधता रहता है ...इस कारण भी पत्नी लक्ष्मी स्वरूपा हुईं ...भला किसी ने सरस्वती को कभी ब्रह्मा का पैर दबाते देखा है ? मगर आज सामाजिक जीवंन के प्रतिमान बदल रहे हैं -आज सरस्वती लक्ष्मी प्राप्ति का जरिया बन रही हैं ....आज पति की चड्ढी बनियान साफ़ करने के पारम्परिक  सेवा भाव का तिरोहन भी स्पष्ट दीखने लगा है ...कुछ भी हो लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही स्वीकार्य हो सकती हैं ..मगर देवी दुर्गा को घरेलू झमेले में खींचना ठीक नहीं है वे रण की ही चंडी बनी रहें .....शक्ति रूपा बन लोक मंगल का मार्ग निर्विघ्न बनाए रहें बस! 

 या देवी सर्वभूतेषु गृहिणी रूपेण संस्थिता नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः 

ब्लॉग जगत में भी यह रायशुमारी करा लेने में कोई असंगत बात नहीं लगती कि एक गृहिणी के रूप में नारी आज लक्ष्मी के पारम्परिक रूप में रहकर आँख के अंधे गांठ के पूरे को अपना पहला पसंद देती है या फिर किसी बुद्धिजीवी को तरजीह देगी ? उसी तरह पुरुषों में कितने लोगों की पसंद लक्ष्मी और कितनो की सरस्वती होंगीं ? अपना विचार व्यक्त करें न !

मंगलवार, 15 जून 2010

गृह लक्ष्मी ही क्यों, 'गृह सरस्वती' क्यों नहीं ?

कभी कभी मन में कुछ बातें ऐसी उलझती हैं कि सुलझाए नहीं सुलझतीं बल्कि और उलझती  चली जाती हैं .यह आज की उलझन भी ऐसी है -गृह लक्ष्मी ही क्यों,  'गृह सरस्वती' क्यूं नहीं ? हम पत्नी को गृह लक्ष्मी क्यों कहते आये हैं और प्रकारांतर से उल्लू होने का बोझ उठाये रहे हैं! पत्नी को लक्ष्मी  का दर्जा देते ही चिरकालिक  उल्लू होना पति की नियति बन जाती है . शायद ही कोई बुद्धिमान पति इस बात से असहमत होगा कि अपनी पत्नी के चयन के मामले में वह उल्लू न बना हो ...चाहे  यह चयन खुद उसके द्वारा किया गया हो या फिर सामजिक व्यवस्था के चलते उस पर यह थोप दिया गया हो -दोनों ही मामलों  में उसे यह समझने में ज्यादा दिन नहीं लगता कि वह उल्लू बन बैठा है या उसे बनाया जा चुका है! .वैसे लोग लुगायियाँ  यह भी दलील देगीं कि सरस्वती तो आखिर माँ तुल्य हैं उन्हें पत्नी के रूप में भला कैसे देखा जा सकता है ? मगर यह एक लचर तर्क है क्योंकि सभी देवियाँ हमारी माँ तुल्य ही हैं ...
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मेरी एक मित्र ने एक निजी (चैट ) चर्चा के दौरान कहा कि पत्नी को सरस्वती कहने में ख़तरा यही है कि फिर उन्हें ज्यादा बुद्धिमान मानना होगा जो पुरुष अहम् को गवारा नहीं है .दरअसल यह लक्ष्मी चिंतन कई पहलुओं को समेटे हुए हैं जिसमें एक आम भारतीय के  पारिवारिक जीवन ,उसकी सामजिक मान्यताएं ,पूजा उपासना पद्धति और पुरनियों की सोच और पारिवारिक -सामाजिक व्यवस्था ,मिथकीय चिंतन  के भी कई रोचक सूत्र समाये हुए हैं ....अगर लक्ष्मी घर में  हैं तो फिर सरस्वती भी तो कहीं निकट ही होंगीं जहाँ एक पति मन खुद को राजहंस मानने की अनुभूति से प्रमुदित भी होना चाहता होगा  ? मुझे यही लगता है कि जीवन भर उल्लू बने रहने की मानसिकता से उबरने का भी हर पति -मन कभी न कभी जरूर प्रयास करता है  -पल भर के लिए ही वह राजहंस होने ,नीर क्षीर विवेक की क्षमता से युक्त होने को मचलता है लिहाजा किसी सरस्वती को खोजता फिरता है ....और यह एक शाश्वत खोज है ...पति के लिए .चरैवेति चरैवेति किस्म की ....

पति की एक और चालाकी भरी सोच हो सकती है -वह पत्नी को लक्ष्मी का संबोधन देकर प्रकारांतर से खुद को विष्णु बन जाने की खुशफहमी पालता हो ...महज इस अर्थ में कि विष्णु बहुत सुन्दर और मोहक व्यक्तित्व के स्वामी हैं ..कहते हैं समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी ने विष्णु का वरण ही इसलिए किया कि वे सर्वांग सुन्दर थे ..मौके पर इतना सुन्दर वहां कोई और नहीं था ...तो ज़ाहिर है पत्नी को लक्ष्मी मानने  मात्र से खुद को सुन्दर होने की सुखानुभूति पतियों को सहज ही मिल जाती हैं ..मगर एक बात मुझे यहाँ व्यथित करती है -संस्कृत के एक श्लोक का भाव यह है कि -पुरुष पुरातन की प्रिया क्यों न चंचला होय ? मतलब लक्ष्मी का मन स्थिर नहीं रहता,गति भी स्थिर नहीं है  -हमेशा चंचल है -कहीं पत्नी को लक्ष्मी की संज्ञा से विभूषित कर पति का सहज संशकित मन उस पर  हमेशा सजग दृष्टि की आवश्यकता की इन्गिति तो नहीं करता ? पति पुरनिया बेचारा कहीं किसी और सुदर्शन पुरुष के चलते बेसहारा और निरीह न हो उठे ! इसलिए ही वह पत्नी को लक्ष्मी का नामकरण देकर शाश्वत सजगता का उपाय कर बैठा हो ! 

जो भी हो लक्ष्मी और सरस्वती के फेर में पुरुष का जीवन बीत जाता है -लक्ष्मी स्वरूपा पार्वती जी सरस्वती रूपा माँ गंगा से सौतिया डाह रखती हैं क्यों कि शंकर जी गंगा जी को हमेशा सिर चढ़ाये रहते हैं -खुद तो आदि देव गंगा -संयुक्ता हो लिए मगर अपनी संतति पुरुषो को केवल लक्ष्मियों के सहारे ही छोड़ गए -भोले बाबा ये आपकी कैसी फितरत है ? खुद लक्ष्मी और सरस्वती को एक साथ साधे बैठे हैं और हमें केवल लक्ष्मियों के ही रहमो करम पर छोड़ बैठे हैं ..बहुत बेइंसाफी है यह ...

लक्ष्मी और सरस्वती चिंतन में आपके विचार आमंत्रित है! .

रविवार, 13 जून 2010

मेरे ही बुकशेल्फ में छुपा था उन्मुक्त जी के प्रश्न का जवाब!

उन्मुक्त जी ने गणित विषय को लेकर अपनी यह रोचक पोस्ट लिखी तो एक  श्लोक भी उधृत किया और उसका स्रोत पूछा -
श्लोक  है -
यथा शिखा मयूराणां नागानां मण्यो यथा।
तथा वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्।।
जिस तरह से,
मोरों के सिर पर कलगी,
सापों के सिर में मणियां,
उसी तरह विज्ञान का सिरमौर गणित।।
अपने ब्लोगवाणी के मैथिली जी  ने  फौरी मदद पहुंचाई ....मगर अब उन्मुक्त जी की उत्सुकता और बढ गयी ...उन्होंने इस श्लोक के बारे में और जानकारी जाननी चाही ..मुझ नाचीज को भी किसी काबिल समझ कर उन्होंने मेल किया ...जाहिर है यह मुझसे सम्बन्धित विषय नहीं है तब आखिर मैं कैसे मदद करता ..मैंने अपनी जान छुडाने की नीयत से कुछ नामों की सिफारिश कर दी और अपने दायित्व की इतिश्री मान  ली ..मगर सुवरण को खोजत फिरत वाली अपनी दीवानगी ने मुझे अपने बेतरतीब बुक शेलफ़  को खंगालने  को विवश कर दिया ---रात के कुछ नीरव पल इस खोज की भेंट चढ़ गए . ..

..और मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैंने उक्त श्लोक के मूल स्रोत को ढूँढने में सफलता पा ली ...और अल्लसुबह पहला काम किया उन्मुक्त जी को इस खुशखबरी को मेल से भेजने का ...आप भी ज्ञान लाभ  करें ....
उन्मुक्त जी ,
ज्योतिष पर अपने बुक शेल्फ  को खगाला तो ये जानकारियाँ मिलीं हैं -
ज्योतिष, जो (ऋग्वेद एवं यजुर्वेद )का वेदांग है ,केवल ज्योति: शास्त्र संबंधी बातों से सम्बन्धित था .वेदांग ज्योतिष (यजुर्वेद का ,श्लोक ३,४ ) में आया है ,'वेदों की उत्पत्ति यज्ञों के प्रयोग के लिए हुई :यग्य कालानुपूर्वी हैं अर्थात वे काल के क्रम के अनुसार चलते हैं :अतः जो कालविधान शास्त्र को जानता है वह यज्ञों  को भी जानता है .जिस प्रकार मयूरों के सिर पर कलंगी होती है ,नागो (सर्पों )के सिर पर मणि होती है ,उसी प्रकार गणित(ज्योतिष )  वेदांग शास्त्रों का मूर्धन्य है. " इससे प्रकट है कि उस समय गणित और ज्योतिष समानार्थी शब्द थे (संदर्भ -धर्मशास्त्र का इतिहास ,भारत रत्न ,महामहोपाध्याय ,डॉ .पांडुरंग वामन काणे ,अनुवादक -अर्जुन चौबे काश्यप ,चतुर्थ भाग ,अध्याय १४ ,हिन्दी समिति ,उत्तर प्रदेश ,प्रथम संस्करण १९७३ ,पृष्ठ ,२४४)
इससे यह इंगित होता है कि प्रश्नगत श्लोक का स्रोत यजुर्वेद है ..कालान्तर में भारतीय ज्योतिष की प्राचीनतम प्रामाणिक पुस्तक "वेदांग ज्योतिष" जो महात्मा लगध द्वारा ६०० ईशा पूर्व रची हुई है में ज्योतिष का प्रमुख विषय ही काल गणना है इसी के एक श्लोक में यह भी  बताया गया है -वेदांग शास्त्रानाम ज्योतिषम (गणितं )मूर्धनि स्थितम (वेदांग में गणित ज्योतिष का स्थान सबसे ऊंचा है ...)   (संदर्भ ;गुणाकर मुले ,कादम्बिनी, नवम्बर २००४,पृष्ठ, ७८-83)

....आगे चलकर बनारस में जन्मे पंडित सुधाकर द्विवेदी (1860-1922) जो गणित ज्योतिष के प्रकांड  विद्वान्   थे ने लगता है कि 'याजुष ज्योतिषम " में यजुर्वेद के  ऊपर वर्णित  चौथे श्लोक को उधृत किया है और अनुवाद किया है !(मेरा निष्कर्ष !)

मुझे लगता है यह संक्षिप्त जानकारी सटीक और पर्याप्त है !अब तो मेरी पर्याप्त रूचि ज्योतिष में हो गयी है -मतलब गणितीय ज्योतिष के इतिहास में .दरअसल  प्राचीन ज्योतिष -अस्ट्रोनोमी ही थी जैसा कि उन्मुक्त जी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा  है बाद में वह फलित और पोथी पत्रा में  बदलती  गयी  और ज्ञान की एक संभावनाशील शाखा यहाँ छीछालेदर का शिकार हो गयी  .... ....बहुत आभार उन्मुक्त जी...बहुत संभव है आपके इस अहैतुक स्नेह से मेरी भविष्य की कई पोस्ट  का जुगाड़ हो जाय .....

शनिवार, 12 जून 2010

देवदूत नहीं है मनुष्य ....!

इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य प्रकृति की एक सुन्दरतम संरचना है -मगर वह देवदूत है ऐसा नहीं माना जाना चाहिए!  वह स्वर्ग से अवतरित कोई फ़रिश्ता नहीं बल्कि करोड़ों वर्षों के जैविक विकास से उद्भूत एक सामाजिक और 'सांस्कृतिक ' पशु ही है -जब यह बात १५० वर्ष पहले चार्ल्स डार्विन की महान कृति -"ओरिजिन " ने असंदिग्ध रूप से सामने रखी तो सारे संसार में तहलका मच गया -पादरियों ने डार्विन का घोर विरोध किया -"भला ईश्वर की बनायी गयी सृष्टि की एक बेहतरीन कृति के बारे में  ऐसा घृणित विचार " को लोग सहन भी कैसे कर सकते थे.पूरे ६ दिन में सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर ने आखिर मनुष्य को अपने हाथो से अपनी खुद की प्रतिकृति (इमेज ) के रूप में बनाया  था और उसकी एक पसली से उसकी सहचरी को भी उपजा दिया था -डार्विन के  सिद्धांत से इस स्थापना की धज्जियां उड़ चुकी थी ..मगर धर्म के ठेकेदारों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को  मानने में एक सदी से भी अधिक समय गुजार दिया! यह एक ज्ञात इतिहास है! च्राल्स डार्विन बहुत विनम्र और खुद कभी वाद विवाद में नहीं पड़ते थे मगर जूलियन हक्सले ने पादरियों से लोहा लिया -वे डार्विन के बुलडाग माने जाते थे .कभी कभी मुझे लगता है मुझमे जूलियन हक्सले की आत्मा प्रविष्ट हो गयी है ...



मुझे जो बात सबसे बुरी लगती है वह है पढ़े लिखे लोगों की मूढ़ता और अज्ञानता जनित हठधर्मी ...ऐसे लोग समाज के लिए ज्यादा घातक है ..भोली भाली  समझ के सीधे सादे लोग तो क्षम्य हैं मगर अधकचरे ज्ञान के पोंगापंथी समाज को गुमराह करते  रहते हैं ...और वे हैं तो सर्वथा तिरस्कार के योग्य मगर लोकतंत्र में सब की गुजर बसर हो जाती है... आज हिटलरवाद  का पुनर्जागरण हो रहा है तो इसके निहितार्थों को भी समझना होगा ....बार बार यह बात समझी और समझाई जानी चाहिए कि मनुष्य एक विकसित पशु ही है -जितनी  भी मूल पाशविक वृत्तियाँ है मनुष्य में ऊर्ध्वाधर जैवीय विकास के चलते उच्चतम बिंदु पर  है -आक्रामकता ,कामुकता ,क्षेत्रवाद -इन तीन वृत्तियों का पूरा परिपाक मनुष्य में आकर हुआ है और जाहिर है इनसे जुडी विसंगतियाँ भी इसी में चरम पर हैं ! उदाहरण ? क्या पशु बलात्कार करते हैं ? क्या किसी पशु ने अपने ही किसी कबीले का समूल नाश किया ? याद करिए नागासाकी हिरोशिमा!  पूरा महाभारत केवल मेड़ -डांड की ही लड़ाई थी -जाहिर है पशु इतना हिंस्र नहीं है -लगता है इसलिए ही प्रकृति ने मनुष्य की चरम और निर्द्वंद्व  पाशविकता पर अंकुश लगाने के लिए  उसके एक नए तरीके के विकास -सांस्कृतिक विकास की कवायद शुरू की  मगर उसकी जड़ें अभी ज्यादा गहरी नहीं है -अभी २० -२५ हजार वर्ष पहले तक तो  आदमी गुफाओं में रहता था -जैवीय विकास के स्केल पर यह समय चंद सेकेण्ड  से भी अधिक नहीं है -आशय यह कि उसकी जैविकता आज भी उस पर हावी है -उसकी सांस्कृतिक चमक "स्किन डीप " भी नहीं है .....वह सभ्यता के  कथित खोल में पशु आचरण से सर्वथा मुक्त नहीं हुआ है ! 

आज जरूरत इस बात है कि मनुष्य के अंदर बैठे कपि के  वजूद को न तो झुठलाया जाय और न ही दुलराया  जाय और न ही उसे चुनौतियां दी जायं ! वह किसी भी मौजूदा वनमानुष -गोरिल्ला ,गिब्बन ,ओरांगुटान ,चिम्पान्जी और एक सैकड़ा दूसरे कापियों  से किसी भी मामले में   कमतर नहीं है -अधिक हिंस्र है ,अधिक कामुक है ,साल भर प्रजनन करता है ,अगम्यागम्य  तक का दोषी बनता है .....आदि आदि ...उसकी  असलियत की नासमझी ही कितने ही सामाजिक समस्याओं की मूल में है .

खुद को जानो तुम्हे पशु और मनुष्य का फर्क समझ में आ जायेगा ! हाँ मनुष्य अधिक प्रत्युपकारी भी है ,वंश रक्षा की भावना उसमें उच्चतम है ,स्वामिभक्त भी है (मगर जरा कुत्ते से फर्क  करके देखिये! ) - साथ ही  सबसे बड़ा धोखेबाज ,अहसानफरामोश और स्वजाति नाशी भी है ...कहा न कि हर जैवीय आचरण उसमे उत्स पर है! बच के रहना रे बाबा ....
(यह श्रृंखला गाहे बगाहे चलती ही रहेगी ....)

गुरुवार, 10 जून 2010

...समीरलाल जी ने किया नेहरू जी के फार्मूले में संशोधन .....!

आज कुछ भी तो ऐसा नहीं था कि यहाँ लिखा जाय .मगर तभी निगाहें पडी पर शब्द शिखर के इस ब्लॉग पोस्ट पर  जिसमें  सत्तर वर्ष में भी युवा बने रहने का नुस्खा दिया गया है .आप उस पोस्ट को पहले पढ़ लें ..फिर यहाँ आगे पढ़ें -बात नेहरू जी की है जिनसे किसी सज्जन ने पूछा कि उनके चिरयौवन का राज क्या है -नेहरू जी ने त्रिसूत्री फार्मूला गिना दिया -
१-पहला बच्चों से प्रेम करो -उनके बीच बच्चे बन जाओ !
२-प्रकृति में मन रमा लो -पेड़ -रूख  ,पशु पक्षी को निरखो परखो 
३-छोटी मोटी दुनियादारी की बातों से दूर रहो ..
 इस जीवंत तस्वीर को कुछ देर निहारिये ....
नेहरू जी से कुछ अनजान भूले जरूर हुईं मगर थे बड़े सहज सरल व्यक्ति ,उन्हें गुस्सा   तेजी से आता और उतनी  तेजी से उतर भी जाता ...हाँ अभिजात संस्कार थे उनके ..मगर अभिजात्यता कोई बुरी बात तो नहीं .....मैंने उस ब्लॉग पोस्ट पर ये टिप्पणी की -
छोटे मुंह बड़ी बात मगर सच मानिये ये तीनो बातें मुझमें हैं -अब मैं अपने लम्बे यौवंनपूर्ण जीवन के प्रति आश्वस्त हो सकता हूँ -बहुत आभार ! 
तभी मेरी निगाह ब्लॉग  युवा ह्रदय सम्राट  समीरलाल जी के कमेन्ट पर सहसा पड़ गयी -
मैं तो हमेशा से इन तीनों बातों से प्रेरित हूँ बल्कि नेहरु जी की चौथी बात से भी... :) लेडी माउन्टबेटन वाली...मजाक कर रहा हूँ.. उससे नहीं. :) बस तीन बातें. :) 

और मैंने फिर टिपियाया  ...


..और हाँ वो लेडी माउन्टबेटन वाली बात भी सही है -समीर लाल जी तनिक सकुचा गए हैं ! 

मेरा निजी  मत है कि चिर यौवन में इस चौथे नुस्खे की  भूमिका अवश्य है ..और इसके जैवरासायनिक पहलू भी हो सकते हैं ... समीर जी के अनुभव ऐसे  ही हंसी मजाक में उड़ाने लायक नहीं हैं उन्होंने बात को हल्का और सार्वजानिक शिष्टाचार का मान  रखने के लिए हंसी में  ले लिया  है मगर   नेहरू जी के चौथे फार्मूले की ओर शरारती इशारा ही नहीं किया   कुछ अपने अनिश्चय को भी इस महापंचायत के बीच जाहिर कर दिया ( :) )  ! और हाँ यहाँ लेडी माउंटबेटन से किसी  अकेली संज्ञां का अभिप्राय नहीं है वे  सर्वनाम को संबोधित कर रही हैं ..

तो मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि चिर यौवन के लिए तीन नहीं नेहरु जी का चतुर्सूत्री  फार्मूला निश्चित ही कारगर है!   
शुक्रिया समीर जी ,इस बड़े योगदान के लिए .....ब्लॉग इतिहास आपको भी  नेहरू फार्मूले में संशोधन के लिए याद रखेगा ! मैं व्यक्तिगत रूप से .....अब इसमें कोई शक नहीं रहा  ! 

सोमवार, 7 जून 2010

जैवीयता केवल मैथुन और जगह की मारामारी (territorialism ) ही नहीं है जैसा कि मेरे कुछ काबिल दोस्त सोचते आये हैं! ..

अनवरत पर हुई इस चर्चा ने मुझे प्रेरित किया है कि मैं मनुष्य की जैवीयता पर कुछ बातों को स्पष्ट करुँ ...जन स्मृतियाँ बहुत अल्पकालिक होती हैं ..मैंने मनुष्य की जैवीय प्रवृत्तियों और सांस्कृतिक  विकास पर एक विस्तृत पोस्ट पहले  लिखी थी (देखें यहाँ यहाँ ..) मगर लगता है जैसे 'शास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिय ...' वैसे ही पोस्ट पुरानी पुनि पुनि पाठय ! ! 

मनुष्य का जैवीय विकास /विरासत करोड़ वर्ष से कमतर नहीं है -एक करोड़ वर्ष पहले ही उसके आदि रूप रामापिथिकेस ने धरा पर अवतरण किया और एक लम्बे जैवीय विकास के बाद मनुष्य आज का कथित सुसंस्कृत मनुष्य बना है .मनुष्य का गैर पशुओं से एक पृथक विकास हुआ है -सांस्कृतिक विकास मगर वह बहुत बाद की कहानी है ...नागरीकरण के शुरुआत के कालखंड को  बहुत पीछे भी हम ले जाएँ तो हद से हद १५ से २० वर्ष पीछे लौटेंगें ...इसी में सब कुछ वैदिक काल,उपनिषदीय काल ,महाकाव्य काल सिमटा हुआ है ...जाहिर है मनुष्य का स्पष्ट सांस्कृतिक काल बहुत  बाद में अस्तित्व में आया .इसके पहले वह निरा पशु  न भी रहा हो पर उस पर केवल और केवल जैवीयता हावी थी ...कबीलों में हिंसक संघर्ष होते थे और अनगढ़ पत्थर की गदा से प्रतिद्वंद्वी की खोपड़ी चकनाचूर कर दी जाती थी ...वजह ? वही जर जोरू और जमीन! करीब लाख वर्ष  पहले मनुष्य का ही एक निकट संबंधी था नीन्डर्थल मानव जिसमे आभूषणों और अलंकरणों के प्रति रुझान थी -अभी हाल में सीपियों के तत्कालीन गहने उत्खनन में मिले हैं ..हमारी प्रजाति यानि होमो सैपिएंस में भी ऐसे ही आरम्भिक अलंकरण की वृत्ति देर से दिखती है ...दुर्भाग्य से नीन्डर्थल अज्ञात कारणों से लुप्त हो गए या एक गंभीर अध्ययन के अनुसार होमो सैपिएंस यानि हमारे पूर्वजों ने उन्हें नेस्तनाबूद कर दिया ...होमो सैपिएंस के अफ्रीका से ६० हजार वर्ष पहले महाभिनिष्क्रमण के बाद की ये घटनाए हैं... ....

जीनो -वंशाणुओं   में कुदरती बदलाव लाखो वर्ष में होते हैं ....हाँ कभी कभी कुछ उत्परिवर्तन से बदलाव तुरंत हो जाते हैं मगर वे शारीरिक विकृतियाँ  ही ज्यादा उत्पन्न करते हैं जैसे नागासाकी हिरोशिमा में परमाणु बम गिरने के बाद विकिरण से जनन कोशाओं के जरिये विकृतियों का पीढ़ियों में अंतरण ...मनुष्य की पाशविक विरासत जहाँ लाखों वर्ष की है वहीं उसकी कथित सांस्कृतिक विरासत  अभी महज कुछ हजार वर्ष की है ....हमारे जीन ही हमारे संरक्षक हैं .हम उनके बंदी हैं ....कभी कभी लगता है कि हमारे सांस्कृतिक  विकास के पीछे भी कुदरत का ही कुछ गूढ़  गुम्फित प्रयोजन है .....कई सांस्कृतिक अनुष्ठान /संस्कार दरअसल हमारे जैवीय मंतव्यों को ही महिमा  मंडित करते है -जैसे एक पति/पत्नी निष्ठता के पीछे क्या केवल हमारी सांस्कृतिक  परिपाटी ही है ? नहीं! नारी की लम्बी सगर्भता और भावी पीढ़ियों की संरक्षा उसके ज्यादा देखभाल की मांग करती है -और यह मनुष्य के अस्तित्व रक्षा से सीधे जुड़ा सवाल है ....एकनिष्ठता का सांस्कृतिक महत्व  दरअसल हमारे जीनो की ही एक चाल है - और मनुष्य उनकी चंगुल मे आया हुआ विवाह रस्म का निरंतर अलंकरण करता गया है -मंत्रोच्चार ,सात फेरे ,अग्नि का साक्ष्य महज इसलिए कि भावी पीढी भली चंगी रहे -पूरे विश्व में जहाँ आधुनिक जीवन शैली (अति सांस्कृतिकता /भौतिकता /सभ्यता ) के चलते तलाक अधिक होते  है  वहां भी दाम्पत्य निष्ठता एक आदर्श है !


मनुष्य की काबिलियत आज जो भी हो रहना वह कबीलों में ही चाहता है -यह उसके जींस की अभिव्यक्ति है -आज का सांस्कृतिक मनुष्य क्यों इतने खेमो में  बटा है ? डाक्टर, वकील ,पादरी आदि कैसे कैसे अपने परिधानों से अलग वजूद बनाये हुए हैं ....यह अलग अलग गोल हैं ...और सावधान उनसे उलझने की हिमाकत  मत करियो कभी ....खोपड़ी नहीं बचेगी ! 

जैवीयता इन सबके मूल में है -जैवीयता केवल मैथुन और जगह की मारामारी (territorialism ) ही   नहीं है जैसा कि मेरे कुछ काबिल दोस्त सोचते आये हैं ...आज मनुष्य जो भी है उसकी जैवीयता ही उसकी पीठिका है ....बहुत कुछ अच्छा बुरा हमारी जैवीयता की ही देन है और मुझे प्रायः लगता है कि हमारी  पूरी सांस्कृतिकता ही अपनी समग्रता में जैवीयता से ही उद्भूत है और मानव के अनेक धर्मसंकटों ,समस्याओं का हल इसी जैवीयता की बेहतर और गहरी समझ में ही निहित है ...

आज भी हम परले दर्जे के हिंस्र हैं ,जर जोरू जमीन के झगडे  और जरायम आज भी केवल इसलिए ही अधिक हैं कि हम मनुष्य की जैवीय वृत्तियों की प्रायः अनदेखी कर देते हैं ....इसलिए ही नारी के  वस्त्रों के चयन पर आचार संहितायें हैं ....देहरी के भीतर और बाहर की वर्जनाएं हैं ...किसलिए ..महज इसलिए कि मानव वंशावली की वाहिका कहीं खतरे में न पड़ जाय ....वो देवी है मात्रि शक्ति है मगर   भस्मासुर और सुन्द उपसुन्द रूपी राक्षसों की जमात आज भी सक्रिय है .... आज भी  एक नंगा कपि मनुष्य के  भीतर सक्रिय है! उससे  सावधान रहने की भी  जरूरत है! मुझे लगता है आज के लिए इतना काफी है -अगर इतना कुछ लिखा विचार स्फुलिंगों को निर्गत कर सकेगा और कुछ भी  पूर्वाग्रह रहित विचार सरणियों की  निर्मिति हुई   तो समझूंगा  कि श्रम सार्थक हुआ !
Further Reading:
The Human Zoo

रविवार, 6 जून 2010

मिलिए एक समर्पित टिप्पणीकार से ...दिव्या श्रीवास्तव यानि जील जेन ....

आप में से कई लोगों के ब्लॉग के टिप्पणी बाक्स में  जीन जेल (जो कहती हैं कि उन्हें आप खुद  खोजिये ,आखिर दुधमुहे बच्चे तो हैं नहीं आप -और एक दिलखीन्चू  मजाकिया सा इशारा-Its your job to discover, cannot spoonfeed you.....)  की टिप्पणी दिखी होगी ....इनका कोई ब्लॉग नहीं है मगर इनकी टिप्पणियाँ ही किसी ब्लॉग से कम नहीं है .आखिर कौन हैं जील जेन ? इसका जवाब उन्होंने एकाध जगहं केवल इसलिए दिया कि लोग उन्हें बेनामी न समझ बैठें! सबसे पर्याप्त जवाब उन्होंने दिया नवोत्पल पर,एक थर्ड परसन के रूप में ....

"Her name is Divya, She is born and brought up in Lucknow. Medical education from BHU-Varanasi. After spending some time in Lucknow, Faizabad, Gwalior, Indore and Delhi, She is now settled in Bangkok."(इसका हिंदी अनुवाद जरूरी नहीं लगता !) इनका ही  एक क्षद्म /निक नाम भी  है -जील जेंन  ! लोरेटो कान्वेंट लखनऊ की पढी हैं .आंग्ल भाषा पर कमांड है -देवनागरी में नहीं लिखतीं मगर हिन्दी मातृभाषा होने के नाते अच्छी तरह जानती हैं ..यह तो उनका एक स्थूल परिचय हुआ -मगर मैं यहाँ उनकी चर्चा उनके विचारों और सोच की स्पष्टता के लिए करना चाह रहा हूँ ....उनमें भारतीयता के बोधक संस्कार कूट कूट के भरे हुए हैं और वे मानवीय मूल्यों के प्रति सचेष्ट दीखती हैं ...उन्हें नर नारी की उन्मुक्त स्वच्छन्दता नहीं भाती ...उन्हें उन्मुक्त वर्जनाहीन समाज से चिढ सी लगती है .....मेरे मन में काफी दिनों से था कि मैं उनकी टिप्पणियों का एक संकलन प्रस्तुत करुँ और मैं यह सोच ही रहा था कि प्रतुल वशिष्ठ जी  ने बाजी मार ली ...उन्होंने अपने ब्लॉग पर दिव्या जी की एक टिप्पणी का पूरा हिन्दी अनुवाद ही छाप  दिया .और अनुवाद भी इतना त्रुटिहीन और प्रवाहपूर्ण -कि मैं उसे यहाँ उधृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा   रहा हूँ -
"मेरा पूर्ण विश्वास है कि लज्जा नारी का सौन्दर्य है किन्तु यह उसकी सुरक्षा नहीं है. एक स्त्री का रक्षात्मक कवच उसकी बुद्धिमत्ता तथा सजगता है जो कि शिक्षा, लालन-पालन एवं सचेतना से परिपूर्ण होता है.

आनंदानुभूति के लिये स्त्री को किसी प्रकार के "अलंकरण" की आवश्यकता नहीं होती है. पुरुष द्वारा, स्त्री को मूर्ख बनाए जाने की परम्परा सदियों से जारी है. चाटुकारिता, अनुशंसा, प्रशंसा आदि के द्वारा पुरुष नारी को मानसिक तौर पर कमज़ोर बनाकर उसे अपनी ओर करने का प्रयास करता रहता है. और यह विरले ही देखने में आता है कि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग पुरुष को पहचानने में करे.

उसका लज्जा रूपी कवच ही उसका शत्रु बन जाता है. ऐसे में केवल उसकी बुद्धिमत्ता ही उसे भावावेग से दूर रखते हुए उसकी सुरक्षा कर सकती है.

"बुद्धि" एक सचेत एवं समझदार स्त्री का सर्वोपरि गुण है जो जीवन को हर परिस्थिति में उसकी सुरक्षा करता है. उसे जीवनयापन हेतु किसी प्रकार के अलंकरण की आवश्यकता नहीं होती है.

उसे अपनी स्थिति का आभास होना आवश्यक है. स्त्री को शिक्षा, ज्ञान तथा सजगता, सचेतता का अर्जन अवश्य ही करना चाहिए. उसे अपने साथ पर गर्व होना चाहिए, उसे स्वयं की प्रशंसा करनी चाहिए उसे स्वयं से प्रेम होना चाहिए. जब कोई स्वयं से प्रेम करता है तो उसे किसी अलंकरण की आवश्यकता नहीं रह जाती है.

वैसे भी कहा जाता है "सुन्दरता निहारने वाले की दृष्टि में होती है" केवल धीर-गंभीर व सभ्य पुरुष ही नारी में "लज्जा" का भाव उत्पन्न कर सकता है. क्योंकि नारी में नारीत्व जागृत करने की क्षमता केवल एक परिपूर्ण पुरुष [पुरुषत्व से परिपूर्ण] में ही होती है. पुरुष, नारी से सदैव समर्पण चाहता है जो कि उसमें [नारी के प्रति] अन्मंस्यकता का भाव जागृत करता है अथवा ये उसके क्रोध का कारण बन जाता है और वह [नारी] इनकार कर देती है. किन्तु इसके विपरीत प्रेम और परवाह करने वाला [loving and caring] पुरुष नारी को प्रेम की अनुभूति देता है जो नारी को स्वयं समर्पण के लिये उत्प्रेरित करता है, जिसमें समाहित होता है पुरुष के प्रति पूर्ण अटूट विश्वास.

 "survival of the fittest " वही है जिसके पास बुद्धि है और जो सजग है. अतः मात्र "बुद्धिमत्ता" ही मनुष्य का "कवच" है फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष".
 
आप देखिये  कि किस तरह  उन्होंने नारी के बारे में परम्परागत सोच के बजाय नारी का आभूषण केवल लज्जा  न मानकर शिक्षा और बुद्धि को मान्यता दी है .... और लगे हाथ उन्होंने एक नारी की दृष्टि में एक श्रेष्ठ पुरुष की आकांक्षा को भी चिन्हित किया है ...वे नारी को पुरुषों के द्वारा अपने वश में करने के हथकंडों के प्रति भी यत्र तत्र आगाह करती चलती हैं -मुझे लगता है कि उनके विचार नर नारी के दैनिक आचरण और जीवन दर्शन की दिशा में महत्वपूर्ण हैं ...उन्हें इस बात की  कोफ़्त भी है कि उनकी बातों पर  बहुत से चिट्ठाकारों ने  अपेक्षित ध्यान नहीं दिया है या संवाद को बनाने /बढ़ाने में रूचि नहीं ली है ..मगर दिव्या जी को  यह समझना चाहिए कि यह हिन्दी ब्लॉग जगत है -यहाँ ज्यादातर बात -व्यवहार हिन्दी में है -अगर अभी तक वे व्यापक तौर पर यहाँ संवाद नहीं बना पाई हैं तो इसका कारण केवल इतना है कि वे देवनागरी में  संवाद नहीं करतीं ...हिन्दी के कई आग्रही ऐसे हैं (जो अनुचित भी नहीं है ) जो अंगरेजी को जानते हुए भी हिन्दी में संवाद पसंद करते हैं ..मुझे दिव्या जी की अंगरेजी  बहुत प्यारी और प्रवाहमयी लगती है -उन लोगों की तरह नहीं जो कई बार यह जताने के लिए अंगरेजी में लिखते/लिखती हैं कि मुझे भी अंगरेजी आती है -मुझे हल्के में मत लो ..(जैसे मैं ) .....दिव्या जी की अंगरेजी सहज है हिन्दी भी वे बहुत अच्छा लिखती हैं मगर रोमन में ..जो कि बहुत से लोगों को ,उचित ही नहीं भाती ...मुझे खुद भी जबकि मैं चैट प्रायः रोमन हिन्दी में ही करता हूँ -खुद को कोसता हूँ -मगर जब आप औपचारिक संबोधन करें तो रोमन वाली हिन्दी निश्चित ही खटकने वाली है ...मैंने दिव्या जी से वायदा किया है कि मैं उनकी टिप्पणियाँ हिन्दी भावानुवाद करके संकलित करूंगा! यह श्रम साध्य कार्य है -उनकी यत्र तत्र बिखरी टिप्पणियाँ बटोरना खाली समय की मांग करता है .
 
आपसे यह गुजारिश है कि यदि आपके पास उनकी कोई टिप्पणी हो तो कृपा कर टिप्पणी में अथवा मुझे मेल से भेजने का अनुग्रह करें -मैंने दिव्या जी से भी यही आग्रह किया तो उनकी रूचि इसमें नहीं दिखी -नारी मन का भी कोई थाह नहीं मिलता ....वे सदैव की तरह अबूझ पहेलियाँ ही रही हैं ..कभी कभी तो लगता है सृजनकर्ता ब्रह्मा ने उनके मन -सृजन की   प्रोग्रामिंग कुछ ऐसी कर दी कि   खुद ही पासवर्ड भूल गए और अपनी इस भूल को उन्होंने पुरुषों में आरोपित कर दिया -आज तक बिचारा पुरुष उसी पासवर्ड को खोजने में हैरान परीशां रहा है -यह सिमसिम सहजता से खुलता  नहीं दिखता -हैकरों के बस का ही है -....और हैकरों को मैं मानवीय नहीं मानता ....
 
मुझे आपकी टिप्पणियों और मेल में दिव्या जी की टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा जो इस पोस्ट की अगली कड़ी बन सकेगी ..

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