शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अच्छे और बुरे लोग -भाग दो (जानबूझ कर शीर्षक भड़काऊ नहीं है )

अंग्रेजी में एक  कहावत है ,बर्ड्स आफ सेम फेदर फ्लाक टुगेदर -मतलब एक जैसी अभिरुचियों और पसंद नापसंद के लोग एक साथ  रहते हैं ...सहज दोस्ती मित्रता और घनिष्ठ सम्बन्ध तक ऐसी अभिरुचि साम्य की बदौलत  ही होती है .कहते हैं की फला फला में दांत काटी रोटी है या फला फला  एक आत्मा दो शरीर हैं ....कभी कभी यह रूचि साम्यता तो एक नजर में ही दिल में गहरे  पैठ बना लेती है और कभी कभी अपना पूरा समय  भी लेती है --अनुभूति की गहनता कभी कभी सम्बन्धों में  किसी किसी को  एक दूजे के लिए बने होने की परिणति तक ले जाती है ......एक सहज बोध सा हो जाता है कि फला अच्छा है और फला बुरा ....

आधुनिक युग की प्रेमियों की डेटिंग भी  इसलिए ही लम्बी खिचती है ताकि जोड़े एक दूसरे की पसंद नापसंद को  भली भाति समझ बूझ  लें जिससे आगे   साथ साथ निर्वाह कर सकें यद्यपि यहाँ भी कुछ धोखे हो जाते हैं और बाद में साथ रहना झेलने सरीखा होने लगता है...हमारे पूर्वजों ने हजारों सालों के प्रेक्षण के दौरान इन बातों को बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था ...और इन कटु यथार्थों के बावजूद भी जीवन की गाडी खिचती रहे इसलिए कई सुनहले सामजिक  नियम आदि बना कर मनुष्य की आदिम भावनाओं पर अंकुश लागना शुरू किया था  ..दाम्पत्य में एक निष्ठता के देवत्व का  आरोपण .उनमे से एक था ..लेकिन मूल भाव तो वही है आज भी -.जो जेहिं भाव नीक तेहि सोई....मतलब जो जिसे सुहाता है वही तो उसे पसंद है ....तुलसी यह भी कहते हैं कि मूलतः भले बुरे सभी ब्रह्मा के ही तो पैदा किये हुए हैं -पर गुण दोष का विचारण कर शास्त्रों  ने उन्हें अलग अलग कर दिया है ...यह विधि (ब्रह्मा )  प्रपंच (सृष्टि ) गुण अवगुणों से सनी हुयी है .....यहाँ अच्छे बुरे ही नहीं ...पूरा चराचर ही  जैसे परस्पर विरोधी द्वैत में सृजित  हुआ है ...

दुःख सुख पाप पुण्य दिन राती . साधू असाधु सुजाति कुजाती 
 दानव  देव  उंच  अरु  नीचू . अमिय  सुजीवनु   माहुर  मीचू
माया ब्रह्म जीव जगदीसा .लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा 
कासी मग सुरसरि क्रमनासा .मरू मारव महिदेव गवासा 
सरग नरग अनुराग विरागा. निगमागम गुण दोष बिभागा  
[बालकाण्ड (५)]

दुःख -सुख ,पाप पुण्य, दिन रात, साधु(भले)  -असाधु(बुरे ) , सुजाति -कुजाति ,दानव -देवता ,उंच -नीच ,अमृत विष ,सुजीवन यानि सुन्दर जीवन या मृत्यु ,माया- ब्रह्म ,जीव- ईश्वर ,संपत्ति -दरिद्रता ,रंक -राजा ,काशी- मगध,गंगा -कर्मनाशा ,मारवाड़ -मालवा ,ब्राहमण -कसाई ,स्वर्ग -नरक ,अनुराग -वैराग्य ,ये सभी तो ब्रह्मा के ही बनाए हुए हैं मगर शास्त्रों   ने इनके गुण दोष अलग किये हैं -प्रकारांतर से सृजन/सृजित  का कोई दोष नहीं ,सब चूकि अलग अलग प्रकृति के हैं इसलिए इनमे मेल संभव नहीं है ....जो जेहि भाव नीक सोई तेही ...हाँ कुछ क्षद्म वेशी इस समूह से उस समूह में आवाजाही लगाये रहते हैं -चेहरे पर मुखौटे लगाये मगर कौन कैसा है यह भी बहुत दिनों तक छुपा नहीं रहता -उघरहि अंत न होई निबाहू कालनेमि जिमी रावण राहू ....अन्ततोगत्वा तो सब उघर ही जाता है ,अनावृत्त हो जाता है कि कौन क्या है ,रावण, कालनेमि, राहू --कब तक छुपे रह सकते हैं ये ....एक दिन तो .....

हम तो खुद को बुरा ही मानते हैं अगर अपनी कमियों को देखते हैं .....जो दिल देखू आपना मुझसा बुरा न कोय -खुशदीप ने ठीक उद्धृत किया ......यह कोई नया  चिंतन नहीं है सदियों से मनुष्य इन पर विचार विमर्श करता आया है ......आप अच्छे बने रहिये ,तब तक तो हम स्वतः बुरे रहेगें ही .......


39 टिप्‍पणियां:

  1. कटु यथार्थों के बावजूद भी जीवन की गाडी खिचती रहे

    -बस इसी कोशिश में लगे रहते हैं.

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  2. अच्छाई-बुराई,सुख दुःख ये तो एक साथ ही चलेंगे.....

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  3. आलेख श्रृंखला की पिछली कड़ी में आपने चिंतन धारा साम्य के आधार पर पसंद और नापसंद की चर्चा की थी ! जबकि आज के आलेख में आपका फोकस केवल अच्छे और बुरे शब्द के चिंतन पर है ! अरविन्द जी क्या चिंतन प्रणाली का 'साम्य और पसंद अच्छे होने' तथा चिंतन प्रणाली की 'भिन्नता और नापसंद बुरे होने' निर्धारक तत्व / कारक है ? मिसाल के तौर पर मैंने स्वयं कभी भी कविता की शक्ल में चिंतन नहीं किया ...अतः कवि मुझसे भिन्न चिन्तक हैं ( इनमें से अधिकाधिक को आप मेरी नापसंद की श्रेणी में रख कर देखिये ) तो क्या कवि चिन्तक मेरी नापसंद के आधार पर बुरे ठहराये जा सकेंगे ? इसके ठीक विपरीत कवि गण मेरे बारे में सोचें ? अगर कोई राजनैतिक दल मुझसे भिन्न राजनैतिक चिंतन करता हो तो भी क्या मैं पसंद / नापसंद के आधार पर अच्छा या बुरा होना तय कर दूं ? नहीं ना ...? क्या है ये अच्छा होना या बुरा होना ? क्या यह मेरी निज आस्था / अभिरुचि द्वारा निर्धारित किये जा सकने वाली धारणायें हैं ? क्या अच्छा / बुरा होना व्यक्तिगत स्तर पर निपटाया जा सकने वाला विचार है ?
    पता नहीं मित्र इसके बारे में क्या सोचते होंगे ? ...पर मुझे लगता है कि पसंद अथवा नापसंदीदगी तो व्यक्तिगत स्तर पर तय की जा सकती है किन्तु अच्छा या बुरा होना बिलकुल भी नहीं ! मेरे ख्याल से यह सामूहिक स्वीकृति आधारित धारणायें हैं जो , सामूहिक / सामाजिक / वर्गीय स्वीकृति और नियमन के अनुकूल है वो उस समूह विशेष के लिए अच्छा है और जो , स्वीकृति से विचलित है वह बुरा ! इससे क्या फर्क पड़ता है कि आई. ऍफ़.एस. माधुरी गुप्ता मुझे पसंद है कि नहीं... पर वे राष्ट्रीयता / सामूहिकता से विचलित हैं इस लिए बुरी हैं !

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  4. कृत्रिमता टिकती नहीं । दोष ढकने के प्रयासों से अधिक दोष कम करने प्रयासों को समय मिलना चाहिये ।

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  5. फ़ूल्स सेलडम डिफ़र- यह भी एक कहावत है।

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  6. सुंदर आलेख. जीवन हमेशा विसंगतियों और विपरीत परिस्थितियों में ही पुष्ट होता है. अगर सब कुछ सहज हो और जीवन की रामलीला मे मामा मारीच और और सुर्पणखाएं ना हों तो आप जीवन मे कभी शांति का मूल्य नही जान पायेंगे.

    रामराम.

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  7. मैं रचनाजी की सहमति से सहमत हूँ ...
    हालाँकि मैं ये मानती हूँ कि दो भिन्न प्रकृति/सामाजिक/ आर्थिक /राजनैतिक/ व्यक्तिगत वाले मनुष्यों के बीच भी सहज मित्रता कायम रहती है ...जैसे बहुत कम ही भाई बहनों में विचार साम्यता होती है ...मगर फिर भी वे अच्छे मित्र होते हैं ...मेरा छोटा भाई मुझसे प्रकृति/स्वभाव में बहुत भिन्न है ...फिर भी हमारा रिश्ता अच्छी मित्रता का भी है ....
    फिर भी मैं " सहज मित्रता और घनिष्ठ सम्बन्ध तक ऐसी अभिरुचि साम्य की बदौलत ही होती है..." पर गंभीरता से विचार कर रही हूँ ...विद्वानों की राय पर गौर कर लेना चाहिए ....

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  8. मैं भी अली जी की बात से सहमत हूँ.

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  9. अफलातून सर की बात से सहमत.

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  10. चर्चा में खुद निमग्न न होने से अच्छा है किसी से सहमत हो लिया जाय !
    चलिए यह तो हंसी हुयी -मगर अली सा ने सचमुच बहुत संतुलित लिखा है
    मैंने पहलेलोगों की आपसी पसंद नापसंद फिर अच्छे बुरे लोगों पर चर्चा की है -
    जो पसंद होता है सचमुच उसमें दोष कहाँ दीखता है अली सा ? और हाँ नापसंद होते ही उसमे सौ सौ दोष दिखने शुरू हो जाते हैं !

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  11. "जो पसंद होता है सचमुच उसमें दोष कहाँ दीखता है" पहले कुछ और सोचा था टिपण्णी के लिए पर ये लाइन दिख गयी. और इसमें उलझ गया... इसकी सच्चाई में कोई दो राय नहीं हो सकती.

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  12. अरविन्द जी
    ऐसा नहीं है कि पसंद होने पर दोष दिखता ही नहीं ...जरुर दिखता है पर तब हम अपनी पसंद के आभामंडल में दोष के प्रति सहिष्णु बने रहते हैं और जैसे ही नापसंद के स्तर पर यह आभामंडल टूटता है हम दोष के प्रति असहिष्णु हो उठते हैं ...हंगामा खड़ा कर देते हैं ! पुनः निवेदन है कि पसंद और नापसंद ...दोष दिखना या ना दिखना , प्रथमतयः नितांत व्यक्तिगत स्तर पर निपटाये जाने वाले विषय है , जबकि अच्छे और बुरे की कसौटी केवल सामूहिकता की स्वीकृति या अस्वीकृति है ! कहने का आशय यह है कि , यदि दोष सामूहिक स्तर पर अवलोकित और निर्धारित हो तो ही वह बुरेपन का प्रतीक / पर्याय होगा !

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  13. When all are 'sehmat' with each other, then why should i travel the less trodden path? I also agree with following people--

    Ali ji, Rachna ji, mukti ji, Vani ji, Abhishek ji and brijendra ji and all the remaining lot who 'll appear here to agree.

    @ Sameer ji-
    Now let me differ with udan tashtari...opps, i mean Tashtari par baithey Sameer ji....He is sitting on an UFO...flying high in the sky, but he is talking of....जीवन की गाडी खिचती रहे...

    @Praveen ji-
    I beg to differ Sir....कृत्रिमता टिकती नहीं ...Kaise nahi tikti....Its beautifully hidden behind your sweet smile.

    @ Aflatoon-
    I beg to differ Sir.....Just 'cause i hate to be categorized as fool....

    By the way , I cannot deny-- "Intellectuals may differ in their opinion but fools put their head together"

    @ Tau-
    Do chaar tau-tai na hon to maja kaisa?

    @ Raj Bhatia ji--
    I beg to differ Sir..."main bhi dhoodhan chali....Tujhse bura na koy"....

    @ Abhishek Ojha-
    "जो पसंद होता है सचमुच उसमें दोष कहाँ दीखता है"
    Ajee dikhta kaise nahi?...ussi mein to dikhta hai.
    The person we like have following vices (dosh)--

    He/she becomes possessive,
    He/she becomes jealous,
    He/she starts expecting a lot,
    He/she starts ruling us,
    He/she starts telling us Dos and DONTs
    He/she starts talking cryptic,
    He/she starts criticizing,
    He/she starts condemning,
    He/she starts dictating,
    He/she starts suffocating,
    He/she takes away our personal space

    At this juncture a good person appears bad.

    But is he really bad?...No! circumstances make us feel that way.

    On a lighter note--

    "pothee padh padh jug bhaya, pandit bhaya na koy,
    Dhaii akshar prem ka padhe so pandit hoy."

    The thin line between good and evil merges when a person becomes blind in love with the bigger family. Till then the good and bad will continue to exist.

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  14. when i read my comment again...i realized.....Some are good, some are bad and some are crazy like Divya.

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  15. पिछली पोस्ट पर यह कहना चाहता था कि दुनिया में कोई भी दो लोग एक समान नहीं पैदा हुए फिर भी मित्रता के नायाब उदाहरण मिलते हैं। वहीं लगभग पूरी तरह समान जुड़वा भाइयों में भी दुश्मनी पैदा हो जाती है। एक जैसी सोच भी कभी शतप्रतिशत मात्रा में नहीं मिलती फिर भी वैचारिक आधार पर बड़े-बड़े समूह इकट्ठा हो जाते हैं।

    आज की पोस्ट में पसन्द नापसन्द की चर्चा की गयी है। मुझे लगता है कि इसका आधार व्यक्तिगत सोच और अभिरुचि के साथ साथ कुछ सर्वमान्य मूल्य (universal values)भी होते हैं। इन मूल्य के कारण ही ही हमारे बीच समानता के सूत्र पैदा होते हैं और अनेकता में एकता का भाव बनता है।

    सुन्दर विचारणीय पोस्ट।

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  16. मित्रता के लिए मन में भाव होना चाहिए....समां सोच वाले जल्दी घुल मिल जाते हैं पर ज़रूरी नहीं की अच्छे मित्र भी बने...हाँ आपस में विचार विमर्श ज़रूर अच्छा हो सकता है...और रिश्तों के लिए ज़रूर कभी कभी गाड़ी खींचनी पड़ती है....जिंदगी में बहुत समझौते करने पड़ते हैं....अच्छे बुरे की पहचान होते हुए भी कभी कभी चुप रहना पड़ता है....

    बस आपकी पोस्ट पर मंथन करना ज़रूरी है....अच्छी विचारणीय पोस्ट

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  17. सोच तो रही थी कि इतने अच्छे कमेन्ट हैं .kisi ki baat से सहमत हो कर निकल चलूँ...
    lekin nahin--अपनी बात कह ही दूँ--'मुखोटों की एक उम्र होती है और 'वक़्त हर फैसला कर देता है.

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  18. @अली सा आपकी इस बात से तो असहमत हुआ ही नहीं जा सकता -

    "पसंद और नापसंद ...दोष दिखना या ना दिखना , प्रथमतयः नितांत व्यक्तिगत स्तर पर निपटाये जाने वाले विषय है , जबकि अच्छे और बुरे की कसौटी केवल सामूहिकता की स्वीकृति या अस्वीकृति है !"

    @जील ,
    जरा कटाक्ष कृपाण कम ....
    आपने किसी को तो छोड़ा होता
    He/she becomes possessive,
    He/she becomes jealous,
    He/she starts expecting a lot,
    He/she starts ruling us,
    He/she starts telling us Dos and DONTs
    He/she starts talking cryptic,
    He/she starts criticizing,
    He/she starts condemning,
    He/she starts dictating,
    He/she starts suffocating,
    He/she takes away our personal space

    At this juncture a good person appears bad.

    @अल्पना जी क्या करियेगा लोग मुखौटे बालते भी तो रहते हैं -एक फटा -चिटा तो दूसरा धारण कर लेते हैं ,,उनका असली चेहरा तो कभी दिखता जी नहीं ..
    हाँ वक्त इनकी पहचान मुखौटे बदलने वालों के रूप में कर देता है -अपने भी पहचाना क्या ? मैंने तो पहचान लिया है, नाम बताऊँ क्या ? आप तो जानती ही हैं !

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  19. सुख दुखे समा कृत्वा लाभा-लाभौ जया जयो...............
    गंभीर -मनन चिंतन.

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  20. सापेक्षता प्रभावी रहती है।
    अली भाई के दृष्टिकोण के साथ हूं।

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  21. @ Arvind ji-

    Hum to dil se comments likhte hain...Some find the glass, half-full while some find the glass, half-empty.

    apni-apni thinking hai..

    @ Birendra-

    Life mein pehli baar koi mujhse 'sehmat' hua hai. aapka naam 'achhe-log' ki category main darj kiya jata hai. And of course a cadbury bite is due with you.

    PS- Readers are requested to turn on the switch of humour while reading me, otherwise it may prove to be fatal.

    Gracias.

    जवाब देंहटाएं
  22. @अरविन्द जी ,नाम बताने की आवश्यकता नहीं ,इंसानों को पहचानने की क्षमता ईश्वर ने ,जीवन के /profession के अनुभव ने काफी दे दी है....आभासी हो या वास्तविक कैसी भी दुनिया ..मेरा अनुमान या अंदाज़ा आज तक किसी व्यक्ति के बारे में कभी गलत नहीं हुआ.....इसलिए धोका खाने वाली या दिल टूटने वाली नौबत कभी आई नहीं..: )
    .........आप को ज़रूर हाल ही में ऐसा कुछ चुभा है जिसकी टीस यहाँ देखी जा सकती है. ..इस लेख को ज़ारी रखीये ..ताकि १० पढने वालों में से एक तो अवश्य ही लाभान्वित होगा इन बातों से.
    --------------------------

    जवाब देंहटाएं
  23. @जील की इन बातों पर एक बढ़िया सबकनुमा [मनोवैज्ञानिक ]पोस्ट बन सकती है .
    ऐसे रिश्ते जिनमे possessiveness हावी होने लगती है..उस में क्या क्या अंजाम हो सकते हैं---
    He/she becomes possessive,
    He/she becomes jealous,
    He/she starts expecting a lot,
    He/she starts ruling us,
    He/she starts telling us Dos and DONTs
    He/she starts talking cryptic,
    He/she starts criticizing,
    He/she starts condemning,
    He/she starts dictating,
    He/she starts suffocating,
    He/she takes away our personal space
    ------
    At this juncture a good person appears bad.
    ---------------
    मैं इस में और वाक्य एक जोड़ देती हूँ....अब इतना होने के बाद----ऐसे ही प्रेमी--या सम्बन्धी---अपराधी बन जाते हैं...रोज़ समाचारों में पढ़ते ही होंगे...
    यह यहाँ की पोस्ट से हट कर सामग्री है --जील क्या कहती हैं आप?लिखीये न..इस विषय पर विस्तार में ..

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  24. @अल्पना jee ,
    सच हैं आप! ज्यादा और कुछ नहीं कह सकता ...
    हाँ जील के उक्त विचारों पर एक धाँसू पोस्ट जरूर बनेगी ...पर हंगामा भी हो सकता है !
    आप कुछ रक्षा कवच का भरोसा दें तो यह जोखिम भी उठाया जा सकता है

    जवाब देंहटाएं
  25. @ Alpana ji-

    You are absolutely correct in saying that a mind blowing post can be written on the above thought. I am sure we have many wonderful bloggers here to write beautifully.

    Alpana ji, if possible , please write a post on it. I am sure you will do justice with the theme because the thoughts appealed you.

    As far as I am concerned i love reading human mind, which is often reflected in my comments.

    A person needs to stop somewhere when the things start slipping from their hands. Usually people realize only after it is too late.

    Everyone on this earth is craving for appreciation and genuine love which he/she fails to get. And the moment he gets it from somewhere he wants to possess the person and to avail him/her fully . His possessiveness, gradually becomes obsession and later the fear of rejection, makes a person hostile towards his friend or beloved.

    Then as you rightly stated...a person either becomes mentally sick or he turns into a criminal . [Barring few exceptions, who succeed in maintaining their sanity against all odds].

    Alpana ji, i would like to see you write on this topic. Do accept my request.

    @ Arvind ji-
    Janhit mein, series jari rakhiye....

    जवाब देंहटाएं
  26. @ Arvind ji-

    Why you deleted amma ji's comment?....She called me 'kullachhini' and i accepted it gracefully. What fear made you delete that comment?

    Either don't publish, or delete after publishing.

    She thinks if a person is writining in english means she is 'kulachhini' , then let her live in this illusion. She is illiterate and ignorant. Its not my fault. I have only two words for her..."bandar kya jane adrak ka swaad'.

    Amma jaise "charitrawaan' ko bhi adhikaar hai Gariyane ka...

    Above all , its a fun reading clowns also.

    Do not delete comments after publishing.

    Think twice before you publish and before you delete as well.

    Don't forget its a post related with Good and bad people..Let everyone opine.

    Let her mess with zeal. She doesn't know that she is messing with...."Iron hands in velvet gloves"

    Smiles !

    जवाब देंहटाएं
  27. "Do not delete comments after publishing.

    Think twice before you publish and before you delete as well."
    Thanks for your views but its a blog owner's prerogative to take such decisions!
    anyways thanks again for your views and suggestions!

    जवाब देंहटाएं
  28. Arvind ji,

    I fully agree with you.

    Never compromise with your freedom.

    Nothing could be bigger than one's freedom.

    Thanks

    जवाब देंहटाएं
  29. @ zeal जी & Arvind Mishra जी,

    हम आप लोगन को सबसे पहले तो ई बताया चाहती हैं कि हमने इहां पर जो कपूत अऊर कुलछ्छनी लिखी रही ऊ सन का आप लोगन से कोनू संबंध नाही बा.

    एकरे बाद ई कहा चाहती हैं कि हम कोनू अंगरेजी की दुश्मन नाही हैं अऊर आप लोग चाहो तो अम्माजी से अंगरेजी मा मुकाबला कर के देखलो.

    आगे ई कहा चाहत हैं कि आपको कोई गलतफ़ैमिली हुई गवा है. हमरा कोई भी कमेंट आप लोगों की तरफ़ नाही था. बल्कि Zeal जी का कमेंटवा इहां उंहा देखके अम्माजी बडी प्रसन्न होती है.

    एकरा बाद मा Zeal जी आपने लिखी रहिन "Let her mess with zeal. She doesn't know that she is messing with...."Iron hands in velvet gloves"

    तो अगर आपको अमाजी को ई बुढती मा लोहे का हाथन मा वेलवेट पहन के मारने की का जरुरत बा? अम्माजी तो एंवई ही नदी किनारे का पेड बा...कोई दिन हल्की सी आंधी उदा ले जायेगी.
    त बिटिया हम ई कहा चाहत हैं कि अम्माजी को मारके तुमको स्वाद मिलए त अपना पता ठीकाना बताय दो..अम्माजी खुदे आपके द्वारे आके खुदे आपन गला काट लेंगी..आप काहे पाप सर पे लेत हो.

    अऊर अरविंद बिटवा, हम तुमसे ई उम्मीद नाही किये थे कि तुम अम्माजी को एतना गलत समझोगे? खैर जैसन तुहार मर्जी.

    हमरा इहां टिप्पणी से जिस किसी को ठेस पहुंचा हो ऊ लोगन से हम दिल से माफ़ी चाहत हैं. अऊर का करि सकत हैं? हाथ गौर भी जोड लेत हैं..अऊर जो भी करवानो चाहो ऊ भी करि सकत हैं..पर हम सिर्फ़ ई कहा चाहत हैं कि हमका गलत नाही समझा जाये अऊर हमरा इशारा आप लोगन की तरफ़ नही था.

    फ़िर भी अगर आ लोग अम्माजी का गला लोहे के हाथों से घॊटना चाहो त हम भी अब जीने से उकता चुकी हैं. आप लोगन का कोनू कसूर नाही बा. बस ई प्रार्थना करत हैं कि "हे ईश्वर कपूत औलाद किसी को ना देना"

    -अम्माजी

    जवाब देंहटाएं
  30. @ Amma ji-

    Please accept my sincere apologies !

    I love you mom.

    Hugs and smooches,
    Divya

    जवाब देंहटाएं
  31. अम्मा ,हम लाख कहे की ई अम्मा बहुत अच्छी हैं मगर जब केहू बात हमार माने तब न-सब के त हम उठल्लू के चूल्हा दिखत हैं अम्मा -चल जौन भा अच्छा खातिर भा -आपक एक बार फिर आशीर्वाद मिल गवा ....मन कहत है की अब हमहूँ कुछ दिन आराम कर लें -दिमाग पर कुछ जादा असर है अम्मा ......आप से अच्छा आखिर ब्लॉग जगत के दूसर के जानत हौ अम्मा ?

    जवाब देंहटाएं
  32. @ Zeal बिटिया तुहार मन साफ़ बा. खुश रहो, एंवई बढिया अऊर सार्थक कमेंट करिके ई लरिका बचुआ लोगन का लिखे का होसला बढाती रहो.

    @ अरविंट बिटिया, के कहत है कि तुम "उठल्लू के चूल्हा दिखत" हो? उनकी आंखे निकार डारेगी अम्माजी. बस अपना हिंदी महतारी का सेवा करते रहो. ई कछु नालायक कपूत कपूतनियां इंहा घुस आये हैं...पर ई भी याद रखो कि इन सबकी उम्र जियादे नाही बा.

    इहां ऊही टिकेगा जो अच्छा लिखेगा...अच्छा कमेंटवा करके दूसरन का मनोबल बढायेगा, जैसन समीर बिटवा करत है. दूसरन के मजे लेबे वारे जियादे दिन नाही टिकेंगे.

    -अम्माजी.

    जवाब देंहटाएं
  33. @
    'अरविन्द बिटिया '-ई हमार सेक्स्वा काहें बिगार दिहीं अम्मा?
    जब जील बिटिया हुईं त हम तोहार बेटवा हुए ना?
    दिमागीन देत बाटी अगले पोस्टवा में -याददाश्त्वा ठीक हुयी जाए
    अब समीर साहब त ब्लॉग बादशाह हैये हैं!कौब उनकर बराबरी कई सके -
    ब्लॉग विभूषण ,चिट्ठा सरताज ,टिप्पड़ी सुलतान !

    जवाब देंहटाएं
  34. hanks for your views but its a blog owner's prerogative to take such decisions!


    http://mishraarvind.blogspot.com/2010/03/blog-post_12.html

    what a contradiction
    i dont think you are clear on your own thinking process

    but
    it happens because telling others what needs to be done is simpler then accepting what others tell you to do

    जवाब देंहटाएं
  35. @Rachna ji
    Every good discussion ignite and enliven the unbiased minds -I learned the message from the same post....
    Thanks !

    जवाब देंहटाएं
  36. अरे अरविंद बिटवा, अब का बताईब? ई उमर मा कंप्यूटरवा कछु लिह लेत हैं ई ही बहुत है हमार लिये. गलती से बिटवा की जगह बिटिया लिखा गया.

    ऊ का है कि हमका भी हिंदी लिखबे मे बहुते परेशानी होत है पर हम कसम खा रखीं हैं कि कमेंटवा देवनागरी मा ही लिखेंगी. वैसे हम नखलेऊ से १९६२ में अंग्रेजी मा BA किया रहा.

    इहां हिंदी लिखबे का अटरेक्शन ही हमको खींच लाया, बहुते नीक लगत है हम कंप्य़ुटरवा पर देवनागरी देखत हैं.

    समीर बिटवा के लिये बहुते सही लिखे हो तुम. बस दू चार समीर और बन जाये त हिंदी का बहुते भला होगा. तुम लोगन से हमका बहुत उम्मीद है. जेतना बन पडे हिंदी मे लिखो. अंग्रेजी भी रोजी रोटी खातिर चलने दो. आखिर भूखे पेट तो कछु नाही हो सकत है.

    -अम्माजी

    -अम्माजी

    जवाब देंहटाएं

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