२४ फरवरी ,२०१० अपराहन 
कार चालक ने जाते जाते बता दिया था कि सर ये सामने कई बैंकों के ऐ टी एम की कतार है अगर किसी का वेट करना है तो यहाँ बुलाना आसान रहता है .गरीब रथ तो  ५.५० पर थी और अभी भी ३ बज रहा था .पराठा पच चुका था और जोरों की भूख लग आई थी -राजेश जी ने शिष्टता वश खाने का आग्रह किया  था और मैंने उतनी ही अतिरिक्त शिष्टता से उसे अस्वीकार कर दिया था -किंचित मिथ्याचार भी कि खाना हम खाकर ही निकले थे-वैसे मनीष के यहाँ का पराठा और सेवईं एक तरह से ब्रंच (ब्रेकफास्ट +लंच )  ही तो था . मगर भूख तब और लग आई जब नई दिल्ली स्टेशन के ठीक सामने और ऐ टी अम की कतार में ही एक रेस्टोरेंट के मीनू पर नजर गयी .यहाँ खाने वालों की कतार लगी थी -मीनू में पनीर के कई प्रेपरेशन अपनी ओर खींच रहे थे-मन  हो आया कि  बटर पनीर खाया जाय और साथ में बटर नान -यम यम! रहा नहीं गया -काउंटर पर गया टोकेंन  लेने -वहां बैठे गोल मटोल मगर चेहरे से क्रूर आदमी ने पूंछा  कि खाना खा लिया ?-मैंने जवाब दिया अभी कहाँ! -"खाने के बाद पेमेंट करियेगा" उसने प्रोफेसनल टोन में जवाब दिया -जी साब जी कहते हुए मैं रेस्टोरेंट में अपनी मन  माफिक टेबल खाली होने का इंतज़ार करने लग गया -लम्बा इंतज़ार था उफ़ ! बहरहाल टेबल खाली होते ही द्रुत गति से मैंने वहां कब्ज़ा जमाया -वेटर को आते ही आर्डर  दे दिया - अभी भी याद है उसने जोर देकर पूंछा था कि बटर पनीर हाफ ही लाना  है न, मैंने भी बल देकर कहा हाँ हाँ हाफ! (अब एक प्राणी फुल कैसे खाता ? ) मेरी छठी हिस कुछ कुछ सक्रिय होती दिखी मगर मैंने नई जगह पर ऐसी ही अनुभूति होती होगी  यह मानकर उस अनुभूति को उपेक्षित कर दिया .पनीर आया तो देखा ,यह तो फुल था -फिर सोचा हो सकता है दिल्ली की इकाई ही यही हो -मतलब हाफ में यहाँ फुल मिलता हो -देश की राजधानी है यह -ऐसी समृद्धता यहाँ हो भी सकती है .मगर जब सामने सुस्वादु व्यंजन हो तो ये विचार कितने दीर्घकालिक होते -बटर पनीर की भीनी मसालेदार  महक  और छवि के आगे तुरत ही छूमंतर हुए ये विचार -खाना वाकई लजीज था -मैंने दो बटर नान ,चावल हाफ माँगा तो वह भी मानो किसी अलग नियम से फुल मिला -यह ज्यादा हो गया था मगर सुस्वादिता पेट पर भारी पड़ती ही है -अब भुगतान की बारी थी ...काउंटर पर पहुँचने के पहले मैं मन  में एक रफ कलकुलेशन कर  चुका था जिसके मुताबिक़ ज्यादा से ज्यादा ७० -७५ रूपये का बिल होना था -काउंटर विलेन बोला -१३५ रूपये -मैं चौका -कहा, पनीर तो हाफ था -"पैसा भी हाफ का ही चार्ज किया गया है " विलेन बोला .बगल के एक शायद (शुभेच्छु) यात्री ने मामले को भाप कर मुझे सांत्वना दी -भाई साहब यहाँ फुल ही हाफ है -कोई फुल श्रेणी नहीं है यहाँ -आप फिर से मीनू पढ़िए! हद है अब मीनू पर लिखी वही  सूची पोस्टर के बड़े अक्षरों  सी साफ़ दिख रही थी -जहाँ फुल का नामोनिशान नहीं था -बस दो कटेगरी थी -हाफ और क्वार्टर! क्वार्टर सब्जी ?-न कभी सुना न कभी  देखा ,न अपने बनारस में और न अपने नखलऊ में -दिल्ल्ली के ठगों ने लूट लिया था आखिर ...बहरहाल इज्ज़त के साथ पेमेंट किया और एक बार नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर निहार कर कहीं बैठने की जुगाड़ में लग गया -
केवल एक जोड़ा जुडी कुर्सियां दिखीं जिस पर एक सुरक्षा कर्मीं ये के -५६ लिए मुस्तैद था -दूसरी खाली थी ....सुबह एक सुरक्षा कर्मी से मुठभेड़ हो चुकी थी और उनसे डील करने का कुछ पेशेवराना कान्फिडेंस हो आया था और उसी लहजे में मैंने उससे बगल बैठने का अनुग्रह किया -आश्चर्यों का आश्चर्य वह मान  गया - भोजनोपरांत अपराह्न झपकी सी आ  रही थी मगर चेष्टा कर मैंने प्रियेषा को फोन कर बता दिया था कि तुम स्टेशन के ठीक सामने ऐ टी एम के कतार के सामने आई सी ई सी आई के सामने आ  जाओ -उसने कहा कि मैं १० मिनट में पहुँच जाउंगी .और मैं झपकियाँ लेने में मशगूल हो गया -अभी दस मिनट भी नहीं हुए थे  कि कानो को अप्रिय सी लगती मोबाईल की घंटी बजी -प्रियेषा का फोन था -
"पापा कहाँ हैं आप ? " 
"आई सी आई सी आई ऐ टी एम के ठीक सामने" 
"क्या ? यहाँ तो कोई आई सी आई सी आई ऐ टी एम नहीं है " 
लगभग चीखते हुए उसने जवाब दिया 
एक तो भोजनोपरांत  सुन्दर सी झपकी में विघ्न और दूसरे कैसे नहीं दिख रहा है इतना स्पष्ट सा लैंडमार्क प्रियेषा को ...
मैं भी दुगुने आवाज में चीखते हुए एक एक शब्द को चबाते हुए से बोला -
"स्टेशन पर जहाँ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन लिखा हुआ है उसके ठीक सामने देखो.... "और मैंने अनिर्दिष्ट 
दिशा में हवा में हाथ भी लहराया ...
" हद है पापा, गरीब रथ कहाँ नई दिल्ली से जाती है ,पुरानी दिल्ली से जाती है "  वह सातवे सुर में बोल रही  थी ..
मानो मुझमें स्प्रिंग सा लग गया हो उछल कर खड़ा हो गया ,मोबाईल हाथ से छूटते छूटते बचा -सुरक्षा कर्मीं भी अचानक हुई इस हलचल से सकपका गया और मुझे  अविश्वास से देखने लगा ...
'' वहीं रुकिए मैं पहुँच रही हूँ " मानों बेटी को भान हो गया था कि यह संस्मरण  लम्बा खिंच जायेगा और उसे विराम देने (मेरी और फजीहत  न हो और इज्ज़त कुछ तो बंची रहे, )उसने मुझे खुद लेने का फैसला  लिया -(आखिर बेटी है न ! पापा की इज्ज़त प्यारी है उसे ) 
सुरक्षा कर्मी ने मेरी दयनीय दशा देखकर मुझे मेट्रो का द्वार खुद थोडा आगे बढ कर दिखाया ....और सच ही थोड़ी ही देर में प्रियेषा वहां आ पहुंची थी -कोसना  जारी था उसका जो अब भी जारी है -मैंने टिकट पर स्टेशन का नाम ठीक से क्यूं नहीं  पढ़ा?
और मेरी टेक कि तुम लोगों ने इतनी बार बात की तो बताया क्यूं नहीं  बहरहाल यह अंतहीन आरोप प्रत्यारोप है जो कम से कम अगली दिल्ली यात्रा तक तो चलता ही रहेगा ! 
आगे की मेट्रो की यात्रा बहुत शानदार और गरीब रथ की भी घटना  विहीन बीती -आखिर ड्राप सीन तो पहले ही जो आ  चुका था! मैं अब बनारस में था -अपनी मांद में .....


