वो कहते हैं न और भी गम हैं दुनिया में इक मुहब्बत के सिवा -तो हुआ यह कि मेरे पिछले श्रृंगार विषयक पोस्ट पर जन सहमति(याँ ) अपेक्षा के अनुरूप नहीं मिलीं मगर पांच पंचों का अनुमोदन तो मिल ही गया है जो मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहा है !पॉँच पंचों के अनुमोदन को ही मैं जनवाणी मान कर श्रृंगार साहित्य में नायक नायिका भेद पर अपनी सद्य एकत्रित जानकारी आपसे बाटने को उद्यत हूँ ! मगर पहले ही एक दावा त्याग ! मैं हिन्दी साहित्य का अधिकारी श्रोता तक भी नहीं हूँ विद्वान् की तो बात ही छोडिये -इसलिए विषयानुशाषित नहीं हो सका हूँ ,हाँ विषयानुरागी होने के नाते ही अपनी जानकारी यहाँ साझा करना चाहता हूँ ! मैं बार बार कह चुका हूँ साहित्य की मेरी समझ अधकचरी है और ज्ञान पल्लवग्राही ! तो मेरी यह धृष्टता ज्ञानी जन,साहित्य के मर्मग्य क्षमा करेगें ! और मेरी गलतियों को कृपा कर सुधारेगें भी ! क्योंकि यह ज्ञान के गहन साहित्य में यह एक अल्पग्य की अनाधिकार ,उद्धत घुसपैठ तो है ही !
अब विषय चर्चा बल्कि कहिये विषयासक्त चर्चा ....हिन्दी साहित्य में श्रृंगारिक नायक नायिका भेद एक उपेक्षित प्रसंग है ! भले ही हमारे शास्त्रों ने इसे महिमा मंडित किया हो ! हिन्दी के कई मूर्धन्य विद्वानों ने इसे हेय और अश्लील तक माना है .महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि नायक नायिका भेद दरअसल सामंतों -राजाओं की विलासिता पसंद अभिरुचि का रंजन भर है ! मगर मुझे लगता है कि जिस वैज्ञानिक पद्धति से हमारे मनीषियों ने इस विषय पर लिखा पढ़ा है वह एक दस्तावेज है और उसे यूं ही उपेक्षित कर देना उचित नहीं है ! बल्कि इसका बार बार अनुशीलन होना चाहिए और यथा संभव इस साहित्य की अभिवृद्धि भी ! ज्ञान के नए अलोक में और नए युगीन संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों में ! तो नायक नायिका भेद जिसमें श्रृंगार रस का पूरा परिपाक हुआ है के अवगाहन के पहले आईये इस साहित्य की कुछ मूलभूत स्थापनाओं मतलब खेल के नियमों से भी परिचित हो लें जिससे खेल के बीच कोई गलतफमी न उपजे ! और हाँ यह भी कह दूं सनसनाहट प्रेमी थोडा किनारा ही किये रहें क्योंकि उन्हें यहाँ कुछ ख़ास नहीं मिलने वाला है ! वे निराश ही होंगें !
नायक नायिका भेद विवेचन के पीछे तो स्त्री पुरुष रति सम्बन्ध ही हैं जिनकी अनेक स्थितियां /मनस्थितियाँ हैं और वे ही इन में रूपायित हुई हैं ! ये सहज और स्वाभाविक रति भावना की ही प्रतिफल है ,विकारग्रस्त यौनानुभूतियों की नहीं ! इस साहित्य में यौवन युक्त ,आकर्षक स्त्री पुरुषों के प्रेम को स्वीकृति मिली है ! मगर रसबोध के साथ ही सामाजिक मर्यादा का भी ध्यान रखा गया है ! केशव ने रसिकप्रिया में ऐसी स्त्रियों की सूची भी दी है जिनसे रति सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जाना चाहिए ! इस साहित्य के मूल में रति भावना को नैसर्गिक ,सहज और अनिवार्य माना गया है क्योंकि बिना इसकी पारस्परिक स्थितियों के रस की निष्पत्ति संभव नहीं है !
काव्य शास्त्र में प्रेम की स्थिति को स्वीकार किये बिना कोई स्त्री नायिका नहीं कही जा सकती ! इसलिए स्वकीया यानि विवाहिता (कृपया इन श्रृंगारिक पारिभाषिक शब्दों पर ध्यान देते चलें ) पर वात्स्यायन ने विचार तक नहीं किया है ! नायक नायिका का विभाजन परकीया (गैर वैवाहिक ) प्रेम और कामशास्त्र की दृष्टि से किया गया है ! वात्स्यायन के कामसूत्र से लेकर अब तक इस विषय पर सैकडों ग्रन्थ रचे गए हैं .साहित्य में एक मान्यता यह भी है कि रस सिद्धान्त में श्रृंगार को अधिक महत्व प्राप्त है ,यहाँ तक कि कृष्ण भक्ति का आधार भी रतिभाव ही है (विष्णु पुराण -पांचवा खंड ,अध्याय १३ ,१४) ;भागवत पुराण दाश्वान स्कंध ) .गोपियों और राधा कृष्ण के परकीया प्रेम और रति क्रीडा को भक्त के अनन्य समर्पण के रूप में स्वीकार कर लिया गया ! और लीला के माहात्म्य के रूप में प्रतिपादित किया गया ! जयदेव के गीत गोविन्द(12 वीं शती ) में कृष्ण गोपियों के प्रेम का सजीव ,चित्रमय वर्णन है ! यहाँ गोपियाँ जो परकीय नायिकाएं हैं के मनोभावों को बहुत बारीकी से उकेरा गया है ! जयदेव की राधा काम विह्वल हैं ! बंगला कवि चंडीदास में भी इस परकीया भाव की चरम परिणति है ! राधा हैं तो अन्य की विवाहिता मगर कृष्ण प्रेम की पीडा की वेदना को सहती रहती हैं !
क्रमशः .......
!
achhi jaankaari...shukriya..mujhe to yahi pata hai ki aaj tak main sirf ek sanyog shringaar likh paya aur baki sab viyog :P
जवाब देंहटाएंस्त्री-पुरुष प्रेम और संबंधो की सुन्दर चीर फाड़ और अच्छा विवेचन !
जवाब देंहटाएंअपने भी बस का नही है।
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा चली है, इसे जारी रखें।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
भूमिका तो हो ली, आगे बढ़िए।
जवाब देंहटाएं"मैं हिन्दी साहित्य का अधिकारी श्रोता तक भी नहीं हूँ विद्वान् की तो बात ही छोडिये ..."
जवाब देंहटाएंतो यहां कौन से बडे़ पुरोधा हैं डॊ. साहब:)
मिठाई का शौकीन हलवाई ही हो ये कोई तर्क नहीं इसलिए कौन है जो हिंदी साहित्य का अधिकारी श्रोता के नाम पर आपको चैलेंज करने वाला भाई बढे चलो आप आगे लिखते चले जिन्हें सनसनाहट होगी वो खुद बा खुद हट जायेंगे जो गुनना चाहेंगे वे डटे रहेंगे सो न शोचयति
जवाब देंहटाएंआगे जारी रहें...
जवाब देंहटाएंसमझ में आया हो तब तो कुछ टिप्पणी करें..
जवाब देंहटाएंपढा !
जवाब देंहटाएंइतना उत्साहवर्धन मिले तो हम दूसरा शास्त्र ही रच दें! आप इतनी झिझक क्यों दिखा रहे हैं.. थोड़ा ध्यान रखिएगा नेवचा जवान भी आ पधारे हैं.. मैं उन्हें बिगाड़ने की तोहमत आप के उपर लगा सकता हूँ।
जवाब देंहटाएंअभी क्रमश: भी है? हम तो समझे थे कि जल्द ही निपट लिये
जवाब देंहटाएंहम्म... इंटरेस्टिंग :)
जवाब देंहटाएंइतने गूढ ग्यानी तो हम नहीं मगर आपके आलेख से बहुत कुछ जान लेंगे बहुत सुन्दर स्त्री पुरुश संबन्धों की विवेचना है धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंभइया !
जवाब देंहटाएंयहि छेत्र मा जवन
बतौबो तवन हमार ग्यानइ
बढाई |
नायक नायिका भेद पै
हमार ग्यान बढ़ावै ताइन
सुकरिया ...
सुरुवात मा आपकै विनम्रता
देखि कै तुलसी बाबा कै चौपाई
याद आइ गई ...
''बरसहिं भूमि जलद नियराये |
जथा नवहिं बुध बिद्या पाए || ''
धन्नबाद ...
अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंमैंने मूल नाट्यशास्त्र पढ़ी है और इसके अतिरिक्त दशरूपक भी. मेरी एक शंका है. मेरे विचार से नायिका-भेद श्रृंगार-रस के सम्बन्ध में है, नायक-भेद नहीं. नायक-भेद का प्रमुख आधार उनके गुण और प्रकृति है, परन्तु नायिका-भेद का वर्णन नायक के साथ उनके श्रृंगारिक सम्बन्धों के आधार पर, उनके नायक के प्रति प्रणय-व्यापार के आधार पर किया गया है. हाँ, यह बात अवश्य है कि नायिका-भेद करते समय आचार्यों ने अत्यधिक सूक्ष्म मानवीय प्रेमभावों की विवेचना की है.
@मुक्ति जी ,
जवाब देंहटाएंआप हिन्दी साहित्य और विशेषतया सौन्दर्य शास्त्र
की गंभीर अध्येता हैं यह आपके विषय के सूक्ष्म विवेचन से ही स्पष्ट है .
मैंने पहले ही दावा त्याग में यह स्वीकार किया है की इस विषय में मेरी
रूचि बस पल्लवग्राही ही है -मेरा स्वभाव सदी अर्जित जानकारी को साझा करने का रहा है बस !
आप कृपा कर अवश्य ही कंही हुयी त्रुटियों को अवश्य इंगित कर देगीं
और किसी अज्ञानता वश उपेक्षित रह गए बिंदु को भी उद्घाटित करेगीं !
हाँ एक बात तो आप स्वीकारेगी की शास्त्रीय और साहित्यिक दृष्टियों में कहीं कहीं फर्क भी है !
आह! आपकी भाषा...आह!! आपका शिल्प!
जवाब देंहटाएंओह सीधी सी वैज्ञानिक चर्चा करने के लिए भी कितना सम्हालना पड़ता है...लेखक को....अरविन्द जी को प्रणाम...
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