शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

भाग दरिद्दर भाग-दीवाली संस्मरण!

दीवाली की अनेक यादें हैं। इस बार अपने पैतृक निवास जा नहीं पाया तो यादें और भी सघन हो मन में उमड़ घुमड़ रही हैं। हमारे लिए दीवाली का मतलब ही होता था पटाखों और फुलझड़ियों का प्रदर्शन। एक माह पहले से ही छुरछुरी ( पूर्वांचल में फुलझड़ियों को इस नाम से भी पुकारते हैं ) इकट्ठी करना शुरू हो जाता था जिसमें किशोरावस्था की देहरी पर खड़े समवयी हम कुछ बच्चे बड़े बुजुर्गो से आँख बचा बचा कर एक गोपनीय संग्रह करते जाते थे. कुछ जेब खर्च और निश्चय ही कुछ चुराया हुआ धन इसमें इस्तेमाल होता था. पिता जी नयी सोच के थे तो पर्यावरण की चिंता उनको रहती थी और वे आखों के सामने पड़ते ही हमें पर्यावरण पर पूरा पाठ पढ़ा देते और पटाखों के धुर विरोधी थे। हाँ बाबा जी हमारे बीच बचाव को आते थे और पिता जी को समझाते कि एक दिन में पर्यांवरण नष्ट नहीं हो जाएगा और बच्चे इतनी छुरछुरी भी कहाँ छोड़ते हैं? 

बहरहाल इसी माहौल और तनातनी के बीच हम अपने संग्रह कार्य में जुटे रहते थे। और चर्खियों, गैस , टेलीफोन, स्वर्गबान ,अनार, लाईट बम , सुतली बम के नामों से मिलने वाले अद्भुत आइटमों की खरीद होती रहती -एक पुराना परित्यक्त थोड़ा टूटा सा बक्सा हमें मिल गया था उसी में यह खजाना संचित होता रहता। यह बक्सा एक साथी के पुराने घर के कोठिला (अन्न संग्रह पात्र ) वाले अँधेरे कमरे में सुरक्षित रखा जाता। मुझे खुद के ऐसे तीन वाकये याद हैं जिसमें मैं पटाखों से घायल हुआ हूँ।बाल्यावस्था ,किशोरावस्था और युवावस्था तीनों काल के हादसे की कटु स्मृतियाँ हैं। युवावस्था वाली तो अति उत्साह आत्मविश्वास के चलते हुई.महा मूर्खता कि हाथ में पटाखा जलाकर उसे झट से दूर फेंक देना -मगर यह तो 'तेज आवाजा" बम था न -जैसे ही पलीते में आग लगी मैंने दूर झटका मगर यह क्या हुआ -तत्क्षण तेज धमाका और आँखों के आगे अँधेरा। बम हाथ में ही फट चुका था -हथेली जख्मी हो गयी थी जो कई दिनों रुलाती रही।

लिहाजा हाथ में लेकर कोई भी पटाखा/बम फिर से न छुड़ाने का कसम खाया गया। बाकी की दो दुर्घटनाएं बाल अन्वेषी प्रकृति की देन ही थीं जिसमें विभिन्न पटाखो के मिश्रण से एक नयी फुलझड़ी बनायी जा रही थी -मगर उस बड़े हादसे में हम बालगण बाल बाल बचे थे मगर मेरी हथेली के जख्म चिन्ह आज भी उस त्रासदी की स्मृति शेष है।

एक और स्मृति कौंध आई है। मेरे यहाँ दीपावली के दिन इस त्यौहार को न मनाकर एकादशी के दिन मनाया जाता था। ठीक दिवाली के ही दिन कोई बुजर्ग कोई पचास एक वर्ष पहले चल बसे थे. सो यह दिन अशुभ हो गया था। मैं बहुत व्यग्र रहता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम लोग भी यानी पूरा पुरवा त्यौहार के समय ही इसे मनाये? जब और लोग दीपावली मनाते और फुलझड़ियाँ छुड़ाते तो हम लोग मायूस से हो रहते। मैं, बाबा जी और दूसरे बड़े बुजुर्गों से पूछता कि ऐसा कौन सा उपाय है कि हम भी ठीक इसी दिन त्यौहार मनायें? कहा जाता है कि अगर ठीक इसी दिन गाय को बछड़े का जन्म हो जाए या कोई लड़का जन्म ले ले तो बात बन सकती है.

 मगर मुझे ऐसी किसी घटना के इंतज़ार में वर्षों  बीत गए -अब क्योंकर कोई ऐसा सुयोग बने। एक गाय बियाई भी तो एक दिन बाद। मैंने थोड़ा लाबीइंग की मगर लोग राजी नहीं हुए। अब तक मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ चुका था। मैं बहुत अधीर होता कि काश दीवाली के दिन ही हमारी भी दिवाली होती -वर्ष 1980 के आस पास मैंने बाबा जी से कोई दूसरा उपाय पूछा। बड़े बुजुर्गों की पंचायत बुलाई गयी। तय पाया गया कि अगर ठीक दीपावली के दिन  घर का कोई बुजुर्ग मथुरा जाकर युमना जी में दीपदान कर दे तो बात बन सकती है। मैंने यह बात मानकर बाबा जी, माता जी और पड़ोस के और दो बुजुर्ग परिवारों की यात्रा का भार अपने ऊपर लिया . मथुरा जाकर यमुना जी में दीपदान कराया । लौटते वक्त ताजमहल को देखकर अलौकिकता का अहसास लेकर घर वापस आये. और अगले वर्ष दीवाली समय से मनाई जाने लगी।

मगर एक अड़चन तो रह ही गयी। दीवाली की एक पारम्परिक मान्यता के अनुसार दीपोत्सव के ठीक दूसरे दिन अल्ल्सुबह घरों से महिलायें सूप पीटती हुयी दरिद्र निस्तारण करती थीं ताकि मुए दलिद्दर कहीं कोने अतरे दुबके न रह जायँ। यह कार्यक्रम एकादशी की रात के बाद ही मनाया जाता रहा जबकि दीवाली उस दिन से पहले नियत समय को ही मनाई जाने लगी थी। अब बूढ़ी बुजुर्ग औरतों को कौन समझाये? मैं लाख समझाऊँ कि यह अनुष्ठान दीपावली की रात का ही है मगर वे माने तब न । एक बार मैंने फिर यह बीड़ा उठाया और नयी बहुओं को कनविंस करने लगा। मेरा भी विवाह अब तक हो गया था तो पत्नी को भी इस मुहिम में लगाया -सासू माओं से परेशान एक नयी बहू फ़ौज ने मानो अपनी भड़ास का एक रास्ता निकाल लिया था। इस बार की दीवाली के पटाखों की आवाज अभी भी फिजां में गूँज ही रही थी कि ब्रह्म मुहूर्त में सूपों पर हथेलियों की थप थप की आवाजें आनी  शुरू हो गयीं थीं।

दरिद्र निष्कासन शुरू हो चुका था। भाग दरिद्दर भाग की समवेत आवाजें भी कानों से टकरा रहीं थीं। आज संतोष त्रिवेदी ने जब यह बताया कि उनके यहाँ यह रस्म अभी भी एकादशी के दिन ही होता है तो  उन्हें मैंने  यह संस्मरण सुना दिया और उन्हें उकसाया भी कि  दीपावली के इतने दिन बाद तक भी घरों में दरिद्र बैठाये रहने का क्या मतलब है आखिर ? देखिये वे क्या कर पाते हैं! मैंने तो अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी निभा ली ! :-)

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

आप शर्मिंदा तो नहीं कि कैलाश सत्यार्थी को नहीं जानते?

 फेसबुक पर कई आत्ममुग्ध बुद्ध प्रबुद्ध लोगों ने उपहासात्मक लहजे में टिप्पणियाँ की हैं कि
उन्होंने कैलाश सत्यार्थी का नाम तक नहीं सुना -जैसे उनका यह उद्घोष हो कि अगर बन्दे को मैं नहीं जानता तो फिर उसकी  कोई काबिलियत ही नहीं है . प्रकारांतर से वे नोबेल की उनकी वैधता पर उंगली उठा रहे हैं। जानता तो मैं भी नहीं था उन्हें कल तक, किन्तु इसलिए शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ -उन कारणों के विवेचन में लगा हूँ कि ऐसे शख्स को जिसने भारत ही नहीं दुनिया के सैकड़ों देशों में बाल शोषण के विरुद्ध अलख जगायी और इस दिशा में ठोस काम किया, क्यों इतना अनजाना सा रह गया अपने ही देश में। सबसे पहले तो मैं अपना ही दोष मानता हूँ कि मेरी जागरूकता की कमी रही -मैं अपने संकीर्ण दायरों से बाहर न निकल सका या फिर इनके कार्यों को महज एक आम सामाजिक कार्यकर्त्ता द्वारा किये जा रहे कार्यों के रूप में ले लिया-यह नाम दिमाग में जगह नहीं बना सका।

मगर मैं अन्य कारणों को भी समझना चाहता हूँ जिससे यह शख्स इतने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद भी अनजाना रहा? क्या अपने देश की मीडिया की भूमिका कटघरे में है? या देश के शासक वर्ग की अनदेखी? या फिर कोई और कारण ? फिर कैलाश सत्यार्थी का कार्य सचमुच इतना उल्लेखनीय नहीं रहा और महज वैश्विक राजनीतिक कारणों से यह पुरस्कार महानुभाव की झोली में टपक पड़ा है? कल से दिमाग इसी उधेड़बुन में लगा है! हमारे देश में नेता और अभिनेता के  सिवा सेलिब्रिटी होना किसी अपवाद से कम नहीं है। विदेशी संस्थानों को हमारे यहाँ के दूसरे तीसरे दरजे के क़ाबिल लोगों जैसे वैज्ञानिकों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं की  भले ही सुधि हो आए। 

एक और बात है अब मीडिया और शासकीय वर्ग भी सत्यार्थी के विरुदावली गायन में जुट गया है मगर यह सदाशयता उन दिनों कहाँ थी जब इन्हे इसकी बहुत जरुरत रही होगी? भारत में यह पुरानी बात है कि जब तक हमारा कोई अपना पश्चिम से सम्मानित और अनुशंसित नहीं होता हम उसे तवज्जो नहीं देते? परमुखापेक्षता का यह विद्रूप उदाहरण है।इस  देश को अपनी प्रतिभाओं की न तो पहचान है और न ही कद्र। बेकदरी से जूझते अकुलाये वैज्ञानिक  और दीगर प्रतिभायें  विदेश का  रुख करती हैं। यहाँ प्रतिभाओं पर जंग लगती जाती है।  यहां प्रतिभा पलायन साथ प्रतिभाओं के जंग खाते जाने की विकराल समस्या रही है। 

अब लोगों में आत्मगौरव का जज्बा चढ़ रहा है कि वाह देखो भारत को और एक नोबेल मिल गया -मित्रों, यह सम्मान केवल और केवल सत्यार्थी का है -यह उनकी अतिशय उदारता है जो उन्होंने भारतीयों को इसका उत्तराधिकारी कहा है। सच तो यह है कि भारत का राजनीति और लालफीताशाही से दूषित परिवेश और हमारा चिर आत्मकेंद्रित समाज ऐसे पुरस्कारों की कूवत नहीं रखता -हाँ उसका श्रेय लेने को हम बढ़ चढ़ के दौड़ पड़ते हैं ! बेशर्मी की  हद तक। 

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

हिन्दी ब्लॉगों की अस्मिता का सवाल!

अभी कल ही नए ब्लॉग संग्राहक ब्लॉग सेतु के संचालक केवल राम जी ने अपने फेसबुक वाल पर मेरे ब्लॉग क्वचिदन्यतोपि का हेडर लगा कर मित्रों से इस नाम पर उनकी प्रतिक्रिया पूछी थी। अभी कोई प्रतिक्रिया आयी भी न थी कि सहसा मैंने उसे देख लिया और थोड़ा असहज हो गया। क्योकि एक तो यह शब्द लोगों की जुबान पर सहजता से चढ़ता नहीं है दूसरे अब यह पुराने ज़माने का ब्लॉग हो गया -लोग याद भी काहें रखें। मुझे केवल राम जी की सदाशयता पर किंचित भी संदेह नहीं है फिर मुझे यह भी डर लगा कि कहीं कोई टिप्पणी न आने से मेरी बेइज्जती न खराब हो जाय -लोग कहें कि ई लो देखो बड़े बनते हैं बड़का ब्लॉगर और आज कोई पूछने वाला भी नहीं है -अब हम लाख कहते कि भाई मैं कोई गुजरा वक्त भी नहीं जो आ न सकूँ मगर कोई काहें को मानता। कई मित्रगण तो आज भी गाहे बगाहे मेरी खिंचाई पर ही लगे रहते हैं। अब लोगों को मौका न मिले यही सोचकर मैंने जल्दी से वहां एक झेंपी हुयी टिप्पणी चिपका ही तो दी। अब यह पोस्ट टिप्पणी विहीन तो नहीं रहेगी। शर्मनाक स्थिति से कुछ तो राहत मिलेगी।

बहरहाल कुछ समय बाद ही वहां ब्लॉग शिरोमणि अनूप शुक्ल जी का आगमन हो गया और उन्होंने मेरे सम्मान की कुछ रक्षा कर दी -क्वचिदन्यतोपि के अर्थादि को लेकर मेरे ब्लॉग पोस्ट वहां लगाए -यह अनूप जी की विशिष्ट विशेषता है -ब्लॉग के आदि(म) पुरुषों में से हैं वें और ब्लॉग साहित्य की कालजीविता के लिए प्राणपण से जुटे रहते हैं -दोस्त दुश्मन में कोई भेद किये बिना। और महानुभाव ब्लॉगों के चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया भी हैं अलग। वे इस माध्यम/विधा को आगे ले चलने को सदैव तत्पर रहते हैं। मुझे आश्चर्य है कि उनके इस महनीय योगदान के बाद भी देश के नामी गिरामी पुरस्कार देऊ संस्थायें उन तक क्यों नहीं पहुँच रहीं। अब तो मुझे लगता है अनूप जी को खुद एक बड़का पुरस्कार घोषित कर देना चाहिए -कम से कम बीस पच्चीस हजार का -इतना वेतन तो पाते हैं वे अब कोई लाख सवा लाख रूपये मासिक तो जरूर ही. ऐसे और कई महानुभाव हैं नाम नहीं ले सकता क्योकि उनसे इतनी स्वच्छंदता नहीं ले सकता जितनी अनूप जी से मगर आह्वान है कि वे भी आगे आएं और एक फंड स्थापित किया जाय जो अच्छे युवा ब्लागरों को पुरस्कृत कर सके। मैं भी अकिंचन योगदान दे सकता हूँ। अपने सतीश सक्सेना जी भी इस पुनीत कार्य में पीछे न रहगें!

अब वक्त यही है कि पहली पीढ़ी के ब्लॉगर आएं और इस माध्यम/विधा को प्रोत्साहित करने को अपनी टेंट ढीली करें ताकि ब्लागिंग का टेंट फिर मजबूती से गड जाए। मैं उन मन को बहलाने वाले विचारों से कतई सहमत नहीं हूँ कि आज भी ब्लागिंग की रौनक कायम है, ब्ला ब्ला ब्ला। अब समय है हम अपना आर्थिक योगदान भी सुनिश्चित करें अन्यथा हिन्दी ब्लागिंग पर उमड़ते संकट को देखा जा सकता है। मुद्रण माध्यम में छपास का मोह और फेसबुक इसे ले डूबने वाला है। तो ब्लागिंग के अग्रदूतों का आह्वान है कि वे इस संकट की बेला में कोई ठोस आर्थिक प्रस्ताव लेकर आएं और हम सब मिल बैठ कर उसे कार्यान्वित करें -एक ख़ास ब्लॉग बैठकी इस काज के लिए भी आहूत की जा सकती है। आप सभी के विचार आमंत्रित हैं -खुदगर्जी से तनिक आगे बढ़ें और ब्लॉग बहुजन हिताय कोई ठोस काम करें!

अंतर्जाल ने हमें मौका दिया अपने परिचय के वितान को विस्तारित करने का -आज हम चंद वर्षों में ही कितने परिचय समृद्ध हो चुके हैं। चिर ऋणी हैं अंतर्जाल के जिसने कितने ही सुदूर क्षेत्र और रुचियों के लोगों को एक साथ ही ला खड़ा नहीं किया, आजीवन प्रगाढ़ संबंधों की नींव भी रख दी। हाँ इस मौके पर कुछ मित्र मुझे शिद्दत से याद आ रहे हैं जो अंतर्जाल से छिटक कर दुनिया की भीड़ में खो गए हैं -मगर कोई बात नहीं -कोई तो मजबूरी रही होगी वार्ना यूं ही कोई बेवफा नहीं होता। हाँ अगर उन तक भी यह बात संदेशवाहकों या समकालीन नारदों के जरिये पहुंचे तो उनका भी स्वागत है अगर वे जुड़ना चाहें इस मुहिम में! अज्ञात रहकर भी लोग यथायोगय गुप्तदान कर सकते हैं।

केवल राम जी, आप से बस इतना ही कहना कि आप की युक्ति कामयाब रही। गांडीव उठवा दिया आपने और अनूप जी आपको भी शुक्रिया कि क्वचिदन्यतोपि के बंद करने की (मिथ्या ) घोषणा करके आपने मुझे प्रतिवाद करने को उकसा दिया। मगर मेरे प्रस्ताव पर ध्यान जरूर दीजिये और मित्रगण भी अपने विचार यहाँ प्रगट करें और कुछ दान दक्षिणा दे सकते हों तो सलज्ज /निर्लज्ज होकर कहें भी -क्योकि यह हिन्दी ब्लॉगों की अस्मिता का सवाल है।

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