दीवाली की अनेक यादें हैं। इस बार अपने पैतृक निवास जा नहीं पाया तो यादें और भी सघन हो मन में उमड़ घुमड़ रही हैं। हमारे लिए दीवाली का मतलब ही होता था पटाखों और फुलझड़ियों का प्रदर्शन। एक माह पहले से ही छुरछुरी ( पूर्वांचल में फुलझड़ियों को इस नाम से भी पुकारते हैं ) इकट्ठी करना शुरू हो जाता था जिसमें किशोरावस्था की देहरी पर खड़े समवयी हम कुछ बच्चे बड़े बुजुर्गो से आँख बचा बचा कर एक गोपनीय संग्रह करते जाते थे. कुछ जेब खर्च और निश्चय ही कुछ चुराया हुआ धन इसमें इस्तेमाल होता था. पिता जी नयी सोच के थे तो पर्यावरण की चिंता उनको रहती थी और वे आखों के सामने पड़ते ही हमें पर्यावरण पर पूरा पाठ पढ़ा देते और पटाखों के धुर विरोधी थे। हाँ बाबा जी हमारे बीच बचाव को आते थे और पिता जी को समझाते कि एक दिन में पर्यांवरण नष्ट नहीं हो जाएगा और बच्चे इतनी छुरछुरी भी कहाँ छोड़ते हैं?
बहरहाल इसी माहौल और तनातनी के बीच हम अपने संग्रह कार्य में जुटे रहते थे। और चर्खियों, गैस , टेलीफोन, स्वर्गबान ,अनार, लाईट बम , सुतली बम के नामों से मिलने वाले अद्भुत आइटमों की खरीद होती रहती -एक पुराना परित्यक्त थोड़ा टूटा सा बक्सा हमें मिल गया था उसी में यह खजाना संचित होता रहता। यह बक्सा एक साथी के पुराने घर के कोठिला (अन्न संग्रह पात्र ) वाले अँधेरे कमरे में सुरक्षित रखा जाता। मुझे खुद के ऐसे तीन वाकये याद हैं जिसमें मैं पटाखों से घायल हुआ हूँ।बाल्यावस्था ,किशोरावस्था और युवावस्था तीनों काल के हादसे की कटु स्मृतियाँ हैं। युवावस्था वाली तो अति उत्साह आत्मविश्वास के चलते हुई.महा मूर्खता कि हाथ में पटाखा जलाकर उसे झट से दूर फेंक देना -मगर यह तो 'तेज आवाजा" बम था न -जैसे ही पलीते में आग लगी मैंने दूर झटका मगर यह क्या हुआ -तत्क्षण तेज धमाका और आँखों के आगे अँधेरा। बम हाथ में ही फट चुका था -हथेली जख्मी हो गयी थी जो कई दिनों रुलाती रही।
लिहाजा हाथ में लेकर कोई भी पटाखा/बम फिर से न छुड़ाने का कसम खाया गया। बाकी की दो दुर्घटनाएं बाल अन्वेषी प्रकृति की देन ही थीं जिसमें विभिन्न पटाखो के मिश्रण से एक नयी फुलझड़ी बनायी जा रही थी -मगर उस बड़े हादसे में हम बालगण बाल बाल बचे थे मगर मेरी हथेली के जख्म चिन्ह आज भी उस त्रासदी की स्मृति शेष है।
एक और स्मृति कौंध आई है। मेरे यहाँ दीपावली के दिन इस त्यौहार को न मनाकर एकादशी के दिन मनाया जाता था। ठीक दिवाली के ही दिन कोई बुजर्ग कोई पचास एक वर्ष पहले चल बसे थे. सो यह दिन अशुभ हो गया था। मैं बहुत व्यग्र रहता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम लोग भी यानी पूरा पुरवा त्यौहार के समय ही इसे मनाये? जब और लोग दीपावली मनाते और फुलझड़ियाँ छुड़ाते तो हम लोग मायूस से हो रहते। मैं, बाबा जी और दूसरे बड़े बुजुर्गों से पूछता कि ऐसा कौन सा उपाय है कि हम भी ठीक इसी दिन त्यौहार मनायें? कहा जाता है कि अगर ठीक इसी दिन गाय को बछड़े का जन्म हो जाए या कोई लड़का जन्म ले ले तो बात बन सकती है.
मगर मुझे ऐसी किसी घटना के इंतज़ार में वर्षों बीत गए -अब क्योंकर कोई ऐसा सुयोग बने। एक गाय बियाई भी तो एक दिन बाद। मैंने थोड़ा लाबीइंग की मगर लोग राजी नहीं हुए। अब तक मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ चुका था। मैं बहुत अधीर होता कि काश दीवाली के दिन ही हमारी भी दिवाली होती -वर्ष 1980 के आस पास मैंने बाबा जी से कोई दूसरा उपाय पूछा। बड़े बुजुर्गों की पंचायत बुलाई गयी। तय पाया गया कि अगर ठीक दीपावली के दिन घर का कोई बुजुर्ग मथुरा जाकर युमना जी में दीपदान कर दे तो बात बन सकती है। मैंने यह बात मानकर बाबा जी, माता जी और पड़ोस के और दो बुजुर्ग परिवारों की यात्रा का भार अपने ऊपर लिया . मथुरा जाकर यमुना जी में दीपदान कराया । लौटते वक्त ताजमहल को देखकर अलौकिकता का अहसास लेकर घर वापस आये. और अगले वर्ष दीवाली समय से मनाई जाने लगी।
मगर एक अड़चन तो रह ही गयी। दीवाली की एक पारम्परिक मान्यता के अनुसार दीपोत्सव के ठीक दूसरे दिन अल्ल्सुबह घरों से महिलायें सूप पीटती हुयी दरिद्र निस्तारण करती थीं ताकि मुए दलिद्दर कहीं कोने अतरे दुबके न रह जायँ। यह कार्यक्रम एकादशी की रात के बाद ही मनाया जाता रहा जबकि दीवाली उस दिन से पहले नियत समय को ही मनाई जाने लगी थी। अब बूढ़ी बुजुर्ग औरतों को कौन समझाये? मैं लाख समझाऊँ कि यह अनुष्ठान दीपावली की रात का ही है मगर वे माने तब न । एक बार मैंने फिर यह बीड़ा उठाया और नयी बहुओं को कनविंस करने लगा। मेरा भी विवाह अब तक हो गया था तो पत्नी को भी इस मुहिम में लगाया -सासू माओं से परेशान एक नयी बहू फ़ौज ने मानो अपनी भड़ास का एक रास्ता निकाल लिया था। इस बार की दीवाली के पटाखों की आवाज अभी भी फिजां में गूँज ही रही थी कि ब्रह्म मुहूर्त में सूपों पर हथेलियों की थप थप की आवाजें आनी शुरू हो गयीं थीं।
दरिद्र निष्कासन शुरू हो चुका था। भाग दरिद्दर भाग की समवेत आवाजें भी कानों से टकरा रहीं थीं। आज संतोष त्रिवेदी ने जब यह बताया कि उनके यहाँ यह रस्म अभी भी एकादशी के दिन ही होता है तो उन्हें मैंने यह संस्मरण सुना दिया और उन्हें उकसाया भी कि दीपावली के इतने दिन बाद तक भी घरों में दरिद्र बैठाये रहने का क्या मतलब है आखिर ? देखिये वे क्या कर पाते हैं! मैंने तो अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी निभा ली ! :-)