शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

आखिर एहसानमंद होना भी कोई बात है! शुक्रिया उन्मुक्त जी!

कौन इस पर ऐतराज करेगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है .हम मिल जुल कर रहते हैं ,एक दूसरे के सुख दुःख में शरीक होते हैं . मदद मांगने वाले की मदद करते हैं -आज सारी धरती पर मनुष्य की विजय पताका ऐसे ही नहीं फहरा  रही है -हम अब अन्तरिक्ष विजय की ओर भी चल पड़े हैं -बिना एक टीम भावना और साझे सरोकार के ये उपलब्धियां हमें हासिल नहीं हुई हैं .मनुष्य ने आत्मोत्सर्ग (altruism ) की भी मिसाले कायम की हैं -वह अपनी जांन  की परवाह किये बिना डूबते को किनारे ले आता है और धधकती आग से बच्चे को बाहर  ला देता है जो खुद उसका अपना नहीं होता -आज भी जबकि लोगों की संवेदनशीलता के लोप होते जाने के किस्से आम हैं ऐसी घटनाएं दिख जाती हैं .मतलब मनुष्यता आज भी अपने को प्रदर्शित कर जताती रहती  है कि  वह  अभी पूरी तरह मरी नहीं है .

 ऐसा ही कुछ मामला मनुष्य के प्रत्युपकार की भावना का है -हम दिन ब दिन शायद अकृतज्ञ होते जा रहे हैं -जैसे राजनीति में तो यह एक कहावत सी बन गयी है कि नेतागण  जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं सबसे पहले उसी को नीचे फेक देते हैं -मतलब एहसानफ़रामोशी का नंगा नाच! इसलिए ही न राजनीति को गेम आफ स्काउन्ड्रेल्स कहते हैं ,मगर अब यह देखा जा रहा है कि राजनीति की अनेक नकारात्मक बातें /व्यवहार आम जीवन को भी प्रभावित कर रहा है -लोगों में कृतज्ञता का समाज -जैवीय भाव शायद  तेजी से मिट रहा है .हम लोगों से लाभ तो पा जाते हैं मगर उनके प्रति कृतज्ञ  तक नहीं होते ,धन्यवाद प्रदर्शन तक की जहमत नहीं उठाते ..शिष्टाचार वश भी इसका उल्लेख तक नहीं करते .यह भले कहा जाता है कि शिष्टाचार में दमड़ी भले नहीं लगती मगर वह खरीद सब कुछ लेती है -लेकिन समाज में बढ़ते अकृतग्यता भाव को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि हम ऐहसानफरामोश ज्यादा है एहसानमंद कम ...मैंने इसी अंतर्जाल पर देखा है कि कुछ लोग दूसरों के श्रम का शोषण तो किये हैं मगर उसका समान और सम्माननीय प्रतिदान नहीं किया उन्होंने ..बस चालाकी से काम बनाकर निकल गए ....यद्यपि हमारे आचरण के सुनहले नियमों में प्रत्युपकार की चाह तक का भी निषेध  है -गीता में ऐसे लोगों को सुहृत कहा गया है जो प्रत्युपकार के आकांक्षी नहीं होते ..संतो की परिभाषा ही  है   नेकी कर दरिया में डाल......संत कबहुं ना  फल भखें ,नदी न संचय नीर : परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर .....यह तो उन लोगों की बात है जो प्रत्युपकार नहीं चाहते -मगर क्या हम उपकार के बदले दो शब्द कृतज्ञता के भी नहीं बोल सकते ? आज मेरे मन में यह सवाल बार बार उठ रहा है ....(मन कुछ और कारणों से भी संतप्त हुआ है ) ..
 शुक्रिया उन्मुक्त जी!

 ऐसे परिदृश्य में ही कुछ ऐसे व्यक्तित्व उभरते हैं जिनसे यह आश्वस्ति भाव जगता है कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है -उन्मुक्त जी उनमें से एक हैं -ये उन चन्द  बेनामियों में से हैं जिन पर न जाने कितने सनामी न्योछावर किये जा सकते हैं .मुझे खीझ तो होती है कि वे बेनामी क्यों हैं मगर उनकी मजबूरी मुझे समझ में आने लगी हैं -बहुत छोटी बातों के लिए भी उन्मुक्त जी कितना सहिष्णु और संवेदित हैं इसका एक उदाहरण देता हूँ -उनकी एक श्रृंखला उल्लेखनीय रही -"बुलबुल मारने पर दोष लगता है " जिसका पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है ..इसमें बुलबुल के नामकरण  का उनका रोचक संस्मरण है -वह इसलिए कि मूल अंगरेजी पुस्तक में दरअसल माकिंग बर्ड की चर्चा है जो छोटी सी चिड़िया है मगर उक्त प्रजाति  भारत में नहीं मिलती -अब इसका नाम हिन्दी पाठकों के लिए क्या रखा जाय -उन्म्कुत जी ने मुझसे मेल पर विचार किया -मैंने सोनचिरैया बताया , उन्होंने शास्त्री  जी से भी राय ली -अब भारतीय सोंन चिरैया (गोडावण ) बड़ी चिड़िया है -माकिंग बर्ड के अनुकूल नहीं था यह नाम तो उन्होंने फिर मुझसे पूछा ,मैंने सहज ही उन्हें कह दिया तो सोंन  चिरैया की जगह बुलबुल रख दीजिये -बात उन्हें जंच गयी -दिन आये गए हुए -कल अचानक उनकी पॉडकास्ट सुनी तो मैं विस्मित और उनके प्रति कृतज्ञ  हुए बिना नहीं  रह सका कि भला इतनी छोटी सी बात का भी इतना ध्यान रखा उन्मुक्त जी ने और पूरा संदर्भ दिया .....जबकि यहाँ कथित सम्मानित अकादमीय लोग भी लोगों के ग्रन्थ तक अपने नाम से छाप देते हैं और चूँ तक नहीं करते  ...आज मेरे आधे दर्जन मित्र ऐसे हैं जिन्होंने मुझसे विज्ञान संचार का कभी ककहरा सीखा था मगर आज उनमे से अधिकाँश मेरा नाम तक नहीं लेते,दिल्ली में  बड़े पदों पर हैं ..मगर आज उन्हें मेरे अवदान को स्वीकार करने में शर्म आती है -मैं भी चुप रहता हूँ -नेकी कर दरिया में डाल ..आज मन  उद्विग्न हुआ तो इतना भर कह दिया और उन्मुक्त जी का उदाहरण भी ऐसा रहा कि ये बातें सहज ही चर्चा में आ गयीं ..
क्या हम भी कृतज्ञता ज्ञापन /प्रत्युपकार के मामले में इतना सचेष्ट हैं? आत्ममंथन कीजिये!

43 टिप्‍पणियां:

  1. कभी कभी मन में ऐसे विचार आने स्वाभाविक हैं....इस पोस्ट के द्वारा स्वयम का आंकलन करने में मदद मिलेगी......इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए आभार

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  2. ...संत कबहुं ना फल भखें ,नदी न संचय नीर : परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर ....
    अब आज के दौर में सब उन्मुक्त जी जैसे नहीं हैं न.
    ...लेकिन इतिहास भी ऐसे ही लोंगो को याद करता है जो लोंगो को याद रखते हैं...

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  3. धन्यवाद, क्षमा माँगना व मुस्कान बिना मेहनत या दमड़ी खर्च किए मानवीय भावनाओं को बनाए रखने का सबसे कारगार उपाय है। उन्मुक्त जी की बात सुन अच्छा लगा।
    घुघूती बासूती

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  4. उन्मुक्त जी बेनामी क्यों हैं इस पर कुछ पता चला क्या? उनसे एक बार मिलने की इच्छा है. कभी तो टकरायेंगे कहीं :)

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  5. उन्मुक्त जी ऐसे ही उन्मुक्त नहीं हैं.
    और आपने सही कहा कि - "ये उन चन्द बेनामियों में से हैं जिन पर न जाने कितने सनामी न्योछावर किये जा सकते है".

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  6. नेकी कर दरिया में डाल ..
    लेकिन कब तक!?

    वैसे लगता है हमारी आपकी प्रकृति कुछ कुछ मिलती सी है ;-)

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  7. मुझे संगीत के साथ गाने के लिए प्रोत्साहित उन्मुक्त जी ने ही किया है .....(अच्छा तो नही गा पाती पर प्रयास जारी है ..... शुक्रिया उन्मुक्त जी,मै आपकी एहसानमंद हूँ....
    @अरविन्द जी आपका भी शुक्रिया.....इसी बहाने उन्मुक्त जी का शुक्रिया अदा करने का मौका मिला....

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  8. उन्मुक्त जी से हर कोई सीख सकता है, जीवन जीना।

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  9. बिलकुल सच कहा आपने -
    और उन्मुक्त जी हमेशा ऐसे ही निष्पक्ष रहे हैं
    - लावण्या

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  10. अरविन्द जी इस श्रंखला को लिखने पर आपसे और शास्त्री जी से सहायता ली थी। इसको भी तभी लिख लिया था जब श्रृंखला को लिखा। बस उसी को पॉडकास्ट में बताया है। अगले हफ्ते इसे चिट्ठी के रूप में प्रकाशित करूंगा। यदि यह न करता तो गलत होता।

    मेरी डार्विन वाली श्रृंखला में भी, आपने मुझे जवाहर लाल नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया के बारे में बताया था। जिसका जिक्र मैंने हम न मानेंगे, हमारे मूरिसान लंगूर थे नामक चिट्ठी में किया है। यदि उसको अपना ज्ञान कह कर बखार देता, तो रात को ठीक से सो न पाता।

    देखिये इसका कितना फायदा हुआ। आपने इस पर मेरे बारे में एक प्यारी सी चिट्ठी लिख दी। इतने लोगों ने प्यारी सी टिप्पणी कर दी। आपका और इन सब का आभार, धन्यवाद।

    लोगों के बीच, मैं अपने विचारों के लिये पहचाना जाऊं, न कि परिचय के लिये। बस इसीलिये बेनाम रहने का प्रयत्न करता हूं। अन्तर ही क्या पड़ता है कि मैं कौन हूं और क्या करता हूं। हूं तो हिन्दी का प्रेमी, एक सेवक।

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  11. ऐसी सीख तो सभी को लेनी चाहिए..उमुक्त जी एक आदर्श है..

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  12. उन्मुक्त जी इसी तरह बहुत से लोगों का उनको एहसास दिलाये बगैर ही उपकार किये जाते हैं. वे ऐसे ही उन्मुक्त नहीं हैं. ब्लॉगजगत के उन गिने-चुने लोगों में से हैं, जो निःस्वार्थ भाव से अपने ज्ञान को बाँटते हैं. उनका ब्लॉग कॉपीराइट फ़्री है, जिसकी सामग्री का कोई भी गैरव्यावसायिक इस्तेमाल कर सकता है. इससे पता चलता है कि वे उन्मुक्त भाव से ज्ञान लेने और देने में विश्वास करते हैं. ऐसे लोगों से हमें प्रेरणा लेनी चाहिये.

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  13. @ ... क्या हम भी कृतज्ञता ज्ञापन /प्रत्युपकार के मामले में इतना सचेष्ट हैं? आत्ममंथन कीजिये!
    मत परेशान होइए ;
    ...
    कौन देता है जान फूलों पर
    कौन करता है बात फूलों की |
    ...
    फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
    रोज निकलेगी बात फूलों की |
    ...
    यह तो जगत का व्यापार है - माँ-बाप के अहसान को सुत बिसार देता है , मित्र मित्र-घात
    कर देता है , स्वजन पराये हो जाते हैं , अंगना प्रिय को तज देती है , , , सब चलता रहता
    है .. आत्ममंथन कौन करता है ! बड़ा कठिन है ! जग-रीत तो यही है !
    .
    @ ........ मुझे खीझ तो होती है कि वे बेनामी क्यों हैं ......
    ----------- अच्छा है खीझ के साथ ही सही , आप मानने तो लगे 'बेनामी' के महत्व को !
    खुशी हुई ज़रा सी !
    इधर आपमें कुछ अच्छे बदलाव आ रहे हैं !
    जारी रखियेगा इन्हें , दरकार तो और है ही !
    ( छोटे मुंह बड़ी बात कर गया , पर गलत क्या कहा ?/! )
    .
    @ उन्मुक्त जी / @ ... लोगों के बीच, मैं अपने विचारों के लिये पहचाना जाऊं, न कि परिचय के
    लिये। बस इसीलिये बेनाम रहने का प्रयत्न करता हूं।
    ------------- गांधी जी की याद आ गयी कि मुझे नहीं मेरे विचारों को ज़िंदा रखना ! आभार !

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  14. @ जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं सबसे पहले उसी को नीचे फेक देते हैं...
    ये बदलते ज़माने की कडवी सच्चाई है ...कदम कदम पर ऐसे लोगो से सामना होता है ...जो लोग अंगुली पकड़कर चलना सीखते हैं ...धन्यवाद का एक लफ्ज़ भी बोलना सही नहीं समझते उलटे विश्वासघात पर उतर आते हैं ....कल ही फिर एक ऐसा अनुभव प्राप्त हुआ...क्या कीजे ..ज़माने की रीत है ....

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  15. अरविन्द जी
    आपकी बेनामी वाली पोस्ट पर हमने बेनामियों के बारे में अपना मंतव्य बतला दिया था !
    आज की पोस्ट पर केवल इतना की शिष्ट लोगों को ही शिष्टता के सच्चे अर्थ पता होते हैं :)

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  16. We all are living in the world of good and bad. Saints and evils. All we need is to identify them. But how?

    Tough task indeed,but not impossible.

    Truth is that there exists no one as absolutely good or evil. We all are blessed with certain virtues and vices. So respect the virtue and not the person. This will help you remaining unbiased.

    As far as 'benami' is concerned....People prefer to remain incognito after experiencing the shrewdness, hardships and biases among people. It becomes easy to contribute something productive by remaining 'benaami'.

    "Be to my virtues very kind,
    Be to my faults a little blind"

    Thanks.

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  17. आपने बहुत ही श्रेष्‍ठ मुद्दा उठाया है। मैंने भी बरसों इस पर विचार किया है। अब मुझे लगता है कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति यह चाहता है कि मेरी उपलब्धि में केवल उसी का हाथ रहे, ऐसा समाज को दिखना चाहिए। इसीलिए वह अपने उन्‍नायक को ही सबसे पहले दूर कर देता है। कहीं ऐसा ना हो कि उसे यह स्‍वीकार करना पड़े कि मेरी उन्‍नति में इसका हाथ है। लेकिन समाज में सभी तरह के लोग हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो सार्वजनिक रूप से स्‍वीकार करते हैं और कुछ एकदम नहीं। जो स्‍वीकार नहीं करते वे सब हीनभावना के शिकार होते हैं।

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  18. हिन्दी ब्लॉगिंग में आप का योगदान स्तुत्त्य है। अनुरोध है कि कम से कम ढंग का एक अंग्रेजी ब्लाग पढ़ने का नियम बना लें।

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  19. @ "Be to my virtues very kind,
    Be to my faults a little blind"
    ------------ '' परगुन परमाणून पर्वतीकृत्य नित्यं / निजहृद विकसन्तः सन्ति सन्तः कियंतः ? ''

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  20. मैं कृतज्ञता ज्ञापन में अपने को संकोची और असहज पाता हूँ। बहुत बार चुप रह जाता हूँ।

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  21. अमरेन्द्र ,
    उद्धरण अगर किसी अन्य भाषा में हैं तो उसका अनुवाद प्रचलित भाषा में करना एक अच्छी परम्परा रही है !

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  22. @ ...... उद्धरण अगर किसी अन्य भाषा में हैं तो उसका अनुवाद प्रचलित भाषा में करना एक अच्छी परम्परा रही है !
    मान्यवर ,
    १) यह बात अंगरेजी पर क्यों नहीं लागू होती ! या यह मान लिया जाय कि अंगरेजी मुझ - से 'कैटल क्लासियों' की भी
    भाषा है .. मुझे नहीं लगता कि आज अंगरेजी इतनी प्रचलित हो चुकी है .. आप की बात मान लूंगा पर मानदंड पक्षपाती
    नहीं होना चाहिए .. संस्कृत अप्रचलित है तो अंगरेजी प्रचलित की कोटि में कैसे आयी ? .. आज से पहले आपके द्वारा
    अंगरेजी पर लक्ष करके इस स्वस्थ परम्परा का स्मरण क्यों नहीं कराया गया .. मैं अगर दुरूह शब्दों के लिए 'आक्सफोर्ड
    डिक्सनरी' खोल सकता हूँ तो कोई 'वामन शिवराम आप्टे' को क्यों न खोल कर पढ़े .. पढने का मतलब बैठे बिठाए की
    जुगाली है या उद्यम की यत्किंच प्रेरणा भी ? .. क्या अभी भी आपको लगता है कि मैंने किसी 'अच्छी परम्परा' का
    उल्लंघन किया है ? .. व्यवहार की द्वैध-वृत्ति को हटाइए , मान्यवर !
    २) हमारी गरज है सो अनुवाद कर दे रहा हूँ नहीं तो आप सरीखे बड़े ब्लोगर की हुकुम-अदूली होगी ..
    अनुवाद यह रहा---
    '' दूसरे के परमाणु-वत सद्गुण को पर्वत-वत मान निज-हृद विकसित करने वाले कितने हैं ?'' ( यानी बहुत कम हैं ) ..
    .
    हाँ अगर उद्धरण में खोंट की बू आयी हो तो जरूर बताइयेगा ! आभार !

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  23. @अमरेन्द्र जी ,देव वाणी को जानने समझने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को है -अंगरेजी और हिन्दी कहाँ इतनी श्रेष्ठ हैं ?
    आप तो जरा सी बात का तिल का ताड़ बना देते हैं ....अब पछता रहा हूँ मुक्ति जी से कह देता तो वे सहर्ष यह कार्य कर देतीं यह उपालंभ भी सुनने को नहीं मिलता -अब वे भी मुझ पर कुपित होगीं की मैंने उनसे क्यूं नहीं कहा ?
    वैसे आपका अनुवाद अब मूल से भी कठिन हो गया है ..अगर भावानुवाद होता तो शायद बात बन जाती ...मुक्ति जी से कह ही दूं क्या ? आप बुरा तो नहीं मानेगें ?
    और अभी तो आपके पढने लिखने (अगर खेलने खाने के नहीं! ) के दिन हैं -हजार बार जरूरत पड़े तो डिक्शनरी उठाईये!

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  24. क्या मेरा कमेन्ट प्रकाशित होने के योग्य नहीं था/है ..

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  25. @.......और इतना अदरौना क्यों लेते हैं आप !
    छात्र को इतनी उग्रता और व्यग्रता दोनों से परहेज करना चाहिए ..
    अंगरेजी तो कुली और खोमचे वाले बोल सम्ह्ज रहे हैं -तनिक उद्यम की ज

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  26. @.......और इतना अदरौना क्यों लेते हैं आप !
    ---------- कोई अदरौना नहीं है , इसके पहले भी आप मुझपर
    ''लक्ष्मनी शर-संधान '' का आरोप लगा चुके हैं ! कुछ और कहना हो तो
    वह भी कहिये , आर्य ! सुनने का धैर्य मुझमें बाकी है !
    .
    @ तनिक उद्यम की ज...
    ---------अपने पूर्वोक्त टीप पर ही मैंने कहा है - मैं अगर दुरूह शब्दों के लिए 'आक्सफोर्ड
    डिक्सनरी' खोल सकता हूँ तो कोई 'वामन शिवराम आप्टे' को क्यों न खोल कर पढ़े .. पढने का
    मतलब बैठे बिठाए की जुगाली है या उद्यम की यत्किंच प्रेरणा भी ? ..
    क्या इसके बाद भी लगता है कि मैं उद्यम से पीछे हट रहा हूँ ?
    .
    @ अंगरेजी तो कुली और खोमचे वाले बोल सम्ह्ज रहे हैं ..
    --------- तो क्या यह मान लिया जाय कि अंगरेजी इतनी व्यापक हो गयी है ?
    मुझे आपकी इस बात में 'अतिशयोक्ति दोष' साफ़ दिख रहा है !
    .
    @ छात्र को इतनी उग्रता और व्यग्रता दोनों से परहेज करना चाहिए ..
    -------- इस समझाइस का सम्मान करता हूँ पर आज ऐसा क्या कर दिया मैंने ?

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  27. @ ...........मुक्ति जी से कह ही दूं क्या ? आप बुरा तो नहीं मानेगें ? ...
    ----------- जरूर कह दीजिये ..
    मुक्ति जी विदुषी हैं , बेहतर ही करेंगी ... मुझे भी सीखने को मिलेगा ...
    इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है !

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  28. @ Amrendra-

    aapne sahi kaha....aise log virle hi hote hain....

    nice quote !

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  29. अदरौना का अर्थ है जो कोई काम करने के लिए बहुत मान मनौवल कराता हो मतलब ज्यादा'सिपारिस ' कराता हो -ये शब्द ग्राम्य बोलचाल के हैं -विद्यानिवास मिश्र जी ने इनके संकलन का बीड़ा उठाया था -कुछ प्रकाशित भी किया था! राहत है कि क्म से कम अमरेन्द्र ने इनके बारे में अज्ञानता नहीं दिखायी

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  30. @ girijesh rao , amrendra tripathi

    हिंदी ब्लोगिंग में कृतज्ञता ज्ञापन करने वालों को किस तरह लज्जित होना पड़ता है ....शायद इसीलिए लोग कतराते होंगे ....

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  31. वाणी जी ,
    "कृतज्ञता ज्ञापन तो एक नेक कार्य है ....इसका अपमानित होने से क्या रिश्ता है .......कृपया प्रकाश डालें "

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  32. मुक्ति जी द्वारा किया जाने वाला 'फाइव स्टार , डीलक्स' भावानुवाद अभी नहीं देखने को
    मिल रहा है .. उसी की लिए मैं बार बार आ रहा हूँ .. 'अब बिलम्ब केहि कारन स्वामी' ???
    .
    @ वाणी जी ,
    इसी कृतज्ञता/कृतघ्नता को महसूस करते/करवाते इस पोस्ट का अंतिम अनुच्छेद !!!
    ....... मगर फिर भी !!! / ???

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  33. प्रेरणा दायक पोस्ट लिखने के लिए शुक्रिया ।

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  34. उन्मुक्त जी के प्रति मन में बहुत आदर भाव है।

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  35. जो लोग कृतज्ञता ज्ञापित नहीं करते वे निश्चय ही हीन भावना के शिकार होते हैं...अगर आप किसी की सहायता या उसके भले कार्य का जिक्र कर देते हैं तो यह उसकी नज़रों में और दूसरों की नज़रों में भी आपको ऊँचा ही उठाता है...पर इतनी सी बात बहुत लोग नहीं समझ पाते और फिर... 'नेकी कर दरिया में डाल' के सिवा कुछ चारा नहीं रहता...इसपर ज्यादा चिंता कर, अपनी मानसिक शान्ति ही खोनी पड़ेगी.

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  36. @अमरेन्द्र और अरविन्द जी,
    आप लोग अपने व्यर्थ के विवाद में कृपया मुझे मत घसीटिये.
    @अरविन्द जी, मुझे आप दोनों के विवाद में मेरा इस तरह से नाम लेना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. अमरेन्द्र मेरे मित्र हैं, छोटे भाई जैसे हैं, उनके साथ विवाद में मेरा नाम लेकर ऐसा लगा कि आप हम दोनों की तुलना कर रहे हैं...मैं इससे अप्रसन्न हूँ.
    @अमरेन्द्र, आपका ये कहना " मुक्ति जी द्वारा किया जाने वाला 'फाइव स्टार , डीलक्स' भावानुवाद अभी नहीं देखने को
    मिल रहा है .. उसी की लिए मैं बार बार आ रहा हूँ .. 'अब बिलम्ब केहि कारन स्वामी' ???"
    मानो आप मेरे ऊपर कटाक्ष कर रहे हों, जबकि मैं इस परिदृश्य में उपस्थित ही नहीं हूँ.
    यहाँ बात कृतज्ञता ज्ञापन की हो रही थी और आप लोग व्यर्थ की बात पर लड़ गये और मेरा भी नाम ले आये बीच में. मेरी आपत्ति दर्ज की जाये. मैं आप दोनों लोगों से अप्रसन्न हूँ.
    ...और दुःखी भी.

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  37. @Mukti,
    क्षमाप्रार्थी हूँ ,कुछ विवेकहीन क्षणों में ऐसी मूर्खताएं हो जाती हैं -मैं वास्तव में शर्मिन्दा हूँ !

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  38. मुक्ति जी ,
    कहीं भी आप मेरे कटाक्ष का हेतु नहीं हैं .. आप पर कटाक्ष करने का भाव आया भी नहीं कभी .. हाँ मेरे इन दो शब्दों से आप आहत होंगी - '' फाइव स्टार , डीलक्स '' , पर ये दोनों शब्द मिश्र जी को ही निवेदित थे , जिनके विश्वास दिला देने के बाद भी सरल भावानुवाद नहीं आ सका था ... इसी पोस्ट पर मैंने यह भी कहा है --- '' मुक्ति जी विदुषी हैं , बेहतर ही करेंगी ... मुझे भी सीखने को मिलेगा ...
    इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है ! '' --- मेरी इस बात को आपने नहीं देखा क्या !
    हाँ , आपकी आपत्ति दर्ज करता हूँ .. मुझे शब्दों को ऐसे नहीं रखना चाहिए .. मुझे नहीं लगा था कि मेरी इस बात को आप इतना अन्यथा ले लेंगी .. आपको किसी व्यर्थ के विवाद में घसीटने की जुर्रत भी नहीं है मेरी .. आपके नाम की शुरुआत भी मैंने नहीं की थी .. फिर भी एक वाक्य
    कहने पर मेरी ध्वनन-शैली की कमी को माफ़ कर सकें तो कह रहा हूँ - '' मैं क्षमाप्रार्थी हूँ .. ''

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