सोनभद्र जिले का हेडक्वार्टर राबर्टसगंज अपनी कस्बाई सांस्कृतिक विरासत के बावजूद मानवीय सृजनात्मकता और बौद्धिकता से ओत प्रोत रहा है। इन दिनों यहाँ एक बौद्धिक विमर्श के नए चलन का सूत्रपात हुआ है जिसके अंतर्गत प्रति माह किसी विषय पर चर्चा और विचार विनिमय होता है। विगत चर्चा उत्तर आधुनिकता और परामानववाद पर केंद्रित थी। आज (१२ सितम्बर ,२०१५ ) कलमकार संघ द्वारा आयोजित संगोष्ठी का विषय था- विकास के आयाम : सपने और यथार्थ. इस विषय पर राबर्ट्सगंज के जाने माने बुद्धिजीवियों, विचारकों -लेखकों ने अपने विचार व्यक्त किये.
श्री अजय सिंह जो यहाँ जिला आपूर्ति अधिकारी(डी एस ओ ) हैं ने विषय की प्रस्तावना की। उन्होंने जुमले की तरह इस्तेमाल हो रहे शब्द -विकास के कई निहितार्थों को उकेरा। आर्थात कैसा विकास ,किसका विकास, विकास की परिभाषा क्या हो? उन्होंने विकास के हानि लाभ के पहलुओं को रेखांकित किया और कहा हमें यह देखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि हम विकास से पाएं कम और गवाएं ज्यादा। मतलब कहीं लाभ हानि से कमतर होकर न रह जाए।
श्री रामप्रसाद यादव ने संचालन की जिम्मेदारी उठाई और संविधान के मूल उद्येश्यों के तहत विकास के लक्ष्य को सामने रखा। उन्होंने कहा कि हमें बहुमंजिली इमारतों , ऊंची चिमनियों, हाईवेज ,मेट्रो , स्मार्ट सिटी और बिना पानी के सूखते खेतों ,बेरोजगारी , अशिक्षा ,भुखमरी और कुपोषण आदि मानवीय विभीषिकाओं के विरोधाभास के मध्य विकास का सही मार्ग तय करना होगा। दीपक केसरवानी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए औद्योगीकरण से उपजते सकंटों और सोनभद्र के रिहंद जलाशय से उत्पन्न विस्थापन और प्रदूषण की त्रासदी की ओर ध्यान दिलाया।
प्रखर चिंतक विचारक रामनाथ शिवेंद्र के बीज वक्तव्य में उनकी कई चिंताएं अभिव्यक्त हुईं। उनके अनुसार पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी विवशता है. सपनों और यथार्थ में बड़ी दूरी है। और वाह्य आक्रमणों से अधिक खतरा भीतर से है। उन्होंने आह्वान किया कि हमें अपने विकास के मानक तय करने होंगें। हर खेत को पानी हर हाथ को काम। क्म लागत से अधिक उत्पादन। विकास की धारा में मानवीय संवेदनाएं तिरोहित न हों।
राजनीतिक चिंतक और विचारक अजय शेखर ने विकास के मानकों के पुनर्निर्धारण की जरुरत बतायी। उन्होंने कहा कि हमने विकास के मॉडल में सांस्कृतिक मानकों को नहीं लिया। मनुष्य विकास के केंद्र में है तो फिर मनुष्यता के अवयवों को भी विकास के मॉडल में समाहित होने चाहिए। विकास के मौजूदा स्वरुप में कमियां उभर कर दिख रहीं है -आज विकास भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है। हेराफेरी ,चोरी, लूट और व्यभिचार विकास के आनुषंगिक पहलू बन गए हैं -क्या यही विकास हमें चाहिए? उन्होंने तेजी से नष्ट हो रहे पर्यावरण का उल्लेख किया। वनौषधियों के विलोपन का हवाला दिया। ऐसा विकलांग विकास भला कैसे स्वीकार्य होगा?
अमरनाथ अजेय ने अंग्रेजों की कुटिल नीतियों -फूट डालो राज्य करो से आरम्भ हुए अलगाव ,बिखराव की स्थितियों को विकास का रोड़ा माना और स्पष्ट किया कि जब तक आर्थिक आधार पर सभी को स्वतन्त्रता नहीं मिलती सही अर्थों में विकास संभव नहीं है। शिक्षक ओमप्रकाश त्रिपाठी ने भारत में विकास के पंचवर्षीय अभियानों का जिक्र करते हुए औद्योगिक विकास के एक आपत्तिजनक पहलू को उजागर किया जिसमें हमारे सांस्कृतिक मूल्य तिरोहित होते गए हैं. एक बाहरी भौतिकता का आकर्षक आवरण है जिसके पीछे मनुष्य का निरंतर चारित्रिक ह्रास हो रहा है। हमारा विकास पश्चिम का अंधानुकरण है। हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। हमें वस्तुतः अपने जीवन मूल्यों और अध्यात्म के साथ कदमताल करता विकास का मॉडल चाहिए।
कवि जगदीश पंथी जी के सम्बोधन का सारभूत विकास की राह में वैयक्तिक और समूहगत टूटन, विखंडन और विश्वसनीयता के संकट से उपजते त्रासद स्थितियों का जिक्र रहा। जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो फिर क्या कैसा विकास होगा?
गीता के अनन्य प्रेमी प्रेमनाथ चौबे ने विकास मार्ग के कतिपय प्रतिरोधों की चर्चा की। जहाँ अन्धविश्वास हो , छुआछूत और भूत प्रेत टोना का बोलबाला हो वहां विकास का भला कैसा स्वरुप फलित होगा? उनका मानना था कि विकास के लिए एक राष्ट्रीय सोच जरूरी है। जापान का उदाहरण देकर उन्होंने स्पष्ट किया कि विकास के लिए राष्ट्रीय सोच होना जरूरी है. यह भी दुहराया कि बिना समानता ,स्वतंत्रता और बंधुत्व के विकास का सही स्वरुप सामने नहीं आ पायेगा।बिखराव में कैसा विकास? उन्होंने विकास को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल और अनुरूप होने की शर्त रखी. उनके शब्दों में विकास अभी भी एक सपना है।
भौतिकी के प्रोफ़ेसर रहे पारसनाथ मिश्र ने कहा कि दरअसल मनुष्य के जीवन के जो आयाम हैं वही विकास के भी आयाम हैं. कपडा रोटी और मकान की आधारभूत जरूरतें विकास के स्वरुप को नियत करती हैं। भूख है तो अन्न चाहिए , अन्न उत्पादन होगा तो उसके संरक्षण और वितरण की श्रृंखला विकास के सोपानों को तय करेगी. वैसे ही हमारे लिए अनेक जरूरी उत्पाद वस्त्र ,आवास, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य विकास के पैमानों को तय करते हैं। किन्तु आज जो विकास हो रहा है उसने जितना दिया उससे ज्यादा हमसे छीन लिया है। उन्होंने हल बैल से मंगल यात्रा तक के विकास में वैज्ञानिक दृष्टि की अपरिहार्यता पर विशेष बल दिया। नित नए अनुसंधान की जरुरत बतायी। उनकी चिंता यह भी रही कि आज हमारी निष्ठायें विभाजित हैं , आस्थाओं और आचरण के अलग अलग पड़ाव हैं। किन्तु हमें अपनी पहचान नहीं खोनी है। विकास के किसी भी मॉडल में भारतीयता अक्षुण रहे.हम अनुकरणीय बने न कि अनुकरणकर्ता।
अपने तक़रीर में चन्द्रभान शर्मा बहुत आशावादी दिखे। उनका कहना था
कि हमारे मनीषियों ने विकास का जो प्लान तैयार किया वह उचित है और आलोचना
किया जाना उचित नहीं है। हमारी अनेकता और विभिन्नताओं के बावजूद विकास
होना दिख रहा है। आज फटेहाल लोग कमतर हुए हैं। सपने धरातल पर धीरे धीरे
उत्तर तो रहे हैं। धैर्य रखना होगा।
संगोष्ठी के अध्यक्ष शिवधारी शरण राय ने समस्त विचारों के निचोड़
के रूप में अपना अभिमत दिया कि विकास हो किन्तु विनाश की कीमत पर नहीं।
भारत सदैव मौलिक चिंतन का उद्गम रहा है ,वैज्ञानिक बर्नियर यहाँ ज्ञान और
परमार्थ की खोज में आया था। हमारे कई शाश्वत मूल्य विकास के विभिन्न स्वरूपों में
समाहित हों यही अभीष्ट है।
संगोष्ठी आत्मीय माहौल में
संपन्न हुई और प्रतिभागियों में एक नए उत्तरदायित्व बोध का सबब बनी. यह
पुरजोर मांग रही कि ऐसे समूह चिंतन और अभिव्यक्ति का सिलसिला चलता रहे।
आगामी संगोष्ठी की प्रतीक्षा सभी को है।
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