शनिवार, 29 मई 2010

क्या हिन्दी ब्लागिंग के ये अशुभ लक्षण हैं ?

ज्ञानदत्त जी स्वास्थ्यलाभ कर रहे हैं और इसलिए उनकी मानसिक हलचल पर कोई गतिविधि नहीं हैं ....मगर वे ट्विटर और फेसबुक पर सक्रिय हैं .इसी तरह मेरी एक (अ )भूतपूर्व मित्र जो कहती हैं कि वे ब्लॉगजगत से घोषित अवकाश पर हैं फेसबुक पर जीवंत हैं और दिन प्रतिदिन अपने अनुसरणकर्ताओं की फ़ौज बढाती जा रही हैं ....क्या  हिन्दी ब्लागिंग के  लिए ये अशुभ लक्षण हैं ?
क्या अब हिन्दी ब्लागिंग फेसबुक और ट्विटर  का रुख कर रही है ?
फेसबुक पर टाईम ने एक कवर स्टोरी की है ....दुनिया की एक बड़ी आबादी पहले से ही फेसबुक पर आ चुकी है ....यहाँ आप अपने को एक वैश्विक परिदृश्य में पाते हैं और आपके सुख दुःख बाटने वालों की फ़ौज तैयार रहती हैं ...और ब्लॉग की लम्बी पोस्ट के बजाय आप अपनी बात संक्षेप में रख कर उस पर टू  द पाईंट प्रतिक्रया पा सकते हैं ...यह अपनी अभिव्यक्ति के साथ एक सामाजिक माहौल में होने का आभास कराता है ..जबकि हिन्दी ब्लागिंग से सामाजिकता  का साया मानों तेजी से उठता गया हो ..रोज रोज की लड़ाई ..खुद को केंद्र में रखने और श्रेष्ठ साबित करने की धमाचौकड़ी ....और गहन अवैयक्तिकता (जहां मानवीय इच्छाओं,सम्वेदनाओं  और भावनाओं की कोई कद्र न हो)   का तिरता माहौल ..बड़ी सूनी सूनी सी होती जा रही है यह हिन्दी ब्लागिंग ..तो बुद्धि चपल लोग उधर का रुख किये बैठे हैं ....कभी कभार पुरानी दुनिया में लौट कर हाय हूय कर और यह कह सुन कि वे बहुत व्यस्त हैं उधर की दूसरी दुनिया के साम्राज्य विस्तार में लगे हैं! ..और पुराने प्यारे ब्लॉग जगत को बस हम जैसे लल्लुओ पंजुओ के लिए छोड़ दिया है ! 



क्या निश्चित ही फेसबुक और ट्विटर अभिव्यक्ति के माकूल माध्यम हैं ? आज यह सवाल मौजू हो गया है ? मगर मुझे यह नहीं लगता .मुझे लगता है ये सोशल साईटें मुख्य दुनिया से भागते लोगों की शरणस्थलियाँ बन रही हैं या फिर अपनी निजी कारणों से मुख्य धारा से कट गए लोगों के लिए पनाह बन रही हैं ....अब ज्ञान जी ट्विटर पर इसलिए सक्रिय हैं क्योंकि अभी वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं ब्लागिंग की मुख्य धारा में लौटने पर पाबंदियां हैं ....और फिर ये साईटें तकनीकी लिहाज से अक्सेस करने में भी सहज है ..इन पर मोबाईल से टिपियाना आसान है ...

जरा  आप भी तो उधर टहल आईये ..हो सकता है आपसे अलविदा कह चुका कोई शख्स वहां गुले गुलजार मना रहा हो .......

गुरुवार, 27 मई 2010

तन ना भयो दस बीस ऊधो!

कलजुगी उधो से गोपियाँ कह रही हैं -हे उधौ तुम देह देह की रट लगाये हुए हो एक बार भी मन की बात करते तो हम उसे जिसे भी कहते उसे दे देते ..तुम्हे भी ..अगर तुम पूरी तरह से देह -राग से मुक्त  हुए होते तो तुम्हे भी पकड़ा देते ....यहाँ कितने  मन  तो हैं ...अरे मन का कोई वजूद भी होता है ..एक एब्सट्रैक्ट सी टुच्ची चीज ....कौन करता है इसकी परवाह आज की दुनिया में ..अरे वो द्वापर वाला उधौ तुमसे लाख गुना  बेहतर था जो मन की बात करता था .. उन बेचारी गोपियों का  बहरूपिये कृष्ण ने इतना ब्रेन वाश कर रखा था कि बिचारी मन  को ही सब कुछ मान बैंठी थी -तन से बेसुध और  मन से चैतन्य ..हम उन सरीखी मूर्खाएँ नहीं उधौ ....हम आधुनिक युग की गोपिकाएं हैं ....हम देह और मन  का अंतर बखूबी समझती हैं ..मुझे बेवकूफ मत मनाओं ..हमने तो अपना मन  कबका निर्गुण को समर्पित कर रखा है ...तुम और  जिसे कहो उसके भी हवाले कर देते हैं -आज की नारी को सशक्तिकरण के बदौलत कई ठो मन  मिल गए हैं -दो चार इधर उधर फेकते चलने में कोई गुरेज नहीं ...तब की टेक्नोलोजी इतना आगे थोड़े थी बिचारी सहेलियों को बस एक ठो मन होने की बात ऐसी घुट्टी में पिला दी गयी थी और किशनवा   हरजाई भी पहले तो बासुरी बजा उन्हें तन से बेसुध कर देता था और बाद में लेक्चर दे देकर यह समझाता था कि तन उतना जरूरी नहीं जितना मन है ....च च कितनी भोली थीं गोपियाँ तबकी, मान गयीं थीं वो बात ...जबकि अंधा भी यह देखे जाने कि केवल ई देहिया ही एक ठो है ...ज़रा बताईं तो उधौ कौनो औरत के राऊर देखे बांटी जिनके एक से जियादा तन हौवे...देखीं हों तो बताईं ...

ना ना हम दुआपर पर वाली गलती नहिए करब ....मन जेके जेके कहें  हमनी दे देईं मगर यी देहियाँ त एक्कै तो है ईकर बटवारा कैसे होई ...ई त केवल कृष्ण कन्हाई क नाम बाटे और उन्ही के मिले ...कहकर न जाने  कुछ गोपियाँ शर्माने की मुद्रा  में आयीं या फिर  केवल दिखी भर ही ...

अब कलयुगी बुद्धिभ्रष्ट उधौ भी कहाँ चूकने वाले थे...बस देह देह की रट लगाये पड़े रहे ....हमें बेवकूफ समझती हैं आप सब ..? हमने भी ई प़ता है  कि ई मन  वन कुछ नहीं होता है बस दिमाग का फितूर है ...कोई मन क देखे भी है  भला ? ई सब गलतफहमी ऊ किशन क पैदा किया हुआ है -आज भी उनके अवतार इधर उधर घूम रहे हैं और ई ब्लॉग जगतवा में भी ....करिहें मन  की बात मगर दिमगवा में देहिये घूमत फिरथ हरदम ..अब किशन के बारे में हमसे बढियां के दूसर जानी ....हमके त कौनो लफ्फाजी नही सुझात ..हम  तो देहवादी हूँ .....मनवादी झुट्ठो से तनिक भी मेरी  नहीं जमती ...सच सच कहिये तो इन कलयुगी किशन कन्हैयों से भी मेरी पटरी नहीं खाती ....आज भी वे केवल मन  की बात करते हैं और मन की बात करते करते जब मन की कर बैठते हैं तब तक देर हो गयी रहती है .....हम तो कहते हैं ऐसे किशनो से दूर रहिये आप लोग अगर भलमनसाहत चाहती हैं ....

आज मनवादी  किशनो से घबराने की जरूरत है . हमारी क्या?  हम  न तो द्वापर में और न अब ही  असली मनवादी रहे ..अरे किशन के झांसे में ऊ वक्त आ गए थे जो मन का सन्देश लेकर आप सभी तक पहुंचे थे...अब हम देह का सन्देश लेकर आये हैं ..और यी सच बात है कि एक जन्म में एक ही तन मिलता है ..बड़े जतन मानुष तन पावा ....सावधान रहीं आप लोग मनवादी किशनो के चक्कर में पड़ कर ई एकतन न कहीं भटक जाय ..फिर लम्बे समय क रोना धोना ...देखभाल और ऊ किशनवा  भी मौका देख गायब हुई जाए .....अरे भाग तो ऊ द्वापर वाला भी गया था और ई तो घोर कलजुगी किशनवे हैं .ध्यान रखीं मन के चक्कर में ई तन कहीं न भटक जाये ...

ऊधौ यह ज्ञान हमें है ..तभी हम कहते हैं न.... तन न भयो दस बीस ...गोपिकाएं समवेत स्वरों में बोल उठीं ...
कहती तो हैं मगर फिर भी कोई मनवादी किशन क्यूं आपके मन की बात कहते अपने  मन की कर बैठता है ...?
ऊधौ बिफर उठे ...पूरी तरह सन्नाटा छा  गया ......

नेहरू को नमन!


कृतज्ञ राष्ट्र किंवा विश्व आज नेहरू को याद कर रहा है .मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि आधुनिक  भारत के किसी भी लाल ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया है जितना कि जवाहरलाल ने ,दूसरे नंबर पर हैं एक दूसरे लाल ,लाल बहादुर शास्त्री जी ....यह आवश्यक नहीं कि मेरा यह निजी मत  जन गण मन का प्रतिनिधित्व करता हो .नेहरू को मैं निर्विवाद एक युग पुरुष, एक विश्व -पुरुष मानता हूँ ! उनकी शिक्षा और सोच पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित है मगर विद्वता पर प्राच्य ज्ञान पिपासा और दार्शनिकता ही प्रभावी दिखती है .


पूरी दुनिया को उन्होंने "वैज्ञानिक नजरिये" यानि सायिनटिफिक टेम्पर (यह शब्द भी उन्ही का दिया हुआ है ) जैसी सोच का तोहफा दिया और प्रधान मंत्री बनते ही भारत को तो उन्होंने वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक साज सज्जा का तोहफा देने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया .आज भारत की आधुनिक प्रौद्योगिकी में जो भी दखल है नेहरू जी की प्रेरणा का प्रतिफल है ,उन्होंने देश में ज्ञान विज्ञान के नए मंदिरों के रूप में कितने ही वैज्ञानिक संस्थानों की नीव रखी .वे पोंगा पंथी के सख्त खिलाफ थे...उस समय भी जब देश गरीबी के कठिन दौर से गुजर रहा था यज्ञों और कर्मकांडों में हजारो मन(वजन की पुरानी इकाई )  खाद्यान्न और सैकड़ों मन  देशी घी का हवन   उनके अंतर्मन को व्यथित कर देता था -उन्होंने इसकी अनेक बार कड़े शब्दों में भर्त्सना की ..
उन्हें हमेशा लगता था कि मानवता का भला और सारी समस्यायों का समाधान  वैज्ञानिक नजरिये से ही संभव है ,

इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन्हें भारतीय मूल्यों के प्रति कोई लगाव नहीं था ,अपनी आत्मकथा में उन्होंने उपनिषदीय चिंतन की विराटता की सराहाना की है और ज्ञान के प्रति भारतीय मनीषा के आग्रहों के आगे नतमस्तक हुए हैं .उन्होंने स्वीकार किया है यह भरतीय सोच ही थी जिसके चलते डार्विन का विकासवाद भी यहाँ वह वितंडावाद नहीं उत्पन्न कर पाया जिसने चर्चों की चूले हिलाकर रख दीं थी ..अवतारवाद और काल विभाजन के आदि चिंतन में हमारे यहाँ विकासवाद के प्रति एक सहिष्णुता पहले से ही थी ..नेहरू जी ने आदि शंकराचार्य के ज्ञान  विज्ञान के संचार के प्रयासों और उनके ज्ञान पीठों के गठन की भूरि भूरि प्रशंसा की है .

यह बहुत संभव है कि नेहरू जी के प्रभाव में भारत ने विकास का एक पश्चिमी माडल अपनाने में जल्दी दिखायी और गांधी जी के कुटीर उद्योगों की उपेक्षा हुई हो मगर नेहरू जी ने जानबूझ कर ऐसा किया हुआ होगा मुझे नहीं लगता -वे ह्रदय के साफ़ व्यक्ति थे ,उदार थे और जनकल्याण की भावनाओं से आप्लावित थे..चीन ने उनकी इसी सहज उदारता का बेजा फायदा उठाया ...
आज बुद्ध पूर्णिमा है -बुद्ध करुणा के सागर तो थे ही वैज्ञानिक सोच की उन्ही की परम्परा में नेहरू का अवतरण हुआ लगता है .क्योंकि बुद्ध ने ही यह कहा  था कि कि तुम किसी भी बात को इसलिए ही मत मान लो कि तुम्हारे शिक्षक ने ऐसा कहा है बल्कि जब तक तुम खुद ही प्रयोग परीक्षण कर उस तथ्य तक न पहुँच जाओ .
..
कैसा संयोग है कि विश्व आज बुद्ध का अवतरण और नेहरू का निर्वाण एक साथ मना  रहा है ...
दोनों महान विभूतियों को मेरा नमन !

मंगलवार, 25 मई 2010

वे जिनका विवादों से चोली दामन का साथ है...ब्राह्मण हैं वे?

एक लम्बे अंतराल के बाद मेरी एक चुनिन्दा  ब्लॉगर ने मेरा कुशल क्षेम पूछा -कुछ गिले शिकवे हुए! मैंने पूछा  बहुत दिनों बाद मेरी सुधि आई है तो उन्होंने कहा कि चूंकि बीते दिनों मैं विवादों में रहा और वे विवादों से दूर रहती हैं इसलिए दूर ही दूर रहीं -उन्हें विवादों में रूचि नहीं है -जवाब अपने लिहाज से दुरुस्त था मगर मुझे अपने अतीत में लेकर चला गया ...मैं उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राणी शास्त्र से पी. एच. डी. कर रहा था और मेरे एक प्राध्यापक थे,मेरे बहुत आदरणीय डॉ ऐ के माईती जी (अब दिवंगत ) ..वे सादा जीवन और उच्च  विचार के प्रतिमूर्त थे...मैंने दुनियादारी के बहुत से धर्म संकटों  में उनसे परामर्श लिया और लाभान्वित हुआ -उनकी कई सीखें आज भी मेरी धरोहर हैं -कुछ तो पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक चलने वाली भी ...लेकिन मैं उनकी एक बात जीवन में नहीं उतार सका और इसलिए ही शायद बीच वीच में संतप्त होता रहता हूँ -वह है विवादों से दूर रहने की .....मैंने उनसे तभी कहा था कि मैं प्रेम और ईश्वर के अस्तित्व पर लिखना चाहता हूँ -उन्होंने मना किया था ...कहा था कि विवादित विषयों से दूर रहो और भी कितने विषय हैं उन पर भी लिखो न ...

लेकिन मेरी विवादित विषयों से अरुचि कभी नहीं रही ...कभी सोचता था कि जब मैं इन विषयों पर लिखूंगा तो सारे विवाद एक झटके से दूर हो जायेगें ...मगर मैं कितने मुगालते में था आज अपनी इस भोली सोच पर हंसी आती है ...ईश्वर हैं या नहीं ,प्रेम के कितने रूप हैं आज भी यह बहस जारी है और शायद  तब तक ये बहस चलती रहेगी जब तक खुद मानवता का वजूद है ....और मुझे यह भी लगता है कि क्या दुनिया सचमुच इतनी मूर्ख है जो इतने सीधे से मामले को समझ नहीं पा रही है  या मैं ही महामूर्ख हूँ जो दुनिया को समझ नहीं पा रहा हूँ .खैर ,माईती   साहब की एक बात तो कालांतर में शिद्दत के साथ समझ में आ गयी कि ईश्वर और प्रेम (यौनिक ,अशरीरी और दूसरे रूप ) के सही रूप की  समझ 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना" जैसी ही है और इन पर समय बर्बाद करना कदाचित उचित नहीं है ...क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं ? 

लेकिन एक ब्राह्मण को ऐसा सोचना क्या उचित है .यहाँ ब्राह्मण से मेरा तात्पर्य है ," बंदहु प्रथम महीसुर चरना मोहजनित संशय सब हरना" (मैं सबसे पहले उन  ब्राह्मणों की चरण वंदना करता हूँ जो मोह से उत्पन्न सब भ्रमों को दूर करने वाले हैं -गोस्वामी तुलसीदास ) अगर विवादों का हल  ढूँढने में ,नई दिशा देने में कोई ब्राहमण सफल नहीं है तो फिर तो उसका ब्राह्मणत्व ही शक के दायरे में है ....तो फिर विवादों पर अपने मत क्यूं व्यक्त न करुँ -आखिर अपने ब्राह्मणत्व की पुष्टि जो करती रहनी है ....बहरहाल मैंने अनिता जी को जवाब दिया कि चूंकि वे अकादमीय जिम्मेदारियों से जुडी हैं इसलिए उनके पास निश्चित ही विवादों में हिस्सा लेने का समय नहीं है ....अकादमीय लोगों को अपने काम से काम रहना चाहिए ...(मगर मित्रों की सुधि लेते रहना चाहिए.. )  मैंने आराधना जी के बारे में यही सोचता हूँ कि वे भी चूंकि असंदिग्ध अकादमिक व्यक्तित्व हैं उन्हें भी विवादों से दूर रहना चाहिए -

मगर उनका भी शायद ब्राह्मणत्व बार बार आड़े हाथ आ  जाता है और वे कई मुद्दों पर एक दिशा देने समुपस्थित हो जाती हैं .
शायद ब्राह्मणों की एक कटेगरी वह भी है जो कोशिश तो करती है  विवादों को सुलझाने  की मगर उनके दुर्भाग्य से वे और भड़क जाते  हैं ....मैं शायद इसी अभिशप्त कोटि में हूँ ....या फिर नित नए विवादों को जन्म देने वालों की एक अलग कटेगरी है ब्राह्मणों की ......

पता नहीं शायद यह वाद  भी किसी नए विवाद को जन्म न दे दे .....आमीन!

सोमवार, 24 मई 2010

जिन्न बोतल के बाहर ,वैज्ञानिक भीतर :मेरी फरमाईश पर काजल कुमार ने बनाया यह कार्टून

प्रयोगशाला में जीवाणुओं की ऐसी फ़ौज बना ली गयी है जो कुदरत में कभी मौजूद न थी ...क्रैग वेंटर एक ऐसे  वैज्ञानिक है जिन्होंने विधाता के कामों में  दखलंदाजी कर डाली है -इसे लेकर तरह तरह की आशंकाएं व्यक्त हो रही हैं .अगर ये जीवाणु रोगाणु बन गए तो ? मानवता  पहले से ही एड्स और स्वायिन फ़्लू ,बर्ड फ़्लू और न जाने कितने विषाणु -जीवाणु जनित बीमारियों की चपेट में कराह रही है! किसी आतंकवादी संगठन को अगर ये मानव निर्मित जीवाणु भा गए तो ? और बोतल /प्रयोगशाला में बंद जीवाणु बाहर निकलकर रोगाणु /विलेन टाईप के जिन्न बन गए तो ?

एक चित्रकार /कार्टूनिस्ट भी इन विचारों से दो चार होता है  और अपनी दैव प्रदत्त प्रतिभा की मदद से लम्बी चौड़ी बातों को महज कुछ लकीरों और आड़ी तिरछी रेखाओं में व्यक्त करता है ...आखिर इस वैश्विक हलचल समाचार से अपने प्रिय ब्लॉग कार्टूनिस्ट काजल कुमार भी प्रेरित हुए और मेरे अनुरोध पर यह कार्टून उन्होंने मुझे भेजा है-
 

उन्होंने कार्टून का न तो कोई कैप्शन ही दिया है और न ही लीजेंड! कार्टूनिस्ट ऐसे ही मनमौजी होते हैं ..यह काम उन्होंने हमारे ऊपर छोड़ दिया है ..क्या आप इस कार्टून का मजमून लिखने में चित्रकार और मेरी मदद करेगें ? सबसे उपयुक्त मजमून यहाँ  क्रेडिट के साथ चस्पा हो जाएगा! तनिक प्रयास कीजिये न !

रविवार, 23 मई 2010

उनसे मिली खबर तो मेरे होश उड़ गए ....

जी हाँ हाथों के तोते और होश उड़ जाना शायद  ज्ञानी जन इसी को कहते हैं ..लफड़े की शुरुआत तब हुई जब सिद्धार्थ जी ने चैटियाया के उन्होंने अपनी पोस्ट पर मेरी एक  टिप्पणी को डिलीट कर दिया है ..मैं ऐसे निर्णयों को सहज भाव से लेने की इम्यूनिटी हासिल कर चुका हूँ वैसे भी इस समय गीता पठन मनन चल रहा है ......फिर भी औपचारिकता वश पूंछ बैठा कौन सी टिप्पणी -प्रायः सम्पादक लोग आपके लेख से उसी हिस्से और ब्लॉग मालिक उसी टिप्पणी को हटा /उड़ा देते हैं जो आपको बेहद प्रिय होती  हैं -यह अब तक तमाम अनजानी बातों में से ही एक है ,रहस्य सरीखी ही! 

सिद्धार्थ जी के उत्तर के पहले मैंने मानसिक रूप से अपने को एक प्रत्याशित जवाब के लिए तैयार कर लिया था ...मगर उनका जवाब हैरत में डाल गया .वे किसी ऐसी टिप्पणी के बारे में बात कर रहे थे जो दरअसल मैंने की ही नहीं थी ....मगर और हैरानी की बात थी कि मेरा ब्लॉगर प्रोफाईल फोटो भी वहां मौजूद था ...जो अब भी है! रात गयी बात गयी मगर सुबह ही मेरे एक परम मित्र ने चेताया और खबर दी कि आपका मेल हैक हो गया लगता है ..तो सुनते ही दो चार धड़कने जो बंद हुईं तो हुईं ही होश और तोते सब उड़ से गए ..और हम लुटे लुटे सा महसूस करते हुए पाबला जी को क्लांत कर बैठे ..आगे का विवरण पाबला जी ने यहाँ लिख ही दिया है ...आखिर ऐसा  अधोकर्म कौन कर सकता है और क्यूं ? और वह भी केवल लड़ाई झगडे को चिंगारी देने के लिए ?

मुझे किसी तरह का नैतिक प्रवचन नहीं देना है ...मेरा कुछ अपना इतना निहायत गोपनीय  भी नहीं है ..इच्छा तो है कि अपना बदला हुआ पासवर्ड भी यहाँ दे दूं जिसका भी मन  हो  मेरे मेल बाक्स की  सैर कर आये..यह आई डी किसी कारूं के खजाने  से भी नहीं जुडी है और नही किसी गोपनीय दस्तावेज से -हाँ कुछ ब्लॉगर मित्रों से अन्तरंग वार्ताएं हुईं हैं जिनकी जानकारी दूसरों को विचलित कर सकती हैं . मैं जीवन में अपने किये धरे की हमेशा पूर्ण जिम्मेदारी लेता आया हूँ . जितना छोटा कद है मेरा उससे मेरे किये सत्कर्म और दुष्कर्म भी शायद छोटे ही हैं -इसलिए उनका बोझ उठाने का साहस संकल्प है मुझमे....

मेरे ब्लॉग मित्रों में तकनीकी जानकारों का कहना है कि मेरी आई डी हैक हुए बिना मेरी फोटो सहित  ब्लॉग प्रोफाईल से टिप्पणी नहीं की जा सकती ....यह अंतर्जाल युग है कुछ भी घटित  अघटित हो सकता है यहाँ! यहाँ मध्यमार्गी बन कर ज्यादा  दिन नहीं रहा जा  सकता -पूर्ण वीतराग या बल्लम लाठी फरसे से लैस रहिये तभी रहायिश है -वीतराग हो जाना तो खैर सर्वोत्तम है .....टंकी पर चढ़ कर फिर  उतर जाना भी मुझे तो कतई रास नहीं आता..... ..

गुरुवार, 20 मई 2010

आपने कभी गीता पढी है ?

मन जब उद्विग्न हो तो अक्सर गीता के उपदेश याद आते हैं -गीता भारतीय वांग्मय की ऐसी धरोहर है जो विश्व विश्रुत है और शायद ही भारत का कोई महान व्यक्ति ऐसा रह गया हो जिसने गीता को न पढ़ा हो ---मतलब इसे महानता की कुंजी कह सकते हैं (:)) -मतलब महान बन जाने का आसान सा नुस्खा ! फिर कोई इसे आजमाता क्यों नहीं ? मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ब्लोग जगत के ९८ फीसदी से अधिक लोगों ने गीता को देखा भले हो पन्ने पलट कर कभी नहीं देखा होगा ! जबकि  किसी भी महान व्यक्ति को याद कीजिये ,उन्होंने  गीता पढी है -और कई ने तो उसके भाष्य लिखे हैं! गांधी जी ने भी गीता पर कमेंट्री लिखी है -बाल गंगाधर तिलक की गीता रहस्य तो एक लाजवाब कृति है ...नेहरु ने अपने पश्चिमी नजरिये के बावजूद गीता का अच्छा अध्ययन  किया  था ..क्या यह एक  धार्मिक पुस्तक है ? मैं भी ऐसा ही अस्पष्ट सा विचार रखता था ...पोस्ट ग्रेजुएट तक ..लेकिन एक घटना घटी उसी समय ,जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता ...डॉ कर्ण सिंह आये इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विज्ञान परिषद् में ...१९७९ में ..संस्कृत और भारतीय भाषाओं और वांग्मय के प्रकांड विद्वान् कर्ण सिंह के लिए भारतीय संस्कृति में रूचि लेने वालो के मन  में एक "आईडल वरशिप"  का भाव था ... मैं अपनी आटोग्राफ बुक भी लेता गया था ...

भारतीय दर्शन पर विद्वतापूर्ण व्याख्यान के बाद जब वे डायस से उतरे तो मैं ही पहला व्यक्ति था जो उनके समीप पहुँच कर अपनी आटोग्राफ बुक उनके सामने फैला चुका था .. किंचित अरुचि से उन्होंने  मेरी आटोग्राफ बुक को देखा (नहीं भूल सकता चेहरे का वह भाव ! ) ...और मैं जैसे जिद की मुद्रा में आटोग्राफ प्लीज की रट लगाए  था ....उन्हें भी लगा होगा ये जिद्दी लड़का है मानेगा नहीं ..देववाणी सी गूंजी ,किस क्लास में पढ़ रहे हैं और विषय क्या है ?  यांत्रिक सा जवाब  मुंह से निकला ,एम एस सी जूलोजी ..आटोग्राफ प्लीज ....उन्होंने फिर भी आटोग्राफ देने में कोई रूचि नहीं दिखायी ..मेरी खीझ बढ रही थी ..कैसे विद्वान् हैं ....एक रिक्वेस्ट भी नहीं सुन रहे ..दम्भी ...मन  में बात आई ...मगर फिर देव वाणी ,गीता पढ़ते हैं ? हद है गीता का आटोग्राफ से क्या सम्बन्ध ? मैंने खीज कर जवाब दिया मैं साईंस का विद्यार्थी हूँ ....तब तो आपके लिए  गीता पढना और भी जरूरी है ....मन  में आया क्या ख़ाक जरूरी है मगर तभी  देववाणी फिर कानों से टकराई वादा करो गीता पढोगे और नियिमित पढोगे ....अब मुझे आटोग्राफ लेना था और दोस्तों में शेखी बघारनी थी तो जवाब दिया हाँ हाँ जरूर पढूंगा नियमित पढूंगा  ....तब तक उन्होंने आटोग्राफ पर सुलेख अंकित कर दिया था ...सत्यमेव जयते नानृतम ..कर्ण सिंह ...मैंने आटोग्राफ बुक जैसे उनके हाथ से खीची हो ,अपुन का काम बन गया था ...और फिर मैं भीड़ का हिस्सा  बन गया था ..बात आई गयी हो गयी थी मगर बीच बीच में मुझे एक महापुरुष से किया वादा बार बार याद आता ...लिहाजा एक दिन मैंने गीता प्रेस से प्रकाशित गीता की नई प्रति खरीद ही ली  ( घर की पुरानी धुरानी से कुछ पढने का मन  ही नहीं हुआ ) ..सच बताऊँ मेरा पहला पाठ  मुश्किल से पहले अध्याय तक ही सीमित रह गया था ....बड़ा ही नीरस लगा ..दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय फ्लैश बैक में युद्ध की घटना का वर्णन कर रहे थे ....धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे समवेता युयुत्त्सव ........

आज मुझे यह कहने में  तनिक संकोच नहीं कि यदि आपने जीवन में एक बार भी गीता पढी और सुनी नहीं तो आपका यह जीवन निश्चय ही अधूरा रह जाने वाला है ..यह एक जीवन   दर्शन है ..भारतीय चिंतन का निचोड़ है ...आप क्यों गीता पढ़ें ? आईये मैं बताता हूँ- 

जीवन के निराश और उद्विग्न क्षणों में राहत पाने के लिए ,किसी बहुत आत्मीय   से बिछड़ जाने पर आत्मं शान्ति के लिए ....यहाँ बिछड़ने का अर्थ किसी की मृत्यु से भी है ....यह आश्वस्त करती है कि आप केवल निमित्त मात्र हैं आपके हाथ में कुछ नहीं है ....करने वाला आप नहीं कोई और है ....कोई जरूरी नहीं कि आप बड़ी तन्मयता से कर्म करें तो आपको इच्छित फल ही मिलेगा ...नहीं, फल आपके हाथ मे  नहीं है ..आप केवल कर्म कर सकते हैं ....और न भी करें तो फिकर नाट आपसे करा  लिया जाएगा ....कौन कराएगा ..प्रकृति ..प्रक्रितित्स्वाम  नियोक्ष्यति ....वही आपसे करा लेगी ...सुख दुःख लाभ हानि में एक सा रहने की आदत  डालें ...सुख दुखे समाक्रित्वा लाभालाभौ जया जयः ....आपका पराभव एक दिन निश्चित है ..जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु .....जो चला गया उसकी सोच मत करिए .. वह अपनी देह से ही गया है ,चेतना कभी नहीं मरती ..
मैं सिफारिश करता हूँ आप गीता पढ़ें ...किसी और के लिए नहीं खुद अपने लिए ....

प्रवचन

रविवार, 16 मई 2010

जाति न पूछो साधु की ...

आज से उत्तरप्रदेश में भी जातिवार जनगणना शुरू हो गयी ..मतलब जाति पाति पर एक और सरकारी मुहर ....आधुनिक आनुवंशिकी कहती है कि मनुष्य  -मनुष्य का जेनेटिक  फर्क एक फीसदी से भी कम का है मगर आज समूची मनुष्यता धरम  करम  सम्प्रदाय और जाति बिरादरी के नाम पर कितना बटी हुई है ...और हम अपने चेतन अवचेतन कृत्यों से इस अंतर को पहाड़ सा बनाए जा रहे है ...मुझे याद है बचपन में यानि आज से चालीस वर्ष पहले जाति पात का फर्क कुछ कम हो चला था ...चौधरी चाहें वे अहीर चौधरी हो या हरिजन ब्राह्मणों के घर दरवाजे आकर बोलने  बतियाने लगे थे -लग रहा था कि संकीर्णताएँ मिट चली हैं ..मगर तभी आरक्षण का राजनीतिक जिन्न उठ खड़ा हुआ और फिर से जातिवादी सोच ,विलगाव ,घृणा -दोष की वापसी होने लगी ..और परम्परावादी विचारधारा सरणियाँ तो सूखती  कभी नहीं बस सरस्वती सा लुप्त हुईं रहती हैं  -मौका पाते ही अपना फन  उठा देती हैं...

मुझे अच्छी तरह याद है मैं गणित पढने अपने गांवं की  एक हरिजन बस्ती में एक कुशाग्र छात्र रामसेवक के पास जाता था ...जो आजकल दिल्ली में दूर संचार विभाग के एक आला अफसर हैं ..मेरे मन  में कहीं कोई भाव नहीं था ...पिता जी को कुछ पुरनियों  ने टोका भी कि आपका लड़का बर्बाद हो गया है जो चमरौटी में पढने जाता है ..मेरी जब आयेदिन जोरदार शिकायत होने लगी तो एक दिन मैंने सुना पिता जी सख्त अंदाज में कह रहे थे-वह वहां शिक्षा  लेने जाता है और शिक्षा कहीं से भी ,जहां  से भी मिले लेने में कोई बुराई नहीं है ....मैं रामसेवक जी का क़र्ज तो इस जन्म में चुका नहीं पाऊंगा जिनकी बदौलत ही मैं गणित में हाईस्कूल में पास हो सका ...बचपन से ही मेरे मन में जातिपात को लेकर कोई द्वैत  भाव नहीं रहा और अपनी विश्वविद्यालयी शिक्षा तक मेरे मन में  जातिपात-विचार आते ही नहीं थे....मगर नौकरी पाने के बाद मुझे गहरे आघात लगे जब सेवा में मुझसे कनिष्ठ (हरिजन) साथी  को दो प्रोन्नतियां  दे दी गयीं -और अनेक मेरे सहधर्मी भी इसी पीड़ा से गुजरे और गुजर रहे हैं ....पहली बार लगा, ब्राह्मण होना गुनाह है ! मैं हरिजन होता और  मुझे इसमें कोई उज्र न तब था न आज है तो मैं भी निश्चित ही और  ऊंचे पद पर होता ....यह एक जातिवादी राजनीतिक आरक्षण  नीति थीं जिसने योग्यता पर जाति का पहरा बैठा दिया .

मुझे आज भी जाति पात पसंद नहीं है ..मैं योग्यता का लिहाज करता हूँ ,सम्मान करता हूँ .यदि ब्राह्मण के घर पैदा होकर भी कोई ज्ञान के प्रति और जीवन के अच्छे मूल्यों के प्रति   आग्रही नहीं है तो मैं उसे कोई तवज्जो नहीं देता और हरिजन यदि विद्वान हो तो उसके चरण भी छूने  में मुझे कतई संकोच  नहीं है ...मगर राजनीतिक कारणों से जाति पर बार बार मुहर लगाते जाना मुझे कष्ट पहुंचाता है -इससे हम बट रहे हैं .राजनीति की बिसात पर सामाजिक सामंजस्य और समरसता की ऐसी की तैसी हो रही है ....जिन प्रतिगामी मूल्यों को हम भूल चले थे वे अब और प्रबलता  के साथ हम पर हावी हो  रही हैं ..इस विषैले माहौल से बंचने का कोई रास्ता है क्या ? 

जातिगत सोच का एक घिनौना रूप हमारे सामने है - आज बेचारी बच्चियां इसलिए मार दी जा रही हैं कि उन्होंने किसी गैर जाति के प्रेमी से मन लगा लिया ....क्या हम तनिक भी सभ्य हुए हैं ? जातिगत चिंतन हमारे समाज को ले डूबेगा ....इसके मूलोच्छेदन की जरूरत है न कि इसे प्रोत्साहित करने की .....व्यक्ति अच्छा बुरा हो यह हमारा मापदंड होना चहिये जाति तो कदापि नहीं  -व्यक्तिगत श्रेष्ठता ही अभीष्ट हो हमारा, हर आकलन और पैमाने पर, मुझे किसी ऐसे ही समाज की प्रतीक्षा रहेगी ......आईये इसलिए हम मिलकर  कदम बढायें ...



शनिवार, 15 मई 2010

बंगलूरू की एक जीवंत और यादगार शाम कर दी प्रवीण जी ने हमारे नाम .....

हम तो गए थे  बेटे के एक संस्थान में दाखिले के चक्कर में -मतलब गए तो थे कपास ओटने  और  अनुभव हो गए अनिर्वचनीय हरि मिलन  के ..यह भाग्य कहिये (जो अपुन के मामले में ज़रा दुबला पतला ही रहा है ) या फिर ऋषि पुरुषों का पुण्य प्रताप कि  इस बार मेरी रेल यात्रा तो निरापद और निर्विघ्न रही ही( घोर आश्चर्य ..!)  , बंगलूरू का  यह अल्प  प्रवास भी यादगार बन गया .इसका श्रेय बिना लाग लपेट के एक ऋषि  -व्यक्तित्व को ही है -प्रवीण पाण्डेय जी को जो इन दिनों कहीं एक और विश्वामित्र की भूमिका में दिख रहे हैं . इस ऋषि -पुरुष का ही प्रताप रहा कि मेरी कोई  ट्रेन (संघमित्र सुपर फास्ट ) जीवन में पहली बार निर्धारित  समय से पहले प्रस्थान के स्टेशन (मुगलसराय )पर  आई और समय के पहले ही गंतव्य (बंगलूरू ) तक  पहुँच गयी ....मानो प्रवीण जी पूरी अवधि ट्रेन पर नजर रखे हुए हों ..और वापसी यात्रा भी एक पुस्तकीय सटीकता लिए इसी ट्रेन से संपन्न हुई ! इसे आप क्या कहेगें -महज एक संयोग? या फिर एक  ऋषि का पुण्य प्रताप ?  हम बंगलौर स्टेशन के ही माईलस्टोन  रेल यात्री विश्राम गृह में रुके ,सौजन्य प्रवीण जी का ही  -जब कोई ब्लॉगर ही हो रेल -कोतवाल तो फिर चिंता  काहें की  ....और फिर आई वह शाम -१० मई ,१० की शाम जो बंगलूरू के एक ब्लॉगर मीट के नाम सुनहरे यादगार का पल सजों गयी   ....
 चाय की प्याली और ब्लागिंग का तूफ़ान 

प्रवीण जी के चित्रों में उनकी आखों की  चमक मन में गहरे उतरती है ..बंगलूरू जाने की संभावना बनते ही यह संकल्प पक्का  हो गया  कि  मन को संस्पर्शित करने वाली आँखों वाले इस ब्लॉगर से जरूर मिलना है ...बंगलूरू का कपास  ओटना जैसे ही पूरा हुआ  मैंने प्रवीण जी को सूचित किया ..ठीक पांच बजे उनकी कार आ गयी हमें लेने -और अगले ही कुछ पलों में हम उनके आफिस में पहुंच गए ...बड़े अफसर का बड़ा आफिस --इहाँ  कहाँ ब्लॉगर का वासा ? मेरी चोर दृष्टि यही भाप रही थी ..मैंने विजिटिंग कार्ड चपरासी को थमाया ..जो ब्लॉगर के लिए नहीं बल्कि एक अफसर को इम्प्रेस करने के लिए  टेलर मेड है मगर मानों वहां एक ब्लॉगर ही पलक पावडे बिछाए  राह तक रहा था ...प्रवीण जी कुछ ऐसे  लपक कर मिले कि  रंभाती गाय का  अपने बछड़े से मिलन या  अपने नाटी इमली के भरत मिलाप की याद हो आई ....हम सहमे सकुचाये ही रहे ...थोडा सहज और  थोडा असहज सा , एक आला अफसर  और एक ब्लॉगर का फर्क भापते रहे ...बहुत शीघ्र ही असहजता की दीवारे ढह गयीं ..और दो ब्लॉगर मुखातिब हो गए ....
 ब्लॉगर प्रवीण जी का छोटा,प्यारा परिवार 

आफीसर के  कक्ष और वहां की आबो हवा  में तो अफसरी थी ही ..जो नाश्ते पानी के रूप में भी दिखी ..जोरदार नाश्ते के बाद   हम जल्दी ही ब्लॉगर प्रवीण जी के घर में सुशोभित होने चल पड़े ....दरवाजे पर पद -पनहियाँ उतारी गयीं ...कोई स्पष्टीकरण की दरकार नहीं थी मगर प्रवीण जी ने इस शिष्टाचार के बारे  में विनम्रता के साथ कुछ बताया भी ..और यह तो एक अच्छी सी शिष्ट परम्परा है -हायिजिन के नाते भी....घर में बच्चे दौड़े आये पापा से मिलने ...देवला और पृथु ....और ब्लॉगर की प्रेरणा ...प्रशस्त लेखनी की अजस्र ऊर्जा  -स्रोत श्रीमती श्रद्धा पांडे जी भी ....अरे यहाँ पापा के साथ दो जन और ? पृथु तो अपनी बाल सुलभ कुतूहल रोक नहीं पाए और भोलेपन से पूछ ही  बैठे ,आप लोग रात में यही रुकेगें क्या ? एक पल तो हम  असहज से हो उठे पर अगले ही पल ठठा  कर  हँसे ....प्रवीण जी ने भी ठिठोली की ..हाँ बेटे ये तुम्हारे कमरे में ही रुकेंगे .....सशंकित पृथु तो खिसक लिए मगर देवला हमारा सूक्ष्म बाल सुलभ आकलन  करती रहीं -और जब आश्वस्त हो गयीं तो अपना आर्ट बुक लाईं हमारे निरीक्षण के लिए और अपनी गुडिया  भी मिलाने लाईं जो उनकी ही तरह  भोली भाली क्यूट सी सुन्दर थी ....फिर दो ब्लॉगर मशगूल हो गए अपनी चर्चाओं में ....
 गुजरी खूब जब मिल बैठे ब्लॉगर दो 

मुझे सहसा ही  आभास हुआ कि श्रद्धा  जी भी आ गयीं थीं ब्लागरों की बातों को सुनने और फिर जल्दी ही सक्रिय भागेदारी भी हो गयी उनकी हमारी चर्चाओं में  ..यह मेरे लिए एक अलग अनुभव सा था ..सामान्यतः ब्लॉगर पुरुषों की सहचरियां ब्लॉग चर्चाओं से दूर रहती हैं और कहीं  कहीं तो अलेर्जिक भी ....मगर यहाँ  तो आलम ही दूसरा था ...प्रवीण जी को यह स्वीकारोक्ति करने में देर नहीं लगी कि ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग पर  बुधवासरीय उनकी पोस्टों की पहली पाठक वही हैं और बिना उनके अनुमोदन के कोई भी पोस्ट प्रकाशित नहीं होती ...यह हुई न कोई बात ..मैंने श्रद्धा जी को नारी समूह से अलग विशिष्टता प्रदान करती   इस खूबी के लिए तुरंत बधाई देने का मौका नहीं गवाया! जो पति की ब्लागरी में सहयोग करे ऐसी श्रेष्ठ नारियां कितनी कम हैं न इस संसार में .....

प्रवीण जी के बारे में हमने तय पाया कि उनका हम ब्लाग जन अब तक महज "टिप ऑफ़ आईस बर्ग " जैसा ही परिचय प्राप्त कर पाए हैं ..एक आत्ममुग्ध ब्लॉगर ने अभी कहीं कमेन्ट किया कि ' प्रवीण जी आप कवितायेँ भी अच्छी लिखने लगे हैं " अब उन्हें क्या पता कि प्रवीण जी एक पक्के कवि और  जन्मजात कवि ह्रदय दोनों  हैं .....उनकी अब तक की २०० से ऊपर की कवितायें एक संकलन के प्रकाशन का बाट जोह रही हैं ,,मगर विनम्रता ऐसी कि उन्हें लगता है कि अभी संकलन के योग्य उनकी कवितायें नहीं हुईं .....मैंने उनसे जिद कर उनकी भीष्म कविता का सस्वर पाठ सुना .....कोई भी एक नजर में देख सुन सकता है कि ऐसी भाषा ,भाव और शिल्प की रचना नौसिखियेपन की देन   नहीं हो सकती ....प्रवीण जी ब्लागिंग की तीव्र और तीव्रतर होती प्रोद्योगिकी के भी साथ हैं ...इनस्क्रिप्ट आफलाइन हिन्दी टाईपिंग उनका प्रिय शगल है -उनका मोबाईल माइक्रोसाफ्ट वर्जन के सार्थ हिन्दीयुक्त है और लैपटाप और मोबाईल का  कंटेंट -विनिमय सहजता से होता है ...प्रवीण जी  बहुत अच्छा गाते हैं -बिलकुल किशोर दा की आवाज ...मैंने उनके गानों की साउंड ट्रैक पर इनका गायन सुना -मंत्रमुग्ध हुआ ....कितनो की तो छुट्टी कर सकते हैं महाशय ....मगर विनम्रता भी आखिर कोई चीज होती है जो इस दंपत्ति में कूट कूट कर भरी है ....श्रद्धा जी रसायन शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुयेट  हैं और उनकी लैंडस्केपिंग में बड़ी रूचि है ..मुझसे एक आदर्श लैंडस्केपिंग प्लान में मछली के तालाब की जगह निर्ध्रारण और उसकी उपयोगिता पर जब उन्होंने चर्चा शुरू की तो लगा जैसे मैं एक विषयवस्तु विशेषग्य से बात कर रहा होऊँ -क्योंकि मुझे खुद एक विषय विशेषज्ञ की भाषा शब्दावली  अपनानी पडी थी ...बाद मे  उन्होंने बताया कि लैंडस्केपिंग मे उनकी रूचि महज एक अमेच्योर की ही है और अपने झासी प्रवास के दौरान उन्होंने कुछ ऐसे प्रयास किये थे...  मैंने उनसे आग्रह किया है कि वे भी ब्लागिंग का श्रीगणेश करें और मुझे पूरा विश्वास है कि वे निराश नहीं करेगीं ....मैंने उन्हें एक अप्रतिम प्रतिभा के सहचर का साथ मिलने के सौभाग्य पर  दुबारा बधायी दी ....
 गुडिया और खिलौने के साथ देवला

मेरा यह तीसरा बंगलौर भ्रमण था . इसके बंगलूरू होने के पहले दो लम्बे अंतरालों पर मैं एक बार १९७९  और फिर १९९३ में इस खूबसूरत शहर में आया था ...लेकिन तब के और अब के बंगलोर में बहुत बड़ा अंतर है -अब यह शहर जनसंख्या के भार से कराहता सा लगा  -हर जगह लम्बी लम्बी लाईने ,लोगों की उमड़ती भीड़ और साफ़ सफाई भी वैसी नही-साफ़ सफाई की मामले में समीपवर्ती मैसूर बाजी मार ले गया है ...बंगलौर रेलवे स्टेशनके यात्री जन सैलाब को देखकर तो मैं स्तंभित रह  गया
मैं आरक्षण / टिकट विंडो तक को देख तक नहीं सका वहां तक पहुँचने की बात तो दूर थी ....ये सारे कटु अनुभव दूर हो गए उस   यादगार  शाम के चलते जिसे प्रवीण जी ने हमारे नाम  कर दिया था ....बंगलूरू की यह जीवंत शाम कभी न भूल  पायेगें हम .....बतरस और सुस्वादु भोजन ...मनचाहे मित्र /ब्लॉगर ..सज्जन सत्संग  कितना दुर्लभ है न यह सब आज की इस उत्तरोत्तर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होती दुनिया में .....हम तो धन्य हुए ....
प्रवीण जी की कविता 'भीष्म 'उन्ही के स्वरों मे -

गुरुवार, 6 मई 2010

आक्रामक सेल्समैनशिप ....क्या आपने कभी इन्हें झेला है ?

सबसे पहले तो यह खेद प्रकाश कर दूं कि मैं सेल्समैनशिप के लिए कोई सुडौल सटीक शब्द नहीं ढूंढ पाया हूँ -आपके दिमाग में कौंधे  तो जरूर बताएं ....अब आईये विषय पर बतियायें! आज दफ्तर में एक फाईल में निमग्न यानि डूबा हुआ था कि अचानक कुछ अनकुस सा लगा ... शासनादेशों की भाषा वैसे ही काफी जटिल होती है ..इसलिए आँखे गड़ाए  एक लम्बे से  वाक्य को डिकोड कर रहा था कि अचानक आँखों के आगे एक काला सा परदा उभर आया और शब्द कुछ वैसे ही लोप हो गए जैसे राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है .भौचक सा मैं इस अचानक आई स्थिति को समझने को तैयार ही हो रहा था कि एक आकाशवाणी सी  हुई .....
"सर ये काटन के बेहतरीन मोज़े हैं केवल ६० रूपये जोड़े ..और आपके लिए ख़ास पेशकश .... हम  दे रहे हैं यह मास्क्विटो  क्वायल फ्री .." तो यह थी राहु की महादशा ,बाकायदा  आकाशवाणी के साथ ....तेज गुस्सा लगी ....यह जोकर  सरकारी दफ्तर और वह भी मेरी केबिन तक कैसे आ गया बेरोकटोक ....रिफ्लेक्स एक्शन में घंटी पर उंगली दबी और देखा तो चपरासी उसके पीछे ही असहज सा खडा था ...
" ये भीतर कैसे आये ."
" सर अचानक ये  दफ्तर में घुसते हुए आपके कमरे में घुस गए ..इसके पहले कि हम इन्हें रोक पाते ..." 
शासनादेश की व्याख्या तो गयी कूडे भाड़  में ....सोचा इन्ही सज्जन   से ही निपट लूं .....मैंने उन्हें समझाया कि जनाब शिष्टता का तकाजा यह होता है कि आपको मिलने और अपनी  यह जोरदार पेशकश करने के पहले मुझसे अनुमति लेनी थी ..और यह क्या तरीका है आपने मोज़े मेरी फाईल पर रख दिए ....जनाब के ऊपर मानो कोई फर्क ही नहीं पड़ा और वे अपने प्रोडक्ट प्रोमोशन का काम बदस्तूर जारी रखे रहे ....मुझे लगभग चीख कर उन्हें बाहर जाने को कहना पड़ा ...पता नहीं इन प्रोडक्ट कम्पनियों ने अपने इन गुर्गों को कोई शिष्टता  क्यों  नहीं सिखायी या फिर यह सामान बेचने का एक नया  आक्रामक कल्चर है कि उपभोक्ता पर हावी हो जाओ और उसे सामान  खरीदने के लिए  वैकल्पिक निर्णय का समय ही न दो .....यह कोई नई घटना नहीं है ..अभी उस दिन भयंकर   धूप में वाहन से उतर जैसे ही मैं अपने निवास का गेट खोल रहा था एक  देवी जी सहसा प्रगट हुईं  जिलेट का जुड़वा  आफर लेकर ...गेट पर ही अड़ गयीं ...ऐसे एंगल पर कि बिना उन्हें हटाये गेट  नहीं खुल सकता था .अब यह तो बड़ी असहज स्थति थी ....मुझे कुछ न कुछ तत्काल करना था ..आखिर थोड़ी बहुत लोक लाज बची है ..कोई भी देखता तो क्या सोचता और वे बार बार यही रट लगाये थीं कि  सर एक जोड़ा ये जिलेट का विशेष आफर जल्दी से लेकर मुझे उपकृत करें ..यहाँ महिलायें बाजी मार ले जाती हैं ..पुरुष सेल्समैन होता तो उसे धकिया कर गेट तो कम से कम खोला ही जा सकता था ..अब तक पूरी तरह  असहज और धूप से भागने के फिराक में मैंने ड्राइवर जो हतप्रभ सा  गधा अभी तक तमाशा देख रहा था को पास बुलाकर कहा  कि ये जो कुछ भी दे  रहीं हों लेकर आ जाओ  और लौट कर पैसा दे दो ...खैर  मुझे जिलेट रेज़र खरीदना भी था ...ऊपर आकर  ड्राइवर ने श्रीमती जी को सामान पकड़ाकर जब १७० रूपये माँगा तो जो बखेड़ा हुआ उसका जिक्र न ही किया जाय तभी अच्छा ..उन्होंने कहा कि वह सेल्सगर्ल कई दिनों से इसे बेचने के फिराक में थी और आज आप को बना ही दिया ...बहरहाल किसी तरह चिरौरी विनती करके उसके पैसे भिजवाये ...

 याद करिए आपको कुछ खरीदना है!
 एक सूटेड बूटेड सज्जन किसी की जन पहचान लेकर एक दिन आफिस आ धमके और लगे मेरी विद्वता की बखान करने और बाद में एक पोषाहार की सेल्समेन शुरू कर दिए -यह है एक अप्रत्यक्ष आक्रामकता जो भानाओं का शोषण कर अपना उल्लू सीधा करती  है -ऐसी सेल्समैनगीरी ज्यादा खतरनाक है .
मुखर और अप्रत्यक्ष आक्रामकता  उपभोक्ता सामानों के बेचने का नया फंडा है ..आये  दिन फोन पर भी बैंको के लोन  और पलिसीज लेने के आफर मधुर  मदिर वाणी मे आते रहते हैं .....बचपन के दिनों में गावों में बिसारतियों को टिकुली  तेल फुलेल की बिक्री करते देखा  करता था ....इन विक्रेताओं से  से गृहणियां ही निपटने में माहिर हैं ....तेल फुलेल टिकुली के बिसारती युग का एक नया आक्रामक ट्रेंड आ गया है ..भगवान बचाए इनसे ....मगर जिस तरह से जनसँख्या और उसी लहजे में बेरोजगारी बढ रही है कहीं हमें इन सेल्समैनों भले ही वे अशिष्ट क्यूं न हो रहे हों क्या  जरा नरमी से पेश नहीं आना चाहिए?  ...आखिर पापी पेट का सवाल है !

मंगलवार, 4 मई 2010

कस्बे में कांफ्रेंस!

बनारस से लखनऊ  राष्टीय राज मार्ग संख्या ५६ पर बनारस से १५० किमी दूर बसा है सुल्तानपुर शहर जो बड़े शहरों की तुलना में एक कस्बाई नगर ही लगता है ..मगर अभी परसों ही मुझे अपने एक स्वजन के हार्निया के लैपरोस्कोपिक सर्जरी के लिए वहां  जाना पड़ा तो एक विस्मयकारी अनुभव हुआ जो आपसे बाटना चाहता हूँ .चिकित्सको के पांच सितारा कांफ्रेंस और सेमिनारों से मैं परिचित हूँ और दूसरे राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों में भी शिरकत  कर चुका हूँ .जिनकी बिलकुल त्रुटिहीन प्रबंध और लाजिस्टिक्स से प्रभावित भी हुआ हूँ -मैं देखकर दंग रह गया कि सुल्तानपुर जैसे कस्बे में भी एक पांच सितारा प्रबंध की कांफ्रेंस चल रही है -खाने पीने का मीनू आदि की व्यवस्था बिलकुल टंच -ऐ ग्रेड की ....

 कांफ्रेंस -एक दृश्य 


मरीजो की सर्जरी के लिए दो आपरेशन थियेटर और आपरेशन करने वाले विख्यात सर्जन और आपरेशन की पल पल की जानकारी के लिए कांफ्रेंस हाल में ही दो बड़े हाई रिजोल्यूशन के मानीटर और वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये आडियेंस चिकित्सक  /सर्जन के बीच  समूह विवेचन -ऐसा लगा मैं किसी बड़े अन्तराष्ट्रीय स्तर के कांफ्रेंस में आ पहुंचा हूँ -यह है प्रौद्यगिकी का कमाल .जिन रोगियों के आपरेशन में महानगरों में लाख डेढ़ लाख  खर्च होना था यहाँ ४० हजार की सीमा में निपट जा रहा था ...कांफ्रेंस के दौरान ही एक ही दिन ३५ मरीजो की सफल सर्जरी की गयी ....एक हैंड्स आन कांफ्रेंस थी यह जिसमें प्रशिक्षु प्रतिभागी सीधे योग्य सर्जनो से लैपेरेस्कोपी के गुर और बारीकियां सीख रहे थे-एक पंथ दो काज!

बिना औजारों की कहाँ  सर्जरी ? एक स्टाल 
मेरे स्वजन का भी सफल आपरेशन हुआ और मैंने आद्योपांत पूरी सर्जरी  देखी -यह एक इन्सायिजिव हार्निया का केस था जिसमें कुछ वर्षों पहले के सीजेरियन आपरेशन के टाँके ठीक से न होने के चलते कालांतर में हार्निया की समस्या हो गयी थी -पेट के नीचे लैप्रास्कोपी के जरिये १५ गुणे १५ सेंटीमीटर की पालीप्रोपलीन जाली लगाई गयी -यह आपरेशन हार्नियोप्लास्टी कहा जाता है .सर्जरी की ये सुविधाएं अब गाँव कस्बों  तक पहुँच रही हैं -लगता है सबके लिए स्वास्थ्य का हमारा सपना जल्दी ही पूरा होगा .
 एक चिकित्सक टोली -मेरे मित्र डॉ .ऐ के सिंह सबसे बाएं और डॉ आर ये वर्मा बाएं से तीसरे 

मेरे सहपाठी रहे डॉ ऐ के सिंह एम एस और रूम मेट रहे डॉ आर ऐ वर्मा एम डी  (दोनों जार्जियन ) इस कांफ्रेंस  यूं पी सेल्सिकान २०१० के आयोजको में से थे. दवा  और औजार कम्पनियों का भी बड़ा जमावड़ा था जो निश्चित ही प्रायोजकों में रही होगीं .ऐसे आयोजनों का निश्चित ही एक व्यावसायिक पक्ष भी है मगर आम जनता के लिए तो इनसे राहत  ही है
.दो विशाल  मानीटर जहां पल प्रतिपल सर्जरी देखी जा रही थी ......

आपरेशन के दौरान सर्जन और प्रतिभागों चिकित्सकों के आपसी संवाद की एक बानगी  -

सोमवार, 3 मई 2010

अच्छे बुरे लोगों की मेरी आख़िरी पोस्ट

पसंद नापसंद और अच्छे बुरे लोगों पर यह आख़िरी यानि समापन पोस्ट है. एक बात तय है कि अच्छाई बुराई एक सापेक्षिक अवधारणा है -विद्वान् टिप्पणीकारों अली सा आदि ने इस विषय की विवेचना और एक निश्चित राय /विचार तक पहुचने में बड़ी मदद की है -व्यक्ति तो निजी  तौर पर पसंद नापसंद  किये जा सकते हैं मगर बुराई या अच्छाई का निर्धारण एक सामूहिक सोच के आधार पर ही होने की परम्परा रही है -कोई अगर अपराधी है तो समाज का एक बड़ा हिस्सा उसे अपराधी  समझता  है .अब ब्लॉग जगत में भी ऐसी प्रवृत्तियाँ दिख रही/चुकी  हैं जिनसे वह दिन दूर नहीं लगता जब यह सामूहिक निर्धारण भी होने लग जायेगा कि  अमुक अमुक ब्लॉगर तो सचमुच गन्दा आदमी /औरत है -और यह कुछ लोगों के मामलों में हो भी चुका है और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया चल रही है -इसलिए सभी को अपनी अपनी फ़िक्र हो जानी चाहिए -मुझे भी बहुत लोग नापसंद करते हैं और यह संख्या बढ़ती जा रही है ..आये दिन कोई न कोई मेरी खिलाफत की गोल में अपनी हाजिरी दर्ज कर रहा है .मगर मैं समूह की बात के बजाय अपने खुद के आकलन पर ज्यादा निर्भर रहता हूँ ....यद्यपि यह लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया के विरूद्ध एक विचार है ...


सबसे गंभीर विवेचन को आमंत्रित टिप्पणी जील /डॉ.दिव्या श्रीवास्तव की थी और उस पर एक पोस्ट लिखने को उकसाती /उत्प्रेरित करती टिप्पणी अल्पना वर्मा जी की थी ....दोनों विदुषियों ने  पिछली पोस्ट पर सब बातों को विस्तार से ला दिया है ,मगर मुझे भी जरूर कुछ कहना है ...मैं जैविकी का विद्यार्थी रहा हूँ -जबकि मेरे कुछ काबिल मित्र जैव  निर्धारण वाद के विरुद्ध है -मगर मैं जैविकी को सिरे से नहीं नकार सकता. मैं मनुष्य को एक पशु ही मानता हूँ -एक सांस्कृतिक पशु -और उसकी एक निश्चित जैवीय विरासत  है. अगर  नर नारी के एक दूसरे के तरफ पारस्परिक रुझान  की बात करें तो -यह मूलतः जैवीय ही हैं -प्रथम दृष्टि का प्रेम जैवीय ही है ....और यह मामला सीधे सीधे लैंगिक चयन से जुडा है ,चाक्षुष चयन  और नारियों के  मामले  में  चरण दर चरण जैवीय अवचेतन  आकलन कि यह बन्दा भावी संतति का बोझ उठाने के प्रति ईमानदार भी  है -आनाकानी तो नहीं करेगा - अवचेतन  तो इसी उहापोह में लगा रहता है ....कोर्टशिप के अगले चरणों के कई अवरोधों के पार होने के बाद ही कोई भाग्यशाली (या हतभाग्य! ) नारी के "पर्सनल स्पेस" तक पहुँच पाता है -जैवीय मूल्यांकन के उपरांत ही ....मनुष्य ने एक अलग ही सामजिक व्यवस्था बना ली है -शादी व्याह, वैश्यागमन  या जिगोलोज इस जैवीय मूल्याकन  के विरुद्ध की मानवीय व्यवस्थाएं हैं .यहाँ पर्सनल स्पेस को प्रगटतः पा जाने में कोई प्रतिरोध नहीं है ....मगर उन स्थतियों में जहां एक सीमा के बाद नर उपेक्षित या तिरस्कृत होता है वहां मुश्किल आने लगती है -वह पीछे नहीं हटना चाहता ....आखिर उसका भी तो समय संसाधन सब कुछ गवायाँ हुआ रहता है -मगर नारी का सहज बोध उसे नहीं स्वीकारता क्योकि उसके जैवीव संवेदी तंतु जवाब दे चुके हैं -वह एक अच्छा बाप नहीं होने जा रहा है ....यही बड़ी त्रासद  स्थति है -मनुष्य में यह लैंगिक चयन नारी के मामले  में भावी संतति /वंशबेलि के नैरन्तर्य से जुडा है -अब इस बात को लेकर इतना संवेदी हो जाना समझ में तो आता है मगर इसे एक रूग्ण मानस -भय तक की अभिव्यक्ति दे देना शायद   ठीक नहीं है ....मनुष्य एक समझदार प्राणी है -ठीक से बातें समझाई जानी चाहिए -ऐसी कोशिश नहीं होनी चाहिए कि आपके तनिक हडबडी के निर्णय से कोई और एक बुरा बन जाय -अल्पना  जी के अनुसार खून खच्चर न कर बैठे .....मैंने भी कभी किसी को समझाया  था ....उसने तो मान   लिया था -यह निर्भर करता है कि आप ईमानदार कितने हैं ? .......कभी दूर तक न जायं अगर आप गम्भीर नहीं हैं ....दो दिलों का खेल कैजुअल नहीं है ..इसे गंभीरता से लें अथवा शुरू ही न करें ...शुरू भी कर दिया तो फिर फूक फूक कर कदम रखें ...और जितना जल्दी हो वापस हो लें .....हर पग आगे बढाने के किये सौ बार सोच लें ...

पुरुष का नारी की ओर और नारी का पुरुष की ओर आकर्षण सहज है ,स्वाभाविक है मगर तनिक सावधानी अपेक्षित है .लड़कियां भी सहज ही पुरुषों की ओर आकर्षित होती हैं -पुरुष मनोहर निरखत नारी ....मगर यहाँ सावधानी अपेक्षित है ....शुरू के मोहक आकर्षण बाद के लफड़ों में बदलने लगते हैं ...मेरे एक ब्लॉगर मित्र ने कहा कि यार ये लडकियां भी अजीब होती हैं पहले तो खुद आगे बढ़कर गलबहियां डालती है और कुछ समय बाद   पहचानने से भी  इनकार करने  लगती हैं ....पुरुषों में भी ऐसे ही दृष्टान्त दिखने को मिलते हैं और बाद में अनेक परेशानियों और मानसिक संत्रास के कारण बनते हैं -इनकी ओर शुरू से ही जागरूक  होना चाहिए -आगे बढिए मगर सोच विचार कर -क्योकि उभय पक्ष उत्तरोत्तर  डिमाडिंग होने लगते है और एक सीमा के बाद कोई रोक टोक मुश्किले ला खडी करती है ....कुछ ही दिन पहले  का प्यारा अब आंख की किरकिरी बन जाता है -एक नया बुरा व्यक्तित्व समाजं में आ धमकता  है किसी के प्यार का ठुकराया  हुआ...और हाँ हर हाव भाव और मुद्राएँ लैंगिक आकर्षण वाली नहीं होतीं ,सब जानते हैं यह -बताने की जरूरत नहीं होती-कुछ भ्रम भी होता है तो जल्दी दूर हो रहता है .....

किसका दोष कहें इसमें ? कुदरत या आदमी .....मगर यह इश्यू तो है और लाखों जिंदगियां इसके चलते बर्बाद हो रही हैं ....


शनिवार, 1 मई 2010

मिलन के क्षण!

मिलन- विछोह ,पीड़ा  -आनंद ,निकटता  और दूरी की पारस्परिक विपरीत अनुभूतियाँ तो आनी जानी रहती हैं इस फानी जीवन में ..एक कब गयी और दूसरी कब आई इसका भी क्या लेखाजोखा रखा जाय ..बस यही समझ लीजिये कि अगर इन जोड़ों में से कोई एक साथ है तो दूसरा भी ताक लगाये बस आ पहुचने को तैयार है ..इसलिए महापुरुषों ने मनुष्य को हर स्थिति में उदासीन बने रहने के लिए निरंतर मानसिक अभ्यास करने की ताकीद की है ..सुख दुखे समा कृत्वा लाभालाभौ जयाजयः ..इन् पर हमारा वश नहीं है ...हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ .....दशकों से मैं इस प्रशिक्षण में पूरे आत्मानुशासन से लगने की कोशिश में लगा हूँ -पर  सफलता अब भी दूर लगती है -आज लम्बे समय बाद दिल्ली  से बेटी का  आगमन और आत्मीय डॉ शिवेद्र दत्त शुक्ल का  अमेरिका से आना और उनसे मिलने के क्षणों की  ऐसी ही  अनुभूतियाँ हुई हैं  ..आज मेरी कार्यालयींन   व्यस्तता भी पूरे चरम पर रही है ..मगर समय का यथा संभव यथेष्ट प्रबंध करके बेटी को स्टेशन से रिसीव करना और फिर आज ही कुछ घंटो  के अन्तराल से घर पर आये अपने बड़े धर्मभ्राता (साले ) से मिलने का सुख लाभ हुआ! 

 मिलन के क्षण ...मैं ,डॉ. शिवेंद्र शुक्ल  , श्रीमती आशा  शुक्ला ,श्रीमती संध्या मिश्रा ,पीछे प्रियेषा और कौस्तुभ 
डॉ .शिवेंद्र दत्त शुक्ल जी सपरिवार घर पर पधारे ...वे एक वी वी आई पी हैं .....प्रखर मेधा के धनी ...बी एच यू के गोल्ड मेडेलिस्ट और लीवरपूल विश्वविद्यालय से डाक्टरेट और इन दिनों मिसौरी   विश्वविद्यालय  अमेरिका में मेडिकल फार्माकोलोजी और फिजियालोजी में प्रोफ़ेसर और एक समर्पित शोधार्थी .....साथ में उनकी पत्नी और भाभी श्रीमती आशा शुक्ल भी आयीं ..हमने साथ में क्वालिटी क्षण जिए ..पूरे दो घंटे -१२ बजे  से २ बजे तक हाहा ठीठी हुई -अमेरिका ,मनरेगा ,अवतार (फिल्म ) ईजोफिजोजोकुल ज्वालामुखी से ब्रिटेन में कुहराम और हवाई आवागमन की बाधाओं आदि विषयों पर चर्चा होती रही ...हम सब बहुत आनंदित  हुए ...फिर वे अपने पैतृक निवास मिर्जापुर चले गए ...अभी भारत प्रवास १८ मई तक है ....इस बीच पत्नी का मायका भी जाना हो ही जायेगा --मायका मिलन पर तो एक अलग पोस्ट की गुंजायश है ...
                                                फोटो सेशन में एक पोज यह भी ....

'अज्ञेय ; जैसे विचारक और कवि ने क्षणवाद की बहुत सिफारिश की है -मनुष्य दरअसल क्षणों में जीता है ...क्षणों की सघनता में  जीता है -इसलिए कहा जाता है कि मिलन की घडी में  समय की लम्बाई नहीं अनुभूतियों की गहनता ज्यादा मायने रखती है ....मुझे भी लगता तो ऐसा ही है मगर क्या भारतीय मनीषा इस क्षणवाद के समर्थन में रही है -यहाँ तो लोग जीवन के बाद भी जीवन के मुन्तजिर हैं -इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में मिलन की चाह रखते हैं ...क्षण में ही नहीं समय की चिरन्तनता -वंश परम्परा और अपनी सुकीर्ति काया में  मृत्य के उपरान्त भी बने रहने की तमन्ना रखते हैं -एक नहीं चौरासी लाख योनिओं में भ्रमण का खाका खीचे बैठे हैं ....यहाँ क्षण भर को जी लेने के बाद निर्वाण की चाह किसे हैं ? बहरहाल आप कुछ चित्रों को देखें और इन सवालों पर भी गौर करें !

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