गुरुवार, 30 जून 2016

कहानी संग्रह अधूरे अफसाने-लावण्या दीपक शाह

अभी अभी लावण्या शाह (लावण्या दीपक शाह ) के कहानी संग्रह अधूरे अफसाने को पूरा किया है। चार  बाल कहानियों को समेटे कुल ग्यारह कहानियों के इस गुलदस्ते को लावण्या जी ने अपने सुदीर्घ सामाजिक जीवन के अनुभवों अॉर कुशल लेखनी से अलंकृत  किया है। कहानियों मे जीवन संघर्ष, मानवीय संवेदनाओं को लेखिका ने बखूबी अभिव्यक्ति दी है। कई कहानियों मे वतन अॉर  अपनों से विछोह की जो पीड़ा अभिव्यक्त होती है वह लेखिका के खुद के प्रवासी  जीवन का और अपने  सहधर्मियों के भोगे यथार्थ से अनुप्राणित होने की प्रतीति कराता एक यथार्थ दस्तावेज बन गया है। ज़िंदगी ख्वाब है मे जहां  महत्वाकांक्षी पति अॉर अभिमानी पत्नी की दुखांतिका है ,मऩ मीत पुरुष स्त्री के अादिम अाकर्षण की कथा है जो एक रहस्यपूर्ण परिवेश मे परवान चढ़ती है किंतु यह भी एक दुखांत गाथा है।

जनम जनम के फेरे अपनों और अपनी माटी से विछोह की पीडाभरी दास्ताँ है।  कादंबरी एक नृत्यांगना की संघर्ष गाथा है जिसमें उसके पुरुष कामुकता से उत्पीड़ित होते रहते की व्यथा कथा है।  नारी के शोषण को पुरुष कैसी कैसी रणनीतियां को अंजाम देता है यह कथा उससे खबरदार करती है।  समदर देवा भी नारी के पुरुष द्वारा शोषण की एक मानो एक चिरंतन गाथा  है किन्तु अपने कथानक में उदात्त प्रेम की भी सुगंध लिए है, मुंबई के सागर तट पर पनपती एक सात्विक प्रेम कथा मन को अंत तक बांधे  रखती है।  यहाँ उदात्त चरित्र के पुरुष पात्रों की उपस्थिति मन को गहरे आश्वस्त करती  है कि अभी भी धरा  पर मानवीयता जीवंत है।  लेखिका की यह कथा मुंबई के मछुवारों की जीवन शैली और इस मायानगरी के अँधेरे कोनो को भी आलोक में लेती है।



 कौन सा फूल सर्वश्रेष्ठ है घर में नवागंतुक दुल्हन के सहज होने के लिए जरूरी अभिभावकीय दायित्व को उकेरती है।  स्वयं सिद्धा अनुष्ठानों के आडंबरों से आक्रान्त भारतीय परिवार की कहानी है।  बालकथाओं में संवाद शैली के जरिये प्रमुख भारतीय पुराकथाओं और नायकों  का रोचक वर्णन है जो बच्चों में नैतिकता के आग्रह को तो प्रेरित करता ही है उनकी ज्ञानवृद्धि भी करता है।

लेखिका एक सिद्धहस्त रचनाकर्मी हैं। योग्य पिता की सुयोग्य पुत्री। आदरणीय पंडित नरेंद्र शर्मा जी की विलक्षण प्रतिभा पुत्री को आनुवंशिकता में मिली है।  लावण्या जी आश्चर्यजनक रूप से नारी सौंदर्य की चतुर चितेरी हैं जबकि समीक्षक इसे पुरुष डोमेन में मानता  आया है।  उन्हें नारी तन और मन की एक समादृत समझ है जो प्रशंसनीय है।  पुस्तक पढ़ने की प्रबल अनुशंसा है!

शुक्रवार, 3 जून 2016

अलविदा डेजी!

आज मन बहुत संतप्त है।  डेजी हमेशा के लिए हमें छोड़ कर चली गयी।  सत्रह सालों का ही साथ था उसका।  लगभग दो दशक।  मुझे याद है कि वर्ष 1999 में जब मैं वाराणसी में कार्यरत था , बच्चों मिकी और प्रियेषा की जिद पर डेजी हमारे घर आयी। एक रुई के गोले  के मानिंद वह थी और बच्चों के लिए खिलौना।  हमारे लिए भी आनंद का स्रोत। सभी का मन उसी में लगा  रहता। उत्तरोत्तर वह अपने कौतुक से लोगों का ध्यान आकर्षित करती।  आने वाले हमारे अतिथियों को वह अपना अतिथि मानती थी। स्वतःस्फूर्त  स्वागत करती। बड़ी होने के साथ उसकी मासूमियत और हमसे  लगाव ने  उसे  हमारी चहेती बना  दिया।  



डेजी ने  कई ट्रांसफर भी झेले।  अनेक सामाजिक समारोहों ,व्याह शादियों  में शरीक हुयी।  जिन शादियों में वह गयी उन जोड़ों  की संताने भी आगे चल उसकी  मुरीद हुईं । लगभग दो दशक के  कालखण्ड में वह कई घटनाओं का साक्षी बनी. बच्चे उसे बहुत चाहते थे मगर वह बच्चों  से दूर रहती।  छेड़खानी उसे बिलकुल पसंद नहीं थी. घर में प्रियेषा  उस पर ज्यादा फ़िदा रहतीं।  मिकी का उस पर रोब  चलता।  वह कमांड किसी का मानती  तो बस मिकी का। हाँ अटैच वह सबसे अधिक गृहिणी संध्या पर ही रही -आजीवन ! आखिर उसके खाने पीने का पूरा ख्याल वे रखतीं। अन्नदाता को भला कौन भूलेगा! 

मेरे घर लौटने पर उसका उसका लट्टू की तरह नाच कर मेरा स्वागत करना कभी नहीं भूलता। अब पहले प्रियेषा अपनी पढ़ाई को लेकर दिल्ली गयीं और मिक्की भी आजीविका  के लिए बंगलौर चले गए ! अब डेजी के साथ केवल हम दोनों रह गए थे। २०१२ के सितम्बर में मेरा फिर ट्रांसफर यहाँ सोनभद्र हुआ तो वह हमारे साथ यहाँ आ गयी।  एक पल भी पत्नी संध्या का विछोह उसे सहन नहीं था। थोड़ी देर के लिए भी घर से बाहर जाने पर वह आसमान सर पर उठा लेती।  अब उसे साथ लेकर ही आना जाना पड़ता। अब डेजी हमारी लायबिलिटी बनती जा रही थीं।  एक बात कहूँगा -कुत्ते बहुत केयर की मांग करते हैं -बच्चे पिल्लों पर मोहित हो पाल तो लेते हैं मगर झेलना मां बाप को पड़ता है . हम ट्रेन बस से अकेले टूर पर चले जाते  मगर  डेजी के लिए AC कार हायर करनी होती  ....
बचपन के उपरांत जबसे मुझे कुछ जानने समझने का शऊर आया मैंने दुख सुख दोनो तरह की घटनाओं को तटस्थ भाव से लेने का आत्मसंयम विकसित करना शुरू किया। यह मुश्किल है किन्तु अभ्यास से संभव है। जीवन मृत्यु, भाव अभाव, हानि लाभ से जुड़ी घटनाओं में मन को स्थिर रखने में गीता के नियमित पाठ से मुझे काफी सहायता मिली। मगर डेजी के मृत्यु ने मुझे गहरे संस्पर्श किया। मैं विचलित हो उठा।एक कुत्ते की मौत पर इतना मर्माहत हो उठना?इसी विश्लेषण में लगा हूं।जो समझ पाया हूं वह यह है कि यह एक निरीह, मासूम के अवसान पर प्रतिक्रिया है। और अपनी असहायता जनित आक्रोश की पीड़ामय अभिव्यक्ति भी कि उसकी जान बचाने के लिए यहां सोनभद्र में चिकित्सा की समुचित व्यवस्था नही हो सकी। 

ऐसा लगता है कि अगर शारीरिक संरचना को छोड़ दें तो भावनात्मक रूप से स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं है। हां पुरुषों को आंसुओं पर नियंत्रण रखना, कठोरता का प्रदर्शन आदि संस्कारगत सीखे हैं। जार जार रोने वाले पुरुष उपहास के पात्र बनते हैं। उन्हे तो पाषाण हृदय होना ही समाज में श्रेयस्कर माना गया है। इसके विपरीत रोना धोना, अधीरता, कातरता स्त्री मूल्यों के रुप में समाज में समादृत हैं। डेजी के अवसान ने मेरे ऊपर लागू इन बाह्य व्यावहारिक परतों को उधेड़ दिया। मन कातर हो उठा। समग्र आत्मसंयम काफूर हो उठा। निर्बल असहाय निरीह और मूक की पीड़ा में इतनी ताकत है।

डेजी पाम स्पिट्ज की प्रजाति की थी . इस प्रजाति के पालतू कुत्ते औसतन  बारह वर्ष और अधिकतम सोलह वर्ष जीते हैं । इस  लिहाज से उसने अपनी पूरी  उम्र हमारे साथ बिताई। लगभग दो वर्षों से उसमें उम्र वार्धक्य के लक्षण दिखने लगे थे।  फिर पैरों में सन्धिवात और बार बार दिगभ्रमित  होना भी आरम्भ हुआ।कैनाइन कॉग्निटिव डिफिशिएंसी सिंड्रोम! विशेषज्ञ बताते हैं कि  मनुष्य का दस वर्ष कुत्ते के एक  वर्ष के बराबर होता है! इस तरह डेजी १७० वर्ष की सबसे उम्रदराज सदस्य थी हमारे परिवार की। आज उसके विछोह ने हमें आघात सा दिया है।  एक प्रिय का लम्बे समय साथ रहकर हमेशा के लिए चला जाना बहुत सालता है।  हम सभी दुखी हैं।  खासतौर पर उसकी मासूमियत और  हमारी असहायता कि हम उसके प्रयाण को रोक पाने में असमर्थ रहे हमें बहुत संत्रास  पंहुचा रही है। मगर नियति को भला कौन टाल  सकता है! अलविदा डेजी! 

रविवार, 24 अप्रैल 2016

शिवजी के ललाट पर बालचंद्र क्यों हैं ,पूर्णचन्द्र क्यों नहीं?

कौस्तुभ ने पूछा है कि शिवजी के ललाट पर बालचंद्र  क्यों हैं ,पूर्णचन्द्र क्यों नहीं? अब सवाल है तो उत्तर भी होना चाहिए।  किसी को यह भी लग  सकता है कि भला यह भी कोई सवाल है? अर्धचंद्र है तो है अब इसकी क्या मीमांसा? देवी देवताओं के मामले में ऐसा हस्तक्षेप वैसे भी लोगों को पसंद नहीं है। मगर जो जिज्ञासु हैं उन्हें तसल्ली नहीं होती। जिज्ञासु लोगों के साथ एक समस्या और भी है वे प्रायः तार्किक भी होते हैं -एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा :-) . किन्तु  यह भी सत्य है कि यदि जिज्ञासु न होते तो आज मानव जहाँ है वह नहीं होता।  जिज्ञासुओं ने ज्ञान की गंगा को हमेशा प्रवाहित किये रखा है।  

चन्द्रमा हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासा और श्रृंगारिकता को कुरेदता रहा है। कारण चन्द्रमा कौतुहल का विषय रहा है।  यह घटता बढ़ता  रहता है। कभी कभी तो अचानक लुप्त हो जाता है।  कभी दिन में दीखता है कभी रात में। हजारो वर्ष पहले से यह कौतूहल  का केंद्र रहा और इस आकाशीय पिंड को लेकर अनेक सवाल पूछे गए होंगे. तब हमारे पूर्वज ज्ञानियों ने अपने तत्कालीन ज्ञान के आलोक में और स्टाइल में  उन सवालों के जवाब दिए होंगे।  कहना नहीं है उन दिनों की जवाब की कथा शैली थी जो आज भी हमारे बीच पुराण कथाओं के रूप में हैं।  हाँ पुराण कथाओं की ज्ञात अद्यतन वैज्ञानिक जानकारियों के सहारे आज पुनर्रचना की जाय तो कितना अच्छा होगा। 

हाँ यह बताता चलूँ कि हजारो वर्ष पहले हमारे पूर्वजों को अच्छा खगोलीय ज्ञान था।  जब यूनान में मात्र १२ राशियों से अनेक खगोलीय गणनाएँ होती थीं तभी हमारे यहाँ 27 नक्षत्रों को आसमान में पहचान दी जा  चुकी थी।  अब धरती और चन्द्रमा  की अपनी धुरी और एक दूसरे के सापेक्ष पारस्परिक गति से चन्द्रमा का उसके अट्ठाईस दिन से कुछ अधिक के दिन की विभिन्न अवस्थाओं और आसमान में स्थिति को पूर्वजों ने भली भांति जान समझ लिया था तो  आम आदमीं तक इस ज्ञान को पहुंचाने के लिए को रोचक कथाएं गढ़ीं।  जिनमें एक तो दक्ष प्रजापति और उनकी सत्ताईस  पुत्रियों की कथा है जिनका व्याह चन्द्रमा से हुआ -अब २७ पुत्रियां यहीं नक्षत्र ही तो थे।  

देखा यह जाता था कि एक चंद्रमास में चन्द्रमा का ठहराव रोहिणी नक्षत्र में ज्यादा समय तक रहता  था। सवाल आया ऐसा क्यों ? जवाब था कि दक्ष की पुत्री और अपनी इस पत्नी रोहिणी  से चन्द्रमा का लगाव ज्यादा था। अब कथा और आगे बढ़ी।  जिसमें चन्द्रकलाओं के  रहस्य को समझा दिया गया -कुपित दक्ष ने  चन्द्रमा को शाप दे दिया कि तुम्हारा रूपाकार और तेज घटता जाएगा।  अब इस शाप से मुक्ति के लिए चन्द्रमा को अंततः शिव जी की शरण में जाना पड़ा ,उन्होंने आश्वस्त किया कि शाप का प्रभाव पूर्णतः तो नहीं खत्म होगा मगर तुम्हे अपना  पूर्ण स्वरुप भी मिलता रहेगा।  हमेशा के लिए क्षय नहीं होगा ! कहते हैं तभी से शिव के ललाट पर चन्द्रमा आश्रय लिए हैं।  

मगर शिव के ललाट पर बालचन्द्र (crescent moon ) ही क्यों? मैं किसी और मिथकीय कथा को ढूंढ रहा हूँ शायद कोई उत्तर वहां मिल जाय।  मगर पूर्णचन्द्र विश्व की कई सभ्यताओं में अपशकुन द्योतक हैं-ज्वार भाटा लाने वाले हैं और कभी कभी तो अचानक लुप्त हो कर भयोत्पादक भी रहे हैं। ग्रहण के चलते।  आज हमें ग्रहण की वैज्ञानिक जानकारी है मगर कभी इसके लिए भी राहु केतु राक्षसों की कथा रची गयी थी।  अब भला शिव अपशकुन सूचक ,भयोत्पादक चन्द्रमा के रूप को शिरोधार्य क्यों करेगें ? उन्हें तो निर्विकार निर्विघ्न बालचंद्र ही प्रिय हैं! आप को इस विषय पर और जानकारी मिले तो कृपया साझा करने  का अनुग्रह करेगें!

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

आतंकवाद की अंतरंग पौधशाला


मैं देख रहा हूँ मेरे कुछ मुट्ठी भर तथाकथित प्रगतिशील फेसबुकिया मित्र प्रत्यक्ष, परोक्ष और कुछ घुमा फिराकर, कभी दबी जुबान कभी मुखर होकर भी देशविरोधी तत्वों को सपोर्ट कर रहे हैं। उनकी निजी कुंठाओं , दमित इच्छाओं को शायद ऐसे मौकों की तलाश रहती है जब वे अपनी दबी रुग्ण मानसिकता और विचारों का समर्थन, वैलिडेशन कुछ अपने सरीखे दिग्भ्रमित लोगों से करा कर संतोष पाते है । ये दमित इच्छाओं के मसीहा अपने निज जननी, देश के सम्मान को भी अपनी कथित अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दांव पर लगा देते हैं। वस्तुतः ये देश के गद्दारों को अपने कृत्य से बढावा दे रहे हैं। ईश्वर उनका भला करे।

एक सामान्य परिपाटी रही है कि किसी भी संगठन संस्थान/ कार्यालय /विभाग की गड़बड़ियों का जिम्मेदार उसके मुखिया को प्रथमतः माना जाता है -उत्तरदायित्व उसका ही होता है। कन्हैया कुमार जेएनयू के छात्रसंघ के अध्यक्ष हैं , उनकी प्रमुख उपस्थिति घटना के पहले और बाद में भी प्रमाणित है। टीवी चैनलों पर भी उन्होंने अपना स्पष्ट मत व्यक्त नहीं किया ,मुखरता नहीं दिखी , आधेमन से ही उन्होंने अपनी निष्पक्षता बयान की बल्कि कहीं कहीं वे विकृत सोच वालों के पक्ष में दिखे,न्यायिक प्रक्रिया शुरू हो गयी है उस पर टिप्पणी न्यायालय का अपमान है ,हाँ वे अगर निर्दोष पाये जाते हैं ,काश वे हों तो सबसे अधिक खुशी मुझे होगी कि साधारण बिहारी परिवार से निकले इस संघर्षशील और मेधावी युवा का जीवन इन विकृत सोच वालों की सोहबत में बर्बाद होने से बच गया ! मेधावी रोहित वेमुला को हम खो चुके हैं।  काश फिर ऐसा न हो!


सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश सर्वोपरि या जेएनयू ? आखिर पुलिस क्यों नहीं कर सकती कैम्पस में सर्च आपरेशन? मेरी गट फीलिंग थी कि वहां आपत्तिजनक सामग्री और अनधिकृत लोग हो सकते हैं। जो कुछ देशद्रोही गतिविधि हुई है वह एक लम्बे समय से चल रही आपत्तिजनक गतिविधियों की ही परिणति है।मगर हम समय रहते यह देख न सके। विश्वविद्यालय परिसर की शुचिता के आड़ में देश विरोधी गतिविधियाँ कुछ गुमराह छात्र चलाते रहे हैं -ये वही छात्र हैं जिनमें से अधिकाँश नशे की आदत पाले हुए हैं। ड्रग्स का बेधडक इस्तेमाल करते हैं। रॉ के एक पूर्व अधिकारी ने इसकी पुष्टि की है।

खुली सोच और बोलने की आजादी जैसे फिकरों , छद्म बौद्धिकता और तरह तरह के बौद्धिक प्रपंच के चलते जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का माहौल विगत कई दशकों से इतना विषाक्त होता गया है कि अच्छे खासे सांस्कृतिक माहौल से निकल कर वहां पहुंचे छात्र भी ब्रेन वाश के शिकार हो जाते हैं। सनसनी सम्भाषण (डेमोगागी) , मार्क्सवाद ,वामपंथ ,आज़ादी , नशाखोरी के चलते उत्पन्न मनोभ्रमों (पैरानायड़) और उन्मुक्त यौनचारों के चुंबकीय आकर्षण पाश इन युवाओं को दिग्भ्रमित कर एक वायवीय दुनिया में ले जाते हैं -आतंकवादी बनाने का प्रोसीजर भी ऐसा ही कुछ है।

नतीजा सामने है -जिस देश का ऋणी होना चाहिए आज यहाँ के छात्र उसकी बर्बादी का जश्न मना रहे हैं ! वह भी एक गरीब देश की जनता की गाढ़ी कमाई से काटे टैक्स के पैसे से। जेएनयू में छात्रों के रहने सहने का लगभग सारा बोझ ही इस देश की गरीब जनता उठाती है। विश्वविद्यालय के विकृत सोच के प्रोफ़ेसर भी बिगड़े छात्रों का कन्धा थपथपाते हैं ! एक गिलानी पकड़ा गया मगर कई और ऐसे हैं वहां ! जेनयू अलुमिनी देश के कई हिस्सों में पसरे हुए हैं और गरीब जनता की गाढ़ी कमाई से रोटी तोड़ रहे हैं। इनका संज्ञान लेना होगा -क्योंकि आतंकवाद की इस अंतरंग पौधशाला को खाद पानी देंते रहने का मतलब है परजीवी विष बेलों को पनपाते जाना ! चेतो भारत चेतो!

जेएनयू से देशद्रोहियों को बाहर करो और कैपिटल पनिशमेंट दो! एक नागरिक के नाते यह मेरी मांग है। अगर इन्हें इसी तरह इग्नोर किया गया तो सचमुच हम अपनी सम्प्रभुता खो देगे। फ्रीडम आफ एक्सप्रेसन के नाम पर तुम पाकिस्तान की जय जयकार करोगे? सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को चुनौती दोगे? कश्मीर की फ्रीडम की आवाज बुलंद करोगे? भारत की बर्बादी की जंग करोगे? इन सभी को पकड़ो और देशद्रोही की तरह बर्ताव करो।नहीं तो अब कैम्पस में जनता घुसेगी और इन देशद्रोहियों को उनके अन्जाम तक पहुंचायेगी।

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।
मैथिली शरण गुप्त

शनिवार, 26 सितंबर 2015

भ्रष्टाचार के देवता:एक आईएएस का सेवाकाल संस्मरण

दावात्याग: प्रस्तुत पोस्ट 'गॉड्स आफ करप्शन' पुस्तक की संक्षिप्त  समीक्षा मात्र  है और  इसमें व्यक्त विचार लेखिका के हैं, उनसे मेरी सहमति का कोई प्रत्यक्ष या  परोक्ष आग्रह  नहीं है।  

मैंने जब १९७६ बैच की सीधी भर्ती किन्तु अब सेवानिवृत्त आईएएस आफीसर श्रीमती प्रोमिला शंकर की संस्मरणात्मक पुस्तक गॉड्स आफ करप्शन की चर्चा सुनी तो उसे पढने की तत्काल इच्छा हो आयी  और आनन फानन फ्लिपकार्ट से यह पुस्तक  मंगा भी ली गई। इस तत्परता के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण थे -एक तो मैं जब श्रीमती प्रोमिला शंकर जी  झांसी में 1987 में  ज्वाइंट डेवेलपमेंट कमिश्नर थी,और उनके  पति श्री पी उमाशंकर आईएएस वहीं के जिला मजिस्ट्रेट थे ,मैं एक मातहत अधिकारी था। 

मैं पी उमाशंकर जी का सीधा मातहत था और मुझे  कहने में सदैव फ़ख्र रहता है कि वे मेरे अब तक के सेवाकाल के बहुत अच्छे जिलाधिकारियों में से  एक रहे. तमिलनाडु राज्य का  होने  के नाते  हिन्दी के नए नए शब्दों को सीखने की उनकी उत्कंठा ने मुझे उनके करीब होने का सौभाग्य दिया।वे सदैव विनम्र और प्रसन्नचित्त रहते. उन्होंने मुझ पर बहुत भरोसा किया और जनहित में कुछ अत्यंत गोपनीय कार्य भी मुझे सौंपे. आगे चलकर प्रोमिला जी हमारी यानि मत्स्य विभाग की प्रमुख सचिव  भी रहीं  (वर्ष,२०००) इसलिए पुस्तक  को पढने के लिए मैं और भी प्रेरित हुआ।  

 इस पुस्तक को यथाशीघ्र पढने की उत्कंठा का दूसरा कारण यह भी रहा कि एक जनसेवक के रूप में संभवतः मुझे कोई महत्वपूर्ण मार्गदर्शन इसके पढने से मिल सके।  पुस्तक इतनी रोचक है कि एक सांस  में ही खत्म हो गयी मगर मन  तिक्तता से  भर उठा । यह पुस्तक शासकीय व्यवस्था के घिनौने चेहरे को अनावृत करती है -लेखिका ने पूरी प्रामाणिकता  और  वास्तविक नामोल्लेख के साथ अपने ३६ वर्षीय सेवाकाल के दौरान भ्रष्टाचार में लिप्त उच्च पदस्थ कई आईएएस अधिकारियों के कारनामों, उनके  पक्षपातपूर्ण व्यवहार, चाटुकारिता के साथ ही नेताओं और भ्रष्ट आईएएस के दुष्चक्रपूर्ण गंठजोड़, दुरभिसंधियों का उल्लेख किया है। 

इस अपसंस्कृति का साथ न देने के कारण और अपने मुखर  निर्णयों  के कारण श्रीमती शंकर को पग पग पर बाधाएं ,हतोत्साहन और अनेक ट्रांसफर झेलने पड़े।  महत्वहीन पदों पर पोस्टिंग दी जाती रही। सीधी भर्ती की आईएएस होने के बावजूद न तो इन्हे कभी डीएम बनाया गया और न ही कभी  कमिश्नर(मण्डलायुक्त) बन पाईं।  और तो और जब सेवाकाल के मात्र ६ माह शेष रह गए तो अचानक एक महत्वहीन से कारण को दिखाते हुए निलंबित कर दिया गया। 



भारत सरकार के द्वारा सेवानिवृत्ति के मात्र ६ दिन पहले बहाली मिली भी तो इन्हे तत्कालीन पोस्ट से तुरंत हटाकर लखनऊ ट्रांसफर कर दिया गया।  गनीमत रही कि लोकसभा  निर्वाचन आरम्भ हो  गए थे और भारत निर्वाचन आयोग के हस्तक्षेप से श्रीमती शंकर को अपने सेवाकाल के आख़िरी पद ,कमिश्नर (एनसीआर) पर ही रहकर सेवानिवृत्ति मिल गयी,हालांकि इनके विरुद्ध जांच चलते रहने का आदेश भी पकड़ा दिया गया। प्रोमिला जी उस समय उत्तर प्रदेश की सबसे सीनियर आईएएस थीं.  

सूबे में नयी सरकार बन गयी और दुर्भावनापूर्ण लंबित जांच निरर्थक हो गयी। अपनी इस संस्मरणात्मक पुस्तक में लेखिका ने पूरी बेबाकी और निर्भयता से गुनहगारों  के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने अपने न्यस्त स्वार्थों के चलते एक ईमानदार अधिकारी को जनहित में काम न करने देने के लिए पूरे सेवाकाल हठात रोके रखा।  कालांतर में कुछ तो उनमें से जेल गए और एक कथित आततायी  असामयिक कालकवलित भी हो चुके।  पुस्तक का एक एक पन्ना आँखों को खोल देने वाला विवरण लेकर सामने आता है। 

शासकीय व्यवस्था में खुलेआम भ्रष्टाचार ,भाई भतीजावाद, पक्षपात ,जातिवाद और योग्यता के बजाय चापलूसों  की बढ़त का जिक्र है।  खुद लेखिका को उनकी स्पष्टवादिता और मुखरता के चलते अच्छी वार्षिक प्रविष्टियों के न मिलने से केंद्र सरकार में भी जाने का मौका नहीं मिल सका।  लेकिन  इस स्थिति को लेखिका ने  पहले ही भांप लिया था।  मगर उन्होंने भ्रष्ट तंत्र  के आगे घुटने नहीं टेके ,संघर्ष करती रहीं।  उन्हें यह  एक बेहतर ऑप्शन लगता था कि अच्छी वार्षिक प्रविष्टियों के लेने  के लिए अनिच्छा से जीहुजूरी के बजाय मानसिक शांति के साथ कर्तव्यों का निर्वहन करती चलें।

 न्यायपालिका के भी उनके अनुभव  बहुत खराब रहे।  एक  न्यायालय की अवमानना भी झेलनी पडी और उनके अनुसार एक फर्म को गलत भुगतान किये जाने को लेकर अपना पक्ष प्रस्तुत करते समय न्यायाधीश महोदय द्वारा कहा गया कि वे जेल जाना चाहती हैं या फर्म को भुगतान करेगीं? वे जड़वत हो गयीं।उनकी एक विभागीय देयता के औचित्य को  पहले तो न्यायालय ने स्वीकार कर उनके पक्ष में निर्णय दिया किन्तु तत्कालीन मुख्य सचिव की बिना उन्हें सूचित किये पैरवी किये जाने पर अपने निर्णय को बदल दिया।  

लेखिका प्रोमिला  जी ने भारत की सर्वोच्च सेवा के लिए चुने जाने वाले अभ्यर्थियों  में बुद्धि, अर्जित ज्ञान और अध्ययन के साथ ही उच्च नैतिक आदर्शों ,चारित्रिक विशेषताओं  के साथ ही दबावों के  आगे न झुकने वाले व्यक्तित्व पर बल दिया है। उन्होंने राष्ट्प्रेम को भी अनिवार्य  माना है और क्षद्म धर्मनिरपेक्षता से  आगाह किया है। एक जगह  वे लिखती हैं कि स्वाधीनता दिवस कहने के बजाय इस अवसर को राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए।हमें गुलामी का बोध कराने वाले प्रतीकों से अब दूर हो जाना चाहिए। उन्होंने सारे भारत में शिक्षा का माध्यम अंगरेजी होने  की वकालत की है। जिससे भाषायी विभिन्नताओं को बल न मिलें और हम  वैश्विक स्तर पर तमाम चुनौतियों के लिए बेहतर तौर पर तैयार हो सकें. 

पुस्तक दो खंडो में है -एक में उनके द्वारा विभिन्न विभागों  में अपने कार्यकाल  के दौरान उठायी गयी समस्याओं/कठिनाइयों  का विवरण दिया गया है और दूसरे खंड में अपने कार्यकाल में जो सीखें मिलीं उनका जिक्र है।  २३२ पृष्ठ की संस्मरण पुस्तक का मूल्य रूपये ५९५ है और इसे दिल्ली के मानस पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किया गया है।  इसे नेट पर आर्डर देकर मंगाया जा सकता है.   

शनिवार, 12 सितंबर 2015

विकास के आयाम : सपने और यथार्थ! (सोनभद्र संगोष्ठी )

सोनभद्र जिले का हेडक्वार्टर राबर्टसगंज अपनी कस्बाई सांस्कृतिक विरासत  के बावजूद मानवीय सृजनात्मकता और बौद्धिकता से ओत  प्रोत रहा है।  इन दिनों यहाँ एक बौद्धिक विमर्श के नए चलन का सूत्रपात हुआ है जिसके अंतर्गत प्रति माह किसी विषय पर चर्चा और विचार विनिमय होता है। विगत चर्चा उत्तर आधुनिकता और परामानववाद पर केंद्रित थी।  आज (१२ सितम्बर ,२०१५ )  कलमकार संघ द्वारा  आयोजित संगोष्ठी  का विषय था- विकास के आयाम : सपने और यथार्थ. इस विषय पर राबर्ट्सगंज के जाने माने बुद्धिजीवियों, विचारकों -लेखकों  ने अपने विचार व्यक्त किये.

श्री अजय सिंह जो यहाँ जिला आपूर्ति अधिकारी(डी एस ओ ) हैं ने विषय की प्रस्तावना की। उन्होंने जुमले की तरह इस्तेमाल हो रहे शब्द -विकास के कई निहितार्थों को उकेरा। आर्थात कैसा विकास ,किसका विकास, विकास की परिभाषा क्या हो?  उन्होंने विकास के हानि लाभ के पहलुओं को रेखांकित किया और कहा हमें यह देखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि हम विकास से  पाएं कम और गवाएं ज्यादा। मतलब कहीं लाभ हानि से कमतर होकर न रह जाए।  


श्री रामप्रसाद यादव ने संचालन  की जिम्मेदारी उठाई और संविधान के मूल उद्येश्यों के तहत विकास के लक्ष्य को सामने रखा।  उन्होंने कहा कि हमें बहुमंजिली इमारतों , ऊंची चिमनियों, हाईवेज ,मेट्रो , स्मार्ट सिटी और बिना  पानी के सूखते खेतों ,बेरोजगारी , अशिक्षा ,भुखमरी और कुपोषण आदि मानवीय विभीषिकाओं के  विरोधाभास  के मध्य विकास का सही मार्ग तय करना होगा। दीपक केसरवानी  ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए औद्योगीकरण से उपजते सकंटों  और सोनभद्र के रिहंद जलाशय से उत्पन्न विस्थापन और प्रदूषण की त्रासदी की ओर ध्यान दिलाया।  

 प्रखर चिंतक विचारक रामनाथ शिवेंद्र के  बीज वक्तव्य में उनकी कई चिंताएं अभिव्यक्त हुईं। उनके अनुसार पश्चिम का अन्धानुकरण करना हमारी विवशता है. सपनों और यथार्थ में बड़ी दूरी है।  और वाह्य आक्रमणों से अधिक खतरा भीतर से है।  उन्होंने आह्वान किया कि हमें अपने विकास के मानक तय करने होंगें।  हर खेत को पानी हर हाथ को काम। क्म लागत से अधिक उत्पादन।  विकास की धारा में मानवीय संवेदनाएं तिरोहित न हों। 
राजनीतिक चिंतक और विचारक अजय शेखर ने विकास के मानकों के पुनर्निर्धारण की जरुरत बतायी। उन्होंने कहा कि हमने विकास के मॉडल में सांस्कृतिक मानकों को नहीं लिया।  मनुष्य विकास के केंद्र में है तो फिर मनुष्यता के अवयवों को भी विकास के मॉडल में समाहित होने चाहिए।  विकास के मौजूदा स्वरुप में कमियां उभर कर दिख रहीं है -आज विकास भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है।  हेराफेरी ,चोरी, लूट  और व्यभिचार विकास के आनुषंगिक पहलू बन गए हैं -क्या यही विकास हमें चाहिए? उन्होंने तेजी से नष्ट हो रहे पर्यावरण का उल्लेख किया।  वनौषधियों के विलोपन का हवाला दिया।  ऐसा विकलांग विकास भला कैसे स्वीकार्य होगा? 


अमरनाथ अजेय ने अंग्रेजों की कुटिल नीतियों -फूट डालो राज्य करो से आरम्भ हुए अलगाव ,बिखराव की  स्थितियों को विकास का रोड़ा माना और स्पष्ट किया कि जब तक आर्थिक आधार पर सभी को स्वतन्त्रता नहीं मिलती सही अर्थों में विकास संभव नहीं है। शिक्षक ओमप्रकाश त्रिपाठी ने भारत में विकास के पंचवर्षीय अभियानों का जिक्र करते हुए औद्योगिक विकास के एक आपत्तिजनक पहलू को उजागर किया जिसमें हमारे सांस्कृतिक मूल्य तिरोहित होते गए हैं. एक बाहरी भौतिकता का आकर्षक आवरण है जिसके पीछे मनुष्य का निरंतर चारित्रिक ह्रास हो रहा है।  हमारा विकास पश्चिम का अंधानुकरण है।  हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं।  हमें वस्तुतः अपने जीवन मूल्यों और अध्यात्म के साथ कदमताल करता विकास का मॉडल चाहिए। 

कवि जगदीश पंथी जी के सम्बोधन का सारभूत विकास की राह में वैयक्तिक और समूहगत टूटन, विखंडन और विश्वसनीयता के संकट से उपजते त्रासद स्थितियों का जिक्र रहा।  जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो फिर क्या कैसा विकास होगा? 

गीता के अनन्य प्रेमी प्रेमनाथ चौबे ने विकास मार्ग के कतिपय प्रतिरोधों की चर्चा की।  जहाँ अन्धविश्वास हो , छुआछूत और भूत प्रेत टोना का बोलबाला हो वहां विकास का भला कैसा स्वरुप फलित होगा? उनका मानना था कि विकास के लिए एक राष्ट्रीय सोच जरूरी है। जापान का उदाहरण देकर उन्होंने स्पष्ट किया कि विकास के लिए राष्ट्रीय सोच होना जरूरी है. यह भी दुहराया कि बिना समानता ,स्वतंत्रता और बंधुत्व के विकास का सही स्वरुप सामने नहीं आ पायेगा।बिखराव में कैसा विकास? उन्होंने विकास को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल और अनुरूप होने की शर्त रखी. उनके शब्दों में विकास अभी भी एक सपना है। 

भौतिकी के प्रोफ़ेसर रहे पारसनाथ मिश्र ने कहा कि दरअसल मनुष्य के जीवन के जो आयाम हैं वही विकास के भी आयाम हैं. कपडा रोटी और मकान की आधारभूत जरूरतें विकास के स्वरुप को नियत करती हैं।  भूख है तो अन्न चाहिए , अन्न उत्पादन होगा तो उसके संरक्षण और वितरण की श्रृंखला विकास के सोपानों को तय करेगी. वैसे ही हमारे लिए अनेक जरूरी उत्पाद वस्त्र ,आवास, शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य विकास के पैमानों को तय करते हैं।  किन्तु आज जो विकास हो रहा है उसने जितना दिया उससे ज्यादा हमसे छीन  लिया है।  उन्होंने हल बैल से मंगल यात्रा तक के विकास में वैज्ञानिक दृष्टि की अपरिहार्यता पर विशेष बल दिया।  नित नए अनुसंधान की जरुरत बतायी।  उनकी चिंता यह भी रही कि आज हमारी निष्ठायें विभाजित हैं , आस्थाओं और आचरण  के अलग अलग पड़ाव हैं।  किन्तु हमें अपनी पहचान नहीं खोनी  है। विकास के किसी भी मॉडल में भारतीयता अक्षुण रहे.हम अनुकरणीय बने  न कि अनुकरणकर्ता। 

अपने तक़रीर में चन्द्रभान शर्मा बहुत आशावादी दिखे।  उनका कहना था कि हमारे मनीषियों ने विकास का जो प्लान तैयार किया  वह उचित है और आलोचना किया जाना उचित नहीं है।  हमारी अनेकता और विभिन्नताओं के बावजूद विकास होना दिख रहा है।  आज फटेहाल लोग कमतर हुए हैं।  सपने धरातल पर धीरे धीरे उत्तर तो रहे हैं। धैर्य रखना होगा।  

संगोष्ठी के अध्यक्ष शिवधारी शरण राय ने समस्त विचारों के निचोड़ के रूप में अपना अभिमत दिया कि विकास हो किन्तु विनाश की कीमत पर नहीं।  भारत सदैव मौलिक चिंतन का उद्गम रहा है ,वैज्ञानिक बर्नियर यहाँ  ज्ञान और परमार्थ की खोज में आया था।  हमारे कई शाश्वत मूल्य विकास के विभिन्न स्वरूपों में समाहित हों यही अभीष्ट है।  

संगोष्ठी आत्मीय माहौल में संपन्न हुई और प्रतिभागियों में  एक नए उत्तरदायित्व बोध का सबब बनी. यह पुरजोर मांग रही कि ऐसे समूह चिंतन और अभिव्यक्ति का सिलसिला चलता रहे।  आगामी संगोष्ठी की प्रतीक्षा सभी को है। 

 

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

देवगढ़ के शैल चित्र पुकारते हैं!

सोनभद्र जनपद में ट्रांसफर के पश्चात इस जनपद की प्राकृतिक सम्पदा -समृद्धि और रहस्यात्मक परिवेश ने मुझे अचानक ही आकर्षित किया। मत्स्य व्यवसाय की मेरी विभागीय जिम्मेदारी से दीगर मैंने इस आदिवासी बाहुल्य, कैमूर पर्वत श्रृंखला युक्त और विशाल भूभाग वाले नक्सल गतिविधि सहिष्णु इस जनपद का एक पुनरान्वेषण शुरू किया।  यह श्रृंखला इस ब्लॉग पर चल रही है।  मुझे लगा कि शीघ्र ही इस जनपद के सभी मुख्य आकर्षणों को मैं अपने नज़रिये से देख पाउँगा और आप तक पहुंचा दूंगा।   जानकारी बांटने  की मेरी प्रवृत्ति जो ठहरी . मगर शीघ्र ही इस जनपद ने  मुझे अपनी लघुता का बोध करा दिया -ज्ञान की ऐसी विविधता यह जनपद समेटे हुए है कि यहाँ तो पूरा जीवन ही बीत जाए  -करोड़ो वर्ष पहले यहां सागर लहराता था -सलखन के जीवाश्म जिसका अकाट्य प्रमाण देते हैं ,बेलन घाटी की आदि सभ्यता यही पाली बढ़ी  , पग पग पर पहाड़ और झरनों की बिखरी सुषमा,वन्य जीवन, प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के बिखरे स्मृति शेष -क्या नहीं है यहाँ? चन्द्रकान्ता संतति के तिलिस्म की अनुभूति  यहाँ विजयगढ़ दुर्ग में साक्षात होती है जहाँ का भ्रमण रहस्य और रोमांच से भरा है जहाँ से नायिका चंद्रकांता  के प्रवास की अमर कथा ने जन्म लिया। 
कौन जंतु? बूझिये तो जाने! 

                                                                 डॉ नौटियाल  और मैं

एक बार जब मैं मुख्यालय के निकट ही शाहगंज कस्बे के करीब महुअरिया नाम स्थान पर गया और वहां शैल भित्ति चित्रों को देखा तो इसके जिक्र पर शासकीय सहधर्मी जिला आपूर्ति अधिकारी श्री अजय सिंह ने मेरी भेंट श्री जितेन्द्र कुमार सिंह 'संजय' से कराई जो यहाँ घोरावल तहसील के देवगढ़  ग्राम के निवासी है।जितेन्द्र  जी ने  सोनभद्र  पर  मुझे स्वलिखित पुस्तक भेंट की तो  यहां के पुराणेतिहास की मेरी दृष्टि व्यापक हुयी।  इसी  के साथ मुझे जितेन्द्र जी की सृजनात्मक मेधा और उनके  एक अन्य शौक   से भी रूबरू हुआ। मुझे जानकारी हुयी कि इन्हे शैल चित्रों में बड़ी दिलचस्पी है। दरअसल इन्होने अपनी आँखें ही देवगढ़ की सुरम्य उपत्यका में खोलीं और बचपन से ही इनके घर के चारो ओर बिखरी पहाड़ी गुफाओं ने इनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। जितेंद्र जी बताते हैं कि हाईस्कूल की पढ़ाई  के दौरान अक्सर वे इन गुफाओं में  आ जाते और यहाँ की नीरवता में इम्तहान की तैयारी होती।  यहीं उन्होंने शैल चित्रों को भी बारीकी से देखा समझा और आह्लादित हुए।  शैल चित्रों पर इनसे चर्चा  होती रही। 
देवगढ़ का एक शैलाश्रय और अध्ययनरत टीम  


तभी मुझे विज्ञान संचार में  समान रूचि वाले मित्र और बीरबल साहनी पुरावनस्पति  विज्ञान संस्थान लखनऊ में वैज्ञानिक  मित्र  डॉ चंद्रमोहन नौटियाल  से पता चला कि उन्हें सोनभद्र के शैल चित्रों पर अध्ययन की अगुवाई का जिम्मा भारत सरकार के संस्कृति विभाग के अंतर्गत इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ((IGNCA)) ने दिया है. उन्होंने  मुझे  शैल चित्रों के स्थानीय किसी अच्छे अध्येता का नाम संदर्भित करने को कहा । बस मैंने उन्हें जितेंद्र जी का नाम सुझा दिया। जल्दी ही दिसम्बर 2014 में शैल चित्रों पर लखनऊ में आयोजित राष्ट्रीय कार्यशिविर में जितेंद्र  ने प्रतिभाग किया।  आज उसी की फलश्रुति है की कि सोनभद्र में विगत 13 अप्रैल 2015 से एक अंतर्विभागीय बहु सदस्यीय टीम डॉ नौटियाल की अगुवाई में यहाँ अवस्थान  कर रही है जिसमें प्रमुख सदस्य हैं -प्रोफ़ेसर ऐस बाजपेयी (निदेशक, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक  संस्थान ),  डॉ बी एल मल्ला (निदेशक IGNCA) प्रोफ़ेसर डी पी तिवारी (इतिहास विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय) ,डॉ  पी उपाध्याय ( बी एच यू ) ,प्रोफ़ेसर के के अग्रवाल (लखनऊ विश्वविद्यालय) और  प्राणिविज्ञानी तथा एक  शैलचित्र  प्रेमी के तौर पर मैं भी। . मुझे तो डॉ नौटियाल जी  ने मित्र धर्म के चलते टीम  में शामिल किया है। 

 कुछ पल का विश्राम -जितेंद्र और स्थानीय पथ प्रदर्शक परदेशिया 
 शैल चित्रों में सबसे अधिक चित्र पशु पक्षियों के ही होते हैं ,फिर मनुष्य और तब जाकर अन्य प्रकार की संरचनाएँ और डिजाइन।  मैं शैल चित्रों में पशु आकृतियों पर घ्यान केंद्रित कर रहा हूँ -हिरन और मृग ,सूअर और भालू और उनके  एकल और सामूहिक शिकार इनमें चित्रित हुए हैं -भैंस और बैल  के भी चित्र दिखे हैं। कई चित्रों पर विवाद है -एक साही  या गिरगिटान का चित्र है स्पष्ट नहीं हो पा रहा।यहाँ आज भी कृष्ण मृग पाये जाते हैं और ये शैल चित्रों में भी दिखते हैं. बहुत से चित्र चित्रकार की कल्पना की उपज  लगते हैं जैसे जिराफ की गर्दन जैसी बहुत लम्बी गर्दन लिए पशु -अब हम सभी जानते हैं जिराफ तो इस  भू भाग पर थे ही नहीं  -हाँ जब भू स्थल जुड़े(पंजिया ) हुए  थे तब? मगर तब तो होमो सैपिएंस ही नहीं थे।  यह भी  सकता है कि चित्रों में दिख रहा कोई पशु अब इस क्षेत्र  लुप्त हो चला हो? ये सारी अटकलबाजियां अंतिम निष्कर्ष तक चलती रहेगीं। 

 इन्हे भी पहचानिये 
शैल चित्र आदिमानवों द्वारा  हमें दी गयी अद्भुत और अमूल्य विरासत है। इन  चित्रों में एक ख़ास सौंदर्यबोध तो है ही, साथ ही ये मनुष्य के विकास और प्रवास, उनके आदि रहवासों तथा संस्कृति के अब तक के अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर कर सकते हैं।  इसलिए ही विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के सम्मिलित प्रयास से इनके अध्ययन की यह पहल की गयी है। अभी आरम्भिक तौर पर केवल चित्रों  का अभिलेखन और संग्रह हो रहा है और आगे इनकी व्याख्या पर ध्यान केंद्रित होगा।  सोनभद्र के घोरावल तहसील  के अंतर्गत देवगढ़ इस  लिहाज से बहुत समृद्ध है और यहाँ निरंतर ध्यान केंद्रित करने की जरुरत है।  ऐसे शैलाश्रयों जहाँ के चित्र अभिलिखित हो चुके हैं उन्हें तत्काल  संरक्षित रखने का भी प्रयास होना चाहिए! अकादमीय दृष्टि से इनका महत्त्व तो है ही इन्हे आज के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक नजरिये से शैल चित्र पर्यटन के रूप में विकसित किया जा सकता है।    


सोमवार, 6 अप्रैल 2015

रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर!

हिन्दी कवि और कविता प्रेमी क्या इसे झेल पायेगें ? :-)

रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर
प्रेम की चिरंतन चाह लिए होती है प्रेमियों की आतुरता
वैसे ही जैसे स्वाति बूँद की चाह लिए चातक रहता रटता

सीप की भी होती है साध पले उसके गर्भ में इक मोती दुर्लभ
वैसे ही जैसे चाहे स्वाति की बूँद  कोई निरापद आश्रय सुलभ

मुक्ता संभरण का संयोग है तभी प्रतीक्षा हो सीप की जब चिर
स्वाति बूँद सहजने को रहे वह हर क्षण हर पल आकंठ तत्पर

उभय प्रेमियों में हो मिलन की चाहना और प्रीति जब परस्पर
प्रेम तब परिपूर्ण होता और रचाती कामनाएं नित स्वयम्बर

बुधवार, 11 मार्च 2015

पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है?

इन दिनों होम मिनिस्ट्री साथ नहीं है , पैतृक आवास पर सास की भूमिका का निर्वहन हो रहा है जबकि मैं यहाँ सरकारी सेवा के तैनाती स्थल पर एकांतवास कर रहा हूँ।  किन्तु यह ब्लॉग पोस्ट इस विषय को लेकर नहीं है। यह उस असहज सवाल को लेकर है जिससे मुझे ऐसे  एकांतवास के दिनों में अक्सर दो चार होना  पड़ता है। यह जानकारी होने पर की पत्नी साथ  नहीं हैं पता नहीं  घनिष्ठतावश या फिर महज औपचारिकता के चलते  मुझसे यह सवाल इष्ट मित्र  और सगे संबंधी अक्सर पूछ बैठते हैं कि अरे पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है ? 

 यह सवाल इतनी बार सुनने के बाद भी मैं हर बार असहज हो जाता हूँ और सवाल का ठीक ठीक जवाब नहीं दे पाता। आखिर क्या केवल खाना बनाने के लिए ही पत्नी का  साथ रहना आवश्यक है ? नारीवादी और / या महिलायें तक जब ये सवाल पूछती हैं तब मुझे और भी क्षोभ होता है।  क्या घर में नारी की भूमिका केवल खाना बनाने तक ही सीमित है?

आज भी यह आदि ग्राम्य मानसिकता बनी हुयी है कि शादी व्याह इसलिए जरूरी है की कोई  दो जून की रोटी तो बनाने वाला हो! मतलब इसके सिवा आज  भी व्यापक स्तर पर महिलाओं  की अन्य विशेषताओं /आवश्यकताओं को रेखांकित नहीं किया जा पा रहा है. यह एक सोचनीय स्थति है। भई पत्नी है तो उनकी भूमिका को केवल खाना बनाने और परोसने तक ही क्यों अवनत कर दिया गया है? क्या उनकी उपस्थिति उनका साहचर्य अन्य अर्थों में उल्लेखनीय  नहीं है? क्या घर में उनकी भूमिका मात्र इतनी भर रह गयी है और  प्रकारांतर से यह भी कि  पुरुष  क्या मुख्यतः   एक अदद  खाना बनाने वाली के लिए ही व्याह करता है? यह बात हास्यास्पद भले ही लग रही हो मगर आज की इस इक्कीसवी सदी  में भी अधिकाँश पुरुष खुद खाना नहीं बनाते या फिर बना ही नहीं सकते/पाते।  क्योंकि संस्कार ही ऐसा मिलता है।  गाँव घरों में आज भी पुरुष रसोईं में घुसना अपनी शान के खिलाफ समझता है। 

पुरानी सोच की महिलायें भी पुरुष को खाना खुद अपने हाथों से बनाने को हतोत्साहित करती  रहती हैं।  वे खुद नहीं चाहती कि पुरुष रसोईं  संभाले -यह उनका कार्यक्षेत्र है।  यह सही है कि महिलायें अपने जैवीय रोल  में एक चारदीवारी की भूमिका में रहती रही हैं किन्तु अब समय और सोच में बहुत परिवर्तन हुआ है और नर नारी की पारम्परिक भूमिकाएं बदल रही हैं।  आज भी एक महिला को मात्र रोटी बनाने की मशीन के रूप में लेना उसकी महत्ता और उसके पोटेंशियल को बहुत कम कर के आंकना है।  इसलिए मुझसे जब यह प्रश्न  भले ही मेरे प्रति अपनत्व  की  भावना से  पूछा जाता है मुझे नागवार लगता है।  और यह पुरुष के अहम भाव को भी तो चोटिल करता है -अब क्या  हम इतने नकारे हो गए कि अपने खाने पीने का इंतज़ाम तक नहीं कर सकते?  

अरे हम जब 'राज काज नाना जंजाला' झेल सकते हैं तो उदरपूर्ति में परमुखापेक्षी क्यों बने रह सकते हैं? यह सवाल सिरे से खारिज है मित्रों -सवाल यह होना चाहिए कि अरे पत्नी नहीं हैं तो आपको कोई असुविधा तो नहीं हो रही है? अकेलेपन की तो अनुभूति नहीं हो रही है? कोई  यह भी पूछे कि पत्नी नहीं हैं तो घर कैसे व्यवस्थित है ? समय कैसे कटता है? आदि आदि सवाल भी तो पूछे  सकते हैं? कब तक यह चलेगा आप उन्हें लाते क्यों नहीं? 

पत्नी का आपके साथ होना आपके पारिवारिक जीवन की समृद्धता का द्योतक है। घर की जीवंतता का परिचायक है।  सम्पूर्णता का अहसास है।  एकाग्रता और आत्मविश्वास का सम्बल है।  भगवान राम तक कह गए प्रिया हींन  डरपत मन मोरा।  पत्नी साथ नहीं तो आप अधूरे हैं जनाब -एकांगी जीवन जी रहे है -समग्रता  का अभाव है यह ! आप मनसा वाचा कर्मणा सहज नहीं है। और यह कमी आपके व्यवहार में प्रदर्शित हो रही होगी। आपने नहीं तो आपके सहकर्मियों और अधीनस्थों ने यह नोटिस किया होगा और कदाचित झेला भी होगा -कभी उन्हें कांफिडेंस में लेकर पूछिए!
 किसी प्रियजन ने इस पुरानी पोस्ट को भी इसी संदर्भ में प्रासंगिक बताया

मंगलवार, 10 मार्च 2015

तुलसी की दिव्य दृष्टि, विनम्रता और उक्ति वैचित्र्य


जैव विविधता की एक सोच तुलसी की भी है -उन्होंने जैव समुदाय को चौरासी लाख योनियों (प्रजाति ) में वर्गीकृत किया है जो कि रोचक है। मौजूदा वैज्ञानिक वर्गीकरण साठ लाख के ऊपर है और नित नयी प्रजातियां खोजी जा रही हैं। यह दिव्य दृष्टि ही तो है!
* आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी
-चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ!
मानस की प्रस्तावना में तुलसी की विनम्रता उल्लेखनीय है.
एक महान कवि किस तरह से अपने अल्पज्ञान की आत्मस्वीकृति करता है,
उल्लेखनीय है और कवियों ही नहीं किसी भी 'ज्ञानवान' के लिए ध्यान देने योग्य
और अनुकरणीय है। उनमें किंचित भी आत्मप्रचार का भाव नहीं दिखता। आज
के कवियों के बेशर्म आत्म प्रचार के परिप्रेक्ष्य में तुलसी की यह विनम्रता ध्यान देने योग्य
है।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ

मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और
श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है

* मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है,
पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे

* जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी

-जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात्‌ जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे

* निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं

* जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई

-हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है.

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें
(.... काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ. )

तुलसी की यह कोई दिखावटी विनम्रता नहीं लगती।यह एक सच्चे अर्थों में विद्वान की विनम्रता है। विद्या ददाति विनयम। किन्तु यहीं कबीर की उद्धत विद्वता थोड़ा आश्चर्य में डालती है। कबीर अक्खड़ हैं और तुलसी उतने ही विनम्र। क्या यह कबीर की दम्भोक्ति नहीं लगती? -"मसि कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ" मानो तुलसी ने इसी अक्खड़ विद्वता का जवाब दिया -
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें। अस्तु!


तुलसी आगे लिखते हैं-
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे

* एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी

-इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं.

* भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी

:-जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती।

तुलसी कहते हैं कि कविता अपने उपयुक्त श्रोतागण को पाकर ही शोभा पाती है। अनेक वस्तुएं हैं जो जहाँ से उत्पन्न होती हैं वहां के बजाय कहीं और शोभित होती हैं।
*मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं
*तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई
-इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी राम चरित मानस की प्रस्तावना में तुलसी ने सृजन कर्म / रचनाशीलता को लेकर प्रायः उठाये जाने वाले कई प्रश्नों का सहज ही उत्तर दिया है। आखिर राम ही क्यों मानस के नायक हैं ? तुलसी के उपास्य हैं?
संतकवि कहते हैं -लौकिक लोगों पर समय क्यों बर्बाद करना?
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
(अर्थात संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)।

यह ध्यान देने की बात है कि तुलसी ने यहाँ कवि कर्म में चारण/भाँट प्रवृत्ति पर बड़ी सूक्ष्मता से प्रहार किया है। राजा महराजाओं की विरुदावली रचने वालों की अच्छी खबर ली है उन्होने। किन्तु यह भी कहा कि जिस कृति की प्रशंसा बुद्धिमान लोग न करें उसे रचना व्यर्थ ही है -
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
( बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं)
फिर रचना का हेतु/ उद्देश्य क्या होना चाहिए? इस पर तुलसी कहते हैं -
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
(कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो।) और जब सबके हित की बात हो ,व्यापक जनहित की बात हो तो भाषा भी वही हो जो सबके समझ में आये। तब संस्कृत ही विद्वता की परिचायक भाषा थी। तुलसी ने रचनाशीलता का एक क्रांतिकारी कदम उठाकर जनभाषा में मानस की रचना की। … मानस प्रणयन के प्रयोजन को सफल बनाने के लिए तुलसी द्वारा की गयी वंदना खुद में जैसे एक महाकाव्य बन गयी है -वे शायद ही किसी का आह्वान करने से भूले हों -देव मनुज ,संत असंत ,आदि, समकालीन और भविष्यकालीन कविजन की भी वंदना की है -सबसे याचना की है कि वे सब उनके मनोरथ को पूरा करें। लगता है जैसे वंदना में ही उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन भी समेट लिया हो.
आज बस इतना ही। । जय श्रीराम !

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