मंगलवार, 29 मई 2012

मानविकी और विज्ञान की दूरियां, नजदीकियां-विषय गंभीर है,फुरसत से बांचें!


वैसे तो ब्रितानी वैज्ञानिक और साहित्यकार सी पी स्नो ने विज्ञान और मानविकी विषयों और प्रकारांतर से वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के फासलों को बहुत पहले ही १९५० के आस पास "दो संस्कृतियों " के नाम से बहस का मुद्दा बनाया था मगर आज भी यह विषय प्रायः बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहता है कि विज्ञान और मानविकी या फिर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों के बीच के अलगाव के कौन कौन से पहलू हैं? हम क्यों किसी विषय को विज्ञान का तमगा दे देते हैं और किसी और को कला या साहित्य का?

इस विषय पर ई ओ विल्सन जो आज के जाने माने समाज -जैविकीविद हैं ने विस्तार से फिर से प्रकाश डाला है . पहले हम मानविकी का अर्थ बोध कर लें -मानविकी के अधीन प्राचीन और आधुनिक भाषाएँ,भाषा विज्ञान, साहित्य और इतिहास ,न्याय ,दर्शन और पुरातत्व ,संस्कृति , धर्म ,नीति शास्त्र ,आलोचना ,समाज शास्त्र आदि आदि विषय आते हैं . दरअसल मानव परिवेश और उसके वैविध्यपूर्ण अतीत,परम्पराओं, इतिहास और उसके आज के जीवन से जुड़े अनेक पहलू मानविकी के अंतर्गत हैं. मगर यह आश्चर्यजनक है कि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान के अनेक अनुशासनों में लम्बे अरसे से कोई उल्लेखनीय समन्वय नहीं रहा है. इस दूरी को कम करने का तो एक तरीका यह है कि इन दोनों अनुशासनों के प्रस्तुतीकरण के तौर तरीकों -लिखने के तरीके में कुछ साम्य सुझाया जाय. मतलब लिखने की शैली और सृजनात्मक तरीकों में कुछ समानतायें बूझी जायं. यह उतना मुश्किल भी नहीं है जितना प्रथम दृष्टि में लगता है .इन दोनों क्षेत्रों के अन्वेषक मूलतः कल्पनाशील और कहानीकार की प्रतिभा लिये होते हैं.



अपने आरम्भिक अवस्था में विज्ञान और कला/साहित्य /कविता की कार्ययोजना एक सरीखी ही होती है. दोनों में संकल्पनाएँ होती हैं -संशोधन और परिवर्धन होते हैं और अंत में निष्पत्ति या अन्वेषण का अंतिम स्वरुप निखरता है- किसी भी वैज्ञानिक संकल्पना या काव्य कल्पना का अंत क्या होगा,निष्पत्ति क्या होगी शुरू में स्पष्ट नहीं होती.....और निष्पत्ति ही शुरुआत की संकल्पना को मायने देती है ...उपन्यासकार फ्लैनेरी ओ कोनर ने वैज्ञानिकों और साहित्यकारों दोनों से सवाल किया था," ..जब तक मैं यह देख न लूं कि मैंने कहा क्या था मैं कैसे जान सकता हूँ कि मेरे कहने का अर्थ क्या है?"यह बात साहित्यकार और वैज्ञानिक दोनों पर सामान रूप से लागू होती है -दोनों के लिए निष्पत्ति -अंतिम परिणाम/उत्पाद ही मायने रखता है...एक सफल वैज्ञानिक और एक कवि आरम्भ में तो सोचते एक जैसे हैं मगर वैज्ञानिक काम करता एक बुक कीपर जैसा है-वह आकंड़ो को तरतीब से सहेजता जाता है . वह अपने शोध प्रकल्पों/परिणामों के बारे में कुछ ऐसा लिखता है जिससे वह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू) में पास हो जाय .समवयी समीक्षा के साथ ही तकनीकी और आंकड़ो की परिशुद्धता भी विज्ञान के परिणामों के दावों के लिए बेहद जरुरी है .इस मामले में एक वैज्ञानिक की ख्याति ही उसका सर्वस्व है. और यह ख्याति प्रामाणिक दावों पर ही टिकी रह सकती है. यहाँ हुई चूक एक वैज्ञानिक का कैरियर तबाह कर सकती है. धोखाधड़ी तो एक वैज्ञानिक के कैरियर के लिए मौत का वारंट है . 

मानविकी -साहित्य में धोखाधड़ी के ही समतुल्य है साहित्यिक चोरी(प्लैजियारिज्म).मगर यहाँ कल्पनाओं का खुला खेल खेलने में कोई परहेज नहीं है बल्कि फंतासी /फिक्शन साहित्य की तो यह आवश्यकता है. और जब तक साहित्य की स्वैर कल्पनाएँ सौन्दर्यबोध के लिए प्रीतिकर बनी रहती हैं,उनका महत्व बना रहता है. साहित्यिक और वैज्ञानिक लेखन में मूलभूत अंतर उपमाओं के इस्तेमाल का है ...वैज्ञानिक रिपोर्टों में जब तक दी गयी उपमाएं महज आत्मालोचन और विरोधाभासों को अभिव्यक्त करनें तक सीमित रहती हैं,ग्राह्य हैं. जैसे एक वैज्ञानिक यह लिखे तो मान्य है," यदि यह परिणाम साबित हो पाया तो मैं आशा करता हूँ यह अग्रेतर कई भावी फलदायी परिणामों के दरवाजे खोल देगा " मगर यह वाक्य कदापि नहीं-" हम यह विचार रखते हैं कि ये परिणाम जिन्हें हम बड़ी मुश्किल से प्राप्त कर पाए हैं अग्रेतर परिणामों के ऐसे झरने होंगें जिनसे निश्चय ही शोध परिणामों के कई और जल स्रोत फूट निकलेगें " यह शैली विज्ञान में मान्य नहीं है . 

विज्ञान में शोध के परिणाम का महत्व है और साहित्य में कल्पनाशीलता,उपमाओं की मौलिकता महत्वपूर्ण है. कव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ साहित्य में रचनाकार के मन से पाठक तक संवेदनाओं/भावनाओं के संचार का जरिया हैं . मगर विज्ञान का यह अभीष्ट नहीं है बल्कि यहाँ उद्येश्य तथ्यों को वस्तुनिष्ठ तरीके से पाठकों तक पहुंचाते हुए उसके सामने अन्वेषण की सत्यता और महत्व को प्रमाणों और तर्क के जरिये प्रस्तुत कर उसे संतुष्ट करना होता है . साहित्य में भावनाओं को साझा करने की जितनी ही प्रबलता होगी भाषा शैली जितनी ही काव्यात्मक /गीतात्मक होती जायेगी. एक साहित्यकार के लिए सूरज का उगना,दोपहर में शीर्ष पर चमकना और सांझ ढले डूब जाना जीवन के आरम्भ, यौवन का आगमन और जीवन की इति का संकेतक हो सकता है यद्यपि वैज्ञानिक जानकारी के मुताबिक़ सूर्य धरती के सापेक्ष  ऐसी कोई गति नहीं करता ...किन्तु साहित्य में पूर्वजों से चले आ रहे ऐसे प्रेक्षण आज भी मान्य हैं.काव्य सत्य हैं! साहित्य में वैज्ञानिक सच्चाई  कि सूर्य स्थिर है, धरती ही उसके इर्द गिर्द घूमती है समाहित होने में अभी काफी वक्त है!

 आज बस यहीं तक .. :) आगे कभी फिर इस विषय पर आपको बोर करेगें :) :) 

शनिवार, 26 मई 2012

.... जो आपको न जाने ताके बाप को न जानिए ... :)


इन दिनों मन काफी उद्विग्न है .और उद्विग्नता का कारण भी 'मानवीय' है . कुछ तो ब्लॉग जगत से जुडा है  बाकी दीगर दुनिया के मानवी कमियों से ...वैसे तो मैं मूढ़ता की हद तक आशावादी हूँ मगर कभी कभी लगता है यह दुनिया सचमुच एक जालिम दुनिया ही है -यहाँ परले दर्जे की स्वार्थपरता है,आत्मकेंद्रिकता है ,अपने पराये की सोच है ,कृतघ्नता है ,धोखाधड़ी और छल है,अहमन्यता है ,हिंसा  है ,दुःख दर्द के सिवा और कुछ नहीं है -गरज यह कि यह दुनिया रहने लायक नहीं है ..हमीं लोगों ने इसे रहने लायक नहीं छोड़ा है ..भले ही हमारा चिर उद्घोष सत्यमेव जयते का है मगर अभी इसी बैनर से चल रहे दूरदर्शन कार्यक्रम ने  हमारे अपने समाज के घिनौने चेहरे की परतें उघाड़नी शुरू कर दी हैं -अब तक के केवल तीन इपीसोड़ ने ही बता दिया है कि हमरा समाज दरअसल लुच्चों कमीनों से भरा हुआ है ....गैर पढ़े लिखे नहीं, पढ़े लिखे ज्यादा खूंखार हैं ,संवेदनाओं से रहित हैं ...जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ इन दिनों काफी शिद्दत से याद आ रही हैं -
प्रकृति है सुन्दर परम उदार 

नर ह्रदय परमिति पूरित स्वार्थ 

जहां सुख मिला न उसको तृप्ति 
स्वप्न सी आशा मिली सुषुप्ति 


मगर एक ऐसे समाज के सामने तो अभी अपना ब्लागजगत लाख गुना अच्छा है ..हाँ यह भी अपने समान्तर दुनिया से मिलने की राह पर ही है.

ब्लॉग जगत का भी वह पुराना सहज उत्साह ,मासूमियत भरी उछाह जाती रही...यहाँ भी अब घाघों और घुघूतों का बसेरा है (घुघूती जी माफ़ करेगीं यह उनके घुघूत के लिए नहीं है बल्कि यहाँ  यह उल्लुओं की एक प्रजाति के नाम के रूप में उद्धृत है) ...अब घुघूती जी बीच में आ रही हैं नहीं तो यह शब्द अपने सार्वजनीकरण में कतिपय स्त्रीलिंगों को भी लपेटता ,उनके लिए धन्यभाग, घुघूती जी रक्षा कवच बन गयी हैं :) यहाँ भी दिन ब दिन अजीब अहमन्यता तारी होती जा रही है ..केवल अपनी गाते रहना दूसरों की न सुनना ....दिक्कत यही हुयी कि यहाँ हर कोई ब्लॉगर  है यहाँ दरअसल कोई पाठक है ही नहीं ...जो पाठकीय वृत्ति रखते थे वे भी अब काम भर के ब्लॉगर हो गए हैं .....ब्लॉगर तो एक अलग कौम ही है -उसे साहित्य आदि से कुछ लेना देना भी नहीं है ....बस जबरदस्ती ब्लागरी ( बलागीरी)  करते जाना है ...कोई शिष्टाचार भी उसके लिए मायने नहीं रखता क्योकि वह ब्लॉगर है -केवल अपनी पढना अपनी गुनना ...अपनी ढपली अपना राग ....

तेजी से लोग दूसरे ब्लागों को पढना बंद कर रहे हैं -काहें कि अपने सिवा दूसरे के ब्लाग पढना  ब्लागीय आचार संहिता में नहीं आता ..हाँ टिप्पणियों की लालच में दूसरे  ब्लागों के पढने का स्वांग भर करते हैं -अगर टिप्पणियों पर एक ठीक ठाक नज़र डाल दी जाय तो अक्सर यही दिखता है कि ब्लॉगर बिचारे ने निष्पत्ति कुछ दी है ..टिप्पणी उससे तनिक भी मेल नहीं खाती ..यही चलता रहा तो जल्दी ही टिप्पणी भाष्यकारों की मांग भी होने लगेगी ..मैं तो पहले ही रिजायिन कर रहा हूँ -खुद अपने ब्लॉग पोस्ट पर की गयी टिप्पणियाँ जब समझ नहीं पा  रहा हूँ ,दीगर ब्लागरों की क्या ख़ाक मदद कर पाऊंगा?यह भी एक अजीब सी अहमन्यता है दूसरे ब्लागों को झाँकने तक नहीं जायेगें और ख्वाहिश यह रहेगी कि उनके यहाँ राग दरबारी बजती रहे ... अब कोई आप के यहाँ आया आपको पढ़ा और एवज में एक स्मारिका /टिप्पणी छोड़ गया तो आपका भी यह दायित्व बनता है कि कभी कभार ही सही वहां जाकर कृतज्ञता दिखायें -यह शिष्टाचार का तकाजा भी है . मगर यहाँ अपना विशिष्ट बोध ,अपनी दिखावटी व्यस्तता आड़े हाथ आती हैं ... मुझे यह कतई पसंद नहीं है इसलिए मैंने भी अब निर्णय लिया है कि ब्लॉग पोस्ट अगर पढने लायक रही तो पढ़ जरुर लूँगा मगर टिप्पणी तो वहीं करना है जो हमारे यहाँ भी भले ही भूले भटके आता रहे ....नहीं तो हम भी इतने दरिया दिल काहें  बने .....शठे शाठ्यम समाचरेत ...यह संस्कृत उक्ति तो है ही मार्ग दिखाने  को :) 

उत्तर प्रदेश में नगर निकाय का चुनावी बिगुल बज चुका है ..अब अगले डेढ़  माह तक मेरे पास भी फुर्सत भरा समय नहीं है ..इसलिए नए संकल्प को अपनाने में सहूलियत ही होगी ...वैसे मेरी अपील यही है कि चाहे जो भी हो ब्लॉग लिखना आप कोई भी बंद न करें और दूसरी पोस्टों पर भी अगर आपने उन्हें पढने के बाद पाया है कि वे टिप्पणी डिजर्व करती हैं अपना पत्रं पुष्पं जरुर छोड़ आयें ....हाँ अगर वह बन्दा इतना अहमन्यता पाले बैठा है कि वह कहीं और टिप्पणी करता ही नहीं और कभी भी भूल से भी आपके यहाँ नहीं आता और आप उसके नियमित टिप्पणीकार हैं तो वक्त आ गया है उसकी अहमन्यता को बढ़ावा तो न ही दें .... वह आपके ही उदारता से और भी अहम पालता चला गया है  ...अगर उसके पास वक्त नहीं है तो आपके पास वक्त कहाँ है? -हाँ ऐसे लोग अपवाद हैं जिन्होंने इन्ही बातों के मद्दे नज़र अपना दरवाजा /खिड़की/टिप्पणी खांचा बंद  कर रखा है -मतलब लेने देने का व्यवहार बंद -मगर जो दोनों कपाट खोले जूकियो की तरह कांपा लगाये बैठे  टिप्पणी की ओर टकटकी लगाये रहते हैं और खुद कहीं टिप्पणी नहीं करते हैं -उन्हें सबक सिखाया जाना चाहिए ... वे आपकी सदाशयता और सहिष्णुता के पात्र नहीं हैं .... जो आपको न जाने ताके बाप को न जानिए ... :) 

मैं जानता हूँ मेरे कुछ मित्र भी जो इसी कटेगरी के हैं यह पढ़कर मुझ पर  सठियाने का आरोप लगायेगें उनके लिए बता दूं कि ब्लॉगर पुंगव (श्रेष्ठ ) अनूप शुक्ल जी मुझे पहले ही चिर युवा की संज्ञा/विशेषण दे चुके हैं ....और अभी तो मैं पचपन का भी नहीं हुआ ...पचपन मानें बचपन ! :) 

बुधवार, 23 मई 2012

एक नए 'मानव' धर्म का आगाज


मस्जिद, चर्च और मंदिर से अलग इन दिनों एक नया धर्म आकार ले रहा है। शुरुआत अमेरिका से हुई है। इसके अनुयायी अपने को पारंपरिक धर्मों से अलग कर चुके हैं और बिना किसी धर्म के होने के चलते ' द नन्स' (nones) यानी बिना धर्म के कहे जा रहे हैं। मगर ये विधर्मी नहीं हैं- इनका मूल धर्म है मानवता की सेवा करना... 'परहित सरिस धर्म नहिं भाई' को पूरी तरह चरितार्थ कर रहे हैं ये लोग... भूखे को खाना और बीमार की देखभाल ही इनका धर्म है। 'कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनाम आर्त नाशनम' ही इनका मूल मंत्र है। और इसी ध्येय में मगन रहना ही इनका धर्म और आध्यात्म है। समाज शास्त्रियों ने इस नई मानवीय प्रवृत्ति के लोगों को 'द नन्स' का नाम दिया है। 1990 के बाद अमेरिका में इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है और अब समूची जनसंख्या की 16 फीसदी हो गई है। 

एक मजे की बात यह है कि इन्होंने धर्म तो छोड़ दिया है मगर इनमें से ज्यादातर लोगों का ईश्वर में विश्वास बना हुआ है। वैसे भी अमेरिका में महज 4 फीसदी लोग ही ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते जो या तो नास्तिक हैं या अज्ञेयवादी अर्थात एग्नॉस्टिक-जो यह मानते हैं कि ईश्वर का बोध संभव नहीं है- वे न तो ईश्वर का वजूद मानते हैं और न ही उसके होने से इनकार करते हैं। उनके लिए ईश्वर अगम्य है। जाहिर है पारंपरिक धर्म मानव सेवा के अपने मूल उद्येश्य से इतना भटकता गया है कि अब लोगों में ऐसे संगठनों और स्थापनाओं से मोहभंग होने लगा है। आज सारी दुनिया में धर्म का मतलब एक दूसरे के प्रति हिंसा, ईशनिंदा, रक्तपात ही रह गया है। धर्म के नाम पर लोगों का बदस्तूर शोषण जारी है। 

'द नन्स' अभियान से जुड़े लोग मानव सेवा के अपने काम को ही सच्चा आध्यात्म बताते हैं। वे ईश्वर की सत्ता से इनकार नहीं करते मगर धर्म के संगठित रूप को ढोंग का दर्जा देते हैं। पारंपरिक धर्म जहां कट्टरता है, दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णुता है, भेदभाव है इन्हें प्रिय नहीं रहा। लेखिका एमी सुलिवन ने अभी हाल के टाइम पत्रिका (एशियन अडिशन, 12 मार्च 2012 ) में 'द राइज ऑफ नन्स' शीर्षक से इस नए अभियान की जानकारी दी है। मुझे लगता था कि एक ऐसे अभियान को एक न एक दिन पनपना ही था। अब पारंपरिक और संगठित धर्म अपने 'सुनहले नियमों' के स्थापित राह से काफी दूर हट आए हैं। जन सेवा अब इनका मकसद नहीं रहा। हिन्दू धर्म में जहां अनुयायियों का शोषण, अकूत धनराशि के चढ़ावे पर गिद्ध दृष्टि है तो इस्लाम भाईचारे और शांति के घोषित मकसद की आड़ में हिंसा को बल दे रहा है। ईसाई धर्म जो जन सेवा के प्रति अपने समर्पण के लिए विख्यात रहा है अब पादरियों के आडंबर/भव्यता की चकाचौंध बनता गया है। ऐसे में एक ऐसे मानव धर्म की आज बड़ी जरुरत है। जो विजातियों को भले ही न सही स्वजनों की तो देख रेख करे। उनकी पीड़ा में भागीदार बनें। 

आज भारत में भी टूटते संयुक्त परिवारों के चलते लोगों के जीवन में एकाकीपन आ रहा है। वृद्ध उपेक्षित हो रहे हैं। ऐसे में कोई अभियान तो हो जहां इन दुखियों को भरोसे का कंधा मिल सके। दुःख दर्द बांटा जा सके। एक वह धर्म जो मनुष्य के दुःख दर्द से जानबूझ कर किनारा किए हो, अपने घोषित उद्येश्यों से भटक गया हो उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। ऐसे किसी अभियान की भारत में भी पृष्ठभूमि तैयार है बस अगुवाई की जरुरत है। नई सुगबुगाहटें और एक नये धर्म-मानव धर्म की पदचापें अब सुनाई देने लगी हैं....

शुक्रवार, 18 मई 2012

शूर्पणखा:एक शोध!


अब कैसे कैसे शोध के विषय भी हिन्दी की प्राध्यापिकाएं चयनित करती हैं -इसका उदाहरण मुझे एक उच्च महिला विद्यालय में जाने पर दिखा -एक कथित रूप से माडर्न हिन्दी प्राध्यापिका ने अपनी पी एच डी में पंजीकृत छात्र को एक अद्भुत विषय दे रखा था ."शूर्पणखा के व्यवहार एवं उसके अधिकारों का एक समाजशास्त्रीय विवेचन " ...हद है ....मैंने सोचा अजीब खब्ती टीचर है ....अपनी स्टूडेंट का पूरा जीवन चौपट करने वाली है ..मैंने थोडा हस्तक्षेप करना चाहा ...यह कैसा विषय है? जवाब था कि जब कैकेयी पर काव्य लिखा जा सकता है तो शूर्पणखा पर क्यों नहीं? मैं बहस में नहीं पड़ना चाहता था ....मगर इतना कह ही गया कि एक घिनौनी, बदसूरत,बेडौल, बेहद हिंस्र प्रवृत्ति की राक्षसी पर हिन्दी शोध से अगर हिन्दी का कुछ भला होने वाला हो तो जरुर करिए ....
"मेरी माँ ने त्रिजटा पर शोध किया था" ..वे बेसाख्ता बोल पडीं -हूँ तो यह मामला खानदानी था ....तो हिन्दी की रोटी तोड़ने का काम यहाँ पुश्तैनी था ..कितनी भाग्यहीना है बिचारी हिन्दी कैसे कैसों को झेलती आयी है :( 


फिर वे तफसील से बताने लगीं ...देखिये शूर्पणखा एक आजाद ख्यालों वाली बम्बाट नारी थी ....अपने विचार बिंदास प्रगट कर सकती थी ....और चेहरे से क्या होता है ...माना वह बड़ी ही बदसूरत थी ,सच कहें तो घिनौनी थी, मगर दिल की स्वतंत्र और साफ़ थी .."ओहो तभी तो सीता जी को कच्चा चबाने को वह उद्यत हो गयी थी .. ?" मैंने हठात रोका ...मगर वे जारी रहीं ....अब क्या करती वह ,राम उसे बरगला क्यों रहे थे ..वह एक आजाद ख्याल वाली नारी थी ..लेकिन राम ने उसे रिजेक्ट कर दिया ...और फिर लक्ष्मण ने उसे रिजेक्ट कर दिया ..भाई साहब आप ही बताईये कुछ ही पलों में दो दो रिजेक्शन भला कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है ...."हूँ यह तो है" ..मैं अब मैदान छोड़ने की मनोदशा पर आ गया था ....वैसे भी इस तरह के उत्साही ऊर्जित नारीवादियों से मुझे डर लगती आयी है ..कब किसी को क्या न कह दे ..कब किसी का चरित्र चौराहे पर नीलाम कर दें -इनका क्या भरोसा -अब इन्हें तो रिजेक्शन की पीड़ा आजीवन सताए रहती है शूर्पणखा की भांति.. इन्हें तो सारी दुनिया ही वैसी दिखती है ...मैंने भी पीछा छुड़ाते हुए कहा कि आप रिसर्च विसर्च तो कराईये मगर एक बात अच्छी नहीं लगी आपने मुझे भाई साहब जो कहा ..मैं दुनिया के हर किसी का भाई बनने का माद्दा नहीं रखता और न ही ऐसी कोई सदाशयता पालता हूँ ..मित्रों का चयन बहुत ढूंढ ढाढ के करता हूँ लाखो में एक ....वे भले छोड़ जायं, मैं कभी किसी को नहीं छोड़ता ....वे हतप्रभ होकर मुझे देखने लगीं और मैं वापस चल पड़ा ..

कई खयालात मन में उभर रहे हैं ....कैसे कैसे शोध के विषय लिए जा रहे हैं ..इसलिए ही तो शोध का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है .मैं यह भी मानता हूँ कि शूर्पणखा शायद कोई व्यक्ति भर ही नहीं प्रवृत्ति की परिचायक थी जो आज भी धड़ल्ले से सीना ताने समाज में घूम रही है ...लाख लाख रिजेक्ट हुयी ,अपमानित हुयी ,शील भंग हुआ मगर फिर भी वह नित नए राम की तलाश में दर दर भटक रही है .इस आस में शायद किसी युग में राम अथवा उनके सलोने गौरवर्णी भ्राता उसका उद्धार कर जायं ..मगर आप ही बताईये क्या राम कभी शूर्पणखा का उद्धार करने की सोच भी सकते हैं ..अहल्या तर गयीं ....मगर शूर्पणखा के पाप उसे कभी नहीं तरने देगें ........वह राम की त्याज्य है!

मंगलवार, 15 मई 2012

अंतर्जाल पर निजता बचाए रखना असंभव है!

भारत में तो नहीं, अमेरिका में मानव अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता ने प्रत्येक व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन में भी निजता के प्रति सम्मान का पूरा ध्यान रखा है .कुछ दिनों पहले महिला पत्रकारों ने भारत में सुरक्षा कारणों से पुलिस की तलाशी के तरीकों पर कड़ी आपत्ति जतायी थी ..उनके साथ कथित तौर पर जांच और तलाशी के नाम पर निजता का उल्लंघन किया गया था और बदसलूकी की गयी थी ...न्यूयार्क शहर में आज से ही नहीं सन १०४९ से ही भीड़ में और सड़क पर चहलकदमी करते लोगों को भी 'निजता का उपहार' प्रदत्त था ...यद्यपि वहां भी सुरक्षा कारणों को लेकर नित नयी मुसीबतें अब शुरू हो गयी हैं .
अभी २३ जनवरी २०१२ के अपने एक फैसले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वहां की जासूसी संस्था एफ बी आई ने अमेरिका के निजता के सम्मान के अधीन अनुचित तलाशी और जब्ती के संविधान के 'चौथे संशोधन ' का उल्लंघन किया जब उनके द्वारा मादक द्रव्य के एक संदेहास्पद व्यवसायी के आवागमन को 'ग्लोबल पोजिसनिंग' प्रणाली के जरिये ट्रैक किया . अधिकारियों के पास जांच का वैध वारंट नहीं था ....सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने अमेरिका में लोगों के सार्वजनिक जीवन के रहन सहन में अनावश्यक हस्तक्षेप ,उनके निजी जीवन में ताकझांक पर पाबंदी लगाई है .लोगों को अपनी निजता को बनाए रखने के मौलिक आधिकार बरकरार हैं . 

यह विचार ही नया है कि लोग सार्वजनिक जीवन में भी निजता बनाए रख सकते हैं . यह अमेरिका में संविधान के चौथे संशोधन से मिली एक सुरक्षा है जो लोगों के आम जीवन में भी उनकी निजता का सम्मान करता है . किन्तु आज के युग में जबकि मोबायिल फोन,जी पी एस की जुगतें ,अंतर्जाल लोगों के बारे में सूचनाओं का विशाल भण्डार इकट्ठा कर रही हैं निजता को बनाए रखना संभव नहीं रह गया है . अंतर्जाल पर तो निजता को बचाए रखना असंभव ही है ..
यहाँ हमारी हर गतिविधि कई सेवा प्रदाताओं के पास एकत्रित होती जा रही है .गूगल पर हमारी हर दिन की कितनी ही अंतर्जाल गतिविधियाँ दर्ज होती चल रही हैं .फेसबुक जैसी सोशल साईट हमारी दैनन्दिन जानकारियाँ इकठ्ठा करता जा रहा है -कौन कौन से दोस्त हैं ,कैसी अभिरुचियाँ हैं ,पसंद क्या क्या है आदि आदि ,इन जानकारियों के व्यावसायिक उपयोग भी हमारे जाने अनजाने हो रहे हैं -ऐसे विज्ञापन हमारी आँखों के सामने लाये जा रहे हैं जो हमें बरबस और अनजाने ही अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं . कई कम्पनियों ,अनुष्ठानों की व्यावसायिक लाभ इन जानकारियों में निहित हैं . आशंका यह है कि हम जिन साईट पर जा रहे हैं कहीं वे इन जानकारियों को व्यावसायिक लाभ के लिए सम्बन्धित फार्मों ,कम्पनियों तक तो नहीं पहुंचा रही हैं ? यह हमारी निजता में सीधे सीधे घुसपैठ ही तो है . 

वैसे निजता के पक्षधर भी आज सुरक्षा कारणों से ,बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों के चलते खुद की छानबीन ,तलाशी और जांच आदि के मुद्दे पर जांच एजेंसियों /पुलिस से सहयोग कर रहे हैं .किन्तु अभी जब हाल में एफ बी आई ने १४ करोड़ देशवासियों से जुडी जानकारियाँ, जैसे वे कहाँ कहाँ जाते हैं ,किस फोन का इस्तेमाल किन कामों के लिए करते हैं करियर आई  क्यू नामकी कंपनी से माँगी तो इसका विरोध हुआ . यही नहीं एफ बी आई ने एक ऐसे साफ्टवेयर को भी विकसित किये जाने के बारे में तकनीकी कम्पनियों से राय मांगी थी जो यह बता सके कि कितने और कौन कौन लोग ट्विटर,फेसबुक ,माईस्पेस और ऐसी ही अन्य सोशल नेटवर्क साईट तथा वेबसाईट के ग्राहक हैं . 

इन तमाम गतिविधियों के बावजूद भी मनुष्य की निजता को बनाये/बचाए रखने की सोच ,आम जीवन में भी उसके निजता के अधिकार की रक्षा विषयक संविधान की प्रतिबद्धता अमेरिका सरीखे लोकतंत्र के रहनुमा देश में मानव अधिकारों के प्रति उसकी संवेदनशीलता को दर्शाती है -भारत जैसे अन्य देशों को भी ऐसी परिष्कृत सोच और उसे अमली जामा पहनाने की कवायद करनी चाहिए या नहीं, यह बहस का मुद्दा बनना चाहिए ...

रविवार, 13 मई 2012

शुक्रिया ब्लॉग जगत.....


लोग जो भी कहें, ब्लागजगत ने मेरी सोच ,अनुभव और ज्ञान को  जो नए आयाम दिए हैं उसके लिए मन में कृतज्ञता के भाव ही उठते हैं ....मानव व्यवहार के कई अबूझ पहलुओं को  नजदीक से जानने समझने का मौका दिया . कई मिथों को तोडा है और ऐसी सीखे दी हैं जो शेष जीवन के लिए बड़ी उपयोगी हैं .कितने ही नए चाहे दोस्त दिए हैं तो अनचाहे दुश्मन भी ...सहिष्णुता दी है ,सहने की क्षमता दी है ,अगले को सुनंने का धैर्य दिया है.नयी सीखे दी हैं और यह भी बताया है कि हमारी औकात की लक्ष्मण रेखाएं क्या हैं .

मैं २००७ के आस पास अंतर्जाल से सक्रिय रूप से जुड़ा...अब दिन तारीख समय याद करने का काम कोई दूसरा कर रहा है तो काहें मगजमारी की जाए ..बड़ा उत्साह था ,मगर एक विस्तृत परिक्षेत्र ,अभिरुचि ,संस्कृति ,भौगोलिकता के लोगों से जुड़ने का कोई ऐसा वृहद अनुभव तो  था नहीं लिहाजा जो अज्ञानता जनित  मूर्खतायें होनी थीं जम कर हुईं ..लोगों से लड़ भिड  गए ,खूब उपहास उडाये बिना उनके परिप्रेक्ष्य को समझे ....मैंने ही नहीं कितनों ने यह सब किया ....मगर फिर समझ भी बढ़ती गयी ...असहमतियों के प्रति भी एक सकारात्मक दृष्टि उभरी ...सहिष्णुता पनपी ..मगर अफ़सोस तब तक कुछ मित्र जिन्हें हम कितना चाहते थे हमसे दूर हो गए शायद सदा के लिए ....मैं आज नाम नहीं लेना चाहता ...

ब्लॉग जगत या अंतर्जाल ने मेरे ज्ञान की इतनी वृद्धि की कि अब मुझे अपनी पूर्व अल्पज्ञता का बोध हुआ है...मनुष्य ..पुरुष और नारी को समझने का एक व्यापक नजरिया भी मिला है मगर यह बोध भी कि अभी भी कितना समझा जाना बाकी है . नारी को तो जितना भी समझो और भी अबूझता बढ़ चलती है जैसे ईश्वर का सम्पूर्ण बोध असंभव है नारी का भी सम्पूर्ण बोध संभव नहीं ....जानहि तुमहि तुमहि होई जाई ....ईश्वर को जानने पर खुद ईश्वर हो जाना और नारी की सम्पूर्ण समझ पर खुद नारीत्व को समर्पित हो जाने की शर्ते हैं मानों! फिर नारी ...कुतो मनुष्यः ?? :)

ब्लॉग जगत में अनेक नारियों से जुड़ने का सौभाग्य /दुर्भाग्य मिला मगर उन्होंने प्रकृति के विभिन्नता नियम को ही सिद्ध किया है ....विशेषण एक, मगर संज्ञाएँ कितनी ही अलग  और भिन्न भिन्न ....मगर जैसे किसी सम्पूर्ण पुरुष का अवतरण नहीं हुआ है कोई सम्पूर्ण नारी भी नहीं दिखी है यहाँ ..कम से कम भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी बहुत ही अपूर्ण और प्रवंचित दिखी है मुझे ...मगर उनके परिप्रेक्ष्यों और परिवेश की समझ उनकी अपूर्णता के औचित्य को सिद्ध भी करती है .अंतर्जाल की व्यापकता ने आज भारत ही नहीं विश्व की विपुलता को सीमित कर दिया है ...मैंने विश्व के  दूसरे  छोरों से भी व्यक्तियों से जान पहचान की है -वे सभी ज्यादा पारदर्शी और साफ़ दिखते हैं मुझे ..कोई भाव दैन्यता नहीं ..मैं लाख कह कह कर थक जाऊं यहाँ लोग मुझे मेरे पहले नाम, बिना किसी अनावश्यक आदर सूचक शब्द के आज तक नहीं बुला पाए हैं मगर वहां संबोधन की शुरुआत ही यहीं से होती है ...हेलो कैसे हो अरविन्द? बहुत फर्क है संस्कृति का ...

ब्लॉग जगत के अब तक के प्रवास में जहां अपनी कमियों को चिह्नित करने का मौका मिला वहीं दूसरों की कमियों से सीख भी मिली ..यहाँ खेमों के बनने बिगड़ने को भी देखा ...लोगों को प्रासंगिक से प्रासंगिक और फिर विदा होते भी देखा ....अमर को मरते देखा और मृतक को पुनर्जीवित होते भी देखा ....मगर यह उलाहना  भी नहीं है कि यह सब देखने के पहले ही मैं क्यों नहीं यहाँ से खारिज हो गया :)

यहाँ  सज्जनों को पराभूत होते देखा तो दुर्जनों की अजेयता भी देख रहा हूँ ...मगर तसल्ली यह भी कि अभी भी यहाँ बना हुआ हूँ ....तटस्थ द्रष्टा के रूप में नहीं बल्कि सजगता /संलिप्तता के साथ ...आत्म प्रमोचन की उत्कट अभिलाषा तो खैर कभी भी नहीं रही इसलिए कोई गर्वोक्ति भी नहीं ...हाँ पहले की तुलना में अब ब्लॉग जगत उतना स्पंदित और जीवंत नहीं रहा ....हमने शायद समय के पहले ही इसका भरपूर उपयोग दुरूपयोग कर लिया है ....लोग वीतराग हो चले हैं .....विरत हो उठे हैं ....साहचर्य की अब वैसी ललक नहीं रही ....कई मित्र हैं जिनसे जुड़ने ,कुशल क्षेम जानने की भी  न जाने क्यों इच्छा अब नहीं होती तो वहीं कुछ दुश्मनों की खोज खबर हमेशा लेने को मन चंचल रहता है -उनके अनजाने ही ... :) 

युद्ध विराम की स्थति है ..मगर यह तात्कालिक या अल्प विराम की स्थति नहीं लगती ..सेनायें अब बहुत दूर जा चुकी हैं और गर्द के बादल भी काफी छट गए हैं .चेहरे साफ़ दिख रहे हैं और लोगों के, अनछिपे /छुपे अजेंडे भी ..कई लोग सहिष्णुता के साथ मैदान छोड़ चुके तो कई असहिष्णुता से अभी भी जमे हुए हैं -उनमें एक नाम तो मेरा ही है -वैसे अब यहाँ रखा ही क्या है ... मेरे सब प्रियजन तो एक एक कर चलते भये हैं ,बचों से भी ज्यादा उम्मीद नहीं लगती ..फिर यहाँ क्यों रुकना ? जीवन के पांच छः वर्ष तो यहाँ बीत गए अब कौन सी उम्मीद बची है ....मगर कहते हैं न उम्मीद पर दुनिया कायम है और हम इतने खुदगर्ज भी कैसे हो सकते हैं कि बस केवल अपने और अपने ही बारे में सोचें ..आईये तनिक उदार बनें और दूसरों के बारे में भी सोचें ....समाज को जो कुछ दे सकते हैं जरुर दें..... 

आज सुबह उठा.  ब्रह्म मूहूर्त में ,चार बजे ..और ये विचार सरणि उफनाती गयी है जो अब आप तक भी जा पहुँची है .....

शुक्रवार, 11 मई 2012

दशक के शुरुआत की एक श्रेष्ठ फिल्म -विकी डोनर


विकी डोनर फिल्म की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है .पहली बार एक ऐसी बालीवुड मूवी देखने का  सौभाग्य मिला है जो भारत की सांस्कृतिक समृद्धता वाले परिवेश में एक वैज्ञानिक नज़रिए को स्थापित करने की  जद्दोजेहद करती नज़र आयी और अपने मकसद में सफल होती हुयी भी लगी और वह भी बिना दर्शकों को मिलने वाले फ़िल्मी मनोरंजन से समझौते किये हुए . मुझे लगता है यह इस नए दशक के शुरुआत की एक बहुत अच्छी मनोरंजक ,समाजोपयोगी फिल्म है जिसकी चर्चा लम्बे समय तक होती रहेगी . 

नियोग के जरिये गर्भधारण की एक प्राचीन पद्धति रही है जिसे कतिपय दिखावटी अनुष्ठानों की आड़ में वीर्यदान के जरिये ऋषि मुनि संपादित करते रहे .हमारे रामायण काल और महाभारत काल के कई चरित्र /पात्र इसी विधि से जन्में थे .आज वैज्ञानिकों ने उसी तकनीक को इन विट्रो फर्टीलायिजेशन के रूप में आम जन के उपयोगार्थ ला दिया है . और उन दम्पत्तियों के लिए जो निःसंतान हैं के लिए यह तकनीक वरदान है .मगर इसकी सामाजिक स्वीकार्यता को लेकर अभी भी कई तरह के संकोच और अवरोध हैं .अब इन क्लीनिकों को चलाने के लिए वीर्य चाहिए -और चाहिए वीर्य डोनर ... मगर वीर्यदान आज भी हमारे समाज में कहाँ प्रचलन में है? . नेत्रदान ,रक्तदान आदि तो फिर भी ठीक है मगर वीर्यदान ....न बाबा न यह तो घृणित कार्य है ,फिल्म इसी सोच को बदलने के लिए उद्यत है .


हम आपको कहानी नहीं बताने जा रहे .बस इतना बता दें कि एक नवयुवा किस तरह स्पर्म डोनर बनता है -विकी डोनर ....और कैसे उसका परिवार सामाजिक निंदा का दंश झेलता है -कैसे वैवाहिक जीवन भी संकट में आ जाता है और फिर कैसे वह इन सभी स्थितियों से उबरता है- यह सब देखते हुए दर्शक  अपने को फिल्म से पूरी तरह बंधा हुआ पाता है.एक ऐसी ही दिल्ली स्थित क्लिनिक के  संचालक डॉ. चड्ढा किस तरह से वीर्यदान से जुडी सामाजिक असहमतियों को पूरे संकल्प के साथ दूर करते नज़र आते हैं यह फ़िल्म का एक प्रभावपूर्ण पक्ष है . 

विकी डोनर की सद्य परिणीता पत्नी भी जब अपने पति के स्पर्म डोनर की बात पता लगते ही उससे विमुख हो जाती है तो कहानी एक संवेदनशील मोड़ पर पहुँच जाती है ..एक पढी लिखी माडर्न औरत के भी ख़याल आधुनिक नहीं है -उसके बंगाली पिता उसे सही तरह से शिक्षित करते हैं ,जानकारी देते हैं .फिल्म काफी इमोशनली चार्ज्ड भी है ..विकी डोनर की पत्नी खुद गर्भधारण न कर पाने की अक्षमता की जानकारी होने पर आहत हो जाती है,और तभी उसे पता लगता है कि उसका पति तो स्पर्म डोनर रहा है और कितने ही कोखों को वह आबाद कर चुका  है -छिः यह काम ? और इससे भी बढ़कर उसके अहम को चोट भी कि एक वह है जो बच्चे पैदा नहीं कर सकती और दूसरी ओर उसका पति कितनी कोखों को भर चुका  है .वह प्रत्यक्ष  रूप से यह कहकर कि उसके पति द्वारा यह बात छुपाने के कारण वह उसका साथ छोड़ रही है ,वापस अपने पिता के घर आ जाती है -मगर उसका पिता यह पूछता है कि -" तुम्हे बुरा क्या लगा ...उसका स्पर्म डोनर होना या यह बात छुपाना या उसमें कमीं न होकर कमी तुम्हारे में होना " .यह सीन बहुत  टची है. 

फिल्म का अंत सुखद है क्योकि विकी डोनर के ही स्पर्म से उत्पन्न एक बच्ची  के माता पिता के एक्सीडेंट में मर जाने के कारण  उसे ही यह नायक -नायिका दंपत्ति गोद लेता है . सभी ने बेमिसाल अभिनय किया है . फिल्म भारत के सांस्कृतिक दूरियों, टकराहटों को भी हंसी मजाक के जरिये इंगित करती है ...कैसे एक पंजाबी अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ समझता है तो कैसे एक बंगाली अपने सामने किसी को कुछ आंकता नहीं ...मगर तमाम सांस्कृतिक असहमतियों , अलगावों और बेमेलता के बाद भी आम भारतीय किस तरह  हैपी इंडिंग तक जा पहुँचता है यह देखने इस हंसी मजाक की  किन्तु वैज्ञानिक भावना से भरी  फिल्म को जरुर देखें -एकाध दृश्य थोडा अनुचित से हैं मगर फिर भी यह परिवार के साथ देखी जा सकती है -मैंने पत्नी और मां के साथ यह फिल्म देखी.....पूरे  पांच स्टार ...


मंगलवार, 8 मई 2012

उफ़ यह अकेलापन!



विश्वप्रसिद्ध पत्रिका टाइम के अभी एक हालिया अंक ने मानव समाज में आ रहे कई आमूलचूल बदलावों के प्रति खबरदार किया है जिनमें लोगों में अकेले जीवन यापन की बढ़ती प्रवृत्ति भी है।  आज स्वीडन की लगभग आधी आबादी अकेले जीवन गुजार रही है। मतलब वहां से दाम्पत्य जीवन का लोप हो चला है। ब्रिटेन में 34, जापान में 31, इटली में 29, दक्षिणी अफ्रीका में 24, केन्या में 15, कनाडा में 27, अमेरिका में 28 और ब्राज़ील में 10 फीसदी लोग एकला चलो की जीवन शैली अपना चुके हैं। गनीमत है भारत में यह प्रतिशत अभी भी काफी कम है - तीन फीसदी मगर 'दूधौ नहाओ पूतो फलो' की मान्यता वाले देश में भी अब अकेले रहने की यह प्रवृत्ति मुखरित हो उठी है।

सर्वे के मुताबिक़ अमेरिका में 1950 के दशक में महज 40 लाख लोग अकेली जिन्दगी गुजार रहे थे वहीं अब तीन करोड़ से अधिक लोग अकेले रह रहे हैं जो घर परिवार वाले सभी लोगों का 28 फीसदी है। साफ़ है इन घरों में नई पीढी की किलकारियां नहीं गूजेंगी। मतलब इन परिवारों को अब अपने जैवीय वंशबेलि की चिंता नहीं है। जनसंख्या में भारी गिरावट आसन्न है। अमेरिका में जहां बिना शादी हुए भी आकस्मिक यौन सम्बन्ध से जन्मे बच्चे पालने में अनवेड माता पिता को कोई ख़ास सामाजिक अवमानना नहीं झेलनी पड़ती वहीं जापान के समाज में यह पाप तुल्य है। वहां स्वच्छंद यौन सम्बन्ध तो बनते हैं मगर कोई बिना विवाहित हुए बच्चे नहीं पाल सकता। यहां संस्कृति का अंतर स्पष्ट है। यही स्थति भारत में भी है। मगर यहां यौन सम्बन्ध उतने स्वछन्द नहीं हैं। पश्चिम और पूरब के संस्कृतियों के ये फर्क बड़े स्पष्ट हैं। अकेली आबादी का बड़ा हिस्सा महिलाओं का है।

वैसे अकेले रहना, अकेला हो जाना, अकेलापन महसूस करना अलग अलग बातें हैं। कोई जरूरी नहीं कि बन्धु बांधवों और एक सहचरी के सानिध्य के बाद भी कोई अकेलेपन की अनुभूति न करता हो या फिर अकेले रहकर भी अकेलापन महसूस करता हो। किसी ऐसे के साथ जिसके साथ रहना पल पल दूभर हो रहा हो अकेले रहना ज्यादा आनंददायक है। हां कुछ समाजशास्त्रियों ने अकेलेपन के ट्रेंड को मानव सुख शान्ति के लिए अच्छा नहीं बताया है। उनके मुताबिक़ मनुष्य कई बार अपने मन की बात किसी से साझा करने को अकुला उठता है -यह उसका स्वभाव है - ऐसे में वह घनिष्ठता चाहता है, सानिध्य चाहता है किसी बेहद करीबी का। मगर दूसरी ओर कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि आज अंतर्जाल इस कमी को पूरा करने की भूमिका में उभर रहा है - आज फेसबुक सरीखी सोशल नेटवर्क की साइटें कितने ही मनचाहे लोगों से सम्बन्ध बनाने के नित नए अवसर मुहैया करा रही है। एक वह जो आपका समान मनसा है, समान धर्मा है - एक आत्मा और दो शरीर है - फिर एक अदद पत्नी/पति  की जरुरत कहां है? और अब तेजी से बढ़ता ऑटोमेशन घर के सभी कामों को, गृहिणी के कामों को चुटकी बजाते करने को तत्पर है। स्मार्ट माशीने हैं, रोबॉट हैं जो अगले कुछ वर्षों में घर का सब काम संभाल लेंगे।

मगर कई तरह के खतरों के भी संकेत हैं। पी डी जेम्स ने 1992 में एक उपन्यास लिखा था - 'चिल्ड्रन ऑफ मेन' जिसमें ब्रिटेन जैसे एक देश की भावी तस्वीर प्रस्तुत की गयी थी, जहां की एक बड़ी जनसंख्या अकेले रह रही है और उनकी यौन संसर्गो में रूचि नहीं रह गयी है। और धीरे धीरे वे संतानोत्पत्ति के काबिल नहीं रह गए हैं - मनुष्य जाति विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंची है। हां मातृत्व का सहज बोध है,  बच्चे नहीं तो पालने में महिलाएं गुड्डों गुड़ियों को लेकर ही आत्मतोष कर रही हैं। जिन पुरुषों में अभी भी प्रजनन की क्षमता है उनके लिए सरकारी ख़ास पोर्न हाउस खोले गए हैं जो उनमें यौन भावना के चिंगारी उत्पन्न कर सकें। खुदकुशी बढ रही है, बाहर के तीसरी दुनिया के लोगों को काम क्रीडा या श्रमकार्य के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। मगर उनके बूढ़े या अक्षम होने पर धकिया कर बाहर किया जा रहा है। जापान में ऐसी स्थिति आने में अब ज्यादा वक्त नहीं है।

अभी हाल में ही पेंगुइन बुक्स ने एरिक क्लीनेन बर्ग की पुस्तक, 'गोंइंग सोलो' प्रकाशित की है, जो कुछ राहत देने वाली बातें सामने रखती है। किताब के अनुसार सर्वेक्षित 300 अमेरिकी लोगों में जो अकेले रह रहे हैं, यह जरूरी नहीं है जो अकेले रह रहे हों वे दुखी आत्माएं ही हों। ऐसे लोग सामाजिक रूप से बहुत सक्रिय पाए गए बनिस्बत परिवार वालों के जिन्हें घर से फुरसत ही नहीं मिलती। ऐसे लोगों ने अपने 'महान उद्येश्यों से कभी समझौते नहीं किये, ना ही अनुचित दबाव से डरे। वे अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहे क्योंकि परिवार न होने से उनकी आवश्यकताएं काफी कम थीं। उन्होंने अपनी निजी स्वच्छन्दता, व्यक्तिगत नियमन और आत्मबोध की जिन्दगी के आड़े किसी को आने नहीं दिया और समाज की सेवा की। हम क्या चाहते हैं, कब चाहते हैं, कितना चाहते हैं, अकेलापन हमें अपनी शर्तों पर मुहैया करा सकता है . हम किसी के मुखापेक्षी नहीं रहते। यह घर बार और  गृहिणी/ गृहस्वामी की आये दिन की धौंस, उसकी हर उचित अनुचित फरमाइश से भी मुक्त रखता है। और सबसे मजेदार बात यह कि अकेले रहना ही हमें फिर से दुकेले होने को उकसाता भी है और बदलती दुनिया में उसके भी परिष्कृत साधन और संसाधन जुट रहे हैं।

शनिवार, 5 मई 2012

मुए 'फीड' ने बड़ा दुःख दीना


विगत दिनों से एक अजीब से असमंजस और उहापोह की स्थिति में रहा -एक तकनीकी समस्या ने दुखी कर दिया .हुआ यह कि मैंने वक्ष सुदर्शनाओं वाली विगत पोस्ट के बाद एक हलके हास्य की पोस्ट लंगोट महात्म्य पर भी लिखी थी ,मगर वह प्रकाशित होने के कई घंटों बाद भी जब संकलको पर नहीं दिखी तो यह असहज सा लगा .मैंने अपने ब्लॉगर सेटिंग में जाकर जब फीड बर्नर में उसकी स्थति चेक की तो पता चला वह अपडेट ही नहीं हुयी है -फीड अपडेट न होने के बारे में एच टी एम ल का कोई दोष बताया गया.मैंने लाख कोशिश की मगर कोई फायदा नहीं हुयी ..बहुत कुछ पढ़ा,देखा सुना समझा मगर नतीजा सिफर ...कारण यह है कि मैं खुद कम्प्यूटर की भाषा से बेखबर हूँ -एच टी एम एल पल्ले नहीं पड़ता ...ब्लॉग लिखने और ई मेल पढ़ लिख लेने भर का अर्थ यह नहीं है कि हम  कम्यूटर को भी साध सकते हैं...हलांकि कम्प्यूटर तकनीक विशेषज्ञ तमाम यूजर फ्रेंडली अप्लिकेशन्स मुझ जैसे कम्प्यूटर अज्ञानी के लिए आये दिन जारी कर रहे हैं मगर फिर भी बिना बेसिक्स की समझ के हम कई सामान्य सी समस्याओं को हल नहीं कर सकते ....गूगल का फीड बर्नर बार बार फीड को वैलीडेट करने का आप्शन सुझाता मगर जब मैं जब यह करता तो तो इस अप्लिकेशन का जवाब होता कि एच टी ऍम एल की गड़बड़ी दुरुस्त किये बिना फीड अपडेट नहीं हो सकती ..और मामला यहाँ तक आकर टाय टाय फिस हो जाता ..

मैं इसी असहजता और खुद पर खीजने में समय जाया कर रहा था कि ब्लॉग जगत के केतु संतोष त्रिवेदी जी का उलाहना ..."ये लंगोट वन्गोट  जैसी पोस्ट न डाला करो -कोई पढ़ नहीं रहा है ..ऐसे विषयों पर किसी की रूचि नहीं .." जबकि पहला कमेन्ट ब्लॉग जगत -दिग्गज अनूप शुक्ल जी कर चुके थे जो एक सेलेक्टिव पाठक हैं ..जाहिर है बात कुछ और थी ...और मैं यह पहले तो आत्मग्लानि में ही डूब गया कि देखो इस ब्लॉग की भी क्या गति दुर्गति हो गयी ..पाठकों ने अस्वीकार कर दिया ब्लॉग को ....फिर सोचता, हो सकता है लोग विषय को देखकर टिप्पणी  देने से बंच रहे हो और फिर टिप्पणी से पोस्ट की गुणवत्ता का कोई लेना देना नहीं है -ऐसा ब्लॉग विद्वान गण सिद्ध कर चुके हैं मगर टीस तो उभर ही रही थी और फिर संतोष जी का गर्वोन्मक्त उदगार कि ऐसे  विषयों पर न लिखो --सारे जहाँ में खुद को इस नाचीज का चेला कहते फिरते हैं मगर यहाँ कान काटने को उद्यत दिखे... क्या समय आ गया है अब चेले ही गुरु का अंगूठा क्या हर अंग प्रत्यंग काट डालने पर उतारू हैं....समय और जरुरत के मुताबिक़:) 

किस्सा कोताह यह कि मुझे मन मसोस कर रहना पड़ा ..कुछ ने सुझाया कि लाल बुझक्कड़ से सम्पर्क करो मामला सलटा लो ...मगर अब मुझे यह गंवारा नहीं ..गूगल दादा काफी है .इनसे मिला तो कहने लगे कि तुमने जरुर कहीं और से खासकर माईक्रोसाफ्ट वर्ड्स पर पोस्ट लिख कर फिर वहां से कट पेस्ट किया है ब्लॉगर बक्से में -अरे हाँ यही तो किया था मैंने ...अन्तर्यामी गूगल बाबा जान गए थे ...उन्होंने आगे के लिए चेताया कि ब्लॉगर पर पोस्ट सीधे वही लिखने से ये पोस्ट अपडेट की समस्या नहीं आती .मगर जब से मैंने ब्लॉगर सुविधाओं को अपडेट किया है मुझे हिन्दी लिप्यंतरण का आप्शन "''  दिखता ही नहीं ...तो कहीं से पोस्ट लिख कर वहां पेस्ट करना  पड़ता है ....अभी तो गूगल इंडिक ट्रांसलेशन से यह पोस्ट लिख रहा हूँ .....

मैंने थक हार कर आखिर समस्या की जड़ लंगोट को ही हटा दिया -यानी उस पोस्ट को जो इतना लहक कर मैंने लिखी थी ... मगर जो मेरे मित्र और सुधी पाठकों को दिखी तक नहीं उसकी बलि देनी पडी और यह कृत्य करके मैंने एक टेस्ट पोस्ट लिखी कि मित्रों मेरा ब्लॉग नए पोस्ट फीड अपडेट नहीं कर रहा है इसलिए यह टेस्ट पोस्ट डाल रहा हूँ ..और चमत्कार हो गया -मित्रों के कमेन्ट आने लगे कि पोस्ट दिख रही है -कलेजे का बोझ मानो उतर गया ....अंगरेजी कहावत याद आयी व्हेन गोइंग गेट्स टफ देन टफ गेट्स गोइंग ....

मेरी अपील है कि जानकार मित्र अपनी टिप्पणी में आर एस एस फीड और एटम  फीड के बारे में पाठकों को जरुर बताएं और हाँ वह लंगोट पोस्ट भी पोस्ट करेगें दुबारा मगर यहाँ तनिक मामला कंट्रोल में आ जाय तब ....

गुरुवार, 3 मई 2012

Test Post

This is a test post to see if my feed updates are reaching to the subscribers. I have been facing a frustrating experience  of my blog post feeds not being updated. And I am fed up.
Done all the efforts to get it corrected but now  I give up. 

मंगलवार, 1 मई 2012

निर्धूम इन्डक्शन चूल्हे की धूम


आम भारतीय रसोईघरों में एल पी जी गैस कनेक्शन के बाद तेजी से एक नया निर्धूम चूल्हा जगहं घेरने लगा है -यह है इन्डक्शन चूल्हा. खाना पकाने का एक और नया सुभीतेवाला 'कूल' तरीका। यह ज्यादा पर्यावरण फ्रेंडली है और उन घरों में जहाँ जगह कम है,  रसोईघर के अलावा भी कहीं भी रखा जा सकता है...बस एक प्लग पॉइंट की दरकार है. लपटें नहीं धुंआ नहीं...कई मामलों में तो यह माइक्रोकूकर अवन से भी बढ़कर है...और  चूल्हे की लागत अन्य खाना पकाने के उपकरणों से बेहद कम.बस डेढ़ हजार से दो हजार के बीच...हां कई कम्पनियां इसकी लोकप्रियता के चलते अपने ब्रांड थोड़ा महंगे दामों में भी बाजारों में उतार चुकी हैं, मगर सस्ते इन्डकशन चूल्हों की भी बाजारों में भरमार है. कोई भी चुन लें!


यह चूल्हा चुम्बकीय फील्ड क्रियेट करती है और खाना उसी में पकता है. दरअसल यह चूल्हा भौतिकी के उस प्रदर्शन पर आधारित है जिसमें किसी क्वायल में बिजली के करंट के प्रवाह से आस पास एक चुम्बकीय क्षेत्र तैयार हो जाता है. अब ऐसी ही एक जुगत इस इन्डक्शन टाप/स्टोप/हाब (इसके कई नाम हैं) के भीतर है और उसके ऊपर एक न गरम होने वाली प्लेट लगी है.

जहां खाना बनाने के बर्तन-भगौना, कुकर, फ्राईंग पैन, तवा, कड़ाही को रखा जाता है - चुम्बकीय क्षेत्र उससे आकर टकराता है और बर्तन की पेंदी के प्रतिरोध (रेजिस्टेंस) के चलते वह गरम होने लगता है...कोई हल्का फुल्का ताप नहीं, काफी ज्यादा ताप, जिसमें खाना मिनटों में बन कर तैयार हो जाता है. आश्चर्य की बात यह खाने का बर्तन गरम होता है मगर स्टोव नहीं ...बिना आग के भी खाना पक सकता है. यह है वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का कमाल. मगर कुछ सावधानियां भी जरूरी हैं - इन्डक्शन स्टोव पर केवल लोहे और स्टील के बर्तन ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं, ऐल्म्यूनियम के नहीं - ऐल्म्यूनियम के बर्तन पिघल सकते हैं. इसलिए अब बाजारों में इन्डक्शन कूकिंग वेयर की भी बहुतायत हो चली है - हर खाना पकाने के काम आने वाले बरतन का इन्डक्शन रेंज अलग है, जिसमें उनकी पेंदी को इस लिहाज से सुधारा गया है. 

अगर आपको एलपी गैस मिलने में समस्या है या एक ही एलपीजी गैस सिलिंडर होने से उसके रिफिलिंग के दौरान खाना बनाने की समस्या है तो इस इन्डक्शन स्टोव को आजमा सकते हैं - बिजली की खपत भी काफी कम है.
तो आप भी चाहें तो इन्डक्शन स्टोव लेकर लेटेस्ट तकनीक प्रियता की धाक लोगों पर जमा सकती/सकते हैं! साथ ही ईंधन बचत के प्रबंध में भी एक कदम आगे ले जा सकती/सकते है...तो इन्डक्शन कूकिंग के लिए अग्रिम बधाई और शुभकामनाएं. जो लोग इसका पहले से इस्तेमाल कर रहे हैं वे अपने अनुभव भी साझा करें तो दूसरों का हित होगा.

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