शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

दिल्ली से वापसी और वर्षा ऋतु में गगन विहार!

 इस बार की दिल्ली यात्रा में एक दोस्त से जिनसे हम काफी दिनों से दूर दूर हो गए थे मुलाकात हो गयी -मुलाकात क्या हुई बाहं पकड़ घर तक ले गए ..दुखवा सुखवा  हुआ ...डॉ.कृष्णानन्द पाण्डेय हमारे विश्वविद्यालयी दिनों के लंगोटिया  यार हैं ..अब ये बात दीगर है कि तब हम लंगोट पहनना छोड़ चुके थे और रूपा का अंडरवीयर भी उन दिनों प्रचलन में नहीं था ..हम शाम निर्वाचन सदन के  गेट के बाहर निकले तो डॉ.पांडे जी  सामने कार  सहित  विराजमान थे ..खुद चला के आये थे ..आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था ..उन्हें स्कूटर भी चलाते कभी जो देखा नहीं था ...और दिल्ली में ड्राईविंग भी कम मुश्किल तलब नहीं -पक्के  दिल्ली वाले सतीश भाई अभी कल ही तो दो बार दिल्ली पुलिस द्वारा टोके(ठोकें नहीं!)  गए थे ..वह तो उनके परिचय पत्र पर भारत सरकार की बड़ी सी सुनहली अशोक लाट हर मौके पर अभयदान दे देती है वरना ....वैसे तो डाक्टर पाण्डेय जी भी बड़े ओहदे पर हैं -आई सी एम् आर में डीडीजी  हैं मगर अब सतीश भाई के  बुद्धि चातुर्य और ब्लॉगर - रसूख की कोई सानी नहीं है!
डॉ.पाण्डेय के फ़्लैट में फुर्सत के क्षण 
  
पहले तो हम पांडे साहब की कार में थोडा हिचके मगर फिर आराम से बगल बेल्ट लगाकर सहज हो गए और दिल्ली की सडको पर उनकी कार फर्राटा हो ली ...वाकई बहुत अच्छा ड्राइव कर रहे थे डॉ.पांडे ....अब मुझे अम्बेसडर के अलावा कोई कार तो पहचानी नहीं जाती (सच में,बच्चों से पूछ लीजिये!) मगर उनकी कार भी शानदार थी ..कार चलाते समय पाण्डेय जी की नज़र  इतनी पैनी कि आजू बाजू के  दूर खड़े पोलिस को भी देख मुझे  बताते जा रहे थे  कि यहाँ कार चालकों पर पुलिस की गिद्ध दृष्टि रहती है गलत लेंन या मोबाईल पर बात करते ही धराने की पूरी आशंका है और बिना चालान -जुर्माने के बचना मुश्किल ...इसलिए मुझे उनकी कुछ मोबाईल काल  को खुद अटेंड  करना पड़ा ...पहले मुझे वे दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर ले गए जहां मेरी बहन ज्योत्स्ना  रहती है और उसके श्वसुर और मेरे पिता तुल्य इंजीनियर मिश्र जी की ओपन  हार्ट सर्जरी हुयी थी ..उन्हें देखने और शुभकामनाएं देने के बाद डॉ पांडे  एक लम्बी ड्राईव पर मुझे लेकर चले -नोयडा ....जहाँ उनका अपना आशियाना है ...डॉ.अमिता पांडे जी अब उनकी सहचरी हैं जो  कभी  विश्वविद्यालयी सहपाठी थीं  ..अब पांडे साहब और वे एक दूसरे से वहीं विश्वविद्यालय में शोध के दौरान  ही प्रणय -परिणय आबद्ध हो गए थे ..हम ठगे से रह गए ...यह एक अलग कहानी है ..फिर कभी!

अब दो पुरनियां  दोस्त मिल बैठे तो बस उस नज़ारे की कल्पना ही कीजिये ...सुस्वादु भोजन हुआ रात १ बजे तक हम गपियाते रहे ...कुछ इधर कुछ उधर की ..कुछ गोपन कुछ खुले आम ..मुझे तो हिचक नहीं मगर खुद पाण्डेय जी बुरा मान जायेगें अगर मैंने कुछ भी ईलाबोरेट किया  तो... कितने ही पुराने दोस्तों की यादे हो आयीं कोई सुधा पाण्डेय,कोई इंदु श्रीवास्तव कोई के के सिन्हा ,कोई प्रदीप श्रीवास्तव.. कोई.... छोडिये अब गए दिनों के  दोस्त कब से ब्लागिंग मैटेरियल होने लगे ..कहीं बुरा न मान जायं!सुबह हम जल्दी उठ भी गए और डॉ पाण्डेय जी फिर मुझे एक लम्बी मगर खुशनुमा ड्राइव पर ले अपने संस्थान आई सी ऍम आर  पहुंचे  ....दिल्ली का मेरा यह  चौथा दिन था ....
आई  सी एम् आर  परिसर में एक फोटो सेशन -रणबीर ,के एन और मैं   
आई सी एम् आर में मेरे काबिल दोस्तों का  जमघट सा है ...ये लगभग सभी एक ही कालखंड के प्राणी विज्ञान इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राणी ...ओह सारी ,सहपाठी हैं -डॉ .विजय कुमार श्रीवास्तव ,डॉ .रजनीकांत ...अब एक ही कालखंड के इत्ते सारे लोग एक ही प्रीमियर संस्थान में? ..इसके बारे में हम अभी नहीं  अपनी आत्मकथा में बताएगें...आपको इंतज़ार करना होगा! यहीं मेरी मुलाकात एक और भूले बिसरे साथी से हुयी, हर दिल अजीज सदाबहार रणबीर जी से जो एक महान संस्थान के पी आर ओ है..एक बढ़िया व्यक्तित्व के मालिक ....पुरातत्व , धरोहरों और संस्कृति के दीवाने ..धरोहर वाले अभिषेक मिश्र से गुजारिश है कि वे डॉ. रणबीर जी की शागिर्दगी जरुर कर लें ..मेरे परिचय का पासपोर्ट इस्तेमाल में लाये ...रणबीर जी खुद ब्लॉगर नहीं है यह मुझे अच्छा नहीं लगा ..मगर वे भी  कम नहीं -मुझे  ब्लागिंग/गूगलिंग  से मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने वाला एक  वैज्ञानिक लेख थमा दिया... वे ऐसे ही हैं! 

डॉ पांडे जी ने अपने संस्थान से एक दक्ष ड्राईवर का इंतजाम किया और मैं १२.३० तक एअरपोर्ट पहुँच गया ...उड़ान टर्मिनल एक से थी ..यह टर्मिनल ३ के मुकाबले तो शानदार नहीं मगर फिर भी साफ़ सफाई और चमक दमक में कुछ कम भी नहीं ...स्पाईसजेट के इस  एयर क्राफ्ट का नाम 'सिन्नामोंन' -दालचीनी था -स्पाईसजेट के विमान किसी न किसी मसाले के नाम पर हैं -पिछली बार मेरी यात्रा लौंग नामधारी विमान में हुयी थी ....२ बजकर १० मिनट पर हम बनारस को उड़ चले ...  
अब कैमरा साथ नहीं था इसलिए यह एक उधार का दृश्य जहाज से बादलों का 
हाईस्कूल में प्रायः  पूछे जाने वाले  मशहूर निबंध 'चांदनी रात में नौका विहार ' शीर्षक की याद दिला गया हवाई यात्रा का सफ़र ...क्योकि यह  वर्षा ऋतु में गगन विहार का अवसर था  ..घने काले और सफ़ेद बादलों की अठखेलियों के बीच विमान का उड़ना मुझे एक घंटे से कुछ अधिक की यात्रा में निरंतर रोमांचित करता रहा ..कभी लगा हम एक विशाल नीले सागर में फैले ढेर सारे शुभ्र धवल हिम खण्डों के  ठीक ऊपर से हम गुजर रहे हों और कभी जैसे हिमालय श्रृंखला के ऊत्तुंग पहाड़ों के ठीक ऊपर से जा रहे हों ...और कभी काले कलूटे लघु बादलों का समूह हमारी और झपटता रावण की मिथकीय सेना का प्रतीति करा रहा था जिसका नेतृत्त्व मानो ' महाविराट कज्जल गिरि  जैसा कुम्भकर्ण कर रहा हो -अद्भुत अविस्मरणीय   ..मैं मंत्रमुग्ध सा ही रहा कि विमान के बनारस लैंड करने की घोषणा हो गयी ..  ..सिफारिश यह कि कभी वर्षा ऋतु  में गगन विहार का यह लुत्फ़ जरुर लें अगर अभी न लिया हो तो...पैसा वसूल की गारंटी ...अब हवाई सेवायें सस्ती भी हो गयी हैं ...कुल मिलाकर  दिल्ली की यह यात्रा शानदार और जानदार रही ....अनेक कारणों से यादगार भी! 

बुधवार, 27 जुलाई 2011

दिल्ली का दूसरा दिन -ब्लॉगर साथियों से मुलाक़ात...बेदिल दिल्ली में डॉ.दराल की दरियादिली!

अब कोई ब्लॉगर शहर में हो और वहां के ब्लागरों से उसकी  मुलाकात न हो(कृपया अब  इसे मुक्कालात न पढ़ें) यह तो असम्भव ही था ..भारतीय समाज  अब सर्वथा एक नए सामजिक सम्बन्ध -बात व्यवहार को साक्षात कर रहा है ..और यह है ब्लॉगर मिलन....अपनी नीतिगत कार्ययोजना के तहत मैंने अपना कार्यक्रम पहले ही अपने ब्लाग पर डाल दिया  था जिससे प्रायः इस असहज सवाल /औपचारिकता  से बचा जा सके कि अरे पहले बताया होता तो हम भी मिल लेते आपसे ....वैसे भी दिल्ली जैसी अतिव्यस्त महानगरी में किसी के लिए किसी के पास समय नहीं रहता ..अपने लिए और अपनों के लिए भी जब  लोगों के पास पर्याप्त समय और संसाधन नहीं है ...तो ऐसे में क्यों किसी को धर्मसंकट में डाला ही जाय ...


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यू पी भवन में जमी चौकड़ी 
एक अद्भुत संयोग यह हो रहा था कि कैंटन ,अमरीका से वीरेन्द्र शर्मा ऐलियास वीरुभाई भी मेरे दिल्ली पहुचने के साथ ही वहां  पहुँच रहे थे और इस अवसर को मुझे बिना उनसे मिले गवाना नहीं है यह मन संकल्पित कर चुका था ....उम्र की वानप्रस्थ अवस्था पर पहुँच कर भी वीरुभाई अजस्र ऊर्जा से भरे हैं और उनका मुखमंडल अलौकिक आभा से देदीप्यमान {इस ब्लॉग पर हिन्दी मुफ्त में सिखायी जाती है :)} रहता है और बतरस के ऐसे धनी कि बस सुनते जाईये , उनके पास सुनाने  के लिए संस्मरणों का खजाना रीतेगा नहीं .....उनकी इस विशिष्टता से शाम को सम्पन्न एक छोटी किन्तु न्यारी सी ब्लागर मीट में डॉ .टी एस दराल जी और सतीश सक्सेना जी भी दो चार हुए ....बेदिल दिल्ली में डॉ दराल   की दरियादिली देखने को मिली जब उन्होंने मुझे सायं भोज के लिए आमंत्रित किया -बहुत ही विनम्र ,मिलनसार ,एक भद्र नागरिक के सारभूत व्यक्तित्व हैं डॉ दराल ..शाम को वे और यारों के यार ब्लॉगर सतीश सक्सेना जी मुझे लेने उत्तर प्रदेश भवन आये ..तब तक वीरुभाई भी पधार चुके थे जहां हम ब्लागजगत के कई वर्जित  क्षेत्रों की चर्चा में मशगूल थे ....
इंडिया गेट पर एकल फोटो: सौजन्य सतीश भाई!

बातों ही बातों में वीरुभाई ने टी एस दराल साहब का पूरा नाम पूछ लिया तो  डॉ साहब तनिक संकोच में निरुत्तर से ही रहे ...और हम कना प्लेस पर कहीं शाम गुजारने चल पड़े ....रास्ते में इण्डिया गेट पर मित्रवर सतीश जी ने मुझे केंद्र बिंदु में रख  ऐसा फोटो सेशन किया कि कुछ समय के लिए मुझे लगने लगा  जैसे मैं कोई राष्ट्रीय नेता, अभिनेता  हूँ ...और मेरा एक फोटो फोलिओ तैयार हो रहा है ..मैं यह भी चाहता था कि वीरुभाई फोकस में रहें और यह बात मुझे असहज भी कर रही थी ,असमंजस में डाल  रही थी (क्षमा वीरुभाई ...सतीश भाई के उत्साह के आगे मैं लाचार था ...) ..शूटिंग के दौरान ही डॉ दराल साहब ने इण्डिया गेट की दीवार पर ऊपर लिखे एक नाम की और इशारा किया, किसी की तारीफ़ थी वहां ..अपने डॉ दराल  साहब  की ही तो ...विश्वास नहीं तो यह लिंक देखिये !
वीरुभाई और डॉ. दराल के बीच सैंडविच हुए हम 

वीरुभाई को अपनी 'फुलनेम   जिज्ञासा'  का उत्तर मिल गया था ..तो प्रश्नोत्तर के इस नायाब लहजे की सूझ थी डॉ दराल साहब की और इसकी खातिर मुझे भी इण्डिया गेट को करीब से देखने का बोनस मिल गया था...शाम तो सचमुच हसीन थी....और उसे ब्लडी मेरी ने और भी हसीं बना दिया था ...ब्लडी मेरी के बारे में मेरी जिज्ञासा को काबिल दोस्त सतीश भाई ने विधिवत शांत किया(सबसे नीचे बाएं कोने पर ब्लडी मेरी का चित्र है!)इस नायाब पेय पर ज्ञानवर्धन पर मेरी त्वरित प्रतिक्रया थी कि कितना कुछ जानना समझना शेष रह गया है   इस दुनियां  में:)      ....
सिविल सेवा अधिकारी संस्थान से बाहर निकलते ही सतीश जी ने शूट किया  
वीरुभाई के चहकने ने भी मुझे ब्लडी  मेरी की ओर  प्रशंसा भाव से देखने को उत्सुक  किया ....वीरुभाई का ज्ञान विज्ञान विषयों और खासकर चिकित्सा  पर ज्ञान बहुत अद्यतन है ..यह आप उनके ब्लाग -राम राम भाई पर जाकर भी देख सकते हैं ....कितने ही  विषयों की विविधता पर उनकी लेखनी समान रूप से चलती है ....इन दिनों वे साईंस ब्लागर्स असोसिएशन के ब्रांड अम्बेसडर बने हुए हैं ....हमें उन के ज्ञान और सानिध्य पर फख्र है ...जुग जुग जिए महानुभाव ....हजार वर्ष!

खाने का इंतज़ार 
मुझे एक अस्पष्ट सा आईडिया था कि हमारी यह लघु ब्लॉगर मी कना प्लेस पर होनी थी इसलिए वहीं अपनी किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में मौजूद  अभिषेक मिश्र से मैंने पहले तो रुकने को कहा था ..उन्होंने इंतज़ार भी किया मगर बाद में मैंने वेन्यू अलग होने की बात उन्हें बताई ..सारी अभिषेक.... फिर कभी .....अब वेन्यू था -सिविल सेवा अधिकारी संस्थान और वहां यद्यपि थोडा शोर अवश्य था मगर खान पान की गुणवत्ता लाजवाब थी ...भोजन भी यम यम ...डॉ दराल साहब के इस औदार्य और ब्लॉगर नवाजी के लिए शुक्रिया शब्द बेहद औपचारिक है इसलिए इसे देने से  कतरा  रहा हूँ .......आनंद  आ गया था आज दिल्ली में दो दिनों के बाद .... तनाव शैथिल्य की यह सौगात बस यादों में पैबस्त हो गयी है ....शाम को सतीश जी ने हमें अपने अवस्थान स्थल पर छोड़ा और डॉ दराल और वीरुभाई को लेकर आगे बढ़ गए थे ..आगे की दास्ताँ वीरुभाई भी कभी सुनाएगें ही...
.....जारी है दिल्ली दास्तान ...

सोमवार, 25 जुलाई 2011

भारत निर्वाचन आयोग के दर्शन (दिल्ली यात्रा -दूसरा दिन!)

दिल्ली सुबह ६ बजे पहुँच गए ..यात्रा एक दु:स्वप्न सी बीत गयी थी ....अब मंजिल था  भारत निर्वाचन आयोग जहाँ बूथ लेवल आफिसर(बी एल ओ )  को प्रशिक्षित करने के एक विशेष अभियान को गति देने के लिए उन प्रदेशों के नामित आधिकारियों को दीक्षित किया जाना था जहां अगले वर्ष चुनाव होने हैं ...इसलिए हिमाचल प्रदेश ,गुजरात ,पंजाब ,मणिपुर, गोवा आदि प्रान्तों से ४० नामित आधिकारी पहुँच रहे थे -उत्तर प्रदेश से नामित दस अधिकारी प्रदेश की  विशालता को इंगित कर रहे थे ....स्टेशन पर ही नित्य कर्म निपटा कर सीधे आयोग जा पहुंचे क्योकि अभी तक यह जानकारी हमें नहीं थी कि हमें ठहरना कहाँ है ....

भारत निर्वाचन आयोग में प्रवेश करने वालों को कड़ी सुरक्षा जांच से गुजरना होता है ...और यह काम गृह विभाग के जिम्मे है ...यहाँ हवाई स्थलों की सुरक्षा व्यवस्था को ही मूर्त रूप दिया गया है ..सी आई  एस ऍफ़ के जवानों की आरम्भिक जांच के बाद रिसेप्शन और  तीसरे स्तर  पर फिर से नंगाझोरी और सामान आदि की जांच   बड़ी सी  कन्वेयर बेल्ट युक्त एक्सरे मशीन में की जाती है ..अब मेरे पास तो पूरा बैग ही था ..एक सख्त महिला सी आई  एस ऍफ़ अधिकारी के जिम्मे एक्स रे जांच थी ...मैं बिलकुल मुतमईन कन्वेयर बेल्ट पर अपने बैग को रख दूसरी ओर  उसे लेने पहुँच गया था तभी मुझे एक विनम्र किन्तु दृढ आवाज सुनायी पडी -आपके बैग में चाकू है ....मैं स्तब्ध! -चाकू तो लिया ही नहीं था ..चेक करने का  आग्रह मैंने किया या उन्होंने, अगले पलों में सारा सामान बाहर फर्श पर बिखरा था ....


अब चाकू तो था नहीं ..तो मिलता कहाँ से ..हर सामान की बारीकी से जांच हुयी और फिर बैग को उसी कन्वेयर बेल्ट से गुजारा गया -लो फिर वही कथित चाकू मौजूद -हाँ अब जगह बदल गयी थी ..अब तक पीछे लोगों की लाईन लम्बी हो चुकी  थी -एक्सरे जांच के लिए अधिकारी बस केवल एक ....अब और सुरक्षा अधिकारी पास आ गए .... एक एक सामान अलग से कन्वेयर बेल्ट पर रख गुजारा जाने लगा और जब टूथ पेस्ट की बारी आयी तो ठीक चाकू की आकृति मानीटर पर उभर आयी ..खोदा पहाड़ निकली चुहिया ..जानकारी दी गयी कि पेस्ट के कंडेंस होने से ऐसी आकृति उभर रही थी .....शिव शिव करते अब हम सातवीं मंजिल पर पहुंचे जहां अभी इसी जून माह में खुले भारत अन्तर्राष्ट्रीय लोकतंत्र एवं निर्वाचन प्रबंध संस्थान के सकून  भरे माहौल में हमें दीक्षित  होना था .....दस बज चुके थे...

 संस्थान में ही हमें बताया गया कि सभी राज्यों के अधिकारियों के अवस्थान की व्यवस्था उनके राज्य -आवासों में की गयी है -इस हिसाब से हमारी व्यवस्था उत्तर प्रदेश भवन में होनी थी ....प्रशिक्षण का अकादमीय स्तर बहुत अच्छा था -आयोग के वरिष्ठ  आई ऐ एस आधिकारियों ने प्रशिक्षण का जिम्मा संभाल रखा था -हमें अपने प्रदेशों में निर्वाचन प्रशिक्षकों का एक वह कैडर तैयार करना है जो अब प्रत्येक बूथ लेवल के अधिकारी -बी एल ओ का सामर्थ्य और कौशल विकास इस स्तर तक बढ़ाये  कि फोटोयुक्त निर्वाचक नामावली शत प्रतिशत त्रुटि विहीन हो जाय जो  एक निष्पक्ष ,स्वतंत्र चुनाव की आधारशिला और 'पवित्र दस्तावेज' है . बी एल ओ अब हर बूथ पर निर्वाचन आयोग का जन संपर्क अधिकारी होगा  ...प्रशिक्षण से जानकारियों का जखीरा हम आगे  भी जरुर आपसे साझा करेगें ..आप भी तो कहीं न कहीं निर्वाचक /मतदाता होंगे ही .....या आप मुझसे किसी जिज्ञासा का समाधान कर सकते हैं ...पहले दिन के प्रशिक्षण का समापन आयोग के वर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त शहाबुद्दीन याकूब कुरेशी साहब के संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली  तक़रीर से हुआ और उन्होंने हमें इस बात की बधाई  दी कि हम भारत अन्तर्राष्ट्रीय लोकतंत्र एवं निर्वाचन प्रबंध संस्थान के पहले बैच के प्रशिक्षु बन रहे थे और यह एक ऐतिहासिक अवसर था .....

अब शाम को हम उत्तर प्रदेश भवन पहुंचे तो थक के चूर हो चुके थे ..अब बस  इच्छा थी की  बिस्तर पर  जा लेटें ..  ..बहुत आश्वस्त भाव से रिसेप्शन पर पहुंचे, परिचय दिया, मगर वहां से टका सा जवाब मिल गया कि उन्हें कोई सूचना ही नहीं मिली थी ...अब हम सदमें में थे ..रात में कहाँ जायं ..किसी ब्लॉगर को भी इतनी शार्ट नोटिस पर कुछ कहना मुनासिब नहीं था ....


अब दीगर  यूपियन साथी अपनी अपनी जुगाड़ में लग गए ..नाते रिश्तेदारी या अन्यत्र होटलों का रुख किये ..मैं और बनारस से ही दूसरे  अधिकारी आशुतोष मिश्र ने स्थिति  पर 'गंभीर विचार विमर्श' किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि कहीं न कहीं कोई बड़ी संवादहीनता का परिणाम हम भुगत रहे हैं ....अब हम एक रणनीति पर जुट गए ...उत्तर प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग के विशेष कार्याधिकारी अतीक अहमद साहब ने बड़ी मदद की ,बनारस का प्रोटोकाल आफिस और ऐ डी एम् प्रशासन पी के अग्रवाल साहब ट्रांसफर पर होने के बावजूद  'आपदा प्रबंध ' में जुटे और तब जाकर रात ९.३० पर एक फैक्स आ ही पहुंचा और हम राहत रूह हुए ....

इसी आपाधापी में ठीक बगल के छत्तीसगढ़ भवन में ही क्यों न रुक लिया जाय इस तमन्ना  के चलते छत्तीसगढ़ के ही दो ब्लॉगर पुंगवों  अली सईद जी और फिर ललित जी को भी फोन मिलाया मगर उन्होंने भी अपनी मजबूरी जता दी ......बहरहाल तब तक मामला सुलझ गया था ...उत्तर प्रदेश भवन का अवस्थान बहुत आरामदायक और अनुभवों की समृद्धता से गुजरने जैसा रहा ..यह सत्ता की ऊर्जा और चमक से ओतप्रोत है ....और यहाँ बड़ा मनसायन सा रहता है ..लोकतंत्र के रंगारंग और वैविध्यपूर्ण नज़ारे  बोरियत को पास नहीं फटकने दे रहे थे  ..हमने तो यह भी फैसला ले लिया था कि समस्या सुलझने तक हम वहीं लाउंज के आरामदायक सोफों पर ही रात गुजार देगें ..बहरहाल वह नौबत नहीं आयी ....वहीं भोजन किया और पुरसकून महौल में बोझिल  आँखों  ने कब हमें नीद के आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला .....दास्ताने दिल्ली जारी.... 

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रविवार, 24 जुलाई 2011

दिल्ली रेल यात्रा का दु:स्वप्न!(दिल्ली यात्रा -१)

 विगत सप्ताह अचानक फरमान  मिला कि मुझे राजकीय कार्य से भारत निर्वाचन आयोग को इसी १९ जुलाई को रिपोर्ट करना है और आनन फानन में वहां जाने का जो कार्यक्रम बना तो जाने की यात्रा काशी विश्वनाथ ट्रेन जिसे आई एस ओ पहचान भी मिली हुई है के ऐ सी थ्री से हुयी  ....अपने फ़ुरसतिया अनूप शुक्ल जी का सुमिरन कर मैं ट्रेन में १८ जुलाई को सवार हुआ ..सुमिरन इसलिए कि वे अक्सर यह असहज करने वाला सवाल पूछते रहे हैं कि मेरी ही यात्राओं में विघ्न आपदाएं क्यों पैदा हो जाती हैं ...मेरी दिल्ली यात्राएं निरापद नहीं रही हैं -सगुन -असगुन न मानने के बावजूद भी मैं कुछ आशंकित रहता हूँ ...तथापि मैं इस बार इस मनोबल को बनाये हुए था कि  कम  से कम इस बार तो अनूप जी को कुछ कहने का  मौका न ही दूं ..पर होनी तो कुछ और ही थी ...

 जब यह ट्रेन लखनऊ ८.३० बजे पहुँची  तब तक सब कुछ ठीक था .....ट्रेन छूटने ही वाली थी कि   गदह पचीसी की उम्र की देहरी तक पहुँचते चार युवा धडधडाते हुए कम्पार्टमेंट में आ पहुंचे और मेरा दुर्भाग्य कि मेरे सामने की तीनों खाली सीटों पर दावा ठोका ...सबने पी रखी  थी ...और हौसला बुलंद अपराधियों की भाँति बिना आजू बाजू की परवाह किये अश्लील जोक और कहकहे सुनाने लग गए -अभी रात के ९.३० ही हुए थे.मगर न कोई टी टी और न ही कोई पुलिस /गार्ड ...लोगों ने समझा कि कुछ देर में शांत हो जायेगें ..मैंने भी उनसे नागरिक शिष्टाचार की फ़रियाद की मगर मुझे अंकल अंकल कहकर उपेक्षित किया जाने लगा -उनकी बातचीत से यह जानकर कि उनमें से कोई भी कभी भी ३-४ बजे के पहले नहीं सोता घबराहट होने लगी ....मैंने एक बार कुछ डिब्बों में चहलकदमी कर टी टी को ढूढने का प्रयास किया मगर कामयाबी नहीं मिली ....अब रात भी ज्यादा हो चली थी ..थक हार कर मैंने सोने का फैसला किया ...झपकी लगी ही थी कि सामने साईड बर्थ  से एक महिला की चीख सुनायी पडी ..मैं ही नहीं एक साथ कई लोग उठ गए और क्या हुआ क्या हुआ करते हुए आ जुटे ....

मैंने देखा तीन तो वहां से गायब थे ...चौथा एक सबसे ज्यादा पियक्कड़ अचानक निचली बर्थ पर लेटने जा रहा था .साईड बर्थ के दम्पत्ति यात्री आर ये सी दर्जे के  थे और अब दोनों उसी पियक्कड़ पर आरोप लगा रहे थे कि उसने कुछ बदतमीजी की थी .....अभी चिल्ल पो का यही माहौल था कि उसके तीन साथी न जाने कहाँ से तुरंत आ पहुंचे और आपदा प्रबंध करने में जुट गए .....बड़े सलीके से दंपत्ति को समझाने लगे -कि उन्हें ही  कहीं कुछ गलतफहमी हो गयी है -वे तो बड़े शिष्ट हैं और अभी अंकल लोगों की तुलना में बेटे / बच्चे ही तो हैं ....उनकी यह रणनीतिक शील्डिंग इतनी कारगर रही कि बाकी लोग कुछ देर में अपने अपने बर्थ पर वापस चले गए ..हाँ उस तगड़े पियक्कड़ को सबने उठाकर अपर बर्थ पर डाल  दिया ....अब वे थोडा काशस हो गए थे मगर उनका चपर चपर बतियाना जारी ही था ....

मुझे फिर झपकी आयी और रात करीब ३ बजे आदतन मुझे प्यास सी लगी तो मैंने अपने ग्लास होल्डर के बिसलेरी बोतल जिसे  बस स्टेशन पर लेकर मैंने रख लिया था खोला भी नहीं था ..पूरी तरह खत्म हो गयी थी ....बस बोतल ही रह गयी थी ....अब मेरी हालत का अनुमान आप कर सकते हैं -उतनी रात पानी की दो घूँट भी मिलनी मुश्किल थी ..सारा उनके काकटेल में ही निपट गया था ...,..यह सब मैं फेसबुक पर डालता रहा ..सिद्धार्थ त्रिपाठी  जी ने सुबह जाकर यह देखा और कहीं टिपियाया भी ! वे गुंडे गाजियाबाद में उतर गए तब मेरे और दीगर यात्रियों को जाकर राहत मिली ....

क्या अब थ्री ऐ सी पियक्कड़ो  का ऐशगाह बन चुका  है ...क्या रेल प्रशासन इसके लिए मुस्तैद नहीं है ..क्या ऐसे हौसला बुलंद अपराधी मानसिकता के लोगों की धरपकड़ और यात्रा से बेदखल करनी की कोई रणनीति रेलवे सुरक्षा अधिकारियों के पास है ..???? मेरे बी १ कोच में ४९ ,५०, ५१ बर्थ के असभ्य ,बदतमीज यात्रियों ने जो क़यामत ढायी वह बहुत मुमकिन है रोज ही किसी न किसी ट्रेन के ऐ सी कक्ष में दुहराई जा रही हो -यह दृष्टांत - भोगा हुआ घटनाक्रम सम्बन्धित रेल अधिकारियों के ध्यानाकर्षण  लिए भी है -क्या वे सबक लेगें ? 


दिल्ली यात्रा जारी ......

सोमवार, 18 जुलाई 2011

देश की राजधानी का तीन दिनी प्रवास-यात्रारंभ आज!


आज दिल्ली प्रस्थान हो रहा है ...भारत निर्वाचन आयोग में अभी नव निर्मित इंडिया इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट आफ डेमोक्रेसी एंड इलेक्शन मैनेजमेंट में १९ से २१ जुलाई तक मतदाता सूचियों को अद्यतन करने में लगे बूथ लेवल आफीसर को प्रशिक्षित करने के लिए मास्टर्स ट्रेनर का कार्यक्रम आयोजित है . उसी में शिरकत करना है.दिल्ली प्रवास की मेरी यादें कभी भी मधुर नहीं रहीं मगर मैं ऐसे सगुन असगुन वाले बातों पर विश्वास नहीं करता और हर बार पूरे उत्साह -उमंग के साथ दिल्ली जाता हूँ ...पिछली बार दिल्ली में मेरे अल्प प्रवास के दौरान बनारस में हादसे के कारण मुझे आनन फानन में वहां से भागना पडा था ...और उससे  भी पिछली बार त्रिवेंद्रम की मेरी प्लेन दिल्ली से ही छूटी थी ..मतलब मिस हो गयी थी ....अभी यादों को और पीछे ले जाने का वक्त नहीं है ....और असहज यादों से मनुष्य भागता भी है और इसमें कोई बुद्धिमत्ता भी नहीं कि ये बातें आप से साझी की जायं! 

नगरों और महानगरों के लोगों के जीवन की आपाधापी देखते हुए अब यह भी कहने की हिम्मत मित्रों से नहीं होती कि भैया आपसे मिलने को जी चाहता है, आन मिलिए फला जगह! और खुद की भी व्यस्तता इन प्रशिक्षण देने वालों  के कारण भी इतनी हो रहती है जैसे  वे सभी ज्ञान बाँट कर अपनी छुट्टी कर लेना चाहते हों ...गरज यह कि शायद   ही किसी  से भेट  मुलाकात हो पाए -वो एक घुटा पिटा शेर है  न -तुम्हे गैरों से कब फुर्सत कब अपने गम से मैं खाली ,चलो अब हो चुका मिलना न तुम खाली न मैं खाली ....


मगर फिर भी कद्रदानों की कमी नहीं है इस दुनियाँ में ...उनकी तबीयत का हाल कब क्या हो जाय ....एक तो अमेरिका से ही पधार रहे हैं अपने वीरुभाई ...उनसे अपुन की प्रगाढ़ता नई नई है और न जाने किस दैवीय संयोग से वे भी उन्ही दिनों दिल्ली में हैं जब मैं भी वहां हूँ -वे आज शिकागो से उड़ रहे हैं दिल्ली के लिए ...शायद यह मुलाकात तो हो ही जाय ---ये वीरुभाई बड़े छुपे रुस्तम निकले ....इनकी शख्सियत पर विस्तार से लिखूंगा लौटने पर -मुलाकात गर हो गयी तो ....अब सतीश सक्सेना जी की भी न जाने क्या व्यस्ततायें हो  मगर देखिये उनसे   भी शायद भेंट हो ही जाय कनाट प्लेस घूमते घामते ..बाकी तो किसी से उम्मीद नहीं लगती ....सभी लोग अपनी अपनी दिनचर्या को समर्पित हैं -और दिल्ली की लम्बी सड़कों पर उन्हें दौडाने की मेरी इच्छा नहीं है और कोई आग्रह भी नहीं है ..

बाकी तो कुछ पढने पढ़ाने वाले ब्लॉगर मित्र हैं उनके परिसर से उन्हें क्षण भर के लिए भी बेदखल करना मुझे  रास नहीं आएगा ....और कुछ्की माँदों में घुसने में मुझे ही डर लगता है ....ले देकर वीरुभाई और मित्र सतीश सक्सेना जी ही बच रहते है एक उम्मीद बंधाये कि शायद कहीं एक लघु ब्लॉगर मीट हो ही जाए -उम्मीद पर दुनियाँ कायम है .....हाँ यात्रा पर निकलने के पहले ,दौरान और समापन तक आपकी शुभकमनाएं प्रतीक्षित रहेगीं! थ्री जी मोबाईल ही रहेगा मेरे पास ..उससे अपडेट मिलता रहेगा! 


शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

गुरु प्रसंग!

आज गुरु पूर्णिमा है .गुरु की पूजा और आराधना का दिन .भारतीय वांगमय में गुरु की अनंत महिमा गाई गयी है -कभी एक गुरुकुल प्रणाली भी हुआ करती थी जब वन उपवनों में गुरु के पैरों के सानिध्य में ज्ञानार्जन होता था -यह  उपनिषदीय परम्परा थी  -जिसका शाब्दिक अर्थ ही है नीचे बैठना ....लगता है उपनिषद काल तक गुरु का स्थान बहुत ऊंचा था जिसकी प्रतीति कालांतर की इस उक्ति से भी होती है -गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पायं ,बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय ...मतलब ईश्वर साधना बिना गुरु कृपा के संभव नहीं!गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाऊँ !

आज विगत की यह गुरु परम्परा केवल संगीत की दुनियां में ही देखी जा सकती है और वहां भी यह अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रही है ...बावजूद इसके कि एकलव्य प्रसंग में गुरु की निष्पक्षता कटघरे में आने का महाभारतीय काल का दृष्टांत सामने था बाबा तुलसी का  गुरु समर्पण जहाँ अचम्भित करता है वहीं कबीर गुरु चयन  के मामले में बहुत सावधान से दिखे हैं...वे आगाह करते हैं ....जाका गुरु है आंधरा  चेला निपट निरंध अँधा अंधरो ठेलियो दोऊ कूप परंत....किन्तु तुलसी का गुरु समर्पण अपनी उदात्तता पर है, वहां भ्रम या संशय की कोई गुंजायश ही नहीं! वे गुरु को ईश्वर से भी ऊपर मानते हैं ...और मानस का प्रारम्भ ही गुरु की चरण वंदना से करते हैं -बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा ,सुरुचि सुवास सरस अनुरागा .....वे गुरु की पद धूलि को अमृत तुल्य मानते हैं, नाखूनों को दिव्य प्रकाश वाली मणियाँ मानते हैं -गुरु के प्रति यह समर्पण और उसकी सहज स्वीकारोक्ति मैंने कहीं अन्यत्र नहीं देखी -हाँ गुरु का नाम छिपा जाने की गुरुता तो कितनी और कितनो की ही  देखी है ...

यह सही है कि लोकजीवन में गुरु शब्द नए अर्थ अपनाता गया है ..अब गुरु का अर्थ है चालाक ,माहिर ,शाणा..'काहो गुरु...' की  अभिव्यक्ति में यही भाव छुपा है ....लगता है महाभारत काल के बाद से ही गुरु पद संदेह के घेरे में आता गया ....जहाँ पहले गुरु कृपा बिना किसी मूल्य के ही होती थी ..बाद में वह कतिपय शर्तों और मूल्य के बंधन में आती गई..उपनिषदीय परम्परा को उपाध्यायी परम्परा ने तिरोहित किया ..जब शिक्षा सशुल्क बनती गई ..लगता है इसी सशुल्क शिक्षा ने समाज में गुरु के सम्मान का तिरोहण किया ....और आज तो गुरु की जो (महा)दशा समाज में है कुछ न पूछिए ..अब तो गुरु किसी के लिए एक असहज उपाधि सी हो गई है ....

आज गुरु शिष्य का सहज स्नेह-श्रद्धा का सम्बन्ध ख़त्म हो गया है ....विश्वविद्यालयों के गुरु अपने ही शोध छात्र की खून पसीने के मेहनत से मिले परिणामों को अपने नाम से छपा ले रहे हैं ..अनेक मामले प्रकाश में आये हैं....आज उस उपनिषदीय गुरु की परम्परा   ही विलुप्त हो गई है -सच्चे गुरु का मिलना असम्भव सा हो गया है ....इससे बढ़कर  किसी सच्चे शिष्य की क्या व्यथा हो सकती है कि उसके लिए कोई गुरु ही अप्राप्य है ....मगर कोई सच्चा गुरु कहीं अंतिम साँसे ले भी रहा हो तो उसे भी एक अदद सच्चे शिष्य की तलाश  है जो उसे दगा न दे जाय ....आज गुरु घंटालों का ज़माना है तो मक्कार कृतघ्न  शिष्यों की भी कमी नहीं है.....आज किसी ऐसी मैट्रिमोनियल सेवा प्रदाता सरीखी सुविधा की नितांत आवश्यकता है जो किसी सच्चे गुरु को सच्चे शिष्य से मिला सके ....मेरी अपनी आपबीती तो बहुत ही बुरी रही ..जब गुरु की जरुरत में दर दर भटक रहा था तो मन का गुरु नहीं मिला और जब गुरु की उम्र सीमा तक पहुंचा तो शिष्यों की ऐसी जमात मिली की तबीयत हरी हो गई ....दोनों जहां बर्बाद हुए .... :( ....दोनों जहाँ तेरी मुहब्बत में हारकर वो जा रहा है कोई शबे गम गुजार कर ....!)


वैसे सीखने के लिए कोई उम्र बड़ी नहीं होती और गुरुओं की न ही कोई कमी  -एक ऋषि हुए हैं दत्तात्रेय उनके तो २६ पशु पक्षी गुरु थे... शायद   शिष्यत्व  भाव ज्यादा मायने  रखता  है बनिस्बत इसके कि गुरु कौन है ...एकलव्य प्रसंग भी शायद  यही इंगित करता  है ....किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि किसी गुरु को शिष्य धोखा दे जैसा कि कर्ण ने परशुराम को दिया था ...और श्राप ग्रस्त हुआ था ...गुरु भले अपनी गुरुता छोड़ दे मगर शिष्यत्व का अभाव नहीं होना चाहिए ....हमारी बोधकथाएँ भी यही संकेत करती लगती हैं ! 

कहने को तो बहुत कुछ है ...आज गुरु पर्व पर सोचा ये कुछ बातें आप से साझा करूं! 



  

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

उन्हें आपका अभयदान चाहिए...

बात बहुत पुरानी है तब मैं पांच साल का रहा होऊंगा ...एक पारिवारिक भ्रमण के दौरान होशंगाबाद जाना पड़ा था ...और मुझे तब की यादें बिलकुल ताजी हैं -नर्मदा में अठखेलियाँ करतीं महाशेर मछलियाँ ....लोग अपने साथ आंटे की गोलिया लिए नौकायन करते और जैसे ही उन आंटे की गोलियों को नदी में डालते मछलियों का हुजूम उमड़ पड़ता ....ऐसा लगता जैसे मछलियाँ पानी में न हों बल्कि मछलियों में ही पानी पनाह मांगे  हुए हो ...मगर अब वह दृश्य लुप्त हो गया है ..नर्मदा ही नहीं देश की सभी नदियाँ लगभग मछली विहीन /मत्स्य संपदा श्री हीन सी हो चली हैं ..

इन लगभग पांच  दशकों  में ऐसा क्या हुआ कि हमारी नदियाँ मत्स्य संपदा से श्रीहीन हो गयीं ? यह एक लम्बी अकथ कहानी है ...जो मनुष्य की अदूरदर्शिता ,अविवेकी प्रवृत्ति और लालच से जुडी हुयी है . वैज्ञानिकों की सिफारिश है कि किसी भी मछली को कम से कम बिना एक बार प्रजनन का मौका दिए नहीं पकड़ना चाहिये....आम तौर पर व्यावसायिक लिहाज से मशहूर मछलियाँ दो वर्षों में जब वे डेढ़ किलो से ऊपर की हो जाती हैं तभी परिपक्व होती हैं और प्रजनन कर पाती हैं ..इसके पहले इन्हें नहीं पकड़ना चाहिए ...एक बार में इनकी डेढ़ किलो की मादा लगभग दो लाख बच्चे दे दती है ....मतलब अगर डेढ़ किलो के नीचे की मछली पकड़ ली गयी तो समझिये पहले वर्ष ही के इनके लाखों बच्चे और उनकी असंख्य पीढियां वजूद में नहीं आयेगीं! 


अगर वे एक बार भी प्रजनन कर पायीं तो समझिये अपनी भावी पीढ़ियों की अकूत सौगात वे मानवता की उदर पूजा के लिए छोड़ गयी हैं ....मगर लालची मनुष्य का क्या कहिये वह तो सोने के अनवरत अण्डों  के बजाय मुर्गी का पेट फाड़ एकबारगी ही सारे सोने के अंडे लूटने की नीयत रखता है ...हुआ यह कि लोगों ने ऐसे जालों का बेतहाशा प्रयोग  करना शुरू किया जिसमें डेढ़ किलो से भी छोटी मछलियाँ फंसने लगी और यह प्रचलन जालों के छेद(मेश साईज)   को निरंतर छोटा करने का रूप लेता गया और आज की हालत यह है कि अब मच्छरदानी जैसे जालों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा  है ... मतलब बड़ी मछली तो छोडिये उनके अन्डो बच्चों का भी समूल नाश होने लग गया है ....यह एक खौफनाक मंजर है ! 
मत्स्य संपदा का दुर्दिन :अभयदान की गुहार 

कालान्तर में हुआ यह कि इन मछलियों की संख्या एक उस क्रांतिक संख्या से भी कम हो गयी जो किसी भी जैव पापुलेशन -जनसँख्या के अस्तित्व रक्षा के लिए जरुरी है ....और मछलियों के अकाल का दौर शुरू हो गया ...
एक और बड़ा कारण है नदियों के किनारों तक मनुष्य का बढ़ता अतिक्रमण ...शहरों में ही नहीं गावों से गुजरने वाली नदियों   के किनारे  तक भी मनुष्य के नित नए निर्माण जा पहुंचे हैं ...मछलियाँ अमूमन नदी की धारा में  नहीं बल्कि किनारे आकर पानी के उथले और छिछले स्थानों में अंडे देती हैं ....अब किनारों तक के बढ़ते मानवीय अधिपत्य ने इनके प्रजनन स्थलों का तेजी से सफाया कर दिया है ..अब उन्हें प्रायः  अंडे देने की माकूल जगह भी नहीं मिल पा  रही हैं ...बची खुची मछलियाँ सहज बोध से पानी के बहाव के विपरीत दशा में ऊपर की उथली जगह  तक प्रजनन के लिए  पहुँचती तो हैं मगर वहां मानवीय दखलंदाजी (anthropogenic factors )के चलते इनकी सहज ब्रीडिंग नहीं हो पाती ...मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती नदी स्थानों पर पहले ऐसे कई मत्स्य प्रजनन स्थल चिह्नित तो हुए मगर कालांतर पर वहां लोगों ने कब्ज़ा कर लिया और जो कुछ स्थल अभी बचे भी हैं वहां जुलाई के आस पास नदियों के उफान पर इनका प्रजनन होता भी है तो स्थानीय लोग बड़ी छोटी सभी मछलियों पर जैसे टूट पड़ते हैं -इस समय कामातुर मछलियाँ अपनी आत्मरक्षा को लेकर बेखबर सी होती हैं और लोगों उन्हें हाथों से पकड़ लेते हैं और बड़ी होने की स्थति में पीट पीट कर मार देते हैं -स्थानीय भाषा में इसे "भडेर " पड़ना कहते हैं .बहुत दिल दहलाने वाला मंजर होता है ...मगर इन लोगों को रोक पाने में सफलता नहीं मिल पायी है ....


कहने भर के लिए भारत सरकार का एक मत्स्य अधिनियम 1897है जिसे आजतक संशोधित नहीं क्या जा सका और सामयिक नहीं बनाया  जा सका है ..अब शायद उसकी जरुरत भी नहीं रह गयी है ..अब तो मत्स्य संपदा- पुनरुत्थान के एक सर्वथा नए आधिनियम की जरुरत है ... अड़चन यह भी है की मत्स्य और मात्स्यिकी राज्य के विषय के रूप में अधिसूचित हैं ....मतलब केंद्र और राज्य अपनी अपनी जिम्मेदारियों को एक दूसरे के ऊपर डालते रहते हैं ...मछलियों की फ़िक्र किसे हैं .....जब दूसरे  कितने ही बड़े बड़े मुद्दे ..कामन वेल्थ गेम्स ..टू  जी स्पेक्ट्रम आदि हों तो फिर छोटी नन्ही मछलियाँ किसे दिखेगीं?  

ऐसे में बस आपसे उम्मीद है ..आप जानते होंगे उस कहावत के बारे में जिसके अनुसार जिस महीने (के नाम) में  आर (R )  हो केवल उसमें ही मछली खानी  चाहिए ...एक कहावत इसी धारणा से उपजी कि मछलियों को उनके प्रजनन काल मई से अगस्त तक  नहीं मारना चाहिए ...और सितम्बर  से अप्रैल तक (आर महीने ) जब इनका प्रजनन नहीं होता इनका शिकार किया जा सकता है ....और यह भी सही है कि प्रजनन काल में इनके मीट(फिलेट ) की क्वालिटी भी अच्छी नहीं होती ..वह ढीली हो चुकी होती है और फ्लेवर भी उम्दा नहीं होता ....मछलियों के संरक्षण के लिए एक बड़े जन जागरण की जरुरत है!  आप अगर मत्स्य भोजी हैं तो यह दरख्वास्त सबसे पहले आप से है! 


रविवार, 10 जुलाई 2011

हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन का महोत्सव

सचमुच यह एक अति विशिष्ट मौका है  ...अपने एक  सर्वप्रिय ब्लॉग पर पांच सौंवी पोस्ट अब से बस कुछ और पलों  की मुन्तजिर है.... एक इतिहास ...ब्लागेतिहास लिखा जाने वाला है ...यह मौका है एक उस शख्सियत के नेक कामों की पुरजोर प्रशंसा और कृतज्ञता ज्ञापन की जिसने ब्लागिंग के मायनों को एक नया आयाम दिया और एक सामाजिकता की नई पहचान दी ....

यह शख्सियत और कोई नहीं बल्कि अपने बी एस पाबला जी हैं जिन्होंने ब्लॉग के जरिये लोगों की सामाजिकता की अभिव्यक्ति का एक मंच दिया, लोकप्रिय ब्लॉग ,'हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन ' के रूप में जहाँ केवल जन्मदिन ही नहीं वैवाहिक वर्षगांठों का  भी सेलिब्रेशन हुआ और आज अर्धरात्रि से इस पर पांच सौवीं पोस्ट आने को मचल उठी है ...यह एक महोत्सव का अवसर है ...

लोगबाग कहते हैं ,कुछ दिलजले भी कह उठते हैं कि ब्लागिरी नाते रिश्तेदारी की जगह नहीं है ..यहाँ केवल मुद्दे उठाना चाहिए ...मुद्दों पर बात चीत होनी चाहिए .आज ही एक मोहतरमा मुझसे प्रत्यक्षतः   कह रही थीं कि उनका लेनादेना बस ब्लागिंग से है ब्लागरों से नहीं ..जबकि ब्लागरों के जन्मदिन वाले ब्लॉग पर उनका भी जन्मदिन और एनिवेर्सरी सेलिब्रेट की गयी और केवल उन्ही की क्यों ऐसे तो सैकड़ों हैं ! भला मानव से उसकी मानवीयता और सामाजिक सरोकार पृथक किये जा सकते हैं? ...चलिए यह मौका उलाहनों का नहीं एक बड़े अवसर को सेलिब्रेट करने का है ...

आईये पाबला जी को बधाईयों से सराबोर करें ....उनकी सामाजिकता का गौरव गान करें ताकि हम खुद मानव होने की अर्थवत्ता को मूर्तमान कर सके ....अपनी खुद की सार्थकता का आह्वान कर सकें! 
लांग लिव 'हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन' 
लिखते लिखते 
यह पोस्ट प्रकाशित हो ही रही थी कि पाबला जी ने एक स्वचालित वेबसाईट लांच कर देने की 
घोषणा की है जो ब्लागरों की एक समग्र डायरेक्टरी की कमी को भी पूरा करेगी ..
हम मुरीद हुए आपके पाबला जी ! 


शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

जो यहाँ दिख नहीं रहे उन्हें फेसबुक और ट्विटर पर खोजिये

अगर आप को किसी  की पोस्ट का या खुद उसका ही  बेकरारी से इंतज़ार है और वह अरसे से हिन्दी ब्लागजगत में दिख नहीं रहा तो उसे एक बार तनिक फेसबुक या ट्विटर पर खोज लीजिये न .. बहुत संभावना है वह वहां गुलछर्रे उड़ाता मिल जाएगा ...कुछ समय पहले मैंने इस बात की आशंका जतायी थी कि ब्लागजगत की पब्लिक तेजी से फेसबुक की ओर  न रुख कर जाए ...और मैंने देखा अब   कुछ कुछ ऐसा ही हो रहा है ..


कुछ लोगों   ने   तब   यह विचार  व्यक्त  किये  थे कि फेसबुक सरीखी  सोशल  नेटवर्क  की साईट  ब्लॉग  जैसे विचार  विमर्श  वाले स्थान की जगह नहीं ले सकती .. यह बात मार्क जुकरबर्ग ने शायद सुन ली हो  और फेसबुक में "नोट्स" की एक अलग सुविधा जोड़ दी जहाँ आप ब्लॉग की ही तरह व्यक्त हो सकते हैं ..लोगों ने इस सुविधा को हाथों हाथ लिया और वहां भी पिल पड़े ....हिन्दी के एक बड़े प्रोफ़ेसर तो वहां   आदतन नोट्स में ही लिखते हैं और  यहाँ ब्लॉगजगत में उनकी पोस्टों पर कोई टिपियाने वाला नहीं रहता .  फेसबुक पर बहार ही बहार है ..ब्लॉग पर लाले और फेसबुक पर मतवालों की कमी नहीं ..यहाँ बिचारे प्रोफ़ेसर साहब को ढूंढें भी पब्लिक नहीं मिल रही वहां बिन ढूंढें हजार मिल रहे हैं ...


ब्लागजगत से लोग मायूस से हो रहे हैं ..लोग टंकी पर चढ़ उतर रहे हैं ..कुछ लोग चढने को तो चढ़ गए मगर उतर नहीं पा रहे -नीचे उतारने वाली पब्लिक भी नहीं रही ..कारण  नीचे शोर करने वाली पब्लिक में से भी कुछ टंकी पर जा चढ़े और अब दिख भी नहीं रहे ....मगर आप फेसबुक पर जरा देखिये पूरी संभावना है वहां ये गुले गुलजार करते मिल जायेगें ..कुछ समदर्शी ब्लॉगर ब्लॉग पर, वहां फेसबुक पर भी समान रूप से काबिज हैं और अपनी समदर्शिता के गुण गाये जा रहे हैं ...


कहीं ऐसा तो नहीं कि अन्यान्य कारणों से  हिन्दी ब्लागिंग से ब्लागरों का पलायन तेजी से शुरू हो गया हो और उन्हें फेसबुक का चेहरा ज्यादा भाने लगा है और ट्वीट करने और चोंच से चोंच मिलाने या चंचु प्रहार में ज्यादा आनंद मिल रहा हो ...अब तो कई मेरे 'बूजम' मित्र ही हैं जो यहाँ तो अब नहीं पधारते मुला फेसबुक पर जो बतियाना शुरू करते हैं तो न सांस लेते हैं न लेने देते हैं ....कविता में मेरा हाथ शुरू से तनिक तंग रहा है -एक दिन फेसबुक पर कुछ लिखना चाहा मगर बस चंद लाईनें ही लिखीं कि फेसबुकिये मित्रों ने  शुरू कर दी चीड फाड़ और कविता सृजन का उत्साह जाता रहा ...कविता अधूरी ही रह गयी ...



फेसबुक ब्लॉग जगत से ज्यादा त्वरित है ...दुतरफा संवाद भी वहां  ज्यादा तत्परता से है और मित्रों की संख्या 
हजारों में है जबकि यहाँ तो फालोवर जैसे फूंक फूंक कर फालो करते हैं ...फेसबुक जहाँ आपको सही मायनों में वैश्विक बिरादरी से जोड़ता है वहीं हिन्दी ब्लागिंग अब  क्षेत्रवाद और भौगोलिक दायरों  में ही घुटती  /सीमित   हो चली   है .....लगता  है जैसे हिन्दी ब्लागजगत के लिए फेसबुक /ट्विटर ने विदाई की घंटी बजा दी हो ....और अब तो यह भी लगने लगा है कि फेसबुक या ट्विटर पर आपको ज्यादा सृजनशीलता ,गुणग्राहकता और परिपक्वता का अहसास हो सकता है और हिन्दी ब्लागिंग में अधकचरेपन ,टिप्पणी मोह और कूढ़ मगजता का ही फैलाव ज्यादा हो रहा है ....वहां आप शब्दों की सीमा में रह भाषायी और अभिव्यक्ति की शक्ति को भी महसूस कर /करा सकते हैं तो आवश्यकतानुसार विचारों को विस्तार भी दे सकते हैं .....यहाँ तो अब अभिव्यक्ति के नाम पर छोटा बड़ा सब धान बाईस रूपये पसेरी होकर रह गया है ...



तो क्या हम समझें कि हिन्दी ब्लागिंग का दुर्दिन आ गया है ...यह नैया अब डूबने वाली है और इधर उधर भागने की उछल  कूद शुरू हो गयी है? ब्लॉग लेखन के बक्से से हिन्दी आप्शन भी गायब हो चला है ....कम से कम गूगल क्रोम  तो यही दर्शा रहा है.अपने वीरुभाई जो धुरंधर  ब्लॉग लेखन में लगे रहे हैं , सीधे हिन्दी में नहीं लिख पाने से खासे  मायूस हो चले   हैं ....

..तो क्या चल खुसरो घर आपनो सांझ भई इस देश की बेला आ पहुँची है ? 








रविवार, 3 जुलाई 2011

मेरी मानिए तो मत जाईये डेल्ही बेली देखने -बेहद गंदी, गलीज और बकवास फिल्म है!

कल देखी डेल्ही बेली ..बकवास ..पूरा पैसा बर्बाद ..टोटल ट्रैश! आमिर ने कई अच्छी फिल्मे दी हैं बीते दिनों ..पीपली लाईव जैसी धांसूं और धोबी घाट जैसी प्रयोगधर्मी ..मगर यह तो बिलकुल पटरी से उतरी हुयी है ....गंदे अश्लील दृश्य, बात बात पर गंदी गालियाँ ...कला और सृजन के नाम पर भद्दगी ,फूहड़पन और भडन्गई!और इस फिल्म के नकारात्मक पहलुओं को ही प्रचार का मुद्दा बनाकर मीडिया के जरिये अभियान ..और समाज के सबसे स्फूर्त ,कल्पनाशील युवाओं को जाल में फांस कर उनकी जेब खाली करने की कवायद ..यही है डेल्ही बेली बस! यह परम्परा और संस्कृति से कटे लोगों का रुग्ण विलास है ....और एक कुचक्र युवाओं के उर्वर मन को संदूषित करने का ...यह बर्दाश्त के काबिल नहीं है ..

फिल्म में कहने भर को एक स्टोरी है मगर की नयापन नहीं ...हीरे की स्मगलिंग ,पैकेट का गलत हाथों में पहुंचना और फिर मारामारी ....कामुक दृश्य ,भोडे सेक्स का प्रदर्शन जिसके बारे में लिखना ही संभव नहीं -कैसे बेहूदे लोगों ने इसे सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए परदे पर उतारा है ...क्या सेक्स इतना ही गन्दा,  गलीज है?  एक मोटा पात्र तो पूरी फिल्म में केवल अधोवायु निकालता रहता है ...और कामेडी फिल्म के नाम पर प्रचारित हो रही इस फिल्म की पूरी कामेडी बस यहाँ  से शुरू होकर लैट्रिन तक समाप्त होती है ....नारी समलैंगिकता ,कनिलिंगस  ,अधेड़ उम्र की वैश्यावृत्ति आदि दृश्यों के सहारे फूहड़ हास्य कुरेदने की नाकाम कोशिश की गयी है ...इतनी बदतर फिल्म कैसे बनायी गयी मुझे इस पर आश्चर्य है ...एक पात्र (हीरो? )के  पैंट के जिपर वाला हिस्सा   एक  सेक्स सेशन में सहसा उठा तो कैमरे  का फोकस  वहां! मुख मैथुन के दृश्यांकन के दौरान  लडकी (हीरोईन ) की शिकायत कि मूछे सफाचट करो !युवाओं को यह सतही वाहियात  कामुक सनसनी देकर क्या चाहती है  आमिर और उनकी पार्टी ? 

भला हो उस विंडो कन्या का जिसने टिकट लेते ही अप्रत्याशित और अभूतपूर्व रूप से मुझे आगाह किया कि फिल्म बेहद गंदी है और गालियों से भरी है ...उसकी इस चेतावनी को अनसुना कर एक बौद्धिक दंभ के अंदाज में मैंने केवल इतना कहा ,"मुझे पता है " ..उसने हताशा भरे चेहरे से टिकट मुझे सौप दिया ,साथ में पत्नी जी भी थीं जो फिल्म को ज्यादा देर नहीं झेल पायीं और हाल से निकल चलने का आग्रह किया ..और यह प्रस्ताव भी रखा कि टिकट को दूसरी फिल्म के लिए बदल दिया जाय -ऐसे अनुभव मेरे लिए जीवन में पहली बार हो रहे थे...मैं ठगा सा बस केवल फिल्म की बेहूदी टीम को कोसता रहा ..शिव शिव कर फिल्म पूरी हुयी और बेहद बुझे मन से हम हाल के बाहर निकले ...काश उस विंडो कन्या बात मान ली होती मैंने ....

यह फिल्म तो बैन होनी चाहिए ..हम कला और सृजन की अभिव्यक्ति के नाम पर भद्दगी का ऐसा नंगा नाच कैसे कर सकते है ..आखिर कोई तो श्लील अश्लील की सीमा रेखा बचे ..इस फिल्म ने तो धड़ल्ले से सब मिटा डाला ...और वह भी यूथ के नाम पर ..क्या भारत का यूथ इतना अशिष्ट और मार्बिड हो उठा है ? हमारे बच्चे ऐसे माहौल के पात्र  हैं -नहीं नहीं यह  सही नहीं हो सकता ...जरुर फिल्मकारों ने एक अतिरंजित दृश्य सामने रखा है ....इस फिल्म में ट्रेंड के नाम पर एक आईटम डांस खुद आमिर ने किया है जिससे ज्यादा पकाऊ कुछ नहीं हो सकता ..बस फूहड़ उछल  कूद ....हो सकता है इसकी मूल कृति /स्क्रिप्ट कलात्मक रही हो मगर उसके फूहड़ दृश्यांकन ने इसकी हवा निकाल दी है!

मत जाईये देखने ,बात मानिये नहीं तो जाकर पछ्तायेगें! पहली बार हुआ है कि किसी फिल्म को मुझे एक भी स्टार देने का मन नहीं है ...
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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

परवानें क्यों खिंचे चले आते हैं शमा के पास ?

कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए
 शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए
यह शमा क्या जाने परवाने की मुहब्बत को,
 जो उससे इश्क कर कर उससे ही जलते हैं। 

ये न जाने कब से शमा और परवाने के बीच के इस अबूझ रिश्ते  को समझने की कोशिशें जारी हैं -उर्दू शायरी ने इस सम्बन्ध को न जाने कितने  कितने तरीकों से व्यक्त किया है ....देश के ज्यादातर भागों में यह बरसात का मौसम  है-कीट पतंगों का मौसम है ..शाम को आपने दरवाजे ठीक से बंद नहीं किये या फिर जलते कंदीलों या बल्बों को बुझाया नहीं तो तो परवानों का हुजूम आपके चौखट तक ही नहीं लिविंग रूम तक भी बेहिचक आने को तैयार है ...आखिर शमा और परवाने के बीच का यह कैसा रिश्ता है जिसे शायर कवि  भी अपनी अपनी तरह से परिभाषित करते रहे ...
.
यह मौसम कई कीट पतंगों के प्रणय संसर्ग का है और यही वक्त है अनेक चिड़ियों के घोसलों में चीं चीं करते उनके नन्हे चूजों   की देख भाल का ..अब यह कुदरत की व्यवस्था है  जो इसी समय ढेर सारे कीट पतंगे मौजूद
हैं इन चिचियाते उदार पिशाचों की भूख शांत करने के लिए ... यहाँ तक तो ठीक है  मगर ये पतंगें रोशनी की ओर इस तरह भागे क्यों चले आते हैं?अभी भी इस विषय पर शोध चल रहे हैं और कीट वैज्ञानिकों के कई विचार सामने आये हैं ...

सबसे हैरत अंगेज बात तो यह सामने आयी है कि परवाने शमा से दूर भागते हैं न कि वे उसकी ओर खिंचे चले आते हैं ....दरअसल वे केवल सूरज और चाँद के प्रकाश स्रोत के सहारे अपना प्रणय स्थल ढूंढना चाहते हैं ...ज्यादातर   चाँद की रोशनी के सहारे ....वे चाँद की रोशनी में अपने एक ख़ास कोण में आगे बढ़ते हैं ....और मिलन/अभिसार  स्थल तक पहुँचने में कामयाब होते हैं ..मगर कृत्रिम रोशनी -मोमबत्ती (पारम्परिक शमा ) या बल्ब का प्रकाश उन्हें मतिभ्रम कर देता है  और वे ऐसे प्रकाश स्रोत के इर्द गिर्द भ्रमित होकर घूमते रहते हैं ....एक वैज्ञानिक शोध दल का कहना है कि ये दरअसल प्रकाश नहीं उसके इर्द गिर्द के अंधियारे का रुख करना चाहते हैं मगर आस पास का प्रकाश उन्हें चुधिया देता है और  अंततः वे प्रकाश स्रोत में ही गिर कर अपनी जान दे दते हैं ..हाँ दूर से तो वे इन कृत्रिम प्रकाश स्रोतों को चाँद ही समझ कर उस ओर मुखातिब हो उठते हैं ....अब बरसात की अधिकांश रातों में छाई बदली चांद को वैसे ही छुपाये रखती है ..

अब इश्क के मारे बिचारे शायरों को तो अपने उलाहने के लिए बस यही जलती  शमा और उसमें आ आ कर फ़ना होते परवाने ही सबसे सटीक लगे और इन्हें लेकर कितनी ही शेरो शायरी वजूद में आती गयी ....भला उन्हें कहाँ पता लग पाया कि  परवाने तो शमा से दूर भागते हैं... मगर बिचारे भाग नहीं पाते और उसमें ही गिर कर ख़ाक होने की उनकी नियति  है ..काश इस तथ्य का पता शायरों को होता तो उर्दू शायरी का रुख कुछ और ही होता ...मंशा और ही होती .....बहरहाल हिन्दी ब्लॉग जगत में गजलकारों /गुलूकारों की कोई कमीं नहीं और कोई देर भी नहीं हुयी अभी तो ..यह वक्त बरसात का है ..परवानों का है और जलती हुयी कितनी हसीन शमाओं का है ---उर्दू शायरी का एक नया तेवर अपनी बाट जोह रहा है ....मौका है मौसम है और दस्तूर भी है फिर इंतज़ार किस बात का ...तो  हो जाय न एक फडकता हुआ शेर ...... 
दावात्याग :ऊपर के शेर मेरे नहीं हैं ..स्रोत पता हो तो जानकारी दीजिये! 

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