रविवार, 3 फ़रवरी 2013

लोग दस वर्ष की उम्र कैद तक झेल जाते हैं। संदर्भ: मिड लाईफ क्राईसिस!

पिछले दिनों मैंने फेसबुक पर अपडेट किया -"कभी कभी मन बहुत अवसाद ,जड़ता और नकारात्मकता से भर उठता है -चिकित्सक इसे पुरुष रजोनिवृत्ति (मेल मीनोपाज ) भी कहते हैं! क्या सचमुच मेल मीनोपाज एक हकीकत है या फिर चिकित्सकीय भ्रम? मेरे समवयी मित्रों आप कभी इस मनोभाव से गुजरते हैं ? आप इसे दूर करने का क्या उपाय करते हैं?"जैसा कि अपेक्षित था मित्रों की सदभावनाएँ बरसनी शुरू हो गई। मित्रों ने मजाक भी किया " हर शाम रेड वाईन के दो बड़े पेग लें ठीक रहेंगे" -   मैंने कहा   मैं तो असुर हूँ भाई इसे तो न ले सकूंगा! हाँ कोई प्यारा सा साथ  मिले तो यह कुफ्र भी कबूल है, बहुत हो गया मुसलमा बने हुए :-) किसी मित्र ने नियमित व्यायाम सुझाया तो किसी ने ग़ज़ल सुनने -सुनाने की सलाह और किसी ने रचनात्मक लेखन (जैसे यह विधा कभी आजमाई ही न हो मैंने :-) ) डाक्टर से मिलने की भी सलाह दी गयी। एक मित्रा(णी) ने यहाँ तक सलाह दे ड़ाला कि इधर उधर की ताका झांकी और राग विराग के बजाय ईश्वर में मन लगाईये -योग कीजिये -ध्यानावस्थित रहिये! रसिक मित्र वीरेन्द्र कुमार शर्मा जी ने तो एक पूरा वृत्तान्त ही पुरुष रजोनिवृत्ति पर चेंप दिया। एक संक्षिप्त सी प्रतिक्रिया आयी कि "सर्च मिडलाईफ क्राइसिस" ..मैंने ढूँढा तो विकीपीडिया ने स्वागत किया .जैसा कि मेरी रचना प्रक्रिया का यह हिस्सा है नयी जानकारी मैं मित्रों से साझा करता हूँ-यह विवरण यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है -विस्तार से विकीपीडिया पर पढ़ ही सकते हैं।
मैंने बात पुरुष रजोनिवृत्ति से शुरू की थी। महिलाओं में रजस्राव बंद होने के बाद की उम्र बहुत से हार्मोनल असंतुलन और 'मूड स्विंग' की होती है .इसी के समतुल्य कुछ भावनात्मक असंतुलन की स्थिति जो पुरुषों में 45 वर्ष के बाद शुरू होती है को नाम मिल गया "पुरुष रजोनिवृत्ति" -जो एक 'मिसनामर ' भले ही है मगर कतिपय लक्षणों की उपस्थिति के चलते यह नामकरण प्रचलन में है . मिड लाईफ क्राईसिस भी पुरुष या स्त्री के 40-60 वर्ष के बीच की अवस्था में आने वाला एक समय है जब कई ऐसे भावनात्मक उद्वेग पैदा होते हैं जो विचलित करने वाले हैं -मगर यह पुरुषों को ज्यादा प्रभावित करता है। यह समय काल ऐसा है कि  वह जीवन के उस पड़ाव पर होता है जब उसके शेष जीवन की अवधि कम हो रहती है और वह अपना मूल्यांकन शुरू करता है -क्या खोया क्या पाया? कितना सफल हुआ वह समवयी मित्रों/लोगों में, जीवन में सफलता या असफलता के परिप्रेक्ष्य में तथा नौकरी की संतुष्टि/असंतुष्टि,विवाह और रोमांटिक सम्बन्धों की स्थति, और खुद का आकर्षक -अनाकर्षक दिखना,यौनिक संतुष्टि -असंतुष्टि ,यौन परफार्मेंस में गिरावट आदि आदि भी महत्वपूर्ण कारक पाए गए हैं .मुझे लगता है इसमें कुछ कारण अवश्य महत्पूर्ण है।
इस त्रासदी से बचने के   लिए लोगबाग़ कई अधीर और हास्यास्पद प्रयास भी करते हैं -खुद को सजाने संवारने , प्रदर्शन के कई और जुगाड़ -नयी गाड़ियां या वैभव के दिखावे वाले सामानों को खरीदना,अपनी वैवाहिक संगिनी से इतर नए सम्बन्ध ढूंढना . और जीनवादियों (जेनेटिसिस्ट) की माने तो अनुर्वरक (नान रिप्रोडकटिव) हो चुकी पत्नी के उम्र की तुलना में उर्वरकतायुक्त(रिप्रोडकटिव) घानिष्टता की साध आदि आदि .
अब इस मिडलाईफ क्राइसिस से बचने के उपाय आखिर हैं क्या? कई सुझाव हैं -मनो चिकित्सक से संपर्क के अलावा जीवन शैली के बदलाव की सिफारिश है .मगर मुझे लगता है इसके अलावा मनुष्य को अपनी निजी स्वार्थपरता को त्याग कर समाजोपयोगी कार्य कलापों में रूचि लेना भी आत्मसंतुष्टि का संबल बन सकता है -और भारतीय आध्यात्म चिंतन में अभिरुचि -जीवन की निस्सारता की अवधारणा, मनुष्य के निमित्त मात्र होने का बोध आदि ऐसे समय बहुत लाभदायी हो सकते हैं . जीवन में तरह तरह की अपेक्षाएं पाल कर लोग दुखी होते हैं और अवसाद में भी चले जाते हैं . यही वह अवसर है जब बुद्धं शरणम गच्छ का आह्वान अर्थपूर्ण हो उठता है . 
अतिशय भौतिकता मनुष्य को अंततः पलायन की और ले जाती हैं -कृष्ण ने ऐसे ही उहापोह के समय अर्जुन से कहा -सर्व धर्मं परितज्य मामेकं शरणं ब्रज ..मतलब किसी एक परम सत्ता को समर्पण .....सम्पूर्ण भक्ति! मगर आप कदाचित अनीश्वरवादी हैं तो भी यह तो समझ ही सकते हैं कि मनुष्य के हाथ में सब कुछ नहीं है -पुरुष समग्र जीवन के परिप्रेक्ष्य में परिस्थितियों का भी दास होता ही है। वैसे भी मिड लाईफ क्राईसिस महिलाओं में मात्र 3-4 वर्ष और पुरुषों में दसेक वर्ष की पायी गयी है -अब इतना भी झेल लेना कौन सी बड़ी बात है -लोग दस वर्ष की उम्र कैद तक झेल जाते हैं।

24 टिप्‍पणियां:

  1. समाजोपयोगी कार्य कलापों में रूचि लेना शुरु कर दीजिये!

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    1. मैं तो कब से लेता रहा हूँ - आप कब शुरू कर रहे हैं ? :-) मेरी उम्र तक जा पहुँचने पर?बस आ ही पहुँची मानो!

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  2. बढ़िया आलेख विकल्प एक नहीं हैं अनेक हैं यहाँ तो काम इतना रहता है 24घंटे कम पडतें हैं .काश एक दिन में 36 घंटे होते .कैसा मिड लाइफ़ क्राइसिस सर जी आप हमारे आदर्श पुरुष हैं सर्व शक्ति संपन्न .मित्र -मित्रा सु -सज्जित।

    ram ram bhai
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    रविवार, 3 फरवरी 2013
    असली उल्लू कौन ?

    नुसखे सेहत के
    नुसखे सेहत के

    http://veerubhai1947.blogspot.in/

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  3. यह लेख भी समाजोपयोगी कार्य कलाप है।

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  4. ’जो जाके न आये’ और ’जो आके न जाये’ के बीच की वेला है ये तो:)

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  5. 'किन्वदन्तीह सत्येयं या मति: स गतिर्भवेत'
    ...इसलिए...
    'ध्वन्ति च खेलन्ति च स्वभावत: प्रविशन्ति'

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  6. जिसके जीवन-शब्‍दकोश में "मेरे पास टाइम नहीं है" और "समय नहीं कट रहा" जैसे निरर्थक वाक्‍य-युग्‍म विद्यमान हैं, उसके लिए तो मिड लाइफ क्राइसिस क्‍या ऑल लाइफ क्राइसिस अर्थात् जीवन-पर्यन्‍त संकट रहेंगे।

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  7. ...गंभीर विषय है,इस पर कुछ भी कह पाना अपन के लिए संभव नहीं है !

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  8. ४० में तो बस पाँव धरे ही हैं कि आपने डरा दिया..

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  9. फोर्टीज ब्लूज सुने थे -- इसे क्राइसिस क्यों कहें ! एक आयु के बाद सोच में बदलाव आना स्वाभाविक है। आप 50 की उम्र में 25 जैसी मानसिकता नहीं रख सकते। लेकिन इस फर्क को स्वीकार करने में थोडा समय लगता है। फिर 50 , 25 से भी बेहतर लगने लगता है। बाकि तो दिल ज़वान रखना चाहिए।

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  10. निश्चित रूप से समय के बहुत कुछ बदलता तो है ही ...... वैसे आजकल तो लोगों को पूरी लाइफ ही क्राइसिस लगती है ....

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  11. yah sonbhadra syndrome hai ya kuchh aur waise mai yah kahana chaahugaa ki kuchh dino ke liye aas pas ki duniya jisame net bhi shaamil hai usase aatm nirvasan le lijiye fir se aap apane ko rejunivate hota dikhege na vishwas ho to keval raviwar ko hi yah pryog kar ke dekhe

    yah sab vichaaro ke atyadhik pravahmaan hone se upaji manodasha hai

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  12. Kuch jiyada hi soch gaye,khali baithe dimagi fitur hae,puri umra nikal gayee,kuch sochne ki nobut hi nahi aaye.shayad man se kamjor hone par aisi halat hue hae.thoda sa apne aapko samjhne sambhalne ki jaroorat hae.

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  13. नारी सशक्तिकरण के इस दौर में पुरुषों की क्राइसिस की ओर किसी का ध्यान नहीं है, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण विषय है।

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  14. सकारात्मकता और सौद्देश्यता सब कुछ का अतिक्रमण करती है .आप इस ताकत से सज्जित हैं .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .

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  15. हमको तो लगता है ,इस दौर से कबका गुजर चुके !

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  16. मैं तो पिछले पाँच-छः साल से 'मूड स्विंग' की समस्या झेल रही हूँ. खैर, उसका कारण दूसरा है. मुझे लगता है कि जब भी अवसाद घेरने लगे, अपना सबसे अधिक मनपसंद काम करना चाहिए. मैं रंग ब्रश उठाकर पेंटिंग या स्केचिंग करने लगती हूँ, जो कि पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में और अब रोजी-रोटी की चिन्ता में पीछे छूट गयी थी.
    हम आजकल बहुत उपयोगितावादी हो गए हैं और ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते, जिसमें कोई उत्पादकता न हो. जबकि फालतू के काम सबसे बड़े 'स्ट्रेस बस्टर' होते हैं.

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  17. खेलते खाते खेलने खाने के दिन निकल जाते हैं... अगले दस साल की सोचो तो लगता है कितना कुछ बदल जाने वाला है... वर्तमान मे खुद को जुझाए रहना ही ठीक है ...

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  18. अजि आप तो लिखते रहिये । कॉलेज के जमाने के किस्से सुनाइये । सारा अवसाद भाग जायेगा । वो वाली आपकी फ्रेंड जिससे बात बनते बनते रह गई क्यूं कि आप ही हिम्मत ना जुटा पाये । सुनाइये सबको ।

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